न्याय-मंदिर में प्रवेश करने के इच्छुक व्यक्ति को न्याय की प्रमुख कृतियों की भी संक्षिप्त जानकारी अवश्य होनी चाहिए, ताकि वह यथाशक्ति उनके अध्ययन में प्रवृत्त हो सके। वैसे तो जैन न्याय की सैकड़ों कृतियाँ उपलब्ध हैं, परन्तु यहाँ कतिपय प्रमुख कृतियों का ही संक्षिप्त परिचय लिखा जा रहा है। कृति के समक्ष कोष्ठक में उसके रचयिता और उनका समय दिया गया है।
(१) तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वामी, प्रथम शती)—यह ग्रंथ मूलत: न्याय का नहीं है, परन्तु इसमें न्याय के बीज भरे हैं, जो इसकी सर्वार्थसिद्धि (पूज्यपाद, ५वीं शती), तत्त्वार्थवार्तिक (अकलंक, ७वीं शती), तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (विद्यानंदि, ८वीं शती) आदि टीकाओं और न्यायदीपिका (अभिनव धर्मभूषणयति, शती) आदि स्वतंत्र ग्रंथों में पल्लवित-पुष्पित हुए हैं। इसका ‘प्रमाणनयैरधिगम:’ (१/५) सूत्र इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है।
(२) आप्तमीमांसा (समन्तभद्र, द्वितीय शती)—इसमें १० परिच्छेदों में विभक्त ११४ कारिकाओं के माध्यम से आप्त के स्वरूप का निर्णय किया गया है। इसमें स्याद्वाद की विशद व्याख्या उपलब्ध होती है। इस पर अष्टशती (अकलंक, ७वीं शती) और अष्टसहस्री (विद्यानंदि, ८वीं शती) जैसी गंभीर टीकाएँ उपलब्ध हैं।
(३) स्वयंभूस्तोत्र (समन्तभद्र, द्वितीय शती)—यद्यपि यह स्तुतिकाव्य है, परन्तु इसमें न्याय-पद्धति से दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें कुल १४३ पद्य हैं।
(४) युक्त्यानुशासन (समन्तभद्र, द्वितीय शती)—इसमें भी भगवान महावीर की स्तुति के माध्यम से विरुद्ध मतों का खंडन करते हुए समीचीन मत का प्रतिपादन किया गया है। इसमें ६४ पद्य हैं।
(५) सन्मतिसूत्र (सिद्धसेन, द्वितीय शती)—इसमें १६७ गाथाएँ या अग्रलिखित तीन काण्ड (अध्याय) हैं—नयकाण्ड, जीवकाण्ड और अनेकान्तकाण्ड। यह भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित है।
(६) सिद्धिविनिश्चय (अकलंक, ७वीं शती)—इसमें १२ प्रस्तावों (अध्यायों) में प्रमाण, नय और निक्षेप का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह अनन्तवीर्य आचार्य की टीका सहित भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है।
(७) न्यायविनिश्चय (अकलंक, ७वीं शती)—इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रवचन नामक तीन प्रस्तावों में कुल ४८० कारिकाएँ हैं। वादिराज सूरि (११वीं) की टीका (न्यायविनिश्चयविवरण’ के साथ यह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है।
(८) प्रमाणसंग्रह (अकलंक, ७वीं शती)—इसमें ८८ कारिकाओं के कुल ९ प्रस्ताव हैं, जिनमें प्रमाण, नय और निक्षेप का विशद विवेचन किया गया है। यह सिंधी ग्रंथमाला से प्रकाशित है।
(९) लघीयस्त्रय (अकलंक, ७वीं शती)—यह छोटे-छोटे ३ प्रकरणों का संग्रह है—१. प्रमाण-प्रवेश, २. नय-प्रवेश और ३. निक्षेप-प्रवेश, जिनमें कुल ७८ कारिकाएँ हैं। इस पर स्वोपज्ञवृत्ति के अतिरिक्त आचार्य प्रभाचन्द्र (११वीं शती) की ‘न्यायकुमुदचन्द्र’ नामक प्रसिद्ध टीका भी उपलब्ध होती है।
(१०) षड्दर्शनसमुच्चय (हरिभद्रसूरि, ८वीं शती)—इसमें ६ अधिकारों की ८७ कारिकाओं में बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक, मीमांसक और चार्वाक दर्शनों का मूलभूत परिचय दिया गया है। यह गुणरत्नसूरि (१५वीं शती) की संस्कृत टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है।
(११) स्याद्वादसिद्धि (वादीभसिंह, ८वीं शती)—इसमें १६ प्रकरणोें में विभाजित ६७० कारिकाओं में स्याद्वाद का विशद विवेचन है। यह पं. दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित और माणिकचन्द्र ग्रंथमाला मुम्बई से प्रकाशित है।
(१२) आप्तपरीक्षा (विद्यानंदि, ८वीं शती)—इसमें १२४ कारिकाएं १० प्रकरणों में विभक्त हैं, जिनमें ‘ईश्वर, कपिल, सुगम, परमपुरुष आदि आप्त नहीं हो सकते, अर्हन्त ही आप्त हो सकते हैं—इसे स्वोपज्ञवृत्ति सहित समझाया गया है। यह डॉ. दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित और वीर सेवा मंदिर, दिल्ली से प्रकाशित है।
(१३) प्रमाणपरीक्षा (विद्यानन्दि, ८वीं शती)—इसमें प्रमाण का लक्षण प्रमाण के प्रामाण्य की उत्पत्ति-ज्ञप्ति, प्रमाण के भेद-प्रभेद, विषय और फल का विस्तृत विवेचन है।
(१४) सत्यशासनपरीक्षा (विद्यानन्दि, ८वीं शती)—इसमें पुरुषाद्वैत, शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत, चित्राद्वैत, चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, भाट्ट, प्रभाकर और तत्त्वोपप्लव शासन की परीक्षा करके अन्त में अनेकांत शासन की भी परीक्षा की है।
(१५) नयविवरण (विद्यानन्दि, ८वीं शती)—यद्यपि इस नाम का कोई ग्रंथ विद्यानंदि ने नहीं लिखा है, परन्तु उनके ‘तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक’ के नय-संबंधी विवेचन को इस नाम से जाना जाता है। इसमें ११६ कारिकाएँ हैं, जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘नयचक्र’ के परिशिष्ट में दी गयी हैं।
(१६) न्यायावतार (सिद्धसेन द्वितीय, ९वीं शती)—इसमें ३२ कारिकाओं में प्रमाण और नय का विशद विवेचन है। इस पर सिद्धर्षि गणी की संस्कृत टीका भी उपलब्ध होती है। यह श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगास से प्रकाशित है।
(१७) आलाप-पद्धति (देवसेन, १०वीं शती)—यह एक अत्यन्त लघुकाय परन्तु अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है जो संस्कृत-गद्य में रचित है। इसमें सारगर्भित १६ अधिकार हैं—द्रव्य, गुण, पर्याय, स्वभाव, प्रमाण, नय, गुण-व्युत्पत्ति, पर्याय-व्युत्पत्ति, स्वभाव-व्युत्पत्ति, एकान्तदोष, नययोजना, प्रमाणकथन, नयलक्षण, निक्षेप, नयों के भेद और अध्यात्मनय। यह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘नयचक्र’ के परिशिष्ट में उपलब्ध है।
(१८) परीक्षामुखसूत्र (माणिक्यनंदि, ११वीं शती)—यह जैनन्याय का प्रथम सूत्र ग्रंथ है और जैनन्याय में प्रवेश हेतु उपयोगी जानकर प्राय: सर्वत्र पाठ्यक्रमों में निर्धारित है। इसमें ६ परिच्छेद और २१२ सूत्र हैं जिनमें प्रमाण और प्रमाणाभास का विशद विवेचन किया गया है। इस पर प्रमयेकमलमार्तण्ड (प्रभाचन्द्र, ११वीं शती), प्रमेयरत्नमाला (लघु अनन्तवीर्य, १२वीं शती), प्रमेयरत्नालंकार (भट्टारक चारुकीर्ति, १८वीं शती), न्यायमणिदीपिका (अजितसेन, १८वीं शती), अर्थ प्रकाशिका (विजयचन्द्र) और प्रमेयकण्ठिका (शान्तिवर्णी) नामक संस्कृत-टीकाएँ उपलब्ध हैं और हिन्दी में भी अनेक वचनिकाएँ और व्याख्याएँ लिखी गयी हैं। ‘परीक्षामुख’ का अर्थ है—न्याय का प्रवेशद्वार। यह कृति न्याय में प्रवेश हेतु सर्वोत्तम मानी जाती है।
(१९) प्रमाणनिर्णय (वादिराजसूरि, ११वीं शती)—यह संस्कृत-गद्य में रचित और ३ मुख्य अध्यायों में विभाजित है-प्रमाणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय और परोक्षनिर्णय। परोक्षनिर्णय के पुन: दो भाग हैं—अनुमाननिर्णय और आगमनिर्णय। यह डॉ. सूरजमुखी जैन द्वारा सम्पादित और अनेकांत ज्ञानमंदिर बीना से प्रकाशित है।
(२०) द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र (माइल्लधवल, १२वीं शती)-यह ४२५ गाथाओं में निबद्ध प्राकृत का सुन्दर ग्रंथ है, जिसमें नय का विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध होता है। पं. कैलाशचंद्र शास्त्री द्वारा सम्पादित यह ग्रंथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। नयचक्र नाम के दो अन्य ग्रंथ मल्लवादी (६वीं शती) और देवसेन (१०वीं शती) द्वारा रचित भी उपलब्ध होते हैं।
(२१) प्रमाणमीमांसा (हेमचन्द्रसूरि, १२वीं शती)-यह सूत्र-शैली में रचित और स्वोपज्ञवृत्ति सहित है, परन्तु अपूर्ण है। इसमें दो ही अध्याय उपलब्ध होते हैं। प्रथम अध्याय में दो आह्निक हैं और द्वितीय अध्याय में प्रथम आह्निक भी अपूर्ण ही है। अपूर्ण होते हुए भी इसमें प्रमाण संबंधी विवेचन लगभग पूर्ण हो गया है। यह सरस्वती पुस्तक भण्डार, हाथी खाना, रतनपोल, अहमदाबाद से प्रकाशित है।
(२२) स्याद्वादमंजरी (मल्लिषेण, १४वीं शती)-यह आचार्य हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती) की कृति ‘अन्ययोगव्यवच्छेदिका’ की विस्तृत टीका है। इसमें भगवान् महावीर की स्तुति के माध्यम से स्याद्वाद सिद्धान्त का सुन्दर विवेचन किया गया है।
(२३) न्यायदीपिका (अभिनव धर्मभूषण यति, १५वीं शती)-यह जैन-न्याय में प्रवेश करने हेतु सबसे प्रारंभिक पुस्तक मानी जाती है और इसीलिए प्राय: सर्वत्र पाठ्यक्रम में भी निर्धारित है। यह अत्यन्त सरल-सुबोध संस्कृत-गद्य में रचित है और इसमें तीन प्रकाश हैं-प्रमाणसामान्यप्रकाश, प्रत्यक्षप्रकाश और परोक्षप्रकाश। यह डॉ. दरबारीलाल कोठिया द्वारा सम्पादित और वीरसेवा मंदिर द्वारा प्रकाशित है।
(२४) सप्तभंगीतरंगिणी (विमलदास, १८वीं शती)-यह संस्कृत-गद्य में रचित महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें सप्तभंगों का विशद विवेचन उपलब्ध होता है। यह श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगास से प्रकाशित है।