हर विषय की अपनी पारिभाषिक शब्दावली होती है। जैन न्याय की भी है। अत: यदि जैन दर्शन के न्याय-ग्रंथों के अध्ययन से पूर्व इस पारिभाषिक शब्दावली को पढ़-समझ लिया जाये तो बहुत लाभ हो सकता है।
न्याय-जिसके द्वारा वस्तु-स्वरूप का सम्यक् ज्ञान हो, उसे न्याय कहते हैं।
उद्देश्य-जिस वस्तु का विवेचन करना हो उसका नाम मात्र कथन करना ही उद्देश्य है।
लक्षण निर्देश-निर्दोष लक्षण को बतलाने का नाम लक्षण निर्देश है।
अव्याप्ति-लक्ष्य के एकदेश में ही पाये जाने को अव्याप्ति कहते हैं।
अतिव्याप्ति-लक्ष्य और लक्ष्य के बाहर अलाक्ष्य में भी पाये जाने का नाम अतिव्याप्ति है।
असम्भव-लक्ष्य में सर्वथा न पाये जाने का नाम असंभव है।
लक्षण-परस्पर मिली-जुली अनेक वस्तुओं में से एक अभीष्ट वस्तु को अलग कर देने वाले हेतु (चिन्ह विशेष) को लक्षण कहते हैं।
परीक्षा-परस्पर विरुद्ध अनेक युक्तियों की प्रबलता एवं दुर्बलता का निर्धारण करने के लिए सावधानीपूर्वक जो विचार किया जाता है, उसे परीक्षा कहते हैं।
प्रमाण-जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व को एकदम सही रूप में जाना जाता है, पहचाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं।
समारोप-संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का सामूहिक नाम समारोप है।
संशय-विरुद्ध अनेक कोटियों को स्पर्श करने वाला ज्ञान संशय है।
विपर्यय-विपरीत एक कोटि को स्पर्श करने वाला ज्ञान विपर्यय है।
अनध्यवसाय-‘कुछ है’—इस प्रकार के अनिश्चयात्मक ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं।
प्रत्यक्ष प्रमाण-विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष-जो ज्ञान इन्द्रियोें और मन की सहायता से होता है, उसे लोकव्यवहार में प्रत्यक्षरूप से प्रसिद्ध होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष-सर्वत: निर्मल ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं।
विकल प्रत्यक्ष-जो कुछ ही पदार्थों को विषय करता है, वह विकल प्रत्यक्ष है।
सूक्ष्म-जो स्वभाव से विप्रकृष्ट (दूर) हों, उन्हें सूक्ष्म कहते है। जैसे—परमाणु आदि।
अन्तरित-जो काल से विप्रकृष्ट (दूर) हों, उन्हें अन्तरित कहते हैं। जैसे—सुमेरु पर्वत आदि।
परोक्ष प्रमाण-अविशद (अस्पष्ट, अनिर्मल) ज्ञान को परोक्ष प्रमाण कहते हैं।
स्मृति-जो ज्ञान पूर्वानुभूत वस्तु को ‘वह’ इस रूप से विषय बनाता है, उसे स्मृति कहते हैं।
प्रत्यभिज्ञान-जो ज्ञान प्रत्यक्ष दर्शन और स्मृति के संकलन (जोड़) रूप होता है, उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं।
तर्क-व्याप्ति के ज्ञान को तर्क कहते हैं।
व्याप्ति-साध्य और साधन में गम्य-गमक भाव को बतलाने वाले सुनिश्चित संबंध को ही व्याप्ति कहते हैं। जैसे—धुएँ की अग्नि के साथ व्याप्ति है।
अविनाभाव-अविनाभाव का अर्थ है—साध्य के बिना साधन का न होना।
अनुमान-साधन (या हेतु) से साध्य का ज्ञान होना अनुमान है।
हेतु (साधन)-जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (अविनाभाव) हो, उसे साधन कहते हैं।
साध्य-साध्य शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्ध होता है। इन्हें क्रमश: अबाधित, इष्ट और अप्रसिद्ध भी कहते हैं।
प्रमेय-जो प्रमाण के द्वारा जाना जाये, उसे प्रमेय कहते हैं।
अन्वय-जहाँ साध्य के साथ साधन की व्याप्ति दिखाई जावे, वह अन्वय दृष्टान्त है।
व्यतिरेक-जहाँ साध्य के अभाव में साधन का अभाव दिखाया जावे, वह व्यतिरेक दृष्टान्त है।
आप्त-जो वीतराग (मोह-राग-द्वेष आदि दोषों से रहित), सर्वज्ञ और परम हितोपदेशक हो, वही आप्त है।
आगम-आप्त के वचनों से होने वाला अर्थज्ञान आगम है।
प्रमाणाभास-जो प्रमाण नहीं है, पर प्रमाण जैसा प्रतीत होता है। अथवा प्रमाण माना जाता है, उसे प्रमाणाभास कहते हैं।
अनुमानाभास-जो अनुमान नहीं, पर अनुमान जैसा प्रतीत होता है अथवा अनुमान माना जाता है, वह अनुमानाभास है।
हेत्वाभास-जो हेतु नहीं है, पर हेतु जैसा प्रतीत होता है, उसे हेत्वाभास कहते हैं।
नय-प्रमाण द्वारा परिगृहीत वस्तु के एक देश (अंश, भाग, गुण, धर्म, पक्ष, आयाम) को जानना या कहना नय है।
निक्षेप-वस्तु को किस रूप से जाना जाये, उसे निक्षेप कहते हैं। निक्षेप की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु चार प्रकार की है-नामरूप, स्थापनारूप, द्रव्यरूप और भावरूप।
नयाभास-जो नय नहीं है, पर नय जैसा प्रतीत होता है, उसे नयाभास कहते हैं। तात्पर्य यह है कि नय प्रमाणपरिगृहीत वस्तु के एक देश को ग्रहण करता है अत: वस्तु के एक पक्ष का कथन करते हुए भी उसके अपर पक्ष का निराकरण नहीं करता, मात्र उसे गौण करता है, परन्तु नयाभास उस अपर पक्ष का निराकरण या अभाव ही कर देता है। नय और नयाभास में यही मूल अन्तर है।