जैन तत्त्व विद्या, ज्ञानमीमांसा, आचारशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र आदि विषयों के अतिरिक्त जैन आचार्यों ने न्यायशास्त्र के क्षेत्र में भी प्रचुर श्रेष्ठ साहित्य की रचना की है। वह साहित्य नि:संदेह समग्र भारतीय न्यायशास्त्र या तर्कशास्त्र की अमूल्य निधि के रूप में प्रतिष्ठाप्राप्त है, सर्वज्ञ-वाणी, परम सत्य व स्वत:प्रमाण है। कोई भी सम्यग्दृष्टि जैन श्रावक उसमें संदेह नहीं करता। ‘न्यायविद्या’ का प्रयोग संदेह-निराकरण के लिए होता है, स्वत: निर्णीत पदार्थ में नहीं।
न्यायविद्या’ से तात्पर्य उस शास्त्र से है, जिसके द्वारा किसी वस्तु या किसी तत्त्व की युक्ति व प्रमाण के माध्यम से परीक्षा करते हुए, उसकी सत्यता या असत्यता का निर्णय तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। उक्त प्रक्रिया द्वारा निर्णीत सिद्धान्त को भी ‘न्याय’ कहा जाता है। इसी न्यायविद्या को आन्वीक्षिकी भी कहा जाता रहा है।
चूँकि इस शास्त्र में तत्त्व-निर्णय का प्रमुख आधार युक्तिसंगत प्रमाण होता है इसलिए इसे ‘प्रमाणशास्त्र’ भी कहा जाता है। चूँकि ‘तर्क’ (युक्तिपूर्वक विचार-विमर्श आदि) ‘प्रमाण’ का अनुग्राहक होता है इसलिए इसे ‘तर्कशास्त्र’ या ‘तर्कविद्या’ भी कहा जाता है। प्रमाणों में अनुमान प्रमाण की विशिष्ट उपादेयता मानी गयी है क्योंकि जहाँ प्रत्यक्ष प्रमाण वर्तमानकाल का ही ज्ञान कराता है वहाँ अनुमान प्रमाण भूत-भावी-वर्तमान, तीनों काल के पदार्थों का बोध कराता है।
अनुमान-प्रमाण का शरीर (प्रतिज्ञा आदि) पाँच अवयवों वाला अनुमान-वाक्य होता है अत: ‘पंचावयव वाक्य’ को भी, जो समस्त प्रमाणों का समवेत रूप होता है, ‘परम न्याय’ कहा जाता है।
प्रत्येक मानव में तर्कणा शक्ति होती है, जिससे वह लोक-व्यवहार में हेय-उपादेय का निर्णय करता है, कुछ अज्ञात व अदृश्य वस्तु के सद्भाव का अनुमान भी कर लेता है। अनपढ़ व्यक्ति भी अपने पूर्व अनुभव के आधार पर आकाश में बादलों की घटा देखकर वर्षा होने का तथा नदी में आई बाढ़ से कहीं अन्यत्र वर्षा होने का बोध भी कर लेता है। इसी तर्कणा शक्ति का व्यवस्थित विकास करने की दृष्टि से महर्षि गौतम व महर्षि कणाद ने क्रमश: न्याय व वैशेषिक दर्शन जैसे व्यवस्थित शास्त्र को प्रस्तुत किया। ये दोनों दर्शन भारतीय न्यायशास्त्र या तर्कशास्त्र के आधारभूत माने जाते हैं।
इनमें प्रमाण का स्वरूप, उसके भेद, ज्ञान की प्रक्रिया, प्रमाणाभास, प्रमेय या पदार्थ का स्वरूप और उनकी संख्या या भेद, तत्त्वचर्चा या तत्त्वनिर्णय हेतु वाद-प्रतिवाद तथा उसमें होने वाली जय या पराजय का आधार आदि-आदि विषयों पर परवर्ती व्याख्याकारों ने विस्तृत निरूपण किया है, जो भारतीय न्यायविद्या की प्रमुख निधि है। इन दर्शनों का उद्घोष था कि तर्क और प्रमाणाधारित ज्ञानात्मक निर्णय—ये दोनों लोकव्यवहार में उपयोगी हैं और इनके द्वारा प्राप्त तत्त्वज्ञान से नि:श्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। इस प्रकार यह न्यायविद्या समस्त कर्मों में उपायभूत है, समस्त धर्मों का आश्रय है, सभी विद्याओं की प्रकाशिका है।
जैन परम्परा में ‘न्यायविद्या’ को पूर्ण समादर प्राप्त हुआ है। जैन पुराणों के अनुसार न्यायशास्त्र का सद्भाव चक्रवर्ती की ‘काल’ नामक निधि से माना जाता है। तिलोयपण्णत्ति के अनुसार यह न्यायविद्या तत्त्वज्ञान में सहायक तथा रत्नत्रय का कारण भी है। आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृत में आन्वीक्षिकी को अध्यात्म-क्षेत्र में कार्यकारी माना है।
जैन परम्परा हो या वैदिक परम्परा, उसके अपने-अपने आगम शास्त्र हैं। जैसे—वैदिक परम्परा में वेद (उपनिषद, स्मृति आदि) और जैन परम्परा में द्वादशांग जिनवाणी। जिनवाणी चूँकि सर्वज्ञ की वाणी है अत: वह स्वत:प्रमाण है, सत्य है, यथार्थ है। उसमें प्रतिपादित समस्त तत्त्व भी यथार्थ हैं। उनकी परीक्षा किन्हीं युक्तियों या प्रमाणों से करना क्या उचित है ? वैसा करना सर्वज्ञ-वाणी पर संदेह करना मिथ्यात्व का सूचक होगा। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था। इस प्रश्न पर जैन आचार्यों ने क्या ऊहापोह किया ? किया था तो किस आधार पर या किस कारण से जैन परम्परा में न्यायविद्या को प्रतिष्ठा मिली ? इस विषय पर प्रकाश डालना यहाँ प्रासंगिक होगा।
अब जैन परम्परा में तर्क की स्थिति को समझें। यहाँ भी वैदिक परम्परा जैसी ही स्थिति रही। यहाँ यह मौलिक मान्यता थी कि जिनागम परम प्रमाण हैं। सच्चे जैन को इन पर कभी कोई शंका ही नहीं होती, यद्यपि इनकी प्रत्यक्ष से एवं किसी साधक लिंग (हेतु) से उपलब्धि नहीं होती। कोई भी सूत्र या आगम अप्रमाण (अप्रमाणित) नहीं हो सकता अन्यथा उसकी सूत्रता या आगमता ही नहीं रहेगी। सर्वज्ञ के (आर्ष) वचन की स्वत: प्रमाणता इसलिए है कि एक तो वह वस्तु-स्वभाव का निरूपण करता है और स्वभाव तर्क-गोचर नहीं होता। दूसरा कारण यह है कि वह स्वयं (केवलज्ञान द्वारा) प्रत्यक्ष करके निरूपित हुआ है। वस्तुत: आगम के उपदेष्टा जिनेन्द्र कभी असत्यवादी नहीं हो सकते, हेतु या तर्क से उन पर आक्षेप नहीं किया जा सकता। जिनेन्द्र द्वारा जो भी कहा गया है, वह उसी रूप में आज्ञा के रूप में ग्राह्य है। जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों, विशेषकर अतीन्द्रिय पदार्थों की सत्यता व यथार्थता असंदिग्ध है किन्तु छद्मस्थ व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त तर्क कभी जिनवाणी के विरुद्ध भी जा सकता है, ऐसी स्थिति में तर्क का प्रयोग स्वत: अनुपादेय, अस्वीकार्य हो जाता है। धवलाकार की स्पष्ट उद्घोषणा थी कि आगम ‘तर्क’ से अगोचर हैं। चूँकि तर्क को बुद्धि-कौशल से किसी भी तरफ मोड़ा जा सकता है, पक्ष में भी और विपक्ष में भी, इसीलिए कहा गया है—तर्कोऽप्रतिष्ठ: अर्थात् तर्क प्रतिष्ठा योग्य नहीं।
अत: धवलाकार ने अपना यह स्पष्ट मन्तव्य दिया कि अतीन्द्रिय पदार्थों में छद्मस्थ व्यक्तियों द्वारा किया गया विकल्प (तर्क) सदा जिनागम का अविसंवादी (अविरोधी, समर्थक) ही हो—यह नियम नहीं (अर्थात् तर्क कभी जिनागम के विरोधी भी हो सकते हैं)। चूँकि यह सिद्धान्त है कि युक्ति या तर्क जिनवाणी को बाधित नहीं कर सकते इसलिए जिनागम-विरोधी युक्ति या तर्क ‘अयुक्ति’ या ‘कुतर्क’ है क्योंकि अप्रमाण से प्रमाण बाधित नहीं होता। ड जिनागम-विरोधी होने से जैन परम्परा ने न्याय-वैशेषिक आदि दर्शनों को मिथ्यादर्शन की श्रेणी में रख दिया—यह तथ्य भी यहाँ मननीय है, जो मनु द्वारा वेदबाह्य दर्शन को तामसिक, निष्फल व कुदृष्टि मानने का एक प्रत्युत्तर समझा जा सकता है।़
इसी क्रम में धवलाकार का यह मत भी उल्लेखनीय है कि सर्वज्ञदृष्ट विषयों में छद्मस्थों के ज्ञानविकल्प (तर्क आदि) प्रवृत्त नहीं होते इसलिए छद्मस्थ व्यक्तियों द्वारा जिनवाणी को अप्रमाणित नहीं किया जा सकता।
पहले तो केवली या श्रुतकेवली द्वारा कहा गया सत्य तर्क का विषय ही नहीं है। कभी किया भी जाय और वह सत्य के विरुद्ध हो तो उसे प्रमाण कभी माना नहीं जा सकता। इस विषय में कुछ उदाहरण भी जैन आचार्यों ने यत्र-तत्र प्रस्तुत किये हैं।
उदाहरणार्थ—आगम का वचन है कि ‘निगोद जीव सिद्धों से अनन्त गुने होते हैं किन्तु तर्क व युक्ति इस सत्य के विपरीत जाती है। वह तर्क इस प्रकार है—‘आठ समय व छ: मास में छ: सौ आठ जीव कर्मक्षय कर सिद्ध हो जाते हैं। इस तरह सिद्ध राशि की क्रमश: वृद्धि होती ही जाएगी, ऐसी स्थिति में कभी सिद्धों की संख्या से निगोद जीवों की संख्या कम होगी है।’’
आगम को बाधित करने वाला यह तर्क माना नहीं जा सकता। सिद्धान्तत: जिनोपदिष्ट सूक्ष्म पदार्थ तर्क के विषय नहीं बनाये जा सकते।
इस तरह उसी तर्क को जैन परम्परा ने मान्य किया, जो शास्त्र का, जिनवाणी का पोषक हो, दूसरे शब्दों में जिन-शासन की प्रभावना में कारण हो। इसी दृष्टि से उत्तरपुराण में कहा गया कि वही वैयाकरण है, वही तार्किक है, वही न्यायवेत्ता है और वही सिद्धान्तविशारद है जो जिनशासन की प्रभावना करता है अन्यथा तार्किक, नैयायिक आदि उपाधियाँ निरर्थक ही हैं।
निष्कर्ष यह है कि वैदिक परम्परा में मनु ने जो यह कहा था कि शास्त्र-अविरुद्ध तर्क से धर्म का ज्ञाता ही धर्मज्ञ है, अन्य नहीं, उसी चिन्तन को जैन परम्परा में भी मान्य किया गया है। संभवत: दोनों संस्कृतियों में वैचारिक उदारता समान शैली में विकसित हुई कही जा सकती है। आचार्य हरिभद्र ने मनु के उक्त वचन को ज्यों का त्यों उद्धृत करते हुए ही जैन मन्तव्य को स्पष्ट किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी (आत्मख्याति, समयसार गाथा-८६) शास्त्र-अविरोधी प्रमाण से तत्त्वज्ञान करने से मोह का क्षय होना बताया है।
आखिर, किन स्थलों पर तर्क को उचित स्थान दिया जाए और किन स्थलों पर नहीं, इस विषय पर जैन परम्परा में पर्याप्त चिन्तन हुआ और आचार्य सिद्धसेन ने श्रद्धा व तर्क के सामंजस्य का एक सूत्र प्रस्तुत किया। उसका सार यह है—जिनवाणी का कुछ भाग तो ऐसा है जो मात्र श्रद्धागम्य ही है, जैसे भव्य व अभव्य का विभाग। किन्तु सारा भाग ऐसा नहीं है। कुछ भाग ऐसा भी है, जहाँ तर्क को स्थान दिया जा सकता है।
जैसे—वस्तु की अनेकान्तात्मकता, उसकी उत्पाद-व्यय-धुव्ररूपता, जिसे तर्क व युक्ति से अनुभवगम्य कराया जा सकता है। वहाँ तर्क का प्रयोग वर्जित नहीं है। आचार्य सिद्धसेन ने आगम को विषय की दृष्टि से दो रूपों में विभक्त किया—हेतुवाद व अहेतुवाद। हेतुवाद आगम में हेतु (तर्क) प्रयोग मान्य है, अहेतुवाद आगम में नहीं। ऐसा नहीं करने वाला सिद्धान्त का विराधक होगा। इस प्रकार अहेतुवाद आगम में हेतुवाद का प्रयोग ‘अनधिकृत’ माना गया है। इसी मन्तव्य का समर्थन पंडित राजमल्ल जी ने भी पंचाध्यायी में किया है।
इसी तरह, जहाँ युक्ति व तर्क बाधक या साधक उपलब्ध न हो, वहाँ तो सर्वथा आगम प्रमाण ही मान्य रहा।
जब ‘हेतुवाद आगम’ में युक्ति व तर्क के प्रयोग को अनुमति मिल गयी तो अनेक आगमिक विषयों को तर्कसंगत बनाने के लिए प्रयत्न बढ़ा। जैन आचार्य या टीकाकार का यह प्रयत्न होने लगा कि वे आगमगम्य विषयों को यथासंभव युक्ति व तर्क के द्वारा भी सिद्ध करें ताकि विषय-वस्तु अंधविश्वास मात्र न रहकर तर्कसंगत भी हो जाए।
उदाहरणार्थ—न्यायदर्शन चक्षु को प्राप्यकारी मानता है, बौद्ध नहीं मानता। आचार्य पूज्यपाद व आचार्य अकलंक ने इसे आगमप्रमाण के साथ-साथ युक्ति व तर्क के माध्यम से भी पुष्ट किया। उन्होंने कहा कि चक्षु यदि प्राप्यकारी होती तो अपने अंजन को भी जान-देख पाती, किन्तु ऐसा नहीं होता इसलिए चक्षु अप्राप्यकारी ही है। इसी तरह, चक्षु को छोड़कर अन्य चार इन्द्रियों को अप्राप्यकारी सिद्ध करने के लिए धवलाकार ने युक्ति व तर्क प्रस्तुत किया कि ‘धव’ वृक्ष अप्राप्त ‘निधि’ को ग्रहण करता हुआ देखा जाता है, तूंबड़ी की लता में अप्राप्त बावड़ी व वृक्ष आदि की ओर बढ़कर स्पर्श (प्राप्य) करने की प्रवृत्ति देखी जाती है इसलिए ये इन्द्रियाँ प्राप्यकारी सिद्ध होती हैं।
कालक्रम से दार्शनिक क्षेत्र में न्यायविद्या या तर्कविद्या का महत्त्व धीरे-धीरे बढ़ता गया। युक्तिशास्त्रों में प्रवीण आचार्यों में आचार्य समन्तभद्र एक पुरोधा के रूप में आए। परवर्ती आचार्यों में आचार्य सिद्धसेन, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, आचार्य विद्यानंदि आदि अनेकानेक उल्लेखनीय आचार्य हुए, जिन्होंने जैन न्यायविद्या को समृद्ध किया, जो सर्वविदित है। उक्त विकास-प्रक्रिया के उल्लेखनीय बिन्दु इस प्रकार हैं—
आचार्य समन्तभद्र ने ताल ठोककर कहा कि जिनागम सर्वथा अनुल्लंघनीय है, वह प्रत्यक्ष व परोक्ष किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं हो सकता। वह प्रत्यक्षादि प्रमाण से अविरुद्ध प्ररूपणा वाला तथा युक्तानुशासन (अर्थात् युक्तिसंगत देशना वाला) है। निश्चित ही इस कथन पर जैनेतर दर्शन के आचार्यों में प्रतिक्रियास्वरूप जैन मान्यता को तर्क के सहारे खण्डित करने की प्रवृत्ति भी सम्पन्न हुई होगी।
अन्य दर्शनों ने जैन मन्तव्यों पर आक्षेप करने शुरू कर दिए, जैन आचार्यों ने भी अपने प्रखर तर्कों से उनका खण्डन करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार, जैन न्यायविद्या के क्षेत्र में तार्किक प्रखरता बढ़ती गयी और परस्पर खण्डन-मण्डन के क्षेत्र में भी जैन परम्परा ने अपनी विजय-पताका लहराई। जैसा कि विदित है कि आचार्य समन्तभद्र ने अपनी तार्किक प्रखरता से देश के कोने-कोने में विजयपताका फहराकर ‘वादिराट्’ जैसी उपाधि प्राप्त की थी।
इतना ही नहीं, आचार्य समन्तभद्र ने तर्क व युक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठापित करने के लिए अंधविश्वास पर भी करारी चोट की। अपनी ‘आप्तमीमांसा’ कृति के मंगलाचरण में वे कहते हैं कि हे प्रभो! आप इसलिए महान् नहीं हैं कि आपकी सेवा में देवगण आते हैं या आप (पृथ्वी से ऊपर) आकाश में विचरण करते हैं या आपका महान् ऐश्वर्य प्रकट होता है, आप तो इसलिए महान् हैं कि आप ही ऐसे निर्दोष व्यक्तित्व वाले हैं जिसकी वाणी युक्ति-शास्त्र से कहीं विरुद्ध (असंगत) नहीं होती और आपका कथन किसी प्रमाण से बाधित नहीं होता।
उन्होंने हेतुवाद का आश्रयण कर ‘सर्वज्ञता’ की सिद्धि भी की, क्योंकि इसी पर जिनवाणी की प्रमाणता टिकी हुई थी। साथ ही, उन्होंने अन्य दर्शनों को एकान्तवादी तथा प्रत्यक्षादिबाधित प्रतिपादन करने वाला बताकर उन पर प्रहार भी किया।
आचार्य समन्तभद्र ने परस्पर-विरोध में संलग्न समस्त दर्शनों को उनकी दुर्बलता का बोध कराया और उन्हें स्तुति के माध्यम से ही सही, स्व-परप्रणाशी, स्व-परवैरी, आत्मघाती, आत्मद्वेषी आदि विशेषणों से अभिहित किया। निश्चित ही इससे अन्य दर्शनों व जैन दर्शनों के मध्य खुलकर खण्डन-मण्डन का वातावरण गर्मा गया होगा और परवर्ती आचार्यों को भी जैनशासन की प्रभावना हेतु शास्त्रार्थ या वाद-विवाद के क्षेत्र में कटिबद्ध होकर कूदना पड़ा।
आचार्य हरिभद्र तक जैन न्यायविद्या पूर्ण प्रतिष्ठित हो चुकी थी और यह सिद्ध हो गया कि जैन शासन को किसी भी युक्ति या तर्क से कोई खतरा नहीं है। ऐसी स्थिति में जैन आचार्यों में आत्मविश्वास पूर्णत: दृढ़ हो गया। आचार्य हरिभद्र के इस कथन में अपराजेयता का दृढ़ विश्वास ही प्रकट हो रहा है कि ‘न तो भगवान महावीर के प्रति मेरा कोई पक्षपात है और न ही मेरा कपिल आदि के प्रति द्वेष। आओ, विचार-विमर्श करो, जो भी युक्तिसंगत हो, उसे स्वीकार करो।
जैन न्याय विद्या अन्य दर्शनों की न्यायविद्या की अपेक्षा कुछ विशिष्ट थी। उन विशेषताओं को यहाँ रेखांकित करना प्रासंगिक होगा। जैन परम्परा ने मात्र प्रमाण को ही अर्थ परीक्षण में पर्याप्त नहीं समझा, उसने उसके साथ नय, निक्षेप व युक्ति को भी सम्मिलित किया। तिलोयपण्णत्ति में कहा गया कि नय, प्रमाण व निक्षेप के बिना अर्थ-परीक्षण करने पर युक्तिसंगत भी अयुक्तियुक्त और अयुक्तियुक्त भी युक्तियुक्त प्रतीत होता है। आचार्य परम्परा से क्रमागत यह न्याय रत्नत्रय का कारण होता है।
इस विशेषता के अतिरिक्त अनेकान्तवाद, नयवाद व स्याद्वाद के आलोक में तत्त्व की या किसी दर्शन-विशेष की समीक्षा करना—यह भी एक विशेषता रही है। ‘ज्ञान’ को प्रमाण की कोटि में रखना आदि मान्यताएँ भी जैन न्यायविद्या की अपनी विशिष्ट पहचान हैं।