चैत्र, भादों तथा माघ महीनों में पूरे ३० दिन तक यह पर्व मनाया जाता है और सोलहकारण की पूजा तथा व्रत किये जाते हैं। यह अनादिनिधन पर्व है, जिसमें जैनधर्म में बतलाई गई दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप आदि सोलह प्रकार की तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली सोलहकारण भावनाओं की आराधना की जाती है।
जैनों का सबसे पवित्र पर्व दशलक्षण पर्व है, जिसे आजकल लोग पर्यूषण पर्व के नाम से भी जानते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय में यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला पंचमी से चतुर्दशी तक तथा श्वेताम्बर में भाद्र कृ. १२ से भाद्र शु. ४ तक मनाया जाता है। इन दिनों में जैन मंदिरों में खूब आनन्द छाया रहता है। प्रतिदिन प्रात:काल से ही सब स्त्री-पुरुष स्नान करके मंदिरों में पहुँच जाते हैं और बड़े आनन्द के साथ भगवान् का पूजन करते हैं। पूजन समाप्त होने पर प्रतिदिन श्री तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों में से एक-एक अध्याय का व्याख्यान और उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मों में से एक-एक धर्म का विवेचन होता है। इन दस धर्मों के कारण इस पर्व को दशलक्षण पर्व कहते हैं क्योंकि धर्म के उक्त दस लक्षणों का इस पर्व में खासतौर से आराधना किया जाता है। व्याख्यान के लिए बाहर से बड़े-बड़े विद्वान् बुलाये जाते हैं और प्राय: सभी स्त्री-पुरुष उनके उपदेश से लाभ उठाते हैं। आश्विन कृष्णा प्रतिपदा के दिन पर्व की समाप्ति होने पर सब एकत्र होकर परस्पर में गले मिलते हैं और गत वर्ष की अपनी गलतियों के लिए परस्पर में क्षमायाचना करते हैं। जो लोग दूर-देशान्तर में बसते हैं उनसे पत्र लिखकर या क्षमावणी कार्ड आदि भेजकर क्षमायाचना की जाती है।
इन दिनों में प्राय: सभी स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार व्रत, उपवास वगैरह करते हैं। कोई-कोई दसों दिन उपवास करते हैं, बहुत से दसों दिन तक एक बार भोजन करते हैं। इन्हीं दिनों में भाद्रपद शुक्ला दशमी को सुगंध दशमी पर्व होता है, इस दिन सब जैन स्त्री-पुरुष एकत्र होकर मंदिर में धूप खेने के लिए जाते हैं, इन्दौर वगैरह में यह उत्सव दर्शनीय होता है।
भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी अनन्त चतुर्दशी कहलाती है। इसका जैनों में बड़ा महत्व है। जैन शास्त्रों के अनुसार इस दिन व्रत करने से बड़ा लाभ होता है। दूसरे, यह दशलक्षण पर्व का अंतिम दिन भी है इसलिए इस दिन प्राय: सभी जैन स्त्री-पुरुष व्रत रखते हैं और तमाम दिन मंदिरों में ही बिताते हैं। अनेक स्थानों पर इस दिन जुलूस भी निकलता है। कुछ लोग इन्द्र बनकर जुलूस के साथ जल लाते हैं और उस जल से भगवान का अभिषेक करते हैं फिर पूजन होता है। पूजन के बाद अनन्त चतुर्दशी व्रतकथा होती है। जो व्रती निर्जल उपवास नहीं करते वे भी प्राय: कथा सुनकर ही जल ग्रहण करते हैं।
चैत्र, भादों और माघ के अंतिम ३ दिन (सुदी १३-१४-१५) में रत्नत्रय की पूजा और व्रत आदि करके इस पर्व को मनाया जाता है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय की आराधना करके श्रावकजन अपने मोक्ष मार्ग के प्रशस्त होने की मंगल भावनाएँ करते हैं।
दशलक्षण पर्व की समाप्ति पर आश्विन कृष्णा एकम् को सभी लोग परस्पर मिलते हैं और गत वर्षों में अपने द्वारा की गई गलतियों की क्षमा याचना करते हैं। जो लोग व्यक्तिशः मिल नहीं पाते हैं वे दूरभाष अथवा पत्र द्वारा क्षमा याचना करके इस पर्व को मनाते हैं।
वाचनिक क्षमा की अपेक्षा हार्दिक क्षमा महत्वपूर्ण है। सच्चे हृदय से क्षमायाचना और क्षमादान करना जैन श्रावक का एक बड़ा गुण है जिससे दोनों पक्षों को अकथनीय लाभ होता है। अतः इस पर्व को रस्मी तौर पर न मना कर सच्चे मन से मनाना चाहिए। जिनसे हमारा मनमुटाव है, विशेष तौर पर उनसे क्षमा याचना अवश्य करनी चाहिए।
दिगम्बर परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण पर्व अष्टान्हिका पर्व है। यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आसाढ़ मास के अंत के आठ दिनों में मनाया जाता है। जैन मान्यता के अनुसार मध्यलोक की अकृत्रिम रचना में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के अन्दर आठवां नंदीश्वरद्वीप है। उस द्वीप में ५२ जिनालय बने हुए हैं। उनकी पूजा करने के लिए स्वर्ग से चारों प्रकार के देवगण उक्त दिनों में जाते हैं। चूँकि मनुष्य वहाँ तक जा नहीं सकते इसलिए उक्त दिनों में आष्टान्हिका पर्व मानकर यहीं पर नंदीश्वर द्वीप के मंदिरों की पूजा कर लेते हैं। इन दिनों में सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज, नंदीश्वर आदि पूजा विधान का आयोजन किया जाता है। यह पूजा महोत्सव दर्शनीय होता है।
भगवान आदिनाथ ने दीक्षा के समय छः मास का उपवास लिया था। उपवासोपरान्त उन्होंने आहार हेतु विहार किया। किन्तु उन्हें छह माह उन्नतालिस दिन आहार प्राप्त नहीं हुआ क्योंकि दान की विधि किसी को मालूम नहीं थी। एक दिन भगवान आदिनाथ को देखकर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस को अपने पूर्व भव का स्मरण हो जाने से दान की विधि मालूम हो गई थी और उन्होंने भगवान को प्रथम बार विधिवत् पड़गाहन कर इक्षुरस (गन्ने का रस) का आहार दिया था । उस दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दान के निमित्त से उस दिन राजा की रसोई में भोजन अक्षीण (जो कभी क्षीण नहीं होता है) हो गया था। अतः आज भी वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन जैन समाज ही नहीं अपितु समस्त समाज में अत्यन्त शुभ माना जाता है, जिसे सभी अक्षय तृतीया पर्व के नाम से मनाते हैं।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी, भगवान महावीर की जन्मकल्याणक तिथि है। इस दिन भारतवर्ष के सभी जैन अपना कारोबार बंद रखकर अपने-अपने स्थानों पर बड़ी धूम-धाम से महावीर जयंती मनाते हैं। प्रात:काल जुलूस निकालते हैं और रात्रि में सार्वजनिक सभा का आयोजन होता है। भारत भर में बहुत सी प्रान्तीय सरकारों ने अपने प्रान्त में महावीर जयंती की छुट्टी घोषित कर दी है। केन्द्रीय सरकार से भी जैनों की यही मांग है।
जैनों के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को वैशाख शु. दशमी को केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर ६६ दिन के बाद उनकी सबसे पहली धर्म देशना मगध की राजगृही नगरी के विपुलाचल पर्वत पर प्रात:काल के समय खिरी थी। उसी के उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को वीरशासन जयंती मनायी जाती है।
दिगम्बर परम्परा में धीरे-धीरे जब अंगज्ञान लुप्त हो गया, तो अंगों और पूर्वोें के एकदेश के ज्ञाता आचार्य धरसेन हुए। वे सोरठ देश के गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे। उन्हें इस बात की चिंता हुई कि उनके बाद श्रुतज्ञान का लोप हो जायेगा अत: उन्होंने महिमा नगरी में होने वाले मुनि सम्मेलन को पत्र लिखा, जिसके फलस्वरूप वहाँ से दो मुनि उनके पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी बुद्धि की परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्त पढ़ाया और उनका अलग विहार करा दिया। उन दोनों मुनियों का नाम पुष्पदन्त और भूतबलि रखा गया। उन्होंने वहाँ से आकर षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रंथ की रचना की। रचना हो जाने पर भूतबलि आचार्य ने उसे पुस्तकारूढ़ करके ‘‘ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी’’ के दिन चतुर्विध संघ के साथ उसकी पूजा कराई, जिससे श्रुतपंचमी तिथि दिगम्बर जैनियों में प्रख्यात हो गयी। उस तिथि को वे शास्त्रों की पूजा करते हैं। उनकी देखभाल करते हैं, धूल तथा जीव-जन्तु से उनकी सफाई करते हैं।
उक्त पर्वों के सिवा प्रत्येक तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण के दिन कल्याणक दिन कहे जाते हैं। उन दिनों में भी जगह-जगह उत्सव मनाये जाते हैं। अनेक नगरों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की, पार्श्वनाथ की जन्मजयंती एवं निर्वाण तिथि मनायी जाती है।
ऊपर जो जैन पर्व बतलाये गये हैं वे ऐसे हैं जिन्हें केवल जैन धर्मानुयायी ही मानते हैं। इनके सिवा कुछ पर्व ऐसे भी हैं जिन्हें जैनों के सिवाय हिन्दू जनता भी मानती है। ऐसे पर्वों में सबसे अधिक उल्लेखनीय दीपावली का पर्व है। यह पर्व कार्तिक मास की अमावस्या की संध्या को मनाया जाता है। साफ सुथरे मकान कार्तिकी अमावस्या की संध्या को दीपों के प्रकाश से जगमगा उठते हैं। घर-घर लक्ष्मी का पूजन होता है। सदियों से यह त्योहार मनाया जाता है, कोई इसका संबंध रामचन्द्र जी के अयोध्या लौटने से लगाते हैं। कोई इसे सम्राट अशोक की दिग्विजय का सूचक बतलाते हैं किन्तु रामायण में इस तरह का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, इतना ही नहीं, किन्तु किसी हिन्दू पुराण वगैरह में भी इस संबंध में कोई उल्लेख नहीं मिलता। बौर्द्ध धर्म में तो यह त्योहार मनाया नहीं जाता, रह जाती है जैन संस्कृति। इस समाज में शक सं. ७०५ (वि. सं. ८४०) का रचा हुआ हरिवंशपुराण है। उसमें भगवान् महावीर के निर्वाण का वर्णन करते हुए लिखा है-‘महावीर भगवान् भव्यजीवों को उपदेश देते हुए पावानगरी में पधारे और वहाँ के एक मनोहर उद्यान में चतुर्थ काल के तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रह जाने पर कार्तिकी अमावस्या के प्रभातकालीन बेला के समय, योग का निरोध करके कर्मों का नाश करके मुक्ति को प्राप्त हुए। चारों प्रकार के देवताओं ने आकर उनकी पूजा की और दीपक जलाये। उस समय उन दीपकों के प्रकाश से पावानगरी का आकाश प्रदीप्त हो रहा था। उसी समय से भक्त लोग जिनेश्वर की पूजा करने के लिए भारतवर्ष में प्रतिवर्ष उनके निर्वाण दिवस के उपलक्ष्य में दीपावली मनाते हैं।
जिस दिन भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उसी दिन सायंकाल में उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधर को पूर्णज्ञान-केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। मुक्ति और ज्ञान को जैनधर्म में सबसे बड़ी लक्ष्मी माना है और प्राय: मुक्तिलक्ष्मी और ज्ञानलक्ष्मी के नाम से ही शास्त्रों में उनका उल्लेख किया गया है, अत: संभव है कि आध्यात्मिक लक्ष्मी के पूजन की प्रथा ने धीरे-धीरे जनसमुदाय में बाह्य लक्ष्मी के पूजन का रूप ले लिया हो। बाह्यदृष्टिप्रधान मनुष्य समाज में ऐसा प्राय: देखा जाता है। लक्ष्मी पूजन के समय मिट्टी का घरौंदा (हटड़ी) और खेल-खिलौने भी रखे जाते हैं। इस बारे में लोग कहा करते हैं कि यह हटड़ी भगवान् महावीर अथवा उनके शिष्य गौतम गणधर की उपदेश सभा (समवसरण) की यादगार में है और चूँकि उनका उपदेश सुनने के लिए मनुष्य, पशु सभी जाते थे अत: उनकी यादगार में उनकी मूर्तियाँ (खिलौने) रखे जाते हैं। इस तरह दीपावली के प्रकाश में हम प्रतिवर्ष भगवान की निर्वाण लक्ष्मी का पूजन करते हैं और जिस रूप में उनकी उपदेश सभा लगती थी, उसका साज सजाते हैं। परम्परागतरूप से गौतम गणधर को प्राप्त केवल ज्ञानलक्ष्मी के प्रतीक में भी लक्ष्मी पूजन की जाती है।
दीपावली के प्रात:काल में सभी जैन मंदिरों में महावीर निर्वाण की स्मृति में बड़ा उत्सव मनाया जाता है और निर्वाणलाडू चढ़ाकर भगवान की विशेष पूजा की जाती है। इस ढंग की पूजा का आयोजन केवल इसी दिन होता है। इससे घर-घर में उस दिन जो मिष्ठान्न बनता है, उसका उद्देश्य भी समझ में आ जाता है।
कार्तिक कृष्णा अमावस्या सन् ५२७ बी.सी. को भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था। उस तिथि से वीर निर्वाण सम्वत् प्रारम्भ हुआ है। यह विक्रम सम्वत् से ४७० वर्ष और ईसवी सन् से ५२६ वर्ष पुराना है।
दूसरा उल्लेखनीय सार्वजनिक त्योहार, जिसे जैन लोग भी बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं, सलूनो या रक्षाबंधन पर्व है। साधारणत: इस त्योहार के दिन घरों में सेमई की खीर बनती है।
साथ ही साथ उत्तर भारत में एक प्रथा और है। उस दिन हिन्दू मात्र के द्वार पर दोनों ओर मनुष्य के चित्र बनाये जाते हैं उन्हें ‘सौन’ कहते हैं। पहले उन्हें जिमाकर उनके राखी बांधी जाती है, तब घर के लोग भोजन करते हैं।
जैन पुराणों में रक्षाबंधन की कथा मिलती है, जो संक्षेप में इस प्रकार है-
किसी समय उज्जैनी नगरी में श्रीधर्म नाम का राजा राज्य करता था। उसके चार मंत्री थे-बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद। एक बार दिगम्बर जैन मुनि अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों के संघ के साथ उज्जैनी में पधारे। मंत्रियों के मना करने पर भी राजा मुनियों के दर्शन के लिए गया। उस समय सब मुनि ध्यानस्थ थे। लौटते हुए मार्ग में एक मुनि से मंत्रियों का शास्त्रार्थ हो गया। मंत्री पराजित हो गये। क्रुद्ध मंत्री रात्रि में तलवार लेकर मुनियों को मारने के लिए निकले। मार्ग में गुरु की आज्ञा से उसी शास्त्रार्थ के स्थान पर ध्यान में मग्न अपने प्रतिद्वन्द्वी मुनि को देखकर मंत्रियों ने उन पर वार करने के लिए जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, उनके हाथ ज्यों के त्यों कीलित हो गये। दिन निकलने पर राजा ने मंत्रियों को देश से निकाल दिया। चारों मंत्री अपमानित होकर हस्तिनापुर के राजा पद्म की शरण में आये। वहाँ बलि ने अपने रण कौशल से पद्म राजा के एक शत्रु को पकड़कर उसके सुपुर्द कर दिया। राजा पद्म ने प्रसन्न होकर उसे मुंहमांगा वरदान दिया। समय आने पर बलि ने वरदान मांगने के लिए कह दिया।
कुछ समय बाद मुनि अकम्पनाचार्य का संघ विहार करता हुआ हस्तिनापुर आया और वहीं वर्षावास कर लिया। जब बलि वगैरह को इस बात का पता चला तो वे बहुत घबराये, पीछे उन्हें अपने अपमान का बदला चुकाने की युक्ति सूझ गयी। उन्होंने वरदान का स्मरण दिलाकर राजा पद्म से सात दिन का राज्य मांग लिया। राज्य पाकर बलि ने मुनि संघ के चारोें ओर एक बाड़ा खड़ा कर दिया और उसके अन्दर हवन यज्ञ करना शुरू कर दिया।
इधर मुनियों पर यह उपसर्ग प्रारंभ हुआ, उधर मिथिला नगरी में तपस्यारत एक निमित्तज्ञानी मुनि को इस उपसर्ग का पता लग गया। उनके मुंह से ‘हा-हा’ निकला। पास में बैठे एक क्षुल्लक ने इसका कारण पूछा तो उन्होंने सब हाल बतलाया और कहा कि विष्णुकुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है वे इस संकट को दूर कर सकते हैं। क्षुल्लक तत्काल अपनी विद्या के बल से मुनि विष्णुकुमार के पास गये और उनको सब समाचार सुनाया। विष्णुकुमार मुनि हस्तिनापुर के राजा पद्म के भाई थे। वे तुरन्त अपने भाई पद्म के पास पहुँचे और बोले, ‘पद्मराज! तुमने यह क्या कर रखा है ? अपनी कुलपरम्परा में ऐसा अनर्थ कभी नहीं हुआ। यदि राजा ही तपस्वियों पर अनर्थ करने लगे तो उसे कौन दूर कर सकेगा ? यदि जल ही आग को भड़काने लगे तो फिर उसे कौन बुझा सकेगा ?’ उत्तर में पद्म ने बलि को राज्य दे देने का सब समाचार सुनाया और कुछ कर सकने में अपनी असमर्थता प्रकट की। तब विष्णुकुमार मुनि वामनरूप धारण करके बलि के यज्ञ में पहुँचे और बलि के प्रार्थना करने पर तीन पैर धरती उससे मांगी। जब बलि ने दान का संकल्प कर दिया तो विष्णुकुमार ने विक्रियाऋद्धि के द्वारा अपने शरीर को बढ़ाया। उन्होंने अपना पहला पैर सुमेरु पर्वत पर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरा पैर स्थान न होने से आकाश में डोलने लगा। तब सर्वत्र हाहाकार मच गया, देवता दौड़ पड़े और उन्होंने विष्णुकुमार मुनि से प्रार्थना की, ‘भगवन्! अपनी इस विक्रिया को समेटिये। आपके तप के प्रभाव से तीनों लोक चंचल हो उठे हैं। तब उन्होंने विक्रिया को समेटा। मुनियों का उपसर्ग दूर हुआ और बलि को देश से निकाल दिया गया।
बलि के अत्याचार से सर्वत्र हाहाकार मच गया था और लोगों ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियों का संकट दूर होगा तो उन्हें आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे। संकट दूर होने पर सब लोगों ने सेमइयों की खीर का हल्का भोजन तैयार किया, क्योंकि मुनि कई दिन के उपवासे थे। मुनि केवल सात सौ थे अत: वे केवल सात सौ घरों पर ही पहुँच सकते थे इसलिए शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्राfतज्ञा पूरी की गई। सबने परस्पर में रक्षा करने का बंधन बांधा, जिसकी स्मृति त्योहार के रूप में अब तक चली आ रही है। दीवारों पर जो चित्र रचना की जाती है उसे ‘सौन’ कहा जाता है, यह ‘सौन’ शब्द ‘श्रमण’ शब्द का अपभ्रंश जान पड़ता है। प्राचीनकाल में जैन साधु श्रमण कहलाते थे। इस प्रकार से सलूनो या रक्षाबंधन त्योहार जैन त्योहार के रूप में जैनों में आज भी मनाया जाता है। उस दिन विष्णुकुमार और सात सौ मुनियों की पूजा की जाती है। उसके बाद परस्पर में राखी बांधकर दीवारों पर चित्रित ‘सौन’ को आहारदान दिया जाता है। तब सब भोजन करते हैं और गरीबों को दान भी देते हैं।