पुरातत्त्व प्राचीन तत्त्वों का आंकलन है जो भूगर्भ से प्राप्त होते हैं या शिलालेखों, ताम्रपत्रों आदि पर रहते हैंं। साहित्यिक प्रमाणों के समर्थन में पुरातत्त्व की अहम् भूमिका रहती हैं। परम्परा, इतिहास, संस्कृति, मूर्तिकला, स्थापत्य आदि क्षेत्रों की यथार्थता के अन्वेषण से सम्बद्धक अनुशासन है। उसकी सीमा इतिहास से भी विस्तृत है जिसमें प्रागैतिहासिक काल भी सम्मिलित है। वह इतिहास की अपेक्षा निष्पक्षता को अधिक सहेजे हुए है।
जैन संस्कृति मूलतः आत्मोत्कर्षवाद से सम्बद्ध है इसलिए उसकी कला एवं स्थापत्य का हर अंग अध्यात्म से जुड़ा हुआ है। जैन कला के इतिहास से पता चलता है कि उसने यथासमय प्रचलित विविध शैलियों का खूब प्रयोग किया है और उनके विकास में अपना महनीय योगदान भी दिया है। आत्मदर्शन और भक्ति भावना के वश मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण किया गया और उन्हें अश्लीलता तथा श्रङ्गारिक अभिनिवेशों से दूर रखा गया। वैराग्य भावना को सतत् जागरित रखने के लिए चित्रकला का भी उपयोग हुआ है।
यहाँ हम जैन पुरातत्त्व (कला) को पाँच भागों में विभाजित कर रहें हैं। मूर्तिकला, स्थापत्यकला, चित्रकला, काष्ठशिल्प और अभिलेख तथा मुद्राशास्त्र। इन सभी कला-प्रकारों में अनासक्त भाव को मुख्य रूप से प्रतिबिम्बित किया गया है। इसी में उसका सौन्दर्यबोध और लालित्य छिपा हुआ है। यहाँ पुरातत्त्व पर पृथक् से भी विचार करने की आवश्यकता नहीं है। उसे हम जैन मूर्तिकला तक ही सीमित रखना चाहते हैं।
आध्यात्मिक भावना को पोषित करने की दृष्टि से इष्टदेव को साकार रूप देने के लिए मूर्ति की प्रतिष्ठा की जाती है। मन को केन्द्रित कर भक्ति भाव में लीन होने के लिए भी मूर्ति एक सबल और सशक्त साधन है। यही कारण है कि लगभग सभी सम्प्रदायों में किसी न किसी रूप में मूर्ति को महत्त्व दिया गया है और देवदर्शन को एक नैमित्तिक अंग मान लिया गया है। इतना ही नहीं, भक्ति काल में तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण को पंचकल्याणक मानकर मूर्ति प्रतिष्ठा बड़ी धूमधाम से होने लगी जो आज भी प्रचलित है। यह एक प्रभावना का अंग बन गया है।
दर्शन को ही कला में उत्कीर्ण किया जाता है। जैन संस्कृति में मूर्तिकला एक विशेष विकास के दौर से गुजरी है अतः सर्वप्रथम हम जैन मूर्तिकला के विकासक्रम की ओर दृष्टिपात कर लें।
मूर्ति अथवा प्रतिमा मूल रूप की प्रतिकृति है जो अपने आपमें छायावत् उसका बिम्ब छिपाये रखती है। उसमें निर्गुण ंिंंकंवा निराकार रूप अव्यक्त प्रकृति तथा सगुण किंवा साकार रूप व्यक्त विकृति अन्तर्भूत है। निर्गुण रूप निराधार होने के कारण पूजा और साधना में अधिक सहयोगी हो जाता है। यही तथ्य मूर्तिकला के उद्भव और विकास की पृष्ठभूमि है।
भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जैन कला तत्तद स्थानीय कला-शक्तियों और विधाओं पर निर्भर रही है और उसके दोष-गुणों का कोई सम्बन्ध जैन धर्म के साथ नहीं है।
जैन कला के सौन्दर्यबोध का आलोचनात्मक निर्णय हमें उसकी व्यापक शैली और प्रतिमा विधान सम्बन्धी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए, जिससे कि वह समान शैली की हिन्दू कलाओं से भिन्न सिद्ध हो सके। क्षेत्र एवं इतिहास सम्बन्धी तथ्यों में विभेद करता हुआ पुरातात्त्विक ज्ञान जैन कला के सौन्दर्यबोध के मूल्यांकन में बहुत सहायक हो सकता है। बौद्ध कला की भाँति जैन कला रोमन, यूनानी या रैनेसान्स अथवा प्रतिहार, चालुक्य व चोल कला की भाँति किसी एक शैली के विकास पर निर्भर नहीं रही वरन् एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण की विविध शैलियों में अभिव्यक्त होती रही है। पात्र नहीं, वरन् पात्र में भरा द्रव्य जैन कला के स्वरूप को प्रकट करता है।
इस प्रकार पुरातत्त्व और इतिहास किसी भी कलाकृति के जैन रूप का मूल्यांकन करने के लिए आवश्यक है क्योंकि वह जैन रूप ऐतिहासिक प्रादेशिक शैली विशेष के माध्यम से ही यथार्थ रूप में जाना जा सकता है। अस्तु, जैन कला के जैन रूप का सौन्दर्य बोधात्मक मूल्यांकन करने के लिए एक सुनिश्चित विद्या का अनुसरण करना चाहिए। हमें उस स्थानीय अथवा ऐतिहासिक शैली का बोध होना चाहिए जिसकी कलाकृति एक विशेष उदाहरण है। दूसरे, हमें उक्त मूर्ति के प्रतिमा विधान एवं पूजा सम्बन्धी आवश्यकताओं का ज्ञान होना चाहिए।तीसरे, इन दोनों सीमाओं के भीतर उक्त मूर्ति के शिल्प कौशल तथा सौन्दर्य गुण का मूल्यांकन करना चाहिए। कलाकृति विशेष के सौन्दर्य प्रभाव के मूल्यांकन करने के लिए उस विशिष्ट गुण पर भी ध्यान देना चाहिए जो जैन कला की कुछ सर्वश्रेष्ठ कृतियों को एक अद्वितीय एवं प्रतिष्ठित स्थान प्रदान करती है। विभिन्न शैलियों में विभिन्न उपादानों के प्रयोग से निर्मित जैन कलाकृतियों में जो एक समान तत्त्व दृष्टिगोचर होता है उसका कारण जैन दर्शन का अपना निरालापन ही हो सकता है। उदाहरणार्थ हलेबिड के प्रसिद्ध जिनमन्दिरों का उल्लेख किया जा सकता है जो होयसल कला का प्रतिनिधित्व करता है और जिसपर चालुक्य कला का भी प्रभाव है।इसी प्रकार विजयनगर के अनेक जिन मन्दिरों को उल्लेखित किया जा सकता है। भारतवर्ष में शुद्ध भावात्मक और सादे स्थापत्य शिल्प के ये श्रेष्ठ नमूने हैं, जबकि राजस्थान के रणकपुर का १५वीं शतीं का जिनमंदिर अपने अत्यन्त एवं विस्तृत अलंकरण के कारण उपरोक्त मन्दिरों से सर्वथा भिन्न शैली का है, तथापि विशेषतया जैन कला का नमूना है।
१०वीं-११वीं शताब्दी में मध्य भारत के जैन मन्दिरों का मूल्यांकन भी अत्यधिक अलंकरण से पूरित है। जैनकला के विकास में चौमुखी प्रतिमाओं का भी उल्लेखनीय स्थान है जिनका एक सुन्दर मध्यकालीन उदाहरण मध्य प्रदेश में कडवाह के निकट इन्दौर में विद्यमान है।
हड़प्पा में प्राप्त १३ प्रस्तर मूर्तियों में से दो मूर्तियों ने कला सम्बन्धी मान्यता में क्रांति ला दी है।ये मूर्तियाँ लगभग ४ इंच की हैं। सिर, हाथ, पैर विहीन, ग्रीवा और कंधों के स्थान पर पृथक् बने हुए शिर और बाहु धारणा करने के रन्ध्र बने हुए हैं। मूर्ति में सजीवता, आत्मशक्ति की तेजस्विता देखते ही बनती है। दूसरी मूर्ति बाह्य स्पंदन को प्रकाशित करती है। इसका समय लगभग दो हजार ई.पू. है। इसे जैन तीर्थंकर की मूर्ति कहने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए। इसकी तुलना में मोहन जोदड़ो ई.पू.तीसरी सहस्राब्दी की उस उत्कीर्ण मुहर का अध्ययन किया जा सकता है जिस पर गैंडा, भैंस, सिंह आदि मूर्तियों के मध्य ध्यानस्थ बैठे रुद्र-पशुपति-महादेव की मूर्ति उâर्ध्वमुखी प्रेरणा को व्यक्त करती है। हेनसांग (६००-६४५ ई. सन्) का विवरण भी इसी तथ्य को स्पष्ट करता है जहाँ वह कहता है कि वहाँ बहुत से बुद्धेतर तीर्थंकर हैं जो क्षुन (शिश्न) देव की पूजा करते हैं जो कोई नग्न देवता की आराधना करता है उसकी अभिलाषायें पूरी हो जाती हैं। यहाँ अहिंसा संदेश देने वाले जैन तीर्थंकर की ओर संकेत है।
टी.एन.रामचन्द्रन् का विचार है कि ये उद्धरण और हड़प्पा की मूर्ति जैन तीर्थंकर से सम्बद्ध हैं। उसे वे कायोत्सर्ग मुद्रा में देखते हैं जो समस्त भौतिक चेतना के आन्तरिक व्युत्सर्ग का प्रतीक है। उनकी दृष्टि में तीर्थंकरों की कालगणना में भी इससे कोई बाधा नहीं आती। उन्होंने ऋषभदेव का काल ई. पू. की तीसरी सहस्राब्दि का अन्तिम चरण रखा है।
मूर्ति का विशेष सम्बन्ध आध्यात्मिक साधना से है। चित्त को एकाग्र करने का वह एक अद्भुत साधन है जो सम्यक् आचरण बिना सम्भव नहीं होता। धर्म उसका मूल है। धार्मिक भावनाओं के अंकन बिना कला कला नहीं रहती। शायद इसीलिए डेलासेता ने अधिकांश राष्ट्रों की कला का सम्बन्ध धर्म से नियोजित किया है। जैन मूर्तिकला इसका अपवाद नहीं है। राग-द्वेषादि विकारों को दूर कर व्यक्ति अपनी सर्वोच्च विशुद्ध स्वरूप परमात्म अवस्था को प्राप्त कर लेता है। जैन धर्म उस अवस्था को तीर्थंकर, अर्हन्त और सिद्ध की संज्ञा देता है। आत्मिक विकास की दृष्टि से उन अवस्थाओं को समवेत् रूप से ‘‘परमेष्ठी’’ भी कहा जाता है।
भारत की प्राचीनतम मूर्तिकला का इतिहास सिन्धु घाटी के उत्खनन से ज्ञात होता है। उसमें प्राप्त विविध मूर्तियाँ भारतीय संस्कृति को दिग्दर्शित करती हैं। मोहनजोदड़ो व हड़प्पा के अतिरिक्त चन्हदड़ो, झूकरदड़ो, अम्बाला, करांची, केला (बलूचिस्तान) आदि सैकड़ों स्थानों तक इस सिन्धु सभ्यता का प्रसार रहा है। विद्वानों ने इसकी प्राचीनता लगभग ४००० ई.पू.से लेकर २५००ई.पू.तक निर्धारित की है।
सिन्धु सभ्यता के मूल निवासी कौन थे, यह एक विवादास्पद प्रश्न है। पर यह निश्चित है कि यह सभ्यता प्राग्वैदिक कालीन है। वैदिक धर्म में मूर्ति पूजा का कोई स्थान नहीं था। वहाँ तो गाय की पूजा होती थी। अग्निकुंड एक अनिवार्य तत्त्व था इसके विपरीत सिन्धु सभ्यता में मूर्तिपूजा का महत्त्वपूर्ण स्थान था। तुलनात्मक अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि यह सिन्धु सभ्यता वैदिक विरोधी सभ्यता थी इसमें कोई आश्चर्य नहीं यदि यह सभ्यता तत्कालीन विद्याधर किंवा द्रविड़ जाति से सम्बद्ध रही हो। यह जाति ऋषभदेव (जैनधर्म के आदि तीर्थंकर) को पूज्य मानती थी और उन्हें योगी के रूप में स्वीकार करती थी। हड़प्पा और लोहानीपुर से प्राप्त मस्तकविहीन नग्नमूर्ति कायोत्सर्ग अवस्था में खड़ी है। मोहनजोदड़ो में प्राप्त पशुपति को यदि शैवधर्म का देव मानें तो हड़प्पा से प्राप्त नग्न धड़ को दिगम्बर मत की खण्डित मूर्ति मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। उसकी आकृति और भाव ऋषभदेव की आकृति और भाव से शत-प्रतिशत मिलते हैं। रामचन्द्रन और काशीप्रसाद जायसवाल जैसे प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता उस मूर्ति को किसी जैन तीर्थंकर की मूर्ति के रूप में स्वीकार करते हैं।
इसी प्रकार की कुछ योगी मूर्तियों का और भी चित्रण सिन्धु सभ्यता की मुद्राओं में हुआ है जिन पर विशाल स्कन्धयुक्त ऋषभ का चित्र बना है। इससे पता चलता है कि ऐसे ऋषभ के साथ एक जटाजूटधारी का अंकन जैन तीर्थंकर आदिनाथ का स्मरण करा देता है। हड़प्पा ३००, ३१७ एवं ३१८ में अंकित आजानुबाहुद्वययुक्त कायोत्सर्गी प्रतिमा का प्रमाण मोहनजोदड़ो में उपलब्ध होता है।
सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद की ऋग्वैदिक एवं उत्तर वैदिक काल की मूर्तिकला अन्धकाराच्छन्न है। इतने लम्बे अन्तराल में सांस्कृतिक और कलात्मक विच्छिन्नता का हो जाना एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जिसका समाधान अभी तक सामने नहीं आ पाया। इसी तरह सिन्धु लिपि का अभी तक निर्विवाद रूप से पढ़ा न जा पाना तथा उसका ब्राह्मी लिपि से कोई सम्बन्ध स्थापित न हो पाना भी अध्येताओं के लिए एक समस्या बनी हुई है। सिन्धु सभ्यता एक सुसंस्कृत और विकसित सभ्यता थी जिसे विद्धानों ने अनार्य सभ्यता कह दिया। उसके प्रवर्तक शांति प्रकृति के महापुरुष थे। यह अनार्य सभ्यता जैन सभ्यता होनी चाहिए, द्रविड़ सभ्यता होनी चाहिए। कालान्तर में कदाचित् युद्धकर्मा आर्यों ने उन पर आक्रमण किया और अपनी विकसित युद्ध प्रणाली तथा अपने उच्चतर सैनिक संगठन के कारण उन्हें पराजित किया और उनकी सभ्यता को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। इस प्रकार अनार्य सैन्धव सभ्यता के ऊपर आर्य सभ्यता की नींव डाली गई।
आर्य सभ्यता के प्रारम्भिक ज्ञान के लिए प्राचीनतम भारतीय ग्रन्थ ऋग्वेद अधिक सहायक सिद्ध होता है। सैन्धव सभ्यता और ऋग्वेदिक सभ्यता में बहुत अन्तर है। ऋग्वैदिक आर्यों को सैन्धव अनार्यों से भीषण युद्ध करना पड़ा। उनको उन्होंने दास-दस्यु की संज्ञा दी। देवपीयु, अदेवयु, अन्यव्रत, अयज्वन, अकर्मन् आदि जैसे निन्दात्मक शब्दों का प्रयोग किया। इन शब्दों से सांस्कृतिक वैभिन्य का पता चलता है। ऋग्वैदिक और उत्तरवैदिक संस्कृति में ब्राह्मण संस्कृति का पल्लवन हुआ जबकि सैन्धव संस्कृति जो श्रमण संस्कृति मूलक थी, ऋषभदेव की परम्परा को समाहित किये हुए थी, पार्श्वनाथ और महावीर तक चली आयी। इस बीच अनेक उतार-चढ़ाव आये, उपनिषद् परम्परा का जन्म किंवा विकास हुआ जिस पर श्रमण संस्कृति का गहरा प्रभाव पड़ा। इस ब्राह्मण संस्कृति की उपनिषदीय परम्परा के विकास की समूची पृष्ठभूमि और आधारशिला श्रमण संस्कृति है जिस पर गहराई से शोध-खोज होनी चाहिए।
वैदिक आर्यों में मूर्ति पूजा थी या नहीं, इस विषय में विद्धानों में मतैक्य नहीं। मैक्समूलर की दृष्टि में वैदिक धर्म प्रतिमाओं से परिचित नहीं रहा जबकि बोल्लेनसेन, वेंकटश्वर आदि विद्वान उनके इस मत को बिल्कुल अस्वीकार करते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद आदि ग्रंथों में वर्णित इन्द्र, वरूण आदि की प्रतिमाओं का जो रूपज्ञान होता है उससे प्रतिमा पूजा का आभास तो निश्चित होता है। यास्क ने इसी तथ्य को ‘‘आकार चिन्तनं देवतानां’’ कहकर व्यक्त कर दिया है।
तीर्थंकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की अहिंसात्मक देशना के कारण वैदिक क्रियाकाण्ड हतप्रभ होने लगे और मोक्षप्राप्ति के मार्ग में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वयात्मकता प्रस्थापित हो गई। यज्ञमय संस्कृति का रूप परिवर्तित हो गया, पुरुषार्थ संस्कृति का जन्म हुआ तथा श्रमणमूलक भक्ति तत्त्व का प्रादुर्भाव हुआ। इसी दृष्टि से ध्यानयोग का विकास हुआ और योग मुद्राओं का प्रचार-प्रसार हुआ। स्मृतिकाल तक आते-आते प्रतिमापूजन पद्धति का भी विकास हो गया।
जैन परम्परा जैनधर्म को अनादि-अनन्त मानती है परन्तु पुरातात्त्विक प्रमाण के बिना इतिहास उसकी परम्परा को पूरी तरह स्वीकार नहीं करता। तीर्थंकरों की अवधारणा को समझने के पूर्व वैदिक और बौद्ध परम्परा पर दृष्टिपात कर लेना, आवश्यक है।
सभी धर्मों से प्रकृति की उपासना किसी न किसी रूप में की है। देवी-देवताओं की मान्यता भी उसी उपासना का फल है। वैदिक संस्कृति में प्रारम्भ में स्थानों के आधार पर तीन देवों की कल्पना आई-पृथ्वी के देवता अग्नि, वायुमण्डल के इन्द्र तथा स्वर्ग के सूर्य माने गये। इनमें से प्रत्येक का सम्बन्ध ११-११ देवों से रहा। ब्राह्मण काल में इन देवों का रूप और नामकरण बदला। सभी आकाश स्थानीय देवता आदित्य के नाम से विख्यात हुए और उनकी संख्या १२ हो गई। अन्तरिक्ष स्थानीय देवता रुद्र के नाम से और पृथ्वी स्थानीय देवता वसु के नाम से प्रसिद्ध हुए जिनकी संख्या १४ हो गई। अन्तरिक्ष स्थानीय देवता रुद्र के नाम से और पृथ्वी स्थानीय देवता वसु के नाम से प्रसिद्ध हुए जिनकी संख्या क्रमशः ११ और ८ हो गई। इन ३३ देवों (१२+२+११+८) के स्थान पर बाद में कुल ३१ देव रह गये। कभी-कभी द्यौस और पृथ्वी को मिलाकर ३३ की संख्या भी बना ली जाती थी । पुराण काल में बारह आदित्यों में से केवल विष्णु,ग्यारह रुद्रों का समूहात्मक रूप शिव और आठ वसुओं के स्थान पर प्रजापति ब्राह्मण ये तीन देवता प्रतिष्ठित हुए। ये तीनों देव सर्वत्र एक साथ रहते हैं। कालान्तर में इन तीनों देवों के लक्षण और रूप निर्धारित हुए।
इसी तरह से वैदिक धर्म के अन्तर्गत देवियों के दो रूप प्राप्त होते हैं, वैष्णवी तथा शक्ति अर्थात् रौद्री। वैष्णवी देवियों में प्रमुख हैं-योगमाया, लक्ष्मी, सरस्वती और भू रौद्री रूप निम्न देवियों में देखा जा सकता है-पार्वती, भद्रकाली, नन्दा, दुर्गा, महिषासुर मर्दिनी, महाकाली तथा सप्तमातृकाएँ (ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौकारी, बराही, इन्द्राणी, चामुण्डा)।
वैदिक धर्म का अवतारवाद भी यहाँ उल्लेखनीय है। साधारणत: विष्णु के दस अवतार माने गये हैं-मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन (त्रिविक्रम), भार्गव राम, दशरथी राम कृष्ण और बलराम, बुद्ध तथा कल्कि। श्रीमद्भागवत् में एक स्थल पर २२ अवतारों का वर्णन है जिनमें आठवें क्रम पर ऋषभदेव तथा तथा इक्कीसवें क्रम पर बुद्ध के नाम का उल्लेख है। दूसरे स्थल पर यही संख्या तेईस हो गई है। बाद में सूर्य तथा नवग्रह (सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुव्र्ाâ, शनि, राहु, केतु) और अष्ट दिकपाल (इन्द्र, वरूण, यम, कुबेर, अग्नि, वायु, नैऋत, ईशान) भी देवकुलों में सम्मिलित हो गये।
बौद्ध धर्म में तथागत बुद्ध के त्रिकायवाद का सिद्धान्त आया-धर्मकाय, संभोगकाय तथा निर्माणकाय, जिनकी तुलना हम क्रमशः ब्रह्म, ईश्वर तथा अवतार से कर सकते हैं, उनके १८ आवेणिक धर्म (वैशिष्ट्य धर्म) भी निश्चित हुए-दस बल, चार वैशारद्य, तीन स्मृत्युपस्थान और महाकरुणा। यही धर्म महायानिक बोधिसत्त्वभूमि में १४० हो गये। इनकी तुलना जैन तीर्थंकरों के लक्षणों से की जा सकती है। बाद में महासाधकों ने बुद्ध को लोकोत्तर बना दिया।
बुद्ध की भी संख्या कालान्तर में बढ़ने लगी। बोधिसत्व (भावी बुद्ध) के रूप में। प्राचीन पालि ग्रन्थों में सात बुद्धों के नाम आते हैं-विपस्सी, सिदिव, वेस्सभू, ककुसन्ध, कोनागमन, कस्सप और गोतम। इन सभी बुद्धों की सारी जीवन घटनायें गौतम बुद्ध के समान बताई गईं जिन्हें ‘धम्मता’ की संज्ञा दी गई है। खुद्दकनिकाय के अन्तर्गत बुद्धवंश में बाद में शाक्य मुनि बुद्ध के पूर्व चौबीस बुद्धों का वर्णन मिलता है। नये नाम इस प्रकार हैं-दीपंकर, कोण्डञ्च, अत्थदस्सी, धमदस्सी, सिद्धत्थ, तिस्स और फुस्स।
अशोक के पूर्व की कोई भी बौद्ध प्रस्तर कला निर्विवाद रूप से उपलब्ध नहीं है। स्तूप निर्माण मौर्यकाल की देन है। बाद में चैत्यगृह, बोधिवृक्ष आदि प्रतीकों का जन्म हुआ। फिर गन्धार में यवनों के आने पर बुद्ध मूर्ति का जन्म हुआ। इसका समय लगभग ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है। लगभग इसी समय मथुरा में भी बुद्ध की मूर्ति का निर्माण हो चुका था। गुप्तकाल में उसका और भी विकास हुआ।अनन्तर देवी-देवताओं और पंचध्यानी बुद्धों की प्रतिमायें बनने लगीं।
इन दोनों परम्पराओं को देखने के बाद तीर्थंकरों की अवधारणा का प्रारूप किसी सीमा तक हमारे सामने खड़ा हो जाता है। परम्परागत चौबीस तीर्थंकरों का प्राचीनतम उल्लेख जैन ग्रंथों में उपलब्ध होता है।
पालि साहित्य में तीर्थंकर ऋषभदेव, अरिष्टनेमि (अरनेमि), पार्श्वनाथ और महावीर के नामों का तो उल्लेख है पर शेष तीर्थंकरों का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता। यद्यपि उनके नामों को हमने जिस किसी तरह खोज निकाला है परन्तु उसे स्पष्टतः ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता। इससे यह संभावना बलवती हो उठती है कि द्वितीय से इक्कीसवें तीर्थंकरों की क्रमिकता उत्तरकालीन विकास का परिणाम है। इन सभी तीर्थंकर की सारी जीवन घटनायें लगभग एक ही साँचे में ढली हैं उसी तरह जैसे बुद्धों की घटनायें। अवतारों की भी लगभग यही संख्या है अतः यह अधिक समीचीन दिखाई पड़ता है कि चौबीस तीर्थंकरों की पुरातात्त्विक अवधारणा लगभग द्वितीय-तृतीय ई.पू. में प्रारम्भ हुई होगी। यद्यपि साहित्यिक परम्परा इसे स्वीकार नहीं कर सकती। इनकी प्रारंभिक मूतियों भी इसी काल की हैं। इस काल मे अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियाँ नहीं मिलती। ऋषभदेव की ध्यानमुद्रा में मथुरा और चौसा से प्राप्त कुषाणकालीन (प्र.श.ई.पू. से द्वितीय शताब्दी तक) मूर्तियाँ तथा मथुरा से प्राप्त अरिष्टनेमि तथा पार्श्वनाथ और महावीर की मूर्तियाँ भी इसी तथ्य को प्रमाणित करती हैं।
इनमें भी ऋषभदेव की मूर्ति प्राचीनतम हो सकती है। सम्राट् कलिंग ने अपने हाथीगुम्फा शिलालेख में स्पष्ट लिखा है कि उसने अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में मगध पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की थी और कलिंग जिन (ऋषभदेव) की उस प्रतिमा को ससम्मान वापिस ले आया था जिसे नन्द राजा उठाकर ले गया था।
हम जानते हैं कि शिशुनागवंशीय राजा श्रेणिक बिम्बसार (छठी-पांचवी शती ई. पू.) और उसकी पत्नी रानी चेलना परम्परा से महावीर के भक्त थे। राजगृह उनके मगध की राजधानी थी। शिशुनागवंश का उत्तराधिकारी नन्दराजा हुआ और नन्दराजा का मंत्री शकटाल था अतः मगध और कलिंग को जैन केन्द्र के रूप में स्वीकार किया गया है। कलिंग खारवेल के इस शिलालेखीय प्रमाण को यदि हम स्वीकार कर लें तो फिर हमें यह कहने में संकोच नहीं होगा कि मूर्तिकला के क्षेत्र में हम इस जैनधर्म का प्राचीनतम प्रमाण कह सकते हैं। इस समय की मूर्ति की क्या विशेषतायें थी इसकी सही जानकारी अवश्य नहीं मिलती पर प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय बम्बई में सुरक्षित पार्श्वनाथ की कायोत्सर्ग मूर्ति को ऐसी मूर्ति की अनुकृति के रूप में देखा जा सकता है।
जैन मूर्तिकला के विकास के विषय में जानने के पहले हम गुहा और विहार के विषय में भी समझ लें। विहार पर्वतों को काटकर बनाये जाते थे। पर्वत की तलहटी में सर्वप्रथम बरामदा तैयार किया जाता। उसमें एक प्रवेश मार्ग होता जिससे आँगन में जाया जाता था। आँगन के चारों तरफ बरामदे और कमरे रहते थे। आँगन भी बंद रहता था। खिड़कियाँ प्रायः नहीं रहती थीं। इस प्रकार पर्वतों पर खोदी गई गुफायें ही विहार बन गईं। उदयगिरि-खण्डगिरि इसके उदाहरण हैं। उत्तरकाल में गृह के आहार पर विहारों का विकास होता रहा। उड़ीसा की ये जैन गुफायें पश्चिमी भारत के विहारों से भिन्न हैं। यहाँ आँगन खुले हैं। इसका विकसित रूप एलोरा की जैन गुफाओं में देखा जा सकता है। कला की दृष्टि से ये अलंकृत हैं और देवमन्दिर का रूप लिये हुए हैं। श्रमणों का निवास यहाँ नहीं था। इन गुफाओं ने आगे जैनेतर गुफाओं के निर्माण में भी अपना योगदान दिया।
इसके बाद जैन मूर्तिकला का विकास मौर्य एवं शुंग काल में हुआ। मौर्य राजाओं (ई.पू.३१७ से ई.पू.१८४) में जैन साहित्य के अनुसार चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक, कुणिक, सम्प्रति और दशरथ जैनधर्मानुयायी राजा थे। दुर्भिक्ष काल में भद्रबाहु कर्नाटक पहुँचे जहाँ जाकर चन्द्रगुप्त ने जिनदीक्षा ग्रहण की। आज भी उस पहाड़ी को ‘चन्द्रगिरि’ कहते हैं।दक्षिण में जैनधर्म का प्रचार प्रथमतः इसी समय हुआ। अशोक के पौत्र सम्प्रति को श्वेताम्बर जैन ग्रंथों में ‘परम अर्हत्’ कहा गया है। उसने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया और उज्जैन में जैन उत्सवों को मनाने की परम्परा प्रारम्भ की (आवश्यकसूत्र, ४३५-३६; परि. पर्वन् ९. ५४)।
इन साहित्यिक प्रमाणों के अतिरिक्त पुरातात्त्विक प्रमाण के रूप में लोहानीपुर (पटना) से प्राप्त मस्तक विहीन कायोत्सर्ग मुद्रा में नग्न मूर्ति को मौर्य युगीन माना जा सकता है। इस पर चमकदार आलेख है जो उसे लगभग तृतीय शती ई.पू. की सिद्ध करता है। वर्तमान में यह पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। इस मूर्ति का सौष्ठव और शरीर रचना का संतुलन उसे परमयोगी की मूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित करता है यहीं एक और जिनप्रतिमा का धड़ मिला है। इस काल में तीर्थंकर की मूर्तियों पर साधारणतः चिह्न नहीं उकेरे जाते थे बल्कि उनकी पहचान उनकी पादपीठ में उट्टंकित शिलालेखों से होती थी। वक्षस्थल पर श्रीवत्स तथा हस्ततल या चरणतल पर धर्मचक्र अथवा उष्णीस के चिह्न अवश्य होते थे। ऋषभदेव के सिर पर जटाजूट, सुपार्श्वनाथ के सिर पर पाँच फण तथा पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर सप्तफण भी उकेरे जाते हैं ये विशेषतायें शुंगकाल में अधिक विकसित हुईं।
शुंगकाल वैदिक धर्म का पुनरुद्धारकाल कहा जा सकता है। इस वंश का संस्थापक पुष्यमित्र जैनों और बौद्धों से द्वेष करने वाला था। कलिंग नरेश खारवेल ने संभवतः इसीलिए मगध पर आक्रमण कर ऋषभदेव की प्रतिमा को वापिस प्राप्त किया था।
मूर्तिकला के साथ गुफाओं और वास्तुकला का भी संबंध जुड़ा है। अशोक द्वारा आजीविक सम्प्रदाय को भेंट किये गए प्राचीनतम तीन गुफा समूह गया, बाराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों के पास प्राप्त हुए हैं जिसकी पुरालिपि उसे ई.पू.तृतीय शती की सिद्ध करती है। हम जानते हैं कि आजीविक सम्प्रदाय का संबंध दिगम्बर जैन सम्प्रदाय से अधिक रहा है।
वास्तविक रूप में प्राचीनतम गुफाओं के रूप में हम उदयगिरि और खंडगिरि गुफाओं का उल्लेख कर सकते हैं। कलिंग ने अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में इन पहाड़ियों पर जैन गुफायें, स्तूप, विहार और मन्दिरों का निर्माण कराया। हाथी गुफा शिलालेख में यह सब विस्तार से वर्णित है। इन गुफाओं को विहार के रूप में विकसित किया गया। ये गुफायें प्रायः दो मंजिलों की हैं। कोठरियाँ और बरामदे भी हैं। बिना स्तम्भ और बरामदें वाली गुफायें छोटी और अलंकृत हैं तथा स्तम्भयुक्त बरामदे वाली गुफायें बड़ी और अलंकृत हैं। इनमें रानी गुफा का शिल्प अधिक अलंकृत है। शिल्पांकित तोरण शासन देवियाँ, आयुध, वाहन और द्वारपाल भी अंकित हुए हैं। कलिंग जिनमूर्ति संभवतः इसी में स्थापित रही होगी। शासन देवियों का अंकन कदाचित् यहाँ पहली बार हुआ है। यह इसकी विशेषता है।
जूनागढ़ (गिरनार) में लगभग बीस शैलोत्कीर्ण गुफायें हैं जो बाबा प्यारा मठ की गुफायें कहलाती हैं। ये तीन पंक्तियों में बनी हैं। इनमें मंगल कलश, स्वस्तिक, श्रीवत्स, भद्रासन, मीनयुगल आदि चिह्न मिलते हैं। इसका काल लगभग ई.पू.द्वितीय शती है। यह धरसेनाचार्य की चन्द्रगुफा हो सकती है। क्षत्रपकालीन ये गुफायें कुछ ऐसी ही विशेषतायें लिए हुए हैं। कालकाचार्य का सम्बन्ध भी गुजरात से इसी काल में रहा है।
राजगृह के समीप सोनभण्डार नाम का एक जैन गुफा समूह है जो प्रथम द्वितीय शती का होना चाहिए। इसका विशेष सम्बन्ध दिगम्बर सम्प्रदाय से है। इसके कक्ष विशाल आयताकार हैं और द्वारस्तम्भ ढलुवा हैं। यहाँ प्राप्त लेख के अनुसार ये गुफायें वैरदेव मुनि ने जैन साधुओं के आवास की दृष्टि से बनवाईं थीं। इसमें तीर्थंकर मूर्तियाँ भी स्थापित की गईं। विदिशा की उदयगिरि जैन गुफायें भी उल्लेखनीय हैं जिनका समय ई.पू. माना जाता है।
इसी काल में दक्षिणापथ में भी तमिलनाडु में प्राकृतिक जैन गुफाओं की संख्या अधिक है। यहाँ तमिल भाषा के प्राचीनतम अभिलेख तथा प्रस्तर-स्मारक मिले हैं। गुफाओं के भीतर शिलाओं को काटकर शय्यायें बनायी गईं और तकिये भी उठा दिये। ये ई.पू.द्वितीय शताब्दी की गुफायें है। मदुरै, रामनाथनुरम, तिरुच्चरप्पल्लि, कोयम्बतूर, अर्काट आदि जिलों में गुफाओं की संख्या बहुत अधिक है। सित्तन्नवासल नामक स्थान पर प्राप्त गुफा भी उल्लेखनीय है। आन्ध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में कन्नकपुर और नगरी नामक स्थान हैं जहाँ पंच पाण्डव सहित कुछ जैन गुफायें हैं।
जैन कला की यथार्थ अभिव्यक्ति लगभग दूसरी शती ई.पू. में मथुरा में हुई।यहाँ के कंकाली टीले से जैन मूर्तियाँ, आयागपट्ट, स्तम्भ, तोरणखण्ड, वेदिकास्तम्भ, छत्र आदि उत्खनित हुए हैं। ईंटों से बना एक स्तूप भी मिला है जिसे देवनिर्मित की संज्ञा दी गई है। विविधतीर्थकल्प में इसका उल्लेख मिलता है। इस साहित्यिक परम्परा की पुष्टि कुषाणकाल्ाीन उस तीर्थंकर मूर्ति से होती है जिसके पादपीठ पर १६७ ई. के लेख में लिखा है कि यह मूर्ति देव निर्मित स्तूप में स्थापित की गयी (राज्य संग्रहालय, लखनऊ, जे २०)। यह स्तूप वस्तुतः देवों तीर्थंकरों को प्रतिष्ठित करने के लिए बनाया गया होगा, देवों द्वारा नहीं। जो भी हो, इससे जैन मूर्तिकला के द्वितीय विकासक्रम की रूपरेखा को समझा जा सकता है जिसकी पृष्ठभूमि में भक्तितत्त्व समाहित रहा है।
मथुरा की मूर्तियाँ चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर से निर्मित हुई हैं। ये मूर्तियाँ दिगम्बर हैं और विशेषतः आयागपट्टों पर उत्कीर्ण हैं। चिह्नों का प्रयोग इस समय तक नहीं हुआ था पर वहाँ नंद्यावर्त, धर्मचक्र, मीनयुगल, स्वस्तिक, कलश तथा विविध लता वृक्षों का सुन्दर अंकन अवश्य हुआ है। यहाँ चौमुखी मूर्तियाँ (सर्वतोभद्र) भी मिली हैं। इन कुषाणयुगीन मूर्तियों के शिलालेखों में कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के नाम भी मिलते हैं। नेमिनाथ और बलराज की भी मूर्तियाँ मिली हैं। इन मूर्तियों पर बोधिवृक्ष भी उत्कीर्ण हुए हैं। देवत्व और वीतरागता का भी मनोहारी अंकन इन मूर्तियों पर हुआ है। यहाँ एक ऐसी भी मूर्ति है जिसका शिर नहीं है। उसके बायें हाथ में पुस्तक है। इसे सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति कहा गया है। ये मूर्तियाँ ई.पू. प्रथम द्वितीय शती की हैं। इस काल की मूर्तियों में कला-कौशल अधिक नहीं है। इनका नीचे का भाग प्रायः स्थूल है और स्कन्ध तथा वक्ष चौड़ा है। इसके बावजूद चेहरे पर शांति तथा आध्यामिकता के चिह्न स्पष्टतः दिखायी देते हैं। इस समय तक कदाचित् दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेद नहीं हुआ था। सारी मूर्तियाँ दिगम्बर ही हैं।
मथुरा एक व्यापारिक केन्द्र था और शायद मूर्ति निर्माण की स्थली भी। यह केन्द्र अनेक राजमार्गों से जुड़ा था तथा वैदिक और बौद्ध संस्कृतियों का भी वह एक महत्त्वपूर्ण नगर था परंतु द्वितीय शती ई. के अंत तक कुषाणों का पतन हो जाने के बाद मूर्ति निर्माण कला पर आघात आया। वहाँ नागवंश का उदय हुआ जो जैन परम्परा से पोषित था। मथुरा वाचना भी यहीं हुई लगभग चतुर्थ शती में, फिर भी कला का ह्रास सा ही हुआ।
मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अवशेष दूसरी शती ई.पू. से लेकर कुषाण काल के अंत तक के मिलते हैं जो जैन कला के विकास की सूचना देते हैं। इस काल में जैनों में स्तूप, चैत्यवृक्ष,धर्मचक्र, आयागपट्ट, अष्टमंगलद्रव्यपूजा, दिगम्बर मूर्ति (वस्त्रावरण चिह्न विरहित), सर्वतोभद्र प्रतिमा (चतुर्मुखी), सरस्वती प्रतिमा आदि का प्रचलन हो गया था।
इस समय तक किंवा पूर्व मध्यकालीन तीर्थंकर प्रतिमाओं में प्रदर्शित पूरा परिकर तब तक विकसित नहीं हुआ था और मात्र प्रभामण्डल, चैत्यवृक्ष, विद्याधर गन्धर्व ही अंकित पाये जाते हैं। कुषाणकालीन प्रतिमाओं में तीर्थंकर लांछन, करडोरा और सम्बद्ध यक्ष-यक्षिका का भी अंकन नहीं पाया जाता। चमरधारी यक्षों के स्थान पर दाता उपासक-उपासिका अथवा मुनि-आर्यिका के अंकन पाये जाते हैं। साथ ही सिंहासन पर दोनों ओर सिंह और धर्मचक्र अंकित होते थे, लांछन के अभाव में लेख में उल्लिखित तीर्थंकरों के नाम से तीर्थंकर मूर्ति जानी जाती थी। कुषाणकालीन प्रतिमाओं में बहुधा ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर की मूर्तियाँ मिलती हैं पर कुषाणकाल के अंत तक चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा आ चुकी थी, आर्य स्कन्दिल की माथुरी वाचना (ल. ३०० ई.पू.) के पूर्व ही।
कल्पसूत्र में तीर्थंकरों के लांछन का कोई उल्लेख नहीं है। अष्ट प्रातिहार्यों का अंकन अवश्य प्रारंभ हो चुका था जिसका अंतिम रूप गुप्तकाल के अंत तक स्थिर हो गया। गुप्तकाल के अंत तक ही लांछनों में भी स्थिरता आ पायी । चैत्यवृक्ष, नैगमेष, सरस्वती, यक्षपूजा आयागपट्ट, अम्बिका, वैरोटिया और चक्रेश्वरी का अंकन भी इस समय तक प्राप्त हो गया था। गन्धर्वों का उत्कीर्णन इस समय अधिक होता था।
यहाँ आयागपट्ट विशेष उल्लेखनीय हैं। इनकी स्थापना किसी प्रशस्तिपत्र अथवा गुणानुकीर्तन पत्र के रूप में की जाती थी। प्रारम्भ में इनमें कोई लांछन विशेष नहीं होता था। वह मात्र प्रस्तर का चक्र विशेष रहा करता था। बाद में उनमें प्रतिमायें उत्कीर्ण की जाने लगीं और चिह्न भी बनाये जाने लगे। साथ ही उन्हें अलंकृत भी किया जाने लगा।
मथुरा सरस्वती आन्दोलन का केन्द्र रहा है जहाँ से आगमिक ज्ञान का लिपि वर्धाकरण और जैन पुस्तक साहित्य का प्रणयन प्रारम्भ हुआ। इस सन्दर्भ में इस आन्दोलन की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की आदमकद मूर्ति उदाहरणीय है। कुन्दकुन्द आदि दिगम्बराचार्यों का साहित्य सृजन तथा श्वेताम्बर साहित्य की आगमिक वाचनायें इसी का परिणाम थीं।
समवशरण के आधार पर विकसित सर्वतोभद्र (चन्द्रमुखी) प्रतिमा की स्थापना भी इसी काल से प्रारम्भ हुई। साधारण तौर पर इनमें ऋषभ, शांति, पार्श्व और महावीर की प्रतिमायें होती थीं पर बाद में चौबीसी प्रतिमाओं ने स्थान ले लिया। इसी समय स्वस्तिक, पूर्णघट, नन्द्यावर्त जैसे प्रतीकोें का भी प्रचलन हो गया था। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि इस काल तक त्रेसठ शलाका पुरुषों की सूची तैयार हो चुकी थी जिसका सर्वप्रथम उल्लेख पउमचरिय (५.१४५-५७) में हुआ है। सरस्वती, नैगमेषी, कृष्ण-बलराम की मूर्तियों का प्रचलन हो चुका था। ऋषभ के जटाजूट, पार्श्व के सप्तफण, अष्ट प्रातिहार्य, मांगलिक चिह्न, श्रीवत्स, धर्मचक्र, ध्यानमुद्रा, कायोत्सर्ग मुद्रा आदि जैसे तत्त्वों का अंकन इस युग की विशेषता रही है।
मौर्यवंश के पतन के बाद अनेक राजवंश खड़े हुए जिनमें सातवाहन एक था। इसका अस्तित्व ई.पू.प्रथम शती से ई. सन् तृतीय शती के आसपास तक रहा। शर्ववर्म का कातन्त्र व्याकरण और गुणाढ्य की बृहत्कथा इसी काल की देन है। इस समय मथुरा और सौराष्ट्र जैनधर्म के केन्द्र थे। यापनीय संघ के अधिष्ठाता शिवार्य की साहित्य साधना भी सम्भवतः मथुरा से ही प्रारम्भ हुई होगी। मथुरा के कंकाली टीले के उत्खनन से पता चलता है कि यह नगर लगभग दशवीं शताब्दी तक जैन केन्द्र रहा है। पंचस्तूपान्वय का प्रारम्भ भी यहीं से हुआ। इसी काल में सौराष्ट्र में महिमानगरी में एक जैन सम्मेलन भी बुलाया गया। पुष्पदंत और भूतबली द्वारा इसी के प्रारम्भिक काल में प्राकृत साहित्य का सर्वाधिक सृजन हुआ। दिगम्बर-श्वेताम्बर सम्प्रदायों के रूप में जैन संप्रदाय का विभाजन भी संभवतः इसी काल का परिणाम है।
इसके बाद कुषाणकाल (प्रथम शताब्दी ई.पू.से द्वितीय शताब्दी तक) में भी जैनधर्म फलता-फूलता रहा। गान्धारकला और मथुराकला इसी समय की देन है जिनका उपयोग जैन मूर्तिकला के क्षेत्र में बहुत अधिक किया गया। कुषाणों के बाद लगभग चतुर्थ शती तक के उत्तरी भारत में यौधेय, मद्र, मालव, नाग, वाकाटक आदि जातियों के गणराज्य अस्तित्व में आये। जैन संस्कृति उनमें भी अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती रही। उज्जैन, मथुरा, अहिच्छत्र आदि नगरियाँ जैनधर्म के प्रभाव में थीं जहाँ जैन मूर्तिकला विकसित होती रही। उज्जैन के कालकाचार्य, मथुरा का जैन स्तूप और अर्धफलक संप्रदाय तथा यापनीय संघ, नागराजाओं की नागर शैली आदि विशेषतायें इसी समय हुईं। पादलिप्तसूरि आदि अनेक जैनाचार्यों का भी यह कार्यक्षेत्र रहा है। भद्रबाहु (लोहाचार्य), द्वितीय कुमारनन्दि, कुन्दकुन्द का भी यही समय रहा है। इसी समय ६६ ई. में महिमा नगरी में अर्हतबली ने एक जैन सम्मेलन बुलाया था।
गुप्तवंश प्रायः वैदिक संस्कृति का अनुयायी रहा है परन्तु यह अन्य धर्मावलम्बियों के सांस्कृतिक और साहित्यिक केन्द्रों को विकसित करने में कभी पीछे नहीं रहा। हरिगुप्त, सिद्धसेन, हरिषेण, रविकीर्ति, पूज्यपाद, पात्रकेशरी, उद्योतनसूरि आदि जैनाचार्य इसी समय हुए हैं। मथुरा, हस्तिनापुर,भिन्नमाल, वाराणसी, वैशाली, राजगृह, पाटलिपुत्र आदि नगरियाँ जैनधर्म के केन्द्र के रूप में मान्य थीं। श्वेताम्बर आगम साहित्य का लेखन भी देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने लगभग पंचम शताब्दी में गुजरात में किया। सप्तम् शताब्दी में जिनभद्र क्षमाश्रमण एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं जिनका सम्बन्ध शीलादित्य से रहा है। जूनागढ़ के समीप बाबा प्यारामठ में कुछ जैन प्रतीक भी मिले हैं।
गुप्तकाल में चतुर्थ शती से ही मूर्ति निर्माण अधिक हुआ है। इस काल के प्रारम्भ में मथुरा में जैनधर्म उतना लोकप्रिय नहीं रहा जितना कुषाणकाल में था पर कला लालित्य अवश्य बढ़ा है। आसन में अलंकारिता और साज-सज्जा, धर्मचक्र के आधार में अल्पता, परमेष्ठियों का चित्रण, गंधर्व युगल व अंकन, नवग्रह तथा भूमण्डल का प्रतिरूपण इस काल की मूर्तियों की विशेषता है। प्रतिमाओं की हथेली पर चक्र-चिह्न तथा पैरों के तलुओं में चक्र और त्रिरत्न उकेरा जाता था। छत्रमय,छत्रावली तथा लांछन का अभाव इस समय की मूर्तियों पर स्पष्ट दिखायी देता है। मथुरा संग्रहालय में गुप्तयुग की मूर्तियों का अच्छा संकलन है। वेसनगर, बूढ़ी चन्देरी तथा देवगढ़ में भी गुप्तयुगीन मूर्तिकला के दर्शन होते हैं।
राजगिर, कुमराहर, वैशाली, चौसा, पहाड़पुर आदि से प्राप्त कांस्य, प्रस्तर तथा मृण्मूर्तियों के देखने से पता चलता है कि कलाकारों में सौन्दर्यबोध बढ़ चुका था। मूर्तियों के भावों में सरलता, सामंजस्य और आध्यात्मिकता का अंकन और अधिक स्पष्ट हो गया था, प्रतिमाओं पर कुछ चिह्न भी बनने लगे थे।
विदिशा के समीप दुर्जनपुर में उपलब्ध जैन मूर्तियों पर रामगुप्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इन प्रतिमाओं पर कोई चिह्न नहीं हैं। चिह्नों की पूर्ण स्वीकृति गुप्तकाल के अंतिम समय तक हो सकी होगी, ऐसा प्रतीत होता है। विदिशा के समीप ही उदयगिरि और वेसनमूर से भी जैन मूर्तियाँ मिली हैं। पन्ना जिले के नचना ग्राम के समीपवर्ती सीरा नामक पहाड़ी से भी मनोहारी तीर्थंकर मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जिनके इन्द्र और विद्याधर युगल गुप्तकाल के उत्तम प्रतिनिधि हैं पर यहाँ की मूर्तियों में अलंकरण उभरकर अधिक दिखाई देता है।
आकोटा समूह से उपलब्ध कुछ कांस्य मूर्तियाँ हैं जिनमें एक जीवन्त स्वामी की भी मूर्ति है। वह कायोत्सर्ग मुद्रा में है और मुकुट, कुण्डल, भुजबन्ध, कंगन तथा धोती पहने हुए है। एक अन्य मूर्ति का प्रभामण्डल दर्शनीय है। एकावली युक्त अम्बिका का भी अंकन हुआ है। कंबू-ग्रीवा शैली यहाँ अधिक लोकप्रिय दिखाई दे रही है।
इस काल में भी मथुरा नगरी कला का केन्द्र बनी रही पर उसके कलाकेन्द्र नष्ट-भ्रष्ट कर दिये गये। मथुरा के समीप कामन की चौंसठ खम्भा नामक प्राचीन मसजिद ऐसी ही है जिसमें दसवीं-ग्यारहवीं शती की जैन मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। बयाना की उरवा मसजिद भी ऐसी ही है जो जैनमंदिर को नष्ट कर बनायी गयी है। अजमेर, दिल्ली आदि ऐसे और भी दर्जनों स्थान हैं जहाँ के जैन मंदिर, मसजिदों अथवा हिन्दू मंदिरों में परिवर्तित कर दिये गये।
पश्चिम भारत में ७ वीं से १० वीं शताब्दी के बीच मूर्ति कला में कुछ विकास हुआ। ओसिया के महावीर मंदिर की पाषाण प्रतिमाएँ सामान्यतः आकोटा में उपलब्ध प्रतिमाओं के समान हैं पर उनमें कुछ विकसित शैली ही दिखायी देती है। इस समय तक लांछन, शासन देवी-देवता आदि सब कुछ निश्चित हो चुका था। यह भी ज्ञातव्य है कि भरत, बाहुबली, पंचपरमेष्ठी जिनों के माता-पिता, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि का भी अंकन होने लगा। श्वेताम्बर संप्रदाय में राजस्थान और गुजरात में जिनमूर्तियों के सिंहासन के बीच शान्तिदेवी की स्थापना भी होने लगी। लगभग १०-११वीं शती में शान्तिदेवी की दो भुजाओं में पद्म और पुस्तक का अंकन रहता है। इसी तरह ब्रह्म शान्तियक्ष, कपर्दी यक्ष और गणेश की मूर्तियाँ भी श्वेताम्बर संप्रदाय में ही लोकप्रिय हो सकती हैं, गणेश विशुद्ध रूप से वैदिक देवता है पर उसे जैन देवकुल में लगभग १०वी शती में सम्मिलित कर लिया गया। ओसिया, कुभारिया आदि स्थलों पर उसकी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यह दृष्टव्य है कि इन देवी-देवताओं को दिगम्बर परम्परा ने बिलकुल भी स्वीकार नहीं किया।
दक्षिणापथ में ७वीं से १०वीं शताब्दी के बीच मूर्तियों की कलात्मक शैली में अधिक विकास हुआ। बादामी पहाड़ी, मेंगुटी पहाड़ी (ऐहोल), एलोरा, श्रवणबेलगोल आदि स्थानों पर उपलब्ध आदिनाथ, पार्श्वनाथ, शांतिनाथ आदि की मूर्तियाँ विशेष आकर्षक हैं और यहाँ मूर्तिकला के विकास में नये चरण संस्थापित होते हुए दिखाई देते हैं। तिरक्कोल, तिरुमलै, बलिमलै, चिट्टामूर, उत्तमवलैयम, कुलुगुमलै, चितराल, पालघाट, गोमट्टगिरि आदि ऐसे ही कलात्मक स्थान हैं। इनमें श्रवणबेलगोल की बाहुबली की मूर्ति विशेष दृष्टव्य है। इसे १४० मीटर ऊँची चोटी वाली ग्रेनाइट की चट्टान को काटकर बनाया गया है। अर्धनिमीलित ध्यानमग्न नेत्र, सौम्य स्मित ओष्ठ, संवेदनशील नासिका और घुंघराले केश विशेष आकर्षक हैं। सभी अंगों का अंकन समन्वित और सन्तुलित ढंग से हुआ है।पालिश अभी भी नया सा चमक रहा है। कार्कल, वेणूर और गोमट्टगिरि में भी बाहुबली की मूर्तियाँ हैं पर इतनी सुन्दर और विशालाकार नहीं। ५७ फीट ऊँची इस गोम्मटेश्वर की मूर्ति को गंगवंशीय राचमल्ल (९७४-९८४ ई.) के मंत्री चामुण्डराय ने ९८३ ई. में बनवाया। इस समय की मूर्ति शैलियों में पाण्डव, पल्लव और गंग शैलियों का उपयोग किया गया है। ये मूर्तियाँ कहीं शैलाश्रित हैं और कही निर्मित हैं। केरल में जैनधर्म नवीं शती में चेरवंश काल में पहुँचा। तलक्कवु (कन्नौर), चितराल आदि स्थानों पर जैन मूर्तियाँ बड़े परिमाण में उपलब्ध होती हैं। सभी का अंकन अलंकृत और आकर्षक है।
मध्यकाल में उड़ीसा की खण्डगिरि की गुफाओं को गुफा मंदिरों का रूप दिया गया। यहाँ शैली भित्तियों पर जैन प्रतिमाओं का अंकन किया गया। शासन देवी-देवताओं का भी निर्माण हुआ। वारभुजी गुफा में यह प्रक्रिया अधिक अपनायी गयी।
छठी शती से ग्यारहवीं शती के बीच दक्षिणापथ में स्थापत्य कला का पर्याप्त विकास हुआ है। वातापी, पल्लव, पाण्ड्या, चालुक्य, राष्ट्रकूट व गंग आदि राज्यों ने जैनधर्म को काफी प्रश्रय दिया। इनके राज्यकाल में गुफायें गुफा मंदिरों के रूप में परिणत हुईं। ऐहोल के समीप मेंगुटी पहाड़ी में वर्गाकार मण्डप की पार्श्व भित्तियों पर जैन मूर्तियाँ उट्टंकित हैं। राष्ट्रकूटकालीन एलोरा की भी शैलोत्कीर्ण गुफाओं में जैन मूर्तियाँ अलंकृत शैली में निर्मित हैं।
उत्तरभारत
लगभग आठवीं शती से भारतीय संस्कृति में तांत्रिक प्रवृत्तियों ने जोर पकड़ा और १०वीं-११वीं शती तक उसका अच्छा खासा विकास हो गया। बौद्ध और वैदिक तन्त्रकाल में पंच मकारों का खुलकर प्रयोग हुआ पर जैन तांत्रिकता उससे पूर्णतः मुक्त रही। उसमें कहीं भी हिंसा और यौनाचार की स्वीकृति नहीं दिखती। आगम और आगमेतर ग्रन्थों में विद्याओं, पिशाचों और डाकिनियों के उल्लेख आते हैं तथा ज्वालामालिनी, प्रतिष्ठासारोद्धार भैरवपद्मावतीकल्प जैसे तांत्रिक ग्रन्थ भी लिखे गये परन्तु उनमें जैनाचार की सीमा का उल्लंघन कहीं भी नहीं हुआ। कला के क्षेत्र में भी यही स्थिति है। वहाँ कहीं भी देवों और शक्तियों को आलिंगनबद्ध नहीं दिखाया गया।
दसवीं शताब्दी में उत्तर भारत में इस दृष्टि से मूर्तिकला का विकास देखा जा सकता है। उसमें तांत्रिकता ने पूरी तरह प्रवेश कर लिया। वहाँ शासन देवी-देवताओं, क्षेत्रपालोें, दिक्पालों, नवग्रहों और विद्याधरों को भी स्थान मिल गया। पंचकल्याणकों के दृश्य अधिक लोकप्रिय हुए। पद्मासनस्थ प्रतिमाओं में सिंहासन तथा अलंकृत परिकरों का अंकन किया गया। ११-१२वीं शती में इस शैली में और भी लालित्य आया। इस काल में बलुए पत्थर का उपयोग अधिक हुआ, वैसे काले और सफेद पाषाण का भी प्रयोग मिलता है। इसी समय कांस्य प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ है। अलवर और जैसलमेर की ओर इन धातु प्रतिमाओं का निर्माण अधिक हुआ है। इस काल की प्रायः सभी मूर्तियों के चेहरे चौकोर और कपोल उठे हुए से हैं। अलंकृति के भार से कहीं-कहीं यह अंकन औपचारिकता लिये हुए सा लगता है।
चौदहवीं शताब्दी से मूर्तिकला का विकास रुक सा गया। उत्तर भारत में इस समय की मूर्तियों में अनेक शैलियों का समन्वित रूप दिखायी देता है। कला सौन्दर्यपरक अवश्य है पर वह पूर्व शैलियों की अनुकृति मात्र है।
पूर्वभारत-
कहा जाता है कि बंगाल मूलतः अनार्य देश था जिसे जैनों ने आर्य बनाया। उत्तरकाल में यहाँ बौद्धधर्म का प्रचार-प्रसार होने के कारण जैन कला को धक्का लगा अवश्य पर फिर भी जैन मूर्तियों का निर्माण रुका नहीं। यहाँ पालशैली का विकास हुआ जिसे गुप्तकला के आधार पर विकसित किया गया। शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अधिक मिलने लगीं। बलुए पत्थर का उपयोग अधिक हुआ है। एलोरा, सिंहभूमि, मानभूमि, मदनापुर, बांकुर आदि स्थानों पर प्राप्त ऋषभदेव आदि तीर्थंकराँ की मूर्तियाँ में इस शैली का प्रयोग हुआ है। उड़ीसा में वानपुर, सुरोहाट, पोंडासिंगिडी, चरंपा, खण्डगिरि आदि जैन कला के केन्द्र रहे हैं जहाँ विशाल जैन मूर्तियाँ मिली हैं। उन पर गुप्तकालीन मूर्तिकला का प्रभाव दिखाई देता है। बिहार में राजगिरि की वैभार पहाड़ी और उदयगिरि पहाड़ी में सुरक्षित कुछ जैन मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं जिसमें से कुछ के पादपीठ पर कमल का अंकन है। गुप्तकाल में कमल का अंकन है। गुप्तकाल में कमल का अंकन नहीं होता था।
तेरहवीं शताब्दी के बाद पूर्व भारत में जैनधर्म और कला वैदिक धर्म और कला में अन्तर्भूत होती सी प्रतीत होती है इसलिए जैन मूर्तिकला पर वैदिक मूर्तिकला का प्रभाव अधिक पड़ा है। इस समय की जैन मूर्तियोें में सर्वतोभद्र मूर्तियों का परिमाण अधिक है। यक्ष-यक्षिणियों की भी मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।
पश्चिम भारत-
११वीं से १३वीं शताब्दी के बीच पश्चिम भारत में मूर्तिकला का सर्वाधिक विकास हुआ है। चालुक्यों ने उसे संरक्षण दिया। लगभग ७वीं शताब्दी में तीर्थंकर प्रतिमा के पादपीठ पर या उसके समीप कुबेर और अंबिका के रूप में यक्ष-यक्षिणी का अंकन होता था पर दसवीं शताब्दी में हर तीर्थंकर के शासन देवी-देवता निश्चित किये जा चुके थे। दिक्पाल की भी आकृतियाँ उकेरी जाने लगीं। सप्तमातृकाओं का भी अंकन होने लगा। विद्यादेवियाँ और देवकुलिकायें भी माउन्ट आबू के विमलवसही आदि मंदिरों में अंकित मिलती हैं। इतना ही नहीं, भित्तियों पर तीर्थंकर के जीवन से संबद्ध घटनाओं को भी उकेरा जाने लगा। इस समय संगमरमर का प्रयोग अधिक किया गया। वहाँ अलंकरण की सूक्ष्मता दर्शनीय है। इस काल में कांस्य मूर्तियाँ भी मिलने लगती हैं।
पश्चिम भारत में चौदहवीं शताब्दी से मुसलिम आक्रमण अधिक हुए हैं और फलतः कला का विकास अधिक नहीं हो पाया फिर भी मेवाड़ के राणा शासकों ने जैन मूर्तियों और मंदिरों का निर्माण सहृदयतापूर्वक किया। इस समय की नागर शैली को पश्चिम भारतीय रूप में रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया गया। सुघड़ता और अलंकारिता इस काल की मूर्तिशैली की अन्यतम विशेषतायें हैं। चित्तौड़ रणकपुर, पालीताना आदि स्थानों में उपलब्ध मूर्तियाँ इसके उदाहरण हैं। कुछ मूर्तियाँ ऐसी भी मिलती हैं जो भौंड़ी आकृति की हैं। कहा जाता है कि शाह जीवराज पापड़ीवाल ने सं. १५४८ (१४९० ई.) में लगभग एक लाख मूर्तियाँ बनवाकर सारे भारतवर्ष में वितरित करायी थीं, जो प्राय: भारत के हर दिगम्बर जैन मंदिर में मिलती हैं।
मध्यभारत-
मध्यभारत में गुप्तोत्तरकालीन मूर्तियों में कुण्डलपुर (दमोह) की पार्श्वनाथ प्रतिमा, पिथोरा (सतना) की पतियाना देवी के मंदिर की जैन मूर्तियाँ, तेवर (त्रिपुरी) की धर्मनाथ की मूर्ति, ग्वालियर किले की अंबिका तथा आदिनाथ की मूर्तियाँ, ग्यारसपुर (विदिशा) की यक्ष-यक्षियों तथा तीर्थंकर की मूर्तियाँ और देवगढ़ की शान्तिनाथ की मूर्तियाँ विशेष दृष्टव्य हैं। पश्चिम भारत में बलभी नगरी इस काल में भी जैनकला केन्द्र के रूप में प्रतिष्ठित बनी रही। यहाँ की मूर्तियाँ आकोटा की मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं। बड़वानी (बावनगजा) की १३-१४वीं शती की ८४ फीट की खड्गासन प्रतिमा भी उल्लेखनीय है।
यहाँ खजुराहो की चन्देलकालीन कला प्रसिद्ध है। यहाँ की कुछ जैन मूर्तियाँ हैं जो उकेरकर बनायी गई हैं और रीतिबद्ध हैं। कुछ शासन देवी-देवताओं की मूतियाँ हैं जो मानव के समान अलंकृत हैं पर कौस्तुभ मणि या श्रीवत्स तथा लम्बी माला से पृथकता लिये हुए हैं। कुछ अप्सराओं और सुर सुन्दरियों की तारुण्य लिये मूर्तियाँ हैं जो अधिक लुभावने हावभाव से युक्त हैं और कुछ पशु-पक्षियों की प्रतीकात्मक मूर्तियाँ हैं जो कुछ अधिक वैशिष्ट्य लिये हुए हैं। यहाँ की मूर्तिकला में पूर्व की संवेदनशीलता तथा पश्चिम की अधीरतापूर्ण किन्तु मृदुलताहीन कला का सुखद संयोजन है।
मध्य भारत में इस काल में मूर्तियाँ परम्परा के अनुसार वृहत् परिमाण में बनीं। सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्रों को संवारा गया। सोनागिरी, द्रोणगिरि, रेशन्दीगिरि, ग्वालियर, आहारजी, पपोरा, देवगढ़, बरहटा आदि स्थानों पर मंदिरों का निर्माण इसी अवधि में हुआ। इनमें नागर अथवा शिखर शैली का प्रयोग हुआ है। इसी काल में मूर्तियों का आकार विशाल बना। सौदर्न्य और भावाभिव्यक्ति में यद्यपि कमी नहीं आई फिर भी परिमाण का आधिक्य होने से समरसता का पालन नहीं किया जा सका। इनके निर्माण में ग्रेनाइट और बलुए पत्थर का प्रयोग किया गया। चंदेरी, उज्जैन, भानपुरा (मन्दसौर), धार, बड़वानी, झाबुआ,थूबोन, कुण्डलपुर, बीना-बारहा, टीकमगढ़, अजयगढ़ आदि उल्लेखनीय स्थान हैं।
दक्षिण भारत-
इस काल में दक्षिण भारत में चालुक्यकालीन मूर्तिकला में अंबिका और कुबेर का अंकन तीर्थंकर के परिकर रूप में अधिक लोकप्रिय हुआ। साथ ही अन्य देवी—देवताओं का भी अंकन अलंकृत रूप में होने लगा। इस काल की अंबिका की प्रतिमाओं को चतुर्भुजी बना दिया गया। चौखटों, भ्रमतियों और कोष्ठों का अलंकरण इन्हीं प्रतिमाओं से होने लगा। विमलवसही का मंदिर इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। ब्राह्मण आख्यानों का भी उपयोग होने लगा। इन सभी आकारों में अंकन सूक्ष्म और मनोहारी है।
उत्तरकालीन चालुक्य, विजयनगर होयसल और यादव राजवंश में जैनधर्म को अधिक प्रश्रय नहीं मिल सका। शैव एवं वैष्णवधर्म से उसे जूझना पड़ा। फिर भी जैन कला का विकास अवरुद्ध नहीं हुआ। यहाँ के गं्रथालयों की भित्तियों पर लोककला का शिल्पांकन हुआ जिनमें चेहरों पर रूक्षता तथा शिर पर आकुञ्चित केश और आँख की उभरी हुई पुतलियाँ अंकित हैं। कांस्य प्रतिमाओं के निर्माण में अधिक विकास हुआ। इस समय की मूर्तियाँ विशाल और पालिश युक्त हैं, सूक्ष्मांकन से हीन हैं तथा वैराग्य की अभिव्यक्ति से परिपूर्ण हैं, परिकर के रूप में शिलाफलक पर सिंहललाट सहित मकर तोरण हैं तथ कंधों आदि का आकार यथोचित है। होयसलों और पश्चिमी चालुक्यों की मूर्तिशैली में शरीर को संपुष्ट और मांसल दिखाया गया है।
तमिलनाडु की मूर्तिकला में ग्रेनाइट पाषाण का प्रयोग अधिक हुआ है। यहाँ की शैलीगत विशेषताएँ यों देखी जा सकती हैं-त्रिछत्र और लताओं का संयोजन मस्तिष्क और शरीर की चतुष्कोणीय आकृति, मकरतोरण या चमरधारियों के अंकन में कमी तथा हाथ पैर निर्बल और मस्तक छोटा। शक्करमल्लूर, हम्पी आदि स्थानों पर यह कला देखी जा सकती है परन्तु दक्षिण विजयनगर और नायक वंशों के राज्यकाल में मूर्तिकला अपेक्षाकृत अधिक अलंकृत और समन्वित रही है।
दक्षिणापथ में जैनधर्म चौदहवीं शताब्दी से वर्तमान काल तक भी अधिक जागृत रहा। अनेक शासक और सामन्त जैन धर्मावलम्बी थे। कार्कल, वेणूर, गोमट्टस्वामी की मनोहारी मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। मालखेड़, सेलम, मूडबिद्री, हम्पी, हुम्मच आदि स्थान भी महत्त्वपूर्ण हैं। यहाँ की मूर्तियों में अनेक शैलियों का सम्मिश्रण दिखाई देता है। काकतीय शैली का भी प्रयोग हुआ है। मूर्तियाँ सुन्दर और आकर्षक हैं,भावाभिव्यक्ति पूर्ण हैं। इस काल में जैन मूर्तियों और मंदिरों का भयंकर विनाश किया गया।
जैन परम्परा में मृण्मूर्तियाँ प्रचलित नहीं हो सकीं। यद्यपि ऐसी मूर्तियाँ लोकानुरंजन का प्रतिनिधित्व करती हैं पर पूज्यत्व की दृष्टि से उस पर प्रश्नचिह्न लग जाने के कारण जैन परम्परा ने उसमें कोई विशेष अभिरुचि नहीं दिखाई। यही कारण है कि यहाँ मृण्मूतियाँ अधिक उपलब्ध नहीं होतीं।
राज्य-संग्रहालय, लखनऊ में जैन तीर्थंकर की दो महत्त्वपूर्ण मृण्मूर्तियाँ संग्रहीत हैं। इनसे जैन कला एवं मूर्तिविद्या पर विशेष प्रकाश पड़ता है।
(अ) संग्रहालय की एक मृण्मूर्ति अभिलिखित है जो खीरी जिले (उ.प्र.) के मोहम्मदी नामक स्थान से उपलब्ध हुई है। इस पर तीन अक्षरों का अभिलेख है जिसमें ‘सुपार्श्व’ शब्द उत्कीर्ण है।अभिलेख की लिपि प्रारम्भिक गुप्तकालीन ब्राह्मी हैं अतः अभिलेख के आधार पर मृण्मूर्ति की पहचान जैन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ से की जा सकती है। इस मृण्मूर्ति में तीर्थंकर की आकृति एक युवक जैसी लगती है, उसका केश-विन्यास सीमन्त से लहरदार (तरंग युक्त) दिखलाया गया है। यह विशेषोल्लेखनीय है कि जैन तीर्थंकर की मूर्तियों में उन्हें प्रायः मुण्डित शिर दिखलाया जाता है पर इस मृण्मूर्ति में केश-विन्यास दिखाया गया हैं। उनके कानों में कुण्डल हैं। जैन तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ का सिर सर्प फणों से आच्छादित दिखलाया जाता है। इस मृण्मूर्ति में सिर के चारों ओर जो प्रभामण्डल है उसकी आकृति एक फण के सदृश है अत: सम्भव है कि कलाकार का उद्देश्य प्रभामण्डल न दिखलाकर सर्प फण दिखलाना भी अभीष्ट रहा हो। उसके साथ ही इस मूर्ति में वक्ष पर श्रीवत्स चिह्न नहीं है।
(ब) संग्रहालय की दूसरी जैन तीर्थंकर की मृण्मूर्ति के प्राप्ति-स्थान के विषय में जानकारी नहीं है। यह खण्डित मृण्मूर्ति है। इसमें सिर, भुजायें एवं अधोशरीर खण्डित है। तीर्थंकर की इस मूर्ति में श्रीवत्स चिह्न भी है। यह मृण्मूर्ति मूलतः ध्यानमुद्रा में रही होगी क्योंकि भुजायें वक्ष से सटी न होकर वक्ष से अलग दिखलाई गई हैं। शैली के आधार पर यह मृण्मूर्ति गुप्तकालीन प्रतीत होती है।
जैन मूर्तिकला का सर्वेक्षण करने पर हम उसके विकास क्रम को साधारण तौर पर इस प्रकार अंकित कर सकते हैं-
१. मोहनजोदड़ो, हड़प्पा में प्राप्त योगी मूर्तियों को जैन मूर्तियों के रूप में यदि स्वीकार कर लिया जाये तो उन्हें प्राचीनतम जैन मूर्तियों के रूप में मान्यता मिल सकती है।
२. मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनों का प्राचीनतम योगदान माना जा सकता है, यदि हम कलिंगजिन को नन्दकालीन मूर्ति के रूप में स्वीकार कर लें।
३. शुंग-कुषाणकाल में जिनमूर्तियों के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्न उत्कीर्ण होने लगा और कायोत्सर्ग और ध्यानमुद्रा में मूर्तियों का निर्माण होने लगा। चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा भी प्रचलित हो गई। कला-कौशल अधिक नहीं था।
४. गुप्तकाल में मूर्तिकला में लालित्य आया। नवग्रह और भामण्डल का प्रतिरूपण हुआ। कतिपय चिह्न भी उत्कीर्ण होने लगे। नवग्रह, भामण्डल का अंकन और चतुर्मुखी प्रतिमा का प्रचलन हुआ। पाँचवीं शती तक जिनों,शलाका पुरुषों, विद्याओं, यक्ष-यक्षिणियों आदि की धारणा स्पष्ट हो चुकी थी।
५. छठी शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक तांत्रिक प्रवृत्तियों का प्रभाव रहा। परिमाणतः देवकुल में और भी वृद्धि हुई। शलाका पुरुषों के लक्षण ग्रन्थ भी लिखे गये। आठवीं-नवीं शती तक तीर्थंकरों के चिह्न भी निश्चित हो गये। कला में तांत्रिकता जैनधर्म की आचार-परम्परा की परिधि में ही रही। सोलह महाविद्याओं की भी सूची तैयार हो गई। दिक्पालों का उत्कीर्णन भी प्रारम्भ हो गया।
६.दसवीं शताब्दी में नवग्रह का अंकन प्रारम्भ हुआ। क्षेत्रपाल का उत्कीर्णन लगभग ग्यारहवीं शती में हुआ। ग्यारह-बारहवीं शती में ही गणेश को भी देवकुल में सम्मिलित कर दिया गया पर उसकी लोकप्रियता श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही अधिक रही। ग्यारहवीं से तेरहवीं शती तक मूर्तिकला का सर्वाधिक विकास हुआ।
१३-१४वीं शताब्दी से मूर्तिकला का ह्रास होना प्रारम्भ हो जाता है।
८. वीतरागी मूर्तियों के आसपास सरागी शासन देव-देवियों का अंकन एक प्रश्न लिये हुए है। उनकी गणना कुलदेवों में की गई है। फिर भी उनका पूजन प्रारम्भ हो गया जो वैदिक और बौद्ध धर्म का प्रभाव है। क्रियाकाण्डी साहित्य का विस्तार लगभग १२-१३वीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है और १५वीं शताब्दी तक वह स्थापित हो जाता है। सोम, यम, वरुण और कुबेर में चार दिक्पालों की संख्या बढ़कर १० तक पहुँच गई।
९. जैन तीर्थंकर की मृण्मूर्तियाँ भी बनने लगीं पर वे परिमाण में बहुत कम हैं।
कुल मिलाकर हम भारतीयता के परिप्रेक्ष्य में यह सुनिश्चित रूप से कह सकते हैं कि जैन कला ने सतत् रूप से उसके विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मूर्तिकला का जो सौष्ठव और आध्यात्मिकनिष्ठ रूप यहाँ दिखाई देता है, वह अन्यत्र नहीं। अहिंसा और सदाचरण की पृष्ठभूमि में जैन मूर्तिकला का अवदान स्मरणीय है।
जैन मूर्तिकला के विकासक्रम को देखने के बाद जैन मूर्ति विज्ञान के इतिहास को भी समझ लें। इसे भी हम उत्तर, पूर्व, पश्चिम, मध्य और दक्षिण भारत के रूप में विभाजित कर लें पर इसी क्रम में मूर्तिकला पर पुनः दृष्टिपात कर लें। पुनरावृत्ति सी होने के बावजूद वह उपयोगी होगी।
उत्तर भारत-
जैन मूर्ति विज्ञान के क्षेत्र में साधारणतः चौबीस तीर्थंकरों, शासन देवियों,यक्ष-यक्षिणियों तथा देवों की मूर्तियों का तक्षण हुआ है अतः सर्वप्रथम उनके विषय में जानकारी आवश्यक है।
चौबीस तीर्थंकरों की मान्यता आगम काल से तो मिलती ही है, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोहानीपुर से प्राप्त मस्तक- विहीन नग्न योगी की मूर्तियों को यदि ऋषभदेव की मूर्तियों के रूप में मान्यता मिल जाये तो यह परम्परा और भी प्राचीन कही जा सकती है। इन तीर्थंकर की मूर्तियों पर प्रारम्भ में साधारणतः चिह्न नहीं उकेरे जाते थे बल्कि उनकी पहचान उनकी पादपीठ में उट्टंकित शिलालेखों से होती थी। वक्षस्थल पर श्रीवत्स तथा हस्ततल या चरणतल पर धर्मचक्र अथवा उष्णीस के चिह्न अवश्य होते थे। ऋषभदेव के शिर पर जटाजूट, सुपार्श्वनाथ के शिर पर पाँच फण तथा पार्श्वनाथ प्रतिमा पर सप्तफण भी उकेरे जाते थे। कलिंग से नन्द द्वारा लाई गई जिनमूर्ति और फिर आक्रमण कर खारवेल द्वारा उसकी पुनः प्राप्ति से पता चलता है कि नन्दकाल में जैन मूर्तियों का प्रचलन हो चुका था। वहाँ की मूर्तिकला उल्लेखनीय हैं।
मथुरा प्राचीनकाल से ही जैनकला का केन्द्र रहा है। यहाँ के कंकाली टीले से जैन मूर्तियाँ, आयागपट्ट, स्तम्भ, तोरण खण्ड, वेदिकास्तम्भ, छत्र आदि उत्खनित हुए हैं। ईंटों से बना एक स्तूप भी मिला है जिसे देवनिर्मित स्तूप की संज्ञा दी गई है, मूर्तियाँ प्रायः चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर की हैं। यह मूर्तियाँ दिगम्बर हैं और विशेषतः आयागपट्टों पर उत्कीर्ण हैं। चिह्नों का प्रयोग इस समय तक नहीं हुआ था। यहाँ चौमुखी मूर्तियाँ भी मिली हैं जिन्हें ‘‘सर्वतोभद्रिका’’ प्रतिमा कहा गया है। इन कुषाणयुगीन मूर्तियों के शिलालेखों में कनिष्क, हुविष्क व वासुदेव के नाम मिलते हैं। नेमिनाथ और बलराम की भी मूर्तियाँ मिली हैं। इन मूर्तियों पर बोधिवृक्ष भी उत्कीर्ण हुए हैं। यहाँ एक ऐसी भी मूर्ति है जिसका शिर नहीं है। उसके बायें हाथ में पुस्तक है। इसे सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति कहा गया है। यह मूर्तियाँ प्रथम-द्वितीय ई. तक की मानी जा सकती हैं। इस काल की मूर्तियों में कला-कौशल अधिक नहीं है। इनका नीचे का भाग प्रायः स्थूल है और स्कन्ध तथा वक्ष चौड़े हैं। इसके बावजूद चेहरे पर शांति तथा आध्यात्मिकता के चिह्न स्पष्टता दिखाई देते हैं।
वसुदेव हिण्डी (भाग १, पृष्ठ ६१) में जीवन्त स्वामी (महावीर के जीवनकाल में निर्मित प्रतिमा) का उल्लेख मिलता है। आवश्यक चूर्णि (खण्ड १, गाथा ७७४) से पता चलता है कि बीतयपत्तन के राजा उद्दायन की रानी चंदन काष्ठ निर्मित जीवन्त स्वामी की मूर्ति की पूजा किया करती थी। बाद में प्रद्योत उसे विदिशा उठा ले गया। इसके बाद की मूर्तिकला का इतिहास अन्धकाराच्छन्न है।
महापुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में मथुरावर्ती शूरसेन देश का वर्णन है। शौरीपुर-बटेश्वर उसकी राजधानी थी। तीर्थंकर नेमिनाथ और भगवान् कृष्ण का सम्बन्ध यहीं से रहा है। यहीं से यदुवंशियों ने पश्चिम समुद्र तट पर द्वारिका बसायी थी। पार्श्वनाथ का भी सम्बन्ध मथुरा से रहा है। जम्बूस्वामी ने कैवल्य यहीं से पाया था, जैनागमों को लिपिबद्ध करने के लिए प्रसिद्ध सरस्वती आन्दोलन का सूत्रपात भी यहीं से हुआ। यहाँ की माथुरी वाचना भी प्रसिद्ध ही है। कंकाली टीले में प्राप्त जैन मूर्तियाँ, अभिलेख, देवनिर्मित स्तूप आदि अवशेष ई. पू. द्वि. शती से १२वीं शती तक की यशोगाथा गाते हैं। सरस्वती, नीलांजना अप्सरा, तोरण दृश्य, अर्धफलक दृश्य, ऋषभ प्रतिमा आदि ऐसे ज्वलंत प्रमाण हैं जो मथुरा के जैन इतिहास और पुरातत्त्व की समृद्धि की ओर संकेत करते हैं।
पूर्व भारत-
यहाँ उड़ीसा की उदयगिरि और खण्डगिरि में प्राप्त सम्राट् खारवेल द्वारा प्रतिष्ठित जैन मूर्तियों का भी उल्लेख किया जा सकता है। बाद में पूर्व भारत में बंगाल और बिहार में पाल शैली का विकास हुआ। गुप्तकाल के आधार पर इसे कुछ और सशक्त बनाया गया। शासन देवी-देवताओं की मूर्तियाँ अधिक मिलने लगीं इसमें बलुए पत्थर का उपयोग अधिक हुआ है। इस संदर्भ में मायता (मिदनापुर) तथा सोनामुर्खी (बांकुरा) से प्राप्त ऋषभदेव की प्रतिमायें उल्लेखनीय हैं। एलोरा, सिंहभूमि और मानभूमि की प्रतिमाओं में भी यह शैली मिलती है। देउलिया और पुरुलिया (वर्दवान) में प्राप्त सर्वतोभद्र प्रतिमायें भी दर्शनीय हैं, उड़ीसा में वानपुर की जैन मूर्तियाँ भी पाल शैली पर ही आधारित हैं।
पालकालीन मूर्तियों से सुरोहर (दीनाजपुर) से प्राप्त ऋषभदेव व पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार सात देउलिया (वर्दवान) से प्राप्त ऋषभदेव, महावीर, पार्श्वनाथ और चन्द्रप्रभ की मूर्तियाँ तथा मिदनापुर, बांकुरा, अम्बिकानगर, चटनगर, पाकबीरा, बलरामपुर(पुुरुलिया) आदि स्थानों से अन्य जैन मूर्तियाँ भी मिली हैं जिसमें कला-प्रदर्शन हो सका है। उड़ीसा में पोडासिंगडी (क्योझर जिला), चरंपा (बालासोर जिला), वानपुर समूह, खण्डगिरि आदि जैन कला केन्द्र रहे जहाँ विशाल जैन मूतियाँ मिली हैं। उन पर गुप्तकालीन मूर्तिकला का प्रभाव दिखाई देता है। बिहार में राजगिरि की वैभार पहाड़ी और उदयगिरि पहाड़ी में सुरक्षित कुछ जैन मूर्तियाँ भी उल्लेखनीय हैं जिनमें से कुछ में पादपीठ पर कमल का अंकन हैं। गुप्तकाल में कमल का अंकन नहीं होता था।
तेरहवीं शताब्दी के बाद पूर्व भारत में जैनधर्म और कला वैदिक धर्म और कला में अन्तर्भूत होती सी प्रतीत होती है इसलिए कि जैनकला पर वैदिक मूर्तिकला का प्रभाव अधिक पड़ा है। इस समय की जैन मूर्तियों में सर्वतोभद्र मूर्तियों का परिमाण अधिक है। यक्ष-यक्षणियों की भी मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।
पश्चिम भारत-
पश्चिम भारत जैन धर्म का प्रारंभ से ही केन्द्र रहा है। मौर्यशासन काल में सम्प्रति आदि राजाओं ने जैनधर्म को प्रश्रय तो दिया पर इसकी कोई कलात्मक कृति देखने को नहीं मिल सकी। वसुदेव हिण्डी (लगभग ५वीं शताब्दी) तथा आवश्यकचूर्णि (सातवीं शती) में महावीर के जीवनकाल में निर्मित ‘जीवन्तस्वामी’ की चन्दन काष्ठ प्रतिमा का उल्लेख अवश्य आता है पर अभी तक वह उपलब्ध नहीं हुई। कहा जाता है, इसी प्रतिमा को प्रद्योत उठा ले गया और इसे विदिशा में प्रतिष्ठित किया। हेमचन्द्र ने इसी प्रतिमा को कुमारपाल द्वारा पत्तन में प्रतिष्ठित किये जाने का उल्लेख किया। (त्रिषष्टि शलाका, १०.११.६०४)।
कायोत्सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथ की कांस्य प्रतिमा जो प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई में सुरक्षित है, लोहानीपुर और मोहनजोदड़ो से प्राप्त मूर्तियों के समकक्ष रखी जा सकती है। उमाकान्त शाह ने इसे पश्चिम भारत में निर्मित मूर्ति कहा है। पश्चिम भारत में ई.पू. और प्राथमिक शताब्दियों में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार होने के उल्लेख आदि तो अवश्य मिलते हैं पर कोई प्रतिमा अथवा मंदिर आदि प्रतीक नहीं मिले। प्राचीन जैन गुफायें अवश्य मिलती हैं।
चौथी शताब्दी से छठी शताब्दी के बीच भी कोई विशेष जैन अवशेष नहीं मिले। मूर्तियों के इतिहास में दिगम्बर मूर्तियों का निर्माण प्राचीनतम माना जा सकता है। गुप्तकालीन ऋषभनाथ की एक कांस्य मूर्ति आकोटा से प्राप्त हुई है पर वह खण्डित है अतः कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता। बलभी से पाँच तीर्थंकरों की कांस्य मूर्तियाँ खड्गासन में मिली हैं। आकोटा में जीवंत स्वामी की भी एक प्रतिमा उपलब्ध हुई है। ये सभी प्रतिमायें लगभग छठी शताब्दी की हैं। कंबु-ग्रीवा शैली यहाँ से अधिक लोकप्रिय दिखाई दे रही है।
सातवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी के बीच पश्चिम भारत की मूर्तिकला में कुछ विकास हुआ। आसिया के महावीर मंदिर की पाषाण प्रतिमायें सामान्यतः आकोटा में उपलब्ध प्रतिमाओं के समान हैं पर इनमें कुछ विकसित शैली के दर्शन होते हैं। साहित्य में अनहिलपाटन आदि में प्रतिष्ठापित मूर्तियों के भी अनेक उल्लेख मिलते हैं।
ग्याहरवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी के बीच पश्चिम भारत में मूर्तिकला आदि का सर्वाधिक विकास हुआ है। चालुक्यों ने उसे संरक्षण दिया। लगभग सातवीं शताब्दी में तीर्थंकर प्रतिमा के पादपीठ पर या उसके समीप कुबेर और अम्बिका के रूप में यक्ष-यक्षिणी का अंकन होता था पर दसवीं शताब्दी में हर तीर्थंकर के शासन देवी-देवता निश्चित किये जा चुके थे। दिक्पाल की आकृतियाँ भी उकेरी जाने लगीं। सप्त मातृकायें भी उट्टंकित होती दिखती हैं। विद्यादेवियाँ और देवकुलिकायें भी माउन्ट आबू के विमलवसही आदि मंदिरों में अंकित मिलती हैं। इतना ही नहीं, भित्तियों पर तीर्थंकरों के जीवन से सम्बद्ध घटनाओं को भी उकेरा जाने लगा। इस समय संगमरमर का प्रयोग अधिक किया गया। यहाँ अलंकरण की सूक्ष्मता दर्शनीय है। कुंभारिका के महावीर मंदिर की मूर्तिकला भी उत्तम कोटि की है। इस समय की कांस्य मूर्तियों से उस काल की ढलाई कला का भी परिज्ञान होता है। लंदन के विक्टोरिया एण्ड अल्वर्ट म्यूजियम में सुरक्षित शांतिनाथ की कांस्य मूर्ति इस संदर्भ में उल्लेखनीय है।
पश्चिम भारत में चौदहवीं शताब्दी से मुसलिम आक्रमण अधिक हुये और फलतः कला का विकास अधिक नहीं हो पाया। फिर भी मेवाड़ के राणा शासकों ने जैन मूर्तियों और मंदिरों का निर्माण सहृदयतापूर्वक कराया। ठक्कर फेरू (१३१५ ई.) के वास्तुसार से पता चलता है कि इस समय नागर शैली को पश्चिम भारतीय रूप में रूपान्तरित करने का प्रयत्न किया गया। चित्तौड़ रणकपुर पालीताना, गिरनार आदि स्थानों में उपलब्ध मूर्तियाँ इसके उदाहरण हैं। सुघड़ता और अलंकारिता इस काल की मूर्तिशैली की अन्यतम विशेषताएँ हैं। कुछ मूर्तियाँ ऐसी भी मिलती हैं जो भौंडी आकृति की हैं, कहा जाता है कि शाह जीवराज पापड़ीवाल ने सं. १५४८ (१४९० ई.) में लगभग एक लाख मूर्तियाँ बनवाकर सारे भारतवर्ष में वितरित करायी थीं।
दक्षिण भारत-
दक्षिण भारत में सप्तम् शताब्दी से दशम् शताब्दी के बीच मूर्तियों की कलात्मक शैली में अधिक विकास हुआ है। बादामी पहाड़ी, मेंगुटी पहाड़ी (ऐहोल), एलोरा, श्रवणबेलगोल आदि स्थानों पर उपलब्ध आदिनाथ, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ आदि की की मूर्तियाँ विशेष आकर्षक हैं अतः मूर्तिकला के विकास में नये चरण संस्थापित होते हुए दिखाई देते हैं। तिरक्कोल, तिरुमलै, वल्लिमलै, चिट्टामूरी, उत्तमवलैयम, कुलुगुमलै, चितराल,पालघाट, गोमट्टगिरि आदि ऐसे ही कलात्मक स्थान हैं। इनमें श्रवणबेलगोल की बाहुबली की मूर्ति विशेष दृष्टव्य है। इसे १४० मीटर ऊँची चोटी वाली ग्रेनाइट की चट्टान को काटकर बनाया गया है। अर्धनिमीलित ध्यानमग्न नेत्र, सौम्य स्मित ओष्ठ, संवेदनशील नासिका और घुंघराले केश विशेष आकर्षक हैं। सभी अंगों का अंकन समन्वित और सन्तुलित ढंग से हुआ है। पालिश अभी भी नया सा चमक रहा है। कार्कल, वेणूर और गोमट्टगिरि में भी बाहुबली की मूर्तियाँ हैं पर इतनी सुन्दर और विशालाकार नहीं। गोम्मटेश्वर की मूर्ति को राचमल्ल (९७४-९८४ ई.) के मंत्री चामुण्डराय ने ९८३ ई. में बनवाया। इस समय की मूर्ति शैलियों में पाण्ड्य, पल्लव और गंग शैलियों का उपयोग किया गया है। ये मूर्तियाँ कहीं शैलाश्रित हैं और कहीं निर्मित हैं। केरल में जैनधर्म नवीं शती में चेरवंश काल में पहुँचा। तलक्कवु (कन्नानोर), चितराल तिरुच्चारणत्तुमलै, कल्लिल, पालघाट आदि स्थानों पर जैन मूर्तियाँ बड़े परिमाण में उपलब्ध होती हैं। सभी का अंकन अलंकृत और आकर्षक है।
चालुक्यकालीन मूर्तिकला में अम्बिका और कुबेर का अंकन तीर्थंकरों के परिकर रूप में अधिक लोकप्रिय हुआ। साथ ही अन्य देवी-देवताओं का भी अंकन अलंकृत रूप में होने लगा। इस काल की अम्बिका की प्रतिमाओं को चतुर्भुजी बना दिया गया। चौखटों, भ्रमतियों और कोष्ठों का अलंकरण इन्हीं प्रतिमाओं से होने लगा। विमलवसही का मंदिर इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। ब्राह्मण आख्यानों का भी उपयोग होने लगा। इन सभी आकारों में अंकन सूक्ष्म और मनोहारी हुआ है।
इस तरह यहाँ हमने पुरातत्त्व और इतिहास के आधार पर जैन मूर्तिकला का विवेचन किया है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में उपलब्ध दिगम्बर मूर्तियों और प्रतीकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि उसकी प्राचीनता सैन्धव संस्कृति से भी पूर्वतर है जिसका समय लगभग ५००० ई.पू. तक निर्धारित किया जा सकता है। ऋग्वैदिक और औपनिषदिक काल में जैनधर्म की परम्परा का इतिवृत प्राप्त होता ही है। तीर्थंकर ऋषभदेव और उनकी परम्परा से जुड़े व्रात्य, अर्हत, केशी आदि यज्ञविरोधी सांस्कृतिक समुदायों से परिचय हमें ऋग्वेद से उपलब्ध होता ही है। जीवन्तस्वामी और खारवेल के हाथीगुम्फा शिलालेख में उल्लिखित कलिंग जिन की परम्परा भी उसी से सम्बद्ध है। ये सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष पुरातात्त्विक और साहित्यिक प्रमाण जैनधर्म की ऐतिहासिक परम्परा और उसके दिगम्बरत्व वैशिष्ट्य को सहेजे हुए हैं। उसने यथासमय अपनी कलात्मकता और सजीवता का जैनेतर मूर्तिकला और स्थापत्य पर प्रभाव छोड़ा है और ग्रहण किया है। कला और स्थापत्य के क्षेत्र में इस आदान-प्रदान पर अभी गंभीर अध्ययन अपेक्षित है।