जो राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया,लोभ आदि अंतरंग शत्रुओं को वश में करके कर्म शत्रुओं पर पूर्ण विजय प्राप्त कर चुके हैं वे ‘‘जिन’’ कहलाते हैं। उन जिन भगवान के उपासक जैन हैं। प्राणीमात्र पर दया की भावना रखने से यह जैनधर्म ‘‘सार्वभौम’’ धर्म है, इन्हीं जिन भगवान के द्वारा कथित भूगोल जैन-भूगोल कहलाता है।
यह सारा का सारा ब्रह्माण्ड तीन भाग में विभाजित है, जिसे शास्त्रीय भाषा में ऊध्र्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक नाम से कहा जाता है। दान, पूजा, ईश्वर, भक्ति,जीवदया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सत्कार्यों को करके जन्मांतर में ऊध्र्वलोक,स्वर्ग को प्राप्त किया जाता है। उसी प्रकार से जीवहिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्रीसेवन, मांसाहार आदि के द्वारा नरकवास रूप अधोलोक में जाकर महादु:ख उठाना पड़ता है।
सब के सब मनुष्य और तिर्यंच-पशु, पक्षी आदि इस मध्यलोक में ही रहते हैं, यह लोक कमर पर हाथ रखकर दोनों पैर फैलाकर खड़े हुये पुरुष के आकार का है। इसमें से कटि के नीचे का भाग अधोलोक है, ऊपर का भाग ऊध्र्वलोक है और मध्य का भाग मध्यलोक है।
इस मध्यलोक में सर्वप्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है यह गोल है किन्तु नारंगी जैसा नहीं , प्रत्युत थाली जैसा है। इसका विस्तार एक लाख योजन अर्थात् चालीस करोड़ मील है। इसे चारों तरफ से घेर कर लवण समुद्र स्थित है जो कि चूड़ी के समान आकार वाला है। इस समुद्र को घेरकर धातकीखण्ड नाम का द्वीप है। उसे घेर कर कालोदधि समुद्र है। ऐसे ही असंख्यात द्वीप-समुद्र एक दूसरे को घेरे हुये हैं और पूर्व-पूर्व के द्वीप-समुद्र से दूने-दूने विस्तार वाले होते गये हैं। इस प्रकार संपूर्ण भूमण्डल को ‘‘भूगोल’’ कहा जाता है।
यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड या भूगोल तभी से चला आ रहा है जब से यह सृष्टि है या जबसे इस संसार में जीव हैं या जब से सूर्य-चन्द्रमा हैं अथवा जबसे परमपुरुष परमात्मा हैं इसलिये इस भूगोल का न आदि है न अंत। यह सदाकाल विद्यमान है और सदाकाल ही रहेगा। यही इस जैन भूगोल की परम्परा है।
इस भूगोल को जानना आवश्यक है क्योंकि आपका दैनिक व्यवहार भौगोलिक स्थिति को जाने बिना चल नहीं सकता है। जैसे आप मेरे पास आएं तो सबसे पहले मेरा यही प्रश्न हो जाता है कि ‘‘आप कहाँ आये हैं ? तो आपने कहा ‘‘मवाना।’’
तो यह मवाना कहाँ है ?
‘‘मेरठ जिले में।’’
यह मेरठ कहाँ है ?
‘‘उत्तर प्रदेश में, पुन: प्रश्न करने वाला यदि विदेशी है तो वह आगे और भी पूछने लगता है।
‘‘भाई ? यह उत्तर प्रदेश कहाँ है ?’’ आप उसे बतलाएंगे ।
‘‘मित्र ! यह उत्तर प्रदेश भारत देश में है।
ऐसे ही यदि आप अपना कोई मकान बनवा रहे हैं तो भी आप भौगोलिक स्थिति अवश्य देखेंगे। जहाँ आपको जगह मिल रही है आप खरीदने के पहले ही सोचेंगे।
‘‘यह जगह कहाँ है ? इसका आसपास का वातावरण कैसा है ? मेरे इस पुराने घर से यह कितनी दूर है ? और मंदिर भी यहाँ से किस गली से होकर जाना पड़ेगा, इत्यादि।
उसी प्रकार से यदि आपसे किसी ने पूछा- आप कहाँ रहते हैं ? तो आपका उत्तर जैन भूगोल की भाषा में निम्नानुसार होगा-लखनऊ शहर में।
यह शहर कहाँ है ?
उत्तर प्रदेश में।
यह प्रदेश कहाँ है ?
हिंदुस्तान में।
यह हिंदुस्तान कहाँ है ?
आर्यखण्ड में।
यह आर्यखण्ड कहाँ है ?
भरत क्षेत्र में।
यह भरत क्षेत्र कहाँ है ? तो उत्तर मिलेगा
जंबूद्वीप में।
सदाकाल पुरोहित लोग भी विवाह, नूतन गृहप्रवेश आदि मंगल कार्यों में ऐसे ही प्रशस्ति पाठ बोलते आये हैं :-
अथाद्ये जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे उत्तरप्रदेशे लखनऊनामनगरे श्रावणमासे शुक्लपक्षे एकादश्यां तिथौ-–——————– आदि-आदि।
अब यह प्रश्न सहज उठता है कि जिस जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र में स्थित आर्यखण्ड के भारत देश में किसी नगर या ग्राम में हम लोग रहते हैं। उसमें कहाँ-कहाँ क्या-क्या रचना है ? तो सुनिये आपको संक्षेप में बतलाते हैं-
इस एक लाख योजन-४० करोड़ मील विस्तृत गोलाकार जंबूद्वीप के ठीक बीच में इतना ही ऊँचा अर्थात् एक लाख योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। इसके चारों तरफ पृथिवी पर तो भद्रसाल वन नाम से बहुत ही सुंदर उद्यान हैं। उसके ऊपर पाँच सौ योजन ऊपर चढ़ने पर सौमनस नाम का सुंदर वन है, पुन: उससे भी ऊपर अड़तीस हजार योजन ऊपर जाने पर पाडुंकवन है और इसके ठीक मध्य में चालीस योजन ऊँची चूलिका (चोटी) है।
इन चारों वनों में चारों दिशाओं में एक-एक मंदिर होने से इस सुमेरु में सोलह जिनमन्दिर हैं। इसके पाडुंकवन में ईशान आदि विदिशाओं में पाडुंक आदि नाम वाली बहुत ही सुंदर और अर्धचन्द्र के आकार वाली शिलाएं हैं, उन शिलाओं पर जंबूद्वीप के आर्यखण्ड में जन्म लेने वाले तीर्थंकर बालकों का जन्माभिषेक इन्द्रादि देवगण बड़े वैभव के साथ करते हैं और उनका जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। यह पर्वत नीचे पृथ्वी पर दस हजार योजन विस्तृत है, गोल है, आगे घटते हुये चोटी के अग्रभाग में चार योजन मात्र रह गया है।
इस जंबूद्वीप में दक्षिण से प्रारंभ कर हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह पर्वत हैं। यह पर्वत नीचे से ऊपर तक समान विस्तार वाले हैं। पूर्व-पश्चिम लंबे होने से समुद्र का स्पर्श कर रहे हैं और तरह-तरह के अनेक वर्ण वाले रत्नों से बने हुये हैं, इन पर अनेक कूट अर्थात् शिखर हैं जिन पर भगवान के मंदिर और देवों के महल बने हुये हैंं।
इन पर्वतों के अंतराल में भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं।इनमें से दक्षिण भाग में सर्वप्रथम भरतक्षेत्र है, यह धनुषाकार है इसके मध्य का विस्तार जंबूद्वीप का एक सौ नब्बेवाँ भाग अर्थात् ५२६-६/१९ योजन है। इस क्षेत्र के बाद प्रथम हिमवान् नाम वाला पर्वत आता है यह इस भरतक्षेत्र के विस्तार से दूने विस्तार वाला है और सौ योजन ऊँचा है। इस पर्वत के बाद पुन: दूसरा हैमवत नाम का क्षेत्र है जो कि इस पर्वत से दूना विस्तृत है। ऐसे ही पर्वत के बाद क्षेत्र, क्षेत्र के बाद पर्वत होने से यह दूनी-दूनी व्यवस्था विदेह क्षेत्र तक है। आगे के पर्वत और क्षेत्र पूर्व-पूर्व से आधे-आधे प्रमाण वाले हैं । इस तरह अंत में ऐरावतक्षेत्र आ जाता है जो कि बिल्कुल भरतक्षेत्र के समान है।
अब जिज्ञासा यह होती है कि इस भरतक्षेत्र में आर्यखंड कहाँ है ? तो सुनिये इस भरतक्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं उनमें से दक्षिण के मध्य का टुकड़ा आर्यखंड कहलाता है, शेष पाँच म्लेच्छखण्ड हैं। ये छह खंड कैसे होते हैं ? इसका स्पष्टीकरण आप देखेंगे-
जो हिमवान् आदि छह पर्वत बतलाये गये हैं, उन पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छह सरोवर हैं। इन सरोवरों में एक-एक बड़े कमल खिले हुये हैं। प्रत्येक कमल में हजार-हजार दल हैं। ये कमल वनस्पतिकाय के नहीं हैं प्रत्युत माणिक्य जैसे रत्नों से बने हुये हैं। फिर भी ये कमल जैसे कोमल और सुगंधि से युक्त हैं। इनके पत्ते न कभी गिरते हैं न नष्ट ही होते हैं। इन कमलों की कर्णिका पर सुंदर-सुंदर महल बने हुए हैं जिनमें श्री, ह्री , धृति, कीर्ति ,बुद्धि और लक्ष्मी नाम की देवियां रहती हैं। ये देवियां तीर्थंकर भगवान की माता की सेवा के लिये यहाँ आर्यखण्ड में आती रहती हैं। प्रथम पद्म सरोवर से गंगा नदी एवं सिंधु नदी निकलकर पर्वत पर कुछ दूर तक बहकर पुन: पर्वत के नीचे तलहटी में बने हुये गंगावुंâड और सिंधुकुण्ड में गिरती हैं। ये कुंड भरतक्षेत्र में हैं।
इस भरतक्षेत्र में ठीक बीच में एक विजयार्ध पर्वत है। यह चांदी जैसा सफेद है और तीन कटनी वाला है। इसमें खण्डप्रपात और तिमिस्र नाम की दो गुफायें बनी हुई हैं। ये गंगा-सिंधु नदियां अपने-अपने कुंड से बाहर आकर भरतक्षेत्र में बहती हुई इन गुफाओं से निकलकर इधर दक्षिण के भरतक्षेत्र में बहती हुई क्रम से पूर्व तथा पश्चिम दिशा की ओर मुड़कर लवणसमुद्र में प्रवेश कर जाती हैं अत: विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिंधु नदी के निमित्त से ही इस भरतक्षेत्र के छह खण्ड हो जाते हैं।
एशिया आदि छहों महाद्वीप और हिंद महासागर आदि सहित आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में ही है। इस आर्यखण्ड के ठीक मध्य में अयोध्या नगरी है। इसके दक्षिण में लगभग ११९ योजन (११९²४०००·४७,६००० मील) की दूरी पर लवण समुद्र की वेदिका (परकोटा) है। उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत है। अयोध्या से पूर्व में लगभग १००० योजन (१०००²४०००·४०००००० मील) की दूरी पर गंगा नदी और पश्चिम में इतनी ही दूरी पर सिंधु नदी है। ये दोनों नदियां अकृत्रिम हैं और जो आज हमें गंगा-सिंधु नदियां दिख रही हैं, वे कृत्रिम हैंं।
भरतक्षेत्र के इस आर्यखण्ड में छह कालों का परिर्वतन चलता रहता है। छह काल के नाम हैं-सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमसुषमा, दुषमा और अतिदुषमा । इनमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। चतुर्थ काल में मनुष्य अर्थात् कुलकर, तीर्थंकर ,चक्रवर्ती और नारायण आदि महापुरुष जन्म लेते रहते हैं। उस समय के मनुष्य अधिकतम धर्मनीति का अनुसरण करने वाले, सदाचारी होते हैं अत: इस काल को सतयुग नाम से जानते हैं। इसके बाद पांचवाँ काल आता है, इसमें जन्म लेने वाले मनुष्य प्राय: अनीतिप्रिय, ईष्र्या, द्वेष आदि से लिप्त होते हैं अत: इस काल को कलियुग कहते हैं। आज यहाँ पर यही काल प्रवर्तमान कर रहा है अर्थात् चल रहा है।
जैसे यहाँ के आर्यखण्ड में यह काल परिवर्तन चलता रहता है, वैसे ही ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में भी यह काल का चक्र सतत चलता ही रहता है।
आपको यह जानकर बहुत ही प्रसन्नता होगी कि इस जंबूद्वीप में छह भोगभूमि हैं। जहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य युगल हमेशा ही भोजनांग, वस्त्रांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोजन, वस्त्र, मकान आदि सामग्री प्राप्त कर अपने जीवन पर्यंत बहुत ही सुखी रहते हैं। उनको रोग, शोक, इष्ट वियोग, अकाल में मरण आदि कोई दुख नहीं देखने पड़ते हैं।
यह भोगभूमि हैमवतक्षेत्र, हरिक्षेत्र में है। विदेहक्षेत्र में मेरु के दक्षिण भाग में देवकुरु तथा उत्तर भाग में उत्तरकुरु है उन दोनों स्थानों में भोगभूमि हैँ। आगे रम्यकक्षेत्र और हैरण्यवत क्षेत्र में भोगभूमि हैं। इस तरह छह क्षेत्रों में हैं।
विदेहक्षेत्र में सुमेरु के पूर्व भाग में पूर्वविदेह और पश्चिम में पश्चिमविदेह है। यहाँ दोनों तरफ कर्मभूमि की व्यवस्था है। कर्मभूमि में मनुष्य सदा ही असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह क्रियाओं द्वारा आजीविका करके जीवनयापन करते हैं। जहाँ पर ये क्रियायें हों उसे कर्मभूमि कहते हैं। यहाँ पर सदाकाल ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती ,नारायण आदि महापुरुष होते रहते हैं। इस क्षेत्र में छह काल का परिवर्तन नहीं है अत: वहाँ पर सदा ही कर्मभूमि रहती है।
इस जंबूद्वीप में एक और बहुत ही सुंदर रचना है जिसे सुनकर आप आश्चर्यचकित हो जावेंगे और एक बार उसे देखने के लिये लालायित हो उठेंगे। वह है जंबूवृक्ष अर्थात् जामुन का वृक्ष । यह वृक्ष सुमेरुपर्वत के उत्तर में उत्तरकुरु भोगभूमि में ईशानकोण में विद्यमान है, यह सदाकाल से वहीं खड़ा है और आगे आने वाले सदाकाल तक वहीं पर खड़ा रहेगा । इसके पत्ते मरकत मणियों से निर्मित हैं और इसमें लगे हुये बढ़िया जामुन फल वैडूर्यमणि से बने हुये हैं इसलिये ये फल और पत्ते न कभी गिरते हैं और न कभी खिरते ही हैं। यह पत्ते हवा के झकोरे से हिलते हैं, कोमल हैं फिर भी पृथ्वी धातु के बने हुये हैं। इस वृक्ष में चार दिशाओं में फैलती हुई चार बड़ी-बड़ी शाखायें हैं और उपशाखायें तो अनेक हैं। इन चारों शाखाओं में से उत्तर दिशा की शाखा पर बहुत ही सुंदर जैन मंदिर बना हुआ है और शेष तीन शाखाओं पर देवों के महल हैं जिनमें देवगण निवास करते हैं।
ठीक इसी प्रकार से देवकुरु में आग्नेयकोण में शाल्मलिवृक्ष (सेमल का वृक्ष) है। इन वृक्षों के चारों तरफ एक लाख से भी अधिक इनके परिवार वृक्ष हैं। जिनमें सामानिक, पारिषद, आत्मरक्ष आदि देवगण रहते हैं। यद्यपि इन वृक्षों का न आदि है न अंत, फिर भी इस जंबूवृक्ष के निमित्त से ही इस द्वीप का नाम ‘‘जंबूद्वीप’’ यह सार्थक है।
इस जम्बूद्वीप के इन भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र के आर्यखण्ड में कर्मभूमि की व्यवस्था है। यहाँ पर जन्म लेने वाले मनुष्य जिस प्रकार असि, मषि, कृषि, वाणिज्य आदि के द्वारा धन कमाकर अपने परिवार का और अपना सुंदर जीवन यापन करते हैं उसी प्रकार से अच्छे या बुरे कार्यों को करके ये चारों गतियों में से या चौरासी लाख योनियों में से कहीं पर भी जन्म धारण कर सकते हैं। यह स्वतंत्रता इस मानव जीवन में स्वत: सिद्ध अधिकार है।
जुआ खेलना,मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्रीसेवन करना ये सात दुव्र्यसन माने गये हैं। महर्षियों ने इन्हें सात नरकों के सात द्वार ही बताए हैं उसी प्रकार से हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह में अति आसक्ति, ये पाँचों ही पाप के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाए कहलाती हैं। इन कषायों के वशीभूत होकर यदि कोई भी जीव इन दुव्र्यसनों में पंâस जाता है या पापों में प्रवृत्ति करता है तो वह नरक,निगोद में या पशु, पक्षी, कीट-पतंगे आदि तिर्यंच योनियों में जन्म लेकर बहुत समय तक दु:ख उठाता रहता है।
यदि यही जीव इस कर्मभूमि में आकर अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य को धारण कर दान, पूजन, ईश्वर उपासना, परोपकार आदि सत्कार्यों को करता है तो वह स्वर्ग में देवपद को या मनुष्यों में चक्रवर्ती, नारायण आदि महापुरुषों के वैभव को प्राप्त कर लेता है।
मनुष्य हो या तिर्यंच, पशु हो या पक्षी, चींटी हो या हाथी, यहाँ तक कि पेड़ हो या पौधे, सभी में जीवात्मा मौजूद है और सभी की जीवात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति मौजूद है। जैसे दूध में घी है और तिल में तेल है उसी प्रकार से प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा मौजूद है। हम और आप में से यदि कोई भी अपने आपको परमात्मा बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने आप को मानव बनाना पड़ेगा। मानव होकर भी यदि हिंसा, अन्याय, अत्याचार आदि दुष्कार्यों में प्रवृत्ति है तो वह मानव नहीं है, दानव है अत: सत्कार्यों को करते हुये मानवता को अपनाकर पूर्णतया पाँचों पापों का त्याग करके महात्मा बनना होगा। इस पुरुषार्थ से एक समय ऐसा आएगा कि हम अपने आपको परमात्मपद प्राप्त कराने में सफल हो जाएंगे। यही इन कर्मभूमियों में जन्म लेने की सार्थकता है और यही इस जैन भूगोल की परम्परा को जानने की सफलता है।
जिस जंबूद्वीप के एक कोने में हम रह रहे हैं, उस जंबूद्वीप की रचना आज हस्तिनापुर में बनी हुई है, उसे देखकर हम इस ‘‘जैन भूगोल’’ को बहुत ही अच्छी तरह स्पष्ट रूप से समझ सकेंगे।