(१)
८६,५०० वर्ष पूर्व के इतिहास का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। करोड़ों वर्षों पूर्व भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या के राज्य का संचालन करते हुए ५२ देशों की रचना की थी। उस समय चार महामण्डलीक राजाओं में सोमप्रभ को कुरुवंश का राज्य देकर हस्तिनापुर कुरुजांगल देश का राजा बनाया गया था। इस कुरुवंश के अनेक राजाओं ने अपने-अपने पुत्रों को राज्य देकर दीक्षा ली थी।
उसी परंपरा में राजा शान्तनु थे उनकी पत्नी का नाम था-सबकी। और पुत्र पाराशर था। जन्हु राजा की पुत्री गंगा का-जान्हवी का विवाह पाराशर से हुआ। इनके पुत्र का नाम गांगेय था, इनका दूसरा नाम भीष्म था।
एक बार पाराशर यमुना नदी के किनारे क्रीड़ा कर रहे थे, नाव में एक सुंदर कन्या को देखकर पाराशर उस पर मोहित हो गये। उन्होंने कन्या का परिचय पूछा तो ज्ञात हुआ कि वह एक धीवर की कन्या है। धीवर से उन्होंने कन्या के लिए याचना की तो धीवर ने अपनी कन्या उन्हें देने से मना कर दिया और उनसे कहा कि आपका पुत्र गांगेय आपका उत्तराधिकारी राजा बनेगा और मेरी कन्या का पुत्र उसके आश्रित रहेगा अत: मैं अपनी कन्या आपको नहीं दे सकता। राजा घर आकर चिन्तित रहने लगे। गांगेय को पिता की चिंता ज्ञात होने पर संकल्प ले लिया कि मैं कभी विवाह नहीं करूँगा, आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत रखूँगा, यही भीष्म प्रतिज्ञा कहलाई।
गांगेय ने यह नियम लेकर धीवर से अपने पिता को अपनी कन्या देने को कहा।
तब धीवर ने उस कन्या का असली परिचय दिया कि यह कन्या मेरी नहीं है। यह रत्नपुर के राजा रत्नांगद की पुत्री है, इसका किसी विद्याधर के द्वारा हरण हुआ था अत: जंगल में इसे पड़ी देखकर मैं इसे ले आया और हम लोगों ने इसे पाला है, इसका नाम गुणवती रखा है। निमित्तज्ञानियों ने बताया था कि यह महारानी बनेगी। उसके शरीर से सुगंध दूर-दूर तक पैâलती थी अत: इसका नाम योजनगंधा भी पड़ा। इसका विवाह राजा पाराशर से हुआ, आगे उसके पुत्र हुआ व्यास। उसे पाराशर ने राज्य सौंपा। आगे चलकर व्यास के तीन पुत्र हुए-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर।
पाण्डु के पुत्र पाँच पाण्डव कहलाते थे। इन पाँच पाण्डवों में से तीन पाण्डव मोक्ष गये और दो पाण्डव स्वर्ग गये। उन मोक्षगामी पाण्डवों को हृदय में धारण करके महाभारत का कथानक प्रारंभ किया जा रहा है।
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न—कुरुवंश के प्रथम राजा कौन थे?
उत्तर—राजा सोमप्रभ।
प्रश्न—सोमप्रभ कहाँ राज्य करते थे?
उत्तर—कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर नगरी में।
प्रश्न—राजा शान्तनु किस वंश में उत्पन्न हुए थे?
उत्तर—कुरु वंश में।
प्रश्न—शान्तनु राजा की रानी का क्या नाम था?
उत्तर—रानी सबकी।
प्रश्न—शान्तनु के पुत्र का क्या नाम था?
उत्तर—पाराशर।
प्रश्न—गांगेय किनके पुत्र थे?
उत्तर—राजा पाराशर की पत्नी जान्हवी अपर नाम गंगा से गांगेय का जन्म हुआ। अर्थात् गांगेय पाराशर के पुत्र थे।
प्रश्न—जान्हवी किनकी पुत्री थी?
उत्तर—रत्नपुर नगर के विद्याधर राजा ‘जान्हु’ की पुत्री थी, इनका दूसरा नाम ‘गंगा’ था।
प्रश्न—गांगेय का दूसरा नाम क्या था?
उत्तर—गांगेय का दूसरा नाम भीष्म था। इन्हीं के नाम पर भीष्म प्रतिज्ञा प्रसिद्धि को प्राप्त हुई है।
प्रश्न—भीष्म ने कौन सी प्रतिज्ञा की थी जिससे उनका नाम अमर हुआ?
उत्तर—अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने की उन्होेंने प्रतिज्ञा ली थी, जिसका जीवन भर निर्वाह किया।
प्रश्न—गांगेय या भीष्म ने अखण्ड ब्रह्मचर्य का नियम क्यों लिया था?
उत्तर—क्योंकि उनके पिता पाराशर एक बार यमुना नदी के किनारे क्रीड़ा कर रहे थे, वहाँ एक नाविक की कन्या पर मोहित हो गये और उससे विवाह करना चाहा, किन्तु नाविक ने यह कहकर मना कर दिया कि आप अपने बड़े पुत्र गांगेय को अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे और हमारी पुत्री का भावी पुत्र राजा नहीं बन पाएगा। इसलिये मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ नहीं करूँगा। तब पिता पाराशर को चिंतित अवस्था में देखकर, उसका कारण जानकर गांगेय ने पिता की इच्छा पूर्ति हेतु अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन हेतु अटल प्रतिज्ञा कर ली थी। उनकी इस प्रतिज्ञा से प्रभावित होकर धीवर ने उस कन्या का असली परिचय बताया कि यह रत्नपुर के राजा रत्नांगद और रानी रत्नावती की पुत्री है। किसी विद्याधर द्वारा यह अपहरण करके जंगल में डाल दी गई थी, सो वहाँ से प्राप्त करके हम लोगों ने इसको पाला है और इसका नाम गुणवती रखा है। एक निमित्तज्ञानी मुनिराज ने बताया था कि यह कन्या महारानी बनेगी अत: उनके वचनानुसार धीवर ने गुणवती कन्या का विवाह पाराशर राजा के साथ कर दिया। आगे चलकर उसके पुत्र व्यास को पाराशर ने अपना राजपाट सौंपा था। इस कथानक का सार यह है कि पिता के प्रति विशेष भक्ति होने के कारण गांगेय ने इतना बड़ा त्याग किया, यही कारण है कि उनकी भीष्म प्रतिज्ञा संसार में प्रसिद्ध हुई।
प्रश्न—राजा व्यास की रानी का क्या नाम था?
उत्तर—सुभद्रा।
प्रश्न—राजा व्यास के कितने पुत्र थे?
उत्तर—राजा व्यास के तीन पुत्र थे-धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर।
(२)
हरिवंश की परम्परा में शौरीपुर के राजा शूर की पत्नी सुरसुंदरी से अंधकवृष्टि नाम का पुत्र हुआ पुन: अंधकवृष्टि की पत्नी भद्रा से दश पुत्र हुए—
१. समुद्रविजय (भगवान नेमिनाथ इनके पुत्र हुए) २. स्तमितसागर
३. हिमवान ४. विजय ५. अचल ६. धारण ७. पूरण ८. सुमुख ९. अभिनंदन १०. वसुदेव (बलभद्र एवं श्रीकृष्ण इनके पुत्र थे) एवं कुन्ती-माद्री नाम की दो पुत्री हुईं।
मथुरा के राजा भोजकवृष्टि के ३ पुत्र हुए—देवसेन, उग्रसेन, महासेन तथा गांधारी नाम की एक कन्या हुई। राजा व्यास ्नो अपने पुत्र पाण्डु के लिए शौरीपुर के राजा शूर से कुंती कन्या को मांगा, किन्तु उन्होंने पाण्डु के शरीर में पाण्डुरोग के कारण कन्या देना स्वीकार नहीं किया अत: पाण्डु विक्षिप्त रहते थे और कुंती को पाने का उपाय सोचा करते थे।
धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हुआ। जैन महाभारत हरिवंशपुराण और पांडवपुराण के अनुसार धृतराष्ट अंधे नहीं थे तथा गांधारी ने आंख पर पट्टी नहीं बांधी थी।
पाण्डु एक दिन हस्तिनापुर के उद्यान में वनक्रीड़ा कर रहे थे। उन्हें अकस्मात् एक अंगूठी मिल गई। वङ्कामाली नामक एक विद्याधर वहाँ उतरा वह अपनी अंगूठी ढूंढ़ने लगा। पाण्डु ने उसे बताया कि मैंने आपकी अंगूठी उठाई है तब विद्याधर ने अंगूठी की महिमा बताई कि इसे पहनकर अनेक रूप बनाये जा सकते हैं। तब पांडु ने आग्रहपूर्वक कुछ दिन के लिए विद्याधर से वह अंगूठी मांग ली। पुन: पाण्डु ने अदृश्यरूप बनाकर शौरीपुर में जाकर कुुंती के महल में प्रवेश किया। कुंती घबरा गई, तब पाण्डु ने उसे अपना परिचय दिया। पुन: अनेक वार्तालाप से पाण्डु ने कुंती को आकर्षित कर लिया और रोज रात में अदृश्यरूप धारणकर वहाँ जाने लगा।
पांडु के समागम से कुंती गर्भवती हो गई, तब माँ भद्रा ने धाय से पूछकर सब कुछ पति से बताया। उसे गुप्तरूप में रखकर पुत्र का जन्म कराया गया पुन: उस पुत्र को पिता ने कुण्डल आदि पहनाकर एक संदूक में रखकर यमुना में प्रवाहित कर दिया।
चंपापुर के राजा भानु को वह संदूक मिली। राजा ने अपनी पत्नी राधा को वह पुत्र ले जाकर दिया, उस समय राधा अपना कान खुजला रही थी अत: पुत्र का नाम ‘‘कर्ण’’ रखा गया। इस प्रकार कर्ण का चंपापुर में पालन पोषण हुआ।
इधर कुंती का विवाह पाण्डु के साथ कर दिया, दूसरी कन्या माद्री का विवाह भी पाण्डु से कर दिया। देखो! कुलपरम्परा की रक्षा करने हेतु कुन्ती का विवाह पाण्डु से किया गया। विदु की पत्नी कुमुदवती और धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी थीं। भारतीय परम्परा में कन्या का एक ही पति कहा गया है। इस भारतीय परम्परा की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है।
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न—धृतराष्ट्र क्या अन्धे थे?
उत्तर—जैन महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र अंधे नहीं थे।
प्रश्न—धृतराष्ट्र की पत्नी का क्या नाम था?
उत्तर—गांधारी।
प्रश्न—गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्टी क्यों बांध रखी थी?
उत्तर—जैन महाभारत के अनुसार गांधारी की आँखों पर पट्टी बंधी ही नहीं थी।
प्रश्न—शौरीपुर के राजा का नाम एवं वंश क्या था?
उत्तर—राजा शूर एवं हरिवंश।
प्रश्न—राजा शूर की पत्नी का क्या नाम था?
उत्तर—सुरसुंदरी।
प्रश्न—राजा शूर के पुत्र का क्या नाम था?
उत्तर—अंधकवृष्टि।
प्रश्न—अंधकवृष्टि का पत्नी का नाम क्या था?
उत्तर—रानी भद्रा।
प्रश्न—रानी भद्रा के कितने पुत्र थे?
उत्तर—दश पुत्र थे—१. समुद्र विजय २. स्तमितसागर ३. हिमवान
४. विजय ५. अचल ६. धारण ७. पूरण ८. सुमुख ९. अभिनंदन १०. वसुदेव। इनमें से आगे चलकर समुद्रविजय के पुत्र तीर्थंकर नेमिनाथ हुए और वसुदेव के पुत्र बलदेव एवं श्रीकृष्ण नारायण हुए।
प्रश्न—राजा अंधकवृष्टि और रानी भद्रा के कितनी पुत्रियाँ थीं?
उत्तर—दो पुत्रियाँ थीं—कुन्ती और माद्री।
प्रश्न—मथुरा के राजा कौन थे?
उत्तर—सुवीर।
प्रश्न—सुवीर की पत्नी का नाम क्या था?
उत्तर—पद्मावती।
प्रश्न—राजा सुवीर और रानी पद्मावती के पुत्र का क्या नाम था?
उत्तर—भोजकवृष्टि।
प्रश्न—भोजकवृष्टि राजा की रानी का क्या नाम था?
उत्तर—सुमति।
प्रश्न—भोजकवृष्टि और रानी सुमति के कितने पुत्र थे?
उत्तर—तीन पुत्र थे—देवसेन, उग्रसेन, महासेन।
प्रश्न—राजा भोजकवृष्टि के कितनी पुत्रियाँ थीं?
उत्तर—एक पुत्री थी-उसका नाम गांधारी था। इस गांधारी कन्या का धृतराष्ट्र के साथ विवाह हुआ था।
प्रश्न—पाण्डु राजा की पत्नी का क्या नाम था?
उत्तर—राजा पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं-कुंती और माद्री।
(३)
प्रिय पाठकों! आप जान चुके हैं कि कुरुवंशी राजा व्यास के पुत्र धृतराष्ट्र का विवाह मथुरा के राजा भोजकवृष्टि की पुत्री गांधारी के साथ हुआ। पाण्डु का विवाह शौरीपुर के राजा शूर की कन्या कुंती-माद्री के साथ हुआ। विदुर का विवाह देवक राजा की कन्या कुमुदवती के साथ हुआ। धृतराष्ट्र और गांधारी से दुर्योधन और दु:शासन आदि सौ पुत्र उत्पन्न हुुए। पाण्डु और कुंती से युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए तथा पाण्डु और माद्री से नकुल और सहदेव ये दो पुत्र हुए। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र कुरुवंश के कारण कौरव कहलाए और पाण्डु के पुत्र कुरुवंश में होते हुए भी पाँच संख्या में होने से पाँच पाण्डव कहलाए।
एक दिन रानी माद्री के साथ पाण्डु राजा वन में क्रीड़ा कर रहे थे, उन्होंने अपनी हरिणी में आसक्त एक हरिण पर अकस्मात् बाण चला दिया तो हरिण मर गया। तब वन देवता के द्वारा वहाँ आकाशवाणी हुई कि-अरे! प्रजापालक राजन्! तूने हरिण जैसे निर्दोष प्राणी की हिंसा करके केवल पाप अर्जित किया है। यदि राजा ही निरपराधी जन्तु को मारेगा तो उनकी रक्षा कौन करेगा?…..इत्यादि। इस आकाशवाणी को सुनकर राजा को बड़ा पश्चाताप हुआ और उन्हें तत्क्षण संसार से वैराग्य हो गया। पुन: इधर-उधर घूमते हुए उन्होंने वन में ही एक शिला पर सुव्रत नामक महामुनि को देखा और तीन प्रदक्षिणा करके वहाँ बैठ गया। मुनि का उपदेश सुनकर वह अपने पाप का प्रायश्चित्त पूूछने लगा। मुनि ने उन्हें सच्चे धर्म का उपदेश दिया और बताया कि अनादिकाल से प्राणी ८४ लाख योनियों में घूम रहा है। उसमें मनुष्य जन्म सर्वश्रेष्ठ है। राजन्! अब १३ दिन की तुम्हारी आयु शेष है अत: तुम अपना कल्याण करो।
पाण्डु ने अपने महल में आकर धृतराष्ट्र को यह बात बताई पुन: अपने पुत्रों को उनके सुपुत्र करके वे स्वयं जंगल में जाकर सल्लेखना के लिए आज्ञा मांगने लगे। धृतराष्ट्र ने दु:खी होकर भी उन्हें आज्ञा प्रदान कर दी तब पाण्डु राजा सबको समझाकर वन में चले गये, साथ में माद्री रानी थी। अपने नकुल-सहदेव पुत्रों को कुन्ती के पास छोड़कर वन में चली गई। पाण्डु क्रमश: सब कुछ त्याग करके गंगा नदी के किनारे सल्लेखना ग्रहण कर आत्मकल्याण में लीन हो गये और नश्वर शरीर त्याग करके सौधर्म स्वर्ग में देव हो गये तथा रानी माद्री भी सल्लेखनापूर्वक मरण करके उसी स्वर्ग में उत्पन्न हुई।
बंधुओं! यहाँ आप लोगों को ध्यान देना है कि सल्लेखना आत्मघात नहीं है। विष आदि खाकर या फांसी लगाकर आत्मघात करने वाले तो महापापी होते हैं। किसी के अपघात करने पर घर के लोगों को १ वर्ष या ६ माह का पातक पालन करना पड़ता है। किन्तु सल्लेखना ग्रहण करके समाधिपूर्वक मरण करने से दुर्गति का निवारण होता है अत: आप सभी को जीवन के अंत समय में शांतिपूर्वक सल्लेखना करके जन्म-मरण की परम्परा समाप्त करने का भाव बनाना चाहिए।
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न—धृतराष्ट्र के कितने पुत्र थे?
उत्तर—दुर्योधन और दु:शासन आदि सौ पुत्र थे। जो कुरुवंश के राजपुत्र होने के कारण ‘कौरव’ नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।
प्रश्न—राजा पाण्डु के कितने पुत्र थे?
उत्तर—पाण्डु की एक पत्नी कुन्ती से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीन पुत्र हुए तथा दूसरी पत्नी माद्री से नकुल और सहदेव ये दो पुत्र हुए। ये पाँचों राजपुत्र पाँच पाण्डव के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।
प्रश्न—राजा व्यास के साथ गांगेय (भीष्म) का क्या संबंध था?
उत्तर—गांगेय राजा व्यास के बड़े भाई थे।
प्रश्न—कौरव-पाण्डव भीष्म को क्या कहते थे?
उत्तर—धृतराष्ट्र और पाण्डु के पिता व्यास के भाई होने से कौरव-पाण्डव भीष्म को पितामह कहकर संबोधित करते थे। इन्होंने कौरव-पाण्डवों को सदैव यथोचित संरक्षण एवं शिक्षण प्रदान किया था।
प्रश्न—कौरव और पाण्डवों को धनुर्विद्या किसने सिखाई थी?
उत्तर—द्रोणाचार्य नामक एक द्विजश्रेष्ठ गुरु ने कौरव-पाण्डवों को धनुर्विद्या सिखाई थी।
प्रश्न—राजा पाण्डु ने जैनेश्वरी दीक्षा क्यों ग्रहण कर ली थी?
उत्तर—किसी समय राजा पांडु ने वन में हरिणी में आसक्त एक हरिण को अपने बाण से मार दिया उस समय आकाश से ध्वनि हुई ‘‘राजन्’’! यदि वन में निरपराधी जन्तु को राजा ही मारेंगे तो उनका रक्षक कौन होगा? इस वाणी को सुनकर राजा के मन में पश्चाताप के साथ ही वैराग्य उत्पन्न हो गया। अनन्तर उन्होंने सुव्रतमुनि के पास जाकर उपदेश सुना और मुनि के मुख से अपनी आयु तेरह दिन की समझकर धृतराष्ट्र आदि को अपने घर में यथोचित धर्मशिक्षा देकर सब परिग्रह का त्याग कर गंगा के किनारे गये। वहाँ आजन्म आहार का त्यागकर सल्लेखना से मरण किया और सौधर्म स्वर्ग में देव हो गये।
प्रश्न—सल्लेखना किसे कहते हैं?
उत्तर—काय और कषाय को कृश करते हुए सम्यक् प्रकार से समाधिमरण करने को सल्लेखना कहते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है-
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचन-माहु: सल्लेखनामार्या:।।
अर्थात् किसी प्राणघातक उपसर्ग के आ जाने पर, दुर्भिक्ष-अकाल की स्थिति आ जाने पर, वृद्धावस्था में, अनिवार्य रोग हो जाने पर धर्म की रक्षा हेतु शरीर का परित्याग कर सल्लेखना ग्रहण की जाती है।
प्रश्न—सल्लेखना ग्रहण करने वाले क्या आत्मघाती कहलाते हैं?
उत्तर—कदापि नहीं। सल्लेखना को आत्मघात कभी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सल्लेखना ग्रहण करने वाले महामुनि अथवा श्रावक-श्राविकाएँ तो स्वर्गधाम को और परम्परा से मोक्ष धाम को प्राप्त करते हैं तथा विष आदि खाकर आत्मघात करने वाले कायर लोग नरक-तिर्यंच आदि दुर्गति में जाते हैं और असहनीय दु:ख भोगते हैं।
(४)
प्रिय पाठकों ! कुरूवंश के राजा व्यास के पुत्र राजा पाण्डु ने सल्लेखनापूर्वक मरण करके स्वर्ग का वैभव प्राप्त कर लिया। पुन: आगे चलकर धृतराष्ट्र ने एक बार महामुनि से धर्म का उपदेश श्रवण किया और उनसे प्रश्न किया-हमारे विशाल राज्य का आगे संचालन हमारे पुत्र कौरव करेंगे या पाण्डव करेंगे? मुनि ने बताया-राजन् ! राज्य के कारण कौरव-पाण्डव में भयंकर युद्ध होगा, तुम्हारे सभी पुत्र मारे जाएंगे और पाण्डव इस राज्य का संचालन करेंगे। धृतराष्ट्र को यह सुनकर बड़ा दु:ख हुआ। पुन: उन्होंने महल में आकर गांगेय को बुलाकर कहा कि मैं अब राजपाट छोड़कर दीक्षा लूंगा, आप राज्य संभालें। गांगेय ने उसे नहीं संभाला तो धृतराष्ट्र ने कौरव-पाण्डव आदि सभी पुत्रों को गुरू द्रोणाचार्य के समक्ष राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली। धृतराष्ट्र के साथ उनकी माता सुभद्रा ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली। माता-पुत्र दोनों परम शांति का अनुभव करते हुए तपस्या करने लगे।
इधर राज्य करते हुए कौरव-पाण्डवों में आपस में अशांति होने लगी। गांगेय ने कौरवों की द्वेषबुद्धि देकर राज्य को दो भागों में विभक्त कर दिया। द्रोणाचार्य के पास ये सभी अनेक विद्याएं सीखते थे। उनसे भी दुर्योधन कहता कि आप अर्जुन को ज्यादा अच्छी तरह विद्या सिखाते हैं और हमारे साथ पक्षपात करते हैं। तब एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव-पाण्डवों की परीक्षा लेते हुए वन में ले जाकर कहा कि-देखो ! सामने पेड़ पर कौआ बैठा है, उस कौए की दाईं आँख का बेधन करो। कौरवों में से कोई सामने नहीं आया, तो अर्जुन ने आकर कौवे की आँख का बेधन किया। तब कौरव लज्जित हो गये। पुन: गुरू ने उन्हें समझाकर शांत किया।
एक बार जंगल में अर्जुन ने देखा कि एक कुत्ते का मुख बाणों से बिंधा है तब अर्जुन ने सोचा कि गुरू ने यह शब्दभेदी बाण-विद्या केवल मुझे ही सिखाया है, पुन: यह विद्या प्रयोग करने वाला कौन आ गया? उस समय एक भील ने प्रकट होकर कहा कि मैंने कुत्ते का मुँह बेधा है। उसने टीले पर ले जाकर द्रोणाचार्य की मिट्टी से बनी प्रतिमा दिखाई और कहा कि मैंने इन्हें कभी आंखों से देखा नहीं है मात्र इन्हीं की भक्ति करके मैंने यह बाण-विद्या सीखी है। अर्जुन उसकी गुरू-भक्ति देखकर बहुत खुश हुए, किन्तु उसके हिंसाजनक कार्य से चिंतित हो गये।
पुन: अर्जुन ने आकर गुरू को बताया कि हिंसक भील यदि इसी तरह मूक प्राणियों की हिंसा में इस विद्या का प्रयोग करता रहा तो क्या होगा? तब गुरू द्रोणाचार्य एक दिन उस भील के पास जंगल में गये और गुरू-दक्षिणा में उससे दायें हाथ का अंगूठा माँग लिया। भील ने गुरू-भक्ति में तुरंत अंगूठा काटकर दे दिया। जिससे आगे वह बाण नहीं चला सका और हिंसा से बच गया।
इधर धृतराष्ट्र महामुनि अपनी तपस्या में लीन होकर आत्म साधना करने लगे और उधर कौरव-पाण्डव के राज्य संचालन में पारस्परिक विद्वेष के कारण अशांति उत्पन्न होने लगी।
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न—धृतराष्ट्र को राजपाट से विरक्ति क्यों हुई थी?
उत्तर—किसी समय धृतराष्ट्र राजा ने वन में मुनिराज से धर्म श्रवण कर प्रश्न किया-भगवन् ! हमारे राज्य के भोक्ता मेरे पुत्र दुर्योधन होंगे या पाण्डु पुत्र? उत्तर में सुव्रतमुनि ने कहा-राजन् ! राज्य के निमित्त से तेरे पुत्र दुर्योधन आदि और पाण्डवों के बीच महायुद्ध होगा। उसमें तेरे सारे पुत्र मारे जायेंगे और पाण्डव राज्य में प्रतिष्ठित होंगे। यह सुनकर चिन्तित हुए धृतराष्ट्र हस्तिनापुर वापस आये और गांगेय को बुलाकर अपना अभिप्राय प्रकट कर उनके तथा द्रोणाचार्य के समक्ष अपने पुत्रों व पाण्डवों को राज्य समर्पण कर दिया। अनन्तर अपनी माता सुभद्रा के साथ वन में जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
प्रश्न—गुरू द्रोणाचार्य ने कौरव-पाण्डवों की प्रथम परीक्षा क्या ली थी?
उत्तर—वन में शिष्यों को ले जाकर एक कौए की दाहिनी आँख बेधने को उन्होंने कहा था।
प्रश्न—उस परीक्षा में कौन उत्तीर्ण हुआ था?
उत्तर—अर्जुन उस परीक्षा में पूर्णरूपेण उत्तीर्ण हुए थे।
प्रश्न—कौवे की दाईं आँख बेधने में उत्तीर्ण होकर अर्जुन को कौन-सी उपाधि मिली थी?
उत्तर—गुरू से सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की उपाधि अर्जुन को प्राप्त हुई थी।
प्रश्न—अर्जुन के अतिरिक्त शब्द-बेधी धनुर्विद्या और किसे आती थी?
उत्तर—एकलव्य नामक एक भील को वह शब्द-बेधी विद्या आती थी, जिससे उसने एक कुत्ते का मुख बाण प्रहार से अवरुद्ध कर दिया था।
प्रश्न—भील ने यह शब्द-बेधी धनुर्विद्या किससे सीखी थी?
उत्तर—गुरू द्रोणाचार्य का मिट्टी का स्तूप-मूर्ति बनाकर उन्हें गुरू मानकर भील ने इस विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। उसने अर्जुन के पूछने पर उन्हें अपनी परोक्ष गुरू-भक्ति के बारे में बताया था।
प्रश्न—तब अर्जुन ने क्या किया?
उत्तर—अर्जुन ने कुत्ते के ऊपर भील द्वारा उस विद्या का प्रयोग देखकर वापस हस्तिनापुर आकर गुरू द्रोणाचार्य से कहा कि भील इस विद्या का प्रयोग हिंसा में कर रहा है, अत: आपको उसे रोकना चाहिए।
प्रश्न—गुरू द्रोणाचार्य ने उस भील से क्या कहा?
उत्तर—गुरू द्रोणाचार्य ने भील की गुरू-भक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करके उससे गुरू-दक्षिणा में दाहिने हाथ का अंगूठा देने को कहा था।
प्रश्न—भील ने गुरू को अंगूठा दिया या नहीं?
उत्तर—गुरू के कहते ही उस भील ने तुरंत अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरू-दक्षिणा में दे दिया।
प्रश्न—गुरू ने भील को गुरू-भक्ति के फल में इतनी बड़ी सजा क्यों दी?
उत्तर—दीर्घदर्शिता की दृष्टि से गुरू ने विद्या का दुरूपयोग रोकने हेतु ऐसी गुरू-दक्षिणा मांगी थी। अंगूठा कटने के बाद वह भील बाण चलाने में असमर्थ हो गया और जीव हिंसा से बच गया।
(५)
राजा धृतराष्ट्र के पुत्र-कौरवगण, पाण्डवों से ईर्ष्या करते थे। वे कहते थे कि राज्य १०५ भागों में होना चाहिये। गांगेय और गुरू द्रोणाचार्य ने कौरवों को समझा-बुझाकर शांत किया था।
एक बार कौरव-पाण्डव वन में क्रीड़ा कर रहे थे। वहाँ भीम एक बड़े वृक्ष पर चढ़े थे तो द्वेषभाव से उस पेड़ को खूब हिलाकर कौरव भीम को गिराकर मारना चाहते थे, किन्तु मार नहीं सके। पुन: एक दिन भीम ने सारे कौरवों को पेड़ पर चढ़ाकर खुद पेड़ को जड़ से उखाड़कर हाथ में ले लिया और घूमने लगे। तब एक कौरव ने निवेदन करके सबकी जान बचाई। हरिवंशपुराण में वर्णन आया है कि भीम में यह शक्ति पूर्व जन्म में आहारदान से आई थी।
एक दिन भीम को कौरवों ने सरोवर में फेंक दिया तो भीम तैरकर बाहर आ गये। इसी प्रकार कौरव इन्हें मारने का पुरुषार्थ करने लगे। षडयंत्र से एक दिन सपेरे को बुलाकर उसके महाव्िाषधर सर्प द्वारा भीम को कटवा दिया तो भी भीम नहीं मरे। एक बार भीम के भोजन में विष मिला दिया, तो भी वे विष को पचा गये। पुण्य के प्रभाव से पुण्यात्मा के सारे संकट टलते हैं। कहा भी है कि-
सर्पो हारलता भवत्यसिलता सत्पुष्पदामायते,
संपद्येत रसायनं विषमपि प्रीतिं विधत्ते वपु:।
देवा यान्ति वशं प्रसन्नमनस: िंक वा बहु ब्रूमहे,
धर्मो यस्य नभोऽपि तस्य सततं रत्नै: परैर्वर्षति।।
अर्थात् सती सोमा ने अपने शील के प्रभाव से सर्प को हार बनाया था। वारिषेण के तप प्रभाव से तलवार पुष्पमाला बन गई। भीम का विषमिश्रित भोजन भी रसायन बन गया था।
जिसके हृदय में धर्म है उसके घर में रत्नवृष्टि होती है। देखो! तीर्थंकर माता के आंगन में, मुनियों के आहार आदि में रत्नवृष्टि होती है। श्रीगौतम स्वामी ने कहा है कि-
धर्म: सर्व सुखाकरो हितकरो धर्मं बुधाश्चिन्वते,
धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मै नम:।
धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद्भवभृतां धर्मस्य मूलं दया,
धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म! मां पालय।।
अर्थात् हे धर्म! मेरी रक्षा करो, क्योंकि धर्म सभी सुख देने वाला है……. आदि। धर्म का मूल दया है इसलिए धर्म का सदा पालन करना चाहिये।
आचार्य समंतभद्र ने भी कहा है कि-
पापमरातिर्धर्मो, बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्।
कौरव-पाण्डवों में सदैव अधर्म-धर्म का विसंवाद चलता रहता था। पुन: एक बार हस्तिनापुर में कौरवों ने एक सुन्दर लाख का महल बनवाया और गांगेय से बोले-‘‘पितामह! एक साथ हम लोगों के रहने में कुछ अशांति रहती है सो हम चाहते हैं कि पाण्डवों को इस महल में रख दिया जाये तो हम लोगों में संघर्ष समाप्त हो सकता है।’’ भव्यात्माओं! संसार में ईर्ष्या और असूया बड़ी दुख:दायी होती है अत: उस ईर्ष्या को छोड़कर धर्म को धारण करना चाहिये।
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न—हस्तिनापुर का राज्य कितने भागों में विभक्त किया गया था ?
उत्तर—दो भागों में। एक भाग सौ कारवों को और एक भाग पाँच पाण्डवों को मिला था।
प्रश्न—कौरव लोग पाण्डवों से ईर्ष्या क्यों करने लगे ?
उत्तर—कौरव चाहते थे कि जो राज्य दो भागों में विभक्त हुआ है वह १०५ भागों में विभाजित होना चाहिये था। कौरव और पाण्डव आधा-आधा राज्य भोगते हुए प्रतिदिन सभा में आकर एकत्र होकर बैठते थे। दुष्ट कौरव अब स्पष्ट बोलने लगे थे कि ‘‘हम सौ हैं और ये पाँच ही हैं परन्तु आधा-आधा राज्य हम दोनों को मिला है, यह अन्याय हुआ है। वास्तव में इस राज्य के एक सौ पाँच भाग करके उत्तम साम्राज्य का उपभोग हम लोग करेंगे।’’ कभी-कभी भीम, अर्जुन आदि क्षुभित हो उठते थे तो अतिशय शान्त धर्मप्रिय युधिष्ठिर इन लोगों को शान्त कर लेते थे।
प्रश्न—कौरवों ने पाण्डवों के साथ सबसे बड़ा कौन-सा अन्याय किया था ?
उत्तर—यूं तो कौरव लोग प्रतिदिन ही किसी-न-किसी युक्ति का प्रयोग करके पाण्डवों को मारने का प्रयत्न कर रहे थे किन्तु उन लोगों के पुण्य प्रभाव से कौरवों की युक्ति असफल हो जाती थी। तब एक दिन विचार करके दुर्योधन ने एक बड़ा भारी षड़्यंत्र बनाया।
प्रश्न—वह षड़्यंत्र क्या था ?
उत्तर—लाख का महल बनाकर उसमें पाण्डवों को भेजने का।
(६)
श्रीमते सकलज्ञान, साम्राज्य पदमीयुषे।
धर्मचक्रभृते भर्त्रे, नम: संसारभीमुषे।।
महापुराण ग्रंथ के इस मंगलाचरण में श्री जिनसेनाचार्य ने किसी का नाम लिए बिना गुणों की स्तुति की है। जो अंतरंग बहिरंग लक्ष्मी से सहित एवं सम्पूर्ण ज्ञान से सहित हैं, धर्मचक्र के धारक हैं, तीन लोक के अधिपति हैं और पंचपरिवर्तनरूप संसार का भय नष्ट करने वाले हैं उनको-अर्हन्तदेव को हमारा नमस्कार है।
इस श्लोक के कई अर्थ हैं। सर्वप्रथम ‘‘श्रीमते’’ शब्द से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की स्तुति है। श्री-लक्ष्मी अर्थात् जो सर्वश्रेष्ठ श्रीमान् हैं। जिनके अंतरंग-बहिरंग दोनों लक्ष्मी हैं उन भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों भगवान को मेरा नमस्कार है।
‘‘श्री’’ शब्द से पंचपरमेष्ठी को भी लिया है। श्रीमते-अरिहंत, ‘‘सकलज्ञानसाम्राज्यपदमीयुषे’’ पद-सिद्धपद का वाचक है, ‘‘धर्मचक्र भृते’’ अर्थात् दशधर्मरूपी चक्र को धारण करने वाले आचार्य परमेष्ठी, ‘‘भर्त्रे’’ पद से अज्ञान को दूर करने वाले उपाध्याय परमेष्ठी और ‘‘संसारभीमुषे’’ अर्थात् अपनी उत्कृष्ट मुनि चर्या के द्वारा संसार के भय को नष्ट करने वाले साधु परमेष्ठी को नमस्कार किया है।
आगे इसमें गौतम गणधर को नमन करके कहा है कि गणधर वैâसे होते हैं-
सकलज्ञानसाम्राज्य-यौवराज्यपदे स्थितान्।
तोष्टवीमि गणाधीशानाप्तसंज्ञानकण्किान्।।१७।।(पर्व १)
अर्थात् जिसमें ६३ शलाका महापुरुषों का कथन है उसे महापुराण कहा है। पूर्व में हुए पुरातन महापुरुषों का वर्णन करने से यह पुराण है तथा महापुरुषों के द्वारा उपदिष्ट होने से यह महापुराण है। द्वादशांग में जो १२वें दृष्टिवाद अंग के पाँच भेदों में प्रथमानुयोग नामक तृतीय भेद है, उसी में यह महापुराण ग्रंथ आता है।
पुरातनं पुराणं स्यात् तन्महन्महदाश्रयात्।
महद्भिरुपदिष्टत्वात् महाश्रेयोऽनुशासनात्।।२१।।
ऋषिप्रणीतमार्षं स्यात् सूक्तं सूनृतशासनात्।
धर्मानुशासनाच्चेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम्।।२४।।
इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुते:।
इतिवृत्तमथैतिह्यमाम्नायं चामनन्ति तत्।।२५।।(पर्व १)
यह ग्रंथ अत्यन्त प्राचीन काल से प्रचलित है, इसलिए पुराण कहलाता है। इसमें महापुरुषों का वर्णन किया गया है अथवा तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने इसका उपदेश दिया है अथवा इसके पढ़ने से महान् कल्याणकारी पद की प्राप्ति होती है इसलिए इसे महापुराण कहते हैं।
यह ग्रंथ ऋषिप्रणीत होने के कारण आर्ष, सत्यार्थ का निरूपक होने से सूक्त तथा धर्म का प्ररूपक होने के कारण धर्मशास्त्र माना जाता है। ‘इति इह आसीत्’ यहाँ ऐसा हुआ-ऐसी अनेक कथाओं का इसमें निरूपण होने से ऋषिगण इसे ‘इतिहास’, ‘इतिवृत्त’ और ‘ऐतिह्य’ भी मानते हैं।
इसे आर्षग्रंथ कहते हैं, यह सूक्त है, धर्मशासन है, इसे इतिहास भी कहते हैं, आम्नाय भी कहते हैं। श्री जिनसेन स्वामी ने इसमें कहा है कि जैसे-छोटा बछड़ा बड़े भार को उठाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार मैं भी तीर्थंकर भगवन्तों का चरित कहने में यद्यपि असमर्थ हूँ, फिर भी महापुराण नाम से इस ग्रंथ को कहने का साहस कर रहा हूँ।
धवला टीकाकार वीरसेनस्वामी एवं श्री जयसेनाचार्य को अपना गुरु मानकर इसमें श्री जिनसेनाचार्य ने उन्हें नमस्कार किया है। इसमें श्रोता और वक्ता का सुंदर लक्षण है तथा धर्मकथा के ७ अंग बताये गये हैं-द्रव्य, क्षेत्र, तीर्थ, काल, भाव, महाफल और प्रकृत ये सात अंग कहलाते हैं। प्रत्येक ग्रंथ के आदि में इनका निरूपण अवश्य होना चाहिए। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल यह छह द्रव्य हैं, ऊर्ध्व, मध्य और पाताल (अधोलोक) ये तीन लोक क्षेत्र हैं, जिनेन्द्रदेव का चरित्र ही तीर्थ है, भूत, भविष्यत् और वर्तमान यह तीन प्रकार का काल है, क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये दो भाव हैं, तत्त्वज्ञान का होना फल कहलाता है और वर्णनीय कथावस्तु को प्रकृत कहते हैं। इस प्रकार ऊपर कहे हुए सात अंग जिस कथा में पाये जायें, उसे सत्कथा कहते हैं। उस समीचीन कथा के नायक भगवान ऋषभदेव एवं चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्वशांति कारक होते हैं।
श्री जिनसेन स्वामी ने कहा है-यह युग का आद्य कथानक बताने वाला इतिहास है।
सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव ने जहाँ जन्म लेकर दीक्षा ली वह प्रयाग तीर्थ सर्वभाषामय तीर्थ का उद्भव स्थल है। भरत के प्रश्न पर वृषभसेन गणधर ने अनेक उत्तर बताये उसी परम्परा में भगवान महावीर के समवसरण में गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक के प्रश्नों पर जो पुराण कहा है। उसी पुराण को आचार्यदेव ने महापुराण बताया है-
श्रुतं मया श्रुतस्कंधादायुष्मन्तो महाधिय:।
निबोधत पुराणं मे यथावत् कथयामि व:।।९६।।(पर्व २)
वे कहते हैं-हे श्रेणिक! जैसे भरत के लिए ऋषभदेव ने कहा था, उसी प्रकार मैं आपके लिए कहता हूँ। श्रुतस्कंध के ४ महाअधिकार हैं-
१. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग
३. चरणानुयोग ४. द्रव्यानुयोग
जिसमें महापुरुषों का चरित्र हो उसे प्रथमानुयोग कहते हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी कहा है-
प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधि समाधि निधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।
देखो! इन महापुरुषों के चरित्र अपने लिए आदर्श हैं। ऋषभदेव, राम आदि का चरित्र सुनकर कोई रावण नहीं बनना चाहेगा। इस प्रथमानुयोग में चारों अनुयोग भी गर्भित समझना चाहिए, क्योंकि इसमें सभी तरह के प्रकरण शामिल हैं।
आचार्यश्री ने स्वयं एक स्थान पर कहा है-
पुराणस्यास्य वक्तव्यं, कृत्स्नं वाङ्मयमिष्यते।
यतो नास्माद्बहिर्भूतमस्ति वस्तु वचोऽपि वा।।११५।।(पर्व २)
अर्थात् पुराण से बहिर्भूत कोई भी विषय नहीं है। जैसे समुद्र से सारे रत्न उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार पुराण से सभी कथानक आदि उद्भूत होते हैं। बंध-मोक्ष आदि सबका वर्णन इसमें आ जाता है। इन सबको पढ़-पढ़कर अपनी आत्मा को महान बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
तीर्थंकरों के आश्रित २४ पुराण हैं इन सबका संग्रह महापुराण है। इसे आदिपुराण और उत्तरपुराण दो भागों में विभक्त किया है। आदिपुराण में ऋषभदेव-भरत-बाहुबली आदि का चरित्र है एवं उत्तरपुराण में अजितनाथ से महावीर तक तेईस तीर्थंकरों का चरित्र है।
इसके सुनने से भी महान पुण्य संचित होता है अत: आत्मकल्याणेच्छु को इसका अध्ययन, मनन, चिन्तन करना चाहिए, इसके सुनने से अशुभ स्वप्न नहीं आते हैं, कर्मनिर्जरा होती है। इसलिए सभी भव्यात्माओं को कम से कम एक बार महापुराण का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
चौबीसों तीर्थंकर भगवान विश्व में शांति की स्थापना करें तथा इनकी भक्ति-पूजा जन-जन के लिए कल्याणकारी होवे, यही मंगलकामना है।
प्रध्वस्तघातिकर्माण:, केवलज्ञान भास्करा:।
कुर्वन्तु जगतां शांतिं, वृषभाद्या जिनेश्वरा:।।