‘‘परि + आ’ उपसर्ग युक्त ‘वृ’ धातु से ल्युट् प्रत्यय के योग से बने ‘पर्यावरण’ शब्द का तात्पर्य है चारों ओर का वातावरण। यह वातावरण अर्थात् पर्यावरण दो प्रकार का होता है—भौतिक एवं आध्यात्मिक। भौतिक पर्यावरण अर्थात् प्राकृतिक वातावरण में भूमि, जल, वायु एवं वनस्पति आदि समाविष्ट हैं, जिनसे जीव मात्र की दैहिक आवश्यकता पूर्ण होती है। आध्यात्मिक पर्यावरण से आत्मा संतुष्ट होती है।
आत्म संतुष्टि से न केवल आध्यात्मिक पर्यावरण अपितु भौतिक पर्यावरण भी शुद्ध होता है। जीव सृष्टि एवं वातावरण का पारस्परिक आकलन ही पर्यावरण है इस विश्वास के ह्रास के साथ पर्यावरण का ह्रास एवं प्रदूषण का प्रादुर्भाव हुआ। आज की विडम्बना यह है कि पर्यावरण और प्रदूषण अंतरंग प्रतीत होने लगे हैं।
पर्यावरण प्रकृतिदत्त है। प्रदूषण के अर्थ में पर्यावरण का चिंतन विगत दो तीन दशक से ही आया है, जबकि भारतीय ऋषि, मनीषी भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति अत्यन्त प्राचीन काल से ही सजग थे। प्रत्यक्ष—परोक्ष रूप में उनका चिंतन समग्र भारतीय वाङ्मय में परिलक्षित होता है।
ऋग्वेद संहिता में इन्द्र वरुण, पर्जन्य, सूर्य आदि सभी प्राकृतिक तत्वों में देवत्व का आधान किया गया है। औपनिषदिक दर्शनों में पंचमहाभूतों को सृष्टि की उत्पत्ति का मूल माना और उनकी विशुद्धि पर बल दिया।
अथर्ववेद में जल शुद्धि विषयक अनेक मंत्र हैं। पृथ्वी के माहात्म्य स्वरूप पृथ्वी सूक्त (अथर्व—१२.१), कठोपनिषद् (कठ—५—१०) में वायु की महिमा, वृह्दारण्यकोपनिषद् (वृहद—३—९—२८) में वृक्ष वनस्पतियों में जीवनत्व का उद्घोष है। समग्र वैदिक वाङ्मय में पंचमहाभूतों की पर्यावरणीय उपयोगिता का निदर्शन है। पौराणिक साहित्य आयुर्वेद, चरक—संहिता, वास्तुशास्त्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा स्मृति ग्रंथों में भी पर्यावरण चेतना का निदर्शन होता हैं।
समग्र जैन वाङ्मय में पर्यावरण विषयक सूक्ष्म चिंतन व्याप्त है। इनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में देवत्व की नहीं अपितु जीवत्व की अवधारणा है। आचारांग सूत्र के प्रथम पांच अध्याय में षट्कायिक जीवों का सविस्तार वर्णन है। आचार्य उमास्वामि ने तत्त्वार्थसूत्र में जीव के भेद बताते हुए लिखा है—
संसारिणस्त्रसस्थावरा:।
पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा:।
अर्थात् संसारी जीव त्रस एवं स्थावर दो प्रकार के होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पतिकायिक ये पांच स्थावर (जीव) हैं।
जैन वाङ्मय में जीव तत्व का सूक्ष्म, वैज्ञानिक वर्णन और वर्गीकरण किया गया है। जीव जातियों के अन्वेषण की चौदह मार्गणाएँ, जीवों के विकास के चौदह गुणस्थान और आध्यात्मिक दृष्टि से गुण दोषों के आधार पर जीव के भेदोपभेद का भी वर्णन किया गया है। इस तरह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जीवत्व से ओतप्रोत है और संपूर्ण पर्यावरण एक जीवन्त इकाई है। इसके प्रति स्वत्व का और संरक्षण का भाव होना चाहिये।
आचरणपूर्वक इस षट्कायिक पर्यावरणीय संहिता की रक्षा जैन सिद्धांतों का मूलाधार है। आचार्य उमास्वामि का सूत्र है—
परस्परोपग्रहो जीवानाम्।
अर्थात् प्रत्येक जीव एक दूसरे पर आश्रित या पूरक है। कोई जीव यदि हमारा सहायक बनता है तो उसकी सुरक्षा हमारा कर्तव्य है। यथा—वृक्ष हमें शुद्ध वायु, जल, फल ईंधनादि प्रदान करते हैं। अत: वृक्षों का संरक्षण और संवर्धन हमारा कर्तव्य है। वृक्षों में भूमि, वायु और ध्वनि प्रदूषण को अवशोषित करने की सामर्थ्य है।
उदाहरणार्थ—भोपाल गैस त्रासदी में बड़, पीपल, इमली और अशोक जैसे घने वृक्षों के पत्ते जल गये थे। उन वृक्षों के समीपस्थ निवासरत व्यक्तियों पर गैस का प्रभाव अपेक्षाकृत कम हुआ। निश्चय ही विषैली गैस की अधिक मात्रा वृक्षों द्वारा अवशोषित की गई।
पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों की उपयोगिता एवं वृक्षारोपण के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए पद्मपुराण में कहा गया है कि—
प्रतिष्ठां ते गमिष्यन्ति यै: वृक्षा: समारोपिता:।
वरांगचरित्र एवं धर्मशर्माभ्युदय में वनों, उद्यानों, वाटिकाओं तथा नदी के तीरों पर भी वृक्षारोपण का वर्णन है।
तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर अंकित चिह्न पर्यावरण संरक्षण के प्रतीक है। चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस चिन्हों में से तेरह चिन्ह प्राणी जगत से संबंद्ध है। पशु जगत से बैल, हाथी, घोड़ा, बंदर, हिरण एवं बकरा मानव के सहयोगी रहे हैं। चकवा पक्षी समूह का तथा कल्पवृक्ष वनस्पति जगत का प्रतीक है। जलचर मगर, मछली, कछुआ और शंख का जल शुद्धि में महत्वपूर्ण योगदान है। लाल और नीलकमल अपने सौन्दर्य एवं सुकुमारता से शान्ति और प्रेम का संदेश देते हैं। स्वस्तिक एवं कलश कल्याण के प्रतीक हैं।
तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व उनकी माताओं द्वारा देखे गये सोलह स्वप्न भी पशु जगत एवं प्राकृतिक जगत से सम्बद्ध मंगल और क्षेम के प्रतीक हैं।
तीर्थंकरों की समवसरण सभा में भी प्रमद वन, अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम वृक्षों की व्याप्ति वर्णित है। साथ ही प्रत्येक जीव का स्थान निर्धारित है तथा सभी को तीर्थंकर वाणी सुनने का अधिकार है।
प्रकृति ने न केवल वनस्पति अपितु मानव की सेवा, सहायता और सुरक्षा के लिये पशु—पक्षियों की सृष्टि भी की है। जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत वराङ्गचरित, पद्मानन्द महाकाव्य, धर्मशर्माभ्युदय और चन्द्रप्रभचरित प्रभृति महाकाव्यों में गाय, भैस, बैल, घोड़ा आदि की कृषि, व्यवसाय, युद्धादि में उपयोगिता का वर्णन है। साथ ही पशु—पक्षियों के साथ दुर्व्यवहार की निन्दा तथा पशु—पक्षियों के वध के प्रति ग्लानि भाव और बलि का विरोध भी वर्णित है।
पशु सृष्टि भी मानव के लिये वरदान है। गो प्रभृति जीव न केवल दुग्ध अपितु मलमूत्रादि के रूप में ईंधन, खाद, गैस और ऊर्जा भी प्रदान करते हैं। सर्प जैसा विषैला प्राणी फसल नष्ट करने वाले कीटों को खाकर उसकी सुरक्षा तथा केंचुआ जैसा क्षुद्र प्राणी मिट्टी को उर्वरा बनाता है।
तात्पर्य यह है कि पर्यावरण रक्षण में प्रत्येक प्राणी का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में योगदान होता है। आधुनिक कृषि वैज्ञानिक इसकी पुष्टि करते हैं। प्राणी और वनस्पति जगत का संरक्षण अिंहसा से ही संभव है। जैनाचार में अिंहसा अत्यन्त व्यापक अर्थ रखती है। मन, वचन और कर्म से किसी जीव की हिंसा न करना ही अहिंसा है। अिंहसा को माता और विश्वरक्षक कहा है।
जैन शास्त्रों में जलशुद्धि एवं मितव्यतिता पर विशेष बल दिया है। जल का उपयोग छानकर एवं उबालकर करना श्रावकों का कर्तव्य बताया है। आज स्थान—स्थान पर एकत्रित जल में उत्पन्न दलदल, सीलन, सड़न, रोगाणुओं की उत्पत्ति, भूमि, जल और वायु प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण अनावश्यक जल और दूषित पदार्थों को प्रवाहित करना ही है। यह असंख्य जल के जीवों की हिंसा भी है। जैन विधि से जल शुद्धि एवं मितव्ययिता से ही जल प्रदूषण से मुक्ति संभव है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप पांच महाव्रत भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण की शुद्धि में सार्थक भूमिका का निर्वाह करते हैं। अहिंसा और सत्य परस्पर अन्योन्याश्रित है।
हित—मित—प्रिय और हिंसा रहित वचन बोलना चाहिये। सत्य त्याग से प्राणी हिंसक हो सकता है। असत्य भाषण से स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध, वैर, वैमनस्य आदि दुर्भावनाएँ भी जन्म लेती हैं। सत्य से आत्मसंतुष्टि होती है और भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण शुद्ध होता है।
मन, वचन और कर्म से किसी की सम्पत्ति बिना आज्ञा के न लेना और न दूसरों को देना अस्तेय या अचौर्य है। चौर्य कर्म के मूल में लोभ की प्रवृत्ति प्रबल है। व्यक्ति द्वारा वनों की अवैध कटाई व चोरी, अभयारण्यों में बाघ, हिरण, हाथी आदि पशुओं का शिकार, दूषित गैस उत्सर्जक, आधुनिक उपकरण एवं वाहनों का प्रयोग, व्यापार में मिलावट, कम तोलना, रिश्वत लेना या देना स्तेयकर्म है। अस्तेय या अचौर्यव्रत पालन से व्यक्ति, समाज और देश में व्याप्त आर्थिक प्रदूषण की रक्षा संभव है।
दस बाह्य परिग्रह और चौदह अंतरंग परिग्रह है।
क्षेत्र, वास्तु, धनधान्य, दासी—दास, चतुष्पद पशु, आसन, शयन, वस्त्र और भांड दस परिग्रह हैं। वस्तुओं के भोगोपभोग की इच्छा ही परिग्रह है और नि:स्पृहता अपरिग्रह है। अत: परिग्रहपरिमाण व्रत का पालन करना चाहिये। इससे आवश्यकताएँ सीमित एवं प्राकृतिक संसाधनों की बचत संभव है। अपरिग्रह को अपनाकर न केवल मनुष्य और समाज अपितु विविध देश भी सामरिक संभावनाओं को समाप्त कर परमाणु विस्फोटों से पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं।
प्राकृतिक शोषण में जनसंख्या वृद्धि की महती भूमिका हैं जनसंख्या नियंत्रण हेतु ब्रह्मचर्य व्रत सार्थक है। ‘ब्रह्मचर्य व्रत जीवन को मर्यादित एवं मैथुन सेवन को नियंत्रित करता है आचार्य समन्तभद्र ने कहा है—
न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीतैर्यत्,
सा परदार—निवृत्ति: स्वदारसंतोषनामापि।
अर्थात् जो पाप के भय से न स्वयं परस्त्री के समीप जाता है और न दूसरों को भेजता है, उसकी वह क्रिया परस्त्री त्याग तथा स्वदार संतोष नामक ब्रह्मचर्यव्रत है।
इस व्रत का पालन न करने के परिणामस्वरूप सामाजिक प्रदूषण पैâलता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण—आर्थिक दृष्टि से समृद्ध भोगवाद के चरम बिन्दु पर पहुँची अमेरिका का असन्तुलित सामाजिक जीवन है, जहाँ प्रतिदिन तीन में से एक नारी को जीवन में एक बार बलात्कार सदृश घृणित शोषण का शिकार होना पड़ता है। विदेशों में ही नहीं अपितु भारत में भी एड्स प्रभावित रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इन परिस्थितियों में ब्रह्मचर्य व्रत वैयक्तिक, सामाजिक और शारीरिक पर्यावरण शुद्धि हेतु वरदान है।
जैनधर्म के प्रमुख सिद्धांत अनेकान्तवाद के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु अनेक विरोधी धर्मों का समूह रूप है। जैसे दीपक में अञ्जन, बादल में बिजली और समुद्र में वड़वानल। समस्त वस्तु जाति उत्पाद्व्यय—ध्रौव्यरूप त्रयात्मक है। एक ही वस्तु में सत् और असत् दोनों रूप विद्यमान होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि हेतु शूकर का दृष्टान्त दिया गया है—कि विष्ठा हमारे लिये अभक्ष्य किन्तु शूकर के लिये परमभक्ष्य है। शूकर के प्रति हमारी दृष्टि घृणित होती है किन्तु पर्यावरण शुद्धि में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।
परमाणु असीम शक्ति का जनक है, जिसमें निर्माण और विध्वंस दोनों ही सामर्थ्य है। इस परमाणु शक्ति का उपयोग कारखानों के संचालन हेतु विद्युत के रूप में, पृथ्वी में छिपी खनिज संपदा और तेल आदि ज्ञात करने तथा सुरंग निर्माण जैसे कार्यों में करते हुए। युद्धादि में विनाश हेतु, प्रयुक्त रेडियाधर्मी प्रदूषण से पर्यावरण की रक्षा करना चाहिये।
इस प्रकार भक्ष्य—अभक्ष्य, घृणित—प्रशंसनीय, निर्माण—विध्वंस परस्पर विरोधी धर्म है। विश्वरक्षिका अनेकान्त दृष्टि को पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में समझना चाहिये। अनेकान्त की वचनपद्धति स्याद्वाद है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में वैचारिक प्रदूषण दूर करने की सामर्थ्य है।
श्रावक एवं श्रमण की आचारशुद्धि हेतु जैन वाङ्मय के चरणानुयोग भाग में आचारसंहिता निर्दिष्ट है। वर्तमान में श्री कुन्दकुन्दाचार्य, आचार्य श्री उमास्वामी, आचार्य श्री समन्तभद्र आदि द्वारा रचित लगभग ३६ श्रावकाचार उपलब्ध हैं। श्रावकाचार संहिता में श्रावक के लिये ग्यारह प्रतिमाओं का विधान है। यथा—१. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रोषध प्रतिमा ५. सचित्तत्याग प्रतिमा ६. रात्रिभुक्तित्याग प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा ८. आरम्भत्याग प्रतिमा ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा १०. अनुमतित्याग प्रतिमा ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा।
सामान्यतया आठ मूलगुण, पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह श्रावक का सर्वमान्य आचार है। मद्य, मांस, मधु तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग ये गृहस्थ के आठ मूलगुण है। जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, परदाराभिलोभन, चोरी एवं शिकार ये सप्त व्यसन त्याज्य हैं। प्रतिदिन देवपूजा, गुरूपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम धारण, तपश्चरण और दान श्रावक के छ: कर्तव्य हैं।
पांच अणुव्रत—मन वचन काय से त्रस्त प्राणियों का रक्षण अहिंसाणुव्रत है। असत्य वचन त्यागकर धर्म के निधान स्वरूप सत्यवचन बोलना सत्याणुव्रत है। मन, वचन, कर्म से पर सम्पत्ति को बिना आज्ञा के न लेना अचौर्याणुव्रत है। स्वभार्या के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियों के साथ विषय सेवन का त्याग ब्रह्मचर्याणुव्रत है और संसार के धनधान्यादि दस प्रकार के परिग्रह का नियम परिग्रह परिमाणाणुव्रत है।
तीन गुणव्रत—पूर्व आदि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि स्थानों की मर्यादा निर्धारित कर जन्मपर्यन्त उससे बाहर न जाना, उस मर्यादा में लेन—देन आदि कार्यों को करना दिग्व्रत है। बिना प्रयोजन के पापारम्भों का त्याग अनर्थदण्डविरति गुणव्रत है। इन्द्रियजय हेतु भोगोपभोग की वस्तुओं का अल्पसमय अथवा जीवनपर्यन्त नियम भोगोपभोग परिमाण नामक गुणव्रत है।
चार शिक्षाव्रत—दिग्व्रत की सीमा के अन्तर्गत प्रतिदिन गमनागमन की सीमा का नियम ग्रहण करना देशावकाशिक नामक शिक्षाव्रत है। दुर्ध्यान एवं दुर्लेश्या छोड़कर प्रात:, मध्याह्न और सायंकाल तीन बार सामायिक करना सामायिक शिक्षाव्रत है। प्रत्येक मास की अष्टमी, चतुर्दशी को सर्वगृहारम्भों का त्याग कर नियमपूर्वक उपवास या एकाशन प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत है और अतिथि को शुद्ध चित्त से प्रतिदिन निर्दोष विधिपूर्वक आहार देना अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है।
श्रावक के ये द्वादश व्रत आचरण को संयमित, आवश्यकताओं को नियंत्रित तथा दान, शील, तप आदि भावनाओं को विकसित करने में समर्थ हैं। विवेक की रक्षा, सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षार्थ अष्ट मूलगुण सार्थक है। चरित्र की शुद्धि सप्तव्यसन त्याग से सम्भव है। आत्मशुद्धि में षडावश्यक सहायक है। इन सबके परिपालन से पर्यावरण शुद्ध बना रहता है।
संहिता में श्रमण अर्थात् मुनि के पंच महाव्रत, पंच समितियाँ, पंचेन्द्रिय निग्रह, षडावश्यक एवं स्नान त्यागादि सात गुण, कुल २८ मूलगुण निर्दिष्ट हैं।
पंचमहाव्रत—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पंच महाव्रत हैं।
पंच समितियाँ—ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और व्युत्सर्ग ये पांच समितियाँ है। सूर्यालोक रहने पर चार हाथ आगे
भूमि को देखकर गमन करना ईर्या समिति है। हित, मित, प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है। श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दिये गये आहार को एक बार ग्रहण करना एषणा समिति है। पिच्छि कमण्डलु को सावधानीपूर्वक रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति और जीवजन्तु रहित भूमि पर मलमूत्र का त्याग करना व्युत्सर्ग समिति है।
पंचेन्द्रिय निग्रह—इन्द्रियों को लुभावने लगने वाले विषयों से राग न करना तथा अशोभनीय विषयों से द्वेष न करना इन्द्रिय निग्रह है।
षडावश्यक—सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग का पालन मुनियों का कर्त्तव्य है।
सात गुण—स्नानत्याग, अदन्तधावन, भूमिशयन, खड़े होकर भोजन करना, एक बार भोजन करना, नग्न रहना, केशलुंचन ये मुनियों के सप्त गुण है।
श्रमणाचार संहिता में स्नानत्याग, अदन्तधावन, भूमिशयन, पादगमन, ईर्या समिति पालन के मूल में क्षुद्र जीवों के प्रति अिंहसा की भावना, पंचेन्द्रिय निग्रह में निर्विकार भाव का, नग्नत्व में अपरिग्रह का, सामायिक—स्तुति—वंदना में आत्मशुद्धि का तथा द्वादशानुप्रेक्षाओं के मनन तथा क्षमादि दस धर्म के अनुशीलन में आत्मोत्थान का चिन्तन समाहित है। इस प्रकार श्रावक एवं श्रमणाचार संहिता आचारशुद्धि, भावशुद्धि और अन्तत: पर्यावरण शुद्धि की ओर प्रेरित करती है।
पर्यावरण संरक्षण के सैद्धान्तिक पक्ष को व्यक्त करने वाले जैनाचार्यों, मुनियों एवं कवियों ने प्रकृति के सौन्दर्य को भीr निहारा है। समग्र जैन वाङ्मय में प्रकृति के सुकुमार रूपों का चित्रण, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद आदि ऋतु वर्णन, प्रात:, संध्या, रात्रि, ज्योत्सना का चित्रण, संयोग—वियोग, प्रेम—वात्सल्य, राग—द्वेष, वैराग्य आदि भावों की प्रतीक एवं मानवीकरण रूप में अभिव्यक्ति, नगर, ग्राम, वन—उपवन, नदी—सरोवर, तीर्थ—पर्वत, वृक्ष—वनस्पति, पशु—पक्षी आदि रूपों का वर्णन उनके सूक्ष्म पर्यावरणीय चिंतन का परिचायक है।
पर्यावरण संरक्षण जैन जीवन—पद्धति का मूलाधार है, जिसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जीवत्व को माना और ‘आत्मा यथा स्वस्थ तथा परस्य विश्वैक संवादविधिर्नरस्य’ कहकर प्रत्येक जीव की समान भाव और ‘यथा स्वयं वाञ्छति तत्परेभ्य: कुर्वज्जन:’ से षट्कायिक जीवों की रक्षा अर्थात् अिंहसा का सन्देश दिया।
नित्य स्तुत्य आलोचनापाठ, सामायिक पाठ और शांतिपाठ से भी षट्कायिक जीवों के संरक्षण एवं संतुलन का स्वर उद्घोषित होता है। इस प्रकार जैन वाङ्मय में बाह्य पर्यावरण के साथ अन्त: पर्यावरण का भी सूक्ष्म विश्लेषण है। मानव का आध्यात्मिक चिंतन उसे भौतिक जगत में कर्म हेतु प्रवृत्त करता है।
अत: भौतिक पर्यावरण शुद्धि के लिये आध्यात्मिक अर्थात् आत्म शुद्धि आवश्यक है। अंत: शुद्धि और बाह्यशुद्धि का अनन्य संबंध है। इसके लिये अिंहसा का व्यवहार और अनेकान्त का विचार परमावश्यक है। जैन सिद्धांत एवं आचार तन शुद्धि, मन शुद्धि, और पर्यावरण शुद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं जिन्हें वर्तमान पर्यावरणीय समस्याओं के संदर्भ में समझना और आचरण में समाहित करना आज की महती आवश्यकता है।