द्वादशांग वाणी के अन्तर्गत दृष्टिवाद अङ्ग के पूर्वरूप चौदह भेदों में ‘विद्यानुवाद’ नामक पूर्व कहा गया है, उसी विद्यानुवाद पूर्व से निस्सरित विद्यामंत्र और यंत्र विधान है। विद्या—जिस मंत्र की अधिष्ठातृ देवी हों, मंत्र—जिसका अधिष्ठाता देव हो। बीजाक्षर हो अथवा स्वर हो या व्यंजन हो, प्रत्येक का एक—एक अधिष्ठाता देव या देवी होते हैं। इसका विस्तृत विवेचन वर्तमान में उपलब्ध विद्यानुशासन में पाया जाता है। ५०० महाविद्याओं और ७०० क्षुद्रविद्याओं का वर्णन तथा इनको सिद्ध करने का विधान आदि विद्यानुवाद में पाया जाता है। ये विद्याएं निर्ग्रंथ ऋषियों को विद्यानुवाद का स्वयमेव अध्ययन करने मात्र से सिद्ध हो जाती हैं, किन्तु सम्यग्दृष्टि श्रावक, विद्याधर आदि की विशेष तप, संयम, ध्यान से तथा विधि—विधान करने से सिद्ध होती है । इन विद्याओं को सिद्ध करने के लिये प्रथम तो श्रद्धान की परम आवश्यकता है जिस मंत्र की सिद्धि करने के लिये जैसा विधि—विधान कहा है उसी प्रकार करने से वह मंत्र सिद्ध हो सकता है, अन्यथा हानि की उठानी पड़ती है। आदिपुराण में जिनसेनाचार्य ने भी राजा नमि-विनमि के राज्य प्राप्ति विषयक विवेचन के अन्तर्गत राजा नमि, विनमि को धरणेन्द्र द्वारा कुछ विद्याओं को सिद्ध करने का विधि—विधान भी बताया गया ऐसा कहा है। विधि—विधान सम्बन्धी उपदेश देते हुए बताया कि यह विद्याधर लोक है, विद्याधर लोक में मनुष्य को कुछ विद्याएं तो स्वयं सिद्ध हो जाती हैं और कुछ आराधना से सिद्ध होती हैं। मातृपक्षीय और पितृपक्षीय कुल विद्याएं तो स्वयं सिद्ध होती हैं तथा आराधना से सिद्ध होने वाली विद्याएं भी है। उनको सिद्धायतन कूट के पास अथवा द्वीप, समुद्र, नदी, आदि पवित्र स्थान में शुद्ध वस्त्र धारण कर, उन विद्याओं की आराधना करके सिद्ध करें। इस विधि से ही विद्याएं सिद्ध हो सकती हैं तथा नाना प्रकार के इच्छितआकाश गमनादि व भोगोपभोग पदार्थ देती हैं।
जब यंत्र साधन या सिद्धि करने बैठें तो उससे पहले यंत्र लिखने की योजना समझना चाहिये, क्योंकि बिना समझे उसमें भूल होना संभव है। मान लो भूल हो गई और लिखे हुए अंक को काट दिया या मिटा दिया और उसकी जगह दूसरा लिखा तो यह यंत्र लाभदाई नहीं होगा। इसी प्रकार अंक में १ की जगह २ लिखा गया हो तो यह भी एक प्रकार की भूल मानी गई है। भूल होने पर उस भोज पत्र या कागज को छोड़ दो दूसरा लेकर लिखो। भूल न हो इसके लिये पूर्व अभ्यास करना चाहिए।
यंत्र लिखते समय सबसे पहले देख लो कि सबसे छोटा अंक किस खाने में है। उसी खाने से लिखना शुरु किया जाय और वृद्धि पाते अंज्र् से लिखते जाओ। जैसे यंत्र में सबसे छोटा अंज्र् ५ है तो ५ से लिखना प्रारम्भ करो बाद में ६—७—८ जो भी संख्या हो क्रम वृद्धि से लिखते जाओ। इस क्रम से पूरा यंत्र लिख लो। ऐसा कभी न करो कि लाइन से खाने भर दो और सबसे छोटा अंज्र् अंत में या बीच में भरो। इस प्रकार से अक्रम से भरा यंत्र लाभकारी नहीं होगा।
यंत्रांक योजना :
अधिकांश यंत्रों में अंक संख्या इस विधि से लिखी होती है कि किसी तरफ से जोड़ने पर एक ही संख्या आती है इसका अभिप्राय यह है कि यन्त्रक सब ओर अपना बल समान रखना चाहता है। किसी भी दिशा में निज प्रभाव कम नहीं होने देता है।
यन्त्रों में भिन्न २ प्रकार के खाने होते हैं और वे भी प्रमाणित रूप से व अंज्रें से अंकित होते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक अंक निज बल को पिछले अंक में मिला दश गुणा बढ़ा देते हैं, तदनुसार यह योजना भी यन्त्र शक्ति को बढ़ाने के हेतु से की गई समझना चाहिये।
जिन यन्त्रों में विशेष खाने हों और जिनके अंकों का योग करने से एक ही योग न आता हो तो इस तरह के यन्त्र अन्य हेतु से समझना चाहिए। ऐसे यन्त्रों का योगांक करने की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसे यन्त्र इस प्रकार के देवों से अधिष्ठित होते हैं कि जिनका प्रभाव बलिष्ट होता है। जैसे भक्तामर आदि के यन्त्र, इसलिए जिन यन्त्रों का योगाज्र् एक न मिलता हो उन यन्त्रों के प्रभाव या लाभ प्राप्ति में शंका नही करना चाहिए।
यन्त्र लिखने बैठें तब यन्त्र के साथ विधान लिखा हो तो प्रथम उस पर ध्यान दो। प्रधानत: यन्त्र लिखते समय मौन रहना चाहिए। सुखासन से बैठना चाहिए। सामने छोटा या बड़ा पाटिया या बाजोठ हो तो उस पर रखकर लिखना, परन्तु निज के घुटने पर रखकर कभी नहीं लिखे क्योंकि नाभि के नीचे अङ्ग ऐसे कार्यो में उपयोगी नहीं माने गए हैं।
प्रत्येक यन्त्र को लिखने के समय दीप, धूप, अवश्य रखनी चाहिए और यन्त्र विधान में जिस दिशा की ओर मुख करके लिखने का विधान बताया हो, उसी दिशा की ओर मुख करके लिखें, यदि नहीं लिखा हो तो सुख सम्पदा प्राप्ति के लिए पूर्व दिशा की ओर, संकट, कष्ट, आधि, व्याधि के मिटाने को उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए। सम्पूर्ण क्रिया कर शरीर शुद्धि करके स्वच्छ कपड़े पहन कर विधान पर पूरा ध्यान रखना उचित है। लेखन विधि ऊन के बने आसन पर बैठकर नहीं करना चाहिए। स्थान शुद्धि का भी पूरा ध्यान रखना चाहिये।
यंत्र का बहुमान करके उससे लाभ की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। वार्षिक पर्व दीपावली के दिन दुकान के दरवाजे पर या अन्दर जहां देव स्थापना हो वहां पर पन्दरिया, चौंतीसा, पेंसठिया, यंत्र लिखने की प्रथा बहुत जगह देखने में आती है। विशेष में यह भी देखा है कि गर्भवती स्त्री कष्ट पा रही हो और छुटकारा न होता हो तो विधि सहित यंत्र लिखकर उस स्त्री को दिया जाय तो देने मात्र से छुटकारा हो जाता है। किसी स्त्री को डाकिनी, शाकिनी सताती है तो यंत्र को हाथ में या गले में बांधने से या सिर पर रखने व दिखाने मात्र से आराम हो जाता है।
प्राचीन काल में ऐसी प्रथा थी कि किले या गढ़ की नींव लगाते समय अमुक प्रकार का यंत्र लिख दीपक के साथ नींव में रखते थे। इस समय भी बहुत से मनुष्य यंत्र को हाथ में बांधे रहते हैं और जैनधर्म में तो पूजा करने के भी यंत्र होते हैं जिनका नित्यप्रति अभिषेक कराया जाता है और चन्दन से पूजा कर पुष्प चढ़ाते हैं। इस तरह से यंत्र का बहुमान प्राचीन काल से होता आया है जो अब तक चल रहा है साथ ही श्रद्धा भी फलती है, जिस मनुष्य को यन्त्र पर भरोसा होता है उसे फल भी मिलता है। इसीलिए श्रद्धावान लोग विशेष लाभ उठाते हैं। श्रद्धा रखने से आत्मविश्वास बढ़ता है। एक निष्ठ रहने की प्रकृति हो जाती है। एक निष्ठा से आत्मबल व आत्मगुण भी बढ़ते हैं। परिणाम पुष्ट—निर्मल होते हैं अत: आत्म शुद्ध्यर्थ भी श्रद्धान रखना परमावश्यक है। जैनागम में अनेक यन्त्रों का सविस्तार विधि—विधान पूर्वक वर्णन पाया जाता है।
जैन धर्म में ध्यानाध्ययनादि का विशेष वर्णन है—उसीप्रकार मंत्र, तंत्र और यंत्र का भी विशेष वर्णन है। दृष्टिवाद नामक १२ वें अंग के पांच भेद हैं उसमें चूलिका नामक जो भेद है— उसके जलगता, आकाशगता, स्थलगता, मायागता और रूपगता यह पांच भेद हैं— उनमें मंत्र तंत्र के प्रयोग का वर्णन किया गया है।
जल में गमन, जल का स्तंभन, अग्नि स्तंभन, अग्नि भक्षण, अग्निप्रवेश करने में कारणभूत मंत्र तंत्र तपश्चरण आदि का वर्णन जिस ग्रन्थ में है—उसको जलगता चूलिका कहते हैं।
भूमि में प्रवेश करने का वा पृथ्वीगत वस्तु का प्रतिपादन करने वाले मंत्र तंत्र का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को स्थलगता चूलिका कहते हैं।
व्याघ्र सिंह हरिण आदि रूप से परिवर्तन करने में कारणभूत मंत्र तंत्र कथन करने वाले शास्त्र को मायागता कहते हैं।
इन्द्र जालादि सम्बन्धी मंत्र तंत्र का जिसमें वर्णन है उसको मायागता चूलिका कहते हैं।
आकाश में गमन के कारण मंत्र तंत्रादि का वर्णन जिसमें है उसको आकाशगता चूलिका कहते हैं।
चौदहवाँ पूर्व विद्यानुवाद नामक पूर्व है—उसमें तो पूर्ण रूप से मंत्र, तंत्र और यंत्र का ही वर्णन है। इस प्रकार जैन ग्रन्थों में मंत्र तंत्र का विधिवत् प्रयोग किया है— और मंत्र तंत्र की साधना पद्धति भी लिखी है—तथा उनके प्रयोग से जिनको फल प्राप्त हुआ है उनके नामोल्लेख भी हैं।
प्रभावशाली महत्त्वपूर्ण रहस्यमय शब्दात्मक वाक्यों को ‘‘मंत्र’’ कहते हैं। जो कुछ गुप्त वार्त्ता होती है उसको मंत्र कहते हैं। अथवा—मन्त्र्यते मन्त्रणं वा मंत्रं। मत्रि गुप्त भाषणे इस व्युत्पत्ति से मंत्र शब्द का अर्थ होता है—गुप्त मंत्रणा। ‘‘मंत्रो वेद विशेषे स्याद्देवादीनां च साधने गुह्य वादेपि च पुमान् ‘‘मंत्र—शब्द वेद विशेष में देवताओं की साधना करने में और गुप्त मंत्रणा में आता है। यहाँ पर मंत्र शब्द का अर्थ है—देवताओं की आराधना वा आत्मा साधना।
मंत्रोें का भी व्याकरण है, उसी के अनुसार विभिन्न कार्यों के लिये विभिन्न प्रकार के बीजाक्षरों की योजना करके विभिन्न प्रकार के मंत्र बनाये जाते हैं। विद्यानुशासन ग्रंथ में मंत्रो का व्याकरण बतलाया गया है।
मंत्र क ख ग घ आदि बीजाक्षरों से निष्पन्न होते हैं उन मंत्र में निहित बीजाक्षरों में उच्चरित ध्वनियों से आत्मा में धन और ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत शक्तियां उत्पन्न होती हैं। जिससे अनेक कार्यों की सिद्धि एवं कर्म कलंक का प्रक्षालन् होता है।
बीजाक्षरों की योजना से चमत्कार प्रकट करने वाले मंत्र दो प्रकार के हैं—लौकिक और अलौकिक। जिन मंत्रों की विद्युत शक्तियों से सर्प—विष, आधि—व्याधि, भूत प्रेतादि बाधा दूर की जाती है अथवा जिनका प्रयोग वशीकरण, मारण, उच्चाटन के लिये किया जाता है वे लौकिक मंत्र हैं और जिन मंत्रों के जपने से आत्म शुद्धि एवं आत्मोन्नति होती है वे लोकोत्तर मंत्र होते हैं।
बीजाक्षर—ककार से लेकर हकार पर्यंत व्यजंन बीज संज्ञक है और अकारादि स्वर शक्ति रूप हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है।
मंत्र शास्त्रों में कथित सारस्वत बीज, माया बीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वी बीज, अग्नि बीज, प्रणव बीज, मारुत बीज, जल बीज, आकाश बीज आदि की उत्पत्ति ककारादि हत्य् बीजों से और अकारादि ’अच्’ शक्ति से होती है।
प्रत्येक स्वर और व्यंजनों की शक्तियों का वर्णन—
अ— अव्यय, व्यापक ज्ञान स्वरूप शक्ति का द्योतक प्रणव बीज का जनक है।
आ— शक्ति और बुद्धि का दायक सारस्वतबीज का जनक कीर्ति—धन का देना वाला है।
इ— लक्ष्मी प्राप्ति का साधक—कठोर कर्मों का बाधक एवं ह्रीं बीज का उत्पादक है।
ई— अमृत बीज है, ज्ञानवर्द्धक, स्तंभक, मोहक और जंभृक है।
उ— उच्चाटन कारक तथा श्वास नालि के द्वारा जोर का धक्का देने से है।
ऊ— उच्चारक, मोहक और विशेष शक्ति का परिचायक है।
ऋ—ऋद्धिबीज, सिद्धिदायक, शुभ कार्य सम्बन्धी बीजों का मूल कार्य सिद्धि का सूचक है।
ऋृ—सत्य का संचारक, वाणी का ध्वंसक, लक्ष्मी और अात्मसिद्धि का दीपक है।
ए— अरिष्ट निवारक और सुख सम्पत्ति का वर्द्धक है।
ऐ— उदात्त—जोर से उच्चारण करने पर वशीकरण।
ओ—यह उदात्त स्वर माया बीज का उत्पादक लक्ष्मी—श्री पोषक सर्व कार्यों का साधक और निर्जरा का कारण है।
औ—मारण और उच्चाटन में प्रधान शीघ्र कार्य का साधक है।
अं— स्वतंत्र अनेक शक्तियों का उद्घाटक है।
अ:—शांति बीजों में प्रधान है।
क—शक्ति बीज प्रभावशाली सुखोत्पादक और संतान प्राप्ति की कामना को पूरने वाला है।
ख—आकाश बीज—अभाव कार्यों की सिद्धि के लिए कल्पवृक्ष है।
ग— पृथक् करने वाले कार्यों का साधक है।
घ— स्तंभन बीज है, स्तंभन कार्यों का साधक और विघ्न घातक है।
इस प्रकार ‘च’ आदि सम्पूर्ण बीजाक्षर संयुक्त वा असंयुक्त होकर कार्य सिद्धि को करते हैं। इन बीजाक्षरों की शक्ति अचिंत्य हैं। कठिन से कठिन कार्य, दुसाध्य रोग, ईति—भीति आदि सर्व उपद्रव बीजाक्षरों के ध्यान से नष्ट हो जाते हैं।
सर्वप्रथम बीजाक्षरों से निष्पन्न णमोकार मंत्र है, जिसके चिंतवन से लौकिक कार्य की सिद्धि और आत्मोन्नति होती है। इसके जपने वालों के उदाहरणों से शास्त्र भरे हुये हैं। इसी मंत्र के ध्यान से सुदर्शन के लिये सिंहासन, रावण को विद्याओं की सिद्धि, मानतुंग के ४८ ताले टूटना, वादिराज के कुष्ट रोग का निवारण, कुन्द कुन्द के द्वारा अम्बिका का अवतरण, आदि अनेक कार्य सिद्ध हुये हैं। इस णमोकार मंत्र से ही सर्व मंत्रों की उत्पत्ति होती है। मंत्र व्याकरण के अनुसार इसमें अनेक प्रकार के बीजाक्षर और पल्लव जोड़ देने से इसमें अद्भुत शक्ति का योग हो जाता है। जैसे धन प्राप्ति के लिए ‘क्लीं’, शांति के लिये ‘ह्रीं’, विद्या के लिये ‘‘ऐं’’, कार्य सिद्धि के लिए भ्रौं’ बीजाक्षर और स्वाहा या नम: पल्लव का प्रयोग किया जाता है। मारण, उच्चाटन, विद्वेषन करने के लिये घेघे’ वषट् शब्द का प्रयोग किया जाता है।
तथा—ॐ ह्राँ णमो अरिहंताणं, ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं, ॐ ह्रूँ णमो आइरियाणं, ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं, ॐ ह्र: णमो लोए सव्व साहूणंं—यह एक मंत्र बन गया—जिस कामना से इसका जाप्य करना है—वही पल्लव जोड़ देना चाहिये।
जैसे यदि अग्नि को शमन करना है तो इसी मंत्र के अंत में अग्निं उपशमय उपशमय सर्वशांतिं कुरु कुरु स्वाहा, ऐसा जाप करना चाहिये। वृष्टि कराने के लिये मेघं आनय आनय वृष्टिं कुरु कुरु स्वाहा। वृष्टि को रोकने के लिये वृिंष्ट स्तंभय हूँ फट् स्वाहा मंत्र बोलना चाहिये। विष को दूर करने के लिये—सर्पविषं वा वृश्चिक विषं नाशय नाशय हूँ फट् स्वाहा। इसी प्रकार आधि—व्याधि शोक संताप दारिद्र का नाश करने के लिये पल्लव को जोड़कर ऊपर कथित णमोकार मंत्र का जाप करने से कार्य की सिद्धि होती है।
इस णमोकार मंत्र के समान और भी बहुत से मंत्र हैं—जिनसे भी अनेक कार्य सिद्ध होते हैं—
जैसे ’ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लूँ अर्हं नम:’ सर्व शांतिदायक मंत्र है। ॐ ह्रीं क्लीं ऐं हंस वाहिनी मम जिह्वाग्रे आगच्छ आगच्छ स्वाहा इस जाप्य से विद्या शीघ्र सिद्ध होती है।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो आमोसहिपत्ताणं, ॐ ह्रीं अर्हं णमो विप्पोसहिपत्ताणं, ॐ ह्रीं अर्हं णमो खेल्लोसहि पत्ताणं, ॐ ह्रीं अर्हं णमो जल्लोस्सहिपत्ताणं मम सर्व रोग विनाशनं कुरु कुरु स्वाहा, इस मंत्र से सर्व रोग दूर हो जाते हैं।
ॐ ह्रीं अर्हं अक्खीणमहाणसाणं मम अक्खय ऋिंद्ध कुरु कुरु स्वाहा। इससे धन धान्य की प्राप्ति होती है।
ॐ ह्रीं नम:—इससे अनेक कार्य सिद्ध होते हैं। इस मंत्र का पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा के दक्षिण बाहु के समीप पद्मासन बैठकर दो हजार जप करने से सर्व कार्य सिद्ध होते हैं।
इसी ॐ ह्रीं नम:’ मंत्र को २१ बार जप कर दशों दिशाओं में पानी पैâंकने से वर्षा बद्ध हो जाती है।
इसी मंत्र से २७ बार अन्न को मंत्र करके खाने से आठवें दिन लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।
रात्रि में १०८ बार जपने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है।
ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं वाग्वादिनी भगवती सरस्वती ह्रीं नम: इस मंत्र के जाप्य से विद्या की प्राप्ति होती है।
ॐ नमो भगवते पार्श्वनाथाय एहि—एहि भगवती दह दह हन हन चूर्णय चूर्णय भंज भंज कंड कंड मर्द्दय मर्द्दय हर्म्ल्व्यंू आवेशय २ हूँ फट् स्वाहा—इस मंत्र का ४००० पुष्पों से जाप्य करने से सर्वरोग नष्ट हो जाते हैं।
ॐ ह्रीं ऐं क्लीं ह्रौं नम: १२००० जाप्य करने से सिद्ध होता है। शुक्रवार के दिन धरणेन्द्र पद्मावती सहित पार्श्वनाथ भगवान के समक्ष जप करने से स्वप्न में शुभाशुभ की सूचना मिलती है।
ॐ णमो अरिहंताणं वद वद वाग्वादिनी स्वाहा—इस मंत्र से १०८ बार मालकांकिणी को मंत्र कर खाने से बुद्धि की वृद्धि होती है।
इस प्रकार मंत्रों से अनेक कार्य सिद्ध होते हैं— मंत्रो की महिमा अचिंत्य है। इन मंत्रों से आत्म कल्याण के साथ लौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। अनेक प्रकार के मंत्रो का प्रयोग जैन शास्त्रों में किया है।
बीजाक्षर और अंक से यंत्र बनते हैं— अर्थात् इन्ही बीजाक्षरों की मंत्रों को तथा एक दो आदि अंको को ताम्र पत्र, कांस्य पत्र, सुवर्ण पत्र आदि पर लिखा जाता है—वह यंत्र कहलाता है—मंत्र शास्त्र के अनुसार इसमें अलौकिक शक्तियां मानी गई हैं इसलिये जैन सम्प्रदाय में इसे पूजा वा विनय का विशेष स्थान प्राप्त है। मंत्र सिद्धि—पूजा—प्रतिष्ठा यज्ञ विधान आदि में इनका बहुलता से प्रयोग किया जाता है। प्रयोजन के अनुसार तत्काल भी यंत्र बनाये जाते हैं।
यंत्रों के नाम— अंकुरार्पण यंत्र, अग्नि मंडल यंत्र, ऋषि मंडल यंत्र, अर्हन्मंडल यंत्र, कर्मदहन यंत्र, कलिकुण्ड दंड यंत्र, कल्याण त्रिलोक्यसार यंत्र, कूर्म चक्र यंत्र, गंध यंत्र, गणधरवलय यंत्र, षट स्थानोपयोगी यंत्र, चिंतामणि यंत्र, मृत्युंजय यंत्र सारस्वत यंत्र, सर्वतोभद्र यंत्र, सुरेन्द्र चक्र यंत्र नित्य उपयोग में आने वाले सिद्ध यंत्र, दशलक्षण, रत्नत्रय, षोडशकारण, चतुर्विंशति तीर्थंकर यंत्र, शांति यंत्र, विनायक यंत्र, सरस्वती यंत्र, यंत्रेश यंत्र, मातृक। यंत्र, आदि अनेक यंत्र हैं—उसी प्रकार पंचकल्याण आदि विधानों में उपयोगी मृतिका नयन यंत्र, नयनोन्मिलन यंत्र, जल यंत्र, निर्वाण सम्पत्ति यंत्र, बोधि समाधि यंत्र, चिंतामणि यंत्र आदि अनेक बीजाक्षर के यंत्र हैं। भक्तामर, कल्याणमन्दिर के जितने श्लोक हैं उतने ही उनके यंत्र भी हैं।
इन बीजाक्षरों के समान ‘अंक’ यंत्र भी हैं— जैसे १५ का यंत्र २०—४५—२१—८१ आदि अनेक यंत्र हैं। ६४ ऋद्धि का भी यंत्र है। नागौर के शास्त्र भंडार में एक विस्तृत विजय पताका यंत्र है—उसमें सारे अंक यंत्र गर्भित हैं। इनके लिखने की विधि और फल का भी विस्तृत वर्णन है। जैसे कितनी भी संख्या का यन्त्र बनाना है—उसके लिये १६ कोष्ठ का यंत्र बनाकर इस विधि से भरना चाहिए—उसका सूत्र है किसी भी सम संख्या का यंत्र बनाना हो तो—उस संख्या में दो का भाग देना चाहिये ओर जो उसमें लब्ध आता है उसमें एक कम करके दूसरे कोष्ठ में स्थापन करना चाहिये। तदनंतर एक—एक हीन करके क्रम से धने (नौवें) कोष्ठ में सोलहवें कोष्ठ में, सप्त कोष्ठ में, अष्ठम कोष्ठ में, पन्द्रहवें कोष्ठ में, दशवें कोष्ठ में और प्रथम कोष्ठ में स्थापना करनी चाहिए। शेष कोष्ठों में क्रम से २—७—६—३—८—१—४ और पांच लिखना चाहिये।
‘‘इच्छाकृतार्थं कृत रूप हीनं , धने ग्रहे षोडश सप्त चाष्टौ।
तिथि दशमं प्रथमे च कोष्ठे, द्वि सप्त षट् त्रि अष्ट कु— वेद बाण।।
जैसे हमें एक सौ सोलह का यंत्र बनाना है—तो सर्वप्रथम इसका आधा (५८) करना चाहिये। तदनंतर इसमें से एक घटाकर दूसरे कोठे में स्थापित करना चाहिए। तदन्तर एक एक कम करके ९ वें सौलवें, सातवें, आठवे,ं पन्द्रहवें, दशवें और प्रथम कोष्ठ में स्थापित करना चाहिए। उसके बाद दो, सात, छह, तीन, आठ, एक, चार और पांच को लिखना चाहिये। कुछ यंत्र ऐसे भी हैं जिनमें बीजाक्षर और अंक दोनों रहते हैं। इस प्रकार अनेक विध यंत्रों की आराधना से भी अनेकों कार्य सिद्ध होते हैं।