‘संस्कृति’ में सम् और कृति-इन दो शब्दों का योग है। शब्द-व्युत्पत्ति के आधार पर ‘सम् उपसर्ग’ के साथ ‘कृ’ धातु में, ‘क्तिन’ प्रत्यय लगने से ‘संस्कृति’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है-‘सम्यक् कृति या चेष्टा।’ जो जीवन में सम्यक् आचार-विचार से सम्बद्ध है, जहाँ ज्ञान और क्रिया का समन्वय है। अंग्रेजी का ‘Culture’ शब्द इसी का पर्यायवाची है। विशेष अर्थों में संस्कृति मनुष्य का मस्तिष्क है तो धर्म हृदय। संस्कृति का कार्य है मनुष्य में पुरुषार्थ, बल और सामर्थ्य संचित करना और धर्म का कार्य है मनुष्य के जीवन को शीलवान, सदाचारी और निर्मल बनाना। मस्तिष्क के विकारों से मुक्ति हृदय दिलाता है। इस दृष्टि से सुसंस्कारों के निर्माण में धर्म का योगदान सिद्ध होता है। जातीय संस्कार ही संस्कृति है। संस्कृति एक समूहवाचक शब्द है जो सामाजिक व्यवहारों को निश्चित करती है, जब किसी देश या जाति की संस्कृति पर विचार किया जाता है, तब प्राय: उसकी धार्मिक परम्परा, सामाजिक व्यवस्था, रीति-रिवाज, कला-कौशल, भाषा-साहित्य, व्यापार-वाणिज्य आदि की प्रगति देखी जाती है। संस्कृति किसी देश या जाति की आत्मा होती है।
संस्कृति शब्द का संबंध संस्कार से है, जिसका अर्थ है-संशोधन करना, उत्तम बनाना, परिष्कार करना। संस्कार व्यक्ति के भी होते हैं, जाति के भी। जातीय संस्कार को ही संस्कृति कहते हैं। जो संस्कार निरन्तर अभ्यास द्वारा विकसित किये जायें, वह संस्कृति है। संस्कृति आदर्श जीवन जीने की एक कला है। एक विद्वान् के मत में, संस्कृति के स्वरूप की जिज्ञासा वास्तव में अर्थ तथा मूल्य के स्वरूप की जिज्ञासा है। संस्कृति हमारी जीवन विधा में प्रतिदिन के परस्पर आदान-प्रदान में, कला, साहित्य, धर्म, विज्ञान तथा मनोरंजन की विशिष्ट विधाओं में व्यक्त हमारी प्रकृति ही है। संस्कृति के संबंध में एक विषय पर सभी विद्वानों में मतैक्य है। सभी विचारक यह मानते हैं कि मानवेतर प्राणियों में संस्कृति नहीं होती। संस्कृति मानव की अपनी विशिष्टता है। मानव के पास अपनी संस्कृति को व्यक्त करने के साधन हैं, जो मानवेतर प्राणियों के पास नहीं हैं।
संस्कृति और सभ्यता दो अलग-अलग विषय हैं। संस्कृति मनुष्य की उन क्रियाओं, व्यापारों और विचारों का नाम है, जिन्हें वह साध्य के रूप में देखता है। संस्कृति का संबंध चिंतन, मनन तथा आचरण की उदात्तता से है। आध्यात्मिक स्तर विकसित होने पर ही मनुष्य संस्कृति के परिवेश में प्रविष्ट होता है। सभ्यता से तात्पर्य मनुष्य के भौतिक उपकरण, साधन, आविष्कार, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थान तथा उपयोगी सभाओं से है। किसी समाज या राष्ट्र की आन्तरिक प्रकृति की पहचान उसकी संस्कृति से होती है, सभ्यता से उस समाज या राष्ट्र-को प्राप्त, बाह्य उपकरणों से जानी-पहचानी जाती है। संस्कृति का लक्ष्य मानव जाति के लिए शाश्वत मूल्यों की खोज है। वहाँ सभ्यता का ध्येय मानव समाज के लिए भौतिक सुख-सुविधा के साधन जुटाने से है।
जैन संस्कृति(Jain Culture)- ‘जिन’ भगवान का धर्म जैन कहलाता है। जैनधर्म के वे विचार जो आत्मशुद्धि में निमित्त बनते हैं, जैन संस्कृति कहलाते हैं। जैनधर्म अनादि है, अत: प्रवाह की दृष्टि से जैन संस्कृति भी अनादि है। उसके प्रथम-प्रवर्तक कौन थे ? यह ज्ञात करना इतिहास की सीमा के बाहर है। जैन संस्कृति का प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति और समाज को अहिंसक, शांतिप्रिय, निर्भीक, प्रीतिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण, सृजनोन्मुख जीवनशैली प्रदान करना है। त्याग, तप, संयम, बलिदान, सेवा, समर्पण, विसर्जन, करुणा, मैत्री आदि-आदि जैन संस्कृति की मौलिक विशेषताएँ हैं।
जैन संस्कृति के दो रूप(Two forms of Jain Culture)- जैन संस्कृति के दो रूप हैं। एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर। बाह्य रूप वह है जिसे उस संस्कृति के अलावा दूसरे लोग भी आँख, कान आदि बाह्य इन्द्रियों से जान सकते हैं। जैसे-शास्त्र, उसकी भाषा, मंदिर, उसका स्थापत्य, समाज के खान-पान के नियम, उत्सव, त्योहार आदि जैन संस्कृति के बाह्य स्वरूप हैं। आभ्यन्तर संस्कृति के अन्तर्गत उन तत्त्वों का समावेश होता है, जो आत्मोपलब्धि में सहायक होते हैं। अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, संयम, व्रत, नैतिक आदर्श आदि जैन संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
वर्तमान में जितने भी धर्म दुनिया में हैं, उन्हें तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
१. पहला वह है, जो केवल वर्तमान जन्म का ही विचार करता है।
२. दूसरा वह है, जो वर्तमान जन्म के अलावा जन्मान्तर (अगले जन्मों) पर भी विचार करता है।
३. तीसरा वह है, जो जन्म-जन्मान्तर के बाद उसके नाश या उच्छेद का भी विचार करता है।
जैन धर्म तीसरी विचारधारा का समर्थक है। जन्म-जन्मान्तर का उच्छेद करने के लिए ही उसने ‘निवृत्ति धर्म’ पर ज्यादा बल दिया है।
जैन संस्कृति का विश्व की संस्कृतियों में एक महत्वपूर्ण स्थान है। मानव-जीवन का परम लक्ष्य है-मोक्ष की प्राप्ति। उस लक्ष्य की प्राप्ति में जैन संस्कृति बहुत सहायक सिद्ध होती है। मानवोचित श्रेष्ठ संस्कारों को स्थापित करने वाली जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति कहना सार्थक और उपयुक्त है।
जैन संस्कृति के व्यापक तथा शाश्वत प्रभाव को लेकर भारतीय संस्कृति अपनी विजय यात्रा कर रही है। इसके तत्त्व इतने पुष्ट हैं कि वह विशाल जीवन यात्रा में कभी पथभ्रष्ट नहीं हुई। इसकी प्राचीनता विश्वप्रसिद्ध है। ‘‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’’ इसी संस्कृति के लिए कहा जाता है। गौरवपूर्ण तत्त्वों से अभिमण्डित होने के कारण जैन वाङ्मय में आगम, पुराण, व्याकरण, गणित, ज्योतिष, न्याय, विज्ञान, धर्म, दर्शन आदि का पूर्ण निदर्शन हुआ है। इस प्रकार जैन संस्कृति जहां प्राचीन संस्कृतियों में अन्यतम है वहीं समग्र संस्कृति भी है।
श्रमण संस्कृति का तात्पर्य श्रमण शब्द की व्याख्या से ही स्पष्ट हो जाता है। प्राकृत भाषा में श्रमण के लिए ‘समण’ शब्द का प्रयोग होता है। समण शब्द के संस्कृत में तीन रूपान्तरण होते हैं-१. श्रमण, २. समन और ३. शमन।
१. श्रमण शब्द श्रम् धातु से बना है, जिसका अर्थ है-परिश्रम या प्रयत्न करना अर्थात् जो व्यक्ति अपने आत्म-विकास के लिए परिश्रम करता है, वह श्रमण है।
२. समन शब्द के मूल में सम् है, जिसका अर्थ है-समत्वभाव। समता जैन आचारशास्त्र का मूल तत्त्व है, जो व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखता है, वह समन कहलाता है।
३. शमन शब्द का अर्थ है-अपनी वृत्तियों को शांत रखना अथवा इन्द्रिय और मन पर संयम रखना। जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है, वह शमन है।
इस प्रकार श्रम-परिश्रम, सम-समता और शम-कषायों का उपशमन-ये जैन संस्कृति की विशेषताएँ हैं।
जैन संस्कृति का मूल आधार आचार में अिंहसा और अपरिग्रह तथा विचार में अनेकांत है। अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त- ये तीन जैन संस्कृति की ऐसी विशेषताएँ हैं, जो वर्तमान में व्याप्त हिंसा, संग्रह की मनोवृत्ति और अपने मत का दुराग्रहरूप जो समस्याएँ हैं, उनका समाधान भी करती हैं।
अिंहसा जैन संस्कृति का प्राण है। मन, वचन और शरीर से किसी भी जीव का घात न करना अिंहसा है। प्राय: समस्त धर्मों की शिक्षाएँ वर्जनात्मक होती है। अहिंसा भी ऐसा ही एक निषेधात्मक शब्द है, किन्तु जैन-अहिंसा निषेध के द्वारा अकर्मण्यता को प्रोत्साहित नहीं करती। उसका क्रियात्मक रूप भी है। वह है-
सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम्।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
सब प्राणियों के प्रति मैत्री, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव (गुणानुराग), दु:खी जीवों के प्रति दयाभाव और विपरीत आचरण या विचार वालों के प्रति माध्यस्थ भाव हो, यही अहिंसक हृदय भावना करता है। अहिंसक व्यक्ति सब जीवों को आत्मवत् (अपनी आत्मा के समान) समझता है। उसकी दृष्टि में जैसे मैं जीना चाहता हूँ, वैसे ही सारे प्राणी जीना चाहते हैं। कोई भी मरना नहीं चाहता। इसलिए वह किसी भी प्रकार की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होता।
अपरिग्रह (Non-Possession)- अपरिग्रह का उपदेश जैन संस्कृति की विरल विशेषता है। तीर्थंकरों ने अर्थ के संग्रह को अनर्थ का मूल बताया। धार्मिक प्रगति में अर्थ को बाधक बताते हुए मुनिचर्या में उसका सर्वथा त्याग अनिवार्य बताया और श्रावक धर्म में उस पर नियंत्रण करना आवश्यक बतलाया।
जैन संस्कृति में मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया है। वस्तु के प्रति हमारी जो आसक्ति है, वही परिग्रह है। जो व्यक्ति जितना अनासक्त जीवन जीता है, वह उतना ही अपरिग्रही जीवन जीता है और अध्यात्म की ओर प्रगति करता है।
अनेकांत (Non-absolutism)- अनेकान्त दृष्टि भी जैन संस्कृति की अत्यन्त उपयोगी देन है। इस दृष्टि के अनुसार कोई भी विचार या मतवाद एकान्तत: सही या गलत नहीं होता। वस्तु एक दृष्टिकोण से जैसी दिखाई देती है, दूसरे दृष्टिकोण से वैसी दिखाई नहीं देती। सत्य के अनेक पहलू होते हैं। किसी एक पहलू को देखते हुए उसके अन्य पहलुओं का भी ध्यान रखना अनेकान्त दृष्टि है। यही समन्वय दृष्टि है।
अनेकान्त हमें सिखाता है कि अपने आग्रह को सत्य मानने के साथ-साथ अन्य जनों के आग्रह में भी सत्य को स्वीकार करना चाहिए। किसी एक दृष्टिकोण से हमारी धारणा यदि सत्य है तो किन्हीं अन्य दृष्टिकोणों से अन्य जनों की धारणा भी सत्य होगी और इन सभी विरोधी धारणाओं के समन्वय से ही पूर्ण सत्य का कोई स्वरूप प्रकट हो सकेगा। यह समन्वयशीलता की प्रवृत्ति जैन संस्कृति की ऐसी विशेषता है, जिसमें पारस्परिक विरोध और संघर्ष की स्थिति को समाप्त कर देने की अचूक शक्ति है।
जैन संस्कृति व्रात्यों की संस्कृति है। व्रात्य शब्द का मूल व्रत है। व्रत का अर्थ है-संयम और संवर। व्रत आत्मा की सन्निधि और बाह्य जगत् से अनासक्ति का सूचक है। जैन संस्कृति में साधु और श्रावक के लिए अलग-अलग व्रतों का विधान किया गया है। साधु के व्रत महाव्रत और श्रावक के व्रत अणुव्रत कहलाते हैं। व्रत का उपजीवी तत्त्व तप है। जैन परम्परा में तप को अिंहसा, समन्वय, मैत्री और क्षमा के रूप में मान्य किया गया है। व्रत या तप की आराधना के पीछे मूल लक्ष्य आत्मशुद्धि और कर्ममुक्ति का ही रहता है।
संयम (Self-restraint)- जैन संस्कृति की बहुमूल्य देन संयम है। संयम ही जीवन है। दु:ख और सुख को ही जीवन का ह्रास और विकास मत समझो। संयम जीवन का विकास है आैर असंयम ह्रास है। असंयमी थोड़ों को व्यवहारिक लाभ पहुँचा सकता है, किन्तु वह छलना, क्रूरता और शोषण को नहीं त्याग सकता। हो सकता है संयमी थोड़ों का भी व्यवहारिक हित नहीं साध सके पर वह सबके प्रति निश्छल, दयालु और शोषणमुक्त रहता है। मनुष्य-जीवन उच्च संस्कारी बने, इसके लिए क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि उच्च वृत्तियाँ चाहिए। इन सबकी प्राप्ति का मूल आधार संयम है। ‘एक ही साधै सब सधै’ एक संयम की साधना हो जाये, तो सब अपने आप सध जाते हैं। षड्जीवकाय का संयम आत्मशुद्धि का मार्ग तो है ही, वही पर्यावरण प्रदूषण जैसी अनेक समस्याओं का भी समाधान है।
जैन संस्कृति के नैतिक आदर्श जैनधर्म की विशुद्ध आचार-प्रक्रिया पर आधारित हैं। आचार की शुद्धि के लिए साधु एवं गृहस्थ-दोनों के लिए कुछ नित्य कृत्यों का विधान है। सामायिक द्वारा व्यक्ति समभाव की साधना करता है। तीर्थंकरों के स्तवन से अपने भावों को पवित्र रखता है। वन्दना से विनय अर्जित करता है। प्रतिक्रमण के द्वारा प्रमादवश हुई भूलों का पश्चात्ताप एवं प्रमार्जन करता है। कायोत्सर्ग द्वारा शरीर के प्रति ममत्व को कम करता है तथा प्रत्याख्यान के द्वारा अपनी समस्त इच्छाओं के निरोध का प्रयास करता है। इस तरह का दैनिक अभ्यास एक दिन व्यक्ति को साधना की उस भूमि पर ला खड़ा करता है, जहाँ नैतिकता के सारे आदर्श पूरे हो जाते हैं। जैन संस्कृति की इस आचार-प्रक्रिया को यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना ले तो अनैतिकता की समस्या समाप्त हो सकती है।
कर्मवाद (The Theory of karma)- कर्मवाद का सिद्धान्त जैन संस्कृति का महत्वपूर्ण अवदान है। जैन दर्शन में कहा गया है कि किये गये कर्मोें का फल भोगे बिना मोक्ष नहीं हो सकता। व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे उसका वैसा फल भोगना पड़ता है। कर्मों का फल किसी ईश्वर के द्वारा नहीं मिलता अपितु समय आने पर पूर्वबद्ध कर्मों का प्रतिफल स्वयं मिल जाता है। कर्म सिद्धान्त हमें यह बताता है कि अपने भाग्य के निर्माता हम स्वयं हैं। हमारा आज का पुरुषार्थ ही, कल हमारा भाग्य बन जाता है अत: सदैव सही दिशा में पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। इस प्रकार कर्मवाद के सिद्धान्त ने व्यक्ति स्वातन्त्र्य का जो आदर्श उपस्थित किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
आचार-विचार के साथ-साथ साहित्य, कला, पर्व, व्रत आदि भी संस्कृति के महत्वपूर्ण पक्ष हैं। इनके आधार पर ही उनकी संस्कृति को सही तरीके से जाना जा सकता है।
पुनर्जन्मवाद (The Theory of Rebirth)- पुनर्जन्म विश्वव्यापक तथा भारतीय चिन्तकों की प्रमुख विशेषता है। समस्त प्राणियों को स्वोपार्जित कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। उसे भोगने के लिए कर्मसंयुक्त जीव पूर्ववर्ती स्थूल शरीर को छोड़कर नवीन शरीर धारण करता है। इस प्रकार पूर्व को छोड़कर उत्तरवर्ती शरीर धारण करना पुनर्जन्म कहलाता है।
राष्ट्रीय एकात्मकता और सर्वोदय की भावना (National Unity and Feeling of Upliftment of All)- साध्वाचार में वर्ण, जाति, रूप और समाज के विभाजन को कभी महत्त्व नहीं दिया है। आज के ईर्ष्या, द्वेष के विष से दग्ध संसार को कल्याण की भावना से ओतप्रोत इस उपदेशामृत को आत्मसात् करने की महती आवश्यकता है। संसार में उदात्त भावना का सम्प्रेषण करने वाला जैनधर्म प्रागेैतिहासिक काल से प्रवाहमान है।
आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवाद इन चार मणिस्तंभों पर जैन साध्वाचार का सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है।
वर्तमान युग वैज्ञानिक व बौद्धिक उन्नति का युग है। इस युग में प्रत्येक बात तर्क की कसौटी पर कसी जाती है। विज्ञान के चक्षु से देखी जाती है। इसी प्रकार अनेकांत एवं स्याद्वाद भी वैज्ञानिक व तार्किक दृष्टि से खरे उतरते हैं।
जैन साधकों की आचार साधना का सुचिन्तित परिणाम स्याद्वाद है। प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। अनेकान्तात्मक वस्तु तत्त्व को स्याद्वाद के माध्यम से समझा जा सकता है। समन्वयवाद एवं विचारसहिष्णुता के द्वारा विश्व के समस्त दर्शनों को आत्मसात् करके अनेकांत की प्रतिष्ठापना करता है।
वर्तमान में जैन संतों की समन्वयकारी व्यापक दृष्टि और अनेकांत सिद्धान्त मानव समाज को एक नई दिशाबोध करा रहे हैं, जिससे मानव मूल्यों की पुन:स्थापना हो सकती है।
साहित्य (Literature)- साहित्य के क्षेत्र में जैन साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैनों का सबसे प्राचीनतम साहित्य आगम है। भगवान महावीर ने देखा कि समाज का मार्गदर्शन करने वाले पढ़े-लिखे लोग जिस भाषा में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं, वह संस्कृत भाषा जन-समुदाय की भाषा नहीं है इसलिए उन्होंने अपने उपदेशों में जनभाषा प्राकृत (अर्धमागधी) का प्रयोग किया। उनके गणधरों ने भी उसी भाषा में इसे सूत्र रूप में गुम्फित किया। इस प्रकार जन-भाषा में एक विशाल धार्मिक साहित्य भण्डार सांस्कृतिक धरोहर के रूप में आगामी पीढ़ियों को मिला। इस साहित्य का संवर्धन टीकाओं या व्याख्याओं के द्वारा मध्यकाल तक होता रहा। इस प्रकार आज जैन साहित्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में उपलब्ध होता है।
जैन साहित्य सांस्कृतिक दृष्टि से पर्याप्त समृद्ध है। जैनाचार्य देश के एक कोने से दूसरे कोने तक निरन्तर भ्रमण करते रहते थे अत: जब वे साहित्य सृजन करते थे, तब उनकी लेखनी से सारे देश का प्रतिबिम्ब उतर आता था। आज आधुनिक लोक-भाषाओं एवं उनकी साहित्यिक विधाओं के विकास को समझने के लिए जैन साहित्य का अध्ययन अपरिहार्य है।
साहित्य के साथ कला भी संस्कृति का अभिन्न अंग है। जैन संस्कृति के अन्तर्गत कला के जितने भी रूप उपलब्ध हैं, सबकी अपनी-अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि है। गुफाओं, स्तूपों, मंदिरों, मूर्तियों एवं चित्रों के द्वारा जैनधर्म में न केवल लोक को आध्यात्मिक एवं नैतिक स्तर तक उठाने का प्रयत्न किया है अपितु देश के विभिन्न भागों को सौन्दर्य से भी सजाया है।
जैन मूर्तिकला की अपनी विशिष्टता है। भारत की प्राचीनतम मूर्तियाँ जो आज उपलब्ध हैं, जैन संस्कृति से ही अधिक घनिष्ठ हैं। जैन मूर्तियों की ध्यानस्थ मुद्रा बहुत प्रभावशाली होती है।
जैन चित्रकला आध्यात्मिकता के प्रचार-प्रसार के लिए जितने महत्व की है, उतनी ही प्राचीन भारतीय चित्रकला के इतिहास को जानने के लिए भी आवश्यक है। अजन्ता की गुप्तकालीन बौद्ध-गुफाओं में चित्रकला का जो विकसित रूप दिखाई पड़ता है, उससे यह स्पष्ट होता है कि इससे पूर्व इसकी कोई आधुनिक चित्रकला अवश्य रही होगी अत: जिस प्रकार आधुनिक भाषाओं के अध्ययन के लिए प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा का अध्ययन करना आवश्यक है, वैसे ही भारतीय चित्रकला का क्रमिक इतिहास जानने के लिए जैन चित्रकला की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
पर्व और त्यौहार (Festivals)- पर्व और त्योहार समाज के अन्तर्मानस की सामूहिक अभिव्यक्ति हैं। दृष्टि और समष्टि के जीवन क्रम में जिस विश्वास, प्रेरणा एवं उत्साह की आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति पर्वों से होती है। पर्व एवं त्योहार किसी न किसी धार्मिक एवं सामाजिक दायित्व के प्रति व्यक्ति को जगाने का कार्य करते हैं। जैन संस्कृति के भी अपने कुछ पर्व हैं। यथा-दीपावली, अक्षयतृतीया, महावीर जयंती, अष्टान्हिका, दशलक्षण आदि। इन पर्वों की यह विशेषता है कि ये व्यक्ति में त्याग, तप, स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य, प्रेम तथा विश्वमैत्री की भावना को जागृत करने वाले होते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन संस्कृति एक महान् संस्कृति है। उसका रूप सदा व्यापक रहा है। उसका द्वार सबके लिए खुला रहा है। उस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असांप्रदायिकता और जातीयता का अभाव है। व्यवहार दृष्टि से जैनों के सम्प्रदाय हैं, पर उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के साथ नहीं बांधा। वे जैन सम्प्रदायों को नहीं, जैनत्व को महत्त्व देते हैं। जैनत्व का अर्थ है-सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की आराधना।