विश्व की संस्कृतियों में जैन संस्कृति का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर सिन्धु सभ्यता से लेकर आज तक जैन संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित होता है। विश्व के अन्य राष्ट्र जब अज्ञानान्धकार में निमग्न थे उस समय जैन संस्कृति सम्पूर्ण कला कौशल के साथ उच्चतम स्थान पर प्रतिष्ठित थी, यही कारण है कि विश्व के इतिहास में अनेक संस्कृतियों का उद्भव एवं अस्त हुआ परन्तु जैन संस्कृति आज भी जीवित है। आचार्यों द्वारा प्रणीत बहुविध समृद्ध जैन वाङ्मय से हम इसका अनुमान लगा सकते हैं। जैनाचार्यों की तर्क शक्ति, अभिव्यक्ति कुशलता, प्रतिपादन प्रवणता, व्याख्यान विदग्धता, विषय की विशदता, भाषा की स्पष्टता के द्वारा प्रतिपाद्य हमारी संस्कृति को जीवित रखने के स्थायी स्तम्भ हैं।
जैन संस्कृति के व्यापक तथा शाश्वत प्रभाव को लेकर भारतीय संस्कृति अपनी विजय यात्रा कर रही है। इसके तत्त्व इतने पुष्ट हैं कि वह विशाल जीवन यात्रा में कभी पथ भ्रष्ट नहीं हुई। इसकी प्राचीनता विश्व प्रसिद्ध है। ‘‘सा प्रथमा संस्कृति विश्ववारा’’ इसी संस्कृति के लिये कहा जाता है। गौरवपूर्ण तत्त्वों से अभिमण्डित होने के कारण जैन वाङ्मय में आगम, पुराण, व्याकरण, गणित, ज्योतिष, न्याय, विज्ञान, धर्म, दर्शन आदि का पूर्ण निदर्शन हुआ है। इस प्रकार जैन संस्कृति जहां प्राचीन संस्कृतियों में अन्यतम है वहीं समग्र संस्कृति भी है।
साध्वाचार का अध्ययन और अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि जैन संस्कृति में विश्व बन्धुत्व की भावना का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी आधार पर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ तथा ‘आत्मवत्सर्वभूतेषु’ का निदर्शन जैन धर्मानुयायियों में दृष्टिगोचर है। जिसका परिणाम प्राणिमात्र के प्रति स्नेह और दया भावना का संचार करता है। साधक अपने प्रतिदिन के पाठ में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों से जाने अनजाने में हुई भूलों की क्षमा याचना करता है।
खम्मामि सव्व जीवाणं, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झं ण केणवि।।
सभी जीव मुझे क्षमा करें और मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ। सभी प्राणियों में मेरा मैत्री भाव हो, मेरा किसी से बैर विरोध न हो। विश्व शान्ति और विश्व बन्धुत्व की उदात्त कमनीय भावना का निदर्शन इस गाथा में मिलता है।
साध्वाचार का अध्ययन अनुशीलन करने पर अध्यात्मवाद की भावना परिलक्षित होती है। अध्यात्मवाद, भोगवाद से दूर कर आत्मविषयक ज्ञान की ओर ले जाता है। ‘‘अहमिक्को खलु सुद्धो’’ की भावना इसका मूल मन्त्र है।
रागी कर्मों को बांधता है और विरागसम्पन्न जीव कर्मों से छूटता है। बन्ध और मोक्ष के विषय में यही जिनेन्द्र देव का उपदेश है। आत्मा अनन्त शक्ति व गुणों का पुंज है। इस संसार में अन्य कोई शरण नहीं है, केवल आत्मतत्त्व ही शरणभूत है। इस जगत में जरा और मरण रूप का निवारण करने वाले ऐसे जिनशासन को छोड़कर अन्य कोई शरण नहीं है। आचार्यों ने प्राणियों के सम्बोधनार्थ जो अध्यात्मवाद की गंगा प्रवाहित की है, वह अपने आप में पूर्ण है। वह मानवों को संकेत करती है कि आप लोग जगत के समस्त विकल्पों से अपने आपको बचाओ और आत्मानन्द की अन्तिम सीमा तक पहुंच जाओ। वस्तुत: अध्यात्मवाद एक ऐसा अमोघमन्त्र है जिससे वासना रूपी विष उतरकर मानव महामानव बन सकता है।
सांसारिक पदार्थों का उपभोग त्यागभाव से ही करना चाहिए। पदार्थों के उपभोग का इस संस्कृति में निषेध नहीं है अपितु भोगों में आसक्त हो जाने का निषेध है। अपरिग्रह व्रत या परिग्रह व्रत का सिद्धान्त जीवन जलयान के लिये प्रकाश स्तम्भ है, जिससे जीवन—जलयान भोगवादरूपी चट्टानों से चकनाचूर हो जाने से बच जाये।
संसार में भौतिक पदार्थों के पीछे दौड़ने वाला सुखाभिलाषी प्राणी वास्तविक सुख एवं आनन्दामृत पान से वंचित रहता है और अन्त में वह इस लोक से विदा होते समय संग्रहीत सामग्रियों के वियोग व्यथा से सन्तप्त होता हुआ ममतावश अधोगति का पात्र हो जाता है। जब कि अपने पुण्योदय से प्राप्त वस्तुओं में सन्तुष्ट रहने वाला व्यक्ति समता रूपी अमृत का रसास्वादन करते हुये उत्तम गति में जाकर परम्परा से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
प्रसिद्ध पाश्चात्य दार्शनिक पैâजी के शब्दों में ‘‘यदि मैं मोह ममता की मृगमरीचिका में फंस जाऊं तो उस समय कर्त्तव्य की पुकार होने पर मैं अपनी रक्षा त्याग भाव से कर सकता हूँ। यदि असमंजस के वात्याचक्र में कुछ निर्णय न होता हो तथा हमारे ज्ञान चक्षु सांसारिक कृत्रिम चाकचक्य से चमत्कृत हो गये हों उस समय त्याग भाव की प्रवृत्ति ही भौतिक भावनाओं के कर्दम से मेरा उद्धार करेगी, संकीर्णता से मेरा उद्धार होगा तथा उदारता का पल्लवन होगा। मानवता की यही परिभाषा है सात्विकता का यही मूलमन्त्र है। यही त्याग भाव अशान्ति से शान्ति की ओर ले जाने का यत्न करता है।’’
संसार की विचित्रता कर्म के अस्तित्व की साधक है। संसार रूपी रंगमंच पर कोई धनी दृष्टिगोचर होता है तो कोई निर्धन, किसी को अथक पुरुषार्थ करने पर भी सफलता नहीं मिलती है तो किसी को थोड़ा प्रयत्न करने पर भी अभीष्ट की उपलब्धि होती है। इसका मूल कारण स्वकृत कर्म परिणाम हैं। इसका फल भी जीव को स्वयं भोगना पड़ता है।
इस लोक में सभी जीव अपने द्वारा उपार्जित शुभ—अशुभ कर्मों के द्वारा निष्पन्न हुए ऐसे सुख—दु:ख को भोगते रहते हैं। इस भयंकर अनन्तरूप महासंसार सागर में जन्म मरण का अनुभव करते हैं अर्थात् पुन: पुन: भव ग्रहण करते हैं। श्री बी. जी. गोखले के अनुसार—कर्म इस प्रकार दोनों दिशाओं में देखता है, वह अतीत पर दृष्टि डालता है तथा उज्जवल भविष्य की ओर निहारता है।
कर्मसिद्धान्त जीवन और आचरण के लिए सर्वाधिक मूल्यवान हैं। यह सिद्धान्त अकर्मण्यता तथा भाग्यवादिता को दूर करता है तथा भविष्य में आशा का संचार करता है।
साध्वाचार का पर्यालोचन करने पर मानव मात्र में आत्मविश्वास की जागृति होती है। इस बौद्धिक एवं कर्म संषर्घरत युग में मानव की अशान्ति का मूल कारण आत्मविश्वास की उपेक्षा है। यदि मन में आत्मविश्वास की भावना का उदय हो जाय तो अनादिकाल से सम्पृक्त कर्म शत्रुओं से छुटकारा मिल सकता है।
विषय सुख का विरेचन कराने वाले और अमृतमय ये जिन वचन ही औषधि हैंं। ये जरा—मरण और व्याधि से होने वाली वेदना को तथा सर्वदु:खों को नष्ट करने वाले हैं। संसार में जीव के लिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप एवं संयम को छोड़कर अन्य कोई शरणभूत नहीं हैं।
णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं चरिय सरणं च।
तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो।।
अर्थात् मुझे ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है। तपश्चरण और संयम शरण है तथा भगवान महावीर शरण हैं।
इस प्रकार के आत्मविश्वास के द्वारा आत्मानन्द की अनुभूति होती है। हृदय में एक दिव्य आलोक का आभास होने लगता है सद्प्रवृत्तियों का प्रस्फुरण होने लगता है। आत्मविश्वास से मानव कंटकाकीर्ण दुर्गम पथ को सहज साध्य बना देता है। आत्मविश्वास के बल पर ही भक्त साधक भगवान से साक्षात्कार कर लेता है।
पुनर्जन्म विश्व व्यापक तथा भारतीय चिन्तकों की प्रमुख विशेषता है। समस्त प्राणियों को स्वोपार्जित कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। कुछ कर्मों का फल मिल पाता है। उसे भोगने के लिये कर्म संयुक्त जीव पूर्ववर्ती स्थूल शरीर को छोड़कर नवीन शरीर धारण करता है। इस प्रकार पूर्व को छोड़कर उत्तरवर्ती शरीर धारण करना पुनर्जन्म कहलाता है। यह पारलौकिक भावना ही मानव को शुभाचरण करने का उपदेश देती है। पुनर्जन्मवादी यह सोचता है ‘‘अयमेव लोक: न पर:ऽपि’’ इसका अर्थ यह होता है कि मानव सदाचार आदि का पालन करता हुआ आगामी जीवन को सुखद बनाने की चेष्टा करता है।
जैन साध्वाचार में विश्व बन्धुत्व की भावना का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। साध्वाचार से सर्वप्राणी समभाव ध्वनि सर्वत: मुखरित होती है। आ. अमितमति ने लिखा है—
सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम्।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
हे देव मेरी आत्मा में सदा समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रहे, गुणी जनों में प्रमोद भाव हो, दु:खी प्राणियों में दया भाव हो तथा जो विपरीत आचरण वाले हैं उनके प्रति मेरा माध्यस्थ भाव हो।
नि:सन्देह जैन धर्म एक ऐसा मानव धर्म है जो प्राणी मात्र के अभ्युदय एवं कल्याण का पथ प्रशस्त करता है। इस धर्म के प्रभाव से दुर्जय शत्रु भी सुखदायी सेवक या मित्रवत् बन जाता है महाविषधर सर्प भी पुष्पहार बन जाता है। देवता भी दास हो जाता है और इसके प्रभाव से हलाहल विष अमृत बन जाता है। आशय यह है कि धर्म के प्रभाव से विपत्ति भी सम्पत्ति के रूप में परिवर्तित हो जाती है। इसी प्रकार साम्यवाद की उदात्त भावना का दर्शन साध्वाचार में मिलता है।
साध्वाचार में वर्ण, जाति, रूप, और समाज के विभाजन को कभी महत्त्व नहीं दिया है। आज के ईर्ष्या, द्वेष और संघर्ष के विष से दग्ध संसार को कल्याण की भावना से ओतप्रोत इस उपदेशामृत को आत्मसात् करने की महती आवश्यकता है। संसार में उदात्त भावना का सम्प्रेषण करने वाला जैनधर्म प्रागैतिहासिक काल से प्रवाहमान है। इसकी संस्कृति विशुद्ध भारतीय है। यह धर्म किसी जाति विशेष का नहीं, किन्तु प्राणि मात्र का आधार है। यह अन्तर्राष्ट्रीय विश्वधर्म है अत: विश्व शान्ति, अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री और समीकरण हेतु सार्वकालीन, सार्वयुगीन, सार्वभौमिक, सहिष्णुता, व्यवहारिक एवं विवेकपूर्ण जैन धर्म का उपस्थापन आज वांछनीय ही नहीं प्रत्युत अनिवार्य भी है।
आचार में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवाद इन चार मणिस्तम्भों पर जैन साध्वाचार का सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है। युग-युग से तीर्थंकरों ने इसी प्रासाद का जीर्णोद्धार करके इसके स्वरूप को संसार के सामने प्रस्तुत किया था। चिरकाल से आज तक अवस्थित और अविच्छिन्न रूप से सन्त परम्परा चली आ रही है। जैन वाङ्मय भी सन्तों की गौरवगाथा से अभिमण्डित है।
वर्तमान युग वैज्ञानिक व बौद्धिक उन्नति का युग है। इस युग में प्रत्येक बात तर्क की कसौटी पर कसी जाती है। विज्ञान के चक्षु से देखी जाती है, क्योंकि जो बात विज्ञान से सिद्ध है वह हर किसी को मान्य है। कहा भी है—‘‘प्रत्यक्षे किम् प्रमाणम्’’। प्रमाण और युक्ति के बिना पिता भी पुत्र की बात पर विश्वास नहीं करता है। इसी प्रकार अनेकान्त एवं स्याद्वाद भी वैज्ञानिक व तार्किक दृष्टि से खरे उतरते हैं।
जैन साधकों की आचार साधना का सुचिन्तित परिणाम स्याद्वाद है। प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक है। अनेकान्तात्मक वस्तु तत्व को स्याद्वाद के माध्यम से समझा जा सकता है। समन्वयवाद एवं विचार सहिष्णुता के द्वारा विश्व के समस्त दर्शनों को आत्मसात् करके अनेकान्त की प्रतिष्ठापना करता है। स्याद्वाद वह मिशाल है जिससे एकान्तवादी परमतों का खण्डन होकर जैनधर्म का मण्डन होता है। सत्य के विभिन्न खण्डों को जोड़कर एक अखण्ड सत्य का निर्माण करता है। मानवों के विचारों के भेद और बुराइयों को पारकर अभेद और अनाग्रह के पुल का निर्माण करता है। वैषम्य स्थापक, िंहसा, विधायक सर्वथा एकान्त प्रतिपादक उन सभी वादों और मतों का खण्डन करता है जो गिरिभित्तियों की भांति सन्मार्ग में बाधक बने हुए हैं। स्याद्वाद का हृदय विशाल है वह अपने में समता गुण के कारण प्रचलित ३६३ मतों को इस प्रकार समाहित किये हुये है, जैसे—कुम्हड़े का डंठल कुम्हड़े को।
वर्तमान में जैन सन्तों की समनव्यकारी व्यापक दृष्टि और अनेकान्त सिद्धान्त मानव समाज को एक नई दिशा बोध करा रहे हैं। जिससे मानव मूल्यों की पुन: स्थापना हो सकती है। भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का अभिमत है—‘‘अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरमोत्कर्ष है। समस्त संसार इसे जितनी शीघ्र अपनायेगा विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।’’
मूलाचार में विवेचित पाप—पुण्य, कषाय, राग—द्वेष, संयम, सदाचार, लेश्याऐं तथा उनके सुपरिणाम तथा दुष्परिणामों को साध्वाचार के माध्यम से जानकर हेयोपादेय का ज्ञान होता है। लेश्याओं के माध्यम से व्यक्ति के अन्दर के परिणाम ज्ञात होते हैं। असत् कार्यों में अनुरक्त मानव अपनी अज्ञान जनित चेष्टा से चतुरशीति लक्ष योनियों में परिभ्रमण करता है। तथा सत् प्रवृत्तियों का आचरण करके संयम, सदाचार आदि के माध्यम से अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
जिस समय मानव के मन में आचरण की भावना उद्भूत होती है उस समय उसके हृदय मंडल में पवित्रता और सदाचार का उदय होता है। उसके चारों ओर अनेक धर्म परिधियाँ विकसित हो जाती हैं। अर्हत् भक्ति से लेकर समत्व, सत्य, क्षमा, दया, संयम, तप, मानवता और नैतिकता आदि अनेक सद्गुणों का उदय होने पर आत्म शान्ति का रसास्वाद आने लगता है। आत्म उज्जवलता की पवित्र रोशनी में मानव अनादि कालीन कल्मषों को नष्ट करके संसार की भीषण ज्वाला से मुक्त होकर मुक्ति नगर का नाथ बन जाता है।
स्तूपों, गुफाओं, मन्दिरों, मूर्तियों, आयागपट्टों तथा चित्रों आदि ललित कला की निर्मितियों द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के विविध भागों को सौन्दर्य से अभिमण्डित किया है। कला का उदय मानव की सौन्दर्य भावना का परिचायक है। इस भावना की तृप्ति और विकास के लिये विभिन्न कलाओं का उदय प्राचीन काल में हुआ था। कला रूपों की निर्माण कत्री है। विश्वबन्धुत्व एवं पारस्परिक सद्भाव के लिये कला को सुरक्षित रखना आवश्यक है।
डॉ. मुखर्जी के अनुसार—‘‘कला व्यक्ति की चिरस्थायी कीर्ति और संस्कृति की शाश्वत धरोहर ही नहीं अपितु उनकी प्रेरणा भी है। कला स्फूर्ति देती है, प्रोत्साहित और सुशिक्षित करती है। कला सबको एक सूत्र में बांधने वाली एक महान शक्ति है, जन जीवन पर उसका प्रभाव सर्वव्याप्त है। कला जीवन और आत्मा का प्रतिबिम्ब होती है। राष्ट्रीय अनुभूतियों और चेतना आदि के अध्ययन के लिये उस राष्ट्र की कला कृतियों का अध्ययन आवश्यक है।
जैन सन्त या उपासक प्रतिदिनि विश्वशान्ति और राष्ट्र कल्याण की भावनाएं व्यक्त करते हैं। आज विश्व में जब स्वार्थ, द्वेष , वैमनस्य और छलछिद्र का ताण्डव प्रसारित हो रहा है, हिंसा की दुन्दुभि बज रही है, मानवता पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आणविक अस्त्र शस्त्रों की प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है, विश्व पर्यावरण प्रदूषित हो चुका है, सिद्धान्त और आदर्श शशशृंग हो रहे हैं। ऐसे वातावरण में आत्मशान्ति, अिंहसा, करुणा, दया, सदाचार, प्रेम आदि मानवीय गुणों के साथ नैतिक उत्थान की विशेष आवश्यकता है। उक्त मानवीय गुणों की प्राप्ति के लिये जैन साध्वाचार का अध्ययन- अनुशीलन अनिवार्य है क्योंकि मूलाचार जैसे सारभूत ग्रंथ से मानवताविधायक भारतीय संस्कृति के अमर सन्देश ‘‘अहिंसापरमो धर्म:’’, ‘‘क्षमा वीरस्य भूषणम्’’, ‘‘खम्मामि सव्व जीवाणं’’, ‘‘नम: स्याद्वादाय अनेकान्ताय नमो नम:’’, ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’’ जैसे सिद्धान्त पल्लवित-पुष्पित और फलीभूत हुए हैं। मानव मन का कालुष्य दूर करके उसे आदर्श नागरिक तथा मुक्तिसाधक बनाने की अपूर्व क्षमता जैनाचार में सन्निविष्ट है।