विश्व के सभी प्राणियों में मानव का सर्वोच्च स्थान है। मानव एक सामाजिक प्राणी है। स्वार्थ साधन हेतु वह पर के हित को आघात न पहुँचा दे, तदर्थ मानव के आचरणों का नियमन आवश्यक है। मानव के आचरण के नियमन हेतु कतिपय पारिवारिक नियम, संस्थागत नियम, सामाजिक नियम एवं नैतिक नियम होते हैं। इन नियमों के पालन से व्यक्ति स्वयं भी सुख शान्ति का अनुभव करता है तथा अन्य को भी अपने व्यवहार से प्रसन्न रखता है।
व्यक्ति की अपराधिक वृत्ति पर अंकुश रखने तथा देश व समाज में व्यवस्था बनाये रखने हेतु प्रत्येक देश की सरकार कुछ कानून बनाती है, जिनके पालन की अपेक्षा प्रत्येक नागरिक से होती है तथा जिनके उल्लंघन करने पर व्यक्ति को दंडित किये जाने की व्यवस्था होती है। हमारे देश के कानून भी बहुत व्यापक हैं तथा व्यक्ति के हर क्षेत्रीय व्यवहार का नियमन करने में सक्षम हैं। िंहसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहसंचय आदि दुष्कर्मों पर नियन्त्रण करने हेतु भारतीय दण्ड संहिता अधिनियम में व्यापक प्रावधान हैं तथा कठोर दण्ड की व्यवस्था है।
फिर भी देश में िंहसा एवं आतंकवाद का ताण्डव नृत्य दृष्टिगत होता है, जीवन में असत्य का साम्राज्य छाया हुआ है। चोरी करना, मिलावट करना, करवंचना आदि व्यावसायिक कुशलता व सफलता के प्रतीक बन गए हैं। बलात्कार की घटनाएँ वृिंद्धगत होती जा रही हैं तथा ब्रह्मचर्य शब्द उपहास का बिन्दु बन गया है। येनकेन प्रकारेण अधिक धन संचय करने वाले हर क्षेत्र में सम्मानित किये जाते हैं, जिससे जमाखोर, रिश्वतखोर, दहेज—लालची आदि पनपते जा रहे हैं। इन सबसे यह लगता है कि व्यापक एवं कठोर राजनियम भी अप्रभावी हैं।
मानव को दुष्कृत्यों से रोकने एवं सुकृत में प्रवृत्त करने में राज संस्था एवं राजनियम कई बार असफल रहते हैं-
इसलिए धर्म—संस्था व धर्म—नियमों की अपरिहार्यता बढ़ जाती है। राज—संस्था के वांछित उद्देश्यों को पूरा करने में धर्म संस्था प्रभावी सहायक बनती है। छिपकर अपराध करने वाले अपराधी राज—संस्था से अदण्डित रह जाते हैं और कानून की नजर से बचकर अपराध करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है तथा सरकार विवश होकर पीड़ित जनता के साथ अन्याय देखती रहती है। आतंकवादियों द्वारा समय—समय पर किया जाने वाला नरसंहार इसका उदाहरण है।
किन्तु धर्म—संस्था ने कर्म—सिद्धांत द्वारा मानव मन में ऐसी धारणा बिठा दी है कि कहीं भी कोई कार्य किया जाए वह रिकार्ड हो जाता है तथा उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है। नरक का डर एवं स्वर्ग का प्रलोभन, चाहे कुछ व्यक्तियों द्वारा कल्पित माना जाये, पर इस धारणा ने व्यक्ति को दुष्कर्मों से बचाने एवं सुकर्मों में प्रवृत्त करने में एक प्रभावी कार्य किया है। छिपकर अपराध करने को उद्यत व्यक्ति भी पाप फल भुगतने से डर कर पापकर्म करने से रुक जाता है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार किसी कार्य की क्रियान्विति तो दूर, उसको करने के भाव आने से ही कर्मबन्ध हो जाते हैं और उनका फल भोगना होता है। कर्मबन्धन में मन की भावना प्रमुख और क्रिया गौण हो जाती है। धर्म की यह बात राजनियम में भी गर्भित है। भारतीय दण्ड संहिता की धारायें ३०४ ए और ३०७ के प्रावधानों की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि किसी व्यक्ति की लापरवाही से अनजाने में किसी की मौत हो जाने पर उसको धारा ३०४ ए के अन्तर्गत दो वर्ष तक का कारावास दिया जा सकता है।
जबकि मारने के बुरे इरादे से कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को मारने का प्रयास करता है किन्तु अन्य के द्वारा रोक लिये जाने के कारण अपने प्रयास में सफल नहीं हो पाता तो भी उसे धारा ३०७ के अनुसार ७ वर्ष तक की सजा दी जा सकती है। पहली घटना के परिणामस्वरूप एक व्यक्ति के निमित्त से दूसरे की मृत्यु हो जाती है जबकि दूसरी घटना में वह व्यक्ति चाहते हुए भी अन्य को मारना तो दूर, चोट भी नहीं पहुँचा पाया। राजदंड की कठोरता घटना के परिणामानुसार नहीं वरन् व्यक्ति की दुर्भावनानुसार है।
पहली घटना में जिस व्यक्ति की असावधानी से अन्य की मौत हुई, उसके भाव मारने के बिल्कुल नहीं थे, जबकि दूसरी घटना में व्यक्ति के भाव पूर्णतया मारने के थे, चाहे परिणाम कुछ भी रहा हो। कानून की धाराओं में बुरे इरादे के सिद्ध होने पर ही कठोरतम सजा की व्यवस्था है, मात्र क्रिया से नहीं। जब मन में िंहसा के भाव नहीं होंगे तो न वे दुर्वचनों द्वारा अभिव्यक्त होंगे और न ही उनकी काया द्वारा िंहसा की क्रियान्विति होगी।
अत: धर्म—संस्था हिंसा के उत्पत्ति—स्थान मन में दुर्भाव पैदा होने का भी निषेध करती है, जबकि राजनियम में मात्र मन में उत्पन्न िंहसा को, जब तक वह काय से व्यक्त न कर दी जाये, रोकने का कोई प्रावधान नहीं है।
राजनियम में कई खामियाँ (थ्ददज्प्दते) निकल आती हैं, जिनका सहारा लेकर भी अपराधी दण्डित होने से बच जाता है, किन्तु धर्म—नियमों में ऐसी सम्भावना नहीं है। राजनियम लागू करने वाले व्यक्ति को भयभीत अथवा प्रलोभित करके न्याय की दिशा बदलवाने में भी कई बार सफलता मिल जाती है किन्तु धर्म—नियमों में पक्षपात को कोई स्थान नहीं है। तीर्थंकर अवस्था में जबकि देवों के द्वारा उनके गर्भ—जन्मादि कल्याणक बड़ी धूमधाम से बनाये जाते हैं तब भी स्वयं तीर्थंकर को भी अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का फल भोगना पड़ता है।
जैनदर्शन में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त पर आस्था हो जाने पर व्यक्ति कभी भी दुष्कर्म करने का साहस नहीं करेगा तथा सद्कर्मों में रत रहेगा। कर्म सिद्धान्त को तर्क की कसौटी पर भी परख लिया गया है। एक बालक धनी व्यक्ति के यहाँ जन्म लेकर सब सुविधाओं को पाता है तथा करोड़ों की सम्पत्ति में भागीदार बन जाता है, दूसरा नवजात शिशु किसी निर्धन के घर अपंग अवस्था में जन्म लेकर सभी तरह की परेशानियों में पलता है तथा हजारों रुपयों के ऋण में सहभागी बन जाता है।
जन्मजात इस विषमता का तर्क संगत कारण उनके पूर्व जन्म के सुकृत व दुष्कृत का फल ही है। स्वकृत कर्म निष्फल नहीं होते अत: वर्तमान में दुराचारी को भौतिक सुख साधन सम्पन्न तथा वर्तमान में सदाचारी को निर्धनावस्था में देखकर सन्मार्ग से च्युत नहीं होना चाहिए। क्योंकि किसी भी व्यक्ति के केवल वर्तमान में किये हुए ही कार्य उसके सुखी व दुखी होने के कारण नहीं होते, अपितु उसके द्वारा भूतकाल में किये हुए कार्य भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अत: मानव को हर स्थिति में धर्म का पालन करना चाहिए।
जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है किन्तु इसके प्रमुख सिद्धान्तों की उपयोगिता आज के युग में अधिक है। जैनधर्म के सिद्धान्तों के पालन से विश्व व राष्ट्र की ज्वलन्त समस्याओं का समाधान हो सकता है। अिंहसा को जन—जीवन में उतारने पर आतंकवाद व शस्त्रास्त्रों की अन्धाधुन्ध होड़ पर अंकुश लगेगा तथा रक्षा व्यय के नाम पर की जाने वाली अपार धनराशि को मानव—कल्याण के लिए उपयोग में लाया जा सकेगा।
विनाश के कगार पर खड़ी मानवता को राहत की साँस मिलेगी। अपने शौक की पूर्ति हेतु किये जाने वाले पशुवध में रुकावट आएगी तथा अन्धाधुन्ध हरे भरे वृक्ष काटने में लोग हिचकिचायेंगे। फलस्वरूप सभी लोग सुख शान्ति से रहेंगे, पशुधन में वृद्धि होगी तथा वनों के संरक्षण से पर्यावरण की शुद्धता बनी रहेगी। अिंहसा के बल पर ही वर्तमान युग में गाँधीजी ने भारत को स्वतन्त्र कराने में सफलता प्राप्त की।
अनेकान्त का सिद्धान्त जैन दर्शन की विश्व को एक अनूठी देन है। विश्व की महान् शक्तियों में पारस्परिक वैमनस्य का मूलकारण वैचारिक दुराग्रह है। एक राष्ट्र अपनी विचारधारा को दूसरे पर थोपना चाहता है और दूसरे की विचारधारा का आदर नहीं करता। अनेकान्त सिद्धान्त दूसरे के दृष्टिकोण को समझने व दूसरों की विचार धारा का आदर करने की दिशा प्रदान करता है। तब विचारों में तनाव के स्थान पर सद्भाव व अिंहसा होगी क्योंकि अिंहसा का भवन अनेकान्त के धरातल पर ही ठहर सकता है।
अपरिग्रह का सिद्धान्त समाजवाद का आदि बिन्दु है। आर्थिक विषमता से ग्रस्त राष्ट्र में अिंहसक तरीके से समाजवाद अपरिग्रह के सिद्धान्त के पालन से ही आ सकता है। भारत जैसे देश में यदि कोई व्यक्ति आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है तो अन्य की आवश्यकता पूर्ति में बाधा आयेगी।
यही प्रवृत्ति वर्गभेद व वर्गसंघर्ष की जन्मदात्री है। अत: पेट भरो, पेटी नहीं। इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने व संयमित जीवन व्यापन करने से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियाँ ठीक रहेंगी क्योंकि येन केन प्रकारेण धनसंग्रह की प्रवृत्ति मानव से सभी अकरणीय कार्य भी करवा लेती है। अत: शस्त्रसंचय की भाँति धनसंचय को भी अपराध माना जाना चाहिये, क्योंकि आधुनिक युद्ध का मुख्य शस्त्र तलवार नहीं, वरन् धन है।
मात्र धन से स्थायी सुख शान्ति नहीं मिलती। प्राप्तव्य को प्राप्त करने की चिन्ता, उसकी रक्षा की चिन्ता व उसके नष्ट होने पर वियोग का दुख—इस तरह परिग्रह हर अवस्था में दुखदायी है। कभी—कभी तो सुखद भविष्य की कल्पना में वर्तमान को भी बिगाड़ लेते हैं तथा संचित धन का कभी भी उपयोग नहीं कर पाते। अत: व्यक्ति को परिग्रह को सीमित करना चाहिए तथा पूर्व संचित परिग्रह में से कुछ राशि विनयपूर्वक जरूरतमंदों के हितार्थ अर्पित करते रहना चाहिए जिससे निर्धनों के जीवन स्तर के उत्थान में सरकार के दायित्व में हम भी हाथ बटा सकें।
जो व्यक्ति जैन सिद्धान्तों का निष्ठा से पालन करता है, वह हर स्थिति में सुख—शान्तिपूर्वक जीवन निर्वाह कर सकता है। उसके आचरण से किसी कानून का उल्लंघन ही नहीं होगा। जैनाचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के ७वें अध्याय के २७वें सूत्र में कहा है—स्तेनप्रयोग—तदाह्नतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रति—रूपकव्यवहारा:।
अर्थात्—चोरी के लिए प्रेरणा करना अथवा चोरी के उपाय बताना, चुराई हुई वस्तु को लेना, राज्य के कानूनों के विरुद्ध चलना (जैसे कर—चोरी करना, जमाखोरी करना आदि), नापने तोलने के बांट आदि कमती, बढ़ती रखना और अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तु मिलाकर अधिक मूल्य में बेचना, ये पाँच कार्य अचौर्याणुव्रत में दोष लगाने वाले हैं अर्थात् चोरी के ही पर्यायवाची हैं। इस सूत्र को ध्यान में रखकर यदि हर नागरिक चोरी से पूर्णत: बचे तो देश की कितनी समस्याओं का समाधान सहज में ही हो सकता है।
जैन दर्शन में राजद्रोह का नहीं वरन् राजनियमों के पालन का निर्देश दिया है और देश के नियमों का यदि ध्यान से अवलोकन किया जाये तो उनमें जैन सिद्धान्तों के ही पालन की अपेक्षा की गई है। अन्तर सिर्फ पालने के तरीकों में है। जैन धर्म मानव को कर्त्तव्यनिष्ठ बनाकर स्वेच्छा से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह के सिद्धान्तों को जीवन में उतारने की प्रेरणा देता है तो सरकार कानून का डर दिखाकर हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह संचय की वृत्ति पर अंकुश लगाती है। धर्म का प्रभाव स्थायी व आन्तरिक होता है और कानून का प्रभाव अस्थायी व दिखावटी होता है।
किन्तु विश्वशान्ति हेतु धार्मिक सिद्धान्तों का पालन करना ही पड़ेगा। आज ‘एड्स’ नामक प्राणघातक बीमारी के भय से स्वच्छन्द यौन सम्बन्धों पर रोक लगी है व ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त को बल मिला है। ‘रेड्स’ के भय से काले धन संचय में कटौती हो रही है और अपरिग्रह को मान्यता दी जा रही है। प्राकृतिक सीमित साधनों के व्यर्थ में प्रयोग को रोकने हेतु सरकार करोड़ों रुपये विज्ञापन आदि में व्यय करके जनता को इस बारे में आगाह करती है। जैन दर्शन में अनर्थदण्डव्रत के द्वारा बिना प्रयोजन पानी, हवा, वनस्पति आदि के प्रयोग को निषिद्ध बताकर सीमित साधनों के संरक्षण में बहुत योग दिया है।
जैनधर्म एक वैज्ञानिक धर्म है। इसके सिद्धान्त सर्वोपयोगी हैं। यह व्यक्ति को कर्त्तव्यपरायण बनाता है। जिससे वह अपने जन्मदाता माता—पिता की सेवा भी निष्ठा से करता है और उन्हें वृद्धाश्रम प्रेषित करने की दुर्भावना कभी उसके मन में नहीं आती। परिजनों के साथ भी ऐसा व्यवहार करता है जिससे परिवार में सुख—शान्ति बनी रहती है।
बच्चों में सुसंस्कार प्रारम्भ से डालता है जिससे वे संस्कारित होकर धर्मनिष्ठ होकर अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति कर्त्तव्य का भली—भाँति निर्वहन करते हैं। आधुनिक वातावरण में रहते हुए भी धार्मिक संस्कारों के कारण गुरुजनों के प्रति भी विनयभाव रहते हैं और अनुशासित तथा धर्मनिष्ठ जीवन व्यतीत करते हैं जिससे मानसिक सुख शान्ति के अलावा देश के चारित्र निर्माण में भी सहयोग प्रदान करते हैं।
जैन सिद्धान्तों के निष्ठापूर्वक पालन में ही विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। धर्म—निरपेक्षता की आड़ में धर्मविहीन हो जाने से राष्ट्र का चारित्रिक पतन होता है। चारित्रिक पतन से राष्ट्रोत्थान की कल्याणकारी योजनायें निष्फल हो जाती हैं। अत: राष्ट्र के सर्वतोमुखी विकास एवं मानव की स्थायी सुख—शान्ति हेतु नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था जागृत करना नितान्त आवश्यक है। जैनधर्म नैतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा उत्पन्न कराता है, जिनके परिपालन से ही स्थायी विश्वशान्ति सम्भव हो सकती है।