जैन— संस्कृति का मुकट—मणि—कनार्टक एवं उसकी कुछ यशस्विनी श्राविकाएँ
कनार्टक-प्रदेश, भारतीय संस्कृति के लिये युगों-युगों से, एक त्रिवेणी-संगम के समान रहा है। भारतीय-भूमण्डल के तीर्थयात्री अपनी तीर्थयात्रा के क्रम में यदि उसकी चरण-रज-वन्दन करने के लिए वहाँ न पहुँच सकें, तो उनकी तीर्थयात्रा अधूरी ही मानी जायेगी। जैन-संस्कृति, साहित्य एवं इतिहास से यदि कर्नाटक को निकाल दिया, तो स्थिति बहुत कुछ वैसी ही होगी, जैसे भारत के इतिहास से मगध एवं विदेह को निकाल दिया जाए, यदि दक्षिण इतिहास से गंग, राष्ट्रकूट, गंग चेर, चोल, पल्लव एवं चालुक्यों को निकाल दिया जाए, तो स्थिति कुछ वैसी ही होगी, जैसे मगध से नन्दों , मौर्यों, एवं गुप्तों तथा दिल्ली एवं गोपाचल से चौहानों एवं तोमरवंशी राजाओं के इतिहास को निकाल दिया। दक्षिण-भारत के जैन-इतिहास से यदि पावन-नगरी श्रवणबेलगोल को निकाल दिया जाए, तो उसकी स्थिति भी वैसी ही होगी, जैसी, वैशाली, चम्पापुरी, मन्दारगीरि, राजगृही, उज्जयिनी, कौशाम्बी एवं हस्तिनापुर को जैन-पुराण साहित्य से निकाल दिया जाए। जैन-इतिहास एवं संस्कृति की एकता, अखण्डता तथा सर्वांगीणता के लिए, कर्नाटक की उक्त सभी आयामों की, समान रूप से सहभागिता एवं सहयोग रहता आया है। इनके अतिरिक्त भी भारतीय-इतिहास की निर्माण-सामग्री में यदि कर्नाटक की शिलालेखीय एवं प्रशस्तिमूलक-सामग्री तथा कलाकृतियों को निकाल दिया जाए, तो स्थिति ठीक वैसी ही होगी, जैसे सम्राट अशोक एवं सम्राट खारवेल की शिलालेखीय, पुरातात्त्विक एवं ऐतिहासिक-सम्पदा को भारतीय-इतिहास से निकाल दिया जाए। इसी प्रकार, मध्यकालीन भारतीय सामाजिक इतिहास में से यदि कर्नाटक की यशस्विनी श्राविकाओं के इतिहास को उपेक्षित कर दिया जाए, तो भारत का सामाजिक इतिहास निश्चय ही विकलांग हो जाएगा।
विदुषी कवियत्री कन्ती देवी
कवियत्री कन्ती-देवी (सन् के 1140 के लगभग) उन विदुषी लेखिकाओं में से है, जिनके साहित्य एवं समाज के क्षेत्र में बहु आयामी कार्य तो किये, किन्तु यश की कामना उसने कभी नहीं की। जो कुछ भी कार्य उसने किये, सब कुछ निस्पृह-भाव सेे। कन्नड़ महाकवि बाहुबली ( सन् 1560) ने अपने ‘‘नागकुमार-चरित’ में उसकी दैवी-प्रतिभा तथ ओजस्वी व्यक्ति की चर्चा की है और बतलाया है कि वह द्वार-समुद्र (दोर-समुद्र) के राजा बल्लाल द्वितीय की विद्वत्सभा की सम्मानित कवियित्री थी। बाहुबली ने उसके लिए विद्वत्सभा की मंगल-लक्ष्मी, शुभगुणचरिता, अभिनव-वाग्देवी जैसी अनेक प्रशस्तियों से सम्मानित कर उसकी गुण-गरिमा, की प्रशंसा की है। इन संदर्भों से यह स्पष्ट है कि कन्ती उक्त बल्लाराय की राज्य-सभा की गुण-गरिष्ठा सदस्या थी। महाकवि देवचन्द्र ने अपनी ‘राजावलिकथे’ में कन्ती विषयक एक रोचक घटना का चित्रण किया है। उसके अनुसार दोरराय ने दोरसमुद्र नाम के एक विशाल जलाशय का निर्माण कराया तथा एक ब्राह्मणकुलीन धर्मचन्द्र को अपने मंत्री के पद पर नियुक्त कर लिया था। उस मंत्री का पुत्र वहीं शिक्षक का कार्य करने लगा। उसकी विशेषता यह थी कि वह ज्योतिष्मती नामकी एक विशिष्ट तैलौषधि का निर्माण करता था, जो बुद्धि- वर्धक थी। मन्दबुद्धि वालों की बुद्धि बढ़ाने के लिये एक खुराक में यद्यपि केवल आधी-आधी बँूद ही देता था, लेकिन लोग उसका साक्षात् प्रभाव देखकर आश्चर्यचकित कर जाते थे। कन्तीदेवी भी उस औषधि का सेवन करती थी। एक दिन अवसर पाकर तत्काल ही तीव्र-बुद्धिमती बनने के उद्देश्य से उसने एक बार मेें उस दवा का अधिकमात्रा में पान कर लिया। अधिक मात्रा हो जातने के कारण उसके शरीर में इतनी दाह उत्पन्न हुई कि उसे शान्त करने के लिए वह दौड़कर कुएँ में कूद पड़ी। कुआँ अधिक गहरा न था । अतः वह उसी में खड़ी रहीं। उसी समय उसमें कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और तार-स्वर से वह स्वनिर्मित कविताओं का पाठ करने लगी। उसकी कविताएँ सुनकर सभी प्रसन्न हो उठे। राजा दोरराय को जब यह सूचना मिली, तो उन्होंने अपने परम‘ विश्वस्त, उदयभाषा-चक्रवती अभिनव-पम्प को उसकी परीक्षा लेने हेतु उसके पास भेजा। वहाँ जाकर पम्प ने उसने जितने भी कवित्व-मय प्रश्न किये, कन्ती ने उन सभी का सटीक उत्तर देकर पम्प को विस्मित कर दिया। दोरराय ने यह सुनकर तथा उसकी आलौकिक काव्य-प्रतिभा से प्रसन्न होकर उसे तत्काल ही अपनी विद्वत्सभा का सदस्य घोषित किया तथा उसे ‘अभिनव-वाग्देवी’ के अलंकरण से अलंकृत किया। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर नरसिंहाचार्य की मान्यता के अनुसार उक्त दोरराय का अपरनाम ही बल्लाल था और उसकी राज्य-सभा में महाकवि अभिनव पम्प कान्ति आदि प्रसिद्ध कवियत्रियों का जमघट रहता था। कन्ती की श्रंखलाबद्ध रचनाएँ वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। कन्ती-पम्पन समस्येगलु इस नाम से कुछ प्रकीर्णक पद्य अवश्य मिलते हैं। उन्हें देखकर यह विदित होता हे कि समस्या-पूर्ति करने में वह उसी प्रकार निपुण थी, जिस प्रकार चम्पा-नरेश कोटिभट्ट श्रीपाल की महारानी ( और उज्जयिनी-नरेश राजा पुहिपाल की पुत्री-राजकुमारी) मैनासुन्दरी। कहा जाता है कि अभिनव-पम्प एवं कन्ती में प्रायः ही वाद-विवाद चलता रहता था किन्तु वह पम्प से न तो कभी हार मानने को तैयार रहती थी और न वह कभी उसकी प्रश्ंासा ही करती थी, यद्यपि भीतर से आदर का भाव अवश्य रखती थी। एक दिन पम्प ने प्रतिज्ञा की कि वह कन्ती से अपनी प्रशंसा कराकर ही रहेगा। अतः अवसर पाकर कन्ती के पास झूठ-मूठ में ही उसने अपनी मृत्यु का समाचार भिजवा दिया।
इस दुःखद समाचार को सुनकर कुन्ती बड़ी दुखी हुई। तुरन्त ही वह उनके आवास पर पहुँची और वहीं दरवाज के ही बाहर बैठकर वह रूदन करने लगी और कहने लगी- हे कविराय, हे कवि पितामह, हे कवि-कण्ठाभरण, हे कवि शिखामणि, कार्य, अब मेरे जीवन की सार्थकता ही क्या रही? जब मेरे गुणों की प्रशंसा करने वाला ही संसार से उठ गया। अभिनव-पम्प जैसे कहाकवि से ही दरबार की शोभा थी। उनका काव्य-सुषमा के साथ-साथ मेरा भी कुछ विकास हो रहा था। थोड़ी ही देर में पम्प हंसता हुआ बाहर आया और कन्ती से बोला कि-हे प्रिय कवियित्री, आज मेरा प्रण पूरा हो गया है क्योंकि तुमने मेरे घर पर आकर मेरी प्रशंसा की है। किन्तु, जो नाराज होने के बदले उन्हें अपने सम्मुख साक्षात् देखकर प्रफल्लित हो उठी। कन्नड़-साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान् पं. के. भुजबली शास्त्री के अनुसार ‘‘कन्ती पम्पन समस्येगलु’’ इन नाम के जो भी पद्य वर्तमान में उपलब्ध होते हैं, वे साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर हैं। यहाँ पर उनमें से केवल एक पद्य, जो कि निरोष्ठ्य-काव्य का उदाहरण है, प्रस्तुत किया जा रहा है-
‘‘सुर नगर नागाधीशर।
हीरकिरीटाग्रलग्नचरणसरोजा।
धीरोदारचरित्रोत्सारितकलुषौधरक्षिसल्करिनर्हा’’।।
दान-चिन्तामणि अत्तिमव्वे-
महासती श्राविका अत्तिमव्वे (10 वीं सदी) न केवल कर्नाटक की, अपितु समस्त महिला-जगत् के गौरव की प्रतीक है। 11वीं सदी के प्रारंभ के उपलब्ध शिलालेखों के अनुसार यह वीरांगना दक्षिण-भारत तथा महादण्डनायक वीर नागदेव की धर्मपत्नी थी। उसके शील, पातिव्रत्य एवं वैदुष्य के कारण स्वयं सम्राट भी उसके प्रति पूज्य-दृष्टि रखते थे। कहा जाता है कि अपने अखण्ड पातिव्रत्य-धर्म और जिनेन्द्र-भक्ति में अडिग-आस्था के फलस्वरूप उसने गोदावरी-नदी में आई हुई प्रलयंकारी बाढ़ के प्रकोप को भी शान्त कर दिया था। और उसमें फंसे हुऐ सैकड़ों वीर-सैनिकों एवं अपने पति दण्डनायक नागदेव को वह सुरक्षित वापिस ले लाई थी। कवि चक्रवर्ती रत्न (रत्नाकर) ने अपने अजितनाथपुराण की रचना अत्तिमव्वे के आग्रह से उसी के आश्रय में रहकर की थी। महाकवि रन्न ने उसकी उदाहरतापूर्ण दान-वृत्ति, साहित्यकारों के प्रति वात्सल्य-प्रेम, जिनवाणी-भक्ति, निरतिचार-शीलव्रत एवं सात्विक-सदाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और उसे ‘दान-चिंतामणि’ की उपाधि में से विभूषित किया है। अत्तिमव्वे स्वयं तो विदुषी थी ही, उसने कुछ नवीन-काव्यों की रचना के साथ ही प्राचीन जीर्ण-शीर्ण ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों के उद्धार की ओर भी विशेष ध्यान दिया। उसने उभय-भाषा-चक्रवर्ती महाकवि पोन्न कृत ‘शान्तिनाथ-पुराण’ की पाण्डुलिपि की 1000 प्रतिलिपियों कराकर विभिन्न शास्त्र-भण्डारों में वितरित कराई थीं। इन सत्कार्यों के अतिरिक्त भी उसने विभिन्न जिनालयों में पूजा-अर्चना हेतु प्रचुर-मात्रा में भूदान किया और सर्वत्र चतुर्विध दानशालाएँ भी खुलवाई थीं।
वीरांगना सावियव्वे-
वीरांगना सावियव्वे श्रावक-शिरोमणि, वीरमार्तण्ड, महासेनापति चामुण्डराय(10वीं सदी) की समकालीन थी। उसके पति का नाम लोकविद्याधर था, जो बड़ा ही वीर एवं पराक्रमी था। वह गंग-नरेश रक्ससंग का भानजा था। सावियव्वे को छुटपन से ही रण-विद्या की शिक्षा दी गई थी। उसमें वह बड़ी कुशल सिद्ध हुई। अपनी इसी विशेषता के कारण दिग्विजयी जैन-सम्राट खारवेल की महारानी सिन्धुला के समान ही, एक ओर तो वह आपने पति के साथ वीरता-पूर्वक युद्ध का साथ देती थी और दूसरी ओर अतिरिक्त समयों में वह नैष्ठिक श्राविका-व्रताचार का पालन भी करती थी।
श्रवणबेलगोल की बाहुबलि-
बसति के पूर्व की ओर एक पाषाण में टंकित लेख में इस वीरांगना केा रेवती-रानी जैसी पक्की श्राविका, सीता जैसी पतिव्रता, देवकी जैसी रूपवती, अरुन्धती जैसी धर्म-प्रिया और जिनेन्द्र-भक्त बतलाया गया है। उसी प्रस्तर में एक अन्य दृश्य भी उत्कीर्णित है, जिसमें इस वीर महिला को घोड़े पर सवार दिखलाते हुए हाथ में तलवार उठाए, अपने सम्मुख आते हुये हाथी पर सवार एक योद्धा पर प्रहार करते हुये चित्रित किया गया है। घटना-स्थल का नाम बगेयूर लिखा हुआ है। बहुत सम्भव है कि यह बेगयूर वही दुर्ग हो, जिस पर आक्रमण करके महासेनापति चामुण्डराय ने राजा त्रिभुवन वीर को युद्ध में मारकर बैरिकुलकालंदण्ड का विरुद्ध प्राप्त किया था। बहुत सम्भव है कि इसी युद्ध में लोक-विद्याधर और उसकी वीरांगना पत्नी-सावियव्वे भी चामुण्डराय की ओर युद्ध में सम्मिलित हुए हों?
दृढ़-संकल्पी-माता-कालल-देवीः
कर्नाटक को दक्षिणांचल की अतिशय-तीर्थभूमि-श्रवणबेलगोला के निर्माण का श्रेय जिन यशस्विनी महिमामयी महिलाओं को दिया गया है, उनमें प्रातः स्मरणीया तीर्थस्वरूपा माता कालल देवी (10 वीं सदी) स्थान सर्वोपरि है। यह वही सन्नारी है, जिसने पूर्वजन्म में सुकर्म किये थे और फलस्वरूप वीर पराक्रमी रणधुरन्धर सेनापति चामुण्डाराय जैसे देवोपम श्रावकशिरोमणि पुत्ररत्न की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था। वह प्रतिदिन शास्त्र-स्वाध्याय के लिए दृढ़-प्रतिज्ञा थी। उसने एक दिन अपने गुरुदेव आचार्य अजितसेन के द्वारा आदिपुराण में वर्णित पोदनपुराधीश-बाहुबली की 525 धनुष उत्तुंग हरित्वर्णीय पन्ना की भव्य-मूर्ति का वर्णन सुना तो वह भाव विभोर हो उठी। इसकी चर्चा उसने अपने आज्ञाकारी पुत्र चामुण्डराय से की ओर उसके दर्शनों की इच्छा व्यक्त की, तो वह भी अपने हजार कार्य छोड़कर अपनी माता की मनोभिलाषा पूर्ण करने हेतु अपने गुरुदेव सि. च. नेमिचन्द्र के उस मंगल-मूर्ति का दर्शन करने के लिए तक्षशिला (वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित) के पास पोदनपुरा की यात्रा के लिये निकल पड़ा। यात्रा काफी लम्बी थी। चलते-चलते वे सभी कटवप्र के एक बीहड़ वन में रात्रि-विश्राम के लिये विरमित हो गए। रात्रि के अन्तिम पहर में उन तीनों ने एक-सदृश स्वप्न देखा कि जिसमें देवी उन्हें कह रही है कि ‘‘जहाँ तुम लोग विश्राम कर रहे हो, उसी के सामने वाली पहाड़ी के शिखराग्र पर एक अभिमन्त्रित शर-सन्धान करो। वहींसे तुम्हें बाहुबलि के दर्शन हो जायेंगे। ‘‘प्रातःकाल होते ही धनुर्धारी चामुण्डराय ने अपने सामने की पहाड़ी (विन्ध्यगिरि) की शैल-शिला पर णमोकार-मन्त्र का उच्चारण कर शर-सन्धान किया और ऐसी अनुश्रुति है कि बाण लगते ही पत्थर की परतें टूटकर गिरी और उसमें से गोम्मटेश-बाहुबली का शीर्षभाग स्पष्ट दिखाई देने लगा। बाद में उसी शिला को अरिहनेमि ने बाहुबली की मूर्ति का रूप प्रदान किया। धन्य है, वह माता कालल देवी, जिसके दृढ़-संकल्प और महती प्ररेणा से विश्व- विश्रुत, रूप-शिल्प और मूर्ति-विज्ञान की अद्वितीय उक्त कलाकृति को वीर सेनापति चामुण्डराय ने निर्मापित कराया। उस सौम्य, सुडौल, आकर्षक एवं भव्य मूर्ति को देखकर केवल जिनभक्त ही नहीं, सारा विश्व भी अभिभूत है तथा उसका दर्शन कर उसकी अतिशय भव्यता एवं सौंदर्य पर आश्चर्यचकित रहा जाता है। इसे विश्व का आठवाँ आश्चर्य माना गया है।
धर्म-परायण अजितादेवीः
पूर्वजन्म के सुुसंस्कारों के साथ-साथ महिला में यदि धर्मपरायणता एवं पति-परायणता का मिश्रण हो जाये, तो महिला के जिस अन्तर्बाह्य शील-सौन्दर्य-समन्वित-स्वरूप का विकास होता है, उसी का चरम विकसित रूप था अजितादेवी (10वीं सदी) का महान् व्यक्तित्त्व। वह गंग-नरेश के महामंत्री एवं प्रधान सेनापति वीरवर चामुण्डराय की धर्मपत्नी थी। वह जितनी पतिपरायणा थी, उतनी ही धर्मपरायण भी। उसके पति चामुण्डराय जब-जब प्रजाहित अथवा राष्ट्र-सुरक्षा के कार्यों को संपन्न करने हेतु बाहर रहते थे, तब-तब उनके आंतरिक कार्यों की निगरानी की जिम्मेदारी उन्हीं की रहती थी। कहते हैं कि जिस समय शिल्पी-सम्राट अरिहनेमि, अखण्ड-बह्मचर्य-व्रत धारण कर अहर्निश बाहुबली-गोम्मटेश की मूर्ति के निर्माण में संलग्न था, तब अजितादेवी उसकी तथा उसके परिवार की सुविधाओं का बड़ा ध्यान रखती थी। जब तक उस मुर्ति का निर्माण-कार्य पूर्ण संपन्न नहीं हुआ, तब तक वह स्वयं भी उस कार्य की समाप्ति पर्यन्त व्रताचरण, तप एवं स्वाध्याय पूर्वक अपने दिन व्यतीत करती रही और जब मूर्ति-निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ, तो भक्ति-विभोर उसने सर्वप्रथम देवालय-परिसर स्वयं साफ किया, धोया-पोंछा, और देव-दर्शन कर अरिहनेमि तथा उसके परिवार के प्रति आभार व्यक्त किया और अपनी सासु-माता के पास जाकर गद्गद-वाणी में हर्षोत्फुल्ल नेत्रों से उन्हें उसकी सुखद सूचना दी।
तीर्थ-भक्ता गुल्लिकाज्जयी-
निष्काम-भक्ति में कृतिम प्रदर्शन नहीं, बल्कि मन की ऋजुता, कष्टसहिष्णुता एवं स्वात्म-सन्तोष की जीवन-वृत्ति परमावश्यक है। वैभव-प्रदर्शन में तो मान-कषाय की भावना कर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में अन्तर्निहित रहना स्वाभाविक है और इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, परमश्रेष्ठ गोम्मटेश की मूर्ति के प्रथम महामस्ताभिषेक के समय की वह घटना जब वीरवर चामुण्डराय ने केशन-युक्त शुद्ध दुग्ध के घड़ों के घड़े गोम्मटेश के महामस्तक पर उड़ेल दिये किन्तु वह उनकी कमर से नीचे तक न आ सका। पण्डित, महापण्डित, साधु, मुनि, आचार्य उपस्थित राजागण आदि सभी आश्चर्यचकित, अनेक उपाय किये गये कि महामस्तकाभिषेक सर्वांगीर्ण हो, किन्तु सभी के प्रयत्न असफल एवं सभी लोग निराश एवं उदास, अब क्या हो? किसी की भी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर शुभ-कार्य में वह विघ्न क्यों? यह कष्टदायी उपसर्ग क्यों? सभी की धोर-मंत्रणा हुई। देर तक आकुल-व्याकुल होते हुये सभी ने यह निर्णय किया कि आज उपस्थित सभी भव्यजनों को अभिषेक का अवसर प्रदान किया जाय जो भी चाहे, मंच पर आकर महामस्ताभिषेक कर ले। भीड़ में सबसे पीछे सामान्य धूमिल वस्त्र धारण किये हुए एक दरिद्र वृद्धा, जो बड़ी उमंग के साथ अभिषेक करने आई थी किन्तु भीड़ देखकर वह पीछे ही रह गई थी, उस घोषणा से उसे भी अभिषेक का सुअवसर मिल गया। उसके पास मूल्यवान् धातु का घड़ा नहीं, केवल एक नारियल मात्र था। टिरकते-टिरकते मंच पर पहुँची और निष्काम-भक्ति के आवेश में भरकर जैसे ही उसने नारिकेल-जल से परम आराध्य बाहुबली का भक्तिभाव से अभिषेक किया, उससे वह मूर्ति आपाद-मस्तक सराबोर हो गई। यह देखकर सर्वत्र जय-जयकार होने लगा। हर्षोन्मत्त होकर नर-नारीगण नृत्य करने लगे। चामुण्डराय ने उसी समय अपनी गलती का अनुभव किया और सोचने लगा कि सचमुच ही मुझे, सुन्दरतम मूर्ति-निर्माण तथा उसके महामस्ताभिषेक में अग्रमामी रहने तथा कल्पनातीत सम्मान मिलने के कारण अभिमान हो गया था। उसी का फल है कि सबके आगे मुझे अपमानित होना पड़ा है। इतिहास में इस घटना की चर्चा अवश्य आयेगी। और मेरे इस अहंकार को भावी पीढ़ी अवश्य कोसेगी।
उसी समय चामुण्डराय का अहंकार विगलित हो गया। वह माता गुल्लिकाज्जयी के पास गया। विनम्र-भाव से उसके चरण-स्पर्श किये, उसकी बड़ी सराहना की और उसकी यशोगाथा को स्थायी बनाये रखने के लिये उसने आँगन के बाहर, गोम्मटेश के ठीक सामने उसकी मूर्ति स्थापित करा दी यही नहीं; गोम्मटेश की मूर्ति के दर्शनों के लिए दर्शनार्थी-गण जब जाने लगते हैं, तब प्रांरभ में ही जो प्रवेश-द्वार बनवाया गया, उसका नामकरण भी उसी भक्त महिला की स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उसका नाम रखा गया-‘‘गुल्लिकाज्जयी बागुल’’ अर्थात् बेंगनबाई का दरवाजा। उस दिन चामुण्डराय ने प्रथम बार यह अनुभव किया कि प्रचुर-मात्रा में धन-व्यय, अटूट-वैभव एवं सम्प्रभुता के कारण उत्पन्न अहंकार के साथ महामस्तकाभिषेक के लिए प्रयुक्त स्वर्णकलश भी, सहज-स्वाभाविक, निष्काम-भक्तियुक्त एक नरेटी भर नारिकेल-जल के सम्मुख तुच्छ है। यह भी अनुश्रुति है कि वह गुल्लिकाज्जयी महिला, महिला नहीं, बल्कि उस रूप में कुष्माण्डिनी देवी ही चामुण्डराय की परीक्षा लेने और उसे निरहंकारी बननने की सीख देने के लिये ही वहाँ आई थी।
विदुषी रत्न पम्पादेवी-
हुम्मच के सन् 1147 ई. के एक शिलालेख में विदुषी पम्पादेवी का बड़े ही आदर के साथ गुणगान किया गया है। उसके अनुसार वह गंग-नरेश तैलप तृतीय की सुपुत्री तथा विक्रमादित्य शान्तर की बड़ी बहिन थी। उसके द्वारा निर्मापित एवं चित्रित अनेक चैत्यालयों के कारण उसकी यशोगाथा का सर्व़त्र गान होता रहता था। उसके द्वारा आयोजित जिन-धर्मोत्सवों के भेरी-नादों से दिग्-दिगन्त गूंजते रहते थे तथा जिनेन्द्र की ध्वजाओं से आकाश आच्छादित रहता था। कन्नड़ के महाकवियों ने उसके चरित्र-चित्रण के प्रसंग में कहा है कि-आदिनाथचरित का श्रवण ही पम्पादेवी के कर्णफूल, चतुर्विध-दान ही उसके हस्त-कंकण तथा जिन-स्तवन ही उसका ही कण्ठहार था। इस पुण्यचरित्रा विदुषी महिला न उर्व्वितिलक-जिनालय का निर्माण छने हुए प्रासुक-जन से केवल एक मास के भीतर कराकर उसे बड़ी धूमधाम के साथ प्रतिष्ठित कराया था। पम्पादेवी स्वयं पण्डिता थी। उसने अष्टविधार्चन-महाभिषेक एवं चतुर्भक्ति नामक दो ग्रन्थों की रचना भी की थी।
पट्टरानी शान्तलादेवी-
श्रवणबेलगोला के एक शिलालेेख में होयसल-वंशी नरेश विष्णुवर्द्धन की पट्टरानी शान्तलादेवी (12 वीं सदी) का उल्लेख बड़े ही आदर के साथ किया गया है। वही पति-परायण, धर्म-परायणा और जिनेन्द्र-भक्ति में अग्रणी महिला के रूप में विख्यात थी। संगीत, वाद्य-वादन एवं नृत्यकला में भी वह निष्णात थी। आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव इसके गुरु थे। शान्तलादेवी ने श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि के शिखर पर एक अत्यन्त सुन्दर एवं विशाल जिनालय का निर्माण करवाया था जिसका नाम ‘‘सवति-गन्धवारण-वसति’’ रखा गया। सवतिगन्धवारण का अर्थ है-सौतों (सवति) के लिये मत्त हाथी। यह शान्तलादेवी का एक उपनाम भी था। इस जिनालय में सन् 1122 ई. के लगभग भगवान् शान्तिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा स्थापित की गई थी।