भारतीय दर्शन जीवन—दर्शन है। इसमें भी जैन चिन्तन—धारा का अनुपम स्थान है। इसमें आत्मा, परमात्मा, लोक और कर्म आदि दार्शनिक तत्वों पर गंभीर अध्ययन और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। जैन कर्म—सिद्धान्त वैज्ञानिक मान्यताओं तथा मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर खरा उतरता है। जैन—कर्म—सिद्धान्त मानव के व्यवहारिक जीवन के लिये परमोपयोगी है। केवल कल्पना के स्वप्निल आकाश में उड़ान भरने की अपेक्षा, मानव—मन की जटिलताओं, ग्रंथियों और गहन प्रश्नों का जैन मनीषयों ने कर्म—सिद्धान्त के माध्यम से यथार्थता के आधार पर क्रियात्मक समाधान प्रस्तुत किया है। यहाँ ‘जैन कर्म सिद्धान्त और मनोविज्ञान’ शीर्षक शोध प्रबन्ध का सारांश प्रस्तुत है। इस शोध प्रबन्ध के प्रणयन के पूर्व डा. मोहनलाल मेहता द्वारा JAINA PSYCHOLOGY एवं डा. टी.जी.कलधटगी द्वारा SOME PROBLEMS OF JAINA PSYCHOLOGY शीर्षक से दो महत्वपूर्ण प्रबन्ध लिखे गये हैं , जिनमें मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जैन कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डाला गया है, किन्तु यह विवेचन ज्ञान मीमांसा तक सीमित रहा है। भाव—जगत एवं शरीर संरचना का पक्ष अछूता रह गया था। इस शोध प्रबन्ध का उद्देश्य है— वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार पर जैन—कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन करना और प्राप्त एवं अनुभूत तथ्यों के आधार पर मानव—मन और भाव—जगत् का इस प्रकार से रूपान्तरण करना कि वह व्यक्ति की आत्मा—तुष्टि और चरम विकास का साधक बने और समष्टि—समाज, राष्ट्र और विश्व को सन्मार्ग पर अग्रसर करने हेतु दिव्य प्रकाश—पुंज बन जाये। प्रस्तुत प्रबन्ध का प्रकाशन किया जा चुका है । इच्छुक पाठक इसे प्राप्त कर सकते हैं ।
जैन कर्म— सिद्धान्त और मनोविज्ञान
डा. रत्नलाल जैन, बी पब्लिशर्स (प्रा.) लि. १९२१/१०, चूना मण्डी, पहाड़गंज, नई दिल्ली— ११००५५, १९९६, पृ. २८२, मू. २५५/— प्रस्तुत शोध—प्रबन्ध आठ आचार्यों में विभक्त है। इसकी विषय सामग्री का सारांश यहॉ प्रस्तुत है— प्रथम अध्याय में भारतीय दर्शन में कर्मसिद्धान्त पर प्रकाश डाला गया है। वैदिक, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में कर्म सिद्धान्त की विवेचना की गई है। भारतवर्ष प्राचीन काल से ही आध्यात्मिकता की क्रीड़ा स्थली रहा। भारतीय जन—जीवन में कर्म शब्द बालक, युवक और वृद्ध सभी की जबान पर चढ़ा हुआ है। भारत की इस पुण्य भूमि पर ही वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय, मीमांसक, वैशेषिक, बौद्ध और जैन आदि दर्शनों का आविर्भाव हुआ। अध्यात्म की व्याख्या कर्मसिदन्त के बिना नहीं की जा सकती । इसलिये यह एक महान सिदान्त है। जैन दर्शन में कर्म शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उसी अर्थ में उससे मिलते जुलते अर्थ में अन्य दर्शनों ने भी इसके लिये अनेक शब्दों का प्रयोग किया गया है, जैसे—माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, अदृष्ट, वासना, कर्माशय, संस्कार, देव, भाग्य आदि—आदि । वेदान्त दर्शन में माया, अविद्या तथा प्रकृति शब्द का प्रयोग हुआ है। अपूर्व शब्द मीमांसा दर्शन में प्रयुक्त हुआ है। धर्माधर्म और अदृष्ट न्याय और वैशेषिक दर्शनों में प्रचलित है। कर्माशय शब्द योग और सांख्य दर्शन में उपलब्ध है। वासना शब्द बौद्ध दर्शन में प्रचलित है। भारतीय दर्शनों में, ‘जैसा कर्म वैसा फल’ सिद्धान्त की मान्यता है।
महाभारत में कहा गया है—‘‘जिस प्रकार गाय का बछड़ा हजारों गौओं में भी अपनी मां को ढूंढ लेता है, उसका अनुसरण करता है, उसी प्रकार पूर्व कृत कर्म उसके कर्ता का अनुसरण करते हैं तथा दूसरी योनि६ में आपके किये हुए कर्म परछाई के समान साथ साथ चलते हैं। ’’
भगवान बुद्ध ने कहा है — ‘‘जो जैसा बीज बोता है , वह वैसा ही फल पाता है। मनुष्य जो पाप अथवा पुण्य करता है , उसी के अनुसार फल पाता है।’’
भगवान महावीर ने कहा है— ‘‘ किया हुआ कर्म सदा अपने कर्ता का अनुगमन करता है। अच्छे कर्मों के अच्छे फल और बुरे कर्मों के बुरे फल होते हैं। भारतीय दर्शन में ‘कर्म की विचित्र’ गति के सिद्धान्त की मान्यता है।
मनुस्मृति में कहा गया है—‘मन, वचन और शरीर के शुभ या अशुभ कर्मफल के कारण मनुष्य की उत्तर,मध्यम या अधम गात होती है’
विष्णु पुराण में कहा गया है —‘‘हे राजन! यह आत्मा न तो देव है, न मनुष्य है और न पशु है, न ही वृक्ष— ये भेद तो कर्म— जन्य शरीर कृतियों का है।’’
बौद्ध दर्शन में आचार्य नागसेन ने मिलिन्द प्रश्न में बताया है— ‘राजन! जीवों की विविधता का कारण भी उनका अपना कर्म ही होता है। सभी जीव अपने अपने कर्मों के फल भोगते हैं। सभी जीव अपने कर्मों के अनुसार नाना गतियों और योनियों में उत्पन्न होते हैं।’
भगवान महावीर ने कहा है— ‘गौतम! संसार के जीवों के कर्म—बीज भिन्न—भिन्न होने के कारण ही संसारी जीवों में अनेक उपाधियां, विभिन्न अवस्थाएं दिखाई देती हैं।’
कर्म की विचित्रता का मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त ‘भिन्नता का नियम’ (Law of Variation) से तुलना की गई है। वंशानुक्रमीयगुण (Heredity traits) के वाहक बीजकोष हुआ करते हैं । ये बीज अनेक रेशों से बने होते रहे हैं। इन रेशों को अंग्रेजी में क्रोमोजोम्स कहते हैं। एक बीज कोष में अनेक वंश सूत्र पाये जाते हैं । इन वंश सूत्रों के और भी अनेक सूक्ष्म भाग होते हैं, जिन्हें अंग्रेजी में जीन्स कहते हैं । वास्तव में ये जीन्स ही विभिन्न गुण दोषों के वाहक होते हैं । जीव विज्ञान के अनुसार प्रत्येक भू्रण—कोष में २३ पिता के साथ २३ माता के वंश सूत्रों का समागम होता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनके संयोग से १६,७७,२१६ प्रकार की विभिन्न संभावनाएं अपेक्षित है। अभी तक विज्ञान केवल जीन्स तक ही पहुंच पाया। जीन्स इस स्थूल शरीर का ही घटक है किन्तु कर्म सूक्ष्म शरीर का घटक है।, इस स्थूल शरीर के भीतर तेजस शरीर है, विद्युत शरीर है, वह सूक्ष्म है। इससे सूक्ष्म है कर्मशरीर, वह सूक्ष्मतम है। इसके एक—एक स्कन्ध पपर अनन्त अनन्त लिपियां लिखी हुई हैं। हमारे पुरूषार्थ का , अच्छाईयों और बुराईयों का न्यूनताओं और विशेषताओं का सारा लेखा—जोखा और सारी प्रतिक्रियाएं कर्मशरीर में अंकित हैं। वहां जैसे स्पन्दन आने लग जाते हैं, आदमी वैसा ही व्यवहार करने लग जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ लिखते हैं कि एक दिन यह तथ्य भी प्रकाश में आ जायेगा कि जीन केवल माता—पिता के गुणों या संस्कारों का ही संवहन नहीं करते, किन्तु ये हमारे किए हुए कर्मों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। उपर्युक्त विवेचन का निष्कर्ष है कि अब ‘ जीन बनाम कर्म’ शोध का एक महत्वपूर्ण विषय है। द्वितीय अध्याय में जैन कर्म सिद्धान्त की विशेषताओं का अध्ययन किया गया है। जीव व पुद्गल का अनादि सम्बन्ध है। जीव जीता है—प्राण धारण करता है, अत: जीव है। जीव सामान्य कर्मयुक्त—आत्मा से कर्मयुक्त—आत्मा—परमात्मा केसे बन सकता है ? सार्वयोनिकता के सिद्धान्त के अनुसार ८४ लाख योनि के जीवों में से किस भी योनि का जीव किसी भी अन्य योनि में जाकर उत्पन्न हो सकता है। समस्त देहधारियों की आत्मा के साथ अनन्त काल से पुद्गल—निर्मित शरीर है। किसी भी शरीर में जब तक आत्मा रहती है, तभी तक वह शरीर का पुद्गल (कर्मवर्गणा के पुद्गल) काम करता है। कर्मों की विविध प्रकृतियों के अनुसार मूल प्रकृतियाँ ८ (ज्ञानावरणीय, दर्शनावारणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु नाम, गोत्र, आयु, अन्तराय) और उत्तर प्रकृतियाँ १४८ है। इन प्रकृतियों में उनका वर्र्गीकरण किया गया है। अन्य दर्शन यह मानते हैं कि कर्म संस्कार रूप है। जैन दर्शन के अनुसार शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है। अत: कर्म भी पौद्गलिक है। भाव कर्म और द्रव्य कर्म में बड़ा अन्तर है। कर्म के हितों को भाव कर्म या मल कहते हैं और कर्म पुद्गलों को द्रव्य कर्म या रज कहा जाता है। भाव कर्म से द्रव्य कर्म का संग्रह होता है। और द्रव्य कर्मों से भाव कर्मों की तीव्रता होती है। प्रकृति संक्रमण का सिद्धान्त जैन कर्मवाद की प्रमुख विशेषता है। जैसे वनस्पति विज्ञान विशेषज्ञ खट्टे फलों को मीठे फलों में तथा निम्न जाति के बीजों२३ को जाति के बीजों में परिवर्तित कर देते हैं , वैसे ही पाप के बद्ध कर्म परमाणु कालान्तर में तप आदि के द्वारा पुण्य के परमाणु के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। कर्म मुक्त होकर जीव आत्मा से परमात्मा बन सकता है। तृतीय अध्याय में कर्म—बन्ध के कारणों का अध्ययन किया गया है । ‘जीव और कर्म के संश्लेष को बन्ध कहते हैं। जीव अपनी वृत्तियों से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन ग्रहण किये हुए कर्म—पुद्गल और जीव—प्रदेशों को बन्धन या संयोग बन्ध कहते हैं। जिस चैतन्य परिणाम से कर्म बन्धता है, वह भाव बन्ध है और आत्मा के प्रदेशों का अन्योन्य प्रवेश—एक दूसरे में मिल जाना एक क्षेत्रावगाही हो जाना द्रव्य बन्ध है। कर्म आने का द्वार है, आस्रव। कर्मबन्ध का मुख्य कारण है—कषाय। आगमों में कर्मबन्ध के दो हेतु हैं, राग और द्वेष । राग से माया और लोभ तथा द्वेष से क्रोध और मान उत्पन्न होते हैं।
कर्म बन्ध २८ के चार कारण हैं—
१. मिथ्यात्व,
२. अविरति,
३. योग
४. कषाय।
ठाणांग समवायांग में पांच कारण बताये गये हैं—
१. मिथ्यात्व,
२. अविरति,
३. प्रमाद,
४. कषाय
५. योग।
वाचक उमास्वाति३० के मत में ४२ कर्मबन्ध के कारण (आस्रव) हैं—
१ से ५ इन्द्रियां,
६—९ चार कषाय,
१०—१४ पांच आव्रत,
१५—३९ पच्चीस क्रियाएं,
४०—४२ तीन योग।
आस्रव के चार भेद हैं—
१. प्रकृति,
२. स्थिति,
३. अनुभाग,
४. प्रदेश ।
योग आस्रव प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध का हेतु हैं तथा कषाय आस्रव स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध का हेतु है। चतुर्थ अध्याय में कर्मों की अवस्थाओं का अध्ययन किया गया है— जैन दर्शन कर्म को स्वतन्त्र तत्व मानता है। । कर्मसिद्धान्त की विशालता के रूप में दस अवस्थाओं—कारणो की अवधारणा की गई है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं, वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छी—बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बन्ध जाते हैं। बन्धने के बाद उसका परिपाक होता है, वह सत्ता अवस्था है। परिपाक के पश्चात् उनके सुख—दु:ख रूप फल मिलते हैं। वह उदयमान (उदय) अवस्था है। वैदिक दर्शनों में क्रियामाण, संचित और प्रारब्ध क्रमश: बन्ध, सत् और उदय के समानार्थक है। कर्म का शीघ्र फल मिलना उदीरणा है। कर्म की स्थिति और विपाक में वृद्धि होना उद्वर्तना३९ है । कर्म की स्थिति और विपाक में कमी होना अपर्वतना है। कर्म की सजातीय प्रकृतियों का एक दूसरे के रूप में बदलना संक्रमण है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कर्म सिद्धान्त में प्ररूपित संक्रमण को मार्गन्तीकरण या उदात्तीकरण कहा गया है। मार्गन्तीकरण या रूपान्तरण का अर्थ है, किसी प्रवृत्ति या क्रिया का रास्ता बदल देना। कर्मों की सर्वथा अनुदय अवस्था को उपशम ४३ कहते हैं ।
उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है। अग्नि में तपाकर निकाली हुई लोहे की सूइयों के सम्बन्ध के समान पूर्वबद्ध कर्मों का मिल जाना निघत्ति है। निकाचित बन्ध होने के बाद कर्मों को भोगना ही पड़ता है। उसमें उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि नहीं होते। ‘आर्हत् दर्शन दीपिका’ में निकाचित दशा में भी परिवर्तन होना बताया गया है—
‘‘सव्व पगई मेवं परिणाम वसादव कमो होज्जा।
पाप निकायाणं तवसाओ निकाइयाणं वि’’।।
करोड़ों भवों के संचित कर्म तप के द्वारा निजीर्ण हो जाते हैं। मन—वचन—काय की शुभ प्रवृत्ति से जो आत्मा के साथ जुड़े कर्म झड़ते४५ हैं और आत्मा कुछ अंशों में उज्जववल होती है, वह निर्जरा है। कर्म झड़ने का हेतु होने से तप को भी निर्जरा कहते हैं। भव कोडी संचीयं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ। अत: छह प्रकार की आन्तरिक तथा छह प्रकार की बाहरी निर्जरा का इसमें विवेचन किया गया है।कर्मों की क्रमिक विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने की क्रिया का नाम गुणस्थानों का भी इसमें विवेचन किया गया है। पंचम अध्याय में ज्ञान मीमांसा का आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। जैनागमों के अनुसार— जीव ज्ञान जल का पान कर मुक्ति मंदिर को प्राप्त होते हैं। जो जानता है, वह ज्ञान है, जिससे द्वारा जाना जाए, सो ज्ञान है, जानना मात्र ज्ञान है।
ज्ञान दो प्रकार का है—
१. प्रत्यक्ष
२. परोक्ष।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष है। अवधि , मन:पर्याय और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष हैं ।इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले बोध को मति ज्ञान कहते हैं।
मतिज्ञान के दो भेद हैं—
१. श्रुत निश्रित
२. अश्रुतनिश्रित ।
अश्रुतनिश्रित में चार प्रकार की बुद्धियों का विवेचन है-
१. औत्पातिकी
२. वैनयिकी
३. कार्मिकी
४. पारिणामिकी।
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान चार प्रकार का है—
१.अवग्रह,
२. ईहा,
३. अवाय
४. धारणा।
मति, संज्ञा, (प्रत्यमिज्ञान) चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं। मनोविज्ञान में स्मृति ) तथा जैन दर्शन के मतिज्ञान में बहुत अंशों में समय है।
मनोविज्ञान के स्मृति के अंगों —
१. याद करना
२. धारण
३. पुनस्र्मरण
४. पहचान की तुलना
मतिज्ञान के भेदों—
१. अवग्रह,
२. ईहा,
३. आवाय
४. धारणा से की जा सकती है।
अवधिज्ञान को परामनोविज्ञान की भाषा में टेलीपैथी से उपमित किया जा सकता है। मन:पर्याय ज्ञान की अतीन्द्रिय ज्ञान से तुलना की जा सकती है। केवल ज्ञान की अवधारणा जैन दर्शन में मनोविज्ञान के क्षेत्र से भी अनुपम है। षष्ठम अध्याय ‘भाव—जगत—आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में’ है।
भगवान् महावीर ने कहा है—‘रागो य दोषो वि य कम्मबीयं’ राग और द्वेष, ये दोनों कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म जन्म मरण का मूल है। जन्म—मरण से दुख होता है ।
यहां भाव जगत अर्थात् मोहकर्म — (राग और द्वेष) का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया है। प्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को राग कहते हैं और अप्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को द्वेष कहते हैं। उमास्वाति के अनुसार इच्छा,मूच्र्छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्दन, प्रसन्नता और अभिलाषा रा ने अपनी रचना Psychology- A study of Mental life, Feeling and Emotion (झ्.३३४) में सुख (राग) और दु:ख (द्वेष) आदि
भावों का इसी प्रकार का वर्गीकरण किया है—Pleasure: Happiness, joy, delight, elation, rapture, Displeasure: Discontent, grief, sadness, sorrow, rejection.
इन पर्यायवाची शब्दों के जैन दर्शन और मनोविज्ञान के राग—द्बेष के पर्यायवाची शब्दों में बड़ा भारी साम्य है। धवला में बताया गया है कि मोह कर्म राग के अन्तर्गत माया, लोभ, स्त्री वेद, पुरूष वेद, नपुंसकवेद, हास्य और रति हैं, इनका नाम राग हैं। इसके विपरीतक्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगप्सा ये छह कषाय द्वेष रूप है। मैकडूगल की १४ मूल प्रवृत्तियों तथा मोहकर्म की प्रवृत्तियों में बड़ी भारी समानता है। मनोविज्ञान की चार पद्धतियों १.अवदमन ,विलयन , मार्गान्तीकरणतथा शोधन द्वारा इन वृत्तियों (मोहनीय—प्रकृत्तियों) का रूपान्तरण संभव है। सप्तम अध्याय ‘‘शरीर संरचना— आधुनिक शरीर, विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में‘‘ सर्वथा नयी दृष्टि डाली गई है।
भगवान् महावीर ने कहा है—‘‘आयुष्मान्! इस संसार रूपी सागर के दूसरे पार जाने के लिये यह शरीर नौका है जिसमें बैठ कर आत्मा रूपी नाविक समुद्र पार करता है। ‘‘ जो उत्पत्ति के समय से लेकर प्रतिक्षण जीर्ण—शीर्ण होता रहता है , जिसके द्वारा भौतिक सुख—दुख का अनुभव होता रहता है , जो शरीर नामकरण के उदय से उत्पन्न होता है, उसे शरीर कहते हैं ।
शरीर पांच प्रकार के हैं—
१. औदारिक ,
२. वैक्रियक,
३.आहारक,
४. तैजस
५. कार्मण।
शरीर संस्थान छह हैं—
१. समचतुरस्र,
२. न्योग्र—परिमंडल,
३.सादि (स्वाति),
४.कब्ज,
५. वामन
६. हुंडक।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक६९ शेल्डन के अध्ययन के अनुसार शरीरों का वर्गीकरण तीन प्रकार का है—
१.कोमल—गोलाकार ,
२. आयताकार
३. लम्बाकार ।
७० के अनुसार शारीरिक वर्गीकरण इस प्रकार है—
१. सुडौलकाय
२. लंबकाय
३. गोलकाय
४. डायसप्लास्टिक
संहनन नाम कर्म के अन्तर्गत हड्डियों का वर्गीकरण शरीर मनोवैज्ञानिकों के संधियों के भेद—
१. सूत्र सन्धि
२. उपास्थि
३.स्नेहक सन्धि आदि से तुलनीय है।
पर्याप्ति नाम कर्म के अन्तर्गत—
१. आहार,
२. शरीर,
३. इन्द्रिय,
४. श्वासोच्छवास,
५. भाषा
६. मन।
७४ पर्याप्ति की तुलना आधुनिक आयुर्वेद—शरीर विज्ञान में गर्भ—विज्ञान के साथ विस्तार से की जा सकती है। अष्टम अध्याय में उपसंहार के अन्तर्गत भारतीय दर्शन में कर्म— सिद्धान्त के अन्तर्गत कर्म—बन्धन के कारणों की विवेचना की गई है तथा विस्तार से कर्मों से विषय में ज्ञान—प्राप्ति के लिये कर्मों की अवस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। ज्ञान — मीमांसा, भाव—जगत् तथा शरीर संरचना का मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार से अध्ययन प्रस्तुत किया गया है कि सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के मनन पूर्वक अध्ययन और अभ्यास से तथा संक्रमण करण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्तित्व का रूपान्तरण करते हुए आत्म विकास के परम पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। यही जीवन का चरम उद्देश्य है।
संदर्भ स्थल
१. कर्म विज्ञान, आचार्य देवेन्द्र मुनि, श्री गुरु तारक ग्रन्थालय, उदयपुर, प्रथम संस्करण, प्रथम भाग, पृष्ठ ३५५
२. ब्रह्मसूत्र, शंकर भाष्य, २.१.१४, क, न्याय भाष्य, १.१.२, ख, न्याय सूत्र, १.११७
३. क, योगदर्शन (व्यास भाष्य) १.५.२.१२; २.१३.२.३. ख, योग दर्शन भास्वती तथा तत्त्व वैशारदी
८. उत्तरज्झयणाणि, भाग—१, सानुवाद, वाचना प्रमुख—आचार्य तुलसी, सं.— आचार्य महाप्रज्ञ, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, १९६७, १३.२३
न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ।
न मित्त वग्गा न सुया न बन्धवा।
रूपको समं पच्चुणुहोई दुक्खं,
कत्तारमेवं अणुजाइ कामं।।
९. दशाश्रुत स्कन्ध— पन्यास श्री मणिविजयजी गणि, ग्रंथमाला, भावनगर, सं. २०११
सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णाफला भवंति।
दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवंति।।
१०. मनुस्मृति, सं. नारायण राम आचार्य , निर्णयसागर प्रेम, बम्बई, १९४६,१२.३
शुभाशुभ फलं कर्म, मनोवाग् देह सम्भवम् ।
कर्मजा गतयो नृणामुत्तमाधमध्यमा:।।
११. विष्णु पुराण, गीता प्रेस,गोरखपुर, २,१३.९७:
पुमान् देवों न नरो पशुर्न च पादप:,
शरीर कृति भेदास्तु भूपैते कर्म योनय:।।
१२. भारतीय धर्मों मां कर्मवाद, भारतीय प्राच्य तत्व प्रकान समिति, पिंडवाड़ा(राज.) मिलिन्द पञ्हो, विभत्तिच्छेद पञ्हो, पृष्ठ—६८
थेरो आह एवमे व खो महाराज कम्मानं नाना कारणेन मनुस्सा न सव्वे समका —
अज्जे अप्पायुका, अज्जे दीघायुका…..।
१३. भगवई (भगवती सूत्र), सं.— आचार्य श्री महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती, लाडनूं, वि.सं.२०३९. १२.५ —
कम्मओणं भंते जीवे नो अकम्मओ विभत्ति भावं परिणमई
कम्मओणं जअे णो अकम्मओ विभत्ति भावं परिणमई।।
१४. शिक्षा और म्नाोविज्ञान, डॉ. सरयू प्रसाद चौबे,पृष्ठ १६० (१९६०) भिन्न का नियम १५. वही , पृष्ठ १६१, १६. वही, पृष्ठ १६१ १७. कर्मवाद, आचार्य महाप्रज्ञ, पृष्ठ १३७.
१८. वही— कर्म बनाम जीन——अतीत को पढ़ो, भविष्य को देखो! १९. भगवर्ड , ७.८,
जम्हा जीवेति, जीवत्तं , आउयं,
च कम्मं उपजीवति तम्हा जीवे त्तिवत्तव्वं सिया
२०. समवाओ, सं.—आचार्य श्री महाप्रज्ञ, जैन विश्व भारती,लाडनूं, १९८४,८४.१४
चौरासीइं जोनिप्पमुहसय सहस्सा पण्णत्ता
२१. (क) तत्त्वार्थाधिमगसूत्र भाष्य ८.५, वाचक उमास्वाति, विवेचक—पं. सुखलालजी, सं.—पं. दलसुखालवणिया, जैन संस्कृति संशोधन मंडल, वाराणसी, १९५२
३५. सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यानपु्द्गलानदत्ते, स बन्ध:।
तत्त्वार्थ सूत्र, ८.२ ३६. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, सं. —मोहनलाल मेहता एवं एच.आर. कापडिया, भाग —४ पृष्ठ १३, (कर्म साहित्य व आगमिक प्रकरण), पाश्र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, १९६८
३७. (क) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग १, पृष्ठ ३६३
(ख) सर्वाथसिद्धि २.१.१४८.८
द्रव्यादिनिमित्तवशात् कर्मणां फल प्राप्तिरूदय:।
३८. (क) धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग पांच), भारत रत्न डॉ. पांडुरंग काणे, पृ. ३७०
‘संचितं चीयमानं च प्रारब्धं कर्म तत्फलम् ,’
क्रमेणवृत्तिरेतेषां पूर्वं बलवतोऽपिवा ।’
(ख) जैन धर्म और दर्शन, आचार्य महाप्रज्ञ , पृष्ठ २६५
३९.
(क) कम्मपदेस टिठदि वणु मुक्कड्डणा,
धवला—१०.४.४,२१—२२:
(ख) गोम्मटसार कर्मकांड, जीव तत्वं प्रदीपिका, टीका स्थित्युनभागयोवृद्धि उत्कषर्णम् ।
४०.स्थित्युनागयोर्हानिरपकर्षणठ णाम, गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीव तत्व प्रदीपिका
५८. प्रशमरति,उमास्वाति, श्री निर्गन्थ प्रकाशन संघ, दिल्ली, वि.सं.२०२६, १८
इच्छा मूच्र्छा काम स्नेहो गाध्र्यं ममत्वाभिनन्द:।
अभिलाष इत्यनेकानि राग पर्यायवचनानि।।
५९. वही—१९
ईष्र्या रोषो दोषो द्वेष: मत्सरासूया: ।
वैर प्रचण्डनाद्या नैके द्वेषस्य पर्याया।।
६०. Psychology—A study of Mental life feeling and Emotion
Robest S. Wood worth, Donald, G. Marquis Me thuen & Co.London Misth, amusement, hilarity, excitement agitation calm-contentment numliness,apathy, weariness,Expectency- Eagernees, hope, assurance, CourageDoubt- Shyness, embarrasment, anxiety, worry,Dread- Fear fright, terror,horror, Surprise- Amazement,wonder, relief, disappintment.Aversion- Disgust, Loathing,hate Anger- Resentment, indignation, pullenness, rage, fray.The first word in each class is intended to give the keynote of the class. Other classification could be made broader or narrower. Two broad classes pleasent and unpleasent would include most the feelings.
६१. (क) धवला १२.४, २.४, ८.२,८.३.८:
माया लोभ वेद त्रय हास्यरतयो राग:
(ख) समवाओ. ५२
६२. (क) धवला १२.४, २.४, ८.२,८३..८:
(ख) समवाओ. ५२ ६३.
Mc Dougall (Psychologist) :-Instinct Emotion
1. Escape fear
2. Combet, pugnacuty Anger
3. Curiousity Wonder
4. Food seeking Appetite
5. Parental Tender emotion
6. Social Instinct Loneliness
7. Repulsion Disgust
8. Sex, Mating Lust
9. Self- assertion Positive self feeling
10.Submission Negative self feeling
11. Acquisition Feeling of ownership
12. Construction Feeling of Construction
13. Appeal Feeling of appealing
14. Laughter Laughing feeling
६४. मनोविज्ञान और शिक्षा, पृष्ठ १८५
६५. उत्तराध्ययन (उत्तरज्झयणाणि) २३.७३:
शरीर माहु नाव त्ति जीवो वुच्चइ नाविओ।
संसारो अण्णावो वुत्तो जं तरंति महेसिणो।।
६६. सर्वार्थसिद्धि ९.३६.१९१.४:
विशिष्ट नाम कर्मोदयापादि वृत्तीनि शीर्यन्ते इति शरीराणि