धर्म और विज्ञान परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं।प्रकृति के रहस्यों को जानने एवं ज्ञान के विकास में दोनों की महती भूमिका है। जैनाचार्यों ने गणित, भौतिकी, जैविकी आदि अनेक क्षेत्रों में में अनेक मौलिक प्रतिस्थापनायें की है जो विज्ञानियों को अनेक सदियों बाद समझ में आई। वर्तमान में विज्ञान द्वारा उद्घाटित अनेक तथ्य, विशेषत: भूगोल एवं खगोल के सम्बन्धों में जिनागम प्रणीत संकल्पनाओं से मेल नहीं खाती हैं। इस सन्दर्भ में सुशिक्षित युवा पीढ़ी जिनागम की सम्बद्ध मान्यताओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है। उनका यह कृत्य क्या सम्यग्दर्शन के विपरीत है? क्या वर्तमान में उपलब्ध सम्पूर्ण जैन साहित्य सर्वज्ञ प्रणीत है? क्या उनमें विरोधाभास नहीं है? ऐसी स्थिति में आधुनिक संसाधनों द्वारा अविष्कृत नवीन तथ्यों को स्वीकार करने पर सम्यग्दर्शन बाधित नहीं होना चाहिए (?) एवं ऐसा करने से उच्चशिक्षित युवा पीढ़ी की धर्म के प्रति आस्था बढ़ेगी। मेरे सेवा काल में भारत दौरे पर जाने का अवसर प्राप्त हुआ । जहाँ-जहाँ में जाता हूँ, आपने सहधर्मी श्रावकों से मिलने का प्रयास करता हूँ। सब जगह मेरे जैसे वृद्ध पीढ़ी के प्रौढ़ व्यक्तियों की एक शिकायत सामने आयी के युवा पीढ़ी में धर्म के प्रति प्रेम और निष्ठा कम हो रही है, जब-जब युवाओं से मिलता था तो इस धारणा के बारे उनका दृष्टिकोण जानने का प्रयास करता। ऐसे ही एक बार अलीगढ़ के एक जैन युवक से मेरी बात हुई। उन्होंने कहा कि वे एक वैज्ञानिक हैं और बहुत ही र्धािमक परिवार से हैं अत: कृपया मेरी जिज्ञासा शान्त करें। हमारे सभी पंडित, विद्ध ञ्जन, आचार्य, मुनि आदि जब विज्ञान के सभी संसाधनों का उपयोग करते हैं (जैसे-मोबाइल, टीवी, रेडियो, लेपटॉप, फोन, यातायात के साधन आदि), तो भी विज्ञान के इन चमत्कारों को स्वीकार नहीं करते। उन सभी का कहना है कि जिस चंद्रमा की ओर अभी-अभी का भारत का यान गया, या पहले दूसरे देशों के यान गये, या जिस पर नील आर्मस्ट्रांग ने १९७४ में पदार्पण किया, वह हमारे शास्त्रों में वर्णित चंद्रमा नहीं। हमारे आगमों का चंद्रमा तो पृथ्वी से (जंबूद्वीप से) ८८० योजन (५६३२००० कि.मी.) उंचाई पर, मेरूदंड से ६११५ योजन (३९१३६००० कि.मी.) दूरी से मेरू की प्रदक्षिणा करता है। यह चंद्रदेव का विमान अर्धकविठ के आकार का है, जिसका व्यास ५६/६१ योजन (५८७५ कि.मी) हैं। हमारे आगमों का सूर्य तो आकार में चंद्र से छोटा (व्यास ४८/६१ यो.५०३६ कि.मी.) और चंद्र की तुलना में पृथ्वी से नजदीक (ऊँचाई ८०० यो. ५१२०००० कि.मी.) और हमारे आगम के अनुसार तो मेरु की प्रदक्षिणा दो चंद्र और दो सूर्य करते है। इस युवक ने आगे बताया कि जब उसने एक पंडितजी सें प्रतिवाद करने की कोशिश की कि हमारे पास आकाश से खींचे पृथ्वी के छायाचित्र है जिससे यह साबित होता है कि पृथ्वी आगम में वर्णित थाली के आकार की है उसका वयास आगम के जंबूद्वीप से ५०००० गुना कम है, चंद्र पृथ्वी के सबसे नजदीक है। और सूरज उससे लगभग ४००० गुना दूरी पर है और वह पृथ्वी तथा चंद्र से कई लाख गुना आकार में बड़ा है, तो वे बड़े क्रोधित हुए और कहने लगे कि तुम मिथ्यात्वी हो, आगम प्रणीत कथन का विरोध करते हो और निश्चित ही नरकगामी हो । उस वक्त से, उसने किसी से भी इन बातों पर चर्चा करना बंद किया।
ऊपर की घटना पर जब मैं विचार करता हूं
तो तुझे लगता है कि इसी कारण से युवा जनों की धर्म पर श्रद्धा कम होती जा रही है। सम्यग्दर्शन का मतलब केवल शास्त्रों में जो लिखा है उसे निरपवाद रुप से स्वीकार करे इस हद तब सीमित नहीं करना चाहिए। सम्यग्दर्शन का सही अर्थ तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिंतवन करना, कषायों को मंद, मंदतर, मदंतम करते जाना ऐसा लेना चाहिए। उदाहरण के तौर पर इस परिधि/ व्यास इस अनुपात का मान देखना। सभी आगम ग्रंथो में तथा तिलोयपण्णत्ति, गोम्मटसार आदि ग्रंथों में इसे १० ३.१६ बताया है, जबकि उसका अधिक सही मान २२/७ ३.१४ है या इससे भी सही मान वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में ३५५/११३ ३.१४१५९…दिया है। इसके ऊपर आगमों में दिये मान पर अड़े रहना यथार्थ नहीं होगा। तो समय आ गया है कि हम धर्म और विज्ञान के बीच की लक्ष्मण-रेखा तय करे। धर्म का विषय तत्वज्ञान, आचरण, आत्मोन्नति इत्यादि होना तो नि:सन्देह ही हैं, लेकिन उसका क्षेत्र भौतिकी, रसायन वैद्यक, जीवविज्ञान, भूगोल इत्यादि नहीं यह स्वीकार करे तो ही हम युवा पीढ़ी को धर्म की तरफ सक्रियत: अभिमुख कर सवेंगे। इसका मतलब यह नहीं के इन भौतिकादि क्षेत्रों में जैनाचार्यों के योगदान का मूल्यांकन कम करना। १५०० से २५०० वर्ष पूर्व जब निरीक्षण के संसाधन आज की तुलना में नहीं के समान थे, हमारे आचार्यों ने विश्व के सभी पहलुओं पर गहरा चिंतन किया। लगभग २५०० वर्ष पूर्व का मान १० निश्चित करना यह एक बड़ी उपलब्धि माननी पड़ेगी।उत्तरवर्ती आचार्यो द्वारा १० ३.१६२२७६६०१७५…इस तरह १० दशमलव स्थान तक सही किमत निकालना और भी बड़ी उपलब्धि मान सकते हैं। (देखिए अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र २३४) संख्याएं लिखने की दशमान-पद्वति और उसका गणितीय प्रक्रियात्मक विकास तथा संख्या लेखन में शून्य का स्थानीय-मूल्य जैसा उपयोग यह भी जैनाचार्य की ही देन होनी चाहिए इसके स्पष्ट संकेत मिलते हैं। विकल्प (permvtions) और भंग (Combintations), का गहरा विचार भगवतीसूत्र जैसे अति-प्रचीन आगम में तथा परवर्ती गंरथों में बहुत ही विस्तार से हुआ है। इतना ही नहीं बल्कि अत्याधुनिक गणित के अतिजटिल सिद्धांत (Partition theory) पर भी भगवती सूत्र में विचार हुआ है इससे अद्भुत बात और क्या हो सकती है? वीरसेन स्मावी (ईसा की ९वीं सदी) द्वारा वृत्तीय शंवू के आकार वाले लोक का घनफल निकालने की पद्वति हमें युडोक्सस और आर्विमिदीज के ऊद्वार पद्धति (Method Exhausition) की याद दिलाती हे पारकल्स (Pascats) त्रिकोण नाम से प्रसिद्ध द्विपद गुणांक ”
(Binonivel coeficients) का निर्देश पास्कल्स से लगभग
५०० साल पूर्व जैनाचार्यों ने मेरू प्रस्तर के तौर पर किया था। वीरसेन स्वामी द्वारा वर्गणा, स्पर्धक, अविभाग प्रतिच्छेद, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान स्थितिबंधाध्यवसायस्थान, योगस्थान आदि के विवरण में हमें कलन सिद्धान्त (Calculus) की झलक मिलती है। कांडकप्ररुपणा तथा वृद्धि-हानिप्ररुपणा में नप केवल उन्होंने द्विपद गुणांको का निर्धारण किया है बल्कि स् , स् और स् का सन्निकट निर्धारण करने में सफल हुए है। कर्म सिद्धान्त के विकास करते जैनचार्यों ने विशालकाय संख्याओें के परिमाण के लिए उपमामान पद्धति का अवलंब किया और अनंत की परिकल्पना के विकास का एक जबरदस्त प्रयास और साहस किया। अनुयोगद्वार सूत्र मे तथा सर्वनंदि (ईसा की ५वीं सदी), जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (ईसा की ६ठी सदी),वीरसेन (ईसा की ९ वीं सदी) नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती, केश्ववर्णी, मलयगिरि, अभयदेव (ईसा की ११वीं सदी) आदि द्वारा अनंत की संकल्पना का जो विकास हुआ जिसका बहुत कुछ साम्य १९वीं सदी के प्रसिद्ध गणितज्ञ केन्टर के अपिमेय संख्याओं (Transfinite numbers) के सिद्धांत से है। बीज गणित की शुरुआत का प्रथम प्रयास शायद जैनाचार्यों द्वारा ही हुआ। वक्षाली हस्तलिपि (ईसा की ४थी सदी) मे और तियोपण्णत्ती में बीजीय संज्ञाओं का प्रचुरता से उपयोग हुआ है। केशववर्णी की गोम्मटसार की टीका में वह चरमसीमा तक पहुँच गया है।वीरसेन और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा लॉगरिथ्म (संख्या २ पर आधारित) के नियमों का निर्धारण इतना ही प्रगत था जितना आधुनिक गणित का।
केवल गणित के ही क्षेत्र में नहीं
लेकिन विज्ञान, साहित्य, तर्व तथा न्याय के क्षेत्र में भी जैन आचार्यों ने बड़ा योगदान दिया है। सर्वार्थसिद्धकार पूज्यपाद न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र के एक श्रेष्ठ विभूति थे, बल्कि एक उच्च कोटी के रसायन शास्त्रज्ञ, वैद्य, तार्विक तथा कवि थे। भट्टाकलंकदेव एक प्रकांड पंडित के बावजूद एक भौतिक विज्ञानी थे जिनका कण-विज्ञान में योगदान बड़ा महत्वपूर्ण रहा। वनस्पति सजीव है इस बात इजाद होने में दुनिया को २०वीं सदी तक रुकना पड़ा, जब प्रो.जगदीशचंद्र बोस ने इसे प्रमाण सिद्ध किया। लेकिन २५०० साल पूर्व से, शायद उससे भी कई सदियों पूर्व के, जैन मनीषियो ने उच्च रवसे बताया था कि वनस्पति एक प्रत्येक शरीर होते हुए भी अनंतानंत जीवों को आधार देने वाले समूह-पिंड है। इतना ही नहीं परन्तु पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के समूह-पिंड भी जीव-युक्त होते है यह भी बताया। (आज वैज्ञानिक मानते है कि कुछ खास जाति के विषाणु (becteria) २५० सेल्सियस तापमान में भी जीवित रह सकते है)। सजीव सृष्टि के कुल, जाति और उनके ८४ लक्ष योनियों के बारे में तथा सूक्ष्माति सूक्ष्म निगोद जीवों का सविस्तृत विवरण जो जैन शास्त्रों में आया है उस पर बहुत अनुसंधान होने की जरूरत है। आधुनिक विज्ञान में पदार्थों के अंतरंग में जाने का प्रयास अणु से शुरू होकर मूलकण (Fundamental particles) द्वारा तंतु तक आ पहुँचा है। लेकिन जैनाचार्यों का परमाणु तो इतना सूक्ष्म है कि उसके सामने आज का सूक्ष्म तंत्र तंतु भी आधुनिक विज्ञान के अणु की तुलना में समुचा विश्व जितना बड़ा है उससे असंख्यात गुणा बड़ा है। शास्त्रों में पुदगल वर्णणाओं का जो वर्णन है वह आधुनिक गणितीय सूक्ष्मानंत (infinitesinek) से मिलता-जुलता है।
इन सब बातों के बावजूद हमें कबूल करना होगा
कि शास्त्रों में वर्णित सभी बाते सौ फीसदी सच हे ऐसा आग्रह करना बराबर नहीं होगा। जैनागम के एक आधुनिक युवा पंडित से मेरी हाल ही में चर्चा हुई। उन्होंने एक नया विचार पेश किया।उनके अनुसार धर्म का विषय अध्यात्म, आत्मा, चारित्र, कर्म, बंध, तप, निर्जरा, मोक्ष आदि से है। जबकि विज्ञान का विषय बाहरी जगत, पुदगल, पंचास्तिकाय, विश्व का उद्गम और विनाश आदि है। एक बार अध्यात्मिक क्षेत्र में जैनाचार्यों का अधिकार मान ले, परन्तु विज्ञान के क्षेत्र में उनकी जो धारणायें है वे केवल निरीक्षण और चिंतन पर आधारित थी और उसे प्रयोग का आधार नहीं था इसलिये उसे परम सत्य मानना जरूरी नहीं है। भौतिक ज्ञान की कक्षायें दिन प्रति दिन बढ़ रही है और निरीक्षण, सिद्धान्त और प्रयोग पर आधारित होने के कारण उसे ज्यादा प्रामाणिक मानना पड़ेगा। जब मैंने इन पंडितजी को बताया कि इससे सर्वज्ञ प्रणीत वचन से विरोध आने की संभावना है, तो उन्होंने बताया कि आज उपलब्ध कोई भी ग्रंथ या रचना सीधे सर्वज्ञ द्वारा रचित मानना बराबर नहीं होगा। ये सभी ग्रंथ परवर्ती आचार्यों की कृतियां है। आगम-तुल्य कषायपाहुड तथा षट्खंडागम ये रचनायें भी भगवान महावीर के ७०० से भी ज्यादा वर्षों के बाद की है। श् वेतांबर पंथ के आगम भी ईसा की ५वीं सदी में संपादित ग्रंथ है। मुझे भी पंडितजी का यह युक्तिवाद अधिक तर्वसंगत लगता है। इससे मनोरंजक किस्सा हे एक जयपुरवादी पंडितजी का। आप मान्यवर आय. आय. टी. के स्नातक, विदेश में सेवाकाल बिताकर भारत लौटने पर ३१ साल की उम्र में जैन धर्म के प्रचार में अपने को झोंक दिया है। आपसे जब जैन भूगोल और ज्यातिष के बारे में बात करने का अवसर प्राप्त हुआ तो आपने एक पूर्णत: नया सिद्धांत प्रस्तुत किया। आपके अनुसार जैन भूगोल में दिये हुए भारतवर्ष, अन्य क्षेत्र, वर्षधर,द्धीप, सागर आदि के नाप और आज के उनके परिमाण में जमीन और आसमान का अंतर है उसका कारण इस अवसर्पिणी काल में जिस तरह मनुष्य, तिर्यंच आदि की अवगाहना कम हो रही है उसी तरह द्वीप, समुद्रादि के परिमाण भी संकोच पा रहे है। तो मैने पूछा फिर मेरू पर्वत कहां चला गया? आगमों में तथा शास्त्रों में बताया है कि यह लोक अनादि निधन तथा अंनतकाल तक एक ही स्थिति में अवस्थित है और उसके परिणामों में कोई भी वदलाव नहीं आ सकता।और क्या यह द्वीप, समुद्रादि के संकोच विस्तार की बात क्या सर्वज्ञ के वचन के विरोधी नहीं है? उन्होंने झट से प्रतिवाद किया कि कौन सा आगम? क्या है सर्वज्ञ प्रणीत? अभी जो ग्रंथ उपलब्ध है वे तो भ. महावीर के परवर्ती आचार्यों द्वारा लिखित है। मेरे छोटे भाई जो साथ थे उन्होंने पूछा कि पंडितजी फिर आप प्रवचन किस आधार से करते हो? आप ही कहते हो कि सर्वज्ञ वचन अब अनुपलब्ध है। युवा पंडित के पास इसका कोई जबाब नहीं था। लेकिन इससे एक बड़ी समस्या पैदा होती है जिसका प्रमाणिक जवाब हमारे समस्त पंडित वर्ग और मुनिगण को देना पडेगा। उपरोक्त संवाद से ये प्रश्न उपस्थित होते है: सर्वज्ञ प्रणीत किसे कहा जाय? क्या विद्यमान आगम तथा आचार्य प्रणीत ग्रंथों में जो लिखा है वह सभी का सर्वज्ञ वचनरूप मान सकते है? अगर ऐसा माना भी जाय तो विविध आचार्यों में कई बातों में इतनी मतभिन्नता क्यों? क्या भूवेंद्रित व्यवस्था (मेरु और जंबूद्वीप को केन्द्र स्थान में और समस्त ज्योतिष लोक का उसके इर्दगिर्द परिभ्रमण) में विश्वास न करना सम्यग्दर्शन की विराधना होगी और मिथ्यात्व का द्योतक होगा ?सम्यग्दर्शन और मिथ्यात्व की सही व्याख्या क्या होनी चाहिये? मेरा सभी विद्धानों से अनुरोध हे कि वे इन प्रश्नों का विश्वासपूर्ण समाधान करे।
एक जैन विदुषी से मैं जब तीर्थंकरों के
अतिशश्यों के बारे में बात कर रहा था तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण मुद्दा उपस्थित किया। बौद्ध साहित्य में भगवान महावीर के बारे में सर्वज्ञ, तीर्थंकर आदि प्रशंसोदगार पाये जाते है। इस हालत में जब भगवान का समवशरण होता था जिसमें स्वर्ग से इंद्रादि देव, मनुष्य, हिंस्त्र तथा दीन पशु आते थे, भगवान अधर गमन करते थे, वे आहार और पान के बिना १३ साल रहे, तो इन गरिमापूर्ण अतिशयों का बौद्ध तथा अन्य र्धािमक साहित्य में थोड़ा तो चिक्र होना था। एक मनीषी ने इसका स्पष्टीकरण देते बताया है कि कुछ बौद्ध गंरथों में भ. महावीर को इंद्रजाल जादू करने में निष्णात कहा है वह इन विभूतियों के कारण ही । परन्तु, यह खुलासा तर्व संगत नहीं लगता। इस विदुषी ने आगे बताया सुविज्ञ युवाजन प्राय: निम्न प्रश्न धर्म के बारे में पूछते है। हमें (पूर्व जन्म) का जातिस्मरण क्यों नहीं होता ? मोक्षगमन वर्तमान में क्यो शक्य नहीं है? हम विदेह क्षेत्र क्यों नहीं जा सकते ? हमारी विपदाओं में देव हमारी सहायतार्थ क्यों नहीं आते? देव मनुष्यों का हरण कर उन्हें मानुषोत्तर पर्वत के पार ले जाने का एक भी उदाहरण क्यों दिखाई नहीं देता ? हमें मेरु पर्वत दिखाई क्यो नहीं देता ? इन सभी का हमारे धर्मविदों के पास एक ही उत्तर है, ये सभी बातें इस पंचम दुषमा काल में संभव नहीं है। लेकिन आधुनिक युवाजन इस पर विश्वास करने को कतई तैयार नहीं। वे तो कहते हैं चूंकि आप ये बाते सिद्ध नहीं कर सकते अत: आपका यह केवल युक्तिवाद मात्र है। क्या हम इन बातों को धर्म से अलग नहीं कर सवेंगे ? क्या हम धर्म को तत्त्वज्ञान, नीति और आचरण तक ही क्यों ना सीमित रक्खें ? एक प्रतिभाशाली और उदारमनस्क मुनि महाराज से जब इस बारे में मेरी बात हुई तो उन्होंने एक नया ही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। आपने कहा कि हमारे आचार्य जो वीतरागी है, जिन्हें न किसी लाभ की अपेक्षा है न किसी का डर है, जो सत्य महाव्रत का पालन करते है, वे भला क्यों स्वर्ग, नरक, नंदीश्वरद्वीप, स्वयंभूरपण समुद्र, तमस्काय, पाताल कुंभ, भवनवासी-व्यतंर-ज्योतिष्क देव, तिमिस्र गुंफा इत्यादि बाते, जिन्हें आप मनगढ़त समझते हो करेंगे। इस प्रतिसवाल का हमारे पास भी कोई जवाब नहीं था। और एक मुनिवर्य के मतानुसार बहुत से प्रतिभाशाली तथा दिग्गज आचार्य ब्राम्हण कुल के थे तो उन्होंने जैन दर्शन को उत्तुंग स्तर पर ले जाते हुए पौराणिक अतिरंजित तथा अतिश्योक्तापूर्ण वर्णन की प्रथा भी जैन दर्शन तथा साहित्य में लाई। यह आरोप भी आ.समंतभद्र, पूज्यपाद, अकलंक आदि का उदाहरण देखते उचित प्रतीत नहीं होता।
सुविज्ञ युवकों की सबसे ज्यादा
आपत्ति सर्वज्ञता के संकल्पना के बारे में है। सर्वज्ञता की व्याख्या विश्व के समस्त पदार्थों के अतीत, वर्तमान और अनागत सभी अनंतानंत पर्यायों को ‘‘युगपत’’ जानना ऐसी की गई हैं। इसके लिये दर्पण की उपमा दी जाती है। जिस तरह दर्पण में समस्त पदार्थ प्रतिबिंबित होते है उसी तरह केवली या सिद्ध के ज्ञान में अनंतानंत पर्यायें झलकती हैं। दर्पण में तो प्रतिक्षण की प्रतिमायें बिबित होती है। यह कहना कि अनंतानंत अतीत, अनंतानंत अनागत काल के अनंतानंत समयों के, अनंतानंत जीवों और अनंतानंत पुदगलों के अनंतानंत पर्यायें एक साथ झलकती है बुद्धिगम्य नहीं लगता। एक जैन मूर्धन्य पंडिता से मेरी बात हुई। उनका कहना है कि ’’युगपत’’ सिद्धांत बड़ा खतरनाक साबित हो सकता है। जब कि सिद्ध या केवली के ज्ञान में भविष्य की भी सभी द्यटनाये सतत् झलकती रहती है, वह घटनायें होने ही वाली है,भले आप कितना ही तप करे, पुण्योपार्जन करे अथवा पुरुषार्थ करे। इस युगपत सिद्धान्त से धर्माचरण में शिथिलता आने की संभावना है। फिर खूनी को सजा होना भी अप्रस्तुत होगा। इससे जैन धर्म नियतिवादी कहलाया जायेगा। भ.महावीर द्वारा उनके समकालीन कितने ही भ.पाश्र्व के अनुयायियों को और और परमतवादियों को अपने संघ में सम्मिलित आजीवक (यापनीय) संप्रदाय था। भ. महावीर के समय उनके प्रमुख आ.गोशालक थे। भ. महावीर का अनुयायित्व स्वीकार कर वे संघ में कुछ १४ साल तक रहे। लेकिन जब गणधर पद इंद्रभूति गौतम को दिया गया तो वे रुष्ट होकर संघ से बाहर होकर अपने आजीवक मत का प्रचार करने लगे, ऐसा कुछ विद्धानों का मत है। गोशालक नियतिवाद के बड़े उद्गाता थे। लगभग १००० वर्ष तक आजीवक संघ अलग रूप से अस्तित्व में होने के पुरातत्त्वीय प्रमाण मौजूद है। इसके बाद कुछ ही शताब्दियों में यह संघ दिगम्बर संघ में पूरी तरह से विलीन हुआ।
पंडिताजी की ऐसी धारणा है कि आज सर्वज्ञता के आधार पर कुछ विद्धान नियतिवाद का जो प्रचार कर रहे है वह शायद आजीवक तत्त्वज्ञान की धरोहर है। मेरे एक हिंदु तत्त्वचिंतक मित्र है जिन्हें जैन धर्म के प्रति बड़ा प्रेम है। उन्होनें जैन तत्वज्ञान का काफी अध्ययन किया है। वे हमारे मोक्ष, निर्वाण और सिद्धत्व की कल्पना पर निम्न आपत्ति पेश करते है। सिद्ध भगवान संसार के चक्र से मुक्त होकर अंनतानंत अनागत कालतक सिद्ध शिलापर अतीत काल के अनंतानंत सिद्धों के साथ अंनतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य और अनंतसुखयुक्त विराजमान होते हैं। लेकिन उन सिद्धों में उस ज्ञान, दर्शनादि के ‘‘उपयोग’’ का कोई प्रसंग ही नहीं आत। ‘जीवों उवोगमओ’ इस व्याख्या अनुसार जीव का लक्षण उपयोगमयता होने से और सिद्ध भगवान तो उपयोग-विरहीत होने से सिद्ध और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। मेरे इस मित्र का कहना है कि सिद्ध शिला पर अनंतानंत काल तक अटके रहने से वह ज्यादा से ज्यादा पुण्योपार्जन कर मनुष्य जन्म में उच्च गोत्र प्राप्त कर या स्वर्ग में उत्पन्न हो सुखमय जीवन व्यतीत करना पंसद करेगा। भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ.राधाकृष्णन को शायद इसी कारण से जैन धर्म की निर्वाण की संकल्पना बड़ी भयावह है ऐसा वे अपनी History of India Priosophy किताब में लिखते है।
ऊपर जो कुछ लिखा है
ऊपर जो कुछ लिखा है वह लेखक का निजी दृष्टिकोण है ऐसा नहीं समझना। ये बातें जैन समाज के विविध स्तरों में सभी उम्र के लोगों के साथ चर्चा करके सामने आयी। अगर हमें नये पीढ़ी को धर्मोन्मुख करना हो तो धर्म और विज्ञान का समन्वय करना आवश्यक होगा। विज्ञान का संबंध परोक्ष ज्ञान से है और धर्म का प्रत्यक्षज्ञान से और उनके समन्वय का कोई सवाल ही नहीं ऐसा कहकर भी नहीं चलेगा। धर्म – शास्त्रों में जो कुछ लिखा है वह संपूर्ण सत्य मानना ही सम्यदर्शन है ऐसा आग्रह करना उचित नहीं होगा। प्राचीन आचार्यों में कई बातों पर मतभिन्नता थी। षटखंडागम की धवला टीका में तथा कषायपाहुड की जयधवला टीका में वीरसेन स्वामी ने ऐसे मतभिन्नता के सैकड़ो उदाहरण दिये। आचार्यों ने अपने सूक्ष्म निरीक्षण, अपार मेघा और गहरे चिंतन से इहलौकिक तथा पारलौकिक बातों में मार्गदर्शन किया है। ज्ञान का क्षेत्र जैसा बढ़ते जा रहा हे कैसे दिन ब दिन नये विचार और सिद्धांत प्रकाश में आ रहे है। केवल शास्त्रों में नही लिखा कहकर उन्हें अस्वीकार करना और उसे मिथ्यात्व कहना अंतत: अंधश्रद्धा को बढ़ावा देना होगा। सम्यग्दर्शन की नयी व्याख्या करने का समय आ गया है। विज्ञान की नयी खोजों नये विचारों तथा नये सिद्धांतों को स्वीकार कर अध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धांतों को नया रूप देने की आवश्यकता है।