१.जैन धर्म एक धार्मिक पुस्तक, शास्त्र पर निर्भर नहीं है। ‘विवेक ही धर्म है।’
२.जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति सर्वोपरि है और दर्शन मीमांसा धर्माचरण से पहले आवश्यक है।
३.देश, काल और भाव के अनुसार ज्ञान दर्शन से विवेचन कर उचित—अनुचित, अच्छे—बुरे का निर्णय करना और धर्म का रास्ता तय करना।
४. आत्मा और जीव तथा शरीर अलग—अलग हैं, आत्मा बुरे कर्मों का क्षय कर शुद्ध—बुद्ध परमात्मा स्वरूप बन सकती है।
५.जैन दर्शन में परमात्मा अकर्ता है। प्रत्येक जीव, आत्मा को कर्मफल अच्छे—बुरे स्वतंत्र रूप में भोगने पड़ते हैं। परमात्मा को, कर्मों को क्षय कर तथा आत्म स्वरूप प्राप्त करने के बाद परमात्म पद प्राप्त होता है।
६. जिनवाणी में किसी व्यक्ति की स्तुति नहीं है। बल्कि गुणों को महत्व दिया गया है जैनधर्म गुण उपासक है।
७. हमारे बाहर में कोई शत्रु नहीं है। शत्रु हमारे अंदर है। काम, क्रोध राग—द्वेष आदि शत्रु हैं। हम इन राग और द्वेष को जीत कर वीतरागी बन सकते हैं।
८.ज्ञान और दर्शन के सभी दरवाजे खुले हैं। अनेकान्तवाद के अनुसार दूसरे धर्म पन्थ भी सही हो सकते हैं। उनके साथ अस्तित्व तथा समदृष्टि रखना और समादर देना।
९. अन्य धर्मों की तुलना में जैन धर्म में अपरिग्रह पर अधिक जोर दिया है। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह और मोह आसक्ति से वर्जित है।
१०. जैन धर्म में नर और नारी को समान स्थान है। श्रावक—श्राविका, श्रमण—श्रमणिका के रूप में बराबर स्थान तथा अधिकार है।
११. जैन दर्शन, जैन धर्म, जैन आचार निवृत्ति पथगामी है। इसमें त्याग और तपस्या, अनासक्ति और अपरिग्रह को धर्म कहा है।
१२.जैन धर्म में रूढ़िवादिता नहीं है, चूँकि किसी एक गुरू, तीर्थंकर, आचार्य संत को ही सर्वोपरि नहीं माना है। समायानुसार विवेकमय बदलाव को मुख्य सिद्धांतों की अवहेलना किये बिना मान्य किया गया है।
१३.किसी तरह के प्रलोभन से जैनमत में धर्म परिवर्तन के कोई नियम नहीं हैं, स्वत: जिन धर्म संयत आचरण करने पर व्यक्ति जिनोपासक बन सकता है।
१४. जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, पृथ्वी आदि ६ प्रकार के जीवों को रक्षा का संकल्प लेना होता है तथा जीवन यापन के लिए आवश्यकता से कम, उपयुक्त साधनों का प्रयोग करना चाहिए और यत्नपूर्वक संरक्षण देना चाहिए।
१५.जैन धर्म में कोई देव भाषा नहीं है। महावीर के अनुसार जन भाषा में धार्मिक क्रियाएँ और ज्ञान प्राप्ति की जानी चाहिए। सामान्य जन भाषा महावीर के समय में प्राकृत और पाली थी, लेकिन आज ये भाषायें जन भाषायें नहीं रही। अत: अपने क्षेत्र की भाषा में चिंतन, मनन और धर्म आराधन होना चाहिए, यही महावीर का उद्घोष है। हिन्दी एवं क्षेत्रिय भाषा प्रयोग में ली जा सकती है।
१६.`थ्ग्र्न थू थ्ग्न, ‘जियो और जीन दो’, ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’, दया, जीव रक्षा और उसी के तहत जीवों के जीने में सहयोग करना बताया गया है। अहिंसा का यह व्यावहारिक रूप है।
१७.जैन धर्म के सिद्धांतों की एक के बाद एक वैज्ञानिक प्रामाणिकता है। वनस्पति में जीव और जीवाणु है। पानी, भोजन, हवा में जीव है। ये बातें वैज्ञानिक सिद्ध कर चुके हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैनाचार्य और जैनदर्शन द्वारा प्रदत्त ज्ञान सच्चा है।
१८.जैन श्रमण, साधु, साध्वी विहार भ्रमण करते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं रहते, मठ नहीं बनाते, आश्रम नहीं बनाते।
१९. जैन धर्म में गृहस्थों के लिए, श्रावक श्राविका, सन्त—साध्वी के लिए अलग—अलग आचार मर्यादायें तय की गई हैं। दिगम्बर श्रमण मुनि की क्रियाएँ सर्वोच्च और कठिन होती हैं।
२०. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ये पांच व्रत हैं। शाकाहारी भोजन हो, नशा—मुक्त जीवन हो, शिकार और जुए की मनाही, झूठ और चोरी की मनाही। व्यभिचार मुक्त जीवन जीवें।
२१.मुक्ति का मार्ग अहिंसा, तप, दान और शील के द्वारा बताया गया हैं किसी से बैर न हो। सभी प्राणियों में प्रेम हो। इन मर्यादाओं के पालन के लिए विवेक प्राप्ति हेतु ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना आवश्यक है।
२२.जैन दर्शन सत्यान्वेषी है। सत्य ही धर्म है। परिस्थिति के अनुसार विवेक से सत्य को ढूंढना और उचित अनुचित, धर्म—अधर्म, पाप—पुण्य का निर्णय करना।
२३.जैन धर्म का मूल आचार है समदृष्टि, समत्वभाव। एकान्तवाद, स्याद्वाद अिंहसा के मूल्यों को आज के युग में राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए तथा विवाद निपटाने के लिए अधिकाधिक आवश्यक हो गया है।