जैन दर्शन निवृत्ति प्रधान है। यद्यपि जैनधर्म का अपरिग्रह का आदर्श सिद्धान्त धन के महत्त्व का विरोधी है। धन—संग्रह मुक्ति में बाधक है। धन के व्यवहार से मोक्ष नहीं मिल सकता है। इसमें आत्यन्तिक सुख नहीं। पुनरपि तीर्थंकरों के जन्म पर उनकी माता द्वारा देखे गये सोलह स्वपनों में एक स्वप्न लक्ष्मीं का होता है; जो कुल में धन की वृद्धि का सूचक माना गया है। जैन र्धािमक व्यवस्था में दान का उपदेश अर्थ की महत्ता का सूचक है। इससे फलित होता है कि सामाजिक जीवन में धन के महत्त्व को जैनों ने स्वीकार किया है। जैन पौराणिक परम्परा में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को अर्थ—व्यवस्था का संस्थापक माना गया है, जिन्होंने अपने पुत्र भरत चक्रवर्ती के लिए अर्थशास्त्र का निर्माण किया था—
‘‘भरतायार्थशास्त्र च भरत च स संग्रहम्।
अध्यायैरतिविस्तीर्णै: स्फटीकृत्य जगौ गुरु:।।’’
ज्ञाताधर्मकथांग से ज्ञान होता है कि श्रेणिक राजा का पुत्र अभय कुमार अर्थशास्त्र का ज्ञाता था। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से यह जानकारी प्राप्त होती है कि भरत का सेनापति सुषेण अर्थशास्त्र व नीतिशास्त्र में चतुर था। जैनग्रंथ ‘निशीथर्चूिण’ में धन अर्जन करने की प्रक्रिया को ‘अट्ठपपत्ति’ अर्थात्
अर्थ— प्राप्ति कहा गया है। प्रश्न व्याकरण से ज्ञात होता है कि उस काल में ‘अत्थसत्थ’ अर्थात् अर्थशास्त्र विषयक ग्रंथ लिखे जाते थे। ‘बृहत्कल्पभाष्य’ में कहा गया है कि आजीविका अर्जन के लिये गृहस्थजन ‘अत्थसत्थ’ का अध्ययन करते थे। जैन ग्रंथों में ‘अत्थसत्थ’ के पुन:—पुन: उल्लेख से प्रतीत होता है। कि प्राचीन काल में ‘अर्थशास्त्र’ नामक कोई ग्रंथ अवश्य रहा होगा। कौटिल्य के अनुसार धर्म और काम अर्थ पर निर्भर है। आचार्य सोमदेव ने नीतिवाक्यामृतम् में धर्म और काम के लिए अर्थोपार्जन की आवश्यकता बतायी है— ‘‘धर्मकामयोरर्थमूलत्वात् ’’। उनके अनुसार अर्थ से सब प्रयोजन सिद्ध होते हैं—यत: सर्वप्रयोजनसिद्धि: सोऽर्थ:। सुखी और सन्तुलित जीवन के लिए मनुष्य धर्माचरण पूर्वक आदर्श जीवन यापन करने के साथ न्यायोर्पािजत धन का संग्रह करे और विवेकपूर्वक परोपकारर्थ व्यय करे।
‘‘यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धि: स धर्म:।’’
अपने पारलौकिक धर्म की क्षति/हानि न करता हुआ लौकिक सुख को निरतिचार/न्यायपूर्वक व्यवहार करे। जैनधर्म में संग्रह—प्रवृत्ति पर अंकुश है। आवश्यकता से अधिक संग्रह पाप—बन्ध का कारण माना गया हैं परोपकार और र्धािमक कृत्यों में धन का सदुपयोग अपेक्षित है। यद्यपि संयमी साधु जीवन के लिए पूर्ण धन का त्याग आवश्यक है; परन्तु गृहस्थ जीवन में न्याय—नीति से र्अिजत किया हुआ धन ही सार्थक है—वह गृहस्थ जो कोड़ी न रखे तो कोड़ी का है; वह श्रमण जो कोड़ी रखे तो कोड़ी का है। एक की शोभा माया और राग—रंग और एक की शोभा नग्न काया त्याग संग। ‘आचारांगसूत्र’ में कहा गया है—मनुष्य अपने भविष्य की सुरक्षा परिवार के पालन—पोषण और सामाजिक दायित्व निभाने के लिए धन संचय करे। जैन धर्मानुसार व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करके अतिरिक्त धन को लोक कल्याण में लगाये। परिग्रह की मर्यादा का सर्वप्रथम सन्देश भगवान महावीर ने दिया। जिसका प्रयोजन व्यक्ति संयम से लेकर समाज में सम वितरण था। सामाजिक शक्ति के महत्त्व को समझने एवं समानवादी अर्थव्यवस्था का विचारों में सूत्रपात करने वाले महावीर पहले ऐतिहासिक महापुरुष थे। समाजवादी अर्थ—व्यवस्था के सन्दर्भ में जैनधर्म के अपरिग्रहवाद को समझना होगा। स्थूलरूप में परिग्रह में धन—धान्य, चल—अचल, सम्पत्ति आदि है। महावीर के मौलिक और सूक्ष्म चिन्तन ने स्थूल (बाह्य) परिग्रह से आगे बढ़कर उसके अन्तरंग प्रभाव को आंका। उन्होंने आन्तरिक परिग्रह के नियंत्रण पर जोर दिया उन्होंने परिग्रह की सूक्ष्म व्याख्या की—मूच्र्छा परिग्रह: अर्थात् मूच्र्छा (आसक्ति) परिग्रह है। परिग्रह की सूक्ष्म परिभाषा में उन्होंने सम्पत्ति के प्रति आसक्ति को परिग्रह का मूल कारण कहा। यदि मनुष्य के मन में ममत्व प्रमाद है तो वास्तव में सम्पत्ति पास में न होते हुए भी सम्पत्ति पाने की लालसा तीव्र होगी। तदर्थ उसके प्रयास आक्रामक होंगे। आधुनिक भाषा में वह पूंजीपति नहीं होते हुए भी पूंजीवादी होगा। दूसरी ओर एक मनुष्य के पास अपार सम्पत्ति होते हुए भी यदि उसका उसमें ममत्व नहीं है तो उसका जीवन कीचड़ में रहते हुए कमल के समान हो सकता है, जिससे वह उदार मन होगा। महात्मा गाँधी की भाषा में वह समाज की सम्पत्ति का ट्रस्टी मात्र होगा।
इस प्रकार सम्पत्ति के स्वामित्व का प्रश्न परिग्रह में मूच्र्छा की भावना पर निर्भर है। भगवान महावीर ने कहा व्यक्ति सम्पत्ति के प्रति आसक्ति मिटावे और त्याग/दान की प्रवृत्ति अपनावे। परिग्रहपरिमाण व्रत के द्वारा उपभोग्य पदार्थों को समाज में समान रूप से वितरण करे। वस्तुत: महावीर के अपरिग्रहवाद की मूल प्रेरणा में व्यक्तिगत के साथ सामाजिक हित भी समाविष्ट है; जिसमें गृहस्थ में रहते हुए भी व्यक्ति की सामाजिक निष्ठा जागृत रहे। यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि जैनधर्म के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्त स्वयं समाजवादी अर्थव्यवस्था की दार्शनिक रूपरेखा है। इन सिद्धान्तों के परिपाश्र्व में ही आधुनिक समाजवादी दर्शन को भी नवीन रूप देकर सर्वप्रिय बनाया जा सकता है। भगवान महावीर के सिद्धान्तों ने सामाजिक शक्ति की सम्यक् व्यवस्था के अभ्युदय को प्रेरणा दी है। अत: तीर्थंकर वद्र्धमान महावीर को समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रवर्तक कहा जा सकता है। महावीर के सिद्धान्तों में वह क्षमता विद्यमान है। जो समाजवादी अर्थव्यवस्था को समन्वित रूप प्रदान कर समाज में सामंजस्य पैदा करती है। जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में समाजवादी अर्थव्यवस्था इस प्रकार है—
१.परिग्रह और उसके ममत्व का त्याग—समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए यह सर्वाधिक प्रेरणाप्रद है। आसक्ति या ममत्व घटाने या मिटाने का भावनामूलक उपाय तो समाजवादी अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। इसमें व्यक्तिगत स्वामित्व का स्वेच्छापूर्वक त्याग महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तिगत स्वामित्व में मोह की सत्ता रहती है। जबकि सामाजिक सम्पत्ति में व्यक्ति का मोह नहीं होता। जब समाजगत अर्थव्यवस्था होती है तो उसमें व्यक्ति का कत्र्तव्य समाज के प्रति सजग रहता है। जैसे—एक सेठ का नौकर सेठ की सम्पत्ति संभालते हुए भी उसका मालिक नहीं है। धर्मशाला की सम्पत्ति मैनेजर के अधीन होती है, किन्तु उसमें उसका ममत्व नहीं होता। अत: उसके उपयोग में समानता का व्यवहार होता है।
२. सम्पत्ति के संचय का विरोध—संचय—वृत्ति ने समाज की प्रगति में सर्वाधिक प्रभाव डाला है। इस कारण अर्थसंग्रह के आधिक्य को रोकना समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रथम कर्तव्य है। भगवान महावीर ने सम्पत्ति के संचय का विरोध करके र्आिथक विकेन्द्रीकरण का मार्ग प्रशस्त किया है। संचय को पदार्थ के प्रति आसक्ति माना। आसक्ति को आत्म—पतन की सूचिका बताया। साधु तो सम्पत्ति का सर्वांशत: त्याग करता ही है। वह सम्पत्ति को किसी रूप में स्पर्श तक नहीं करता। परन्तु गृहस्थ श्रावक को भी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अधिकाधिक मर्यादा पूर्वक जीवन व्यतीत करने का निर्देश जैनधर्म में दिया गया है, जो व्यक्ति व समाज के सुख का कारण है।
३. मर्यादा से पदार्थों के सम वितरण की उदात्त भावना—गृहस्थ व्यक्ति सम्पत्ति के सहयोग से अपने गृहस्थ जीवन का निर्वाह करता है। परिग्रह परिमाण व्रत का एक उद्देश्य तो यह है कि सम्पूर्ण समाज में पदार्थों का समान रूप से वितरण हो सके, क्योंकि मर्यादा परिग्रह—परिमाण से सीमित हाथों में सीमित पदार्थों का केन्द्रीकरण नहीं हो सकेगा। महावीर को यह मान्य नहीं था कि एक व्यक्ति तो असीम मात्रा में सुख—सुविधा के पदार्थों का संग्रह करे और दूसरा उनके अभाव में पीड़ित होता रहे। वितरण के विकेन्द्रीकरण की विचारणा उस समय ही महावीर ने कर ली थी, जो आज समाजवादी अर्थव्यवस्था की दृष्टि से श्रेष्ठ विधि है।
४. स्वैच्छिक अनुशासन—सामाािजक अर्थव्यवस्था वही स्थिर हो सकेगी, जो स्वैच्छिक अनुशासन के बल पर जीवित रहेगी ऊपर से थोपी गई श्रेष्ठ बात को भी हृदय सहज में ग्रहण नहीं करता। अत: आधुनिक समाजवादी दर्शन में स्वैच्छिक अनुशासन (निज पर शासन फिर अनुशासन) को अपना लिया जावे, तो समाजवादी अर्थव्यवस्था अधिक स्थिर हो सकेगी।
५. विचार और आचार में समनव्य—किसी भी समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आचार—विचार को दूसरे के साथ समन्वित करने की चेष्टा करे। यह समन्वय जितना गहरा होगा, उतना ही व्यवस्था का संचालन सहज होगा। अनेकान्त और अहिंसा के सिद्धान्त ऐसे ही समन्वय के प्रतीक हैं। आचरण में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवाद—इन्हीं चार मणिस्तम्भों पर जैनधर्म का सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है। जैनाचार्यों ने समय—समय पर इसी प्रासाद की सुरक्षा की हैं समाजवादी अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में महावीर से माक्र्स तक जो दार्शनिक विचारधारा प्रवाहित हुई, उसमें अधिक विभेद नहीं है, अपितु इस धारा को प्रवाहित करने का अधिक श्रेय महावीर को ही है। यह श्रेय इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व जिस समय समाजवादी शक्ति का कल्पना में भी आविर्भाव नहीं था, उस समय महावीर ने इस समाजवादी अर्थव्यवस्था के प्रेरक सूत्रों को अपने सिद्धान्तों में समाविष्ट किया। वस्तुत: महावीर के अनेकान्त (स्याद्वाद) अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त समाजवादी अर्थव्यवस्था की दार्शनिक रूपरेखा है, जिनके आलोक में इस अर्थव्यवस्था को सर्वप्रिय बनाया जा सकता है। महावीर द्वारा उपदिष्ट ये सिद्धान्त किं वा जैनधर्म के सिद्धान्त समाजवादी अर्थव्यवस्था के सुचारू रूप से निर्धारण की दृष्टि से आज भी प्रभावशाली और प्रासंगिक हैं। ये सिद्धान्त व्यष्टि और समष्टि के हितार्थ पूर्णत: सार्थक हैं। जैनधर्म के श्रावकाचार के पांच अणुव्रतों का अनुपालन सुखमय जीवन निर्वाह का प्रशस्तीकरण है। जैनधर्म का सन्देश है कि सुखी जीवन के लिए संयमाचरण भोगोपभोग की वस्तुओं का नियंत्रण और अल्प आरम्भ परिग्रह मनुष्य जीवन की सार्थकता है। त्यागपूर्वक जीवन—यापन करने के लिए उपनिषदों में भी यही सन्देश मिलता है—
‘‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्विंकंचिज्जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृद्द: कस्यस्विद्धनम्।।’’
अन्यथा भी—
‘‘साई इतना दीजिए, जामें कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।’’
इस जगत में जो कुछ भी है वह सब जगत् अर्थात् परिवर्तनशील है, अतएव त्यागभाव से भोग करो। दूसरे का भाग छोड़कर केवल अपना भाग लो। लोभ मत करो। यह धन—पदार्थ सब अस्थिर है। तृष्णा का अन्त नहीं, सन्तोष में ही सुख है।
‘‘अन्तो नास्ति पिपासाया:, सन्तोष: परमं सुखम्।’’
विशाल तृष्णा वाला दरिद्र है—
‘‘स हि भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला।
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान् को दरिद्र:।।’’
समाज के व्यवस्थित रूप देने के लिए जैनाचार्यों ने नियम बनाये हैं। ये नियम गृहस्थ श्रावकों और गृह त्यागी साधुओं के लिए भी है। गृहस्थों हेतु नियम श्रावकाचार नाम से प्रसिद्ध है जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह—इन पाँच नियमों का एकदश पालन होता है। पूर्ण पालन साधुओं के लिए है। अपरिग्रह के मूल में आवश्यकता से अधिक संग्रह दु:ख का कारण है, आवश्यकता से अधिक परिग्रह समाज में विषमता पैदा करता है। परिग्रह के रहते संयम का पालन नहीं हो सकता। अनावश्यक परिग्रह को जैन दर्शन में पाप की संज्ञा दी है। परिग्रही व्यक्ति समाज, धर्म और संस्कृति के मानदण्डों को समझता। वह स्वार्थ में मदान्ध रहता है। जैन दर्शन में इसको विषयानन्दी कहा है। वह येन—केन प्रकारेण धन के संग्रह में रहता है। संसार की प्रत्येक वस्तु का अपने भोग उपभोग की वस्तु समझता है। इससे विषमता फैलती है। ईमानदारी से र्अिजत शुद्ध धन से सज्जनों की सम्पत्तियाँ नहीं बढ़ती। जिस प्रकार आकाश से बरसने वाले स्वच्छ जल से नदियाँ नहीं भरती।
‘‘शुद्धैर्धनै: विवर्धन्ते सतामपि न सम्पद:।
नहि स्वच्छाम्वुभि: पूर्णा: कदाचिदपि सिन्धव:।।’’
बहता नदी का जल शुद्ध रहता है। समुद्र का एकत्र/संग्रही जल गंदा होता है। जल से भरे बादल काले रहते हैं। वे कृष्ण बादल बरसने पर शुभ्र श्वेत हो जाते हैं। वस्तुत: संग्रह काला होता है। वितरण ही शुद्धता है। जैनाचार्यों ने परिग्रह की बाढ़ को रोकने के लिए गृहस्थ को दान की प्रेरणा दी है। जैनधर्म के षडावश्यक कर्मों में दान का भी समावेश है।
‘‘देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय संयमस्तप:।
दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने—दिने।।’’
जैन गृहस्थ अपनी आय में से आहार, औषध, अभय और ज्ञान दान के निमित्त राशि निकालना अपना परम कत्र्तव्य समझता है। इस प्रकार के दानों से समाज में सन्तुलन रहता है जो समाजवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। समाज के सभी लोकोपकारी कार्यों में अपने अर्जित धन में से वितरण समाज की अर्थव्यवस्था को सन्तुलन देता है। जैनधर्म की यह समाजवादी अर्थव्यवस्था परिग्रहपरिमाण व्रत से पुष्ट होती है जो व्यक्तिगत और समाजगत दोनों के लिए सुखी व्यवस्था का प्रमुख आधार है।