यूरोप में जैन विद्या के अध्येताओं में सर्वप्रथम हरमन याकोबी (१८५०—१९३७) का नाम लिया जायेगा। वे अलब्रेख्त बेबर के शिष्य थे, जिन्होंने सर्वप्रथम मूल रूप में जैन आगमों का अध्ययन किया था। याकोबी ने बराहमिहिर के लघु जातक पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी.एच.डी. प्राप्त की। केवल २३ वर्ष की अवस्था में जैन हस्तलिखित प्रतियों की खोज में वे भारत आये और वापिस लौट कर उन्होंने ‘सेव्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट’ सीरीज में आचारांग और कल्पसूत्र तथा सूत्र कृतांग और उत्तराध्ययन आगमों का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। नि:सन्देह इन ग्रंथों के अनुवाद से देश—विदेश में जैन विद्या के प्रचार में अपूर्व सफलता मिली। यूरोप के विद्वानों में जैन धर्म और बौद्ध धर्म को लेकर अनेक भ्रांतियों और वाद विवाद चल रहे थे। उस समय याकोबी ने जैन धर्म और बौद्ध धर्म ग्रंथों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा बौद्ध धर्म के पूर्व जैन धर्म का अस्तित्व सिद्ध करके इन भ्रांतियों और विवादों को निर्मूल करार दिया। १९१४ में याकोबी ने दूसरी बार भारत की यात्रा की। अबकी बार हस्तलिखित जैन ग्रंथों की खोज में वे गुजरात और काठियावाड़ की ओर गये। स्वदेश वापिस लौटकर उन्होंने भविसत्त कहा और ‘सणस्कुमारचरिउ’ नामक महत्वपूर्ण अपभ्रंश ग्रन्थों का सम्पादन कर उन्हें प्रकाशित किया। इस यात्रा में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ लेटर्स और जैन समाज ने जैन दर्शन दिवाकर की पदवी से सम्मानित किया। यूरोप में प्राकृत—अध्ययन के पुरस्कर्ताओं में रिचर्ड पिशल (१८४९—१९०८) का नाम भी काफी आगे रहेगा। पिशल ए.एफ. स्टेन्तनलर के शिष्य थे जिनकी ‘एलिमेण्टरी ग्रामर ऑफ संस्कृत’ आज भी जर्मनी में संस्कृत सीखने के लिए मानक पुस्तक मानी जाती है। ‘ग्रामेटिक डेर प्राकृत स्प्रेशन’ (द ग्रामर ऑफ लैन्ग्वेजेज) पिशल का एक विशाल स्मारक ग्रंथ है जिसे उन्होंने वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद प्राकृत साहित्य की पाण्डुलिपियों के आधार से तैयार किया था। अन्सर्ट लायमान (१९५९—१९३१) बेबर के शिष्य रहे हैं। उन्होंने जैन आगमों पर लिखित निर्युक्ति और चूर्णि साहित्य का विशेष रूप से अध्ययन किया। औपपातिक सूत्र का उन्होंने आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित किया। १८९७ में उनका ‘आवश्यक—एरजेलुंगेज’ (आवश्यक स्टोरीज) प्रकाशित हुआ।तत्पश्चात् वे वीवरसिष्ट ही आवश्यक लिटरेचर (सर्वे ऑफ द आवश्यक लिटरेचर) में लग गये जो १९३४ में हैम्बुर्ग से प्रकाशित हुआ। वाल्टर शूब्रिंग जैन धर्म के एक प्रकाण्ड पण्डित हो गये हैं। उन्होंने कल्प, निशीथ और व्यवहार सूत्र नामक छेद सूत्रों का विद्वतापूर्ण सम्पादन करने के अतिरिक्त महानिशीथ सूत्र पर कार्य किया तथा आचारांग सूत्र का सम्पादन और ‘ब्रटे महावीर’ (वर्क ऑफ महावीर) नाम से जर्मन अनुवाद प्रकाशित किया। उनका दूसरा महत्वपूर्ण उपयोगी ग्रंथ ‘डी लेहरे डेर जैनाज’ है जो ‘ दि डाक्ट्रीन्स ऑफ दी जैनाज’ के नाम से अंग्रेजी में १९३२ में दिल्ली से प्रकाशित हुआ। जे.इर्टल (१८७२—१९५५) भारतीय विद्या के एक सुप्रसिद्ध विद्वान हो गये हैं। ‘‘ऑन दी लिटरेचर ऑफ दी श्वेताम्बर जैनाज इन गुजरात’ नामक अपनी लघु किन्तु अत्यन्त सारगर्भित रचना में उन्होंने जैन कथाओं की सराहना करते हुए लिखा है कि यदि जैन लेखक इस ओर प्रवृत्त न हुए होते तो भारत की अनेक कथाएं विलुप्त हो जाती। हेल्मुथ्पा फोन ग्लाजनेप (१८९१—१९६२) टयुबिन्गन विश्वविद्यालय में धर्मों के इतिहास के प्रोफैसर रहे हैं। वे याकोबी के प्रमुख शिष्यों में थे और उन्होंने लोकप्रिय शैली में जैन धर्म के सम्बन्ध में अनेक पुस्तके लिखी हैं। उन्होंने ‘‘डेर जैलिसगुस’’ (दि जैनिज्म) ओर डि लेहरे फोम कर्मन इन डेर फिलोसोफी जैनाज’ (दि डॉक्ट्रीन ऑफ कर्म इन जैन फिलोसोपी) नामक महत्वपूर्ण रचनाएँ प्रस्तुत की। पहली पुस्तक ‘जैन धर्म’ के नाम से गुजराती में और दूसरी पुस्तक का अनुवाद अंग्रेजी तथा हिन्दी में प्रकाशित हुआ। उनकी ‘‘इण्डिया, एज सीन बाई जर्मन थिंकर्स’ (भारत, जर्मन विचारकों की दृष्टि में) नामक पुस्तक १९६० में प्रकाशित हुई। ग्लाजनेप की एक निजि लाइब्रेरी थी जो द्वितीय विश्व युद्ध में बम वर्षा के कारण जलकर ध्वस्त हो गई। लुडविंग आल्सडोर्क (१९०४—१९७८) ङ्कार्मनी के एक बहुश्रुत प्रतिभाशाली मनीषी थे जिनका निधन २८ मार्च १९७८ को हुआ। आल्सडोर्क इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के अध्यापक रह चुका हैं। आल्सडोफ ने विद्यार्थी अवस्था में जर्मन विश्वविद्यालय में जर्मन भाषा के तुलनात्मक भाषा शास्त्र आदि का अध्ययन किया। वे लायमान के सम्पर्क में आये और याकोबी से उन्होंने जैन धर्म का अध्ययन करने की अभूतपूर्व प्रेरणा प्राप्त की । यह याकोबी की प्रेरणा का ही फल था कि वे पुष्पदन्त के महापुराण नामक अपभ्रंश ग्रन्थ पर काम करने के लिए प्रवृत्त हुए जो विस्तृत भूमिका आदि के साथ १९३७ में जर्मन में प्रकाशित हुआ। आल्सडोर्क शूब्रिंग को अपना गुरू मानते थे। जब तक वे जीवित रहे, उनके गुरू का चित्र उनके कक्ष की शोभा बढ़ाता रहा। उन्होंने सोमप्रभसूरि के कुमार बालपडिबोह नामक अप्रभ्रंश ग्रंथ पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी.एच.डी. प्राप्त की। उन्होंने संधदासगणि कृत वसुदेव हिंडि जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ की ओर विश्व के विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया ओर इस बात की बड़े जोर से स्थापना की कि यह अभूतपूर्व रचना पैशाची प्राकृत में लिखित गुणाढ्य की नष्ट हुई बड्ढकहा (बृहत्कथा) का जैन रूपांतर है। १९७४ में ‘क्लाइने श्रिपटेन’ (लघु निबन्ध) नामक ७६२ पृष्ठों का एक ग्रन्थ ग्लाजनेप फाउण्डेशन की ओर से प्रकाशित हुआ है जिसमें आल्सडोर्क के लेखों, भाषणों एवं समीक्षा टिप्पणियों का संग्रह है। इसमें दृष्टिवाद सूत्र की विषय सूची के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण लेख संगृहीत है। इस संग्रह के एक अन्य महत्वपूर्ण निबन्ध में आल्सडोर्क ने ‘वैताठ्य’ शब्द की व्युत्पत्ति वेदार्थ से प्रतिपादित की है वे (य) अड्ढ वेइ अड्ढ वैदियंड्ढ वेदार्थ। इसे उनकी विषय की पकड़ और सूझबूझ के सिवाय और क्या कहा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि आल्सडोर्क की बात से कोई सहमत हो या नह, वे अपने कथन का सचोट और सप्रमाण समर्थन करने में सक्षम थे। वे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के कितने ही ओरियंटल रिसर्च पत्र—पत्रिकाओं से सम्बद्ध थे और इनमें उन्होंने विविध विषयों पर लिखे हुए कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थों की समीक्षायें प्रकाशित की थीं। ‘क्रिटिकल, पालि डिक्शनरी’ के वे प्रमुख सम्पादक थे जिसका प्रारंभ सुप्रसिद्ध वित्र ट्रेकनेर के सम्पादकत्व में हुआ था। उन्नीसवीं शताब्दी का आरंभ यूरोप में ज्ञान—विज्ञान की शताब्दी का युग रहा है। इसी समय जर्मनी के क्रीडरीख श्लीगल को संस्कृत पढ़ने का शौक हुआ और उन्होंने पेरिस पहुंचकर हिन्दुस्तान से लौटे हुए किसी सैनिक से संस्कृत का अध्ययन किया। आगे चलकर इन्होंने ‘द लैंग्वेजेज एण्ड विजडम ऑफ द हिन्दूज’ नामक पुस्तक प्रकाशित कर भारत की प्राचीन संस्कृत से यूरोप वासियों को अवगत कराया। इनके लघु भ्राता औगुस्ट विलहेल्म श्लीगल बॉन विश्वविद्यालय में १८१८ में स्थापित भारतीय विद्या चेयर के सर्वप्रथम प्रोफैसर नियुक्त किये गये। मैक्समूलर इस शताब्दी के भारतीय विद्या के एक महान पंडित हो गये हैं जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक देन को सारे यूरोप में उजागर किया। ऋग्वेद का सायण भाष्य के साथ उन्होंने सर्वप्रथम नगदी लिप्यन्तर क्रिया औरा जर्मन भाषा में उसका अनुवाद प्रकाशित किया। इंगलैण्ड में सिविल सर्विस में जाने वाले अंग्रेज नवयुवकों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने कैम्ब्रिज लैक्चर्स दिये जो ‘‘ इण्डिया ह्वाट इट कैन टीच अस’ (भारत हमें क्या सिखा सकता है) नाम से प्रकाशित हुए। ‘‘सेव्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट’’ सीरीज के संपादन का श्रेय मैक्समूलर को ही है जिसके अन्तर्गत भारतीय विद्या से सम्बन्धित अनेकानेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुए। विदेशी विद्वानों की एक विशेषता थी कि वे यथा संभव तटस्थ रहकर किसी विषय का वस्तुगत विश्लेषण प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं, विचारों एवं विश्वासों का उसमें मिश्रण नहीं करते । विदेशी विद्वानों द्वारा जैन विद्या के अध्ययन को व्यवस्थित करने के लिए चुने हुए जैन ग्रंथों का चुने हुए जैन विद्वानों द्वारा आधुनिक पद्धति से सम्पादन किये जाने की आवश्यकता है। प्रकाशित ग्रंथों की आलोचनात्मक निर्भीक समीक्षा की आवश्यकता है। इस सम्बन्ध में जैनों के सभी सम्प्रदायों के विद्वानों द्वारा तैयार की गयी सम्मिलित योजना कार्यकारी हो सकती है।