जब से मनुष्य मेें विचारशक्ति का विकास हुआ, तभी से पक्ष—प्रतिपक्ष के रूप में विचारधाराओं का संघर्ष भी हुआ है। इसी से वाद—प्रवृत्ति का जन्म हुआ। नैयायिक इस वाद—वृत्ति को ‘कथा’ का नाम देकर इसके तीन भेद करते हैं—वाद, जल्प और वितण्डा। इनके अनुसार—‘वाद’ वीतराग—कथा ‘जल्प’ और ‘वितण्डा’ विजीगीषु कथाएं हैं। वाद— जब तत्त्व—निर्णय के उद्देश्य से समानधर्मियों या गुरु—शिष्यों में पक्ष—प्रतिपक्ष को लेकर चर्चा चलती है, तब यह चर्चा ‘वाद’ कहलाती है। इसमें स्वपक्ष का स्थापन प्रमाण से, प्रतिपक्ष का निराकरण तर्कसे, परन्तु सिद्धान्त से अविरुद्ध होता है और यह अनुमान के पांच अवयवों से सम्पन्न होती है। जल्प—तत्त्व संरक्षण के ध्येय से होने वाला शास्त्रार्थ ‘जल्प’ कहलाता है। इसमें प्रमाण और तर्क के अतिरिक्त छल, जाति, निग्रह—स्थान जैसे असत्—उपायों का आलम्बन लिया जाता है। वितण्डा—— जब यही जल्प अपने पक्ष की स्थापना न करके केवल प्रतिपक्ष का खण्डन करता है, तो ‘वितण्डा’ बन जाता है। जैनमत—— जैन न्याय में वाद को वीतराग—कथा नहीं, अपितु विजिगीषु—कथा माना गया है। आचार्य अकलंक देव ने स्पष्ट रूप से जिगीषापूर्वक बाद की प्रवृत्ति का उल्लेख किया है। आचार्य विद्यानन्द आदि भी इसी मत का समर्थन करते हैं। मार्तण्डकार नैयायिकों द्वारा निर्धारित वाद लक्षण का विवेचन करते हुए कहते हैं—जब ‘सिद्धान्ताविरुद्ध’ से अपसिद्धान्त तथा ‘पञ्चावयवोपपन्न:’ से न्यून, अधिक और पांच हेत्वाभास—इन आठ निग्रह—स्थानों का वाद—लक्षण से ग्रहण होता है, तो वाद भी जल्प और वितण्डा की भांति तत्त्व—संरक्षण के उद्देश्य से होने वाली विजिगीषु—कथा ही हो सकती है, वीतराग—कभा नहीं। मार्तण्डकार अपने पक्ष को स्पष्ट करते हुए कहते हैं—— —एक अधिकरण में रहने वाले परस्पर विरोधी और एक काल में होने वाले अनिश्चित वस्तु धर्म—पक्ष—प्रतिपक्ष होते हैं। इस प्रकार के पक्ष—प्रतिपक्ष का परिग्रह करके जल्प और वितण्डा में प्रमाण और तर्कसे स्थापन और निराकरण संभव नहीं है; अत: वाद ही तत्त्व संरक्षण कर सकता है। यहां तत्त्व—संरक्षण से तात्पर्य है कि न्याय के बल से समस्त वाधक तत्त्वों का निराकरण कर देना। जल्प और वितण्डा से समस्त बाधक—तत्त्व निराकृत नहीं हो सकते, क्योंकि छल आदि असत् उपायों के प्रयोग से संशय—विपर्य उत्पन्न हो सकते हैं। तात्पर्य यह है कि—छल आदि के प्रयोग से प्रतिवादी को पराजय की ओर प्रवृत्त करते हुए वादी के प्रति प्राश्निक संदेह करते हैं—‘इसका तत्त्व—संरक्षण हुआ या नहीं, शायद नहीं ही हुआ।’ इस प्रकार जय—पराजय की प्रवृत्ति मात्र होने के कारण जल्प और वितण्डा तत्त्व—संरक्षण की प्रवृत्ति से रहित हैं। अकलंकदेव ने भी छलादि असत्—उपायों का प्रयोग सर्वथा अन्याय्य और परिवर्जनीय माना है। इसीलिए, सम्भवत: वे वाद और जल्प का एक ही अर्थ में ऐच्छिक प्रयोग करते हैं। और वितण्डा को ‘वादाभास’ कहते हैं।७परन्तु वादिराज, मार्तण्डकार आदि वितण्डा के साथ—साथ जल्प को भी तत्त्व—संरक्षण में अनुपयोगी बताकर उनका पूर्णत: बहिष्कार करते हैं।
‘‘एवंविध, विजिगीषु के विषय और स्वाभिप्रेत अर्थव्यवस्थापन फल वाले वाद को अकलंकदेवने चार अङ्गों से युक्त माना है। अनन्तवीर्य११ ने वे चार अङ्ग इस प्रकार कहे हैं—सभापति, प्राश्निक, वादी और प्रतिवादी। प्रमेयकमलमार्तण्ड१२ में इन अङ्गों की कार्य सीमा एवं उपयोगिता का भी उल्लेख है। उनके अनुसार—‘सभापति’ योग्य, समर्थ मन्त्रणा—कुशल तथा पक्षपात रहित होना चाहिए। ‘प्राश्निक’ पक्षपात में न पड़कर वादी या प्रतिवादी किसी से भी प्रश्न कर सकते हैं। ये असद् वाद का निषेध करते हैं और लगाम की भांति वादी या प्रति वादी को इधर—उधर न जाने देकर ठीक मार्ग पर रखते हैं। ये यथा सभापति वाद—व्यवस्था के नियामक हैं। प्रमाण तथा प्रमाणाभास की ज्ञान—सामथ्र्य से सम्पन् न वादी और प्रतिवादी के बिना तो वाद की प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती।ये चारों अंग वाद के लिए अत्यावश्यक हैं, इनमें से एक भी अङ्ग के कम होने पर वाद—व्यवस्था की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यदि नैयायिकों द्वारा स्वीकृत वाद के गुरु और शिष्य ये ही दो अङ्ग माने जाएं, तो सभापति और प्राश्निकों के बिना वाद का नियमन कौन करेगा? अत: वाद चतुरङ्ग ही है। जय—पराजय व्यवस्था—— — वाद को विजिगीषु—कथा माना गया है। इसी से स्पष्ट है कि वादी प्रतिवादी में एक—दूसरे को जीतने की इच्छा से इसका संयोजन होता था। जब नैयायिकों ने जल्प और वितण्डा में छल, जाति और निग्रह—स्थान जैसे असत् उपाय का ग्रहण किया, तो जय—पराजय व्यवस्था उन्हीं असत् उपायों के आधार पर बनी। वे असत—उपायों यहां वर्णित हैं—
(१) छल—वादी के वचन से भिन् न अर्थ की कल्पना करके उसके वचन में दोष देना ‘छल’ है।‘प्रमाणतर्वâसाधनोपालम्भ: सिद्धान्ताविरुद्ध: प चावयवोपपन्न।पक्ष प्रतिपक्षपरिग्रहोवाद:’,न्याय—सूत्र १/२/१। तीन प्रकार का माना गया है—वाक्छल, सामान्य—छल और उपचार—छल।
(क) वाक्छल— सामान्येन कथित अर्थ में वक्ता ने अभिप्राय से विरुद्ध अर्थ की कल्पना वाक्छलयथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्प:,’ न्या० सू०१/२/२।कहलाती है। जैसे ‘आद् यो वै वैधवेयोयं वर्तते नवकम्बल:’ ऐसा कहे जाने पर प्रतिवादी ‘नव’ के असम्भाव्यमान अन्य अर्थ ‘‘नौ’ की कल्पना करके कहे—इसके नौ कम्बल कैसे हैं? जबकि वक्ता का अभिप्राय है—इसका कम्बल कैसे हैं? जबकि वक्ता का अभिप्राय है—इसका कम्बल नया है।
(ख) सामान्यछल— अतिसामन्य योग से सम्भव अर्थ की असम्भव अर्थ कल्पना करना ‘सामान्य—छल‘स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा’, न्याय० सू० १/२/३। है। जैसे—विद्याचरण सम्पत्तिब्रर्हाह्मणे सम्भवेत्’ ऐसा कहने पर प्रतिवादी अर्थ—विकल्पोपपत्ति क्षरा असंभूत अर्थकल्पना करकेकहे— यदि ब्राह्मण में विद्या—आचरणरूप सम्पत्ति हो सकती है।तोव्रात्य में भी हो सकती है, क्योंकि व्रात्य भी जाति से तो ब्राह्मण ही है। यहां ‘ब्राह्मणत्व’ अर्थ अतिसामान्य है। (ग) उपचारछल—— स्वभावविकल्पनिर्देशक वाक्य में अर्थ की सत्ता का निषेध करना ‘उपचार— छल’४ कहलाता है। मञ्चा: क्रोशन्ति’ ऐसा कहने पर प्रतिवादी अभिप्रेतार्थकी सत्ता का निषेध कर के शब्द के उपचार से कहे—मञ्च नहीं, अपितु मञ्चस्थ पुरुष रो रहे हैं।
(२) जाति— साधम्र्य—वैधम्र्य से जो प्रत्यवस्थान (दूषण) दिया जाता है, वह ‘जाति’५ कहलाता है। यह जाति वादी द्वारा स्थापना हेतु के उपस्थित किए जाने पर प्रतिवादीद्वारा प्रतिषेध के लिए प्रयुक्त होती है। यह चौवीस प्रकार की मानी गई है— १. साधम्र्यसम, २. वेधम्र्यसम, ३. उत्कर्षसम, ४. अपकर्षसम, ५.वण्र्यसम, ६.अवण्र्यसम,७.विकल्पसम, ८. साध्यसम, ९. प्राप्तिसम, १०. अप्राप्तिसम, ११. प्रसङ्गसम १२. प्रतिदृष्टान्तसम, १३, अनुत्पत्तिसम, १४. संशयसम, १५.प्रकरणसम, १६. हेतुसम, १७ अर्थापत्तिसम, १८.अविशेषसम, १९. उपपत्तिसम, २०. उपलब्धिसम, १२. अनुपलब्धिसम २२. नित्यसम, २३ अनित्यसम तथा २४.कार्यसम। (३) निग्रहस्थान—— विप्रतिपत्ति या अप्रतिपत्ति ‘निग्रह—स्थान’७ माने गए हैं। विपरीत या निन्दित प्रतिपादन ‘विप्रतिपत्ति’ होता है। ‘अप्रतिपत्ति’ उसे कहते हैं कि जातिवादी आवश्यक विषय में भी आरम्भ न करे, पक्ष को जानते हुए उसकी स्थापना न करे या प्रतिवादी द्वारा स्थापित पक्ष का खण्डन न करे और वादी द्वारा निराकृत पक्ष का परिहार न करे। विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्तिरूप निग्रह (पराजय) स्थान बाईस कहे गए है १— १. प्रतिज्ञाहानि, २. प्रतिज्ञान्तर, ३. प्रतिज्ञाविरोध, ४. प्रतिज्ञासंन्यास, ५. हेत्वन्तर, ६. अर्थान्तर, ७. निरर्थक, ८. अविज्ञातार्थ, ९.अपार्थक, १०. अप्राप्तकाल, ११. न्यून, १२. अधिक, १३. पुनरुक्त, १४.अननुभाषण, १५. अज्ञान, १६. अप्रतिभा, १७. विक्षेप, १८. मतानुज्ञा, १९. पर्यनुयोज्योपेक्षण, २०. निरनुयोज्यानुयोग, २१. अपसिद्धान्त तथा २२ हेत्वाभास। इनमें अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप, मतानुज्ञा और पर्यनुयोज्योपेक्षण अप्रतिपत्तिरूप निग्रह स्थान हैं, शेष विप्रतिपत्तिरूप। उपर्युक्त निग्रह—स्थानों में क्रमश: बताया गया है कि यदि कोई वादी प्रतिज्ञा की हानि करे, दूसरी प्रतिज्ञा करे; हेतु विरोधी प्रतिज्ञा करे प्रतिज्ञा को छोड़ दे, एक हेतु के दूषित होने पर उसमें कोई विशेषण जोड़ दे, असम्बद्ध अर्थ कहे, अवाचक प्रयोग करे, इस प्रकार बोले कि तीन बार कहने पर भी प्रतिवादी या परिषद् न समझ सके, परस्पर साकांक्षा रहित अर्थ कहे, पञ्चावयवों का क्रम भङ्ग करे, अवयव न्यून या अधिक कहे, पुनरुक्ति हो, ज्ञातवाक्यार्थ का उच्चारण न करे, समद्ध न सके, उत्तर न दे सके, अन्य कार्य में आसक्ति दिखाकर वाद को रोके, प्रतिवादी द्वारा दिए गए दूषण को स्वीकार करके खण्डन करे, निग्रहस्थान प्राप्त का निग्रह न करे, अनिगृहीत को निगृहीत कहे, सिद्धान्त—विरुद्ध बोले और हेत्वाभासों का प्रयोग करे, तो उसकी पराजय होगी।३ बौद्धक्त निग्रहस्थान—— बौद्ध दर्शन में जय—पराजय व्यवस्था के लिए स्वीकृत छल, जाति और निग्रह—स्थान का निराकरण करते हुए वादी और प्रतिवादी के लिए क्रमश: असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन ये दो ही निग्रह—स्थान माने गए हैं। वहां असाधनाङ्गवचन और अदोषोद् भावन के विविध व्याख्यान करके कहा है—त्रिरूप हेतु का वचन साधनाङ्ग है। उसका कथन न करना, चुप रहना या जो कुछ बोलना ‘असाधनाङ्ग’ है। प्रतिज्ञा निगमन आदि साधन के अंग नहीं है, उनका कथन असाधनांग है। साधम्र्य हेतु के वचन में वैधम्र्य का प्रतिपादन या वैधम्र्य हेतु के वचन में साधम्र्य का ‘असाधनांग ही है। प्रसज्यप्रतिषेध में दोष का उद् भावन न करना अदोषद् भावन’ है। जैनमत— जैन न्याय परम्परा में सभी नैयायिकों ने छल, जाति, निग्रह—स्थान जैसे असत् उपायों का निषेध किया है। वे सभी इन्हें स्वपक्षसिद्धि में बाधक मानते हुए कहते हैं— पक्ष में वादी प्रतिवादी की विप्रतिपत्ति से प्रवृत्ति होने पर तथा उसके सिद्ध होने पर ही एक की जय और अन्य की पराजय होती है।८ मार्तण्डकार भी स्वपक्षसिद्धि से जय—पराजय व्यवस्था स्वीकार करते हैं, उनके अनुसार९ वाक्छल से अनेक अर्थों का प्रतिपादन करके या सामान्य छल से असम्भूत अर्थ की कल्पना करके या उपाचार छल से अभिप्रेतार्थ का निषेध करके जय—पराजय नहीं हो सकती । इसी प्रकार अकलंक वादिराज आदि जातियों को मिथ्या उत्तर करते हैं। मिथ्या उत्तर जैनन्याय में अनन्त माने गए हैं, अत: जातियों की संख्या चौबीस उचित नहीं है, परन्तु मार्तण्डकार जातियों को दूषणाभास मानते हैं। उनके अनुसार—यदि जातियों को उपयुक्त माना जाए, तो साधनाभास में साधम्र्य आदि से होने वाला प्रत्यवस्थान भी जाति कहलाएगा, जबकिय साधनाभास में जाति प्रयोग का उद्योत कर स्वयं ही निषेध करते हैं। साधना भास की प्रतिपत्ति में जातियों का प्रयोग फलहीन ही होता है इस प्रकार ये जातियां ऐकान्तिक पराजय कराने वाली हैं। इसलिए स्वपक्ष की सिद्धि—असिद्धि से ही जय—पराजय व्यवस्था उचित है। छल जाति के अतिरिक्त निग्रह—स्थान भी जैन न्याय में नहीं माने गए, क्योंकि इन निग्रह—स्थानों के अन्तर्गत प्रतिपादित नियमों से दुष्टसाधन साधनवादी भी जय लाभ कर सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है नैयायिकों के अनुसार शास्त्रार्थ के नियमों का बारीकी से पालन करने, न करने का प्रदर्शन ही जय और पराजय का आधार हुआ। बौद्ध भी इस प्रपञ्च से अछूते नहीं रहे। जबकि अकलंक ने तत्त्वसंरक्षण के ध्येय का सम्मुख रखते हुए स्वपक्षसिद्धि को जय—पराजय का आधार हुआ। बौद्ध भी प्रपत्र से अछूते नहीं रहे। जबकि अकलंक ने तत्वसंरक्षण के लगेगा को सम्मुख रखते हुये स्पक्षासिद्धि को ही जय—पराजय का आधार भाग है। अन्य जैन नैयायिकों ने भी इन्हीं का अनुसरण किया। मार्तण्डकार इस मत को तार्विâक पुट देते हुए कहते हैं—‘यथावत् प्रतिपन्न स्वरूप वाले प्रमाण से जय और अपतिपन्न स्वरूप वाले प्रमाणाभास से पराजय का निबन्धन होता है। तात्पर्य यह है कि वादी प्रमाण और प्रमाणाभास के विज्ञान रचरूप से से स्पष्ट सिद्धि के लिए उपन्यस्त सम्यक् प्रमाण में और उनके अविज्ञान स्वरूप से प्रमाणाभास में प्रवृत्त होता है। उनके अनिश्चित स्वरूप से प्रतिवादी दोषरूप से सम्यक् प्रमाण में भी प्रमाणाभास का उद्भावन कर सकता है। एवं वादी द्वारा प्रयुक्त प्रमाण प्रतिवादी से दोषरूप में उद्भावित होने पर परिहृत दोष वाला होता है, जिससे वादी का साधन और प्रतिवादी का दूषण होता है और वादी द्वारा प्रयुक्त प्रमाणाभास प्रतिवादी से दोषरूप में उद्भावित होने पर अपरिहत दोष वाला होता है, जिससे वादी का साधनाभास और प्रतिवादी का भूषण होता हैं।’ अकलंक६ जय—पराजय व्यवस्था को स्पष्ट करते हुए कहते हैं। स्वपक्षसिद्धि करनेवाला यदि कुछ अधिक बोल जाये तो कोई हानि नहीं। आचार्य विद्यानन्द के अनुसार वादी के द्वारा कहे गए सत्य—हेतु में प्रतिवादी का चुप रह जाना अथवा सत्य हेतु दोषों का प्रसंग न उठाना ही वादी के पक्ष की सिद्धि है, अन्य प्रकार नहीं । मार्तण्डकार इसी प्रसंग को तार्विâक शैली में कहते हैं— पञ्चावयव प्रयोग में कमी होने पर भी साध्य को सिद्धि हो सकती है, दो हेतु या क्षेदृष्टांत अर्थात् अधिक अवयव होने पर भी हां यदि प्रतिवादी प्रतिपक्ष स्थापित करते समय सिद्वान्त विरुद्ध बोले तो उसकी पराजय होगी। इसके अतिरिक्त , वादी यदि विरुद्ध हेतु का उद् भावन करता है तो प्रतिवादी का पक्ष स्वत: सिद्ध हो जाता है और वादी की पराजय हो जाती है। असिद्धादि हेत्वाभासों के उद् भावन करने पर प्रतिवादी को अपने पक्ष की सिद्धि करनी आवश्यक है इस प्रकार छल आदि असत् उपायों के निबन्धन से ग्रहाग्रह को छोड़कर विचारक भाव को लेकर निर्मल मन से प्रामाणिक स्वयं ही प्रमाण और उसके स्वरूपाभासों से जय—पराजय का निश्चय कर सकते हैं।५ पत्रविचार—— जैनन्याय परम्परा में लिखित शास्त्रार्थ का उल्लेख भी मिलता है, इसमें वादी—प्रतिवादी परस्पर जिन लेख—प्रतिलेखों का आदान—प्रदान करते हैं, ‘पत्र’ कहा जाता है। इन पत्रों का विवेचन सर्वप्रथम आचार्य विद्यानन्द २ ने किया है। प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी उसीका अनुसरण करते हुए पत्र विचार किया गया है। अपने अभिप्रेत अर्थ को सिद्ध करने वाला, निर्दोष और गूढ़ पदसमूह से युक्त और प्रसिद्ध अवयव वाला ‘पत्र’३ कहा जाता है। अपने अभिप्रेत अर्थ को सिद्ध न करने वाले अपशब्द अथवा सुस्पष्ट पदों से युक्त वाक्य पत्र नहीं हो सकते। क्रियापद आदि से गूढ काव्य भी का रूप स्वीकार नहीं किए जा सकते। यद्यपि वाक्य श्रोत्रपथप्रस्थायी वर्णात्मक पद—समुदाय रूप विशेष स्वभाव वाले होते हैं, तथापि लिपि में उनका उपचार होता है और लिपि में उपचरित वाक्य का लिखित पत्र में उपचार होता है, अत: उपचरितोपचार से पत्र को वाक्य कहा जा सकता है। जिस प्रकार व्यवहर्ताजन इन्द्र का पुरुष या काष्ठ में उपचार करते हैं, उसी प्रकार वाक्य का पत्र में उपचार माना गया है। इसकी व्युत्पत्तिपरक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है—स्वयं विजिगीषु के द्वारा प्रयुक्त जिस वाक्य में पद प्रतिवाद से त्राण करते हैं, गुप्त रखते हैं अथवा रक्षा करते हैं, उसे ‘पत्र’ कहते हैं। पत्रवाक्य में प्रकृति और प्रत्यय गुप्त रखकर उसे गूढ़ बनाया जाता है। इसमें प्रतिज्ञा, हेतु—दो ही अवयव प्रयोग किए जाते हैं, क्योंकि व्युत्पन्न पुरुष को इन्हीं से साध्य की सिद्धि हो जाती है। जैसे—
यह पत्रवाक्य ‘विश्वम् अनेकान्तात्मकं प्रमेयत्वात्’ इस अनुमान वाक्य के लिए प्रस्तुत किया गया है। इसमें ‘स्वान्तभासितभूत्याद्यत्र्यन्तात्म·अनेकान्तात्मकम्’ साध्य का धर्म और ‘तदुभान्तवाक ·विश्वम्’ धर्मी है; ‘परान्तद्योतितोददीप्तमितीतस्वात्मकत्वत:·प्रमेयत्वात्’ साध्य—धर्म है। इस प्रकार दृष्टान्त आदि के अभाव में भी हेतु अपने साध्य का प्रतिपादन कर सकता है, क्योंकि उसमें अन्यथानुपपत्ति से गमकता होती है। पत्रवाक्य में प्रतिपाद्य के आशय से तीन, चार या पांच अवयवों का प्रयोग भी हो सकता है।६ जैसे— प्रतिज्ञा—चित्रात् यदन्तराणीयम् (विश्वमनेकान्तात्मकं)। ‘हेतु— आरे कान्तात्मकत्वत: (संशयात्मकत्वात्)।— ‘उदाहरण—यदित्थं न तदत्थिं न यथाऽकिञ्चित्।— यह तीन अवयव वाला पत्रवाक्य कहा गया है। यदि उपयुत्र्तâ तीन अवयवों के साथ ‘उपनय— तथा च इदम्’ को और जोड़ दिया जाए, तो यह चार अवयव वाला पत्र वाक्य हो जाएगा। ‘निगमन——तस्मात् तथा’ को भी जोड़ देने पर पांच अवयव वाला पत्रवाक्य कहलाएगा। यौगाभिमत पत्रवाक्य—प्रमेयकमलमार्तण्ड १ में योगों द्वारा उपन्यस्त पत्रवाक्य का उल्लेख किया गया है, जो इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है— प्रतिज्ञा——सैन्यलड्भाग् नाऽनन्तरानर्थार्थप्रस्वापकृदाऽऽशैट्स्यतोऽनीट्कोनेनलड्युक्कुलादभवो वैषौप्य—्नौश्यतापरस्तन्नड्नृरड्जुट् परापरमत्त्ववित्तदन्य: (देह: प्रबोधकारीन्द्रियादिकारणकलाप:, आसमुद्रात् अचलोगिरिनिकर: भुवनसन्निवेश: वा, सूर्याचन्द्रमसौ पृथिव्यादिकार्यद्रव्यसमूह: वा, प्रतीयमान: समुद्रादि:, अन्धकारादि:, औष्ण्यम्, मेघ: न पुरुषस्य निमित्तकारणम्, अपितु बुद्धिमत्कारणम्) हेतु—— अनादिरवायनीत्वत:(कार्यत्वात्)। उदाहरण— एवं यदीदुक्तत्सकलविद्वर्गवत् (एवं यत्कार्यं तदीदृग बुद्धिमत्कारणम् पटवत्) उपनय—— एतत् च एवम्। निगमन—— एवं तत्। मार्तण्डकार२ के अनुसार यह पत्रवाक्य प्रतिज्ञा हेतु, उदाहरण के कालात्यायापदिष्टि आदि अनेक दोषों से दूषित होन के कारण अनुमानभास सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्रतिज्ञावाक्य में प्रयुक्त ‘प्रस्वाप’ शब्द से बौद्धों के ‘स्वाप’ का भी ग्रहण होता है,३ बौद्धों ने सकलसन्तान के निवृत्तिरूप मोक्ष को प्रस्वाप माना है तो योगों ने उसीके असमकक्ष बुद्धि आदि गुणों से वियुक्त आत्मा की अवस्था विशेषरूप मोक्ष को । इस प्रकार ऐसे पत्रवाक्य समीचीन नहीं माने गए। एवं विध, पत्रवाक्य के निराकृत होने पर वादी कहे कि ‘यह मेरे पत्र का अर्थ नहीं है, तब उससे पूछना चाहिए कि ‘जो आपके मन में है, वह इसका अर्थ है’ जो इस वाक्यरूप पत्र से प्रतीत हो रहा है, वह’ या ‘जो आपके मन में भी है और वाक्य से भी प्रतीत हो रहा है।४ प्रथमपक्ष ५ में पत्र का अवलम्बन निरर्थक है; क्योंकि जो अर्थ आपके मन में वर्तमान है, वह किसी के द्वारा नहीं जाना जा सकता; दूसरे की चित्तवृत्तियों का निश्चय करना दु:साध्य होता है। यदि कहा जाए कि पत्र से अप्रतीयमान, चित्त में वर्तमान पत्रार्थ संकेतकाल में होगा, तो यह संकेत कौन करेगा? यदि पत्रदाता करेगा, तो तो पत्रदानकाल में करेगा या वादकाल में और प्रतिवादी में करेगा या अन्यत्र? यदि पत्रदानकाल में प्रतिवादी में करता है, तो यह व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि कोई भी वादी यह नहीं कह सकता कि ‘इस पत्र का यह अर्थ मेरे मन में विद्यमान और यही अर्थ वादकाल में प्रतिपन्न किया जाना चाहिए’। और, यदि इस प्रकार होता है, तो पत्रदान का कोई लाभ ही नहीं है। वादकाल में भी वादी प्रतिवादी को पत्रार्थ नहीं बता सकता, क्योंकि इस प्रकार पत्र—ग्राहक के उपक्रम का अवसर ही नहीं बचेगा। इसके अनन्तर अन्यत्र संकेत किया जाए, तो अन्य ही अर्थज्ञ होगा और इस प्रकार अर्थ का ज्ञान न होने पर प्रतिवादी उसमें साधन आदि किस प्रकार बताएगा? एवं प्रथम पक्ष में पत्र का अवलम्बन फलहीन हो जाता है। द्वितीय पक्ष१ में, जो शब्द आदि से प्रतीत होता है, वह पत्रार्थ हो सकता है। मार्तण्डकार के अनुसार यह पक्ष उचित है, क्योंकि इसमें प्रकृति प्रत्यय के विभाग से प्रतीयमान पत्रार्थ व्यवस्थापित हो सकता है। इसमें पत्रार्थ का वादी के द्वारा इष्ट होना आवश्यश्क नहीं है, क्योंकि शब्द के प्रमाण होने के कारण उससे भी अर्थ प्रतीत होंगे, वे सभी उस पत्र के अर्थ माने जायेंगे। तृतीयपक्ष में जो शब्द आदि से प्रतीत होता है और जो पत्रदाता के मन में है, वह पत्रार्थ हो सकता है। इसमें प्रतिवादी द्वारा वादी के मन में स्थित अर्थ के अनुरूप पत्र की व्याख्या किये जाने पर भी वादी धृष्टतावश कह सकता है कि ‘मेरे मन में यह अर्थ है ही नहीं’, तो महामध्यस्थ और प्राश्निकोें के द्वारा जय—पराजय की व्यवस्था असम्भव प्राय हो जाएगी। इसलिए जो पत्र से प्रतीत हो, वही पत्र का अर्थ मानना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि जैन परम्परा में नैयायिकों की भांति वाद को वीतराग—कथा नहीं’, अपितु विजिगीषु—कथा माना गया है। यह वाद सभापति, प्राश्निक, वादी और प्रतिवादी—चार अंगो से युक्त माना गया है। विजिगीषु—कथा नाम होने से स्पष्ट है कि वादी—प्रतिवादी एक—दूसरे को जीतने की इच्छा से वाद का संयोजन कराते थे। नैयायिकों ने इस जय—पराजय के लिए छल, जाति, निग्रह—स्थान जैसे असत् —उपायों को आधार माना। बौद्धों ने नैयायिकाभिमत छल, जाति और निग्रह— स्थानों का निराकरण तो किया, परन्तु वादी के लिए असाधनांगवचन और प्रतिवादी के लिए दो नये निग्रह—स्थान का निरूपण कर दिया। जैन न्याय परम्परा में नैयायिकोक्त और बौद्धोक्त सभी असत्—उपायों को अनावश्यक माना गया। जैनों ने स्वपक्षसिद्धि से ही जय—पराजय व्यवस्था का औचित्य माना। इसी प्रसंग में लिखित शास्त्रार्थ का उल्लेख भी हुआ है, जिसमें आदान—प्रदान किए जाने वाले लेख—प्रतिलेखों को ‘पत्र’ की संज्ञा दी गई है। पत्र को प्रकृति—प्रत्यय गुप्त रखकर गूढ़ बनाने का निर्देश किया गया है। पत्र में प्रतिज्ञा और हेतु दो ही अवयव प्रयोग किए जाते थे। इस प्रसंग में नैयायिक—वैशेषिकों के पत्र का उल्लेख करते हुए प्रमेयकमलमार्तण्ड ने उसका निराकरण भी किया है। इस प्रकार जैन न्याय मेें मौखिक और लिखित दोनों वाद—व्यवस्थाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं।