पर्यावरण वैज्ञानिकों की मान्यतानुसार इस विराट सौरमण्डल में पृथ्वी ग्रह पर ऐसी अद्भुत जीवन संरचना है कि यहाँ अगाध सागर, उत्तुंग पर्वत, जीवन रस बहाती नदियाँ और वायुमण्डल की छत्रछाया है। नदियों के जल का सिंचन पाकर इस ऊर्वरा भूमि पर हरे—भरे पेड—पौधे उत्पन्न हुए हैं। पेड़—पौधों ने अपनी प्राण—वायु से अन्य प्राणियों को सांसें दीं तथा भोजन एवं अन्य आवश्यकताओं की सम्र्पूित की। प्रकृति की सम्पूर्ण व्यवस्था, प्राणियों की जीवन—धारा को सुरक्षित बनाये रखने के लिए है। परन्तु मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अतुल प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट करने पर उतारू है। एक संवेदनशील लेखक ने एक जगह लिखा है—‘आसमां भर गया परिन्दों से, पेड़ कोई हरा गिरा होगा।’ इतना ही नहीं वह अपने सुख के लिए अन्य जीवों की हत्या करने से बाज नहीं आ रहा है। जीव—सृष्टि के साथ उसका यह अनुचित व्यवहार न केवल सामाजिक प्रदूषण के स्तर पर बल्कि आन्तरिक प्रदूषण के लिए भी उत्तरदायी है। महावीर सत्य की खोज करते—करते केवल मनुष्य तक ही नहीं रुके, पशु—पक्षी एवं क्षुद्र जीव—जन्तुओं से भी आगे बढ़कर पर्यावरण की सुरक्षा तक पहुँच गये और अनततोगत्वा वे प्रकृति से जुड़ गये थे। उन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और हरियाली में जीवन/चेतना एवं प्राणों का स्पन्दन होते देखा तथा इनके सापेक्ष अस्तित्व को निहारा। अस्तु, महावीर दर्शन का महान अवदान जैन संस्कृति ने पर्यावरण सन्तुलन एवं संरक्षण के लिए अद्भुत सूत्र दिये। महावीर ने श्रमणाचार एवं श्रावकाचार की वैज्ञानिकता को पर्यावरणीय सन्दर्भ में प्रतिष्ठित किया। यह तो हमारी सोच की लाचारी एवं बीमारी है, जिसने जैन को गुणवाचक संज्ञा के स्थान पर जातिवाचक संज्ञा बना लिया है। प्रकृति के साथ मानवीय संबंधों की सौगात वस्तुत: पर्यावरण चेतना का एक अविभाज्य अंग है। आज सम्पूर्ण विश्व में एक चेतावनी, चिन्तन और चेतना का दौर सा चल रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसके लिए शिखरवार्ताएँ आयोजित होती रही हैं। चाहे वह १९७२ में स्टॉकहोम में आयोजित मानव—पर्यावरण सम्मेलन हो या १९९२ में पृथ्वी सम्मेलन। सभी में यह चिन्ता व्यक्त की गई थी जीवन और जगत् को पर्यावरण—प्रदूषण से कैसे बचाया जाये। आज की भोगवादी संस्कृति ने पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को असन्तुलित कर दिया है। जैन धर्म / संस्कृति और जैनाचार इस समस्या के प्रति मूक दृष्टा बनकर नहीं रहा है अपितु इसके समाधान के लिए प्रयत्नशील/मुखर भी है।
असन्तुलित पर्यावरण एवं मानव
१. पर्यावरण प्रदूषण के संबंध में १९८० में अमरीकी राष्ट्रपति ने विश्व २००० के प्रतिवेदन में कहा था—‘यदि पर्यावरण—प्रदूषण नियंत्रित न किया गया तो २०३० तक तेजाबी वर्षा, भूखमरी और महामारी का तांडव नृत्य होगा।
२.उद्योगीकरण एवं नगरीकरण अपने कूड़ाकरकट से नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिससे जलीय जीव—जन्तुओं के साथ—साथ मानव जीवन भी खतरे में है।
३. वनों का सफाया होने से जीव—जन्तुओं की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। सन् १६०० से अब तक स्तनधारियों की लगभग १२० जातियाँ तथा पक्षियों की २२५ प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं तथा इस सदी के अंत तक वन्य प्राणियों की ६५० प्रजातियाँ विलुप्त होने की संभावना है। वन—विनाश से वर्षा में कमी, बाढ़ भू—स्खलन, भू—क्षरण, मरुस्थली करण एवं अन्य पारिस्थितिक विक्षोभों में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
४.पृथ्वी तल से लगभग १०० कि.मी. ऊँचाई पर ओजोन गैस की पारदर्शी रक्षा परत है जो पराबैंगनी और ब्रह्माण्ड किरणों जैसी घातक सौर—किरणों, विमानों आदि के धुएं से ओजोन परत नष्ट हो रही है। विश्व में करीब ७५० हजार टन ऐसी घातक असर होता है। उत्तरी ध्रुव पर अंटार्कटिका के ऊपर एक ओजोन—छिद्र नजर आने लगा है जो वैज्ञानिकों के लिए चिन्ता का विषय बन गया है।
५.आणविक—परीक्षणों से घातक रेडियाधर्मी प्रदूषण बढ़ रहा है, जिससे अंतरिक्ष भी प्रदूषण से रहित नहीं रह पा रहा है। विगत ५० वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण इतना बढ़ गया है जितना पिछले ४०० वर्षों में भी नहीं बढ़ा था। इसका कारण मनुष्य द्वारा प्रकृति के संसाधनों का अतिशय दोहन है। भारत में या विश्व के देशों में आने वाले भूकम्प का कारण वैज्ञानिकों ने भूमि के नीचे जल स्तर का गिर जाना भी बताया है। भूमि के बहुत नीचे शून्य पैदा हो जाने से ऐसी संहारक—घटनाएं होना संभव माना गया है।
तीर्थंकरों के प्रतीक चिन्ह और पर्यावरण
चौबीस तीर्थंकरों के चिन्ह पर्यावरण—संरक्षण के रहस्य को समेटे हुए हैं। जैन श्रमणों/तीर्थंकरों की दिगम्बर—मुद्रा, प्रकृति तथा परिस्थिति की मूल अवधारणा से जुड़ी है। प्रकृति में कोई आवरण नहीं, इसी प्रकार प्राकृतिस्थ—जीवन आवरण रहित होता है। वस्तुत: जैन धर्म प्रकृति के साथ तादात्म्य की अनोखी प्रस्तुति है। अतएव तीर्थंकरों ने प्रकृति, वन्य पशु, वनस्पति जगत् के प्रतीक चिन्हों से अपनी पहचान जोड़ दी। बारह थलचर जीव—वृषभ, हाथी, घोड़ा, बन्दर, गैंडा, महिष, शूकर, सेही, हिरन, बकरा, सर्प और सिंह हैं। जहाँ वृषभ/ अन्न उत्पादन का मुख्य घटक है, वहीं शूकर अस्पर्श समझा जाने वाला पशु जीवों के उत्र्सिजत मल का भक्षण कर पर्यावरण को शुद्ध रखने वाला एक उपकारक पशु है। सर्व विषैले कीटों का भक्षण कर वातावरण को हानिकारक जीवाणुओं से रहित बनाता है। सिंह को छोड़ शेष ग्यारह पशु शाकाहारी, जो शाकाहार की शक्ति के संदेश—वाहक हैं। चक्रवाहक एक नभचर प्राणी है तथा मगर मछली और कछुआ जलचर पंचेन्द्रिय हैं जो जल—प्रदूषण को समाप्त करने में सहायक जल जन्तु हैं। लाल, नील कमल तथा कल्पवृक्ष वनस्पति जगत् के प्रतिनिधि हैं। कमल—वीतराग भाव का प्रतीक है जिसकी सुरभि—पर्यावरण को सुवासित करती है और सौंदर्य का अवदान देती है। जड़ वस्तुओं में बङ्कादण्ड, मंगल कलश, अर्धचन्द्र, शंख तथा स्वस्तिक सभी मानव—कल्याण की कामना के प्रतीक हैं। ये सभी चौबीस चिन्ह प्रकृति और पर्यावरण से जुड़े मुख्य घटक हैं।
जैन दर्शन में—‘परस्परोपग्रहो जीवानाम’ का अमर सूत्र एवं पर्यावरण
उमास्वामी देव ने तत्वार्थ सूत्र ग्रंथ में एक महान सूत्र दिया है—‘परस्परोपग्रहो जीवानाम’ (५/२१) परस्पर एक जीव का दूसरे जीवों के लिए उपकार है। जगत् में निरपेक्ष जीवन नहीं रह सकता। एक बालक की योग्यता के निर्माण में उसके माता—पिता, गुरु, समाज, शासन, संगति एवं पर्यावरण आदि सभी का उपकार जुड़ा होता है। हर व्यक्ति पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से जुड़ा है और अन्याय ग्रहों की अदृश्य शक्तियों से प्रभावित होता रहता है उसके अस्तित्व की डोर धर्म और अधर्म द्रव्य, आकाश, काल और पुद्गल द्रव्य के उपकार से सम्बद्ध है। प्राणी एवं मनुष्य, वनस्पति जगत् के उपकार से निरपेक्ष नहीं। मनुष्य की त्याज्य अशुद्ध हवा जहाँ वृक्ष—पादपों के लिए ग्राह्य होती है, वहीं वनस्पतियों द्वारा उत्र्सिजत वायु मानव व अन्य प्राणियों के लिए प्राणवायु है। इस अन्योन्याश्रय सिद्धान्त पर प्रकृति और सम्पूर्ण पर्यावरण टिका होता है।
जैन संस्कृति का बहुमान—तीर्थक्षेत्र/मंदिर तथा पर्यावरण
समस्त जैन तीर्थ / सिद्धक्षेत्र/ अतिशय क्षेत्र, हरे—भरे वृक्षों से युक्त पर्वत शिखरों, नदियों के कूलों, झीलों, उद्यानों आदि पर अवस्थित हैं। चाहे वह निर्वाण भूमि सम्मेद शिखर (मधुवन) हो या गिरनार—पर्वत, चाहे श्रवणबेलगोल की विन्ध्यगिरि व चन्द्रगिरि की मनोरम उपत्यकाएँ हों या राजस्थान के आबू पर्वत पर देलवाड़ा के विश्व प्रसिद्ध मंदिर या बुन्देलखण्ड के अतिशय क्षेत्र—देवगढ़, कुण्डलपुर, सोनागिरि, गुजरात का शत्रुञ्जय क्षेत्र, पालीताणा सभी शुद्ध पर्यावरण के पवित्र स्थान हैं। पुराणों से सिद्ध है कि प्राचीन जैन मंदिर उद्यानों, सरोवरों से घिरे बगीचों में हुआ करते थे। इसीलिए आज भी मंदिरों के सेवकों को माली या बागवान कहते हैं। ध्यान व उपासना के केन्द्र समस्त जिनालय उद्यानों के बीच होते थे। इसका संबंध निश्चित ही पर्यावरण से है जो प्रदूषण से रहित सुरक्षित स्थानों में निर्मित होते थे। श्रमणों की तपस्थली निर्जन घने वन या पर्वतमालाएँ / गुफाएँ हुआ करती थीं। २० तीर्थंकरों ने सम्मेदाचल को तपोभूमि वहाँ के पर्यावरण के कारण ही चुना होगा। जहाँ घने जंगलों से शुद्ध प्राणवायु (ऑक्सीजन) का अपार भण्डार अनायास ही साधक की साधना को निर्मिवघ्न बनाये रखता था। प्राकृतिक सुषमा से युक्त, शान्त, एकान्त वातावरण अध्यात्म की साधना में सहायक हुआ करता था। ग्रीष्मकाल में भी वृक्षों के कारण शीतल आद्र्र वायु का संचार सूर्य की तपन को कम कर देता है।
अहिंसा और पर्यावरण संरक्षण :
अहिंसा, पर्यावरण के संरक्षण का मूल आधार है। अहिंसा की आचार संहिता जीवों की रक्षा करके पर्यावरण को पूर्ण सन्तुलित रखती है। अहिंसा जैन संस्कृति का प्राण है। श्रावक की भूमिका में आरंभी, उद्योगी और विरोधीहिंसा त्याज्य नहीं है, परन्तु संकल्पी—हिंसा का वह त्यागी होता है। त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है तथा एकेन्द्रिय स्थावर जीवों जैसे—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की भी अकारण विराधना नहीं करता है।
शाकाहार और पर्यावरण सन्तुलन :
इन दोनों का चोली—दामन का संबंध है। मुनि विद्यानन्द जी महाराज ने कहा है—‘क्रूरताओं की शक्ति का बढ़ना, इस शताब्दी का सबसे बड़ा अभिशाप है।’ इससे समग्र पर्यावरण प्रदूषित होता है। प्रकृति ने मानव आहार के लिए वनस्पति व स्वादिष्ट फल मेवा दिये हैं। जो पशु—पक्षी मानव के प्यार से इतने वफादार बन जाते हैं कि अपना सब कुछ निछावर कर सकते हैं, उन्हें अपना आहार बनाना कितना घृणित है ? मांसाहार क्रूरता की जमीन से पैदा होने वाला आहार है जो सर्वथा प्रकृति के प्रतिकूल होता है। मांसाहार पृथ्वी पर जलाभाव के लिए उत्तरदायी है। प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि जहाँ प्रति टन मांस उत्पादन के लिए लगभग ५ करोड़ लीटर जल की आवश्यकता होती है वहाँ प्रति टन चावल/गेहूँ के लिए क्रमश: ४५ लाख व ५ लाख लीटर जल की ही आवश्यकता पड़ती है। अमेरिका में कत्लखानों के कारण पर्यावरण—विनाश की जो स्थिति पैदा हो रही है, वही भारत में होनी सुनिश्चित है। भारत में पशुधन का जिस गति से विनाश कर मांस उत्पादन किया जा रहा है, वह मांस निर्यात भारत शासन की नीति के कारण हो रहा है जो विदेशी मुद्रा के अर्जन के अलावा और कुछ नहीं देखती। देश के कत्लखाने पर्यावरण के शत्रु हैं।
श्रमणाचार एवं पर्यावरण
जैन मुनि—अठाइस मूलगुणों का पालन करते हैं जो विशुद्ध वैज्ञानिक एवं पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल है। मुनि का अपरिग्रह महाव्रत प्रकृति से अतिदोहन पर अंकुश रखने का प्रतीक है। उनका शरीर से अस्नान, जहाँ जल अपव्यय रोकता है वहीं अयाचित आहार बहुगुणित अभिलाषाओं को विराम देने और सात्विक भोजन को आसक्ति रहित होकर करने का विधान है। पेट की भूख से संग्रह प्रवृत्ति नहीं है अपितु अनंत इच्छाओं/लालसा की भूख से संग्रह प्रवृत्ति को बल मिलता है। इसी प्रकार पंच समितियों का पालन भी पर्यावरण संरक्षण में अपनी तरह से योग देता है एवं निर्जन्तु/एकान्त स्थान में मलमूत्र क्षेपण वायु प्रदूषण के बचाव के लिए है।
श्रावकाचार एवं पर्यावरण
श्रावक बारह प्रकार के आचार का पालन करता है। १. पंच अणुव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण व्रत) जो मनुष्य के आन्तरिक पर्यावरण की शुद्धि करके मन/भावना को पवित्र बनाते हैं। भावना के परिष्कार से अन्तर्जगत के प्रदूषण का विनाश होता है। २. तीन गुणव्रत (दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्ड विरति)। अनर्थदण्ड विरति के अन्तर्गत–अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसादान और अशुभश्रुति का त्याग करता है। इनके अनुशीलन से बाह्य पर्यावरण शुद्ध रहने के साथ वह अनर्थदण्ड विरति के अन्तर्गत ऐसे व्यापारादि नहीं कर सकता जो प्राणियों को कष्ट पहुँचाये, अनावश्यक जंगल कटवाये, जमीन खुदवाये, जल प्रदूषित करे, विषैली गैस का प्रसार या हिंसा के उपकरणादि देना यह सबहिंसा दान के अंतर्गत आता है। श्रावक इन सबका त्यागी होता है। साम्प्रदायिक तनाव, जातीय दंगे जैसी अशुभ बातों का करना—करना, सुनना—सुनाना अशुभश्रुति है जिसका वह त्यागी होता है। ३. चार शिक्षा व्रत—सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण और अतिथि संविभाग ये चारों जीवन को संयमित व मर्यादित बनाकर पर्यावरण सन्तुलन में अहम भूमिका का निर्वाहन करते हैं। इसके अलावा श्रावक रात्रि भोजन त्यागी व जल छान कर पीता है जो पर्यावरण प्रदूषण से बचे रहने की अचूक दृष्टि प्रदान करते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म/दर्शन/संस्कृति की उक्त कतिपय बातें पर्यावरण के संरक्षण/संवद्र्धन में अपना महत्वपूर्ण योगदान करती हैं। जैनधर्म वैज्ञानिक धर्म है, जिसमें क्रियाकाण्डों एवं परम्पराग अंधविश्वासों के लिए कोई स्थान नहीं है। पर्यावरण का संबंध वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा हुआ है। जैन संस्कृति में परोक्ष या प्रत्यक्ष—पर्यावरण से संबंधित समस्त संभावनाएँ समाहित है। जैनधर्म का अनुशीलक पर्यावरण सन्तुलन का सम्पोषक व समर्थक होता है। विश्व को प्राकृतिक आपदाओं/प्रकोपों से निजात दिलाने की दृष्टि से जैनधर्म के सर्वमान्य सिद्धान्त—अहिंसा एवं शाकाहार बड़े सशक्त वैज्ञानिक सिद्धान्त माने जा सकते हैं।