जैन समाज के ज्योतिर्धर विद्वान- श्री वीरचन्द गाँधी
बात सौ वर्ष पहले की है। एक मध्यम कद एवं छरहरे बदन का व्यक्ति सिरपर बड़ा साफा (पगड़ी) व लम्बा झब्बा पहने कमर में दुपट्टा कसकर प्राचीन भारतीय पादत्राण पहनकर चन्दन तिलक करके विदेश यात्रा पर निकल पड़ा। दूर से देखने वाले को पहली नजर में ग्रामीण सा दीखता वह व्यक्ति सात समुद्र पार कर अमेरिका पहुँचा। यह उद्देश्य लेकर कि वह अपने देश भारत की एवं जैनधर्म की पहचान कराये। वह समय था। जब चिकागो अमेरिका में विश्व के विविध धर्मों के धर्मधुरन्धर एवं चिन्तक दूर—दूर देशों से वहाँ आये थे। वह स्मरणीय समय था ११ सितम्बर १८९३ से २७ सितम्बर १८९३ का विश्व इतिहास की वह महत्वपूर्ण परिषद थी ‘सर्वधर्म परिषद’ इस परिषद ने दुनिया के प्रत्येक धर्म को निमन्त्रण दिया था। जैन धर्म को भी निमन्त्रण था। उस समय में विद्यमान ज्योतिर्धर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज को परिषद ने निमन्त्रण दिया था। लेकिन श्रमण धर्म के नियमानुसार विदेश जाना अशक्य था अत: उन्होंने इस शख्स को जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भेजा था।
पश्चिम की दुनिया ने
पश्चिम की दुनिया ने जब तक इन्हें सुना नहीं तब तक यही मान रही थी कि भारत की भूमि जंगली जानवरों एवं सांपों की भूमि है जहाँ जंगली लोग रहते हैं। जब उन्होंने धारा प्रवाह अंग्रेजी में भारत की संस्कृति और जैनधर्म के जीवन को प्रकाशमान करते सिद्धान्तों पर श्रुतिप्रिय प्रवचन देते इन्हें सुना तब उन्हें भारतदेश और जैनधर्म की वास्तविकता का बोध हुआ और यह भी जान सके कि ग्रामीण पोषाक में एक विलक्षण मेधावी तथा प्रतिभासम्पन्न विद्वान आत्मा विराजमान है। परिषद् में उन्हें बोलने के लिए कुछ ही मिनिट का समय मिला था और उतने समय में ही उन्हें सम्पूर्ण जैनधर्म की तथा भारतवर्ष की झांकी बतानी थी वह भी विदेशी भाषा में। अपने समय पर वे बोलने के लिएण् खड़े हुए। प्रथम अपने गुरु को वन्दन किया और जैनधर्म के अगाध ज्ञानसागर के अनमोल मोती विद्वत सभा में उन्होंने बिखेर दिये। परिषद उनकी धारा प्रवाह सरल शैली, उनका ज्ञान, अंगे्रजी पर उनका प्रभुत्व सब कुछ देखकर दंग रह गई, चकित हो गई। उन्होंने सुनकर पश्चिम की दुनिया ने जाना कि जैन धर्म एक स्वतन्त्र धर्म है एकान्त रूप से कोई भी तत्त्व न सत्य है न असत्य। हर तत्व में अनन्त गुणधर्म होते है और पश्चिम की दुनिया ने पहली बार जाना कि अहिंसा एक अमोध शस्त्र है। क्षमा—वैर की अमोध औषधि है। पश्चिम की दुनिया के लिए यह सब एकदम नया था—कर्म सिद्धान्त, आत्मा की अनन्त शक्ति, अनेकान्त दृष्टि, वीतरागी जीवन आदि। इस दुनिया ने हिन्दुस्तान के मानव को काले आदमी के रूप में के रूप में जाना उसने इस हिन्दुस्तानके व्यक्ति को अन्तर की लाख—लाख उमंग ऊर्मियों से सम्मानित किया। जहाँ—जहाँ यह व्यक्ति गया उसे देखने और सुनने तथा उसका सान्निध्य पाने के लिए हजारों—हजारों लोग पहँुच जाते और इस व्यक्ति ने भी अपना ज्ञान सागर जनता के के लिए उल्लसित और ऊर्मिल रखा।
वह ज्ञान का सागर कौन था ?
वह ज्ञान का सागर कौन था? दूसरी धरती पर मनुष्यों को चकित और विस्मित करने वाला यह व्यक्ति कहां का निवासी था ? वह था ब्रिटिशों के गुलाम राष्ट्र हिन्दुस्तान के एक छोटे से गांव का छोटा—सा नागरिक। मात्र २९ वर्ष का नवजवान। जो पश्चिमी बुद्धिवादी दुनिया को अपनी संस्कृति और अपने धर्म का सन्देश सुनाने के लिए अपूर्व श्रद्धा एवं अतुल साहस के साथ खड़ा हुआ था। उस साहसी वीरपुत्र का जन्म भारत की धरती पर सौराष्ट्र के महुआ गांव में हुआ था। छोटे गांव में छोटा सा हीरे —जवाहरात का व्यापार करते धर्म प्रेमी, ईमानदार और दयालु पिता श्रीयुत युगत राधवजी की यह भाग्यशाली सन्तान थीं २५ अगस्त १८६४ को इस धरा पर जन्म लेकर श्री वीरचन्दभाई के रूप में प्रतिष्ठित हुआ था। पिताजी वीरचन्दभाई को अंग्रेजी पढ़ाना चाहते थे अत: महुवा तथा भावनगर के शिक्षण के बाद उन्होंने मुंबई युनिवर्सिटी की मेट्रिक्युलेशन उच्चांकों के साथ पास किया और २० वर्ष की उम्र में वे मुम्बई की ओब्फिस्टन कॉलेज से १८८४ में जैन समाज के प्रथम स्नातक हुए। शिक्षा पूर्ण होते उन्हें जैन एसोसिएशन ऑफ इन्डिया’ का आमंत्रण मिला और उस संस्था के वे मंत्री बने। इस संस्था में रहकर उन्होंने ऐतिहासिक, रचनात्मक और यशस्वी कार्य किये। अपनी ेप्रतिभापूर्ण कार्यों से उन्होंने पालीताणा के यात्रियों पर आये कष्ट को दूर किया। इसी तरह १८९१ में मि. बेडम ने कत्तलखाना के लिए समेतशिखर की भूमि पसन्द की थी। प्रथम श्री रायव्रदी दास ने अंग्रेजों के सामने केस किया किन्तु कलकत्ता के कोट से वह केस समाप्त हो गया। तब वीरचन्दभाई ने कलकत्ता जाकर हाइकोर्ट में अपील की। बंगाली भाषा सीखी, डोक्युमेन्ट्स का अध्ययन किया और सम्पूर्ण तैयारी के साथ कोर्ट में लड़े। फलत: न्याय श्री वीरचन्द भाई के पक्ष में मिला।
सन् १८९३ मे विश्व धर्म
सन् १८९३ मे विश्व धर्म परिषद (चिकागो) में पुन: जैनधर्म के प्रतिनिधि के रूप में आचाय आत्मारामजी महाराज को निमन्त्रण मिला और उन्होंने वीरचन्दभाई को आशीर्वाद दिये। अनेकों शुभच्छकों की शुभच्छाओं को लेकर वे चिकागो पहँुचे। उस समय उनकी उम्र मात्र २९ वर्ष की थी। इस छोटी उम्र में भी उनका ज्ञान उनका उत्साह और उनका धर्मप्रेम महासागर की विराट लहरों की तरह उल्लासित था। उनके ज्ञान की चमक से चमत्कृत थे विद्वद् जन । सैकड़ों की संख्या में उन्होंने जैनधर्म तथा भारतीय संस्कृति पर प्रवचन दिये। लन्दन में उन्होंने फिलोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। पाठ्यक्रम शुरू किया। व्यक्तिगत टयुशन लिए, कुछ लोगों को शाकाहारी बनाया। अमेरिका तथा इग्लैंड दोनों देशों में उन्होंने अपनी मेघा की छाप छोड़ी। १८९५ में वे हिन्दुस्तान लौटे। यहाँ उन्होंने हेमचन्द्राचार्य वर्ग शुरु किये। बुद्धिवर्धक सभा, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी जैसी अनेक संस्थाओं ने उनके प्रवचन रखे। पुन: १८९६ में उनके प्रशंसकों के निमन्त्रण पर वे अमेरिका गये और लन्दन से वाशिंग्टन तक प्रचार किया तथा बेरिस्टर का अध्ययन कराके ‘बार—एट—लॉ’ बने। पुन: शत्रुंजय पर्वत पर विपत्ति आने से जैन समाज ने उन्हें हिन्दुस्तान बुला लिया और पुन: केस लड़कर उन्होंने शत्रुंजय पर्वत को बचा लिया। उन्होंने प्रन्स, जर्मनी तथा यूरोप में अहिंसा का भरपूर प्रचार किया। सन् १९०१ में स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया और ७ अगस्त १९०१ में स्वर्ग सिधार गये । इतिहास जब तक रहेगा वीरचन्द भाई तबतक स्मृति में बने रहेंगे।