सहायक आचार्य जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग,
जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूँ (राजस्थान)
जैन धर्म दर्शन एवं संस्कृति विशेषकर आचार-विचार का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आगम ग्रन्थों का आलोड़न-विलोड़न करना अपरिहार्य है, अतएव उपका महत्व स्वत: सिद्ध है। ऐतिहासित दृष्टि से भी जैन-धर्म का प्राचीनतम स्वरूप एवं सांस्कृतिक विरासत आगमों में ही उपलब्ध होता है। आगम शब्द की व्युत्पत्ति तथा उसका अर्थ : ‘आड्र’ उपसर्ग-पूर्वक भ्वादिगणीय ‘गम्ऌ-गतौ’ धातु से अच् प्रत्यय करने पर अथवा इसी धातु के करण अर्थ में ‘धञ्’ प्रत्यय करने पर आगम शब्द निष्पन्न होता है।(क) शब्द भा १ पृ. १६५ (ख) वाच. भा. १ पृ. १६४ प्रामाणनयतत्वालोक- आप्त वचन ही आगम है।(क) आप्त वचल वा । अनु.सू.पृ. ३८ (ख) जै.आ.द. पृ. २३ अर्थ ज्ञान जिससे हो, वह भी आगम है।जै. आ. द. पृ. २३ प्रामाणनयतत्वालोकालंकारकार की दृष्टि से आप्त-पुरुष की वाणी से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आगम हैै।आप्तवचनादिविर्भूतमर्थसंवेदनाम प्र.नय.त. ४/१ जहाँ तक आप्त-पुरुष की वाणी का सम्बन्ध है, तीर्थंकर, गणधर, चतुर्दसपूर्वधारी, दसपूर्व-धारी तथा प्रत्येक बुद्ध की वाणी को जैन दर्शन में आगम माना है।सुत्तं गणधरकधिद तहेव पत्तेयबुद्धकधकिदं च। सुदकेवलिणाकधिदं अभिण्णदसपुव्विं- कथिदं च।। मूला ५/८० आचार्यों ने पूर्वा पर दोष रहित सम्पूर्ण पदार्थों के द्योतक आप्त वचन को बताया है।(क) पूर्वपरविरुद्धादेव्र्यपतो दोषंहते:। द्योतक सर्वभावनामाप्तव्याहितरागम:।। जै.सि.को. पृ. २३७(ख) नियम, गाथा ८ अर्हत् भगवान अर्थ रूप में तत्वों और सत्य का यथार्थ निरुपण करते हैं तथा गणधर उसे शासनहित में उन्हें सूत्र रूप में गुम्फित करते हैं।आप्त वचनादि अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं सासणस्य हियटठाए तो सुत्तं पवत्तइ।। आ.नि. गाथा १९२ इसी कारण जैन आगम तीर्थंकर प्रणीत कहे जाते हैं।नंदीसू ४० आप्त वचनादि से होने वाले ज्ञान को आगम कहते हैं। (क) आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागम:। जै.सि.को. पृ. २३७(ख) परीक्षा ३/१५ आगम एवं श्रुत केवली भगवान के द्वारा जो कहा गया है तथा गण्धर के द्वारा जो धारण किया गया है उसे श्रुत कहते हैं।तदुपदिष्टं बुद्धचातिषयद्र्धियुक्तगणधरावधारितं श्रतम् जै.सि.को. पृ. २३८ आचार्य उमास्वामि ने श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में आगम शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिहा, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन को श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार किया है। श्रुतमाप्तवचनं आगम उपदेश ऐतिह्ममाम्नाय: प्रवचनं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम्। सभाष्यतत्वार्थतिगम्सूत्र १/२० वस्तुत: यहाँ श्रुत शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतएव आचार्य परम्परा से जो श्रुत ज्ञान आया है, वह ही आगम कहलाता है।ज्ञाताधर्मकथांग १/७/४
आगमों की भाषा
जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है। भगवान महावीर अर्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते थे। अर्धमागधी प्राकृत भाषा ही एक रूप है। इस भाषा को देव भाषा कहा गया है अर्थात् देवता अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं। प्रज्ञापना में इस भाषा का प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा गया है। यह मगध के आधे भाग में बोली जाती थी तथा इसमें अठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रत हैं। इसमें मागधी शब्द के साथ-साथ देश्य शब्दों को भी प्रचुरता है। इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है। आगम के कर्ता : जैन परम्परा के अनुसार आगम पौरुषेय है। मीमांसक जिस प्रकार वेद के अपौरुषेय मानता है, जैन की मान्यता उसमें सर्वथा भिन्न है। उसके अनुसार कोई ग्रंथ अपौरुषेय हो ही नहीं सकता है तथा ऐसे किसी भी ग्रंथ का प्रामाण्य भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जितने भी ग्रंथ हैं उनके कर्ता अवश्य हैं। जैन परंपरा में तीर्थंकर सर्वोत्कृष्ट प्रामाणिक पुरुष है उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रत्येक शब्द स्वत: प्रमाण है। वर्तमान में उपलब्ध सम्पूर्ण जैन आगम अर्थ की दृष्टि से तीर्थंकर से जुड़ा हुआ है अर्थागम के कर्ता तीर्थंकर हैं एवं सूत्रागम के कर्ता गणधर एवं स्थविर हैं। अर्थ का प्रकटीकरण तीर्थंकरों द्वारा होता है। गणधर उसे शासन के हित के लिए सूत्र रूप में गुम्फिल कर लेते हैं। गणधर केवल द्वादशांग की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। वे गणधरकृत आगम से ही निर्यूहण करते हैं। स्थविर दो प्रकार के होते हैं – १. चतुर्दशपूर्वी २. दर्शपूर्वी। ये सदा निग्र्रन्थ प्रवचन को आगे करके चलते हैं। एतदर्थ उनके द्वारा रचित ग्रंथो में द्वादशांगी से विरुद्ध तथ्यों की संभावना नहीं होती। अत: इनके भी जैन परम्परा आगम के कर्ता के रूप में स्वीकार करती है। ज्ञाताधर्मकथांग और संस्कृति के तत्व : अंग साहित्य में ज्ञाताधर्मकथांग का छठा स्थान है। इसके दो श्रुत स्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञात अर्थात् उदाहरण और द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएं हैं। यही कारण है कि इस आगम को ‘णायाधम्मकहाओ’’ भी कहा जाता है। इस ग्रंथ में मुख्यत: उदाहरणों, कथाओं के माध्यम से आत्म उन्नति का मार्ग, मार्ग में समागत व्यवधान तथा व्यवधानों का उचित समाधानों की सांगोपांग व्याख्या की गई है। जीवन में उत्थान के लिए व्याख्यायित इन कथाओं में तत्कालीन संस्कृति के अनुभव का अमृत समाहित है। ज्ञाताधर्मकथांग में तत्कालीन संस्कृति की महक मौजूद है। ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित सामाजिक-जीवन, राजव्यवस्था, धार्मिक मत-मतान्तर, आर्थिक जीवन, भौगोलिक स्थिति, शिक्षा, कला तथा विज्ञान आदि विषयों का विवेचन किया गया है।ज्ञाताधार्मकथांग में जहाँ सुखी पारिवारिक जीवन के सूत्र मिलते हैं, वहीं उत्तरदायी शासन व्यवस्था का उत्कर्ष भी दृष्टिाोचर होता है।समाज सेवा के विविध प्रसंग तत्कालीन संस्कृति को ‘परहित सरसि धर्म नहीं भाई’ की भावना के समीपस्थ प्रस्तुत करते हैं। कथाओं के माध्यम से जैनधर्म और दर्शन के विविध पहलुओं के साथ-साथ अन्य धर्मों एवं मतों के सम्बन्ध में भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है। श्रेणिक, मेघकुमार, धन्यवार्थवाह, थवच्चागाथापत्नी, राजा जितशत्रु, द्रुपद राजा व काली रानी आदि के अपार वैभव से तत्कालीन आर्थिक स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इन कथाओं से स्पष्ट है कि गुरु-शिष्य सम्बन्ध तत्कालीन संस्कृति का उज्जवल पक्ष था। शिक्षा केवल सिद्धान्तिक ही नहीं व्यावहारिक भी थी।
ज्ञाताधर्मकथंग में भौगोलिक स्थिति
शिक्षा, अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व सामाजिक स्थिति आदि संस्कृति को प्रभावित करने वाले विभिन्न घटक भौगोलिक परिवेश से अप्रभावित नहीं रह सकते। तत्कालीन भोगोलिक स्थिति से सम्बद्ध विभिन्न पहलुओं तथा संसार, नरक, अधोलोक, जम्बूद्वीप, रत्नद्वीप, घातकीखण्ड, नन्दीश्वर द्वीप, कालिक द्वीप, महाविदेह व पूर्वविदेह आदि द्वीव, नगर, पर्वत, नदियाँ, ग्राम, उद्यान, वन, वनस्पति आदि भौगोलिक विश्लेषण का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथांग में विविध अध्यायों में किया गया है। द्रोणमुख, पटटन, पुटभेदन, कर्वट, खेट, मटम्ब, आकार, संवाह, आश्रम, निगम व सन्निवेष आदि विभिन्न प्रकार के नगरों का संक्षिप्त विवेचन करते हुए राजगृह, चम्पा आदि महत्वपूर्ण नगरों की भोगोलिक स्थिति का वर्णन भी इसमें किया गया है। द्रोणमुख, पटटन, कर्वट, खेट, मटम्ब, आश्रम, निगम आदि विभिन्न प्रकार के नगरों का संक्षिप्त विवेचन के साथ राजगृह, चम्पा आदि महत्वपूर्ण नगरों का इसमें वर्णन है। इसमें विभिन्न राजमहलों का भी उल्लेख आया है। उन्हीं संदर्भ में भवन निर्माण कला का वर्णन करते हुए भवन के विभिन्न प्रमुख अंगों-द्वार, स्तम्भ, गर्भगृह, अगासी, अट्टालिका, प्रमदवन, मण्डप, उपस्थानशाला, अन्त:पुर, शयनागार, भोजनशाला, प्रसूतिगृह, भाण्डागार, श्रीगृह व चारकशाला आदि कर स्थिति व्यक्त की गई है। ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन : ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक स्थिति से जुड़े विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है। यहाँ बतलाया गया है कि तत्कालीन परिवार में पति-पत्नी के अलावा माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री आदि रहते थे। परिवार मुखिया व्योवृद्ध सदस्य या पिता होता था और सब परिजन उसकी आज्ञा का पालन करते थे।१२ सामाजिक शिष्टाचार में अतिथि-सत्कार को अत्यधिक महत्व दिया जाता था। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त विविध संस्कारों का विधान भारतीय संस्कृति में रहा है। जन्म, नामकरण, राज्याभिषेक, विवाह व दीक्षा आदि संस्कारों का वर्णन भी यहां प्राप्त होता है। ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित नारी जहाँ एक ओर अपने शीलाचार और सतीत्व के कारण पुरुष तो क्या देवताओं तक की आराध्य है वही दूसरी तरफ वह व्यभिचारिणी स्त्री के रूप में प्रकट हुई है। वह साध्वी के रूप में मानव को आत्मकल्याण का पथ दिखलाती है तो गणिका के रूप में जनमानस के बीच कला की उपासिका बनकर उभरती है।ज्ञाताधर्मकथांग १/१३/१२-१८ समाज अप्रत्यक्ष रूप से ब्रह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र चार वर्णोंं में विभक्त था। बहुपत्नीकवाद, वैश्यावृत्ति, दहेजप्रथा, दासप्रथा, हत्या, अपहरण, लूटपाट आदि बुराइयाँ समाज के भाल पर कलंक थीं, वहीं दूसरी ओर समाज में प्रचलित आश्रम-व्यवस्था व्यक्ति को चरम लक्ष्य-मोक्ष की ओर बढ़ने के लिए अभिप्रेरित करती थी। ज्ञाताधर्मकथांग और अर्थव्यस्था : ‘अर्थ’ जीवन रक्त के समाज है, इसके बिना सांस्कृतिक अभ्युत्थान की कल्पना नहीं जा सकती है। अर्थव्यवस्था की दिशा और दशा का विश्लेषण भी इसमें किया गया है। कृषि अर्थव्यवस्था की धुरी थी। कृषि पूर्णत: वैज्ञानिक ढंग से की जाती थी लेकिन किसी प्रकार के रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग नहीं किया जाता था, जो स्वास्थ्य के प्रति उनकी जागरूकता का प्रमाण है। सिंचाई के साधन के रूप में पुष्करिणी, तालाब, सरोवर, बावड़ी आदि थे। चावल, सरसों, उड़द आदि मुख्य फसलें थी। कृषि, दूध, यातायत, चमड़ा और मांस के लिए पशु पाले जाते थे। अप्रत्यक्ष रूप में वस्त्र, धातु, बर्तन, काष्ठ, चर्म, मद्य व प्रसाधन आदि उद्योगों का उल्लेख मिलता है। लोग शिल्पादि विभिन्न कलाओं के द्वारा भी अर्थोपार्जन करते थे। तत्कालीन समृद्धि के शिखर पुरुष-श्रेणिक, मेघ, जितशत्रुराजा, धन्यसार्थवाह, नन्दमणिकार आदि आधुनिक आर्थिक जगत् के आदर्श बन सकते हैं। आधुनिक वित्त-व्यवसाय की भांति उस समय भी पूंजी के लेन-देन का व्यवसाय प्रचलन में था। देशी-व्यापार स्थलमार्ग से और विदेशी-व्यापार जलमार्ग से होता था।ज्ञाताधर्मकथांग १/८/५३-५४ परिवार के विभिन्न साधन-रथ, बैलगाड़ी, हाथी, घोड़ा, नौका, पोत, जलयान आदि थे।ज्ञाताधर्मकथांग १/२/६, १/५/६, १/३/६ आदि माप-तौल की प्रणालियों के रुप में गणिम, धरिम, मेय और परिच्छ प्रचलन में थी। सिक्कों का चलन सीमित था।ज्ञाताधर्मकथांग १/१/१३८ अधिकांश लेन-देन वस्तु-विनिमय के माध्यम से होते थे। ज्ञाताधर्मकथांग और राज्यव्यवस्था : राज्य के सप्तांग के रूप में राज्य, राष्ट्रकोश, कोठार, बल (सेना), वाहन, पुर (नगर) और अन्त:पुर का नामोल्लेख मिलता है। राजा राज्य का सर्वोपरि होता था। राजा राज्योचित-गुण संपन्न थे। उनमें क्षत्रियोचित सभी गुण विद्यमान थे। राजा वंश परम्परा से ही बनते थे। राज्याभिषेक समारोह अत्यन्त भव्यता से मनाया जाता था। सामान्यत: ज्येष्ठ पुत्र को राजा बनाया जाता था और कनिष्ठ पुत्र को युवराज बना दिया जाता था। यद्यपि राजव्यवस्था विकेन्द्रित नहीं थी, लेकिन राज्य का संचालन करने के लिए राजा अपने अनुचरों के रूप में अमात्य, सेनापति, श्रेष्ठी, लेखवाह, नगररक्षक, तलवर, दूत, कौटुम्बिक पुरुष, दास-दासियां व द्वारपाल आदि रखता है। राजा और राज्य का अस्तिव सैन्य संगठन के हाथों में सुरक्षित रहता है।चतुरंगिनी सेना, सेनापति, सारथी और वीर योद्धा युद्ध में मुख्य भूमिका निभाते थे। धनुष, तलवार, भाला, मूसल आदि हथियार प्रचलन में थे। राज्य के आय-स्रोत के रूप में चुंगी, कर, जुर्माना, ऋण आदि प्रचलन में थे। राज्य द्वारा अर्जित अधिकांश भाग राजकोश में जमा रहता था और कुछ धन सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय कर दिया जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग और शिक्षा व्यवस्था : प्राचीन काल से मानव जीवन में शिक्षा का स्थान सर्वोपरि रहा है। बालक को आठ वर्ष का होने पर ज्ञानार्जन के लिए गुरु के पास भेजा जाता था जहाँ वह बहत्तर कलाओं की शिक्षा प्राप्त करता था। शिक्षा के विषय मुख्यत: अध्यात्म केन्द्रित थे।ज्ञाताधर्मकथांग १/१/९८, १/५/६ इनके अलावा वास्तुशास्त्र, तर्वâशास्त्र, दर्शनशास्त्र, संगीत, चित्रकला, वाणिज्यशास्त्र आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी। गुरु शिष्य के सम्बन्धों पर ही सफल शिक्षण व्यव्स्था की नीवं आधारित होती है। महावीर-मेघ और शैलक-पंथक जैसे प्रसंग क्रमश: वात्सल्य व समर्पण के प्रतिमान है। जहाँ एक ओर गुरु शिष्य को डूबने से बचाता है, वहीं दूसरी ओर शिष्य गुरु को अपनी गरिमा का भान करवाता है। ज्ञाताधर्मकथांग और कला : ज्ञाताधर्मकथांग में बहत्तर कलाओं का विवेचन किया गया है। उत्सव-महोत्सव आदि के अवसर पर नर-नारी अपनी कलाओं का प्रदर्शनकर लोगों का मनोरंजन करते थे लोग सौंदर्य प्रेमी थे, अत: प्रसाधन से जुड़ी विभिन्न कलाएं भी प्रचलन में थीं।पुष्करिणी, प्रसाद, चित्रसभा, भोजनशाला, मार्ग, नगर आदि का उल्लेख वास्तुकला के अस्तित्व को प्रमाणित करता है। उस समय के लोग युद्ध कला में भी पारंगत थे। देवदत्ता गणिका चौंसठ कलाओं में निपुण थी। तत्कालीन कलाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि संस्कृति में कलाओं की प्रधानता थी। लोागें का जीवन कलाओं से अनुप्रमाणित होने के कारण सरस था। इस प्रकार भारतीय संस्कृति के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षिक, कला, भौगोलिक तथा आर्थिक अवदानों को स्पष्ट करने वाले इस छठे अंग आगम का अध्ययन हमें हमारी पुरातन धरोहर अर्थात् सांस्कृतिक विरासत का ज्ञान कराने वाला होने से अत्यन्त उपयोगी है। =