—चौबोल छंद—
पुरिमताल१ पुर के उद्यान में, फाल्गुन वदि एकादशि के।
एक हजार वर्ष तप करके, उत्तराषाढ़ नखत रहते।।
वट तरुवर के अध: ‘ऋषभ’ के, केवल रवि का उदय हुआ।
यह अशोक तरु बना नमूं मैं, समवसरण धनदेव किया।।१।।
पौष शुक्ल ग्यारस नक्षत्र, रोहिणी कहा अपराण्ह समय।
बाग सहेतुक सप्तपर्ण तरु, नीचे केवल सूर्य उदय।।
‘अजितनाथ’ का अर्धनिमिष में, समवसरण नभ में चमके।
वंदूं शीश नमाकर मैं नित, मुझमें स्वपर ज्ञान प्रगटे।।२।।
कार्तिक वदि चौथी में मृगशिर, नक्षत्र रहा अपराण्ह समय।
वनी सहेतुक शालवृक्ष के, नीचे केवल सूर्य उदय।।
‘संभव जिन’ का तरु अशोक यह, समवसरण में शोभ रहा।
भव भव भ्रमण निवारण हेतू, पूूजूूँ केवल तिथी यहां।।३।।
पौष सुदी चौदश पुनर्वसु, नखत रहे अपराण्ह समय।
उग्रवनी तरु सरल२ सु नीचे, ‘अभिनंदन’ के ज्ञान उदय।।
सुर आसन हिल उठे उसी क्षण, घंटादिक स्वयमेव बजे।
सुरपति अतुल विभव युत आये, समवसरण रच नाथ यजें।।४।।
चैत्र सुदी ग्यारस तिथि में, शुभयोग सहेतुक वन शोभे।
तरु प्रियंगु के नीचे प्रभु को, केवल रवि का हुआ उदै।।
समय कहा अपराण्ह समवसृति, गंधकुटी में ‘सुमति’ प्रभो।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग दुख, दूर करो मैं नमूं विभो।।५।।
चैत्र सुदी पूनम चित्रा, नक्षत्र प्रसिद्ध मनोहर वन।
तरु प्रियंगु तले ‘पद्म’ प्रभु को, केवलज्ञान हुआ अनुपम।।
सुरपति ऐरावत गज पर चढ़, अगणित विभव सहित आये।
गजदंतों सरवर कमलों पर, अप्सरियां जिनगुण गायें।।६।।
फाल्गुन वदि छठ नखत विशाखा, श्रेष्ठ समय अपराण्ह कहा।
बाग सहेतुक तरु शिरीष के, नीचे केवलज्ञान हुआ।।
इंद्र सातविध सेनाओं के, साथ चले उत्सव करने।
अनुपम वैभव ‘श्रीसुपार्श्व’ का, मैं वंदूं भवदधि तरने।।७।।
फाल्गुनि वदि सप्तमि अनुराधा, नखत समय अपराण्ह रहा।
सर्वारथवन नागवृक्ष के, नीचे केवलज्ञान हुआ।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिषसुर, कल्पवासि सुरगण आये।
चक्री मनुज पशु पक्षीगण, ‘चंद्रप्रभू’ के गुण गायें।।८।।
कार्तिक शुक्ल द्वितीया मूल, नक्षत्र समय पश्चिम दिन था।
पुष्पबाग में अक्षवृक्ष१ के, नीचे केवल ज्ञानप्रभा।।
‘प्रभु पुष्पदंत’ का समवसरण, सब जन को आश्रयदाता है।
नमूूँ नमूँ जिन केवलतिथि यह, मुझको अभय प्रदाता है।।९।।
पौषवदी चौदश अपराण्हे, पूर्वाषाढ़ नखत रहते।
बाग सहेतुक मालिवृक्ष के, नीचे ‘शीतलजिन’ तिष्ठे।।
घातिकर्म का पूर्ण नाश हो, केवल भास्कर उदित हुआ।
दिव्यध्वनी वचनामृत से प्रभु, शीतल सारा भुवन किया।।१०।।
माघ वदी मावस अपराण्हे, श्रावण नखत ‘श्रेयांस प्रभो’।
बाग मनोहर में पलास तरु, नीचे केवलज्ञान लह्यो।।
पाँच सहस धनु ऊँचे पहुँचे, नभ में समवसरण रचना।
दिव्यधुनी से जन सम्बोधा, वंदत पद पाऊँ अपना।।११।।
‘वासुपूज्य’ सुदि माघ द्वितीया, नखत विशाखा अपराण्हे।
बाग मनोहर तेंदू तरु के, नीचे केवलज्ञानि बनें।।
समवसरण धनपति ने रचियो, गंधकुटी में प्रभु राजें।
द्वादशगण धर्मामृत पीते, वंदत ही सब अघ भाजें।।१२।।
माघ शुक्ल छट्ठी अपराण्हे, उत्तरा भाद्रपद नखत जबे।
बाग सेहतुक में पाटलतरु, नीचे ‘विमलनाथ’ तिष्ठे।।
केवलज्ञान सूर्य उगते ही, नाथ गगन में अधर हुये।
समवसरण में राजें जिनवर, वंदत ज्ञान प्रकाश हिये।।१३।।
चैत्र अमावस्या अपराण्हे, नखत रेवती के रहते।
बाग सहेतुक में पीपलतरु, नीचे ‘अनंत जिन’ तिष्ठे।।
केवलज्ञान सूर्य उगते ही, त्रिभुवनतम अज्ञान हटा।
स्वपर भेद विज्ञान प्रगट हो, वंदत ही तम मेघ छटा१।।१४।।
पौष पूर्णिमा दिन अपराण्हे, पुष्प नखत के रहते ही।
‘धर्मनाथ’ को बाग सहेतुक, दधीपर्ण तरु नीचे ही।।
केवलज्ञान उद्योत हुआ अरि, घाति चतुष्टय भाग गये।
हम वंदे नित शीश नमाकर, नित मंगल हों नये नये।।१५।।
पौष शुक्ल दसमी पश्चिम, भागे२ शुभयोग सुग्रह रहते।
आम्र बाग में नंदीतरु के, नीचे ‘शांतिनाथ’ तिष्ठे।।
केवलज्ञान विभाकर उगते, इंद्रों के आसन कंपे।
सुरपति अगणित वैभव लाकर, समवसरण में प्रभु वंदे।।१६।।
चैत्र शुक्ल तृतीया अपराण्हे, कृतिका नखत उच्च ग्रह में।
बाग सहेतुक तिलकवृक्ष के, नीचे ध्यान धरा प्रभु ने।।
केवलज्ञान प्रगट होते ही, इंद्र सपरिकर आ पहुँचे।
‘कुंथुनाथ’ को मैं नित वंदूं, मेरा ज्ञानसूर्य चमके।।१७।।
कार्तिक सुदि बारस अपराण्हे, नखत रेवती शुभ ग्रह में।
बाग सहेतुक आम्रवृक्ष के, तले ध्यान लिया ‘अरप्रभु’ ने।।
केवलज्ञान दिव्य किरणों से, मोह ध्वांत सब नष्ट हुआ।
मोह शत्रु उन्मूलन हेतू, आज यहाँ मैं नमन किया।।१८।।
पौष वदी दूज अपराण्हे, नखत अश्विनी ‘मल्लिप्रभो’।
बाग मनोहर में अशोक तरु, नीचे तिष्ठे ध्यान धर्यो।।
दशवें में मोहारि घात, बारहवें में त्रय कर्म हने।
केवलज्ञानी हुये नाथ मैं, वंदूं सारे कार्य बनें।।१९।।
वदि वैशाख नवमि सु श्रवण में, ज्ञान उदय पूर्वाण्ह समय।
नीलवृक्षवन में चंपकतरु, नीचे ‘मुनिसुव्रत’ जिनवर।।
केवलज्ञानी का जब होता, श्री विहार इस भूतल में।
चरणकमल के तले स्वर्णमय, कमल रचे थे सुरगण ने।।२०।।
मगसिर सुदि ग्यारस दिन पश्चिम, भाग ध्यान में लीन रहे।
चित्रवनी में वकुलवृक्ष के, अध: ‘नमीप्रभु’ कर्म दहे।।
केवलज्ञान तीक्ष्ण किरणों से, भुवन अंधेरा नष्ट हुआ।
भव्योंं ने शिवपथ को देखा, निज में ज्ञान उद्योत हुआ।।२१।।
आश्विन सुदि एकम पूर्वाण्हे, चित्रा नखत उच्चग्रह थे।
ऊर्जयंतगिरि पर तरु मेषशृंग१ के अध: ‘नेमि’ तिष्ठे।।
लोकालोक प्रकाशी केवलज्ञान, सूर्य तब उदित हुआ।
इस तिथि को वंदत ही क्षण में, भेदज्ञान मुझ प्रगट हुआ।।२२।।
चैत्रवदी चौदश२ (चौथी) पूर्वाण्हे, नखत विशाखा शुभ ग्रह थे।
शक्रपुरी३ में धवतरु४ नीचे, ‘पार्श्व’ ध्यान में तिष्ठे थे।।
कमठ किया उपसर्ग घोर तब, फणपति पद्मावति आये।
टल उपसर्ग प्रगट केवल रवि, प्रभु के गुण सुरपति गाये।।२३।।
सुदि वैशाख दशमि अपराण्हे, उत्तम तिथि में ‘सन्मति’ ने।
ग्राम जृंभिका निकटे तिष्ठे, शुक्ल ध्यान से घाति हने।।
शालवृक्ष के नीचे प्रभु को, केवलज्ञान उद्योत मिला।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ हेतु नमूं, मन कलियों को खिला खिला।।२४।।