देशप्रेम की भावना को प्रदर्शित करती हुई ये सुन्दर पंक्तियाँ वास्तव में देखा जाए तो इस युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी, जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व में पूर्णरूपेण साकार होती दिखाई देती हैं।
इनके विस्तृतज्ञान के प्रभाव से, विभिन्न कार्यकलापों से एक हिन्दुस्तान का निर्माण हो गया है। आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि ज्ञानमती माताजी ने जम्बूद्वीप बनवाया, प्रयाग तीर्थ बनवाया, कुण्डलपुर में नंद्यावर्त महल नाम से तीर्थ बनवाया, यहाँ तक तो ठीक है परन्तु ज्ञानमती माताजी ने हिन्दुस्तान का निर्माण कर दिया, यह बात कुछ समझ में नहीं आती है।
हिन्दुस्तान तो प्राचीनकाल से ही निर्मित है। आप चौंकिए मत, मैं आपको बताती हूँ कि इस नवअक्षरी HINDUSTAN शब्द में किस प्रकार ज्ञानमती माताजी के कार्यकलापों का अनूठा संग्रह है-
HASTINAPUR (हस्तिनापुर)
भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरहनाथ इन तीन तीर्थंकरों के चार-चार कल्याणकों से पवित्र हस्तिनापुर नगरी अपने में कई इतिहासों को समेटे हुए है। इस भूमि पर जब से पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चरण पड़े, तब से इस तीर्थ की तो काया ही पलट हो गई।
जहाँ पर भयानक जंगल था, लोग दिन में आने से डरते थे, अब वहाँ रात के १२ बजे भी किसी को आने में डर नहीं लगता है। इसका मुख्य कारण यहाँ पूज्य माताजी की प्रेरणा से निर्मित विश्व की अद्वितीय रचना जम्बूद्वीप है, जसे देखने के लिए देश-विदेश से जैन-जैनेतर बन्धु आते हैं तथा यहाँ के अप्रतिम सौन्दर्य से प्रभावित होकर उत्तरप्रदेश पर्यटन विभाग ने उसे अपने फोल्डर में ‘‘अतुलनीय मानव निर्मित स्वर्ग’’ की उपमा प्रदान की है। साथ ही वहाँ निर्मित कमल मंदिर, ध्यान मंदिर, ॐ मंदिर आदि अनेकों मंदिर भव्यों को क्षणमात्र में ही असीम पुण्य का संचय करा देते हैं।
INTERNATIONAL NIRWAN MAHOTSAV
(अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव)
जन-जन को जैनधर्म की प्राचीनता से परिचित कराने हेतु ४ फरवरी २००० को दिल्ली के लाल किला मैदान में ‘‘भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव’’ का आयोजन किया गया, जिसके अन्तर्गत पूज्य माताजी की प्रेरणा से एक कृत्रिम कैलाशपर्वत की रचना की गई, जिसके समक्ष देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी, वित्त राज्यमंत्री-श्री धनंजय कुमार जैन सहित सम्पूर्ण देश की जनता ने १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाकर अपने जीवन को धन्य किया।
NANDYAVART MAHAL (नंद्यावर्त महल-कुण्डलपुर)
आज से २६१२ वर्ष पूर्व भगवान महावीर स्वामी ने जिस महल में जन्म लिया था, उसका नाम था ‘‘नंद्यावर्त महल’’। वह महल सात खण्ड ऊँचा बहुत ही सुन्दर था। उस सोने के महल में महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को बालक महावीर को जन्म दिया था।
जब पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने यह सुना कि पिछले ५० वर्षों से भगवान की जन्मभूमि कुण्डलपुर में मात्र एक छोटा सा मंदिर है, उसका विकास नहीं हो पा रहा है, तब उन्होंने कहा कि ‘‘भगवान के जन्मकल्याणक महोत्सव में जन्मभूमि का विकास होना नितान्त आवश्यक है, इससे अधिक सुनहरा अवसर शायद दोबारा नहीं प्राप्त होगा।’’
मन में ऐसा विचार आते ही २० फरवरी २००२ को उन्होंने दिल्ली के इण्डियागेट से विशाल जनसमूह के साथ मंगल विहार प्रारंभ किया। जब पूज्य माताजी ने कुण्डलपुर की धरती पर अपने कदम रखे, उस समय उन्हें असीम आनन्द की अनुभूति हुई। मंगल प्रवेश के पश्चात् तो तीर्थ निर्माण का कार्य ऐसा शुरू हुआ कि देखते ही देखते पाँच वृहत् मंदिरों के निर्माण हो गए।
यह सब देखकर ऐसा लगता था कि जैसे देवताओं ने आकर ये सभी कार्य कर दिए हों। वहाँ अनेक मंदिरों के साथ-साथ विशाल नंद्यावर्त महल का निर्माण हुआ है, जो सभी पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है।
D- DELHI (दिल्ली)
‘‘भारत का दिल-दिल्ली माना जाता है’’ उस दिल्ली महानगरी में पूज्य माताजी की प्रेरणा से चौबीस कल्पद्रुम महामण्डल विधान, २६ विश्वशान्ति महावीर विधान, अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार, कैलाश मानसरोवर यात्रा, ४८ भक्तामर मण्डल विधान आदि अनेकानेक भक्तिपूर्ण आयोजन तो सम्पन्न हुए ही हैं, साथ ही कई स्थायी निर्माणात्मक कार्य भी हुए हैं,
जिनमें प्रीतविहार में भव्य कमल मंदिर रचना, कनॉट प्लेस स्थित राजा बाजार मंदिर परिसर में भगवान महावीर कीर्तिस्तंभ एवं पावापुरी रचना, नजफगढ़-दिल्ली में भरतक्षेत्र तीर्थ का निर्माण तथा अनेक कॉलोनियों में जिनमंदिर, गृहचैत्यालय आदि प्रमुख कार्य हैं।
UNIVERSITY OF JAINISM(धार्मिक विश्वविद्यालय)
देशभर में विश्वविद्यालय तो बहुत हैं परन्तु धार्मिकता का, आध्यात्मिकता का पाठ सिखाने वाली ये एकमात्र विश्वविद्यालय हैं। छोटा या बड़ा, महिला या पुरुष कोई भी क्यों न हो, जिसे भी किसी शंका का समाधान प्राप्त करना होता है, वे बिना अपना समय गंवाए इस चलते-फिरते ‘‘ज्ञानमती विश्वविद्यालय’’ में आकर संतुष्ट हो जाते हैं। शायद यही कारण है कि फरवरी सन् १९९५ में अयोध्या प्रवास के मध्य ‘‘फैजाबाद विश्वविद्यालय’’ के तत्कालीन कुलपति श्री के.पी. नौटियाल ने इन्हें ‘‘डी.लिट्.’’ की मानद उपाधि प्रदान कर दी।
SHAMAVSHARAN SHRIVIHAR (समवसरण श्रीविहार)
२२ मार्च सन् १९९८ को पूज्य माताजी की प्रेरणा से ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ का शुभारंभ राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से किया गया पुनः ९ अप्रैल १९९८ को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पूज्य माताजी से आशीर्वाद प्राप्त करके इस समवसरण यात्रा को भारतभ्रमण हेतु प्रवर्तित किया।
इस श्रीविहार यात्रा के माध्यम से अहिंसा एवं शाकाहार का प्रचार-प्रसार आशातीत सफलता के साथ हुआ। लगभग ४ वर्षों की मंगल यात्रा के पश्चात् अब यह धातुनिर्मित समवसरण पूज्य माताजी की प्रेरणा से प्रयाग-इलाहाबाद में निर्मित ऋषभदेव दीक्षा तीर्थ पर स्थापित हो चुका है।
TIRTHANKAR RISHABHDEV DIKSHA TIRTH
(तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षा तीर्थ-प्रयाग)
दिगम्बर जैन समाज की भोली-भाली जनता यह तो जानती थी कि भगवान ऋषभदेव ने जन्म कहाँ लिया? और उन्हें निर्वाण कहाँ से प्राप्त हुआ? परन्तु कोई भी व्यक्ति यह बता पाने में समर्थ नहीं था कि भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा कहाँ ली? और उन्हें केवलज्ञान कहाँ प्रगट हुआ?
इस सत्यतथ्य से जनमानस को परिचित कराने के उद्देश्य से पूज्य माताजी की प्रेरणा से इलाहाबाद-बनारस हाइवे पर ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षा तीर्थ’’ नाम से सुन्दर तीर्थ का निर्माण किया गया, जहाँ पर बीचोंबीच में ७२ जिनप्रतिमाओं से (त्रिकाल चौबीसी) समन्वित विशाल केलाशपर्वत पर भगवान ऋषभदेव की १४ पुâट उत्तुंग मनोहारी प्रतिमा विराजमान है
एवं केलाशपर्वत के बाई ओर धातुनिर्मित वटवृक्ष के नीचे भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है तथा दाई ओर निर्मित समवसरण मंदिर में भारत भ्रमण कर चुके समवसरण को विराजमान किया गया है।
AYODHYA AND AMERICA(अयोध्या और अमेरिका)
आज से कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व अनादिनिधन जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अयोध्यानगरी में जन्म लिया था। चूँकि भगवान ऋषभदेव ने युग की आदि में अवतार लिया था अत: इन्हें आदिब्रह्मा, युगादिपुरुष, युगपुरुष, युगस्रष्टा आदि अनेक नामों से जाना जाता है। पिता-नाभिराय एवं माता मरुदेवी तो अपने असीम पुण्य, अतुलनीय सौभाग्य की अनुमोदना करते नहीं थकते थे क्योंकि उन्हें प्रथम तीर्थंकर को जन्म देने का शुभ संयोग जो प्राप्त हुआ था।
इसी अयोध्या नगरी में भगवान ऋषभदेव के भरत, बाहुबली आदि १०१ पुत्र एवं ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याओं ने भी जन्म लिया। भगवान ऋषभदेव ने अपने सभी पुत्र-पुत्रियों को अनेक प्रकार की विद्याएं इसी अयोध्या की धरती पर सिखाई थीं। धीरे-धीरे समय बीत गया, करोड़ों वर्षों बाद वह अयोध्या नगरी अपने वास्तविक स्वरूप को छोड़कर वीरान अवस्था में आ गई थी।
आज से २० वर्ष पूर्व (सन् १९९३ में) जब पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की दृष्टि उस तीर्थ पर पड़ी, तो उनकी प्रेरणा पाकर उस तीर्थ ने काफी हद तक अपना विस्तृत एवं विकसित स्वरूप प्राप्त कर लिया है। सन् २००० में अमेरिका में यू.एन.ओ के द्वारा विश्वशांति शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया था,
जिसमें पूज्य माताजी ने अपने शिष्य ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन को जैन धर्माचार्य के रूप में जाने की स्वीकृति प्रदान की। ब्र. जी ने वहाँ जाकर जैनधर्म की जो अभूतपूर्व प्रभावना की, वह सब पूज्य माताजी के शुभाशीर्वाद का ही प्रतिफल रहा तथा वहाँ विभिन्न देशों से पधारे सैकड़ों धर्माचार्यों को पूज्य माताजी द्वारा लिखित साहित्य प्राप्त हुआ, जिससे उन्होंने भी जैनधर्म के मर्म को समझने में सफलता प्राप्त की।
N- Nagar (नगर)
साधारण बोलचाल की भाषा में जिसे नगर कह दिया जाता है और जिसका पूरा नाम है टिकेतनगर। यह वह पुण्यभूमि है, जहाँ आज से ७२ वर्ष पूर्व श्रेष्ठी छोटेलाल जी की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनीदेवी ने एक कन्यारत्न को जन्म दिया था। बड़े ही प्यार से कन्या का नाम रखा गया ‘मैना’।
नाम रखते समय किसी को यह जरा भी आभास नहीं था कि वास्तव में यह कन्या एक दिन मैना की भाँति ही गृहपिंजड़े से उड़ जाएगी। लेकिन यह तो सच है कि यदि ज्ञानमती माताजी ने इस त्यागमार्ग पर अपने कदम न बढ़ाए होते, तो ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना आदि के मार्ग का अनुपालन केसे संभव हो सकता था? इनके बारे में एक लेखक ने लिखा है-
माँ बनतीं तो बन पातीं, दो-तीन-चार की माता। वीरसिन्धु से दीक्षा ले, बन गई जगत की माता।।
मेरा यह परम सौभाग्य है कि मुझे ऐसी विश्ववंद्य पूज्य माताजी के चरण सानिध्य में रहने का सुअवसर प्राप्त हो रहा है। इसका सबसे मुख्य कारण तो मुझे यह लगता है कि मैंने इस परिवार में जन्म लेकर ही यह सुनहरा अवसर प्राप्त किया है। बचपन में गर्मी की छुट्टियों में माँ (कामनी देवी) हमें ननिहाल (टिकेतनगर) न ले जाकर हस्तिनापुर (या पूज्य माताजी जहाँ भी विराजमान होती थीं) ले जाती थीं
जिसके कारण प्रारंभ से ही बालमन पर उन धार्मिक संस्कारों का गहरा प्रभाव पड़ा और उसके परिणामस्वरूप सन् १९९४ में पूज्य माताजी के अयोध्या प्रवास के मध्य पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की प्रबल प्रेरणा से उसी समय से संघ में रहना निश्चित हो गया।
चूंकि उससे पूर्व सन् १९९२ में मैं हस्तिनापुर में पूज्य माताजी से आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत ले चुकी थी अत: रहना तो संघ में ही था परन्तु लौकिक शिक्षा की पूर्णता की इच्छा से उस समय मैं घर चली गई थी परन्तु बाद में माताजी ने यही समझाया कि इस जीवन में लौकिक शिक्षा की अपेक्षा अलौकिक शिक्षा-धार्मिक शिक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।
इतने वर्षों से पूज्य माताजी के निकट रहते हुए मैंने उनके अंदर जो वीतरागता, निस्पृहता, आगमनिष्ठता, परम्परा संरक्षण, वात्सल्य आदि अनेकानेक गुण देखे हैं, किसी एक ही व्यक्तित्व के अंदर इन सभी गुणों का समावेश एक साथ होना प्राय: दुर्लभ रहता है।
उन अप्रतिम प्रतिभा की धनी एवं अपने कार्यकलापों से हिन्दुस्तान की रचना को अंग्रेजी शब्दों में साकार करने वाली पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती के इस अभूतपूर्व अवसर पर मैं उनके पवित्र चरणकमलों में अपनी विनम्र विनयांजलि समर्पित करती हूँ तथा भगवान से यह प्रार्थना करती हूँ कि-
किन शब्दों में गुणगान करूँ, गणिनी श्री ज्ञानमती जी का। है पावन-स्वर्णिम अवसर उनकी, दीक्षा स्वर्ण जयंती का।।
बस एक प्रार्थना है मेरी, जब तक नहिं मोक्ष मिले मुझको। तब तक अपना आशिष माता, बस देती रहना तुम मुझको।।