पुन: उसके अनन्तर वही दर्शन अवग्रह हो जाता है। वह वैâसा है ? अर्थाकार के विकल्पात्मक ज्ञानरूप है अर्थात् अर्थ-विषय के आकार-वर्ण आदि विशेष का निश्चय कराने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है। अर्थ यह हुआ कि दर्शन ही ज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम विशेष से सहित हुआ पदार्थ विशेष के ग्रहण लक्षण वाले अवग्रह रूप से परिणत हो जाता है। जैसे कि ‘आकाश में यह वस्तु है’, इस प्रकार का ज्ञान।अनंतर वही अवग्रह पुन: ईहा हो जाता है। वह किस रूप है ? विशेष आकांक्षारूप है अर्थात् विशेष बगुला को जानने की जो इच्छा है। वह ‘भवितव्यता-होना चाहिए’ इस ज्ञानरूप है। जैसे कि (आकाश में जो श्वेत कुछ दिखा था) वह बगुला होना चाहिए, इस प्रकार का ज्ञान ईहा है।अनंतर वही ईहाज्ञान अवाय हो जाता है। वह किस लक्षण वाला है ? विशेष निश्चय लक्षण वाला है अर्थात् आकांक्षित विषय का निर्णय हो जाना अवाय है। जैसे कि ‘यह बगुला ही है।’ यह ज्ञान निश्चयरूप है।
पुन: वही अवायज्ञान धारणा हो जाता है। उसका क्या लक्षण है ? वह स्मृति में हेतु है अर्थात् वह धारणा भूतकाल के पदार्थ के परामर्शरूप स्मृति का कारण है। यही संस्कार का लक्षण है जो कि कालांतर में भी विस्मरण न होना। मतलब कालांतर में भी नहीं भूलने रूप संस्कार ज्ञान को धारणा कहते हैं। इस प्रकार से यह मतिज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार का होता है और यह प्रत्येक इन्द्रिय से होता है, ऐसा जानना चाहिए।
भावार्थ-यहाँ दर्शन और मतिज्ञान का लक्षण तथा मतिज्ञान के चारों भेदों का लक्षण बतलाया गया है। इन्द्रियाँ अपने स्थान पर अवस्थित हैं तथा पदार्थ भी यथायोग्य अपने स्थान पर अवस्थित हैं। इन इन्द्रिय और पदार्थ के यथायोग्य अवस्थित रहने पर आत्मा में जो सत्तामात्र का-अस्तित्व मात्र का अवभास होता है, वह दर्शन है। वास्तव में यह इतना अव्यक्त है कि इसका उदाहरण नहीं दिया जा सकता है। अनंतर उसी आत्मा को किसी इन्द्रिय के अवलंबन से यह मालूम होता है कि ‘यह है’ तब आत्मा का वही दर्शन ज्ञानरूप परिणत हो जाता है। ऐसे ही वही-वही ज्ञान आगे-आगे विशेष-विशेष को ग्रहण करने से अगले-अगले नामों को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जीव का लक्षण है उपयोग। उसके दो भेद हैं-दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग, ऐसा जानना चाहिए।
उत्थानिका-अब ज्ञान के भेद और प्रमाण तथा फल के व्यवहार को बतलाते हैं-
अन्वयार्थ-(स्वसंविदां) स्वसंवेदन ज्ञानों में (बह्वाद्यवग्रहाद्यष्ट चत्वारिंशत्) बहु आदि बारह भेदों के अवग्रह आदि चार भेद होने से अड़तालीस भेद होते हैं। (इनमें) (पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं) पूर्व-पूर्व के ज्ञान प्रमाण हैं और (उत्तरोत्तर) आगे-आगे के ज्ञान (फलं स्यात्) फल हैं।।६।। (१/२)
अर्थ-स्वसंवेदन ज्ञानों में बहु आदि बारह भेदों के अवग्रह आदि चार भेद होने से अड़तालीस भेद होते हैं। इनमें पूर्व-पूर्व के ज्ञान प्रमाण हैं और आगे-आगे के ज्ञान फल हैं।।६।। (१/२)