सूत्र (शब्द पाठ) अर्थ का स्थान अवश्य है, परन्तु मात्र सूत्र से अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं हो सकती। अर्थ का ज्ञान तो गहन नयवाद पर आधारित होने से बड़ी कठिनता से हो पाता है। सत्थं णाणं ण हवइ, जम्हा सत्थं ण याणए किन्चि। तम्हा अण्णं णाणं, अण्णं सत्थं जिणा विंति।।
शास्त्र ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र स्वयं में कुछ नहीं जानता है। इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है। आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमुद्दिट्ठं। णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं।।
आत्मा ज्ञान प्रमाण (ज्ञान जितना) है, ज्ञान ज्ञेय प्रमाण (ज्ञेय जितना) है और ज्ञेय लोकालोक प्रमाण है, इस दृष्टि से ज्ञान सर्वव्यापी हो जाता है। णाणं अंकुसभूदं मत्तस्स हु चित्तहत्थिस्स।
मन रूपी उन्नमत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान है। कार्यं ज्ञानादिकम्, उत्सर्गापवादत: भवेत् सत्यम्। तत् तथा समाचारन् तत् सफलं भवति सर्वमपि।।
ज्ञान आदि कार्य उत्सर्ग (सामान्य विधि) एवं अपवाद (विशेष—विधि) से सत्य होते हैं। वे इस तरह किए जाएँ कि सब कुछ सफल हो। येन तत्त्वं विबुध्यते, येन चित्तं निरुध्यते। येन आत्मा विशुध्यते, तज् ज्ञानं जिनशासने।।
जिससे तत्त्व का ज्ञान होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसी को जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। अक्षस्य पुद्गलकृतानि यत् , द्रव्येन्द्रियमनांसि पराणि तेन। तैस्तस्माद् यज्ज्ञानं, परोक्षमिह तदनुमानमिव।।
पौद्गलिक होने के कारण द्रव्येन्द्रियां और मन ‘अक्ष’ अर्थात् जीव से ‘पर’ भिन्न है। अत: उनसे होने वाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जैसे अनुमान में धूम से अग्नि का ज्ञान होता है वैसे परोक्ष ज्ञान भी ‘पर’ के निमित्त से होता है। भवत: परोक्षे मति—श्रुते, जीवस्य परनिमित्तात्। पूर्वोपलब्धसम्बन्ध—स्मरणाद् वाऽनुमानमिव।।
जीव के मति और श्रुत—ज्ञान परनिमित्तक होने के कारण परोक्ष हैं। अथवा अनुमान की तरह पहले से उपलब्ध अर्थ के स्मरण द्वारा होने के कारण वे परनिमित्तक हैं। (परनिमित्तक · मन और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला ज्ञान)। एकान्तेन परोक्षं, लैंगिकमवध्यादिकम् च प्रत्यक्षम्। इन्द्रियमनोभवं यत् , तत् संव्यवहारप्रत्यक्षम्।।
धूम आदि लिंग से होने वाला श्रुत ज्ञान तो एकान्त रूप से परोक्ष ही है। अवधि, मन:पर्यय और केवल, ये तीनों ज्ञान एकान्त रूप से प्रत्यक्ष ही हैं। किन्तु इन्द्रिय और मन से होने वाला मतिज्ञान लोकव्यवहार में प्रत्यक्ष माना जाता है। इसलिए वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहलाता है। जण्णाणवसं किरिया, मोक्खणिमित्तं।
जो क्रिया ज्ञानपूर्वक होती है, वही मोक्ष का कारण होती है। जेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झति। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।
जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है और आत्मा शुद्ध होती है, उसी को ज्ञान कहा गया है। येन रागाद्विरज्यते, येन श्रेयस्सु रज्यते। येन मैत्री प्रभाव्येत, तज् ज्ञानं जिनशासने।।
जिनशासन के अनुसार ज्ञान वही है, जो जीव को रागादि से दूर करे, श्रेय से उसका स्नेह बढ़ाए और मैत्री भाव को प्रभावित/वर्धमान करे।