लेखक— राष्ट्रसंत श्री गणेशमुनि शास्त्री स्वाध्याय, सत्संग, पुस्तकों का चयन, लेखन कला, वत्तृत्व कला आदि सभी ज्ञानोपलब्धि की भिन्न—भिन्न पगडंडियाँ हैं। ये सभी एक ही मंजिल पर पहुँचती हैं, जहाँ हमारे व्यक्तित्व का बहुमुखी सर्वंगीण विकास छिपा है। अत: इन सब पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है। हम पहले स्वाध्याय पर ही विचार करेंगे। अध्ययन यदि जीवन की आवश्यकता है तो स्वाध्याय उसकी पूर्ति का आधार है। अध्ययन आँख खोलता है तो स्वाध्याय उसमें ज्योति भरता है । अध्ययन वह डोरी है जिसके सहारे बाल्टी को कुँए में उतारा जाता है और स्वाध्याय कुँए से प्राप्त मीठा जल है। अध्ययन का स्थान सीमित है तो स्वाध्याय जीवन के अंत तक चलने वाली प्रक्रिया है। अध्ययन से डिग्रियाँ, पदवियाँ मिलती हैं। स्वाध्याय से सफलता का द्वार खुलता है। अध्ययन से बुद्धि का विस्तार होता है। स्वाध्याय से बुद्धि का परिष्कार होता है।
स्वाध्याय एक सत्संग है
सत्संग भी स्वाध्याय का एक पहलू है। स्वाध्याय में सत्संग साथ चलता है। जो स्वाध्याय नहीं कर पाते, वे संतों—ज्ञानियों के सत्संग से ज्ञान की उपलब्धि कर लेते हैं। स्वाध्याय भी अच्छे शास्त्रों व ग्रंथों का सत्संग ही है । सत्संग केवल व्यक्ति का सान्निध्य मात्र नहीं है। अच्छे विचारों के सम्पर्क में रहना तथा श्रेष्ठ पुस्तकों के साथ रहना भी सत्संग है। फिर भी हमारे यहाँ सत्संग को ज्ञानी पुरुषों की समीपता और उसकी उपासना से जोड़ दिया है। इसी प्रकार लेखन की शक्ति बढ़ाना और वत्तृत्व कला , भाषण देने की क्षमता भी ज्ञानार्जन के साधन हैं। पुस्तकालय तो ज्ञान के मन्दिर ही हैं। यहाँ इन सभी पर चर्चा करना उचित रहेगा।
स्वाध्याय एक मथंन है
ज्ञान का आर्जन बाह्य साधन—स्त्रोतों से किया जाए या वह अन्त: करण में स्वत: ही प्रकट हो। दोनों के लिए मस्तिष्क को, बुद्धि के स्तर को प्रखर एवं उर्वर बनाना पड़ता है। मस्तिष्क को उर्वर और प्रखर बनाने वाली प्रक्रिया का नाम ‘स्वाध्याय’ है। इसीलिए स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन को तप कहा गया है। गीता में स्वाध्याय को ज्ञान—यज्ञ कहा है—स्वाध्याय ज्ञानयज्ञा:। यज्ञ इच्छित फल प्राप्ति के लिए किया जाता है । स्वाध्याय एक यज्ञ है और इसे ज्ञान—यज्ञ कहा गया है और इस यज्ञ का फल अन्त:प्रज्ञा की जागृति बताया है। अत: यह निर्विवाद है कि स्वाध्याय ज्ञानोपलब्धि का सर्वोत्तम साधन है। बुद्धि प्रतिभा, मेधा, प्रज्ञा और अन्त:प्रज्ञा और अन्त:प्रज्ञा रूपी बीज को पल्लवित करने वाला खाद—पानी स्वाध्याय से ही प्राप्त होता है। सत्संग, चिन्तन, मनन भी स्वाध्याय में समाविष्ट रहते हैं। एक अनुभवी ने तो अपने अनुभूत निष्कर्ष के आधार पर स्वाध्याय को तप, विज्ञान, कसौटी, प्रकाशगृह और समुद्र मंथन कहा है। देवासुरों द्वारा जो समुद्र—मंथन किया गया था, उससे तो मात्र चौदह रत्न ही निकले थे पर स्वाध्याय रूपी शास्त्र—मंथन द्वारा ज्ञान—सागर से तो अनवरत रत्न निकलते ही रहते हैं और उनके निकलने का कभी अन्त भी नहीं होता। अनन्त और अगाध ज्ञान—सागर आपके सामने है। स्वाध्याय के मंथन से रत्नों को लेकर अपना ज्ञान—कोष भरना आपका काम है। इसमें प्रमाद मत कीजिए। प्राचीन काल में गुरुकुल से विदा लेने वाले छात्र को अंतिम उपदेश यही दिया जाता था—स्वाध्यायान् मा प्रमद: अर्थात् हे शिष्य! अपने भावी जीवन में स्वाध्याय द्वारा योग्यता बढ़ाने में कभी प्रमाद मत करना। स्वाध्याय कुछ समय का नहीं होता। हर समय का होता है। गणधर गौतम जो महान ज्ञानी थे, प्रत्येक अक्षर के अर्थ व रहस्य को जानते थे , वे भी अपने जीवन में प्रतिदिन चार प्रहर अर्थात् २४ घंटे में से १२ घंटा स्वाध्याय में बिताते थे। आर्षवाणी यही है—अहरह स्वाध्यायमध्येतव्य: अर्थात् स्वाध्याय में रात—दिन हर समय प्रवृत्त रहना चाहिए। हम सबके भीतर जो आत्मा है, वही परमात्मा का स्वरूप है। इस परमात्मा की प्राप्ति, अनुभूति, उसका साक्षात्कार स्वाध्याय से होता है। यथा— स्वाध्याय योगयुक्तात्मा परमात्मा प्रकाशते। घर की सफाई नित्य करनी पड़ती है। वस्त्रों को भी धोकर साफ किया जाता है । इसी तरह मन के मैल को धोने के लिए स्वाध्याय और सत्संग की झाडू अनिवार्य है। संसार के व्यवहार से और संग और संसर्ग के प्रभाव से मन प्रतिदिन मैला होता रहता है। कुविचार, कुप्रभाव का मैल मन पर जमे नहीं, वह निर्मल रहे, इसलिए स्वाध्याय की निर्मल धारा में नित्य बहते रहना चाहिए। इस तरह स्वाध्याय ऐसा अद्भूत अमृत स्रोत बन जाता है कि हरबार प्यास बढ़ती है और हरबार तृप्ति होती है। स्वाध्याय में अध्ययन नहीं होता, जीना और पचाना होता है । अध्ययन में पढ़ने को बहुत होता है, पर स्वाध्याय में पढ़ने को कम होता है। उसमें सोचने—विचारने, चिन्तन—मनन करने, गुनने को अधिक होता है।
स्वाध्याय और अध्ययन में अन्तर
बाह्य दृष्टि से देखें तो स्वाध्याय और अध्ययन एक जैसे लगते हैं। जैसे कि हंस और बगुला एक — जैसे दिखते हैं, पर भीतर से तो दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। हंस सार—असार, दूध—पानी को अलग करके सार—तत्व को ग्रहण कर असार को त्याग देता है। यह विवेक का प्रतीक है। उचित—अनुचित का निर्णायक है। इसके विपरीत बगुला ऊपर से हंस जैसा होकर भी अखाद्य का भक्षण करता है। जब आप कोई लक्ष्य बनाकर किसी विषय में योग्यता या परीक्षा उत्तीर्ण करने अथवा कोई डिग्री पाने के उद्देश्य से सम्बन्धित विषय की पुस्तक को मनोयोगपूर्वक पढ़ते हैं तो वह अध्ययन कहलाता है। अध्ययन जीवन की आवश्यकता है । फिर भी अध्ययन में विवशता—सी होती है। उसमें स्वत: स्पूâर्त जिज्ञासा या पढ़ने की प्रेरणा नहीं होती, अपितु पहले से निश्चित की गई जानने की आवश्यकता की प्रधानता होती है। जैसे किसी परीक्षा या कोर्स की पढ़ाई। डिग्री प्राप्त कर सर्विस पाने की आकांक्षा । अध्ययन एक लक्ष्य तक सीमित होता है। उसमें केवल जानकारियाँ या सूचनाएँ होती हैं, जबकि स्वाध्याय की कोई सीमा नहीं होती । उसमें ज्ञान का विस्तार होता है। स्वाध्याय से योग्यता बढ़ती है। अध्ययन बहिसमुखी क्रिया है तो स्वाध्याय अन्तर्मुखी साधना है। अध्ययन की एक खास उम्र होती है। आठ वर्ष की उम्र से पच्चीस वर्ष तक की उम्र का समय अध्ययनकाल माना जाता है। लेकिन स्वाध्याय के लिए जवानी और बुढ़ापा समान होते हैं। अध्ययन करने वाले का नाड़ी संस्थान केवल अध्ययन काल तक ही सक्रिय रहता है। स्वाध्यायशील का नाड़ी संस्थान हर समय सक्रिय रहता है । स्वाध्यायकर्ता के मन—मस्तिष्क सदा क्रियाशील रहते हैं। इनको क्रियाशील रखने से इनमें जंग नहीं लगता। हर क्षण करने की सजगता बनी रहती है और प्रखरता बढ़ती जाती है। अध्ययन करने का नित्य का समय भी निश्चित होता है जैसे चौबीस घंटो में दस या आठ घंटे। स्वाध्याय में जिज्ञासा की इतनी अधिक प्रधानता होती है कि स्वाध्यायकर्ता आने वाले हर अवसर से ज्ञान ग्रहण कर लेता है। गणधर गौतम महान स्वाध्यायी थे। इसलिए उनकी जिज्ञासा सदा जागृत रही। वे कहीं भी कोई नई बात देखते—सुनते तो तुरन्त भगवान महावीर के पास आकर उसके विषय में क्या, क्यों, कैसे आदि से समाधान प्राप्त करते । चाय की पतीली पर रखा ढक्कन बार—बार ऊपर उठते देखकर जिज्ञासु से जान लिया कि भाप में ठेलने की शक्ति होती है फिर इस ठेलने वाले सिद्धान्त का उपयोग यह हुआ कि भाप की शक्ति से चलने वाले इंजन रेलगाड़ियाँ खांचने लगे। स्वाध्याय में एक उत्कंठा , जिज्ञासा और प्यास होती है, जानने की जिज्ञासा और प्यास अथवा उत्कंठा ही ज्ञान क्षेत्र के द्वार खोलती है। निष्कर्ष यह है कि स्वाध्याय का रूप, अर्थ,अभिप्राय जानने से पहले आपको जिज्ञासु बनना पड़ेगा, क्योंकि जानने की प्रबल इच्छा के बिना स्वाध्याय संभव ही नहीं है।
सबका समावेश स्वाध्याय में
अध्ययन, सत्संग, चिन्तन, मनन , अनुभव, अनुभूति सभी का समावेश अकेले स्वाध्याय में रहता है। स्वाध्याय कर्ता अध्ययनशील भी होगा और चिन्तन— मनन करने वाला भी।वस्तुत: स्वाध्याय आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया है। अन्तर्दर्शन की साधना है। स्वाध्यायी बाहर से भीतर में प्रवेश करता है। पहले कहा गया था, ज्ञान दोनों तरह से उपलब्ध होता है। कभी वह अन्त:करण में जाग्रत होता है फिर भी स्वत: ही उसका विकास होता रहता है तो कभी वह बाह्य साधनों से प्राप्त किया जाता है। दोनों के लिए मस्तिष्क को प्रखर एवं उर्वर बनाने की जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, वह स्वाध्याय है।
जिज्ञासा की शक्ति
जिज्ञासा स्वयं में एक शक्ति है और इसी शक्ति के बल पर ज्ञान यज्ञ या ज्ञान तप रूपी स्वाध्याय फलता—फूलता है। जिज्ञासा के अभाव में ज्ञान तत्व पकड़ में ही नहीं आता। जिज्ञासा सामान्य से जितनी अधिक गहरी होती जायेगी, ज्ञान की पकड़ भी उतनी ही तीव्र होगी।फिर हर क्षेत्र में ज्ञान को ग्रहण करना सुगम हो जायेगा। जिज्ञासु एक प्रकार का चुम्बक होता है । वातावरण और परिवेश में बिखरे ज्ञान रूपी लोह कणों को वह सहज ही अपनी ओर खींचता रहता है। जिज्ञासा की स्निग्धता जिस मानस में होती है वह अपने चारों तरफ फैले ज्ञान रूपी रजकणों को ग्रहण कर अपना ज्ञान भंडार बढ़ाता रहता है। जिज्ञासा की तड़प ,जानने की प्रबल इच्छा, गुरूजनों, ज्ञानियों से सम्पर्क , संवाद, पुस्तके आदि द्वारा ‘स्वाध्याय’ से शान्त होगी और ज्ञान—लाभ करके तृप्ति—संतुष्टि की अनुभूति को प्राप्त करेगी। जितने भी दार्शनिक, आविष्कारक, आध्यात्मिक ज्ञानी हुए, उनके मूल में जीवित जिज्ञासा ही मुख्य रही है। पतीली पर राख ढक्कन बार—बार उठता—गिरता क्यों है ? पेड़ से टूटा सेब नीचे घरती पर ही क्यों गिरा? ऊपर या दाएँ—बाएँ क्यों नहीं गया ? वृद्धावस्था क्यों आती है? आदमी मरता क्यों है ? आदि प्रश्नों की जिज्ञासा ने ही तो आईस्टीन, न्यूटन जैसे वैज्ञानिक और तथागत गौतम जैसे ज्ञानी पैदा किये। उपनिषद् के ज्ञान का मूल स्रोत— अथातो ब्रह्म जिज्ञासा,अथातो धर्म जिज्ञासा के सूत्रों से ही प्रवाहित हुआ है।
जय विज्ञान और जिज्ञासा
परमाणु परीक्षण की सफलता से अभिभूत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के उद्घोष—‘जयजवान: जय किसान’ में एक सूत्र जोड़ा था—‘ जय विज्ञान।’ उन्होंने पूरा उद्घोष इस तरह बनाया— ‘जय किसान, जय जवान, जय विज्ञान।’ बिना जवानों के देश की सुरक्षा नहीं हो सकती और किसानों की जय के बिना देश की अन्न समृद्धि नहीं बढ़ सकती।लेकिन इन दोनों की जय—विजय, उन्नति विज्ञान से होगी। देश का विकास बिना विज्ञान के संभव नहीं।अच्छी से अच्छी मार करने वाली मिसाइलें जवानों को चाहिए। उन्हें विज्ञान उपलब्ध कराता है। किसानों के उर्वरक, बीज और कृषियंत्रों की उपलब्धि का आधार भी ज्ञान—विज्ञान है। आज हम विज्ञान की जितनी भी उपलब्धियाँ, जितने भी चम्तकार देखते हैं, इन सबके मूल में जिज्ञासा ही है। वही विज्ञान की जननी है।
मंजिल स्वयं आती है
जिज्ञासा प्रबल हो, गहरी हो तो जिज्ञासु के पास उसका समाधान, उसकी मंजिल स्वयं ही आ जाती है। उसे भटकना नहीं पड़ता। आप कोई योग्य, विद्वान, ज्ञानी गुरू बना लें, उसके शिष्य बन जाएँ , पर यदि आपमें जिज्ञासा न हो तो आप गुरू से पूछेंगे क्या ? तब आप गुरु से कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकते। धर्म के प्रति पैदा हुई जिज्ञासा ही हमें धर्म की ओर उन्मुख करके मिथ्यात्व , अज्ञान और अधर्म से दूर रख पाती है।
जिज्ञासा ज्ञान सरोवर के पास जाती है
निष्कर्ष यह कि ज्ञानी बनने अथवा भीतर का अपना निज का प्रकाश जगाने के लिए जिज्ञासु बनिए। अपनी जिज्ञासा को जगाइए। बिना प्यास के आपके लिए जल का कोई मूल्य नहीं। उसी प्रकार जिज्ञासा के बिना आपके सामने खड़ा साक्षात् सागर समानद ज्ञान भी व्यर्थ है। अगर प्यास होगी तो आप जल की खोज अवश्य करेंगे। बिना प्यास के मार्ग में पड़े सरोवर को भी आप बिना देखे आगे बढ़ जाएँगे। वनवास काल में पाण्डवों को बड़े जोरों की प्यास लगी तो उन्होंने बड़े प्रयास से एक सरोवर का अनुमान लगाया। एक—एक कर चार पाण्डव जल लेने गए और यक्ष प्रश्नों की अवहेलना करने के कारण मूच्र्छित हो गए। अन्त में युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिया और अपने चारों भाइयों को जीवित कर पाँचों ने प्यास बुझाई। प्यास रूपी जिज्ञासा के बिना आप स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन—मनन रूपी सरोवरों से ज्ञान रूपी जल कदापि प्राप्त नहीं कर सकेगे। आपने स्कूली शिक्षा पाई है । बी.ए०, एम.ए. की डिग्रियाँ ली है। यह ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान तो विशाल ज्ञान—सागर के मंथन रूप स्वाध्याय के लिए एक साधन मात्र है। भाषा—ज्ञान को ज्ञान मत समझ बैठिए। यह तो ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रस्थान भर है। प्रस्थान के बाद आपको स्वाध्याय आदि के सहारे ज्ञान की मंजिल तक पहुँचना है और यह मंजिल स्वयं आपके पास आएगी। भाषा ज्ञान केवल एक सेतु है, जिसके सहारे ज्ञानरूपी महासरोवर को पार किया जा सकता है। जिज्ञासा के तीन चरण: एक सज्जन ने मुझसे पूछा— ‘‘जिज्ञासा क्या है?’’ मैंने उसको प्रश्न का सीधा—सरल उत्तर दिया— ‘‘ जानने की उत्सुकमा, उत्कंठा ही जिज्ञासा है।’’ सामने भीड़ देखकर आप उधर चल पड़े हैं, क्योंकि आपमें यह जानने की उत्सुकता होती है कि वह क्या है। भीड़ क्यों है वहाँ। सच तो यह है कि यदि जिज्ञासा न हो तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं। अत: ज्ञानी बनने के लिए मनुष्य और मनुष्य बनने के लिए जिज्ञासू बनिए। विज्ञान की या आत्माज्ञान की जितनी खोजें हुई , अन्वेषण हुए और जो उपलब्धियाँ सामने आई उनके मूल में जिज्ञासा से जुड़े तीन चरण हैं। ये तीनों चरण विज्ञान की प्रक्रिया हैं। ये तीन चरण हैं।(१) क्या हुआ— निरीक्षण, (२) क्यों हुआ— सिद्धान्त—निरूपण और (३) क्या करें कि जीवन में इस सिद्धान्त का उपयोग हो— व्यवहार।जैसा कि पूर्व में बताया गया, पहले चरण ‘क्या हुआ’ अथवा ‘निरीक्षण’ में देखने वाला देखता है कि पतीली पर रखा ढक्कन बार—बार ऊपर—नीचे उठता—गिरता है। दूसरे ने देखा कि पेड़ से टूटकर सेब नीचे धरती पर गिरा। ‘क्या हुआ’ में यह हुआ कि सेब पेड़ से टूटा और नीचे गिरा तथा ढक्कन बार—बार ऊपर—नीचे उठ—गिर रहा है।इस क्या हुआ में घटना का ‘निरीक्षण’ विज्ञान का पहला चरण है। दूसरे चरण में इस निरीक्षण से— पहले में भाप की शक्ति का सिद्धान्त निरूपित हुआ। सेब के नीचे आने में गुरूत्वाकर्षण का सिद्धान्त निश्चित हुआ। सिद्धान्त निरूपण दूसरा चरण है। तीसरे चरण में ‘क्या करें’ कि ये सिद्धान्त जीवन में उपयोगी बनें। दोनों के प्रयोग हुए। उपलब्धियाँ सामने आई। भाप के इंजन चले पहले सिद्धन्त से और दूसरे गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त के नक्षत्रों , ग्रहों, उपग्रहों की गति नापी गई। अन्तरिक्ष विज्ञान की अद्भुत प्रगति हुई। विज्ञान के उन तीनों चरणों के पूर्ण होने में मुख्य हेतु जिज्ञासा ही थी। लोग नित्य मरते हैं। शिशु से बालक, किशोर, तरूण, युवा और वृद्ध हो जाते हैं। इस शरीर परीवर्तन पर किसे जिज्ञासा होती है। मरने के बारे में कौन जानना चाहता है। कि क्यो मरते हैं लोग। लेकिन इन सामान्य घटनाओं के बारे में शुद्धोधन पुत्र सिद्धार्थ को जिज्ञासा हुई । उसी जिज्ञासा ने उन्हें खोज के लिए प्रेरित किया और बोधि को प्राप्त सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बने— करूणासागर बुद्ध — प्रबल जिज्ञासा ने ही सिद्धार्थ को तथागत बुद्ध बनाया।
जिज्ञासा में संस्कारों का प्रभाव
जिसके जैसे संस्कार होंगे, उसकी जिज्ञासा भी वैसी ही होगी । भौतिक जगत् के जिज्ञासु दृश्य जगत् के जिज्ञासु होते हैं,जैसे न्यूटन। लेकिन आत्मजगत् के जिज्ञासू सभी भौतिक उपलब्धियों को त्याग कर केवल यही जानना चाहते हैं कि मैं कौन हूँ ? ऐसा ही एक जिज्ञासु हुआ नचिकेता। उद्दालक ऋषि के पुत्र नचिकेता ने यमराज से आत्म तत्व यानी ब्रह्मज्ञान का रहस्य पूछा तो यमराज ने कहा— ‘‘ तुम मुझसे कुछ भी माँग लो। मैं तुमको अक्षय यौवन, दीर्घ आयु अजरता—सब कुछ दूँगा, पर आत्म रहस्य मत पूछो।’’ नचिकेता ने हठ किया कि मृत्यु के देवता यमराज से मैं मृत्यु का रहस्य जाने बिना यहाँ से नहीं जाऊँगा। अन्तत: यमराज को झुकना पड़ा और उन्होंने जन्म—मृत्यु, आत्मा का रहस्य नचिकेता को समझाया। नचिकेता की प्रबल जिज्ञासा आत्म—रहस्य जानने की थी, तो उसने जान ही लिया।
आप जिज्ञासु बुद्धि हैं या सुप्त बुद्धि
संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं । एक जिज्ञासु बुद्धि वाले और दूसरे सुप्त बुद्धि वाले । जिज्ञासु बुद्धि वाला जिस क्षेत्र में जाता है, अपनी जिज्ञासा के कारण सफलता प्राप्त कर लेता है और अपने व्यक्तित्व को आकर्षक, उपयोगी तथा प्रभावशाली बना लेता है। इसके विपरीत सुप्त बुद्धि वाला सर्वत्र निरूपयोगी और असफल सिद्ध होता है। जीवन में एक जैसा अवसर आने पर जिज्ञासू की बुद्धि खोज में लग जाती है और सुप्त बुद्धि वाला मनुष्य उस अवसर के बारे में कुछ नहीं सोचता। दोनों को स्पष्ट करने वाला एक उदाहरण है। एक अनाथ स्त्री के दो पुत्र थे। बड़ा चौदह वर्ष का और छोटा बारह का । स्त्री दोनों पुत्रों को लेकर एक सेठ के पास गई और कहा—‘‘ मेरे दोनों पुत्रों मे से एक को अपने घरेलू काम के लिए नौकर रख लो। मेरा गुजरा हो जाएगा। सेठ ने कहा पहले मैं यह देखूँगा कि दोनों में कौन मेरे काम का है। तुम दोनों को मेरे पास छोड़ जाओ।’’ स्त्री दोनों पुत्रों को सेठ के पास छोड़ गई। सेठ ने छोटे लड़के को अपने पास से दूर करके बड़े लड़के से कहा—‘‘ बाजार जाकर यह देख आओ कि फलों की दुकान खुली है या नहीं।’’बड़ा लड़का बाजार गया और लौटकर उसने सेठ को बता दिया कि फलों की दुकान खुल गई है। सेठ ने जो काम बताया, वह उसने कर दिया। फिर भी सेठ उससे संतुष्ठ नहीं हुआ। उसने उससे कहा—‘‘ तुम घर जाकर अपनी माँ को ले आओ। जब बड़ा लड़का अपनी माँ को लिवाने घर गया तो सेठ ने छोटे लड़के से कहा—‘‘बाजार जाकर यह देख आओ कि फलों की दुकान खुली है या नहीं।’’थोड़ी देर बाद छोटे लड़के ने बताया—‘‘ सेठजी! फलों की दुकान दो घंटे पहले खुल गई थी। उसमें अमरूद, केला, मौसमी, पपीता आदि हैं और उनके भाव इस प्रकार हैं’’ दुकान में जो फल थे, उन सब के भाव छोटे लड़के ने बता दिये और यह भी बताया कि सेब और संतरा की पेटियाँ दो घंटे बाद आ जाएँगी। सेठ छोटे लड़के के काम से संतुष्ट हो गया । तब तक बड़ा लड़का अपनी माँ को लेकर आ गया। सेठ ने दोनों लड़कों के बारे में उनकी माँ से कहा— ‘‘मैंने तुम्हारे दोनों लड़कों को एक ही काम बताया था। तुम्हारा बड़ा लड़का सुप्त बुद्धि का है। उससे जितना कहा, उतना कर दिया, लेकिन तुम्हारा छोटा लड़का जिज्ञासु बुद्धि का है। उसे भी यह देखने भेजा था कि फलों की दुकान में क्या—क्या फल हैं। बढ़ती जिज्ञासा के कारण उसने सभी फलों के भाव भी जान लिये। फिर उसे जिज्ञासा हुई कि फलों की दुकान पर सेब और संतरा क्यों नहीं है तो उसने यह भी जान लिया कि ये दोनों फल दो घंटे बाद आयेंगे।बड़े लड़के को तुम घर ले जाओ। छोटे लड़के को मैं अपने यहाँ नौकर रख लूँगा।’’ सेठ ने छोटे लड़के को रख लिया। चूँकि वह जिज्ञासू बुद्धि का था, अत: उसने व्यापार के बहुत—से रहस्य जान लिये। व्यापारिक गुर भी सीख लिये। आगे चलकर वह लड़का स्वतंत्र रूप से व्यापार करने लगा और मुंबई में फलों का बहुत बड़ा व्यापारी बन गया। निष्कर्ष यह कि जाग्रत जिज्ञासा शारीरिक , मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक सभी उन्नतियों की पहली सीढ़ी है। जिज्ञासा से ही व्यक्तित्व में चमक आती है। आकर्षण पैदा होता है। जिज्ञासु बुद्धि वाला बीज को महावृक्ष बना सकता है।
समाधान देता है स्वाध्याय
सभी उन्नतियों की पहली सीढ़ी यह है कि जिज्ञासा का समाधान होता है स्वाध्याय से। यह बात पहले भी समझायी जा चुकी है कि जिसमें जितनी गहरी जिज्ञासा होगी , वह उतनी ही अधिक जानकारी करेगा। स्वाध्याय का महत्व इतना है कि योग—साधना के पाँचों अंगों में स्वाध्याय को भी स्थान दिया गया है। ये अंग हैं—शौच, संतोष, तप ईश्वराधन और स्वाध्याय। जैन आचार्यों ने तप के बारह भेद बताये हैं। उनमें स्वाध्याय को भी तप माना है जो मन और बुद्धि को निर्मल और प्रखर बनाने में सहायक होता है। अभिप्राय यह है कि आत्म—साधना और आत्म—ज्ञान की अनुभूति में भी स्वाध्याय का विशिष्ट महत्व है। स्वाध्याय ज्ञान का आधार या साधन तो है ही, आस्था और विश्वास को भी स्वाध्याय अडिग एवं अविचल बनाता है।