ज्ञान पचीसी व्रत में ग्यारस के ग्यारह उपवास और चौदश के चौदह उपवास ऐसे पच्चीस उपवास होते हैं। यह व्रत ग्यारह अंग और चौदह पूर्व ज्ञान की आराधना के लिए किया जाता है। इसको श्रावण सुदी चतुर्दशी से करने का विधान है। मतांतर से इस व्रत में दशमी के दश उपवास और पूर्णिमा के पंद्रह उपवास करने का भी विधान है। इस व्रत में प्रधानरूप से श्रुतस्कंध यंत्र का अभिषेक एवं श्रुतज्ञान (सरस्वती) की पूजा करना चाहिए। प्रत्येक व्रत की उत्तम विधि तो उपवास ही है। मध्यम एवं जघन्य विधि में शक्ति के अनुसार एकाशन या अल्पाहार करके भी व्रत किया जा सकता है। व्रत के दिन जिनेन्द्रदेव एवं श्रुतस्कंध यंत्र अथवा सरस्वती की मूर्ति का पंचामृत अभिषेक करके पूजा करें, पुनः सरस्वती के १०८ नामों को पढ़ते हुए एक-एक मंत्रों का उच्चारण कर सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावलों को चढ़ावें। अनंतर समुच्चय मंत्र से एक जाप्य करें। समुच्चय जाप्य-ॐ ह्रीं जिनमुखोद्भूतद्वादशांगाय नमः। ग्यारह अंग और चौदह पूर्व संबंधी व्रतों में पृथक्-पृथक् जाप्य भी करना चाहिए।
इस व्रत के २५ उपवास एक वर्ष में करें। ऐसे एक वर्ष तक या बारह वर्ष तक भी यह व्रत किया जाता है। व्रत पूर्ण करके यथाशक्ति उद्यापन करना चाहिए। इस व्रत के प्रसाद से मनुष्य श्रुतज्ञान को प्राप्त कर अगले भव में श्रुतकेवली होकर परम्परा से केवलज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो जावेगा।