षण कैसे
होगा जो बुजुर्ग हो गए है और अन
आमदनी का स्रोत खो चुके है।
किसी से भी पूछिए, जवाब यही मिलेगा कि उनका मुख्य लक्ष्य है खुश होना। कई देशों को भी रास आया है यह आइडिया। अमेरिका के संविधान में तो खुशी पाने की कोशिश को नागरिकों का ऐसा अधिकार बताया गया है, जिसे रूपों में ही छीना नहीं जा सकता। अलग-अल सही, दक्षिण कोरिया, जापान और ब्राजील ने भी अपने यहां के चार्टर में खुशी को शामिल किया है। भूटान ने तो ग्रॉस नैशनल हैपिनेस इंडेक्स बना दिया है। संयुक्त राष्ट्र हर साल 20 मार्च को मनाता है वर्ल्ड हैपिनेस डे। लेकिन सवाल यह है कि असल में खुशी है क्या ?
खुशी के बारे में शायद सबसे अच्छी जानकारीमिलती है ग्रीक परंपरा से। मोटे तौर पर इसे दो खांचों में रखा जा सकता है। एक का फोकस आनंद पर है। इसकी बात की थी एपिक्यूरस ने। दूसरे का जोर है अच्छे गुणों पर। इसकी वकालत की थी एपिक्टेटस ने। खुशी पाने का यह आसान तरीका है, आजकल का हमारा अनुभव तो यही बताता है। यानी आनंद या अच्छे गुणों में से किसी एक को ही पाने पर ध्यान दिया जाए तो जीवन संपूर्ण नहीं हो पाएगा। यही वजह ह है कि अमीर परिवारों के बच्चे भी कई बार खुश नहीं दिखते। कुल मिलाकर बात यह है कि लोग कितने खुश रहेंगे, इसका अंदाजा हम-आप केवल 10 फीसदी लगा सकते हैं। बाकी 90 फीसदी तय होता है इस बात से कि आदमी का दिमाग इस दुनिया को किस तरह देखता है। जाहिर है कि खुशी भीतर से ही आती है। खुश रहना हो तो उन छोटी-छोटी अच्छी बातों को मामूली मानकर नजरंदाज नहीं करना चाहिए, जो रोज होती हैं और खुशियां देती हैं। जहां तक पैसे से खुशी मिलने की बात है तो एक सीमा के बाद पैसे से बहुत फर्क नहीं पड़ता।
2010 में प्रिंसटन यूनिवर्सिटी की एक स्टडी में पता चला कि अमेरिका में खुशी और दौलत का रिश्ता 75 हजार डॉलर प्रति वर्ष तक ही कायम रहता है। लगभग ह हाइजीन थियरी की है। यानी पैसा न होने से घटती है सुरो, लेकिन जरूरी नहीं किया पैसा हो तो खुशी बढ़ेगी ही। एक बात पैसे के बारे में है कि इसके जरिए जिंदगी को कद तकव्रतका सकता है। पैसे से कुछ खरीदा जा सकता है, उसके मुकाबले पाने में रिश्ता कहीं बड़ा फैक्टर हो सकता है। हाई यूनिवर्सिटी में 1938 में एक अध्ययन में 724 लोगों के जीवन पर नजर रखी गई। पहला पूर था हार्द के दूसरे साल के का। दूसरा दूर था बॉस्टन के बेहद गरीब लोगों के इलाकों के बच्यों का। जिन लोगों का सामाजिक मेलजोल ज्यादा था, वे अधिक खुरा पाए गए। यहां असल चीन यह नहीं थी कि कितने लोगों से मेलजोल था। बात रिस्तों की हाई की थी। स्टडी ने दिखाया कि जिन लोगों ने अपनी उम्र के आठवें दशक में सबसे खुश होने की जानकारी दो, वे बही लोग थे, जो 50 की उम्र में अपने रिश्तों को लेकर सबसे ज्यादा संतुष्ट थे।
कई बार खुश रहने का मतलब यह भी होताहै कि कमियों को नजरंदाज किया जाए। शुक्रियाअदा करने का जो भाव है, यह काफी हद तकखुशी जैसा ही है। दयालुत से खुशी बढ़ती है।ऐसा ही ने से। खुसी एक से दूसरे के पास पहुंचती है।
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