देव गति के ४ भेद हैं—भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिर्वासी एवं वैमानिक। सम्यग्दृष्टि जीव वैमानिक देवों में ही उत्पन्न होते हैं। भवनत्रिक (भवन, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव) में उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि ये जिनमत के विपरीत धर्म को पालने वाले हैं, उन्मार्गचारी हैं, निदानपूर्वक मरने वाले हैं, अग्निपात, झंझावात आदि से मरने वाले हैं, अकाम निर्जरा करने वाले हैं, पंचाग्नि आदि कुतप करने वाले हैं या सदोष चारित्र पालने वाले हैं एवं सम्यग्दर्शन से रहित ऐसे जीव इन ज्योतिष्क आदि देवों में उत्पन्न होते हैं। ये देव भी भगवान के पंचकल्याणक आदि विशेष उत्सवों के देखने से या अन्य देवों की विशेष ऋद्धि (विभूति) आदि देखने से या जिन बिम्ब दर्शन आदि कारणों से सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं तथा अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा एवं भगवान के पंचकल्याणक आदि में आकर महान पुण्य का संचय भी कर सकते हैं।
अनेक प्रकार की अणिमा महिमा आदि ऋद्धियों से युक्त इच्छानुसार अनेक भोगों का अनुभव करते हुये यत्र-तत्र क्रीड़ा आदि के लिये परिभ्रमण करते रहते हैं। ये देव तीर्थंकर देवों के पंच कल्याणक उत्सव में या क्रीड़ा आदि के लिये अपने मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते हैं। विक्रिया के द्वारा दूसरा शरीर बनाकर ही सर्वत्र आते-जाते हैं। यदि कदाचित् वहाँ पर सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो मिथ्यात्व के निमित्त से मरण के ६ महीने पहले से ही अत्यन्त दु:खी होने से आर्तध्यानपूर्वक मरण करके मनुष्य गति में या पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में जन्म लेते हैं। यदि अत्यधिक संक्लेश परिणाम से मरते हैं तो एकेन्द्रिय—पृथ्वी, जल, वनस्पतिकायिक आदि में भी जन्म ले लेते हैं। किन्तु यदि सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर मरते हैं तो शुभ परिणाम से मरकर मनुष्य भव में आकर दीक्षा आदि उत्तम पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का नाश कर मोक्ष को भी प्राप्त कर लेते हैं। देवगति में संयम को धारण नहीं कर सकते हैं एवं संयम के बिना कर्मों का नाश नहीं होता है। अत: मनुष्य पर्याय को पाकर संयम को धारण करके कर्मों के नाश करने का प्रयत्न करना चाहिये। इस मनुष्य जीवन का सार संयम ही है।