एक सहस्राब्दी वर्ष पूर्व चम्पावती नगरी के नाम से प्रतिष्ठित काल के प्रकोप से ध्वंस होने के पश्चात् डेह ग्राम के नाम से पुर्नस्थापित हुई। समृद्ध धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान के रूप में सन् ११६२ ई. में निर्मित चन्द्रप्रभ मंदिर स्थित है। लगभग १०० वर्ष पूर्व इस ग्राम में २०० दिगम्बर जैन परिवार निवास करते थे। लगभग १०० वर्ष बाहर जाने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई देखते ही देखते डेह के मूल निवासियों के अनेक वंशज भारतवर्ष के विभिन्न प्रांतों में स्थायी रूप से रहकर व्यापार एवं सर्विस करने लगे। इस ग्राम के पूर्वज जहा भी गए अपने आप को इस ग्राम से अपने आपको किसी न किसी रूप में जोड़े रखे। वर्तमान में जितने भी जैन परिवार डेह में रह गए हैं उनमें चाहे वे तेरहपंथी या बीसपंथी हो, आपस का भाईचारा अनुकरणीय है। नागौर के भट्टारक की डेह के इस मंदिर में गद्दी होने के कारण अतिशयकारी कलापूर्ण शिल्प के प्रतिमाएँ है। यहाँ के श्रावकों का कथन है कि यहाँ के सभी प्राचीन प्रतिमाओं की भक्ति से उनके कार्यों की सिद्धि होती है और समय—समय पर यहां चमत्कार भी होते हुए देखे गये हैं। मूलनायक चंद्रप्रभ भगवान के अतिरिक्त इस मंदिर में निम्नांकित अभिलेखित प्रतिमायें भी विराजमान हैं।
विक्रम सं. १५५२ केसरियां पाषण रंग की आदिनाथ प्रतिमां —विक्रम सं. १५०२ को प्रतिष्ठित पद्मप्रभु, नेमिनाथ, चंद्रप्रभु की प्रतिमायें —विक्रम सं. १५५८ के चंद्रप्रभु एवं अजितनाथ —विक्रम सं. १६४३ के पद्मप्रभु भगवान —विक्रम सं. १८२६ में प्रतिष्ठित आदिनाथ एवं सुपार्श्वनाथ की प्रतिमायें। उपरोक्त के अतिरिक्त धातु की २४ प्रतिमायें हैं जिसमें तीन मूर्तियाँ विक्रम सं. १५५४ में प्रतिष्ठित खड्गासन है। कुल मिलाकर पाषण की १५ तथा धरणेन्द्र—पद्मावती की दो, धातु की कुल १४ मूर्तियाँ इस मंदिर में है। इस मंदिर के क्षेत्रपाल की मान्यता प्रसिद्ध है। इस मंदिर में बाहुबली की प्रतिमा जोकि दक्षिण शैली की कलात्मक शिल्पयुक्त है, उल्लेखनीय है। इस पर किसी भी प्रकार का अभिलेख नहीं है। परन्तु इस प्रतिमा की शिल्प—शैली को देखते हुए दसवीं शताब्दी के उत्तरार्थ की मालूम होती है। पुरातत्व विभाग पश्चिम विभाग द्वारा इसे ९ वीं शताब्दी की माना है। ये नसियाँ सरोवर के किनारे स्थित है जिसकी वेदी पर काले पाषाण की बड़ी प्रभावक एवं आकर्षक पाश्र्वनाथ की प्रतिमा है। इसके पादपीठ के अभिलेख के अनुसार इसकी वि. सं. १६४३ में प्रतिष्ठा की गई थी। इस प्रतिमा के दोनों पाश्र्व में काले पाषाण की वि. सं. २०१८ में प्रतिष्ठित काले पाषाण की पाश्र्वनाथ की प्रतिमा है। वेदी के बायी ओर धरणेद्र पदमावती की एवं दायी ओर क्षेत्रपाल की मूर्ति है। नसियाँ के मध्यभाग में भट्टारक श्री हेमकीर्तिजी का समाधिस्थल, वि. सं. १९५२, माघ शुक्ला १५ की चरणापादुका एवं छत्री बनी हुई है। यहाँ चँवरी में पूजन अभिषेक के समय कई बार सर्पराज आता है और चला जाता है ऐसा अनेक बार हुआ है।
श्री शान्तिनाथ का मंदिर बस स्टैण्ड ने ‘गवाड़’ होते हुए पाण्ड्या चौक में पहुँच कर दाहिनी ओर नजर डालते हैं तो एक भव्य, विशाल, मनोहर, शिखरबन्ध मन्दिर होते हैं। मन्दिर का प्रवेश द्वार एवं दीवारें कारीगरों से अलंकृत हैं। विक्रम संवत् १९७८ में समाज के पारस्परिक मतभेद के कारण यह मन्दिर अस्तित्व में आया। वि. सं. १९८१ में बगसुलाल सुगनचन्द पाण्ड्या की पोल में सुजानगढ़ से श्री चन्द्रप्रभु भगवान की मूर्ति लाकर एक चैत्यालय की स्थापना की गई थी। तत्पश्चात् पास में ही जमीन खरीद कर इस नवीन मंदिर का निर्माण हुआ जिसकी प्रतिष्ठा वि. सं.१९९३ में प्रतिष्ठाचार्य पं. झमनलालजी शास्त्री, कलकत्ता द्वारा विधिवत् सम्पन्न की गई। मूलनायक शान्तिनाथ भगवान होने से इसे शान्तिनाथ का मन्दिर जाना जाता है। लोहे की जालियों में भी ‘शान्तिनाथ’ लिखा हुआ है।
इसके शिखर की प्रतिष्ठा वि. सं. २०११ में कराई गई। शिखर संगमरमर (मकराना) का बना है, दर्शनीय है। शिखर की चारों दिशाओं में प्रतिमाओं के होने से दूर से ही दर्शनों का लाभ मिलता है। शिखर के मध्य चैत्यालय में भगवान पाश्र्वनाथ की फण सहित पद्मासन काले पाषण की मनोज्ञ प्रतिमा है। इसे श्री रिद्धकरण, गिरधारीलाल, केशरीमल, पूनमचन्द पाटनी ने वि. सं. २००८ पुâलेरा में हुए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में प्रतिष्ठित कराके विराजमान करवाया था।
मूलनायक शान्तिनाथ भगवान की प्रतिमा वि. सं. १९९१, फाल्गुन शुक्ला द्वितीया की प्रतिष्ठित है। इस मुख्य चँवरी में श्री पद्मप्रभु श्री महावीर स्वामी, श्री आदिनाथ, श्री मुनिसुव्रतनाथ, श्री चन्द्रप्रभु व श्री पाश्र्वनाथ की प्रतिमाएँ भी विराजमान हैं। इनके अतिरिक्त सर्वधातु की १७ प्रतिमाएँ भी हैं। मुख्य चँवरी के दोनों ओर दो बेदियाँ हैं जो वि. सं. २००८ में बनी हैं। बायीं ओर की वेदी में भगवान आदिनाथ, भगवान मुनिसुव्रतनाथ और भगवान पाश्र्वनाथ के बिम्ब हैं। दाहिनी ओर की वेदी में भगवान महावीर स्वामी, भगवान नेमिनाथ और भगवान शान्तिनाथ के बिम्ब हैं।
सभी वेदियाँ कलापूर्ण मकराने की बनी हैं। बड़ा प्रांगण है जिसमें लगभग पाँच सौ व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था की जा सकती है। वेदिकाओं के नीचे एक विशाल सभाकक्ष है जहाँ लगभग एक सभा आयोजित करने तथा मुनि संघ के ठहरने आदि के लिए उपयुक्त स्थान है। समीप ही कमरे आदि भी बने हैं। कुछ वर्ष पूर्व मंदिर के ऊपर चारों तरफ छत्रियाँ बन जाने से मन्दिर के सौन्दर्य में चार चाँद लग गये हैं। श्री पद्मप्रभु चैत्यालय डेह की महिला समाज को जिन अभिषेक और पूजनादि करने का स्वतन्त्र पृथक् स्थान न होने की कमी को पूरा करने के लिए ब्र. मोहनी बाई (वर्तमान आर्यिका १०५ श्री इन्द्रुमति माताजी) ने अपने द्रव्य से अपने घर में वि. सं. १९९८ में इस चैत्यालय की स्थापना की थी। वर्तमान में चैत्यालय में सर्वधातु की ११ प्रतिमायें हैं तथा भगवान पाश्र्वनाथ सहित धरणेन्द्र पद्मावती की ७ मूर्तियाँ हैं। दो आचार्यों के चरण चिह्न भी हैं। महिलाओं के लिए अभिषेक पूजन व्रत अनुष्ठान विधान आदि के लिए यह बड़ा उपयुक्त स्थान हो गया है।