अथ स्थापना (शंभु छंद)
मध्यलोक में ढाईद्वीप तक, कर्मभूमियाँ मानी हैं।
सब इक सौ सत्तर भव्यहेतु, ये शिवपथ की रजधानी हैं।
इनमें तीर्थेश रहें उन के, गणधर को पूजूँ भक्ती से।
आह्वानन स्थापन करके, गुणमणि को ध्याऊँ युक्ती से।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
अथ अष्टक (नरेन्द्र छंद)
सरयूनदि का शीतल जल ले, जिनपद धार करूँ मैं।
साम्यसुधारस शीतल पीकर, भव भव त्रास हरूँ मैं।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर चंदन घिस, जिनपद में चर्चूं मैं।
मानस तनु आगंतुक त्रयविध, ताप हरो अर्चूं मैं।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीसम उज्ज्वल अक्षत से, प्रभु नव पुंज चढ़ाऊँ।
निजगुणमणि को प्रगटित करके, फेर न भव में आऊँ।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही मोगरा सेवंती, वासंती पुष्प चढ़ाऊँ।
कामदेव को भस्मसात् कर, आतम सौख्य बढ़ाऊँ।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घेवर फेनी लड्डू पेड़ा, रसगुल्ला भर थाली।
तुम्हें चढ़ाऊँ क्षुधा नाश हो, भरें मनोरथ खाली।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णदीप में ज्योति जलाऊँ, करूँ आरती रुचि से।
मोह अंधेरा दूर भगे, सब ज्ञान भारती प्रगटे।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप दशांगी अग्निपात्र में, खेवत उठे सुगंधी।
कर्म जलें सब सौख्य प्रगट हों, पैâले सुयश सुगंधी।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आडू लीची सेब संतरा, आम अनार चढ़ाऊँ।
सरस मधुर फल पाने हेतू, शत-शत शीश झुकाऊँ।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंधादिक अर्घ्य बनाकर, सुवरण पुष्प मिलाऊँ।
भक्तिभाव से गीत नृत्य कर, प्रभु को अर्घ्य चढ़ाऊँ।।
त्रैकालिक गणधर गुरुवर को, पूजत निजसुख पाऊँ।
इष्ट वियोग अनिष्ट योग के, सब दुख शीघ्र भगाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपसंबंधिसप्तत्यधिकशतकर्मभूमिस्थितआर्यखंडेषु त्रैकालिकसर्वगणधरदेवेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
यमुना सरिता नीर, गुरु चरणों धारा करूँ।
मिले निजात्म समीर, शांतीधारा शं करे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित खिले सरोज, गुरुचरणों अर्पण करूँ।
निर्मद करूँ मनोज, पाऊँ जिनगुण संपदा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।