-नरेन्द्र छंद-
कर्मभूमि के आर्यखण्ड में, तीर्थंकर विहरे हैं।
समवसरण के मध्य राजतें, भविजन पाप हरे हैं।।
देश विदेहों में तीर्थंकर, समवसरण नित रहता।
भरतैरावत में चौथे ही, काल में यह दिख सकता।।१।।
-दोहा-
जिनवर समवसरण यही, धर्म सभा की भूमि।
शीश नमाकर मैं नमूँ, मिले आठवीं भूमि।।२।।
(शेर छंद) चाल-हे दीनबंधु………
जय जय जिनेन्द्र तीर्थ नाथ, गुण मणी भरें।
जय जय जिनेन्द्र तीर्थ नाथ, जग सुखी करें।।
जब घाति कर्म को हना, तब केवली हुये।
तुम ज्ञान में तब लोक वा, अलोक दिख गये।।३।।
तब इन्द्र की आज्ञा से, धनपती यहाँ आया।
अद्भुत अपूर्व रम्य, समवसरण बनाया।।
रवि बिम्ब सदृश गोल, इंद्र नील मणी का।
इस भूमि से वह बीस, सहस हाथ था ऊँचा।।४।।
चारों दिशा में सीढ़ियाँ हैं, बीस सहस ही।
वे एक एक हाथ ऊँची, सर्व सुखमयी।।
चारों दिशा में चार, मानस्तंभ बने हैं।
जो दर्श से ही मानियों का, मान हने हैं।।५।।
पहला है धूलिसाल कोट, सर्व रत्न का।
फिर चैत्य के प्रासाद की, मानी है भूमिका।।
फिर नाट्यशाला फेर मान, स्तंभ की भूमी।
फिर वेदिका प्रथम है पुन: खातिका बनी।।६।।
वेदी लता भूमी के बाद कोट दूसरा।
उपवन वनी व नाट्यशाला वेदि ध्वज धरा।।
परकोट तृतीय कल्पभूमि नाट्य शालिका।
वेदी भवन धरा स्तूप कोट चतुर्था।।७।।
पश्चात् श्रीमंडप की भूमि जो फटिकमयी।
वेदी के बाद प्रथम द्वितीय तृतीय पीठ ही।।
इसके उपरि है गंधकुटी मध्य सिंहासन।
उस पर सहस्रदलमयी स्वर्णिम कमल आसन।।८।।
चतुरंगुल अधर तीर्थनाथ इसपे राजते।
निज दिव्यध्वनि से असंख्य भव्य तारते।।
बालक व वृद्ध अंध वधिर, पंगु आदि भी।
मुहूर्त में ही चढ़ते लोग, सीढ़ियाँ सभी।।९।।
नाटक गृहों में अप्सरा, अभिनय विविध करें।
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक को विस्तरें।।
गणधर व चक्रवर्ती पुण्य पुरुष चरित का।
नाटक करें सब लोक का, मन हर रहीं नीका।।१०।।
मिथ्यादृशी पाखंडि शूद्र जन वहाँ नहीं।
जो दर्श करें नाथ का, वे भव्य हैं सही।।
बाधा बिना बैठें सभी, निज निज के हि कोठे।
मुनिगण व आर्यिका व देव देवि असंख्ये।।११।।
नर पशु सभी निज निज के वैर भाव छोड़ के।
प्रभु का सुने उपदेश, रुचि से हाथ जोड़ के।।
प्रभु वीर का समवसरण, योजन सु एक था।
फिर भी असंख्य देव का, निवास वहाँ था।।१२।।
अतिशय जिनेन्द्र देव की, अवगाहना शक्ती।
जो भव्य हैं वे ही वहाँ, कर सकते हैं भक्ती।।
भव्यों के पुण्य से प्रभू का, श्रीविहार हो।
दुर्भिक्ष रोग शोक उपद्रव वहाँ न हो।।१३।।
सब कर्मभूमियों में ये समवसरण बने।
ये भूत भावि काल के अनन्त हैं गिनें।।
ये सार्वभौम नाथ की हैं धर्म सभायें।
इनको नमें वे निज को सर्व गुण से सजायें।।१४।।
(जंबूद्वीप समवसरण स्तोत्र)
-नरेन्द्र छंद-
ऋषभदेव का समवसरण था, बारह योजन विस्तृत।
धूलीसाल कोट से वेष्टित, ऋद्धि सिद्धि नवनिधि भृत।।
धर्म सभा है गोल मनोहर, बारह गण से पूरित।
सुरनर पशु सुनते दिव्य ध्वनि, नमूँ भक्ति से मैं नित।।१५।।
अजितनाथ का समवसरण था, साढ़े ग्यारह योजन।
नाम स्मरण मात्र से अब भी, करता पाप विमोचन।।
मानस्तंभ आदि को वंदत, मान गलित हो जावे।
जो जन वंदे मन वच तन से, स्वास्थ्य लाभ को पावें।।१६।।
संभव जिन का समवसरण, जो ग्यारह योजन माना।
गंधकुटी के मध्य जिनेश्वर, सिंहासन अमलाना।।
बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़कर, बाल वृद्ध रोगी जन।
इक मुहूर्त में उन पर पहुँचे, यह अतिशय वंदे हम।।१७।।
अभिनंदन जिन समवसरण है, साढ़े दश योजन का।
रोग शोक दुख दारिद संकट,नाशे भव्य जनों का।।
मैं नित वंदूँ शीश नमाकर, आतम अनुभव पाऊँ।
अजर अमर पद परम धाम पा, नहीं पुनर्भव पाऊँ।।१८।।
सुमतिनाथ का समवसरण है, दश योजन कहलाया।
भव्यों ने निज कुमति दूरकर, निज पर सुमति उपाया।।
पूजादान शील तप पालो, श्रावक धर्म सुनाया।
पंच महाव्रत मुनि धर्म है, वंदूँ मन वच काया।।१९।।
पद्म प्रभू की कमल छवी है, चौंतिस अतिशय धारी।
साढ़े नव योजन का शोभे, समवसरण सुखकारी।।
कोट वेदिका लता भूमि, आदिक युत धनद बनावे।
गणधर मुनिगण चक्रवर्ती गण, नमते शीश नमावें।।२०।।
प्रभु सुपार्श्व का समवसरण है, नव योजन का सुन्दर।
मानस्तंभ चार दिश में हैं, रचना करें पुरंदर।।
भामंडल में दर्शक भविजन, सात निजी भव देखें।
वंदूँ ध्याऊँ जिनगुण गाऊँ, आत्मनिधी तब दीखे।।२१।।
चंद्र प्रभू का समवसरण था, साढ़े आठ सुयोजन।
चंद्रकिरण सम कांति मनोहर, हरती भव्यों का मन।।
घातिकर्म हन केवलज्ञानी, त्रिभुवन सूर्य कहाये।
चंद्रसूर्य सम सौख्य तेज हो, तुम गुणमणि को गायें।।२२।।
पुष्पदंत का समवसरण है, योजन आठ कहाया।
फिर भी असंख्यात भव्यों को, अपने मध्य समाया।।
देव-देवियाँ असंख्य रहते, नर पशु संख्याते हैं।
समवसरण की महिमा अनुपम, वंदत सुख पाते हैं।।२३।।
शीतल जिनका समवसरण था, साढ़े सात सुयोजन।
उन प्रभु का बस नाम स्मरण ही, कर देता शीतल मन।।
देव देवियाँ गीत नृत्य से, जिनगुण गान उचरते।
जो वंदें नित भक्ति भाव से, वे भव वारिधि तरते।।२४।।
श्री श्रेयांस का समवसरण था, योजन सात सुविस्तृत।
इन्द्रनील मणि भूमि मनोहर, हरता सुर नर का चित।।
पशु गण भी सब वैर छोड़कर, दिव्य ध्वनि को सुनते।
दो त्रय भव में तर जाते हैं, मैं वंदूँ नित मन से।।२५।।
वासुपूज्य का लाल कमल सम, सुरभित तनु अति सुंदर।
समवसरण साढ़े छह य्ाोजन, इन्द्र बना प्रभु किंकर।।
प्रातिहार्य मंगल द्रव्यादिक, शोभे समवसरण में।
चक्रवर्ति भी निज वैभव को, तुच्छ गिने उस क्षण में।।२६।।
विमलनाथ का समवसरण था, छह योजन गोलाकृति।
चारों तरफ चार मुख प्रभु के, देख रहे सब जन इत।।
वापी में जल भरा वहाँ जो, उसमें निज भव देखें।
अतिशय प्रभु का कहा अनूपम, वंदत ही निज पेखें।।२७।।
समवसरण था अनंतजिन का, साढ़े पाँच सुयोजन।
चैत्यभूमि के चैत्य वृक्ष में, जिन प्रतिमाएं अनुपम।।
सम्यग्दृष्टी प्रभु वंदन कर, भव अनंत हरते हैं।
अनंतदर्शन ज्ञान प्राप्त हो, जो वंदन करते हैं।।२८।।
समवसरण श्री धर्मनाथ का, योजन पाँच कहाया।
भविजन खेती को धर्मामृत, वर्षाकर हरसाया।।
सागार रु अनगार धर्म दो, भेद रूप माना है।
जिनवर समवसरण जो वंदे, पावें शिवथाना है।।२९।।
समवसरण था शांतिनाथ का, साढ़े चार सुयोजन।
आत्यन्तिक सुख शांति हेतु, उन वाणी जनमन मोहन।।
मिथ्यादृष्टी अभव्य जन प्रभु, दर्शन नहिं कर पावे।
सम्यग्दृष्टी दर्शन करके, भव जलधी तर जावे।।३०।।
कुंथुनाथ का समवसरण था, योजन चार विख्याता।
प्राणि मात्र पर दया करो सब, यह उपदेश सुनाता।।
जहाँ प्रभू का श्रीविहार हो, रोग उपद्रव टलते।
सब जन परमानंद प्राप्त कर, सुख से प्रभु को भजते।।३१।।
अर जिनवर का समवसरण था, साढ़े तीन सुयोजन।
मोह अरी को जीत लिये तब, मिला विभव सर्वोत्तम।।
ज्ञान दर्शनावरण रजों को, अन्तराय को नाशें।
हम वंदे उन तीर्थंकर को, अंतर ज्योति प्रकाशें।।३२।।
मल्लिनाथ का समवसरण था, योजन तीन कहाया।
कर्ममल्ल के विजयी प्रभु का, सुरनर मिल गुण गाया।।
आर्यखंड में श्रीविहार से, क्षेत्र पवित्र कहाये।
नाम लेत ही आपद टलती, शत्रु मित्र बन जायें।।३३।।
मुनिसुव्रत का समवसरण था, ढाई योजन सुन्दर।
गणधर मुनिगण ऋषिगण सुरगण, नरगण पशुगण मनहर।।
द्वादश सभा मध्य सब बैठे, निज निज के कोठे में।
वंदन कर उपदेश श्रवण कर, निज आतम पोषें वे।।३४।।
नमि जिनवर का समवसरण था, दो योजन मन भाया।
सरवर पुष्प वाटिका वापी, महलों से मन भाया।।
नृत्य करें बहु देव अप्सरा, नाटक शालाओं में।
वंदन से भव भ्रमण दूर हो, पाप नशें इक क्षण में।।३५।।
नेमिनाथ का समवसरण था, योजन डेढ़ बताया।
वरदत्तादिक गणधर गुरु ने, सबको बोध कराया।।
सभी आर्यिकाओं में मान्या, राजमती थीं गणिनी।
उस अचिन्त्य वैभव को नमते, मिले स्वात्म निर्झरणी।।३६।।
पार्श्वनाथ का समवसरण था, एक कोश इक योजन।
कमठ शत्रु ने भी वहँ आकर, किया वैर का मोचन।।
पद्मावति धरणेन्द्र भक्त प्रभु, संकट मोचन विश्रुत।
चिंतामणि पारस की महिमा, कलियुग में भी अद्भुत।।३७।।
महावीर का समवसरण था, इक योजन अतिशायी।
ढाई हजार वर्ष के पहले, सुरनर गण सुखदायी।।
उन प्रभु की ध्वनि गौतम ने चुनि, आज मिली हम सबको।
वंदूँ ध्याऊँ भक्ति बढ़ाऊँ शीघ्र नशाऊँ भव को।।३८।।
जम्बूद्वीप के ऐरावत में, आर्यखंड में नामी।
वर्तमान तीर्थंकर चौबिस, पंचकल्याणक स्वामी।।
बालचंद्र से वीरसेन तक, जिनवर समवसरण को।
श्रद्धा रुचि से वंदन करके, उनकी गहूँ शरण को।।३९।।
पूर्व विदेह देश में सोलह, आर्यखण्ड उन दो में।
सीमंधर युगमंधर जिनके, समवसरण हैं शोभें।।
उनको अगणित सुरनर मिलकर, भक्तिभाव से पूजें।
तीर्थंकर प्रभु के दर्शन कर, सर्व कर्म अरि धूजें।।४०।।
अपर विदेह देश में सोलह, आर्यखंड उन दो में।
बाहु सुबाहु तीर्थंकर के, समवसरण हैं शोभें।।
उनमें असंख्यात सुरगण हैं, नर पशु सब संख्यातें।
जिनभक्ती से आत्मशुद्ध कर, भव भव दु:ख नशाते।।४१।।
चौंतिस कर्मभूमि में जो हों, भूत भावि संप्रति में।
तीर्थंकर के समवसरण थे, होते अरु होवेंगे।।
उन सबको मैं नित प्रति वंदन, करके जिन पद पाऊँ।
चौंतिस अतिशय सहित देव, तीर्थंकर के गुण गाऊँ।।४२।।
(धातकीखण्डद्वीप समवसरण स्तोत्र)
-दोहा-
द्वीप धातकीखण्ड में, भरतक्षेत्र दो मान।
त्रैकालिक तीर्थेश सब, नमूँ अनंत प्रमाण।।४३।।
द्वीप धातकीखण्ड में, ऐरावत दो सिद्ध।
त्रैकालिक तीर्थेश प्रभु, नमूँ अनंत प्रसिद्ध।।४४।।
द्वीपधातकीखण्ड में, चौंसठ क्षेत्र विदेह।
त्रैकालिक तीर्थेश प्रभु, नमूँ अनंत सनेह।।४५।।
(पुष्करार्धद्वीप समवसरण स्तोत्र)
-दोहा-
पुष्करार्ध में दो भरत, तिनमें चौथे काल।
त्रैकालिक तीर्थेश प्रभु, नमूँ अनंत त्रिकाल।।४६।।
पुष्करार्ध में दो कहे, क्षेत्रैरावत जान।
त्रैकालिक तीर्थंकरा, नमूँ अनंत प्रमाण।।४७।।
पुष्करार्ध में चौंसठे, क्षेत्र विदेह महान्।
त्रैकालिक तीर्थेश प्रभु नमूँ अनंत प्रमाण।।४८।।
इस जम्बूद्वीप में भरतैरावत विदेह माने चौंतिस है।
पूर्व व पश्चिम धातकि में, चौंतिस-चौंतिस मिल अड़सठ हैं।।
ऐसे ही पूर्व व पश्चिम पुष्करार्ध में सब मिल अड़सठ हैं।
ये इक सौ सत्तर कर्मभूमि, इनमें तीर्थंकर विहरत हैं।।४९।।
-दोहा-
इक सौ सत्तर तीर्थकर, समवसरण अभिराम।
नमूँ यहीं मैं भक्ति से, मिले स्वात्म विश्राम।।५०।।
इक सौ सत्तर कर्मभू, त्रैकालिक तीर्थेश।
कहे अनंतानंत ही, नमत मिटे भवक्लेश।।५१।।
समवसरण तीर्थेश के, जिनमंदिर सत्यार्थ।
नमूँ नमूँ मैं भक्ति से, सिद्ध करें सर्वार्थ।।५२।।
समवसरण नमते मिले, सर्व सिद्धि नवनिद्धि।
मन वच तन से वंदते, सर्व मनोरथ सिद्ध।।५३।।
जो तीर्थंकर को नमें, समवसरण वंदत।
सकल ‘ज्ञानमति’ संपदा, वे पा लेत तुरंत।।५४।