(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से एक सैद्धान्तिक वार्ता) चन्दनामती पूज्य माताजी! वंदामि, मैं आपसे ढाईद्वीप की कर्मभूमियों के संबंध में कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी- पूछो, जो भी पूछना है।
चन्दनामती- मैंने तो अभी तक मुख्यरूप से १५ कर्मभूमियों के बारे में पढ़ा है किन्तु आप कहती हैं कि मध्यलोक में कुल १७० कर्मभूमियाँ हैं। सो कहाँ-कहाँ हैं? कृपया बताने का कष्ट करें।
श्री ज्ञानमती माताजी- कर्मभूमि के विषय को जानने हेतु सर्वप्रथम तो १५ कर्मभूमियों की व्यवस्था ही जाननी होगी जैसा कि श्री गौतम स्वामी ने भी कहा है- ‘‘अड्ढाइज्जदीव दोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु’’इत्यादि ढाईद्वीप में निम्न प्रकार से १५ कर्मभूमियाँ पाई जाती हैं
१. जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में १ कर्मभूमि, ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में १ कर्म भूमि, विदेह क्षेत्र की १, इस प्रकार जम्बूद्वीप संबंधी अथवा एक सुदर्शन मेरु संबंधी ३ कर्मभूमियाँ हुर्इं। २. धातकीखण्ड द्वीप में इष्वाकार पर्वत होने से उसके पूर्वधातकी और पश्चिम धातकी के भेद से दो भाग हो गए। जिनमें पूर्वधातकी खण्ड में विजयमेरु और पश्चिम में अचल मेरु पर्वत हैं। जम्बूद्वीप के समान ही दोनों धातकी खण्डों में ३-३ कर्मभूमि होने से दो मेरु संबंधी ६ कर्म भूमियाँ हुर्इं। ३. पुष्कर नाम के तृतीय द्वीप के बीच में वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जो मनुष्यों की गमन सीमा का द्योतक है। उससे आगे कोई विद्याधर, मनुष्य नहीं जा सकते, मात्र इन्द्र और देवतागण ही जाते हैं। अत: इस द्वीप का नाम पुष्करार्ध द्वीप पड़ गया है। इस पुष्करार्ध द्वीप में भी इष्वाकार पर्वत पड़ने से पूर्व पुष्करार्ध और पश्चिम पुष्करार्ध ये दो भेद हो जाते हैं। यहाँ पूर्व में मंदरमेरु है और पश्चिम में विद्युन्माली मेरु हैं। इन दोनों मेरु संबंधी भी ३-३ कर्मभूमियाँ होने से ६ हो गर्इं। इस प्रकार ढ़ाई द्वीप में ३±३±३±३±३·कुल १५ कर्मभूमियाँ भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र संबंधी होती हैं।
चन्दनामती- ये १५ कर्मभूमियाँ तो अच्छी तरह से लोग समझ लेते हैं किन्तु आगे जो सप्ततिशतक्षेत्रभवा इत्यादि शब्द आया है सो १७० का क्रम किस प्रकार है?
श्री ज्ञानमती माताजी- सुनो! उनका क्रम भी बतलाती हूँ- पाँचो मेरु संबंधी ५ भरत क्षेत्र और ५ ऐरावत क्षेत्रों की तो १-१ ही कर्मभूमि हैं अत: ये १० निश्चित हैं इसके पश्चात् १६० की संख्या देखो-प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप में जो महाविदेह क्षेत्र है उसके बीचोंबीच में सुदर्शनमेरु पर्वत होने से विदेह के पूर्व और पश्चिम ये दो भाग हो गये। पुन: पूर्वविदेह के बीच में सीता नदी और पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी होने से दोनों के उत्तर और दक्षिण ये २-२ भेद हो जाते हैं। उत्तर दिशा में जो विदेह है उसमें भद्रशाल वन की वेदिका-दीवाल के बाद विदेह क्षेत्रों की संख्या प्रारंभ होती है। बीच-बीच में ४ वक्षार पर्वत व ३ विभंगा नदियों के अन्तराल में व आगे देवारण्य की वेदिका ऐेसे पूर्व विदेह के उत्तर दिशा संबंधी ८ विदेह क्षेत्र और दक्षिण दिशा संबंधी भी इसी प्रकार ८ विदेह क्षेत्र होते हैं। ये तो हुए पूर्वदिशा के १६ विदेह क्षेत्र, इसी तरह से पश्चिम दिशा में भी सीतोदा नदी के कारण उत्तर-दक्षिण दो भेद हुए उनमें भी ४-४ वक्षार और ३-३ विभंगा नदियों के अन्तराल से ८ विदेह क्षेत्र हो गये इस प्रकार जम्बूद्वीप के ३२ विदेह क्षेत्र हैं। प्रत्येक विदेह क्षेत्र में भरत-ऐरावत क्षेत्र के समान ६-६ खण्ड हैं उनमें आर्यखण्डों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। अत: ३२±२·३४ कर्मभूमियाँ जम्बूद्वीप में मानी हैं।
चन्दनामती- इन ३२ विदेहक्षेत्रों के, १६ वक्षार पर्वतों तथा विभंगा नदियों के नाम भी कहीं शास्त्रों में मिलते हैं क्या?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के आधार से मैं इनके नाम बता रही हूँ|
सबसे पहले बत्तीस विदेहों के नाम सुनो
# कच्छा विदेह # सुकच्छा # महाकच्छा # कच्छकावती # आवर्ता # लांगलावर्ता # पुष्कला # पुष्कलावती # वत्सा # सुवत्सा # महावत्सा # वत्सकावती # रम्या # सुरम्यका # रमणीया # मंगलावती # पद्मा # सुपद्मा # महापद्मा # पद्मकावती # शंखा # नलिना # कुमुदा # सरित # वप्रा # सुवप्रा # महावप्रा # वप्रकावती # गंधा # सुगंधा # गंधिला # गंधमालिनी। इन बत्तीस विदेह क्षेत्रों में शाश्वत कर्मभूमि होती है।
सोलह वक्षार पर्वतों के नाम
# चित्रकुट वक्षार # नलिनकुट # पद्मकुट # एकशैल # त्रिवूकुट # वैश्रवण # अंजनशैल # आत्मांजन # श्रद्धावान् # विजटावान् # आशीविष # सुखावह # चन्द्रमाल # सूर्यमाल # नागमाल # देवमाल।
१२ विभंगानदियों के नाम
# दृहवती विभंगा # ग्राहवती # पंकवती # तप्तजला # मत्तजला # उन्मत्तजला # क्षीरोदा # सीतोदा # औषधवाहिनी # गभीरमालिनी # पेनमालिनी # ऊर्मिमालिनी।
चन्दनामती- विदेह क्षेत्रों की ३२ और भरत ऐरावत की १-१, इस प्रकार ३४ कर्मभूमियाँ जम्बूद्वीप में हो गर्इं इसके अतिरिक्त १३६ कर्मभूमियाँ कहाँ-कहाँ हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- अब आगे की भी व्यवस्था सुनो- जैसा कि मैंने पूर्व में भी बताया है कि धातकी खण्ड और पुष्करार्धद्वीप में इष्वाकार पर्वत होने से उनके दो-दो भेद हो गए हैं। अत: जम्बूद्वीप की अपेक्षा उन दोनों द्वीपों में दूनी-दूनी व्यवस्था है अर्थात् पूर्व धातकी खण्ड में ३४ कर्मभूमि, पश्चिमधातकी खण्ड में ३४ कर्मभूमि, पूर्वपुष्करार्धद्वीप में ३४ कर्मभूमि तथा पश्चिमपुष्करार्ध में ३४ कर्मभूमियाँ हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर ढाईद्वीप में ३४±३४±३४±३४± ३४·१७० कर्मभूमियाँ हैं। इन प्रत्येक कर्मभूमियों में तीर्थंकरों के जन्म होते हैं यदि मध्यलोक मे एक साथ इन सभी कर्मभूमियों में तीर्थंकर जन्म लेवें तो अधिक से अधिक १७० तीर्थंकर एक समय में हो सकते हैं। यहाँ यह ध्यान देना आवश्यक है कि जब सभी भरत और ऐरावत क्षेत्रों में चतुर्थकाल का वर्तन होगा तभी १७० तीर्थंकरों का होना संभव है अन्यथा नहीं।
चन्दनामती- क्या? इसीलिए हस्तिनापुर की तेरहद्वीप रचना में आपने १७० समवसरण बनवाएं हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, चूँकि तेरहद्वीपों में ढाईद्वीप की रचना तो पूरी बन ही रही है इसलिए मैंने इस रचना में १७० तीर्थंकरों के १७० समवसरण भी यथास्थान बनाने की प्रेरणा दी है।
चन्दनामती- पूज्य माताजी! क्या ढाई द्वीपों से आगे कोई भी कर्मभूमि नहीं है?
श्री ज्ञानमती माताजी-नहीं, ढाईद्वीप से आगे कोई कर्मभूमि नहीं है। क्योंकि आगे असंख्यात द्वीप समुद्रों में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है।
चन्दनामती- समयोचित प्रश्नों के आधार पर आपसे बहुत सुन्दर समाधान प्राप्त हुआ। आपके श्रीचरणों में बारम्बार वंदामि। आशा है हमारे पाठकों को इस विषय से करणानुयोग का सहज में ज्ञानलाभ प्राप्त होगा।