चन्दनामती – पूज्य माताजी! इस ज्ञानवार्ता में मैं आपसे तेरहद्वीपों के अंदर होने वाली भोगभूमियों के बारे में कुछ प्रश्न करना चाहती हूँ।
श्री ज्ञानमती माताजी – पूछो, भोगभूमि के बारे में तुम्हारे क्या प्रश्न हैं?
चन्दनामती – सबसे पहले यह बतलाने की कृपा करें कि भोगभूमि किसे कहते हैं एवं वहाँ कैसे व्यवस्था रहती है?
श्री ज्ञानमती माताजी – भोगभूमि शब्द से ही उसका अर्थ प्रतिभाषित हो रहा है कि जिस भूमि पर भोगों की प्रधानता होती है उसे भोगभूमि कहते हैं। वहाँ पूर्णतया समाजवाद होता है। कोई गरीब-अमीर न होकर एक सदृश सुख सम्पन्न होते हैं क्योंकि वहाँ तो कल्पवृक्षों के द्वारा वे लोग भोग्य सामग्री प्राप्त करते हैं, उन्हें किसी प्रकार का परिश्रम नहीं करना पड़ता है।
चन्दनामती- ये भोगभूमियाँ कहाँ-कहाँ हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी –मध्यलोक के ढाईद्वीपों में ३० भोगभूमियाँ हैं। उनका विस्तार मैं बतलाती हूँ कि किन-किन क्षेत्रों में भोगभूमि है-
१.जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र हैं
भरत , हैमवत , हरि , विदेह , रम्यक् , हैरण्यवत , ऐरावत। इनमें से हैमवत, हरि, रम्यक् हैरण्यवत, देवकुरु, उत्तरकुरु ये ६ भोगभूमियाँ हैं। इसी प्रकार पूर्व धातकीखण्ड में ६, पश्चिम धातीखण्ड में ६, पूर्व पुष्करार्धद्वीप में ६ एवं पश्चिम पुष्करार्ध में ६ अत: कुल मिलाकर ६²५•३० भोगभूमि की संख्या है तथा इन ढाई द्वीपों में भरत, ऐरावत क्षेत्रों में षट्काल परिवर्तन के अंतर्गत भोगभूमि एवं कर्मभूमि दोनों प्रकार की व्यवस्थाएं चल रही हैं और विदेहक्षेत्रों में शाश्वत कर्मभूमि ही रहती है।
चन्दनामती – इन भोगभूमियों में कितने प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – दश प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं- पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग। पानांग जाति के कल्पवृक्ष मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त पुष्टिकारक बत्तीस प्रकार के पीने वाले पेय पदार्थ होते हैं। तूर्यांग जाति के कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, मृदंग, पटह आदि बजाने वाले वादित्रों को देते है। भूषणांग कल्पवृक्ष वंकण, कटिसूत्र, हार आदि सौंदर्य को वृद्धिंगत करने वाले आभूषण प्रदान करते हैं। वस्त्रांग कल्पवृक्ष चीनपट्ट, कौशेयादि सूती, रेशमी सभी तरह के वस्त्र देते हैं। भोजनांग कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ त्रेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं त्रेसठ प्रकार के रसों को दिया करते हैं। आलयांग कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के दिव्य भवनों को मनुष्यों के रहने हेतु प्रदान करते हैं। दीपांग कल्पवृक्ष शाखा, प्रवास, फल, फूल और अंकुरों के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश को देते हैं। भाजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण आदि निर्मित झारी, कलश, गागर आदि बर्तन प्रदान करते हैं। मालांग जाति के कल्पवृक्ष बेल, तरु, गुच्छे और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को देते हैं। ज्योतिरंग कल्पवृक्ष करोड़ों सूर्यों के किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की रोशनी प्रदान करते हैं।
चन्दनामती – इन भोगभूमियों में केवल मनुष्य ही रहते हैं या तिर्यंच भी हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – तिर्यंच जीव भी रहते हैं, वे भी युगल रूप में वहाँ उत्पन्न होते हैं। किन्तु वहाँ परस्पर में वैरभाव नहीं होता, सभी तिर्यंच प्राणी शाकाहारी होते हैं मात्र हरी घास को खाकर ही वे उदरपूर्ति करते हैं।
चन्दनामती – सभी भोगभूमियाँ एक सदृश हैं अथवा इनमें कुछ उत्कृष्टता, मन्दता की अपेक्षा भेदभाव भी हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा इनमें भेद भी है। सो मैं बताती हूँ- सभी द्वीपों के देवकुरु एवं उत्तरकुरु क्षेत्रों में उत्तम भोगभूमि है। यहाँ उत्पन्न होने वाले मनुष्य चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। उनकी आयु ३ पल्य प्रमाण होती है, शरीर की ऊँचाई ३ कोस होती है। इसी प्रकार हरि और रम्यक् क्षेत्रो में मध्यम भोगभूमि होती है। यहाँ के लोग तीसरे दिन बहेड़ा बराबर भोजन ग्रहण करते हैं। उनकी आयु २ पल्य की एवं शरीर की ऊँचाई २ कोस होती है। हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्रों में जघन्य भोगभूमि होती है। यहाँ के मनुष्य एक दिन के अंतराल से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करते हैं। उनकी आयु एक पल्य एवं शरीर की ऊँचाई एक कोस होती है। इन तीनों प्रकार की भोगभूमियों में दशों प्रकार के कल्पवृक्ष होत हैं, उपर्युक्त थोड़े से अंतर होते हैं, किन्तु सभी जगह चोर, शत्रु आदि की बाधाएं, असि, मषि आदि छह कर्म, सर्दी-गर्मी, प्रचण्ड वायु एवं वर्षा आदि नहीं होती है। इन भोगभूमियों में अकालमरण भी नहीं होता वे लोग अपनी पूर्ण आयु को भोगकर ही शरीर छोड़ते हैं।
चन्दनामती – पूज्य माताजी! मेरा एक प्रश्न और है किन कर्मों के उदय से जीव इन भोगभूमियों में जन्म लेते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – सत्पात्र-दिगम्बर साधुओं को आहारदान देने वाले या अनुमोदना करने वाले उपवास आदि से शरीर को कृश करने वाले, मधु-मांसादि का त्याग करने वाले यदि मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हैं तो वे मिथ्यात्व मिश्रित पुण्य के प्रभाव से भोगभूमियों में जन्म धारण करते हैं। अथवा जिन्होंने पूर्वभव में मनुष्य आयु को बांध लिया है और उसके पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है ऐसे कितने ही बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। कोई अज्ञानी जिनलिंग को ग्रहण करके छोड़ देते हैं, मायाचार में प्रवृत्त होकर कुलिंगियों को अनेक प्रकार के दान देते हैं वे भोगभूमि की तिर्यंच पर्याय में उत्पन्न होते हैं।
चन्दनामती – शायद कहीं ऐसा भी है कि वहाँ जन्म लेने वाले बालक-बालिका के जन्म लेते ही उनके माता-पिता मर जाते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – हाँ ऐसा ही नियम है कि भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यंचों की नव मास आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और पति-पत्नी दोनों की मृत्यु का समय निकट आने पर युगल बालक-बालिका का जन्म होता है अर्थात् संतान के जन्म लेते ही माता-पिता मरण को प्राप्त हो जाते हैं। पुरुष को छींक और स्त्री कों जंभाई आते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और उनके शरीर शरत्कालीन मेघ के सदृश तत्क्षण विलीन हो जाते हैं।
चन्दनामती – फिर उन बच्चों को संभालता कौन है? वे बड़े कैसे होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – यह प्रश्न होना तो स्वाभाविक ही है किन्तु वहाँ की तो व्यवस्था ही कुछ और है। भोगभूमि में उत्पन्न होने वाले वे बाल युगल शय्या पर सोकर अंगूठा चूसते हुए तीन दिन निकाल देते हैं पश्चात् बैठना, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कला गुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शन की योग्यता, इनमें से क्रमश: प्रत्येक अवस्था में तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं अर्थात् इक्कीस दिन में ये युगल सात प्रकार की योग्यता को प्राप्त करके पूर्ण यौवन सहित सर्वकलाओं में कुशल हो जाते हैं। यह तो उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था मैंने बताई है। इसी प्रकार मध्यम भोगभूमियों में ५-५ दिनों में सातों कार्य होते हैं अत: ३५ दिनों में वहाँ के युगल पूर्ण यौवन अवस्था प्राप्त कर लेते हैं तथा जघन्य भोगभूमि में ७-७ दिनों में ७ अवस्थाएं सम्पन्न होती हैं अत: ४९ दिनों में वहाँ के युगल सभी प्रकार की योग्यताएं प्राप्त कर लेते हैं।
चन्दनामती – आपने ३० भोगभूमियों के बारे में तो बतलाया ही है अब मैं यह जानना चाहती हूँ कि कुभोगभूमि किसे कहते हैं तथा वे कहाँ-कहाँ होती हैं?
श्री ज्ञानमती माता – जीकरणानुयोग संबंधी ग्रंथों में जैसे-तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, सिद्धांतसार दीपक आदि ग्रंथों में इन विषयों का अच्छा खुलासा है। जहाँ पर पशुओं की मुखाकृति वाले मनुष्य जन्म लेते हैं उन्हें कुभोग भूमि कहते हैं। वे कुभोगभूमियाँ कहाँ-कहाँ पाई जाती हैं सो सुनो- लवणसमुद्र में अड़तालिस कुभोगभूमियाँ हैं जिनमें कुमानुष निवास करते हैं। इनमें से २४ द्वीप तो लवण समुद्र के अभ्यन्तर भाग में हैं और २४ द्वीप बाह्य भाग में हैं अर्थात् लवणसमुद्र की चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में चार, अन्तरदिशाओं में आठ, हिमवन आदि छह कुलाचल और विजयार्ध पर्वत के दो ये आठ इस प्रकार २४ द्वीप हैं। इसी प्रकार बाह्यभाग में २४ हैं अत: लवण समुद्र संबंधी ४८ द्वीपो में कुभोगभूमि की व्यवस्था है। ऐसे ही ४८ कुभोगभूमियाँ कालोदधि समुद्र के अन्तर्गत हैं।
चन्दनामती – वहाँ पैदा होने वाले मनुष्य किस प्रकार के होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – कुभोगभूमि में मनुष्य युगलिया (स्त्री-पुरुष) के रूप में ही उत्पन्न होते हैं और ४९ दिन में पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में वर्णन आया है कि ये सभी द्वीप वनखंड व तालाबों से रमणीय, फल-पूलों के भार से संयुक्त, मधुररस एवं जल से परिपूर्ण हैं तथा वहाँ पैदा होने वाले कुमानुषों की शारीरिक बनावट निम्न प्रकार है- पूर्वादिक दिशाओ में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से एक जंघा वाले, पूछ वाले, सींग वाले और अभाषक अर्थात् गूंगे होते हुए इन्हीं नामों से युक्त होते हैं। आग्नेय, वायव्य, नैऋत्य और ईशान इन विदिशाओं में स्थित चार द्वीपों के कुमानुष क्रम से शष्कुलीकर्ण-पूड़ी के समान कान वाले, कर्ण प्रावरण-रजाई के समान ओढ़े जाने वाले कान वाले, लम्ब कर्ण-लम्बे कान वाले और शशकर्ण-खरगोश के समान कान वाले होते हैं। शष्कुलीकर्ण और एकोरुक आदिकों के बीच में अर्थात् अन्तरदिशाओं में स्थित आठ द्वीपों के वे कुमानुष क्रम से सिंह, अश्व, श्वान-कुत्ता, महिष-भैंसा, वराह-शूकर, शार्दूल-सियार, धूक-उल्लू और बंदर के समान मुख वाले होते हैं। हिमवान पर्वत के समीपवर्ती पूर्व पश्चिम दिशाओं में क्रम से मत्स्यमुख व कालमुख तथा दक्षिण विजयार्ध के समीपवर्ती द्वीपों में मेषमुख व गोमुख वाले कुमानुष होते हैं। शिखरी पर्वत के पूर्व-पश्चिम भाग में क्रम से मेघमुख व विद्युन्मुख तथा उत्तर विजयार्ध के प्रणिधि भाग में आदर्शमुख व हस्तिमुख वाले कुमानुष होते हैं। ठीक इसी प्रकार की व्यवस्था कालोदधि समुद्र के अन्तर्गत कुभोग भूमियों में भी है।
चन्दनामती – वहाँ के मनुष्य खाते-पीते क्या हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इन कुभोग भूमियों में कल्पवृक्ष नहीं होते हैं। सभी कुमानुषों में जो एक जांघ वाले कुमानुष हैं वे गुफाओं में रहते हैं और मीठी मिट्टी खाते हैं। शेष सभी जगह के कुमानुष वृक्षों के नीचे रहकर फल-फूलों से जीवन व्यतीत करते हैं।
चन्दनामती – इसका मतलब तो यह रहा कि वहाँ के मनुष्य नाम मात्र से ही मनुष्य हैं किन्तु उनका जीवन तो पशुओं के समान ही व्यतीत होता है।
श्री ज्ञानमती माताजी – यह तो कर्मों का खेल है जो कुभोगभूमियों में जन्म लेते हैं उन्हें तो वहाँ की व्यवस्था के अनुसार ही जीना पड़ता है।
चन्दनामती – पूज्य माताजी? ऐसे कौन से कर्म हैं जिनके निमित्त से कुभोगभूमि में जन्म लेना पड़ता है?
श्री ज्ञानमती माताजी – तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के श्लोक नं. २५०० से २५११ तक इस प्रकरण का खुलासा है कि जो सदैव मिथ्यात्व में रत रहते हैं, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर रहते हैं, जो विषम पंचाग्नितप व कायक्लेश को करने वाले होते हैं और जो सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जल में डूबते हुए प्राणी लवण समुद्र के द्वीपो में कुमानुष उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का कचित् भी अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधुओं की निंदा करते हैं, जो पापी संयम तप व प्रतिमायोग से रहित होकर मायासार में रत रहते हैं, जो ऋद्धि रस और सात इन तीन गारवों से महान होते हुए मोह को प्राप्त हैं, जो अपने दोषों की गुरुजनों के पास आलोचना नहीं करते हैं, जो गुरु के साथ स्वाध्याय व वंदनाकर्म नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि संघ को छोड़कर एकाकी रहते हैं, जो सबके साथ कलह करते हैं, जो जिनलिंग को धारण कर घोर पाप करते हैं, जो अरहंत तथा साधुओं की भक्ति नहीं करते हैं, इत्यादि प्रकार से जो पाप क्रियाओं में रत रहते हैं वे इन द्वीपों में कुत्सित रूपों से युक्त कुमानुष उत्पन्न होते हैं।
चन्दनामती –उन कुमानुषों के शरीर की ऊँचाई और वर्ण कैसे होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – वे सब कुमानुष दो हजार धनुष ऊंचे, मन्दकषायी, प्रियंगु के समान श्यामल वर्ण वाले और एक पल्य प्रमाण आयु से युक्त होकर कुभोगभूमि में स्थिर रहते हैं।
चन्दनामती- क्या कहीं ऐसा भी वर्णन है कि वे कुमानुष मरकर कहाँ जन्म लेते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – हाँ, तिलोयपण्णत्ति के २५१४ नं. श्लोक में आया है-
अर्थ-पश्चात् वे उस भूमि के योग्य भोगों को भोगर आयु के अंत में मरण को प्राप्त हो भवनत्रिक देवों में उत्पन्न होते हैं। इन कुभोगभूमियों में जो मनुष्य या तिर्यंच सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं वे सौधर्म युगल में उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दर्शन की संसार में अपूर्व महिमा है इसे प्राप्त करने वाले प्राणी कुभोग भूमियों में जन्म नहीं लेते हैं।
चन्दनामती – आज आपसे काफी ज्ञान की बातें हुई हैं। आपके श्रीचरणों में वंदामि करते हुए आज की लेखनी को विराम देती हूँ।