णमो लोए सव्वसाहूणं लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो।
इस मन्त्र में अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है।
णमोकार मंत्र का माहात्म्य
(श्री उमास्वामि आचार्यविरचित)
हिन्दी पद्यानुवाद-आर्यिका चन्दनामती
विष्लिष्यन् घनकर्मराशिमशनि: संसारभूमीभृत:।
स्वर्निर्वाणपुरप्रवेशगमने, नि:प्रत्यवाय: सतां।।
मोहांधावटसंकटे निपततां, हस्तावलम्बोर्हतां।
पायान्न: स चराचरस्य जगत: संजीवनं मन्त्रराट्।।१।।
(१)
णमोकार यह मंत्रराज, घनकर्म समूह हटाता है।
यह संसार महापर्वत, भेदन में वङ्का कहाता है।।
सत्पुरुषों को स्वर्ग मोक्ष दे, संकट दूर भगाता है।
मोह महान्धकूप में डूबे, को अवलम्बन दाता है।।
दोहा-
जीवनदाता मंत्र यह, करे जगत उद्धार।
मेरी भी रक्षा करो, णमोकार सुखकार।।
अर्थ-
अर्हन्त आदि पंचपरमेष्ठियों का वाचक णमोकार मंत्रराज ज्ञानावरण आदि कर्म समूह को आत्मा से हटाने वाला है, अतएव संसाररूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वङ्का के समान है। सत्पुरुषोेंं को स्वर्ग-मोक्ष जाने में सहायक है, मोहरूपी अंधकूप में गिरे हुए प्राणियों को उससे बाहर निकालने के लिए हस्तावलम्बन (हाथ के सहारे) के समान है, चर (त्रस) और अचर (पृथ्वी, वनस्पति आदि स्थावर) जगत को जीवन दाता है, ऐसा यह णमोकार महामंत्र हमारी रक्षा करे।
एकत्र पंचगुरुमंत्रपदाक्षराणि, विश्वत्रयं-पुनरनन्तगुणं परत्र।
यो धारयेत्किल तुलानुगतं तथापि, वंदे महागुरुतरं परमेष्ठिमन्त्रं।।२।।
(२)
एक तराजू के पलड़े पर, णमोकारपद मंत्र रखो।
लोकत्रय के गुण अनन्त, पुंजों को भी इक ओर रखो।।
परमेष्ठी के मंत्रों का, फिर भी पलड़ा भारी होगा।
गौरवशाली महामंत्र को, नमन करूँ शिवसुख देगा।।
दोहा-
णमोकार यह मंत्र है, जग में गुरुतर मंत्र।
नमूँ इसे सर्वत्र मैं, पाउँâ सौख्य स्वतंत्र।।
अर्थ-
यदि कोई व्यक्ति तराजू में एक ओर पंचपरमेष्ठी के णमोकार मंत्र के पद-अक्षरों को और दूसरी ओर अनंत गुणात्मक तीन लोकों को रखकर तुलना करे, तो भी वह णमोकार मंत्र को अधिक वजनदान (भारी) अनुभव करेगा, उस महान गौरवशाली णमोकार मंत्र को मैं नमस्कार करता हूँ।
ये केचनापि सुषमाद्यरका अनंता, उत्सर्पिणीप्रभृतय: प्रययुर्विवर्त्ता:।
तेष्वप्ययं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वैनमेव हि गता: शिवमत्र लोका:।।३।।
(३)
उत्सर्पिणि अवसर्पिणी के, सुषमादिक काल अनन्त रहे।
णमोकार यह महामंत्र ही, हुआ प्रसिद्ध सदा उनमें।।
काल अनादी से अनन्त तक, मंत्रराज यह शाश्वत है।
भव से पार मुक्ति हेतू, वंदन कर लूँ भव सार्थक है।।
दोहा-
अपराजित यह मंत्र है, पंचपदों से युक्त।
अंजन तस्कर हो गया, इसके बल पर मुक्त।।
अर्थ-उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि काल के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्त युग पहले व्यतीत हो चुके हैं, उनमें भी यह णमोकार मंत्र सबसे अधिक महत्त्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बहिर्भूत (बाहर) मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस णमोकार मंत्र को नमस्कार करता हूँ।
उत्तिष्ठन्निपतञ्चलन्नपि धरा-पीठे लुठन् वा स्मरेत्-
जो व्यक्ति उठते हुए, गिरते हुए, चलते हुए, पृथ्वी तल पर लोटते-लुढ़कते हुए, जागते हुए, सोते हुए, हंसते हुए, वन में डरते हुए, बैठते, मार्ग में चलते, घर में रहते व कोई कार्य करते हुए पग-पग पर सदा णमोकार मंत्र का स्मरण करता है, उसकी सभी इच्छा पूर्ण होती हैं।
युद्धक्षेत्र में या समुद्र में, मृत्यु सामने दिखती हो।
हाथी-सर्प-सिंह-दुर्व्याधि, तन में या अग्नी भी हो।।
शत्रु तथा बंधन एवं, चौरादि दुष्ट ग्रह दुख देते।
शाकिनि डाकिनि आदिकभय, परमेष्ठि पाँच सब हर लेते।।
दोहा-
इसी मंत्र के श्रवण से, श्वान हुआ यक्षेन्द्र।
पठन श्रवण और नमन से, निज मन करो पवित्र।।
अर्थ-
णमोकार मंत्र जपने से युद्ध, समुद्र, गजराज (हाथी) सर्प, सिंह, भयानक रोग, अग्नि, शत्रु, बंधन (जेल आदि) के तथा चोर, दुष्टग्रह, राक्षस चुड़ैल आदि का भय दूर हो जाता है।
जो श्रद्धालु जितेन्द्रिय श्रावक मन में प्रभु सुमिरन करके।
शुद्ध शब्द उच्चारणपूर्वक णमोकार का जप करते।।
एक लक्ष मंत्रों को जपकर पुष्प सफेद चढ़ाते हैं।
णमोकार पूजन से वे तीर्थाधिनाथ बन जाते हैं।।
दोहा-
श्वेत सुगंधित पुष्प ले, पूजूँ मंत्र महान।
जगत्पूज्य पद प्राप्त कर, बन जाऊँ भगवान।।
अर्थ-
जो जितेन्द्रिय श्रद्धालु श्रावक हृदय में जिनेन्द्र भगवान का लक्ष्य रखकर स्पष्ट शुद्ध उच्च्ाारण सहित णमोकार मंत्र को एक लाख बार जपता है तथा विधिपूर्वक एक लाख सुगंधित सफेद फूलों से णमोकार मंत्र को पूजता है। अर्थात् णमोकार मंत्र शुद्ध स्पष्ट पढ़कर सुगंधित सफेद फूल चढ़ाता जाता है, वह जगत्पूज्य तीर्थंकर पद प्राप्त करता है।
किं जल्पितेन बहुना भुवनत्रयेपि, यन्नाम तन्न विषमं च समं च तस्मात्।।७।।
(७)
णमोकार के मंत्र नाम से, चन्द्र सूर्य सम बन सकता।
शशि सम सूरज बने तथा, पाताल भी नभ सम बन सकता।।
धरती स्वर्ग समान सुखद बन, इच्छित फल दे सकती है।
और कहें क्या ? तीन लोक की, हर वस्तू मिल सकती है।।
दोहा-
सुखदायक इस मंत्र से, मिलते सभी पदार्थ।
दुख भी सुख में बदलते, प्राणी होंय कृतार्थ।।
अर्थ-
णमोकार मंत्र के प्रभाव से चन्द्रमा सूर्य के समान, सूर्य चन्द्रमा की तरह, पाताल आकाश के समान और पृथ्वी स्वर्ग के समान हो जाती है। बहुत क्या कहें ? तीन लोक में ऐसी कोई भी विषम (दुखदायक-अनिष्ट) वस्तु नहीं है जो णमोकार मंत्र के प्रभाव से सम (सुखदायक-इष्ट) न हो सके। अर्थात् सभी अनिष्ट वस्तुएँ णमोकार मंत्र के प्रभाव से इष्टरूप परिवर्तित हो सकती हैं।
जग्मुर्जिनास्तदपवर्गपदं तदैव, विश्वं वराकमिदमत्र कथं विनास्मान्।
धीर वीर जिनवर ने तब ही, शीघ्र मुक्ति पद प्राप्त किया।
जब निज तन को मंत्ररूप कर, आत्म तत्त्व में रमा लिया।।
त्रिभुवन के उद्धार हेतु जो, परमेष्ठी का ध्यान करें।
वे ही जग में क्रम-क्रम से, परमेष्ठी बन विश्राम करें।।
दोहा-
पद प्राप्ति का, यही मूल आधार।
णमोकार का ध्यान ही, करता भव से पार।।
अर्थ-कषाय विजेता योगी तब ही मुक्ति पद प्राप्त कर सके, जबकि उन धीर वीरों ने समस्त जगत का उद्धार करने के लिए अपना शरीर मंत्ररूप कर लिया। इसके बिना बेचारा संसार (संसारी जीव समूह) किस तरह कल्याण प्राप्त करता। यानी साधु आदि परमेष्ठी णमोकार मंत्र के ध्यान से मुक्त होते हैं तथा उनका पाँच परमेष्ठीरूप होना इस णमोकार मंत्र का मूल आधार है।
हिंसावाननृतप्रिय: परधनं हर्त्ता परस्त्रीरत:।
किंचान्येष्वपि लोकगर्हितमति: पापेषु गाढोद्यत:।।
मन्त्रेशं सपदि स्मरेच्च सततं, प्राणात्यये सर्वदा।
दु:कर्माहितदुर्गतिक्षतचय: स्वर्गी भवेन्मानव:।।९।।
(९)
जो नर िंहसा झूठ व चोरी, तथा परस्त्री में रत है।
लोक निंद्य होकर महान, पापों में रहता तत्पर है।।
वह भी उन्हें तज यदी कदाचित्, मंत्रराज सुमिरन कर ले।
तो कुकर्म से अर्जित दुर्गति, बंध बदल दिवगति वर ले।।
दोहा-
मंत्रेश यह, कुगति निवारक जान।
सुगति प्रदाता है इसे, शत शत करो प्रणाम।।
अर्थ-
जो मनुष्य हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, परस्त्री सेवन करने वाला हो तथा लोकनिन्दित होकर अन्य महान पाप कर्मों में तत्पर रहता हो, वह भी यदि (पापों को छोड़कर) निरन्तर-सदा णमोकार मंत्र का स्मरण करता रहे, तो कुकर्मों से उपार्जित अपनी नरक आदि दुर्गति को बदल कर मरने पर देवगति प्राप्त करता है।
अयं धर्म: श्रेयान्नयमपि च देवो जिनपति-
र्व्रतं चैष श्रीमान्नयमपि तप: सर्वफलदं।
किमन्यैर्वाग्जालैर्बहुभिरपि संसारजलधौ,
नमस्कारात्तिंत्क यदिह शुभरूपो न भवति।।१०।।
(१०)
नमस्कार यह मंत्र जगत में, सर्व हितैषी धर्म कहा।
यही मंत्र जिनरूप व व्रतमय फलदायक शिवशर्म कहा।।
अधिक कथन से क्या मतलब है, केवल सार समझ लीजे।
इसी मंत्र की महिमा से हर अशुभ कार्य भी शुभ कीजे।।
दोहा-
है अचिन्त्य महिमामयी, णमोकार यह मंत्र।
इसको जपते ही मिलें, भौतिक सौख्य असंख्य।।
अर्थ-
यह पंचनमस्कार मंत्र ही कल्याणकारी धर्म है, यह मंत्र ही जिनेन्द्र भगवानरूप है, यह मंत्र ही समस्त शुभ फलदायक व्रतरूप है। दूसरी बहुत सी बातें करने से क्या लाभ है। संक्षेप में यों समझ लीजिए कि संसार में यह णमोकार मंत्र ऐसा महत्वशाली है, जिसके प्रभाव से ऐसी कोई चीज नहीं, जो शुभरूप न हो सके।
जो मनुष्य सोते, जागते, मार्ग में चलते, घर में लड़खड़ाते, घूमते, खेदखिन्न होते, उन्मत्त होते, वन पर्वत में चलते, समुद्र में तैरते हुए, यानी प्रत्येक दशा में पंच नमस्कार मंत्र को अपने हृदय पटल पर (स्मृति में) पाषाण प्रशस्ति में उत्कीर्ण (खुदे हुए) अक्षरों के समान धारण किए रहता है, वह पुण्यवान है।
दु:खे सुखे भयस्थाने, पथि दुर्गे रणेपि वा।
श्रीपंचगुरुमन्त्रस्य, पाठ: कार्य: पदे पदे।।१२।।
(१२)
दोहा-
सुख भयप्रद मार्ग या, वन हो युद्धस्थान।
पंचनमस्कृति मंत्र को, पढ़ो लहो सुखखान।।
णमोकार माहात्म्य यह, उमास्वामिकृत स्तोत्र।
उसका ही अनुवाद यह, पढ़ो लहो सुखस्रोत।।१।।
ज्ञानमती गणिनीप्रमुख, मात जग्ातविख्यात।
उनकी शिष्या चन्दना-मती आर्यिका मात।।२।।
किया पद्य अनुवाद यह, गुरु आज्ञा सिर धार।
भौतिक आत्मिक सुख मिले, पढ़ो मंत्र हितकार।।३।।
अर्थ–
मनुष्य को दुख में, सुख में, भयभीत स्थान में, मार्ग में, वन में युद्ध में पग-पग पर पंचनमस्कार मंत्र का पाठ करना चाहिए।