तत्त्व विचारचार्बाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों को ही चार तत्त्व मानता है इन भूत चतुष्टय से ही आत्मा इन्द्रिय ज्ञान और मन आदि की उत्पत्ति मानता है इसलिए जड़वादी है। बौद्ध कहता है कि आकाश, चित्त संतान की उत्पत्ति तथा चित्तसंतान की उच्छित्ति ये तीन तत्त्व असंस्कृत तथा नित्य है। बाकी सब तत्व संस्कृत, क्षणिक, कर्ता से रहित हैं। (विश्व तत्त्व.पृ. २८५) एवं इनके यहां रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पांच स्कंध माने गये हैं, इन पांच स्कंधों से ही सब कार्य होते हैं। और तो क्या इनके समूह से ही इन्होंने आत्मा की उत्पत्ति मानी है। जब तक इनकी समष्टि रहती है तभी तक मनुष्य का अस्तित्व रहता है। इस संघात के अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है। (भारतीयद. पृ.९०)
सांख्य— सांख्य के यहां पच्चीस तत्त्व हैं — प्रकृति, प्रकृति से महान् (बुद्धि) बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सोलह तत्त्व— पांच ज्ञानेंद्रिय— स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र पांच कर्मेंद्रिय—वायु, उपस्थ, वाणी, हस्त, पाद एवं मन में ग्यारह इन्द्रियां एवं रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ये पाँच तन्मात्राएं ऐसे सोलह गण हैं। इन पांच तन्मात्राओं में पृथ्वी, जल, अग्नि,वायु और आकाश ये पांच महाभूत होते हैं। ऐसे से प्रकृति, महान, अहंकार, सोलह गण, पांच महाभूत मिलकर चौबीस तत्त्व हुये ये अचेतन हैं एवं पुरुष तत्त्व चेतन हैं। ये चेतन—अचेतन मिलकर पच्चीस तत्त्व होते हैं।
नैयायिक—नैयायिक के मत में सोलह पदार्थ या तत्व हैं— प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति एवं निग्रहस्थान ये सोलह तत्त्व हैं। इनके भी भेद प्रभेद अनेक हैं।
वैशेषिक—वैशेषिक मत में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये सात पदार्थ हैं। इनमें से द्रव्य के नव भेद गुण के २४, कर्म के ५ भेद आदि पाये जाते हैं मीमांसक के दो भेद हैं प्रभाकर और भाट्ट। प्राभाकर आठ पदार्थ मानते हैं— द्रव्य, गुण, कर्म , सामान्य, परमन्त्रता, शक्ति, सादृश्य, और संख्या। भाट्टों ने पांच पदार्थ माने हैं— द्य्रव्य, गुण, कर्म सामान्य और अभाव। भाट्ट ग्यारह द्रव्य मानते हैं— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिशा, काल, आत्मा, मन, अंधकार और शब्द।
वेदांती— वेदान्ती लोग ब्रह्मवादी हैं — ये लोग ‘‘सर्व वै खल्विदं ब्रह्म’’ इस कथन से ‘एक ब्रह्ममात्र’ ही तत्त्व मानते हैं, अन्य कुछ भी नहीं मानते । उनका कहना है कि जगत् में जितने भी चेतन—अचेतन पदार्थ हैं वे सब ब्रह्म से ही उत्पन्न हुये हैं इत्यादि।
जैन— जैनाचार्यों ने इन सबकी मान्यता का न्यायदर्शन में निराकरण किया है। देखिये! चार्वाक के द्वारा मान्य भूत चतुष्टय से विजातीय चैतन्य स्वरूप आत्मा की उत्पत्ति असंभव है। बौद्धों द्वारा मान्य भी पांच स्कंधों से चेतन—अचेतन कार्य मानना नितांत गलत है। सांख्य के पच्चीस तत्त्वों में महान् शब्द से बुद्धि को लेकर उसे प्रकृति—अचेतन से उत्पन्न होना कहा है और पुरुष को अकर्ता मानकर एंकात से अकेली जड़ प्रकृति को ही सारे विश्व का कर्ता कहा है यह ठीक नहीं है। नैयायिकके द्वारा मान्य सोलह पदार्थों में संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, छल, हेत्वाभास, जल्प, वितण्डा आदि को पदार्थ में शामिल करना गलत है। वैशेषिक के सात पदार्थों में कर्म समवाय आदि चीजें पदार्थ नहीं हैं। गुण, धर्म, संबन्ध, क्रिया आदि को पदार्थ कहना ठीक नहीं है। मीमांसक ने तो परतन्त्रता, अंधकार, सदृशता आदि को भी पदार्थ कह दिया है। वास्तव में अंधकार आदि पदार्थ न होकर पर्यायें हैं । वेदांती के द्वारा मान्य ‘एक ब्रह्मतत्त्व’ तो असंभव ही है। अत: जैनाचार्यों द्वारा मान्य द्रव्य छह हैं— जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। तत्त्व सात हैं—जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। इन्हीं तत्त्वों में पुण्य पाप मिला देने से नव पदार्थ वन जाते हैं।
आत्मसमीक्षा
चार्वाक— आत्मा का पृथक् रूप से अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं इनका कहना है कि भूत चतुष्टय से आत्मा का जन्म हुआ है। मरने के बाद आत्मा कोई चीज नहीं है अत: परलोक गमन, पुण्य, पाप आदि कार्य ये लोग नहीं मानते है इसीलिये ये ‘नास्तिक’ कहलाते हैं। वास्तव में स्वयं अपनी आत्मा के अस्तित्व को न मानकर उसका घात करना महा मूढ़ता है।
बौद्ध — ‘विज्ञान सकंध चित्त हैं इसी को आत्मा कहते हैं’ (सर्व.द.पृ.३९) विज्ञान क्षणों का नाम आत्मा है। काय चित्त और विज्ञान के समूह को आत्मा कहते हैं। मनुष्य एक समिष्ट का नाम है जिस तरह चक, धुरी, नेमि आदि के समूह को रथ कहते हैं, उसी तरह ब्राह्य रूप युक्त मानसिक अवस्थायें और रूपहीन संज्ञा (विज्ञान) के समूह या संघात को मनुष्य कहते हैं। जब तक इनकी समष्टि कायम रहती है तभी तक मनुष्य का अस्तित्व रहता है। जब यह नष्ट हो जाती है तब मनुष्य का भी अंत हो जाता है। इस संघात के अतिरिक्त आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है। अन्य दृष्टि से मनुष्य पाँच प्रकार के परिवर्तनशील तत्वों का एक संग्रह है। इसे पंच स्कंध कहते हैं उनके नाम हैं रूव वेदना संज्ञा, संस्कार और विज्ञान’ । (भारतीय. ९०) बौद्ध की यह कल्पना भी कल्पित होने से गलत है।
सांख्य— सांख्य आत्मा को चेतन पुरुष मानते हैं एवं कूटस्थ, नित्य, निरतिशय अपरिणामी मानते हैं, कर्मों का कर्ता नहीं मानते किन्तु भोक्ता अवश्य मानते हैं, इनके यहां पुरूष को—अमूर्त, निर्गुण, भोक्ता, नित्य सर्वगत, निष्क्रिय, अकर्ता, सूक्ष्म और चेतन माना है। तथा ज्ञान से रहित माना है एव ज्ञानसहित प्रधान के संसर्ग से ज्ञानी माना है। आत्मा को सर्वथा निष्क्रिय अमूर्त आदि मानना एवं ज्ञानरहित मानना गलत है।
नैयायिक—नैयायिक का कहना है कि आत्मा , सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न तथा ज्ञानादि गुणों का आश्रय होता है, चेतनत्व, कर्तृत्व, सर्वगतत्व आदि धर्मों से आत्मा की प्रतीति होती है। आत्मा के भोग का आयतन शरीर है। भोग के साधन भूत पांच इन्द्रियां हैं। रूप, रस आदि पंचेन्द्रियों के विषय रूप अर्थ हैं। (षड् द. पृ. १०७) इतना सब कुछ मान करके भी नैयायिकों ने आत्मा में द्रव्यत्व के समवाय से आत्मा को द्रव्य माना है एवं ज्ञान के समवाय से ज्ञानी माना है यह समवाय सम्बन्ध की व्यवस्था गलत है क्योंकि समवाय के पहले आत्मा क्या है और ज्ञान कहां है ? यदि दोनों ही पृथक्—पृथक् कभी भी किसी के दृष्टिगोचर होवें तब तो उनका संबंध भी माना जावे। एवं आत्मा को सर्वगत मानना भी असम्भव हैं क्योंकि आत्मा स्वदेह परिमाण ही है।
वैशेषिक— ‘आत्मा जीवोऽनेको नित्योऽमूर्तो विभुद्र्रव्यं च’ (षड् द. पृ. ४०९) आत्मा जीव है अनेक है नित्य अमूर्त और व्याप्क द्रव्य है।
‘ज्ञानाधिकरणमात्मा, स द्विविध:— जीवात्मा परमात्मा चेति’।
जिस द्रव्य में समवाय से ज्ञान रहता है वही आत्मा है क्योंकि , आत्मा में ज्ञान समवाय संबंध से रहता है। आत्मा के दो भेद हैं — जीवात्मा, परमात्मा। परमात्मा ईश्वर सर्वज्ञ एक है। जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न —भिन्न है, व्यापक और नित्य है।(तर्क संग्रह) अर्थात् नैयायिक के समान वैशेषिक ने भी आत्मा में स्वत: ज्ञान गुण नहीं माना है किन्तु समवाय से माना है अत: उसके यहां भी आत्मा ज्ञान शून्य है एवं आत्मा को सर्वथा व्याप्क और नित्य मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है।
मीमांसक
मीमांसक जन जीव का लक्षण पूर्वोक्त मानकर भी समवाय नहीं मानते हैं एवं ‘अग्निहोत्र जुहुयात् स्वर्गकाम:’ इस नियम से ‘ स्वर्ग की इच्छा करने वाला अग्निहोत्र यज्ञ करे’ ऐसे क्रिया काण्ड, यज्ञ अनुष्ठान आदि से आत्मा को स्वर्ग मानते हैं किन्तु जीव का कर्म से रहित होकर शुद्ध होना नहीं मानते हैं ये लोग जीव को हमेशा कलंक कालिमा सहित अशुद्ध ही मानते हैं। अतएव इन्होंने सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध करके अतीन्द्रि पदार्थों का ज्ञान वेद वाक्यों से मान लिया है। इन मीमांसकों में भाट्ट, प्राभाकार और वेदांती ऐसे तीन संप्रदाय हो गए हैं। भाट्ट, प्राभाकर क्रियाकाण्ड को प्रमुख कहते हैं किन्तु वेदांती ‘सारे जगत को एक परमब्रह्म’ रूप ही मानते हैं और चेतन अचेतन को उस ब्रह्म की पर्याय सिद्ध करते हैं। किन्तु यह मान्यता गलत है। आत्मा शुद्ध हो सकती है एवं एक ब्रह्म की पर्याय न होकर प्रत्येक आत्मा निश्चय नय से परम ब्रह्म स्वरूप है। किन्हीं—किन्हीं ने आत्मा को ‘वटकणिका मात्र’ माना है किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आत्मा को बट बीज के समान मानकर सारे शरीर में संचार माना जाए, तब ऐसे मानने वालों को मन के माध्यम से सुख का अनुभव होगा। शरीर के जिस प्रदेश में आशुगति से आत्मा का संचार होगा, उस समय उस प्रदेश में मन का नया—नया सम्बन्ध मानना पड़ेगा। अणु परिमाण ज्ञानाश्रय जीव है।
‘तदणुत्वमपि श्रुतिप्रसिद्धम्।’
‘‘वालाग्रयातभागस्य शतघाल्पितस्य च।
भागो जीव: स विज्ञेय स चानन्त्याय कल्पत’’।
‘‘आराग्रमात्र: पुरुष एषोऽणरात्मा चेतसा वेदितव्य:’’।
आत्मा का अणुत्वश्रुति प्रसिद्ध है।केश के अग्रभाग के प्रथम सौ टुकड़े करके पश्चात् एक—एक के सौ—सौ टुकड़े करने से एक भाग का जो परिमाण हो वह जीव का परिमाण है ऐसे जीव अनन्त हैं और जीव रूप पुरुष आरे के अग्र भाग के समान सूक्ष्म हैं। आत्मा—जीव अणु परिणाम चक्षु आदि इन्द्रियों से अग्राह्य केवल मन से जानने योग्य है।’’ (सर्वदर्शन से. रामानुजदर्शन पृ.१०९) यह सब मान्यता विवेक शून्य है क्योंकि आत्मा स्वदेह परिमाण है यह बात अनुभव सिद्ध है।
जैन— जैनाचार्यों ने उपर्युक्त मान्यताओं का विशेष रीति से खण्डन करके जीव का लक्षण स्थापित किया है। यथा — ‘उपयोगो लक्षणं’ ‘स द्विविधोऽष्टचतुर्भेद:।’ (तत्त्वार्थसूत्र द्वि. अ. सूत्र. ८-९) जीव का लक्षण उपयोग है। चैतन्यापुविधायी परिणाम को उपयोग कहते हैं । उसके दो भेद है— ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं— मति, श्रुति, अवधि, मन:पर्यंत और केवल ये पांच ज्ञान एवं कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये ३ कुज्ञान ये आठ ज्ञानोपयोग हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन,ये चार दर्शनोपयोग हैं। जीव का लक्षण चेतना है ज्ञानदर्शन को हीद चेतना कहते हैं। जैनाचार्यों ने अन्यत्र जीव का लक्षण किया है—
जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेंहपरिमाणो ।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ।।२।।
(द्रव्यसंग्रह)
जीव— जो तीनों कालों में इन्द्रिय,बल, आयु और श्वासोच्छ्वास रूप द्रव्य प्राणों से एवं चेतना लक्षण भाव प्राणों से। अजीवत् जीवति जीविष्यति इति जीव: जीता था, जीता है, जीयेगा वह जीव है, यह उपयोगमयी है—ज्ञान दर्शन स्वरूप है कथंचित् अमूर्तिक है, कर्ता है स्चशरीर प्रमाण है, भोक्ता है, संसारी है। सिद्ध है और स्वभाव से ऊध्र्वगमन करने वाला है।
‘संसारिणो मुक्ताश्च ’ (तत्त्वार्थसूत्र)
जीव के संसारी और मुक्त की अपेक्षा दो भेद होते हैं कर्म सहित जीव संसारी हैं, कर्म बंधन से रहित जीव मुक्त जीव कहलाते हैं । जैन सिद्धांत में कर्मों के निमित्त से जीव का ज्ञान गुण ढका रहता है पूर्ण प्रगट नहीं होता है धीरे—धीरे अपने आवरण कर्म का क्षयोपशम होते—होते ज्ञान गुण प्रकट होता चला जाता है जब पूर्ण ज्ञानावरण का नाश हो जाता है तब पूर्ण ज्ञान प्रकट होकर यह आत्मा सर्वज्ञ सर्वदर्शीज्ञाता द्रष्ट कहलाने लगता है।
बहिरन्त: परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेंहिषु।
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायात् बहिस्त्यजेत् ।।४।।
(समाधितंत्र)
बहिरात्मा अंतरातमा और परमात्मा के भेद से आत्मा के तीन भेद होते हैं। उसमें परमात्मा उपादेय— प्राप्त करने योग्य है एवं अंतरात्मा उपाय भूत है— परमात्मा को प्राप्त कराने वाला है। और बहिरात्मा त्यागने योग्य है। इस प्रकार ‘अहं’ प्रत्यय से अनुभव में आने वाला आत्मा सभी जीवों को स्वसंवेदन अनुभव से सिद्ध है।
ज्ञान का विचार
चार्वाक— ‘तदिह विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानुविनाश्यति स न प्रेत्यसंज्ञास्तीति तत् चैतन्यविशिष्टदेह एव आत्मा’ (सर्वदर्श. पृ.३)
विज्ञान स्वरूप आत्मा इन चार भूतों से उत्पन्न होकर उसी में नष्ट हो जाता है, मरने पर परलोक में कोई नाम नहीं रहता, चैतन्य विशिष्ट देह ही आत्मा है। अर्थात् भूत चतुष्टय से आत्मा उत्पन्न होता है ज्ञान भी भूत चतुष्टा से उत्पन्न हुआ है वह अस्वसंविदित है।
इस प्रकृति से महान् — बुद्धि उत्पन्न होती है’ इससे स्पष्ट है कि सांख्य ज्ञान को अचेतन प्रधान का धर्म कहते हैं उनका कहना है कि ज्ञान के आश्रय भूत प्रधान का जब आत्मा में संसर्ग होता है तब आत्मा ज्ञानी दिखता है। वास्तव में सर्वज्ञता प्रधान को ही है। मुक्ति में प्रधान का संसर्ग छूट जाने से आत्मा में ज्ञान नहीं रहता है आत्मा सुषुप्त चैतन्यवत् हो जाती है।
आत्मा में ज्ञान के समवाय से ज्ञान रहता है और वह भी ज्ञानान्तर वेद्य है। ज्ञान स्वयं अस्वसंविदित हैं अन्य ज्ञानों से जाना जाता है। ‘नैयायिक ज्ञान को दूसरे ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष होना मानते हैं उनका कहना है कि ज्ञान प्रमेय है इसलिये ज्ञानान्तर वेद्य है जो प्रमेय होता है वह दूसरे ज्ञान के द्वारा जाना जाता है जैसे घट पट आदि प्रमेय’। किंतु जैनाचार्यों का कहना है कि ज्ञान ज्ञानान्तर से वैद्य माना जावे तो महेश्वर के ज्ञान से अनेकांतिक दोष आवेगा। जैन सिद्धांत में तो ज्ञान स्वयं सबको जानता है अत: ज्ञान है एवं स्वयं को भी जानता है अत: ज्ञेय—प्रमेय भी है कोई बाधा नहीं है एवं वह समवाय से आत्मा में नहीं आता है बल्कि आत्मा का ही गुण है। ज्ञान से ही आत्मा का अस्तित्व जाना जाता है।
वैशेषिक—नैयायिक और वैशेषिक दोनों ने ही ज्ञान को अस्वसंवेदी माना है। इनकी मान्यता है कि ज्ञान स्वयं अपना प्रत्यक्ष नहीं करता है, किंतु दूसरे ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है। ये दोनों लोग धारावाहिक ज्ञान को भी प्रमाण मानते हैं। ये दोनों ही पदार्थ और आलोक को ज्ञान का कारण कहते हैं। किंतु जैनाचार्यों ने ज्ञान को स्वसंविदित ही सिद्ध किया है।
प्राभाकर— प्राभाकर मतानुयायी ज्ञान को अप्रत्यक्ष ही मानते हैं उनका कहना है कि ज्ञान न तो स्वयं जाना जाता है, और न ज्ञानान्तर से ही जाना जाता है। ये प्राभाकर आत्मा और ज्ञान दोनों को अत्यन्त परोक्ष मानते हैं । उनका कहना हैं कि प्रमिति जानना यह क्रिया और जानने योग्य घट पट आदि पदार्थ कर्म हैं वे ही प्रत्यक्ष हैं आत्मा, कर्ता और ज्ञान करण है वह परोक्ष ही है। किन्तु जैनाचार्यों ने आत्मा और ज्ञान दोनों को स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रत्यक्ष सिद्ध किया है।
मीमांसक— मीमांसक भी ज्ञान को परोक्ष कहते हैं किन्तु आत्मा को प्रत्यक्ष मान लेते हैं, इनका कहना है कि ज्ञान करण है इसलिए परोक्ष है।ज्ञान के पदार्थ जाने जाते हैं किन्तु ज्ञान स्वयं नहीं जाना जाता है। ‘अहं ज्ञानेन घटं वेद्यि’ मैं ज्ञान से घट को जानता हूं , यहां कर्ता कर्म और क्रिया प्रत्यक्ष हैं, ज्ञान यह करण होने से परोक्ष है। किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि यदि आत्मा प्रत्यक्ष है तो ज्ञान को परोक्ष कैसे कहना? क्योंकि भावेन्द्रिय रूप लब्धि और उपयोग ही ज्ञान है जो कि आत्मा रूप है, आत्मा से भिन्न नहीं है अत: आत्मा को प्रत्यक्ष कहने से ज्ञान भी प्रत्यक्ष ही सिद्ध हो जाता है।
बौद्ध— बौद्ध ज्ञान को ‘साकार’ कहते हैं उनके यहां ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होकर उसके आकार को धारण करके ही उसको जानता है इसलिये ज्ञान तदुत्पत्ति तदाकार और
तदध्यवसायरूप है। उनकी मान्यता है कि जैसे पुत्र पिता से उत्पन्न होकर पिता से आकार को धारण करता है। उसी तरह ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होकर उसी के आकार को धारण करता है। उसी तरह ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होकर उसी के आकार को धारण कर उसी को जानता है अन्य को नहीं, यदि ऐसा न मानों तो पदार्थों की व्यवस्था कैसी बनेगी? इन्होंने विज्ञान स्कंध को ही आत्मा माना है।एवं विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध ने ज्ञान परमाणुओं को पृथक्—पृथक् ही माना है। किन्तु जैनाचार्यों ने इस ‘तदुत्पत्ति तदाकार ज्ञान का निराकरण कर दिया है। क्योंकि यदि ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होता है तो पदार्थ के साथ ही ज्ञान का अन्वय व्यतिरेक होना चाहिए किन्तु नहीं है मतलब पदार्थ के बिना भी होता है और पदार्थ के रहते हुये भी नहीं होता है इसलिए ज्ञान की तदुत्पत्ति सिद्ध नहीं होती, तदाकार का भी निराकारण इसी से होता है तदध्यवसाय की कल्पना भी निर्मूल है। ज्ञान अपने क्षयोपशम विशेष से आत्मा में उत्पन्न होकर भी इन्द्रिय के आकार का न होकर इन्द्रिय को नहीं जानता है। अत: आपका कथन दोष पूर्ण है।
जैन
‘ज्ञानपदेन प्रमातु:प्रमितेश्च व्यावृत्ति: अस्ति हि निर्दोषत्वेन तत्रापि सम्यक्तवं न तु ज्ञानत्वम् ।(न्याय दी.पृ. १०)‘
सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं’ में सम्यक् पद से मिथ्याज्ञानों का निराकरण किया है और ‘ज्ञान’ पद से प्रमाता—आत्मा, प्रमिति—जानना और ‘च’ शब्द से प्रमेय—ज्ञेय की व्यावृत्ति हो जाती है। यद्यपि निर्दोष होने से ये प्रमाता प्रमिति प्रमेय—ज्ञाता ज्ञाप्ति सम्यक् तो हैं किन्तु इनमें ज्ञानत्व नहीं है।
ये ज्ञान और दर्शन व्याकरण में करण साधन से बने हैं और चारित्र शब्द कर्म साधन है। अर्थात् दृश्यते अनेनेति दर्शनं । ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं। चर्यंते यत्तच्वारित्रं जिसके द्वारा श्रद्धान किया जाय वह दर्शन है । जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है । जो आचरण किया जाय वह चारित्र है।
‘‘कर्तृकरणायोरन्यत्वादन्यत्वमात्मज्ञानादीनां परश्वादिवत इति चेत् न तत् परिणामादग्निवत्’’।(राजवार्तिक पृ.४)
प्रश्न— यदि जिसके द्वारा जाना जाय उस करण को ज्ञान कहते हैं तो ‘जैसे कुल्हाड़ी से लकड़ी काटते हैं’ यहां कुल्हाड़ी और काटने वाले दोनों भिन्न हैं वैसे ही कर्ता आत्मा और करण ज्ञान इन दोनों को भिन्न मानना होगा?
उत्तर— नहीं! जैसे ‘अग्नि उष्णता से पदार्थ को जलाती है’ यहां अग्नि का उष्णत्व गुण अग्नि से पृथक् न होकर भी करण अर्थ में प्रयुक्त है। अत: कथंचित् अभेद में भी कर्ता, करण व्यवहार देखा जाता है। एवं भूतनय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है। अत: द्रव्य दृष्टि से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। ज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है जो कि सबसे निकृष्ट सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव में भी कुछ अंश में मौजूद रहता है। तथाहि—
अर्थ — सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसी को ‘पर्याय’ कहते हैं। इतना ज्ञान सदा ही निरावरण तथा प्रकाशमान रहता है। यदि इस ज्ञान पर भी आवरण आ जावे तब तो ज्ञान के बिना जीव का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा। अत: अतिसूक्ष्म ज्ञान वहां भी विद्यमान रहता है। एकेन्द्रिय, पृथ्वि,जल वायु, अग्नि, वनस्पति वृक्ष आदि में भी आत्मा के ज्ञान दर्शन गुण मौजूद हैं कर्मावरण से ढके हुये हैं कुछ—कुछ अंश प्रकट हैं ये ही बढ़ते—बढ़ते एक दिन पुरुषार्थ से पूर्ण हो जाते हैं। तब आत्मा केवली, सर्वज्ञ कहलाने लगता है। अत:ज्ञान गुण आत्मा का है इसी से आत्म ज्ञानी है। सभी मतावलम्बियों ने ज्ञान को अचेतन अथवा अस्वसंविदित माना हैं किन्तु जैनाचार्यों ने ही ज्ञान को चेतनारूप स्वपर प्रकाशी सिद्ध किया है। आत्मा के अनन्त गुणों में एक ज्ञान गुण ही ऐसा है जो सारे गुणों का महत्व बताता है यदि ज्ञान गुण न हो तो अनन्त गुणों का मूल्यांकन और अनुभव कौन करावे ? अत: सभी गुणों में श्रेष्ठ ज्ञान गुण है। इसे ही प्रमाण कहते हैं। इसका फल— ‘ज्ञानफलं सौख्यमच्यवनं’ श्री पूज्यपाद स्वामी ने श्रुतभक्ति में ज्ञान का फल अच्युत सुख को प्राप्त करना कहा है। वैसे न्याय ग्रन्थों में—
ज्ञान का साक्षात् फल अज्ञान होना है एवं परम्परा फल हेय वस्तु का त्याग उपादेय का ग्रहण एवं इन दोनों से रहित में उपेक्षा रखना है । श्री समंतभद्र स्वामी ने भी यही कहा है कि— केवल ज्ञान का फल उपेक्षा है शेष ज्ञानों का फल ग्रहण और त्याग बुद्धि का होना है। अथवा शेष ज्ञानों का भी फल उपेक्षा और अपने विषय में अज्ञान का अभाव होना है। अत: ज्ञान को अचेतन भूत चतुष्टय का धर्म, या अचेतन प्रकृति का धर्म न मानकर चेतन आत्मा का ही धर्म मानना चाहिए। एवं अस्वसंविदित न मानकर स्वसंवेदी, स्वपर प्रकाशी मानना चाहिये।
संसार तत्व का विचार
चार्वाक— ते च जीव पुण्यपापादिकं न मन्यंते । चतुर्भूतात्मकं जगदाचक्षते । केचित्तु चार्वावैकदेशीया आकाशं पंचमं भूतममिमन्यमाना: पञ्चभूतात्मकं जगदिति निगदन्ति‘‘।(षड्द. पृ. ४५०)
ये चार्वाक लोग आत्मा, पुण्य, पाप आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के भुगड़े में न पड़कर इनकी सत्ता का सर्वथा लोप करते हैं । इस संसार को पृथ्वी,जल, अग्नि और वायु इन भूत चतुष्टय रूप ही मानते हैं। कोई चार्वाक आकाश को भी पांचवां तत्त्व मानकर ‘जगत्’ को पांचभौतिक कहते हैं। ‘यह जड़ जगत् चार प्रकार के भौतिक तत्वों से बना हुआ है।’ इस भूतचतुष्टय को आत्मा या संसार कहना गलत है। (भारतीय द.पृ. १६) यह बात पहले आ चुकी है।
बौद्ध
‘‘ संसरन्ति स्थानात् स्थानांतरं भवाद् भवांतरं वा गच्छंतीत्येवंशीला संसारिण: स्कंधा: सचेतना अचेतना वा परमाणुप्रचयविशेषा:।
ते च स्कंधा: वाक्यस्य सावधारणत्वात् पंचैवाख्याता: न त्वपर: कश्चिदात्माख्य: स्कंधोऽस्तीति’’ (षड्दर्शन पृ.४०)
जो स्थान से स्थानान्तर को अथवा भव से भवान्तर को संसरण करें, गमन करें वे संसारी स्कंध हैं वे सचेतना या अचेतन परमाणुओं के प्रचय विशेष कहलाते हैं वे स्कंध पांच ही होते हैं इन पांच स्कंधों से भिन्न आत्मा का कोई छठा स्कंध नहीं है। अर्थात् इन पांच स्कंधों में ही आत्मा नाम का व्यवहार होता है। ये पांचों स्कंध एक स्थान से दूसरे स्थान को या भव से भवान्तर को गमन स्वभाव वाले होने से— संसरणधर्मा होने से संसारी कहलाते हैं। इन्हीं संसारी पांच स्ंकधों को ‘दु:ख सत्य’ कहते है।रूप वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इनके नाम हैं । ये पांचों स्कंध क्षणिक हैं एक क्षण तक ही ठहरते हैं। जिससे लोक में ‘मैं हूं यह मेरा है’ इत्यादि अहंकार रूप ममकार रूप समस्त रागादि समूह उत्पन्न होता है उसे ‘समुदय’ कहते हैं। बौद्ध के मत में चार आर्य सत्य है। दु:ख, समुदय, मार्ग, निरोध। इनमें से आदि के दो तत्त्वों से संसार है एवं अंत के दो से मोक्ष होता है ये ‘दु:ख तत्त्व’ और ‘समुदय तत्त्व’ संसार की प्रवृत्ति में निमित्त भूत हैं। (षड् दर्शन.पृ.४३)’
जो पाँच स्कंधों में आत्मा को देखता है उसे यह मेरा है ऐसा नित्य स्नेह होता है, स्नेह से तृष्णा, तृष्णा से आत्मा के दोषों पर दृष्टि न जाना, गुण दिखाई देना, आत्मसुख में गुण देखने से उसके साधनों में ममकार होना, उन्हें ग्रहण करना, इत्यादि रूप से जब तक आत्मा का अभिनिवेश है तभी तक संसार है। किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि पंचस्कंध रूप आत्मा नहीं है ये बौद्ध एक ओर पृथ्वी आदि भूतों से आत्मा को मानने वाले चार्वाक का खण्डन कर रहे हैं। और दूसरी ओर रूप वेदना आदि स्कंधों से भिन्न आत्मा को मानना नहीं चाहते हैं। इनमें वेदना, संज्ञा , संस्कार और विज्ञान ये चार स्कंध चेतनात्मक हो सकते है क्योंकि अचेतन में ये चारों बातें असम्भव हैं। किन्तु रूपस्कंध को चेतन कहना चार्वाक के भूतात्मवाद से कोई अन्तर नहीं रखता है। अर्थात् बुद्ध भगवान का कहना है कि आत्मा क्या है इत्यादि कुछ मत सोचो, दु:ख, दु:ख के कारण उनके निरोध का ही विचार करो। इत्यादि रूप से बौद्ध अनात्मवादी ही हैं। उनका मान्य संसार गलत हैं, क्योंकि एक क्षण स्थिर रहने वाले दूसरे क्षण में नष्ट हो जाने वाले स्कंधों से क्या भवान्तर गमन होगा? और क्या संसार बनेगा ? समझ में नहीं आता है।
सांख्य
मूल सांख्य तो हर एक आत्मा से सम्बन्ध रखने वाले प्रधान को भी भिन्न—भिन्न मानते हैं अत: इनके यहां अनन्त पुरुषों की तरह प्रधान—प्रकृति भी अनन्त है। किन्तु उत्तरकालीन सांख्य सभी आत्माओं से सम्बन्ध रखने वाला एक नित्य ही प्रधान मानते हैं। प्रकृति और आत्मा के संयोग से ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है। (षड्द. पृ. १४५) पुरुष तथा प्रकृति के संयोग से सृष्टि का प्रारम्भ होता है। प्रकृति के तीन गुणों की साम्यावस्था पुरूष के संयोग से नष्ट हो जाती है। जगत् की रचना इस क्रम से होती है, सत्त्व की अधिकता होने से प्रकृति से महान् — बुद्धि होती है, यह महान् ही विश्व का अंकुर है, इस बुद्धि के आठ रूपये होते हैं धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य ये चार सात्त्विक रूप हैं। तथा अधर्म, अज्ञान, विषयाभिलाष और अनैश्वर्य ये चार तामस रूप हैं। पुरुष का चैतन्य प्रकाश महान् पर पड़ने से महान् भी चेतन मालूम पड़ता है। इसी बुद्धि तत्व से मैं ‘सुन्दर हूं’ इत्यादि अहंकार, अहंकार से षोडशगण और पांच तन्मात्रा से पंचमहाभूत बन जाते हैं। इसी का नाम संसार है। किन्तु विचार करके देखा जाये तो यह संसार का लक्षण प्रत्यक्ष बाधित है क्योंकि जब आत्मा अकर्ता निर्गुणी निष्क्रिय और व्यापक है तब उसका प्रकृति से सम्बन्ध कैसे होगा ?एवं उसमें परिणमन हुये बिना दोनों के संयोग से संसार भी कैसे बनेगा ? आत्मा को व्यापक मानने से तो सबसे बड़ा प्रश्न यह होता है कि अखण्ड आत्मा व्यापक है तब सब आत्माओं का सम्बन्ध सबके शरीरों के साथ है पुन: अपने—अपने सुख—दु:ख और भोग का नियम कैसे बनेगा ? एवं कूटस्थ नित्य निष्क्रिय आत्मा का परलोक गमन आदि असम्भव होने से संसार किसे कहेंगे?
नैयायिक वैशेषिक
नैयायिक और वैशेषिक ईश्वर को संसार का कर्ता , पोषक और संहारक मानते हैं। उनका कहना है कि—
अर्थात् यह विचारा संसारी अज्ञ प्राणी असमर्थ है अपने सुख दु:ख भोगने के लिये ईश्वर के द्वारा प्रेरित होकर स्वर्ग तथा नरक में जाता है। इनके यहां भी प्रमाण प्रमेय आदि सोलह पदार्थों में से प्रमेय तत्त्व में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, परलोक, फल,दु:ख और मोक्ष ये बारह भेद किये हैं आत्मा को व्याप्क , नित्य भोक्ता आदि माना है। किन्तु बुद्धि—ज्ञान को आत्मा से पृथक् प्रमेय कहा है, उसका आत्मा में समवाय मानते हैं। ‘ईश्वर ने विश्व का निर्माण शून्य से नहीं किया है, किन्तु परमाणु दिक्, काल, आकाश,मन,तथा आत्मा आदि उपादानों से किया है। जीव अपने—अपने पुण्य या पाप कर्मों के अनुसार सुख या दु:ख का उपयोग कर सवेंâ, इसके लिये संसार की सृष्टि हुई है’ । (भारतीय द.पृ. २३) वास्तव में विचार करके देखा जाय तो यह प्रत्येक प्राणी अनादि काल से कर्मों से बंधा हुआ अपने कर्मों के अनुसार सुख—दु:ख का भोक्ता है किसी ईश्वर को उसमें निमित्त मानना गलत है, इसका वर्णन ईश्वर सृष्टि कर्तृत्व खंडन में पहले किया जा चुका है। अत: नैयायिक वैशेषिक इन दोनों के द्वारा मान्य संसार तत्त्व गलत है।
मीमांसक
मीमांसक लोग भौतिक जगत् को मानते हैं। भौतिक जगत् की सत्ता प्रत्यक्ष से प्रमाणित होती है। मीमांसक बाह्य सत्तावादी है। किन्तु ये लोग किसी को जगत् का स्रष्टा परमात्मा ईश्वर नहीं मानते हैं, जगत् अनादि तथा अनंत है न इसकी कभी सृष्टि हुई है न प्रलय होगा। सांसारिक वस्तुओं का निर्माण आत्माओं के पूर्वापार्जित कर्मों के अनुसार भौतिक तत्त्वों से होता है। कर्म एक स्वतंत्र शक्तिद है, जिससे संसार परिचालित होता है। मीमांसा के अनुसार जब कोई व्यक्ति यज्ञादि कर्म करता है, तो एक शक्ति की उत्पत्ति होती है जिसे ‘अपूर्व’ कहते हैं। इसी अपूर्व के कारण किसी भी कर्म का फल भविष्य में उपयुक्त अवसर पर मिलता है। अत:इस लोक में किये गये कर्मों के फल का उपयोग परलोक में किया जाता है’। (भारतीय द.पृ. ३०) ये मीमांसक भी परलोक को मानते हैं एवं ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:’ स्वर्ग का इच्छुक अग्निहोत्र यज्ञ को करे। ऐसा प्रतिपादन करते हैं इसलिये ये आस्तिकवादी है किन्तु ये ईश्वर की सृष्टि का कर्ता या सर्वज्ञ नहीं मानते हैं ईश्वर के अस्तित्व को समापत करने वाले हैं इनके यहां सभी आत्मा सदा अशुद्ध संसारी ही रहते हैं। किन्तु वास्तब में यह कथन भी गलत है क्योंकि जीव कर्मबंध से छूटकर मुक्त होता है एवं वही ईश्वर सर्वज्ञ कहलाता है, भले ही वह सृष्टि का कर्ता नहीं है अत: मीमांसकों द्वारा मान्य भी संसार तत्व गलत है।
वेदान्तवादी—उत्तर मीमांसकवादी वेदान्ती मात्र ‘अद्वैत ब्रह्म’ को ही मानते हैं ‘सर्वमेतदिर्द ब्रह्म’ ‘यह सब कुछ ब्रह्म है’ उनका कहना है कि ब्रह्म ही सभी प्राणियों में भासमान है एवं अचेतन पदार्थों में भी वही ब्रह्म है। ‘उपनिषदों में उसे सत् ब्रह्मन् वा आत्मन् कहते हैं।संसार इसी सत् से उत्पन्न हुआ है, इसी पर आश्रित है तथा प्रलय होने पर इसी में विलीन हो जाता है। संसार का नानात्व—असत्य है, उसकी एक मात्र एकता ही सत्य है’ । कुछ उपनिषदों में यह उल्लेख है कि ब्रह्म या आत्मा के द्वारा संसार की सृष्टि हुई है, किन्तु अन्य उपनिष्दोंमें यहां तक वेदों में भी संसार की सृष्टि की तुलना इंद्र जाल से की गई है। ईश्वर को मायावी माना गया है जो अपनी माया से संसार की रचना करता है।’
(भारतीय द. पृ. ३१) जैन— जैल सिद्धांत के अनुसार उपर्युक्त सभी के संसार तत्त्व के लक्षण बाधित हैं क्योंकि यह संसार अनादि निधन है, इसका कर्ता, धर्ता,पोषक एवं संहारक कोई भी ईश्वर परमात्मा आदि नहीं है। यह जीव स्वयं अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता है, कर्म सहित होने से गतिनामकर्म के उदय से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में परिभ्रमण करता रहता है। इस जीव के ‘संसरण’ का नाम ही संसार है। कहा भी है—
अपने पूर्वोपर्जित कर्म के निमित्त से आत्मा के भवांतर की प्राप्ति का नाम संसार है।
पूर्वभवपरित्यागेन भवान्तरपरिग्रह एव च संसार:। (अष्टसहस्री.पृ.६६)
पूर्वभव का परित्याग करके भवांतर का ग्रहण करना ही संसार है । जैन सिद्धान्त के अनुसार कर्म के आठ भेद हैं । और उनमें भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के बंध के चार भेद हैं। ‘इन कर्म बंध के निमित्त से आत्मा की भवाँतर प्राप्ति को संसार कहते हैं’।
‘‘संसरणं संसार:परिवर्तनमित्यर्थ:।स एषामस्ति ते संसारिण:।
संसरण करने को संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। यह जिन जीवों के पाया जाता है वे संसारी है। परिवर्तन से पांच भेद हैं—द्रव्यपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन, और भावपरिवर्तन। इनका विशेष विवरण सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ में देखिये। अष्टसहस्री में ऐसा कहा है कि चार्वाक ने तो संसार माना ही नहीं है क्योंकि भवांतर गमन रूप संसार उनके यहाँ है ही नहीं । अन्य जनों के द्वारा मान्य संसार की व्यवस्था भी ठीक नहीं है क्योंकि बौद्धों ने सर्वथा सब कुछ क्षणिक — एक क्षण रहने वाला माना है एवं सांख्यों ने सर्वथा नित्य अपरिणामी माना है अत: इन लोगों के यहां भी भवांतर गमन रूप संसार की व्यवस्था असंभव है। स्याद्वात मत में जीव को कथंचित् नित्य माना है और कर्मबंध से सहित होने से मूर्तिक, स्वशरीरप्रमाण माना है। एवं पर्यायार्थिक नय से जन्म—मरण सहित अनित्य भी माना है। जैसे—एक जीव मनुष्य पर्याय से मरकर देव—गति में जन्म लेता है वहां वही जीव है जो यहाँ मनुष्यगति में था अत: जीव द्रव्य की अपेक्षा वह ध्रौव्य है नित्य है, किन्तु मनुष्य पर्याय का नाश होकर देव पर्याय का उत्पाद हुआ है अत: पर्याय की अपेक्षा जीव अनित्य भी है। जीव के जन्म—मरण का व्यवहार एवं परलोक गमन भी लोक में सिद्ध है क्योंकि किसी को पूर्व जन्म स्मरण हो जाता है या पूर्व के संस्कार विशेष देखे जाते हैं। इस प्रकार से जैनाचार्य सम्मत संसार तत्त्व प्रसिद्ध है।
मोक्ष तत्त्व का विचार
चार्वाक— इनका कहना है कि भूतचतुष्टय से शरीर, आत्मा, इन्द्रिय और मन बन जाते हैं एवं शरीर के नष्ट होने के बाद समाप्त हो जाते हैं जीव नाम की कोई वस्तु अनादि अनन्त है ही नहीं पुन: मोक्ष की बात ही कहां रही ?‘
आगमोऽपि न तत्प्रतिपादयितुं समर्थ: तत्र प्रामाण्याभावात आप्तो ह्यवंचकोऽभिज्ञ: सोऽपि किंचिज्ज्ञत्वाल्लौकिकार्थानेववान्वयतिरेकाभ्यां चक्षुरादिभिरूपलभ्य प्रतिपादयति न तु जीव स्यानाद्यनन्तत्वादिकं।’’ (विश्वत.प्र.पृ.४)
आगम प्रमाण से भी जीव का अनादि अनन्त होना सिद्ध नहीं हैं क्योंकि ‘आप्त पुरुष के वचन आदि को आगम कहते हैं’ तथा जो ज्ञानी है अवंचक है उसे आप्त कहते हैं, वह आप्त चक्षु आप्त चक्षु आदि इन्द्रियों से अन्वय व्यतिरेक को समझकर लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर दूसरों को बतलाता है। जीव के अनादि अनन्तत्व का प्रतिपादन नहीं करता है। अत: जब न कोई सर्वज्ञ है न उनका आगम सत्य है तब मोक्ष का विचार करना सर्वथा गलत है क्योंकि जब आत्मा और परलोक गमन ही सिद्ध नहीं है तब मोक्ष की सिद्धि कैसे होगी ? इस प्रकार से यह चार्वाक मोक्ष तत्त्व को स्वीकार नहीं करता है।
मोक्ष या अपवर्ग को निरोध तत्व कहते हैं। अर्थात् अविद्या तृष्णा रूप क्लेश से रहित चित्त की नि:क्लेश अवस्था रूप निरोध मुक्ति कहा जाता है। बौद्धों द्वारा मान्य चार आर्य सत्यों में यह ‘निरोध’ चौथा आर्य सत्य है।‘
आयुरवसाने प्रदीपनिर्वाणोपमं निर्वाणां भवति। उत्तरचित्तस्योत्पत्तरभावात् नान्तरिक्षं । दिशं न कांचिद् विदिशं न कांचित् स्नेहक्षयात्केवलमेति शांतिं। जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपैति नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षं। दिशं न कांचित् विदिशं न कांचित् मोहक्षयात्केवलमेति शांतिं।।
सौन्दरनन्द १६—२८,२९)
सौगातों के यहां ‘आयु के क्षय हो जाने पर उत्तर चित्त की उत्पत्ति नहीं होती है अत: दीपक बुझनें के समान चित्तसंतति का निर्वाण होता है।’ कहा भी है— ‘‘जिस तरह दीपक बुझता है वह न पृथ्वी में जाता है, न आकाश में जाता है। दिशा या विदिशा में भी नहीं जाता है, सिर्फ तेल के खत्म होने से शांत हो जाता है। उसी प्रकार जीव का निर्माण होता है वह न पृथ्वी में जाता न आकाश में जाता है एवं न दिशा विदिशाओं में जाता है, सिर्फ मोह के खत्म हो जाने ये शांत हो जाता है।’’‘रुपवेदनासंज्ञासंस्कार विज्ञानपंचकस्कंधनिरोधादभावों मोक्ष: इति। (राज. वा.पृ. २)ये बौद्ध लोग, रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान इन पांच स्कंधों के निरोध को मोक्ष कहते हैं। इस बौद्ध की मान्यता के अनुसार ‘अभाव’ को मोक्ष कहना सर्वथा गलत है क्योंकि जब आत्मा और ज्ञान का ही अभाव हो जावेगा तब सुख किसकों मिलेगा? वास्तव में मोक्ष की इच्छा सुख के लिए है न कि सर्वनाश के लिए । अत: विचार की कोटि में बौद्ध का मोक्ष तत्त्व ठीक नहीं हैं। फिर इनके यहां क्षणिकवाद में आत्मा का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हैं तब मोक्ष की कल्पना सुतरां समाप्त हो जाती है।
सांख्य लोग प्रकृति और पुरुष में भेद विज्ञान होने पर सुषुप्तपुरुष के विवेक के लुप्त हो जाने के समान अनभिव्यक्त चैतन्य मात्र स्वरूप में आत्मा के अवस्थान को मोक्ष कहते हैं । सांख्यों द्वारा मान्य यह मोक्ष लक्षण भी गलत है क्योंकि चैतन्य विशेषस्वरूप की प्राप्ति हो जाना मोक्ष है यह मान्यता सत्य है। देखो! प्रकृति का संयोग छूटने के बाद प्रकृति का ज्ञान और सुख मुक्ति में नहीं रहा ऐसा ये लोग कहते हैं, किन्तु यह गलत है। वास्तव में ज्ञान दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुण आत्मा के हैं इन विशेष गुणों को प्रगट करके ज्ञाता द्रष्टा पूर्ण सुखी हो जाना मोक्ष है।
(तत्वार्थवा. पृ.२) नैयायिक और वैशेषिक लोग ‘बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अर्धम और संस्कार इन नव गुणों के अत्यन्त अभाव को मोक्ष कहते हैं।’ यह मान्यता तो बिल्कुल ही गलत है क्योंकि बुद्धि—ज्ञान और सुख का यदि मुक्ति में अभाव हो जावे तो बौद्धों के समान शून्य रूप ही ‘मुक्ति कल्पना’ सिद्ध हो गई। और कौन ऐसा बुद्धिमान् पुरुष होगा जो कि अपने ज्ञान और सुख को समाप्त करने के लिये मुक्ति को प्राप्त करना चाहेगा अर्थात् अपने सुख और ज्ञान को तिलांजलि देकर मोक्ष जाना कोई भी नहीं चाहेगा। हां! इतना अवश्य है कि इन्द्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञान एवं साता वेदनीयजन्य इन्द्रिय सुख का मुक्ति में अभाव होकर अनंतज्ञान और अव्याबाध—बाधारहित सुख प्रगट हो जाता है यह बात वास्तविक है।
मीमांसक— मीमांसक लोग न सर्वज्ञ मानते हैं न कोई सृष्टिकर्ता ईश्वर मानते हैं, वे तो वेद वाक्यों से ही अतीन्द्रिय धर्म—अधर्म आदि पदार्थों का ज्ञान होना घोषित करते हैं एवं इनके यहां भी जीवात्मा हमेशा अशुद्ध संसारी ही रहता है कभी पूर्ण शुद्ध मुक्त नहीं होता है। अत: इनके यहां मुक्तितत्व का अभाव है।
वैदांतवादी— ‘ये लोग भी सारे विश्व को ‘परमब्रह्म’ स्वरूप मानते हैं अत: उस ब्रह्म की उपासना करके कोई भी व्यक्ति उसी ब्रह्म में लीन हो जाता है पुन: किसी के मुक्ति की कल्पना ही असम्भव है। इसलिये इन वेदांतवादियों के यहां भी मोक्ष तत्त्व अघटित है। अथवा—
‘अनंतसुखमेव मुक्तस्य, न ज्ञानादिकमित्यानन्दैकस्वभावाभिव्यक्तिर्मोक्ष इत्यपर: सोऽपि युक्त्यागमाभ्यां बाध्यते’। (अष्टस.पृ. ६९)‘
मुक्ति में अनंत सुख है ज्ञानादि नहीं हैं ऐसे आनन्द रूप एक स्वभाव की प्राप्ति हो जाना मोक्ष है ऐसा इन वेदांतियों ने कहा है,’ किन्तु यह मोक्ष लक्षण भी युक्ति और आगम से बाधित होता है। प्रश्न यह होता है कि अनंत सुख लक्षण मोक्ष को मानने पर ज्ञान के बिना उसका अनुभव कैसे होगा ? यहां भी देखा जाता है कि यदि किसी को कर दिया जाय पुन: उसका ऑपरेशन किया जाय तो उसे दु:ख का अनुभव नहीं आता है। अथवा यदि किसी का उपयोग दूसरी तरफ लगा हो और सुख साधन सामग्री रखी हो तो भी उसे सुख का अनुभव नहीं आता है अत: ज्ञान के बिना सुख का अनुभव न होने से मुक्ति में सुख मानना कैसे सिद्ध होगा ? क्या उनके सुख का अनुभव हम और आपको अपने ज्ञान से आ रहा है ? ‘अनुभव नाम ज्ञान का है’ यदि उन्हें सुख का अनुभव है मतलब सुख का ज्ञान है पुन: ज्ञान रहित मोक्ष कैसे रहा ? दूसरी बात यह है कि ब्रह्मवादियों के यहां मोक्ष की व्यवस्था कहने पर संसार की व्यवस्था भी माननी पड़ेगी पुन:द्वैत हो जाने से ‘अद्वैत तत्व’ समाप्त हो जावेगा।
जब आत्मा कर्ममल, कलंक और शरीर को अपने से जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाधा सुख रूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं। ‘बंध हेत्वभावनिर्जराभ्य कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:’ (तत्वार्थ सूत्र दशम अ.) मिथ्यादर्शन आदि बंध के कारणों का अभाव और संचित कर्मों की निर्जरा इन दोनों कारणों से सम्पूर्ण कर्मों का आत्यंतिक वियोग हो जाना मोक्ष है। जैन सिद्धान्त में मुक्ति में अनंत गुणों का विेकास माना है एवं अपने स्वभाव की प्राप्ति को ही मोक्ष कहा है।मतलब आत्मा अनंत गुणों का पुंज है। ‘सिद्धि: स्वात्मोपलब्धि:’ यह भी पूज्यपादस्वामी का वाक्य है अत: अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धि हो जाना ही सिद्धि है उसे ही मोक्ष कहते हैं। यद्यपि यह मोक्ष प्रत्यक्ष से दिखाई नहीं देता है फिर भी आगम और अनुमान से उसका ज्ञान हो जाता है यथा— घटीयंत्र का घूमना उसके धुरे के घुमने से होता है और घुरे का घूमना उसमें जुते हुयें बैल के घूमने पर। यदि बैल का घूमना बन्द हो तो धुरे का घूमना रूक जाता है और धुरे के रूक जाने पर घटीयंत्र का घूमना बंद हो जाता है। उसी तरह कर्मोदय रूपी बैल के चलने पर ही चारगति रूपी धुरे का चव्रं चलता है और चतुर्गति रूपी धुरा ही अनेक प्रकार की शारीरिक मानसिक आदि वेद नामों रूपी घटीयन्त्र को घुमाता रहता है कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रूक जाता है। और उसके रूकने से संसाररूपी घटीयंत्र का परिचलन समाप्त हो जाता है इसी का नाम मोक्ष है। इसी प्रकार से आगम से भी मोक्ष की सिद्धि स्पष्ट है सभी शिष्टवादी—प्रास्तिकवादी लोग किसी न किसी रूप में ‘मोक्ष’ का अस्तित्व अवश्य ही स्वीकार करते हैं। एवं सभी वादियों ने सामान्यतया मोक्ष में ‘दु:खों का विनाश हो जाना’ या कर्मबंधन से छूट जाना ही स्वीकार किया है अतएव मोक्ष सामान्य में किसी को विवाद नहीं है। मोक्ष के विशेषलक्षण में ही विसंवाद है जिसका यहां विचार किया गया है।
संसार कारण तत्व
चार्वाक— ‘देहात्मिका देहकार्या देहस्य च गुणोमति:। मतत्रयामिहाश्रित्य जीवाभावो विधीयते’।।
शिरा इत्यादि के समान जीव भी देहात्मक है क्योंकि अन्यत्र कहीं जीव पाया नहीं जाता, ऐसा पुरंदर आचार्य ने कहा है। जीव शरीर का कार्य है क्योंकि देह के साथ अन्वय व्यतिरेक पाया जाता है जैसे कि उच्छ्वास का अन्वय व्यतिरेक शरीर के साथ पाया जाता है, यह उद्भट विद्वान् आचार्य का कथन है। जीव शरीर का गुण है क्योंकि शरीर के आश्रित है जैसे कि शरीर के रूप आदि। यह अविद्धकर्ण आचार्य का कथन है। मतलब चार्वाक मत के प्ररूपक तीन आचार्य प्रमुख हैं पुरंदर, उद्भट और अविद्धकर्ण । पुरंदर जीव को देहात्मक कहते हैं, उद्भट जीव को देह का कार्य कहते हैं एवं अविद्धकर्ण जीव को शरीर का गुण कहते हैं। चार्वाक के साधु कापालिकों की तरह हाथ में कपाल रखते हैं और शरीर में भस्म लगाते हैं। ब्राह्मणों से लेकर अन्त्जय तक सभी जातियों के लोग चार्वाक योगियों में मिलते हैं।लोकायता वदन्येवं नास्ति जीवो न निर्वृति: । धर्माधर्मी न विद्येते न फलं पुण्यपापयो:।।८०।। (षड्द.पृ. ४५२) चार्वाक कहते हैं कि जीव, मोक्ष, धर्म, अधर्म, पुण्यपाप और इनका फल कुछ भी नहीं है। स्वर्गनरक की कल्पना हास्यास्पद है। इनका सिद्धांत है कि—
चार्वाक का कहना है कि प्रत्यक्ष सिद्ध लौकिक विषय सुखों को छोड़कर अदृष्ट परलोक के सुख के लिये तपश्चरण आदि कष्टकर क्रियाओं में प्रवृत्ति करना महामूढता तथा अज्ञान की पराकाष्ठा है। ‘धर्म: कामात्परो नहि’ उनका कहना है कि काम सेवन से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। जैसे गुड़, महुआ आदि वस्तुओं के संमिश्रण से मदिरा बनती है उसी प्रकार भूतचतुष्टय से चैतन्य बन जाता है अत: इनके यहां संसार के कारण भूत मिथ्यात्व आदि कोई चीज ही नहीं है और यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो इनकी जड़ता—मूढ़ता ही महामिथ्यात्व होने से अनंत संसार का कारण है।
बौद्ध
इन विज्ञान आदि स्कंधों से भिन्न सुख—दु:ख इच्छा—द्वेष ज्ञानादि का आधारभूत आत्मा नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है। न स्कंधों से भिन्न आत्मा प्रत्यक्ष से अनुभव होता है और न अनुमान से ही होता है, ये पांचों स्कंध क्षणिक हैं दूसरे क्षण में नष्ट हो जाते हैं मात्र एक क्षण स्थायी हैं, इस प्रकार से पंचस्कंध रूप दु:ख तत्त्व है। दु:ख तत्त्व का कारण भूत समुदाय तत्त्व माना है— मैं हूं, यह मेरा है, पर है , पराया है’ इत्यादि रूप से रागद्वेषादि दोष समुदय उत्पन्न होते हैं, अहंकार और ममकार रूप से आत्म भाव , आत्मीय भाव, परभाव, परकीय भाव आदि उत्पन्न होते हैं इन भावों से रागद्वेष समूह उत्पन्न होते हैं ये दु:ख और दु:ख समुदाय दो तत्व संसार के कारण है।
अविद्या निमित्तक ही संस्कार होते हैं ऐसा बौद्धों का कहना है। अनित्य, अनात्मक, अशुचि और दु:ख पदार्थों को नित्य सात्मक पवित्र और सुख रूप मानना अविद्या है। इस अविद्या से रागादि संस्कार उत्पन्न होते हैं, संस्कार के तीन भेद हैं— पुण्योपग—शुभ, अपुण्योपग—अशुभ और आनेज्योपग—अपुभय रूप का प्रतिविज्ञप्ति विज्ञान है, इन संस्कारों से वस्तु में इष्ट अनिष्ट प्रतिविज्ञप्ति होती है, इन पुण्य, अपुण्य और अनुभय में विज्ञान होता है। अत: संस्कार निमित्तक विज्ञान है, विज्ञान से चार स्कंध उत्पन्न होते हैं वे नाम हैं एवं चार महा भूत रूप कहलाते हैं, अत: विज्ञान के निमित्त से नाम रूप होते हैं। नामरूप से पांच इंद्रिय और मन ये छह आयतन होते हैं । छह आयतन द्वारों का विषयाभिमुख होकर प्रथम ज्ञान तंतुओं को जाग्रत करना स्पर्श है। स्पर्श से वेदना, वेदना से आसक्तिरूप तृष्णा की वृद्धि से उपादन होता है। यह इच्छा होती है कि यह मेरी प्रिया सदैव मुझ में सानुराग रहे इत्यादि। इस उपादान से पूनर्भव को उत्पन्न करने वाला कर्म होता है, इसे भव कहते हैं यह कर्म मन वचन कार्यपूर्वक होता है, इससे परलोक में नया शरीर ग्रहण करना जाति है , शरीर स्कंध का पक जाना जरा है और उस स्कंध का विनाश मरण है ये जरा मरण जाति कारणक हैं। इस तरह यह द्वादशांग वाला चक्र परस्पर हेतुक है इसे प्रतीत्यसमुत्पाद कहते हैं। प्रतीत्य एक को निमित्त करके समुत्पाद—उत्पन्न होना प्रतीत्य समुदत्पाद है। अत: अविद्या से संस्कार संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नामरूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उत्पादन, उपादान से भव, भव से जाति, जाति से जरा और मरण ऐसा कर्म चलता है। इसके कारण भव चक्र बराबर चलता रहता है। अत: अविद्या से संसार होता है संसार का कारण अविद्या है। बौद्धों की यह संसार कारण पद्धति ठीक नहीं है क्योंकि जब प्रत्येक स्कंध और संस्कार क्षणिक हैं दूसरे क्षण टिकते ही नहीं तब यह सब उपर्युक्त परम्परा कैसे चलेगी, क्योंकि ‘क्षणिका सर्वे संस्कारा:’(का.७) ऐसा वचन है अत: बौद्धों द्वारा मान्य संसार कारण तत्व गलत है। एक तो आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है दूसरे सभी पदार्थ प्रतिक्षण ध्वंसी है। अत: संसार के कारण होना असंभव हैं। वास्तव में यह क्षणिक सिद्धान्त ही दीर्घसंसार का कारण है ऐसा कारण समझना चाहिए।
’धर्म से ऊध्र्व गति एवं अधर्म से अधोगति होती है एवं ज्ञान से मोक्ष और अज्ञान से बंध होता है जब तक कोई भी मनुष्य आत्मा को महान् , अहंकार, पाँच तन्मात्रा, पांच इन्द्रिय, पांच भौतिक शरीर, आदि अनात्मीय पदार्थों में ‘मैं सुनता हूं, देखता हूं’ यह कल्पना करता है तभी तक उसको संसार है अत: संसार का कारण अज्ञान या अविद्या ही है। इस पर आचार्यों का कहना है कि ऐसा एकांत मानना गलत है क्योंकि आपके यहां पुरुष को सर्वथा अपरिणामी, निष्क्रिय, अकर्ता आदि कहा है पुन: उसके यहां संसार के कारण मोक्ष के कारण आदि कैसे बनेंगे? एवं सर्वथा अविद्या ही संसार का कारण नहीं है। सम्यग्ज्ञान होने के बाद भी संसार में कुछ दिन रहना देखा जाता है। अत: संसारकारणतत्व अज्ञान मात्र ही नहीं है, राग द्वेष आदि परिणाम भी संसार के कारण हैं। नैयायिक—नैयायिक का कहना है कि मिथ्याज्ञान का कार्य दोष , दोष का कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कार्य जन्म, और तन्म कर कार्य दु:ख है। इसलिये मूल में संसार का कारण
मिथ्याज्ञान ही है। वैसे इनके यहां सदाशिव ईश्वर ही सृष्टि रचना करके जीव में मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान आदि को भर देता है कोई जीव स्वयं स्वतन्त्र समर्थ नहीं है। यही कारण है कि इनकी संसार कारण मान्यता भी ठीक नहीं है।
वैशेषिक—इच्छा और द्वेष से धर्म अधर्म की प्रवृत्ति होती है। उनसे सुख और दु:ख रूप संसार होता है संसार में नये शरीर और मन का संयोग होता है, जन्म होता है, जन्म होता है, एवं कर्मों का संचय होता। अत: इच्छा और द्वेष ही संसार के कारण हैं। इनके यहां भी ईश्वर सृष्टि का कर्ता है अत: यह सब कल्पनायें व्यर्थ प्रतीत होती हैं ।
मीमांसक—ये मीमांसक लोग भले ही ‘अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम:’ यह रटते रहें या लाखों बार यज्ञ आदि अनुष्ठान जप, तप दीक्षाविधि, सन्यास आदि में विशेष—विशेष क्रिया काण्ड करते रहें लेकिन ये लोग जीव का संसार से छूट कर मुक्त होना मानते ही नहीं हैं अत: इनके यहां के सब क्रिया काण्ड संसार के ही कारण हैं । वास्तव में मिथ्यात्व युक्त वेद विहित यज्ञादि का अनुष्ठान संसार का ही कारण है, क्योंकि वेदों में हिंसादि में भी धर्म माना है । वैसे ही वेदांतियों की ‘ब्रह्मवाद’ व्यवस्था भी ठीक नहीं है एवं उनके अनुसार ‘परमब्रह्म’ का ध्यान मनन भी संसार का ही कारण है।
जैन— जैनसिद्धांत में संसार के कारण मुख्य रूप से पांच हैं— ‘मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बंधहेतव:। (तत्वार्थ.सू.) मिथ्यादर्शन, अविरति , प्रमाद, कषाय और योग इन पांच कारणों से कर्मों का बंध होता है अत: ये कर्म बंध के कारण ही संसार के कारण है क्योंकि कर्मों से बंधा हुआ जीव ही संसार में परिभ्रमण करता है। यह कर्म का सम्बन्ध कब से हुआ ?
प्रकृति, शील और स्वभाव से प्रकृति के नाम है । जीव और कर्म का अनादिकाल से सम्बन्ध चला आ रहा है जैसे कि स्वर्ण पाषाण में किट्ट आदि प्रारम्भ से ही मिश्रित रहता है। एवं इन जीव और कर्मों का अस्तित्व स्वत: सिद्ध है।‘अहं’ प्रत्यय से जीव का अस्तित्व जाना जाता है । दीन,दरिद्री, घनी आदि होने से कर्म का अस्तित्व प्रसिद्ध है। यह जीव कर्मों के उदय से राग द्वेष आदि रूप परिणत होता है। राग द्वेष से कर्मों का बंध कर लेता है। द्रव्यकर्र्म बंध कतिपय भव्यों की अपेक्षा अनादि होकर भी साँत है एवं अभव्य जीवों की अपेक्षा अनादि अनंत है।
पूर्वोक्त सूत्र का विशेष अर्थ
अतत्त्व श्रद्धान को मिथ्या दर्शन कहते हैं उसके दो भेद हैं — नैसर्गिक और परोपदेशपूर्वक । जो परोपदेश के बिना मिथ्यात्व कर्म के उदय से अनादिकाल से जीव के साथ चला आ रहा है वह नैसर्गिक है। परोपदेश से होने वाला मिथ्यात्व चार प्रकार का है— क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक। अथवा मिथ्यात्व के पांच भेद भी हैं—एकांत, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान।
क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानियों के ६७, और वैनयिकों के ३२ ऐसे ३६३ मिथ्यामत माने गये हैं। छह काय के जीवों की दया न करने से एवं पांच इन्द्रिय और मन को वश में न रखने से अविरति के १२ भेद हैं। चार विकथा, चार कषाय, पंचइन्द्रिय विषय, निद्रा और स्नेह ये १५ प्रमाद हैं। कुशल कार्य में अनादर करना प्रमाद है। अनंतानुन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सोलह कषाय और हास्य, रति आदि नव नोकषाय ये २५ कषाय हैं । चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काय योग ऐसे १५ योग होते हैं। ऐसे ये ५ मिथ्यात्व,१२ अविरति, १५ प्रमाद, २५ कषाय और १५ योग सब मिलकर ५+१२+१५+२५+१५ृ७२ भेद हो जाते हैं। प्रथम गुण स्थान में जीवों के पांचों ही बंध के कारण मौजूद है द्वितीय से चतुर्थ एक मिथ्यात्व के सिवा चार कारण होते हैं, पांचवें में त्रस की विरति और ग्यारह की अविरति इस निमित्त से विरताविरत परिणाम होने के कारण हैं। छठे प्रमाद होने से तीन कारण हैं, सातवें से दसवें तक कषाय और योग ये दो ही कारण होते हैं, ग्यारहवें से तेरहवें तक मात्र योग ही एक कारण है, एवं चौदहवें में योग ने होने से बंध के कारण नहीं है अत: चौदहवें गुण स्थान के अन्त में बंध के हेतु का पूर्णतया अभाव और पूर्वकर्मों की निर्जरा हो जाने से मोक्ष हो जाती है। जो जीव कर्मों से बंधे हैं वे ही मुक्त होते हैं यह जैनसिद्धान्त का अटल नियम है। मोह और योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के परिणामों का नाम गुणस्थान है। ये गुणस्थान चौदह माने गये हैं। इनका विवरण गोम्मटसार जीवकाण्ड से देखिये। कोई संसार को अहेतुक कहते हैं । कोई प्रकृति मात्र को संसार का कारण कहते हैं, कोई केवल अज्ञानादि दोषों को संसार का कारण कहते हैं । किन्तु संसार अहेतुक नहीं है, यद्यपि अनादि है फिर उसके कारण कर्म मौजूद हैं। आगम और अनुमान आदि से संसार सहेतुक ही सिद्ध है तभी तो कोई जीव उन संसार के हेतुओं का नाश करके मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। सांख्य ने प्रधान को ही संसार का हेतु माना है, किन्तु आत्मा को संसर्ग से संसार का होना, जीव को जन्म मरण आदि दु:खों का होना जो कि प्रत्यक्ष सिद्ध है वह नहीं बनेगा। बौद्ध विज्ञान आदि जन्य ही संसार मानते हैं , किन्तु कर्मोदय बिना अज्ञान, द्वेष आदि परिणाम हो नहीं सकते हैं इसलिये संसार के कारण मिथ्यात्व आदि प्रसिद्ध हैं।
चार्वाक
‘सुख दु:ख के कारण धर्म, अधर्म , उत्कृष्ट धर्म, अधर्म के फल भोगने के स्थान स्वर्ग नरक , पुण्य और पाप दोनों के नाश से होने वाला मोक्ष सुख इत्यादि अतीन्द्रिय पदार्थों की कल्नना उसी तरह हास्यास्पद और उपेक्षणीय है जिस तरह आकाश में अनेक रंगों से विचित्र चित्र बनाने की भावना हास्यास्पद है।’
‘‘साध्यवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या प्रीतिर्जायते नरे। निरर्था सा मते तेषां धर्म: कामात्परो न हि ।।८६।। (षड् दर्श. पृ. ४५९)
कर्तव्य कार्य में प्रवृत्ति और न करने योग्य — अकार्य में निवृत्ति होने पर जो मनुष्यों को आत्म संतोष या प्रीति उत्पन्न होती है उसे चार्वाक लोग निरर्थक बताते हैं उनके यहां तो काम पुरुषार्थ से बढ़कर कोई धर्म ही नहीं है। अर्थात् चार्वाक लोग जप, तप, संयम, साधना आदि कार्यों में प्रवृत्ति करने और विषय सुख, इंद्रिय लंपटता, हिंसा, असत्य आदि पाप कार्यो को मूढता समझते हैं। इसलिये इनके यहां आतमा, परलोक, मोक्ष और मोक्ष के कारणों की वार्ता ही समाप्त हो जाती है।
निरोध—निर्माण मार्ग के इच्छुक मुमुक्षु जिसे ढूंढते हैं, जिसकी याचना करते हैं वह मार्ग है (अन्वेषण अर्थ में मार्गण धातु से चुरादिगण में णिच् प्रत्यय के बाद अल् प्रत्यय से मार्ग शब्द बना है) निरोध में हेतुभूत नैरात्म्यादि भावनायें ही निर्माण में कारण होने से मार्ग नहीं कही जाती हैं। एवं चित्त की क्लेश रहित अवस्था को निर्वाण कहते हैं । अर्थात् दु:ख, दु:ख समुदाय संसार का कारण है, मार्ग मुक्ति का कारण है एवं निरोध का अर्थ मुक्ति है।
‘सर्वभावेष्वविपरीतदर्शन विद्या।
यत्सर्वभावेष्वनित्यानात्मकाशुचिदु:
खेषु अनित्यानात्मकशुचि–दु:खदर्शनं
सा विद्या। ततो मोक्ष: ।’
(तत्त्वार्थ वा. पृ. १३)
जब सब पदार्थों में अनित्य निरात्मक अशुचि और दु:ख रूप तत्त्व ज्ञान उत्पन्न होता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है। अविद्या के विनाश से क्रमश: संस्कार आदि का नाश होकर मोक्ष प्राप्त हो जाता है। इस तरह बौद्ध मत में अविद्या से बंध और विद्या से मोक्ष माना गया है । अर्थात् बौद्धों के यहाँ अनित्य अशुचि आदि पदार्थों को नित्य शुचि आदि समझना अविद्या है। अविद्या से रागादि संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नाम रूप (पंचस्कंध) नाम रूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से तृष्णा, तृष्णा से उत्पादन, उत्पादन से भव, भव से जाति, जाति से जरा—मरण होते हैं। यह संसार के कारणों की परंपरा बताई है। वैसे ही विद्या से अविद्या का अभाव, अविद्या के अभाव से संस्कार का निरोध, संस्कार के अभाव से विज्ञान का अभाव, विज्ञान के अभाव से नाम रूप का अभाव, नाम रूप के अभाव से षडायतन का अभाव, षडायतन के अभाव से स्पर्श के अभाव से वेदना का, वेदना के अभाव से तृष्णा का, तृष्णा के अभाव से उपादान का, उत्पादन के अभाव से कर्म का, कर्म के अभाव से जाति का, जाति के अभाव से जरा—मरण का अभाव हो जाता है। मतलब विद्या से मोक्ष होती है, किन्तु यह बौद्ध मान्यता बिल्कुल गलत है पदार्थ सर्वथा क्षणिक न होकर नित्य भी हैं उन्हें क्षणिक समझना विद्या नहीं है प्रत्युत महा अविद्या है। इस क्षणिक मत की बुद्धि के अभाव से सम्यक्तव और ज्ञान आदि प्रगट होने से ही मोक्ष होती है।
शंका—मिथ्याज्ञान से ही बंध होता है अत: मोक्ष भी ज्ञान मात्र से ही होना चाहिये इसलिये मोक्ष के लिये तीन कारण नहीं बनते हैं। यथा— जब तक पुरुष को महान् आदि के क्रम से उत्पन्न होने वाले पाँच भौतिक शरीर में अहंपने का मिथ्याज्ञान रहता है, तभी तक शरीर को आत्मा मानने से विपर्यय ज्ञान से बंध होता है । और जब इसे प्रकृति और पुरूष में भेद विज्ञान हो जाता है, वह पुरुष के सिवाय यावत् पदार्थों को प्रकृति कृत और त्रिगुणात्मक मानकर उनसे विरक्त होकर ‘इनमे मैं नही हूं, ये मेरे नहीं हैं’ यह परम विवेक जाग्रत होता है, तब ज्ञान मात्र से मोक्ष हो जाता है। अत: ज्ञान मात्र ही मोक्ष का कारण है। जैनाचार्य कहते हैं कि ज्ञान मात्र से मोक्ष माना जाये तो पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के द्वितीय क्षण में ही मोक्ष हो जानी चाहिये । पुन: एक क्षण भी संसार में ठहरने से उपदेश तीर्थ प्रवृत्ति आदि कुछ भी नहीं हो सकेगे । यह सम्भव नहीं कि दीपक भी जल जाय और अन्धेरा भी रह जाय। उसी तरह से ज्ञान मात्र से मोक्ष कहने पर यह सम्भव नहीं है कि ज्ञान भी हो जाय और मोक्ष न हो । यदि कहो कि पूर्णज्ञान होने के बाद भी कुछ संस्कार शेष रह जाते हैं जिनके क्षय हुये बिना मोक्ष नहीं होती, एवं जब तक उन संस्कारों का क्षय नहीं होता तब तक उपदेश आदि प्रवृत्ति होती है तब तो यह स्पष्ट अर्थ हुआ कि संस्कार क्षय से मुक्ति होती है न कि ज्ञान मात्र से। पुन: यह बताओ! संस्कारो का क्षय नहीं होता या अन्य कारणों से ? यदि ज्ञान से कहो तो ज्ञान होते ही संस्कार का क्षय हो जाना चाहिए। पुन: वही उपदेश नहीं हो सकेगा। यदि अन्य कारण कहो, तो उसी का नाम चारित्र है। एवं ज्ञान मात्र से मोक्ष कहने से तो सिर मुंडाना, गेरुआ वेष, यम, नियम, जप, तप, दीक्षा आदि सब व्यर्थ हो जावेंगे।
दु:खादि की निवृत्ति होना मोक्ष है, ऐसा नैयायिकों का कहना है। अर्थात् मिथ्या ज्ञान का कार्य दोष, दोष का कार्य प्रवृत्ति, प्रवृत्ति का कार्य जन्म और जन्म का कार्य दु:ख नष्ट हो जाते हैं उसी का नाम मोक्ष है। इनके द्वारा मान्य सात पदार्थ और नव द्रव्य की कल्पना , ईश्वर सृष्टि की और समवाय की कल्पना ही गलत है तब उनके यहां मिथ्याज्ञान का अभाव असम्भव है। अत: इनके द्वारा मान्य मोक्ष के कारणों से जप ,तप दीक्षा आदि कुत्सित चारित्र से मोक्ष प्राप्त करना अशक्य है।
वैशेषिक
‘इच्छाद्वेषाभ्यामपरेषां’।४४। (तत्वार्थ. पृ. ११)
वैशेषिक का कहना है कि इच्छा और द्वेष से धर्म अधर्म की प्रवृत्ति, उनसे सुख दु:खरूप संसार। जिस पुरुष को तत्त्वज्ञान हो जाता है उसे इच्छा और द्वेष नहीं होते , इनके न होने से धर्म अधर्म नहीं होते , इनके न होने से नये शरीर और मन का संयोग नहीं होता , जन्म नहीं होता , और संचित कर्मों का निरोध हो जाने से मोक्ष हो जाता है। जैसे प्रदीप के बुझ जाने से प्रकाश का अभाव होता जाता है। अत: षट् पदार्थ का तत्व ज्ञान होते ही अनागत धर्म और अधर्म की उत्पत्ति नहीं होगी और संचित धर्माधर्म का उपभोग और ज्ञानाग्नि से विनाश होकर मोक्ष हो जाता है। अत: वैशेषिक मत में भी तत्वज्ञान से मोक्ष माना जाता है। वास्तव में इन वैशेषिक के मोक्ष कारण तत्व भी गलत है तत्त्वज्ञान मात्र से मोक्ष होना असंम्भव है यह बात ऊपर कही जा चुकी है, तथा इनके सोलह पदार्थों का ज्ञान तत्वज्ञान नहीं है क्योंकि सोलह पदार्थ वास्तविक नहीं हैं कल्पना से कल्पित हैं, अत: इनके द्वारा मान्य भी मोक्ष कारण तत्त्व बाधित है। इनका कहना है कि अदृष्ट के दो भेद हैं— धर्म, अधर्म। धर्म पुरुष का गुण है, कर्ता के प्रियहित और मोक्ष में कारण है, अतीन्द्रिय है, अन्तिम सुख का यथार्थ विज्ञान होने से इसका नाश होता है। जब तक तत्वज्ञान की पूर्णता नहीं होती तब तक धर्म का कार्य सुख बराबर चालू रहता है। तत्त्वज्ञान होने के बाद प्रारब्ध कर्मों के फल रूप अन्तिम सुख तक बराबर धर्म ठहरता है अन्तिम सुख के प्राप्त होने के बाद धर्म का तत्त्वज्ञान से नाश हो जाता है। यह तत्त्वज्ञान श्रुति स्मृति विहित मार्ग का पालन करने से अहिंसा आदि एवं विशेष रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि के पूजन अध्यन से उत्पन्न होता है अत: तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है। यह मान्यता पूर्वोंक्त प्रकार से गलत ही है।
मीमांसक— ‘कुमारिल भट्ट ने कहा है कि पुरुष की प्रीति को श्रेय कहते हैं’ यथा—
‘श्रेयो हि पुरुषप्रीति: सा द्रव्यगुणकर्मभि: । नोदनालक्षणै: साध्या तस्मादेष्वेधर्मता
(मी.श्लोक. चोदना सूत्र श्लो. १९१)
पुरुष की प्रीति को श्रेय कहते हैं यह प्रीति वेद वाक्यों से प्रतिपादित यज्ञादि में उपयुक्त होने वाले द्रव्य, गुण और क्रियाओं से उत्पन्न होती है अत: स्वर्गादि रूप प्रीति के साधन द्रव्य, गुण आदि में ही धर्मता है। मतलब ये मीमांसक सर्वज्ञ, ईश्वर को नहीं मानते हैं तब मोक्ष और उसके कारणों की बात ही खतम हो जाती है। ये सदा ही आत्मा को धर्म से स्वर्गादि सुख और अधर्म से नरकादि दु:ख की व्यवस्था कर देते है। बस इनके यहां बुद्धि में मीमांसा करने का ही अभाव है। ‘आत्मा नित्य अविनाशी द्रव्य है जो वास्तविक जगत् में वास्तविक शरीर के साथ संयुक्त रहता है मृत्यु के बाद भी यह अपने कर्मों के फलों का उपभोग करने के लिए विद्यमान रहता है, चैतन्य आत्मा का वास्तविक स्वरूप नहीं है, किन्तु औपाधिक है। सुषुप्तावस्था तथा मोक्षावस्था में आत्मा को चैतन्य नहीं रहता, क्योंकि उसके उत्पादक कारणों का अभाव हो जाता है जितने जीव हैं उतने ही आत्मा हैं।जीवात्मा बन्धन में आते हैं और उससे मोक्ष भी पा सकते हैं।’‘(भारतीय द.पृ.२११) वास्तव में मोक्षावस्था में जीवात्मा को चैतन्य शून्य मानना मतलब जीव के मोक्ष का अभाव सिद्ध कर देना है। प्राचीन मीमांसकों के मत में स्वर्ग ही जीव का चरम लक्ष्य माना गया है, इसलिए कहा गया है ‘स्वर्गकामो यजेत’ सभी कर्मों का अंतिम उद्देश्य है स्वर्ग प्राप्ति । परन्तु धीरे—धीरे मीमांसक गण अन्यान्य भारतीय दर्शनों की तरह मोक्ष—सांसारिक बंधनों से छूटकर मुक्ति को सबसे बड़ा कल्याण—नि:श्रेयस मानने लगे हैं। निष्काम धर्माचरण और आत्मज्ञान के प्रभाव से पूर्व कर्मों के संचित संस्कार भी क्रमश: लुप्त हो जाते हैं। तब इसके बाद पुनर्जन्म नहीं होता और कर्म का बन्धन छूट जाता है, परन्तु मीमांसक का यह मोक्षकारण तत्त्व ठीक नहीं है।
वैदान्तवादी
‘ब्रह्म स्वरूप में लय हो जाना ही मुक्ति है’ इस ब्रह्मालयावस्था के सिवाय अन्य किसी प्रकार की मुक्ति वेदान्तियों को इष्ट नहीं है। ये ‘भगवत्’ शब्द से पुकारे जाते हैं। इनके कुटीचर, बहूदक, हंस और परमहंस ये चार भेद होते हैं । हंस साधुओं को तत्वज्ञान हो जाता है तब ये परमहंस कहलाते हैं।‘‘परमहंसादित्रयाणं च कुटिसूत्रं न कौपीनं न वस्त्रं न कमंडलुर्न दण्ड: सार्ववर्णैकभैक्षाटनपरत्वं जात रूपधरत्वं विधि:’’।।ना.प.उ.५/१) परमहंसादि तीनों के कटिसूत्र, कौपीन, वस्त्र, कमंडलु नहीं होते हैं सभी वर्णों में भिक्षा ले लेते हैं जातरूपधारी होते हैं। इनके अध्ययन का एक मात्र विषय है वेदान्त। ये चारों ही मात्र ब्रह्माद्वैत की सिद्धि में अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं।’ (षड्द पृ.४३२) ब्रह्मसूत्र पर अनेक भाष्य लिखे गये हैं हर एक भाष्यकार एक—एक वेदान्त संप्रदाय के प्रवर्तक बन गये हैं इस तरह शंकर, रामानुज, मध्वाचार्य, बल्लभाचार्य, निंबार्क आदि के नाम पर भिन्न—भिन्न संप्रदाय चल पड़े हैं। शंकराचार्य के अनुसार जीव और ब्रह्म दो नहीं हैं, इनमें द्वैत नहीं है। अत: इनके मत का नाम ‘अद्वेत’ हैं। रामानुजाचार्य अद्वैत को स्वीकार करते हुये भी कहते हैं कि एक ही ब्रह्म में जीव तथा अचेतन प्रकृति भी विशेष रूप है, अनेक विशेषण विशिष्ट एक ब्रह्म को मानने के कारण इस मत का नाम पड़ा है ‘विशिष्टाद्वैत’ । मध्वाचार्य ब्रह्म और जीव को दो मानते हैं अत: इस मत का नाम ‘द्वैत’ है। निंवार्काचार्य का मत है कि जीव और ब्रह्म किसी दृष्टि से दो हैं, किसी दृष्टि से दो नहीं हैं। इस मत को द्वैताद्वैत कहते हैं । इसमें सबसे प्रसिद्ध है शंकर का अद्वैत और रामानुज का विशिष्टाद्वैत।
‘सहस्त्रशीर्षा पुरूष: सहस्राक्ष: सहस्रपात् ।
स भूमिंविश्वतो वृत्वा व्यतिष्ठद्दशाङ्गलुम् ।।१।।
पुरुष एवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भव्यं।
उतामृतत्त्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहित।।२।।
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुष:।
पादोऽस्य विश्वभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।।३।।
(ऋग्वेद, १।-६०)
पुरुष के सहस्रमस्तक, सहस्रनेत्र, सहस्र पैर हैं, वह समस्त पृथ्वी में व्याप्त है और उससे दश अंगुल पर भी है। जो कुछ होगा, सो सब वही पुरुष है, वह अमरत्व का स्वामी है, जितने अन्न से पलने वाले जीव हैं सबमें वही है, उसकी इतनी बड़ी महिमा है, वह उससे भी बड़ा पुरुष है, उसके एक पाद से संपूर्ण विश्व व्याप्त है और तीन पाद अमृत हैं जो द्युलोक में हैं, वही चारों ओर चराचर विश्व में व्याप्त है। आश्चर्य तो इस बात का है कि वैशेषिक और नैयायिक , ईश्वर को सृष्टि की रचना में निमित्त मानते है। सर्वेश्वरवादी ईश्वर को जगत का उपादान कारण मानते हैं , किन्तु ये वेदान्ती तों ईश्वर को जगत् का निर्माण करने में उपादान और निमित्त दोनों कारण मान लेते हैं। वैदिक ऋषि की दिव्य इतनी दूर तक पहुंच गई है कि एक ही मंत्र में उन्होंने अद्वैत, जगद्वैक्यवाद तथा निमित्तोपादानेश्वरवाद के तत्त्व भर दिये हैं। इस तत्त्व को कभी ‘ब्रह्म’ कभी ‘आत्मा’ कभी केवल ‘सत्’ कहा गया है। अर्थात् शरीर इन्द्रिय मन बुद्धि आदि वास्तविक आत्मा नहीं हैं, वे उसके बाह्य रूप हैं। सबका मूल आधार आत्म तत्व है, आत्मा शुद्ध चैतन्य स्वरूप है। सत्य, अनन्त और ज्ञान स्वरूप होने के कारण जो ही आत्मा मनुष्य में है वही सब भूतों में हैं । अतएव आत्मा परमात्मा एक ही है। इस आत्मज्ञान या आत्मविद्या को श्रेष्ठ विद्या कहते हैं। आत्म ज्ञान का साधन है काम क्रोधादि वृत्तियों का दमन करना एवं ब्रह्म का श्रवण, मनन, निदिध्यासन। जब तत्त्वज्ञान के द्वारा संस्कारों का लोप हो जाता है तब आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है। उपनिषदों का मत है कि कर्मकाण्ड के द्वारा जीवन के परम पुरुषार्थ की—अमरत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती है। केवल आत्मज्ञान या ब्रह्मविद्या के द्वारा ही पुनर्जन्म और तज्जन्य क्लेशों का अन्त हो सकता है । जो अपने को शाश्क्त ब्रह्म से अभिन्न समझ लेता है वही अमरत्व प्राप्त करता है। विषयों को भोग करने की वासनायें वे बेड़ियां हैं जो हमें जकड़कर सांसारिक बंधन में रखती है और जिनसे जन्म और मृत्यु एवं पुनर्जन्म का चक्र चलता रहता है। जब मनुष्य का हृदय वासना से रहित निष्काम हो जाता है तब वह इस जीवन में ब्रह्म में लीन हो जाता है। शैव, पाशुपत, कापालिक और कालामुख मतों के अनुसार जगत का उपादान कारण पंचभूत है एवं निमित्त कारण ईश्वर है, किन्तु वेदान्तियों के अभिप्राय से जगत् का उपादान और निमित्त दोनों ही कारण चित् रूप परमब्रह्म आत्मा ही है। इस प्रकार से कोरे वेदांत के अध्ययन से मुक्ति नहीं मिल सकती है यद्यपि उपनिषदों में ज्ञान मात्र से मुक्ति कही है फिर भी ज्ञान शब्द का अर्थ श्रुति का कोरा शब्द ज्ञान नहीं है। श्रवण—गुरु के उपदेश सुनना,। मनन— उन उपदेशों पर युक्ति पूर्वक विचार करना । निदिध्यासन—उन सत्यों का बारम्बार ध्यान करना। पूर्व संचित संस्कारों का नाश बारंबार ब्रह्म विद्या के अनुशीलन, तदनुकूल आचरण से होता है । आगे बढ़ते—बढ़ते जीव और ब्रह्म का भेद मिट जाने से उसी के साथ बंधन कटकर मोक्ष का साक्षात् अनुभव होता है।’’ (भारतीय द.) यह वेदांतियों द्वारा मान्य मोक्ष का कारण प्रारंभ में बड़ा सुन्दर लगता है, किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि जब एक ‘अद्वैतरूप ब्रह्म’ ही सिद्ध नहीं है, नाना जीवों की सत्ता पृथक्—पृथक् है तब उस ब्रह्म का श्रवण , मनन, चिंतन, ध्यान भी अविद्या का ही विलास है। इसलिये वैदांतियों द्वारा मान्य मोक्ष के कारण तत्त्व भी ठीक नहीं हैं।
जैनाचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता को मोक्ष की प्राप्ति का उपाय बतलाया है।
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतनोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ।।(रत्नकरण्ड श्रावकाचार)सच्चे आप्त, आगम और गुरु का श्रद्धान करना एवं तीन मूढता रहित आठ अंग सहित आठ मद रहित होना सम्यग्दर्शन है। ‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’ तत्वार्थ श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन के होने के बाद ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है पुन: रागद्वेष को दूर करने के लिये सम्यक् चारित्र ग्रहण किया जाता है। उसके दो भेद हैं। ‘सकलं विकलं चरणं’ पूर्ण पापों के त्यागी महाव्रती साधु सकल चारित्र धारण करने वाले हैं एवं श्रावक अणुव्रत रूप विफल चारित्र पालन करते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा चौथे गुणस्थान में सम्यक्तव पूर्ण हो गया, केवलज्ञान की अपेक्षा तेरहवें गुणस्थान में पूर्ण ज्ञान प्रकट हो गया है, चारित्र के अंतर्गत व्युपरतक्रिया निवृत्ति ध्यान की पूर्ति चौदहवें गुणस्थान के अंत में होकर चौहदवें गुणस्थान के बाद जीव मुक्त—सिद्ध होता है। अर्थात् इस मोक्ष के कारण भूत रत्नत्रय की पूर्णता चौहदवें गुणस्थान के अंत में होती है। तभी मोक्ष प्राप्त होता है। इसी बात को आप्त परीक्षा में श्री विद्यानंद आचार्य महोदय ने स्पष्ट किया है।
उसी प्रकार अयोगकेवली नामक चौहदवें गुणस्थान के अंतिम समय में होने वाले समस्त कर्मों के नाश रूप मोक्ष के मार्ग में वत्ति ‘साक्षात् मोक्षमार्गपना’ आदि तीन रूपता का व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि परमशुक्लध्यानरूप तपोविशेष का सम्यक्चारित्र में समावेश होता है। जो मात्र ज्ञान से या सम्यक्त्व से या चारित्र से या दो के मेल से मुक्ति मानते हैं, वह मान्यता गलत है। यहां यह बात निश्चित है कि ‘रत्नत्रय ही मोक्ष का मार्ग है’ एक दो आदि नहीं । कहा भी है—