तप
प्र. ५२६ : वैय्यावृत्ति का अर्थ व फल क्या है?
उत्तर : वैय्यावृत्ति अंतः प्रकाशन की एक प्रक्रिया है। इसका अर्थ सेवा सुश्रूषा, परोपकार, दया, कृपा, वात्सल्य, प्रेम, अनुराग आदि किया जा सकता है। वैय्यावृत्ति करने वाला त्याग करता है, दान करता है, समर्पण करता है तभी सफलता प्राप्त कर सकता है। ग्लानि को जीतता है, इससे निर्विचिकित्सा सम्यक्त्व का अंग पालित होता है। रोगी, वृद्ध, बाल आदि की सेवा करने से उनका धर्म पालित होता है, दृढ़ता आती है। उपसर्ग परिषह जय की योग्यता होती है। तद्नुसार वैय्यावृत्ति करने वाले को ये गुण अनायास प्राप्त हो जाते हैं। रोग, शोक, आधि, व्याधियों का शमन होता है क्योंकि सातावेदनीय का तीव्र आश्रव होता है। अभिप्राय सात्विक हो जाता है। जिनका पालन होने से सम्यग्दर्शन निर्मल एवं दृढ़ होता है। ज्ञान की वृद्धि एवं चारित्र की सिद्धि होती है।
प्र. ५२७ : अनशनादि तप को तप क्यों कहते हैं?
उत्तर : कर्म निर्दहनात् तपः ।
जिस प्रकार अग्नि इकट्ठे किये गये तृण आदि को जला डालती है। उसी प्रकार मिथ्यादर्शनादि से इकट्ठे किये गये कर्मों को यह तप भी नष्ट कर देता है इसलिये इसे तप कहते हैं। देहेन्द्रिय तापाद तपा। यह तप शरीर और इन्द्रियों को तपाता है। इसलिये अनशनादि को तप कहते हैं। उन शरीर और इन्द्रियों के तप जाने से इन्द्रियों को सुगम रीति से वश में किया जा सकता है।
प्र. ५२८ : वाणी संबंधी तप किसे कहते हैं |
उत्तर :
अनुवेगकरं वाक्यं, सत्यं, प्रियहितं च यत् ।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाड्मयं तप उच्यते।।
अर्थ दूसरे व्यक्ति को क्रोध न आये ऐसे वाक्य, सत्यवाक्य तथा प्रिय एवं हित में लगने वाले वाक्य बोलना और स्वाध्याय व पाठ आदि करना यह वाणी संबंधी तप कहलाता है।
प्र . ५२९ :अरहंत भगवान के ४८ गुणों में कितने पुण्याश्रित हैं और कितने गुण आत्माश्रित हैं?
उत्तर: अरहंत भगवान के ४७ गुण पुण्याश्रित है तथा अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख व अनंतवीर्य
ये चार आत्माश्रित गुण हैं।
प्र. ५३० अशोक वृक्ष प्रातिहार्य किसे कहते हैं?
उत्तर। अरहंत देव के र प्रातिहार्य होते हैं उसमें अशोक वृक्ष प्रथम है। जिस वृक्ष के नीचे भगवान को केवलज्ञान होता है, वह अशोक वृक्ष कहलाता है। वह अशोकवृक्ष अनेक मणियों से बने होते हैं। इसकी शाखाचे वैडूर्यभणि कसे होती है, पते हरित मणियों के बने होते हैं तथा वह कोमल-कोपल उपशाखाओं से
युक्त होता है। ऐसा शोभा सम्पन्न अशोक वृक्ष भक्तजनों के चित्त को आकर्षित करता है। प्र. ५३१ । उपवास से क्या लाभ होता है? क्या उससे शरीर को त्रास नहीं होता है?
उत्तर: उपवास के द्वारा मोह की मन्दता होती है। उपवास करने पर शरीर नहीं चलता। जब शरीर की सुचि नहीं रहती है, तो रूपया पैसा, बाल बच्चों की भी चिन्ता नहीं सताती है। उस समय मोह मंद होता है। आत्मा की शक्ति जागृत होती है। अपने शरीर की जब चिन्ता छूटती है तब दूसरों की क्या चिन्ता रहेगी?
इस विषय के स्पष्टीकरणार्थ महाराज ने एक कथा सुनायी।
एक समय एक हौज में पानी भरा जा रहा था। एक बंदरिया अपने बच्चे को कंधे पर रखकर उस हौज में थी। जैसे-जैसे पानी बढ़ता जा रहा था, वह गर्दन तक पानी आने के पूर्व बच्चे को कन्धे पर रखकर बचाती रही किन्तु जब जल की मात्रा बढ़ गई और स्वयं बंदरिया डूबने लगी तो उसने बच्चे को पैरों के नीचे दबा दिया और उस पर खड़ी हो गई जिससे वह स्वयं बच गयी। इतना महत्व स्वयं के जीवन पर होता है। शरीर के प्रति ममत्व भाव, मोहभाव, उपवास से छूटता है, यह क्या कम लाभ है?
प्र. ५३२ । पंचमगति को प्राप्त कराने वाला नायक किसे कहा गया है?
उत्तर विनय को निश्चित रूप से पाँचवीं गति अर्थात् मोक्षगति को प्राप्त कराने वाला नायक कहा है।
प्र. ५३३ : ज्ञानाचार व ज्ञानविनय में क्या अंतर है?
उत्तर कालशुद्धि आदि विषय अनुष्ठान में प्रयत्न करना काल नियम है तथा द्रव्य, क्षेत्र, भाव आदि के विषय में प्रयत्न करना, यह सब ज्ञानाचार है। काल शुद्धि आदि होने पर श्रुत पढ़ने का प्रयत्न करना ज्ञानविनय हैं और श्रुत के उपकरणों में अर्थात् ग्रंथ, उपाध्याय आदि में प्रयत्न करना श्रुत विनय है। (पृ. २९६
भावनासार)
५३४ : औपचारिक विनय किसे कहते हैं?
प्र. उत्तर : जो उपचार अर्थात् धर्मादि के द्वारा पर के मन पर अनुग्रह करने वाला होता है, वह औपचारिक
विनय है।
प्र. ५३५ । कायिक विनय के भेद व उनका स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : (१) अभ्युत्थान- गुरुओं को सामने आते हुये देखकर आदर से उठकर खड़े हो जाना, (२) सन्मति- शिर से प्रमाण करना, (३) आसन दान पीठ, काष्ठासन, पाटा आदि देना, (४) अनुप्रदान- पुस्तक पिच्छिका आदि उपकरण देना, (५) प्रतिरूप किया कर्म- यथायोग्य श्रुतभक्ति आदि पूर्वक कायोत्सर्ग करके वंदना करना अथवा गुरुओं की प्रकृति के अनुरुप, काल के अनुरूप और भाव के अनुरूप सेवा शुश्रुषा आदि क्रियाएँ
करना जैसे कि शीतकाल में उष्णकारी और उष्णकाल में शीतकारी आदि परिचर्या करना। अस्वस्थ अवस्था में उनके मल-मूत्रादि को दूर करना आदि, (६) आसन त्याग- गुरु के सामने उच्च स्थान पर नहीं बैठना, (७) अनुव्रजन उनके प्रस्थान करने पर साथ-साथ कुछ दूर तक जाना। इस प्रकार ये सात प्रकार के नियम हैं।
प्र. ५३६ : वाचिक विनय के भेदों को बतलाओ।
उत्तर : (१) हितभाषण धर्म संयुक्त वचन बोलना, (२) मितभाषण- जिसमें अक्षर अथवा बिना प्रयोजन के नहीं बोलना, (३) परिमित भाषण- कारण सहित वचन बोलना अथवा बिना प्रयोजन के नहीं बोलना, (४) अनुवीचि भाषण- आगम के अनुसार वचन बोलना, इस प्रकार वचन विनय ४ प्रकार का है।
प्र. ५३७ : मानसिक विनय भेदों का स्वरूप बतलाओ?
उत्तर: पापाश्रव करने वाले अशुभ मन को रोकना अर्थात् मन में अशुभ विचार नहीं लाना तथा धर्म में चित्त
को लगाना ये दो प्रकार के मनोविनय हैं।
५३८ : मानसिक विनय किसलिये किया जाता है?
प्र. उत्तर: विनय से रहित साधु का सम्पूर्ण श्रुत का अध्ययन निरर्थक है, विद्याध्ययन का फल विनय है। अभ्युदय तथा निश्रेयसरूप सर्वकल्याण को प्राप्त कर देना, विनय का फल है। अथवा पंचकल्याण की प्राप्ति होना भी विनय का फल है। विनय मोक्ष का द्वार है, विनय से संयम होता है, विनय से तप होता है और विनय से ज्ञान होता है। विनय से आचार्य और सर्व संघ आराधित किये जाते हैं। अर्थात् अपने ऊपर अनुग्रह करने वाले हो जाते हैं।
विनय से आचार गुण, जीव प्रायश्चित और कल्प प्रायश्चित के गुण तथा उनमें कहे हुये का अनुष्ठान, इन गुणों का प्रकटन होता है। विनय से आत्मशुद्धि अर्थात् आत्मा की कर्मों से मुक्ति होती है। कलह आदि का अभाव होता जाता है। माया और मान का निरसन होता है। लोभ का अभाव हो जाने से भारीपन का अभाव होता है। गुरु के प्रति भक्ति होने से गुरु सेवा भी होती है। विनय से सर्वव्यापी प्रताप और ख्याति रूप कीर्ति होती है। सभी के साथ मित्रता होती है। गर्व का मर्दन होता है। गुरुजनों में बहुमान अर्थात् पूजा या आदर मिलता है। तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है। गुणों की अनुमोदना की जाती है। ये सब विनय
के गुण हैं।
प्र. ५३९ : उपवास का महत्व बतलाइये।
उत्तर: एक दिन का उपवास भी कर्म को अच्छी तरह सताता है। आगे उससे कैवल्य की प्राप्ति होती है। जन्म-मरण का संकट टल जाता है। मुक्ति की प्राप्ति के लिये अभेद भक्ति की आवश्यकता है। अभेद भक्ति के लिये विरक्ति की आवश्यकता है। विरक्ति के लिये यथाशक्ति तप की आवश्यकता है। पहले पहल उपवास कष्टप्रद मालम होने पर भी बाद में उससे महान सुख की प्राप्ति होती है, कर्म शिथिल होता है, मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। यह भगवान आदिनाथ की आज्ञा है।
प्र. ५४० : वास्तव में कौन तपस्वी एवं शास्त्र के ज्ञाता हैं?
उत्तर : लोक में घोर तपश्चर्या करने से क्या प्रयोजन ? अनेक शास्त्रों के पठन से क्या मतलब? इस चंचल चित्त को जब तक वश में नहीं करते हैं तब तक उस तपश्चर्या व शास्त्रपठन का कोई प्रयोजन नहीं हैं। जो व्यक्ति उस चंचल चित्त को रोककर अपने आत्मविचार में लगाता है वही वास्तव में तपस्वी एवं शास्त्र ज्ञाता है।
प्र. ५४१ : स्वाध्याय व ध्यान में अंतर बतलाओ।
उत्तर अनेक प्रकार से तत्वचिन्तन करना स्वाध्याय है। एक ही विचार में मन को लगाना वह ध्यान है।
प्र. ५४२ : तपश्चर्या किसे कहते हैं?
उत्तर वायुदेव से जाने वाले इस चित्त को आत्ममार्ग में स्थिर करना यही श्रेष्ठ तपश्चर्या है।
प्र. ५४३: विनय का लक्षण और उसका फल बतलाइये।
प्र. ५४५३ हसीन सत्य, अचौर्य आदि सदाचार प्रवृत्ति, विद्याभ्यास और आयु से बड़े पुरुषों को नमस्कार आदि, वयोवृद्ध, हितैषियों की विनय से शिष्ट पुरुषों के द्वारा सम्मान मिलता है।
प्र. ५४४ : सबसे बड़ा तप क्या है और क्यों?
उत्तर: सबसे बड़ा तप सत्य है। कहा भी है-
सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जा के हिरदै साँच है ताके हिरदे आप।। सत्य से बढ़कर कोई तप, जप, नियम, संयम नहीं है। जिसके हृदय में सत्य सजग प्रहरी की भौति विराजमान रहता है, बुराइयों उसके हृदय में प्रवेश नहीं कर पातीं। उसके मन की सभी मलिनताएँ दूर हो जाती है और सत्य परमात्मा (शुद्ध आत्मा) उसमें विराजमान हो जाता है।
५४५ : अनशन तपाराधना किसे कहते हैं?
प्र. उत्तर : भोजन ग्रहण न करना अनशन है। अनशन का त्याग भी तीन प्रकार से होना चाहिये। (१) न भोजन करूँ न भोजन कराऊँ और भोजन करने वाले को अनुमति प्रदान ना करूँ। इस प्रकार मानसिक संकल्प का त्याग अनशन तप का एक प्रकार है, (२) मैं आहार लेता हूँ, तू भोजन कर, तुम पकाओ ऐसा बोलने का त्याग यह दूसरे प्रकार की अनशन त्याग विधि है, (३) चार प्रकार के आहार (भोजन) को संकल्पपूर्वक शरीर से ग्रहण करने का हाथ से इशारा करके दूसरों के आहार ग्रहण करने में प्रवृत्त कर देने
के कार्य में शरीर से सम्मति देने का त्याग करना अनशन तपाराधना है। प्र. ५४६ : आराधना, आराध्य, आराधक और आराधना का फल बतलाइये।
उत्तर : व्यवहार नय से सम्यग्दर्शनादि गुणों को प्रकट करने का जो प्रयत्न, विशेष पुरुषार्थ, विशेष उपाय है, वह आराधना है और सम्यग्दर्शनादि चारों, आत्मा के ही स्वभाव होने से, आत्मा से अभिन्न होने से आराध्य है। निरन्तर सल्लेखना में या साम्यभाव-वीतरागभाव में स्थित पुरुष विशेष आराधक है। समस्त कर्मों का क्षयरूप मोक्ष तथा संवर निर्जरा रूप कार्य आराधना का फल है।
प्र. ५४७ : वैय्यावृत्त किसे कहते हैं?
उत्तर : रोग, उपसर्ग, असंयम, मिथ्याज्ञान और परिषहों को विपत्ति कहते हैं। विपत्ति आने पर उसका
प्रतिकार करना वैय्यावृत्य है।
प्र. ५४८ : तप किसे कहते हैं?
उत्तर: तीन रत्नों को प्रकट करने के लिये इच्छानिरोध को तप कहते हैं।
प्र. ५४९ : व्रतपरिसंख्यान नाम तप का अर्थ बतलाओ ।
उत्तर: भोजन, भाजन, घट वाट (मुहल्ला) और दाता इनकी वृत्ति संज्ञा है। अर्थात् उस वृत्ति परिसंख्यात अर्थात् ग्रहण करना व्रतपरिसंख्यान है।
प्र. ५५० : उपवास का दूसरा नाम बतलाओ।
उत्तर: उपवास का दूसरा नाम अनशन व अनेषण भी है।
ReplyForwardAdd reaction |
93
ReplyForwardAdd reaction |
92
मर्यादा न
ReplyForwardAdd reaction |