—शंभु छंद—
‘पुरुदेव’ निलांजना नृत्य देख, वैराग्य भाव मन में लाये।
लौकांतिक सुर स्तुति करते, सुर सुदर्शना पालकि लाये।।
नक्षत्र उत्तराषाढ़ चैत वदि, नवमी सांयकाल समे।
छह मास योग ले दीक्षा ली, सिद्ध स्तुति कर सिद्धार्थ वन में।।
—दोहा—
चार सहस नृप उस समय, मुनी हुये बिन ज्ञान।
वंदूं तीर्थ प्रयाग को, मिटे मोह अज्ञान।।१।।
‘श्री अजित’ देख उल्का गिरना, विरक्त हुये सुरगण आये।
‘सुप्रभा पालकी’ में बैठा, प्रभु को सहेतुकी वन लाये।।
सुदि माघ नवमि अपराण्ह काल, रोहिणी नखत में तेला कर।
नृप सहस साथ दीक्षा ली तब, मनपर्र्यय ज्ञान हुआ सुखकर।।
नग्न दिगम्बर मुनि बने, अजितनाथ भगवान्।
सुरपति ने उत्सव किया, नमूं सुतप कल्याण।।२।।
वन शोभा विनशी देख विरक्त, हुये ‘संभव’ मगसिर पूनम१।
मृगशिर नक्षत्र प्रहर तीजे, ‘सिद्धार्था पालकि’ सजि उस क्षण।।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, उद्यान सहेतुक में प्रभु ने।
लौकांतिक सुर भी आये थे, प्रभु स्तुति की उस ही क्षण में।।
तेला करके लोच कर, नम: सिद्ध कह आप।
दीक्षा ले ध्यानस्थ थे, नमूं मिटे भव ताप।।३।।
‘अभिनंदन’ माघ सुदी बारस, नक्षत्र पुनर्वसु प्रात: में।
गंधर्व नगर का नाश देख, अनुरक्त हुये दीक्षा तिथि में।।
पालकी ‘हस्तचित्रा’ में बैठे, सुर ले गये उग्रवन में।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, तेला कर लीन हुये निज में।।
शचि ने चौक बनाइया, उस पर तिष्ठे आप।
वसन त्याग दीक्षा धरी, नमूँ नमूँ निष्पाप।।४।।
प्रात: बेला श्री ‘सुमतिनाथ’, जाति स्मृति से सु विरक्त हुये।
बैशाख नवमि सुदि मघा नखत, ‘अभयंकरि पालकि’ सुर सजिये।।
उद्यान सहेतुक में पहुँचे, इक सहस नृपति सह ली दीक्षा।
तेला कर ध्यान धरा प्रभु ने, मनपर्यय ज्ञान हुआ चौथा।।
रत्नचूर्ण के चौक पर, वस्त्राभरण उतार।
लोच किया दीक्षा धरी, नमूं करो भवपार।।५।।
श्री ‘पद्मनाथ’ जाति स्मृति से, वैराग्य पाय अपराण्ह विषे।
कार्तिक वदि तेरस में चित्रा, नक्षत्र ‘निवृतिकरि पालकि’ से।।
उद्यान मनोहर में पहुँचे, इक सहस नृपति सह दीक्षा ली।
तेला कर ध्यान सुलीन हुये, वंदत पाऊँ शिव पथ शैली।।
तीर्थंकर वैराग्य क्षण, इंद्रासन हो कंप।
तप कल्याण मनावते, वंदत चित्त अकंप।।६।।
जिनवर ‘सुपार्श्व’ लक्ष्मी वसंत, ऋतुनाश देख सु विरक्त हुये।
नक्षत्र विशाखा ज्येष्ठ सुदी, बारस प्रात: सुर पूज्य हुये।।
‘सुुमनोरमा पालकि’ में बैठे, सहेतुकी वन में पहुँचे।
इक हजार नृप सह दीक्षा ली, तेला कर ध्यान विषे तिष्ठे।।
प्रभु विरक्त मन जानकर, लौकांतिक सुर आय।
नानाविध स्तुति करी, वंदूं शीश नमाय।।७।।
‘चंदाप्रभु’ विद्युत अथिर देख, वैराग्य भाव में लीन हुये।
अपराण्ह पौष वदि एकादशि, अनुराधा नखत पवित्र किये।।
‘मनोहरा पालकि’ में चढ़ कर, सर्वार्थ वनी में पहुँच गये।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, सुरगण वंदित मुनि पूज्य हुये।।
तेला कर ध्यानस्थ हो, किया कर्म चकचूर।
जो नर नारी वंदते, करें मृत्यु को चूर।।८।।
प्रभु ‘सुविधिनाथ’ उल्का गिरते, देखा विरक्त अपराण्ह काल।
मगसिर सुदि एकम शुभ तिथि में, सुरनर विद्याधर पूज्य काल।।
‘रविप्रभा पालकी’ में बैठे, सुरगण ले गये पुष्पवन में।
इक सहस नृपति सह दीक्षा ली, पूजूँ तपलक्ष्मी को वरने।।
तेला करके योग में, लीन हुये भगवान्।
स्वात्म सुधारस पीवते, नमूँ नमूँ धर ध्यान।।९।।
‘शीतलजिन’ हिम का नाश देख, अपराण्ह विरक्त हुये जग से।
वदि बारस माघ पूर्वषाढ़ा, ‘पालकी शुक्रप्रभ’ में बैठे।।
उद्यान सहेतुक में जाकर, इक सहस नृपति सह ली दीक्षा।
तेला कर ध्यान निलीन हुये, मुझ को देवो संयम भिक्षा।।
परमानंदामृत चखें, स्वयं सिद्ध भगवान्।
वंदत मन शीतल करें, नमत बनें विद्वान्।।१०।।
‘श्रेयांस’ बसंत ऋतू लक्ष्मी का, नाश देख वैराग्य धरा।
फाल्गुनवदि ग्यारस श्रवण नखत, ‘पालकी विमलप्रभ’ देव धरा।।
उद्यान मनोहर में पहुँचे, पूर्वाण्ह तीन उपवास किया।
इक हजार नृप के साथ लिया, दीक्षा इंद्रों ने नमन किया।।
उग्र उग्र तपकर प्रभो, किया मोह का नाश।
मैं वंदूं नितभाव से, मिले सुज्ञान प्रकाश।।११।।
‘प्रभु वासुपूज्य’ जाति स्मृति से, वैराग्य भाव मन में लाये।
फाल्गुन वदि चौदश वीशाखा, नक्षत्र समय अपराण्ह भये।।
‘पुष्पाभा पालकि’ में चढ़कर, उद्यान मनोहर में पहुँचे।
छह शतक छियत्तर नृपति साथ, दीक्षा ली इक उपास१ करके।।
अंतर्मुहूर्त मात्र में, प्रगटा चौथा ज्ञान।
भाव शुद्धि प्रभु तुम सदृश, मिले नमूं धर ध्यान।।१२।।
‘जिन विमल’ मेघ का नाश देख, सुविरक्त चित्त अपराण्ह काल।
सुदि माघ चतुर्थी नखत उत्तरा-भाद्रपदा सुर नमित भाल।।
‘पालकी देवदत्ता’ में चढ़, उद्यान सहेतुक में पहुँचे।
तेला कर एक हजार नृपों, के साथ लिया दीक्षा विधि से।।
गुण अनंत के पुंजमय स्वात्म तत्त्व में लीन।
नमूँ आप दीक्षा दिवस, करूँ मोह को क्षीण।।१३।।
जिनवर ‘अनंत’ उल्का गिरने से, हो विरक्त अपराण्ह समय।
वदि ज्येष्ठ दुवादशि अपराण्हे, इंद्रादि देवगण करें विनय।।
‘सागरदत्तिका’ पालकी में चढ़-कर उद्यान सहेतुक में।
तेला कर इक हजार नृप सह, दीक्षा ली स्वयं मुनीश बने।।
सिद्धं नम: उच्चार कर, दीक्षा स्वयं धरंत।
नमूँ नमूँ प्रभु आपको, निजपद देव तुरंत।।१४।।
‘प्रभुधर्म’ सु उल्कापात देख, वैराग्यधरा अपराण्ह समय।
सुदि माघ त्रयोदशि पुष्प नखत, पालकी ‘नागदत्ता’ शुभमय।।
उस पर चढ़कर शालीवन में, इक सहस नृपों सह ली दीक्षा।
तुम केशलोच के केश सभी, सुर ने क्षीरोदधि में क्षेपा।।
सिद्धों को गुरु मानकर, धरा दिगम्बर वेष।
न्ामूँ नमॅूं शिर नायकर, नशें विघ्न घन शेष।।१५।।
‘श्री शांतिनाथ’ जातिस्मृति से, वैराग्य पाय साम्राज्य तजा।
भरणी नक्षत्र ज्येष्ठ कृष्णा, चौदश अपराण्ह समय तब था।।
‘सर्वार्थसिद्धिका’ पालकि में, चढ़कर पहुँचे सुआम्रवन में।
तेला कर इक हजार नृप सह, दीक्षाधारी मुनिनाथ बने।।
निजानंद में लीन हो, पूर्ण शांति को पाय।
नमूँ नमॅूं तुम पदकमल, सर्व अशांति पलाय।।१६।।
‘श्री कुंथुनाथ’ जातिस्मृति से सुविरक्त हुये अपराण्ह काल।
वैशाख शुक्ल एकम कृतिका नक्षत्र नमाते इंद्र भाल।।
‘विजया’ पालकि में चढ़े आप, सुर लेय सहेतुक वन पहुँचे।
तेला कर एक सहस नृप सह, दीक्षा ली सिद्ध नमन करके।।
इन्द्र पालकी आपकी, स्वयं धरें निजकंध।
लौकांतिक सुर भी नमें, नमूं हरो दुख द्वंद।।१७।।
‘अरनाथ’ मेघ का नाश देख, वैराग्य धरा अपराण्ह काल।
मगसिर सुदि दशमी नखत रेवती, नमूँ भक्ति से नमा भाल।।
पालकी ‘वैजयंती’ में प्रभु, बैठे सुर लिया सहेतुक वन।
तेला कर एकसहस नृप सह, दीक्षा ली मौन लिया शुभतम।।
जिस क्षण प्रभु वैराग्य हो, सुर आसन कंपंत।
सुरगण आ उत्सव करें, नमत मिले भव अंत।।१८।।
‘जिन मल्लिनाथ’ विद्युत अस्थिर, देखा विरक्त पूर्वाण्ह समय।
मगसिर सुदि ग्यारस नखत अश्विनी, सुरपती ने आ किया विनय।।
पालकी ‘जयंता’ में लेकर, सुरपति शालीवन पहुँच गये।
भोजन के बाद नृपति त्रय शत, दीक्षा ले तेला धार लिये।।
इंद्रों ने उत्सव किया, दीक्षा से धर प्रीत।
नमूूँ नमूँ मैं आपको, मिले स्वात्म नवनीत।।१९।।
‘मुनिसुव्रतजिन’ जाति स्मृति से, वैराग्य धार अपराण्ह समय।
वैशाख वदी दशमी नक्षत्र, श्रवण लौकांतिक किया विनय।।
‘अपराजिता’ पालकी से प्रभु को, ले गये देव नीलवन में।
दीक्षा ली एक सहस नृप सह, तेला कर तिष्ठे स्वातम में।।
इंद्राणी ने भक्ति से, वन में चौक बनाय।
प्रभु जी उस पर बैठकर, दीक्षा ली सुखदाय।।२०।।
‘नमिजिन’ जाति स्मृति से विरक्त, आषाढ़ वदी दशमी तिथि में।
अपराण्ह काल, अश्विनी नखत, बैठे ‘उत्तरकुरु’ पालकि में।।
ले गये देव चैत्र वन में, इक सहस नृपति सह ली दीक्षा।
तेला कर निश्चल खड़े हुये, ले लिया मौन केवलि तक१ का।।
नग्न वेष धारा प्रभो, वस्त्राभूषण त्याग।
वंदूं दीक्षा तिथि अबे, बढ़े स्वात्म अनुराग।२१।।
‘श्री नेमिनाथ’ पशु बंधे देख, जाति स्मृति पाय विरक्त हुये।
श्रावण सुदि छठ उत्तम तिथि में, सुर लौकांतिक नमन किये।।
पालकी ‘देवकुरु’ में बैठे, सहकार वनी में पहुँच गये।
इक सहस नृपों सह दीक्षा ली, तेला कर निज में लीन हुये।।
सुरपति ने उत्सव किया, नमूँ नमॅूँ मैं आप।
शिवकांता के हेतु प्रभु, दिया राजमति त्याग।।२२।।
‘प्रभु पार्श्वनाथ’ जातिस्मृति से, वैराग्य पाय पूर्वाण्ह उदे।
वदि पौष ग्यारसी तिथि शुभ थी, प्रभु ‘विमलाभा’ पालकी चढ़े।।
सुर ले पहुँचे अश्वत्थवनी, त्रयशत नृप साथ लिया दीक्षा।
बेला कर योग धरा तुमने, मुझको भी दो समरस भिक्षा।।
सुर असंख्य आये यहाँ, उत्सव किया अपूर्व।
मैं वंदूँ दीक्षा दिवस, होवे सौख्य अपूर्व।।२३।।
‘महावीर प्रभू’ जातिस्मृति से, वैराग्य धरा अपराण्ह समय।
मगसिर वदि दशमी तिथि उत्तम, सब ग्रह थे उत्तम श्रेष्ठ समय।।
‘चंद्राभा’ पालकि में बैठे, सुरपति ले गये नाथवन में।
प्रभु सिद्ध नमन कर दीक्षा ली, स्वयमेव अकेले मुनी बने।।
देव देवियां आयके, किया महोत्सव धन्य।
नमूँ नमूूँ प्रभु आपको, सुख दो स्वातम जन्य।।२४।।
जिन ऋषभ इक्षुरस का अहार, तेइस जिन खीर आहार लिया।
सब जिनकी प्रथम पारणा में, सुरगण ने पंचाश्चर्य किया।।
सन्मति के सब आहारों में, रत्नों की वर्षा खूब हुई।
अधिकाधिक बारहकोटि सु कम, से कम वह बारह लाख१कही।।
चौबिस जिन दीक्षा दिवस, नमूं भक्ति उरधार।
पाँच बालयति२ को नमूँ, मिले ‘ज्ञानमति’ सार।।२५।।