साधना का लक्ष्य कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करना है। कर्म-क्षय के लिए तप करना आवश्यक है क्योंकि तप के बिना कर्म-क्षय नहीं है और जिस क्रिया से कर्म-क्षय न हो, उसका नाम तप भी नहीं है इसीलिए भट्ट अकलंक देव ने तो कहा ही है कि जो कर्म-क्षय के लिए तपा जाय, वह तप है। आचार्य वीरसेन स्वामी का कहना है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को प्रगट करने के लिए इच्छा का निरोध तप है।’ वारसाणुपेक्खा में लिखा है कि पंचेन्द्रिय विषय और क्रोधादि चार कषाय का विनिग्रह करके ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मचिन्तन करना तप है। भगवती आराधना के अनुसार अकर्तव्य के त्याग रूप चारित्र में जो रागादि समस्त भाव इच्छाओं के त्याग से स्व-स्वरूप में प्रतपन विजयन करना तप है।
नीतिवाक्यामृत में आचार्य सोमदेव स्वामी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-पाँच इन्द्रियों-स्पर्शन आदि, इच्छाओं पर पूर्ण रूप से अंकुश लगाना तप है। इस प्रकार आचार्यों ने तप की विविध परिभाषाएँ लिखी हैं।
व्रत-ग्रहण और तप करने से इच्छाओं का निरोध होता है। इच्छाएँ आकाश की तरह अनन्त हैं, उन अनन्त इच्छाओं को रोकने का, निरुन्धन करने का कार्य तप करना है। तप से सभी इच्छाएँ नष्ट हो जाती हैं। जहाँ तक इच्छाएँ नहीं रुकतीं, वहाँ तक तपन नहीं है। मन में उद्दाम इच्छाएँ पनप रही हों और ऊपर से यदि त्याग कर भी दिया गया हो तो वस्तुत: वह त्याग भी नहीं है, वह तप नहीं, वह तो ताप है। तप धर्म साधना का प्राण है। संसार के पदार्थों को छोड़कर तपस्या को अंगीकार करना श्रेष्ठ है, किसी आचार्य ने कहा है कि समस्त सिद्धियाँ तप-मूलक हैं। आचार्य नेमिचन्द्र ने स्पष्ट रूप से लिखा है-‘जितनी भी लब्धियाँ हैं, वे तप से ही प्राप्त होती हैं। तप से आत्मा में एक अद्भुत तेज का संचार होता है इसलिए आचार्यश्री अमृतचन्द्रदेव ने तप को स्वीकार करने को कहा है। बौद्ध साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि तथागत बुद्ध ने अपने साधना-काल के प्रारंभ में छ: वर्ष तक बहुत ही उग्र तप की साधना की थी (मज्झिमनिकाय) जिससे उनका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था, उन्होंने केशलुंचन आदि भी किया था।
उन्होंने अनशन तप की उपेक्षा कर उसे पूर्ण रूप से न मानकर मध्यमार्ग का उपदेश दिया किन्तु तप का सर्वथा निषेध नहीं किया; उन्होंने तप के लिए चार सर्वश्रेष्ठ स्थानों का निर्देश दिया। तथागत ने यह भी कहा कि मैं श्रद्धा का बीज-वपन करता हूँ और तप की उस पर दृष्टि होती है। एक बार बुद्ध ने राजा बिम्बसार से कहा-मैं तपस्या करने के लिए जा रहा हूँ क्योंकि उस मार्ग में मेरा मन लगता है। अंगुत्तरनिकाय के दिट्ठिबद्ध सुत्त में तप और व्रत करने की पे्ररणा दी है। संयुक्तनिकाय में कहा है कि तप और ब्रह्मचर्य बिना पानी के ही अन्तरंग स्नान है, जो जीवन के विकारों के मल को धोकर साफ कर देता है। उक्त कथनों से स्पष्ट है कि बौद्ध साहित्य में भी तप का विशेष महत्त्व प्रतिपादित है।
वैदिक साहित्य में तप का वर्णन भरा पड़ा है। वैदिक संहिताओं में तप के अर्थ में ‘तेजस्’ शब्द व्यवहृत है। जीवन को तेजस्वी और वर्चस्वी बनाने के लिए तप की साधना के लिए प्रेरणा दी गई है। शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि तप रूप तेज शक्ति से मानव संसार में विजयश्री को वरण करता है और समृद्धि उसके चरण चूमने को लालायित रहती है। कृष्ण-यजुर्वेद तैत्तिरीय ब्राह्मण में उल्लेख मिलते हैं कि प्रजापति ने तप किया और उसी के प्रभाव से सृष्टि की। ऋषियों ने भी कहा कि तप ही मेरी प्रतिष्ठा है। श्रेष्ठ और परम ज्ञान तप से ही प्रगट होता है। इसी प्रकार सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथों और वैदिक पुराण व आयुर्वेद शास्त्रों में भी तप की महिमा वर्णित है। यह भारतीय संस्कृति का प्राणतत्त्व है अत: विस्तार से वर्ण्य है।
चारित्र मोक्ष प्राप्ति का चरम साधन है अत: मुमुक्षुओं के कल्याणार्थ सभी श्रावकाचार एवं समाचार सम्बन्धी ग्रन्थों में चारित्र का वर्णन किया है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय के अन्त में चारित्र का वर्णन करते हुए तप का सेवन करने के लिए कहा है-
चारित्रान्तर्भावात् तपोऽपि मोक्षांगमागमे गदितम्।
अनिगूहितनिजवीर्यैस्तदपि निषेव्यं समाहितस्वान्तै:। ।
सम्यक्चारित्र में गर्भित होने से तप भी आगम में मोक्ष का अंग कहा गया है इसलिए वह तप भी अपनी शक्ति को नहीं छिपाने वाले और अपने मन को वश में रखने वाले पुरुष के द्वारा सेवन योग्य है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव का भाव है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए तप भी विशेष हेतु है। बिना तप अंगीकार के कर्मों की निर्जरा अशक्य है। मोक्षाभिलाषी को मन को वश में रखकर शक्ति को न छिपाकर तप अवश्य ही करना चाहिए । तत्त्वार्थसूत्रकार ने ‘तपसा निर्जरा च’ इस सूत्र के द्वारा तप को संवर और निर्जरा का मुख्य कारण बताया है । तप के बिना मोक्षमार्ग ही प्रशस्त नहीं होता । तप सम्यक्चारित्र में अन्तर्भूत है। चारित्र के बिना मुक्ति नहीं है और तप के बिना चारित्र नहीं है अत: जो तप की उपेक्षा करते हैं, तप को भी क्रियाकाण्ड जैसे शब्द से व्यवहृत करते हैं, उन अज्ञानियों को संबोधन करते हुए आचार्य कहते हैं कि तप को क्रियाकाण्ड कहकर निज आत्मा के शत्रु मत बन जाना। जो संयम चारित्र की अवहेलना कर रहा है ज्ञान की अवहेलना कर रहा है, वह अपनी आत्मा का घात अपने द्वारा ही कर चुका है। हाँ, यदि वह तप परमार्थ से शून्य है तो क्रियाकाण्ड है क्योंकि जो व्रती शील व संयम को धारण करके भी परमार्थ से शून्य होते हैं वे निर्वाण को प्राप्त नहीं कर पाते हैं। परमार्थ से शून्य होकर जो कुछ भी करोगे, वह सब संसार का हेतु बनेगा। जो तप को मोक्षमार्ग नहीं मानता है वह जैन आगम से बाह्य अर्थात् मिथ्यादृष्टि है।
यहाँ आचार्य तप के माध्यम से सम्यक् तप की चर्चा कर रहे हैं, जो कषायों का उपशमन कर जैनाचार्यों द्वारा बताये गये तप की आराधना करता है, वही मोक्षमार्गी है। वर्तमान में नाना भेष बनाकर कठोर से कठोर क्रियाओं को करते हुए खोटा तप तपा जा रहा है, उससे संसार समाप्त होने वाला नहीं है इसलिए जिनमत में प्रतिपादित तप का आचरण ही कर्म-क्षय का निमित्त है।
तप मुख्य रूप से मुनि आचरण का विषय है। मुनि ही महाव्रती कहा गया है और उसके द्वारा ही निर्दोष रीति से तप की साधना की बात शास्त्रों में कही गयी है।
आत्मशोधन की साधनभूत प्रक्रिया-तप को बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। आचार्य अमृतचन्द्रदेव पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में सकल चारित्र के प्रतिपादन में अनशन, अवमौदर्य, विविक्त शय्यासन, रसत्याग, कायक्लेश, वृत्ति परिसंख्यान को बाह्यतप कहा है। इनसे मन अशुभ को प्राप्त नहीं होता है।
बाह्य तपों और अभ्यन्तर तपों की संख्या और संज्ञा तो सभी आचार्यों ने समान रूप से स्वीकार की है किन्तु क्रम में भेद पाया जाता है, जैसे मूलाचारकार ने निम्न क्रम लिखा है-
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ व वुत्ति परिसंख्या।
कायस्स व परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठी।।
अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेश तथा विविक्तशय्यासन-ये बाह्य तप के छह भेद हैं।
तत्त्वार्थसूत्रकार के अनुसार ‘अनशनावमौदर्यवृतिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा: बाह्यं तप:’-ये छ: बाह्य तप हैं।
मूलाचार की परम्परा का अनुसरण तत्त्वार्थसूत्रकार ने संज्ञा के अर्थ में किया है किन्तु मूलाचार में कायक्लेश का उल्लेख पाँचवें क्रम पर और विविक्त शय्यासन का छठें स्थान पर है। तत्त्वार्थसूत्र में विविक्तशय्यासन को पाँचवें स्थान पर रखा है और कायक्लेश को छठे स्थान पर रखा है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में विविक्तशय्यासन को तृतीय स्थान पर, कायक्लेश को पाँचवें स्थान पर तथा वृत्तिपरिसंख्यान को छठे स्थान पर रखकर तत्त्वार्थसूत्र के क्रम को औचित्यपूर्ण सिद्ध करते हैं क्योंकि वृत्तिपरिसंख्यान का संबन्ध आहारचर्या से औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है। विविक्तशय्यासन के बाद कायक्लेश भी संगतिपूर्ण है।
अनशन-खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहारों का सर्वथा परित्याग कर देना अनशन है। धवला, तत्वार्थ वार्तिक’ आदि ग्रन्थों में अनशन का विशेष वर्णन है।
अवमौदर्य-भूख से एक ग्रास, दो ग्रास, तीन ग्रास आदि क्रम से भोजन घटाकर लेना। घटते-घटते एक ग्रास मात्र लेना अवमौदर्य तप है। यह संयम की जागरुकता, दोषप्रशम, सन्तोष, स्वाध्याय और सुख की सिद्धि के लिए किया जाता है।
विविक्त शय्यासन-अध्ययन और ध्यान में बाधा करने वाले कारणों के समूहरहित विविक्त/एकान्त एवं पवित्र स्थान में शयन करना, बैठना आदि जो है, वह विविक्तशय्यासन तप है। विविक्त (एकान्त) में सोने-बैठने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है, ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि होती है और गमनागमन के अभाव से जीवों की रक्षा होती है।
शास्त्रों में शून्य घर, पहाड़ी की गुफा, वृक्ष का मूल, देवकुल, शिक्षाघर, किसी के द्वारा न बनाया गया स्थान, आराम घर, क्रीड़ा के लिए आये हुए के आवास के लिए बनाया गया स्थान, ये सब विविक्त वसतिकाएँ हैं। ऐसी वसतिका में रहने वाला साधक कलह आदि दोषों से दूर रहता है। ध्यान-अध्ययन में बाधा को प्राप्त नहीं होता। जहाँ स्त्री, नपुंसक और पशु न हों तथा उद्गम, उत्पादन दोष से रहित वसतिका हो वहीं साधु को रहना चाहिए, जहाँ राग परिणाम बढ़े और गृहस्थों का वास हो-‘‘तिर्यंच-गाय-भैंस आदि, मनुष्य, स्त्री, स्वेच्छाचारिणी वेश्या आदि, भवनवासिनी, व्यन्तर आदि, विकारी वेशभूषा वाली देवियाँ अथवा गृहस्थजन सहित गृहों को अर्थात् वसतिकाओं को छोड़ देना चाहिए।”
रसत्याग-रसों के त्याग को रसत्याग कहा जाता है। दूध, दही, घी, तेल, शक्कर और नमक तथा घृतपूर्ण अपूप, लड्डू आदि का त्याग करना, इनमें एक-एक रस का या सभी रसों का छोड़ना तथा तिक्त, कटुक, कषायले, खट्टे और मीठे इन रसों का त्याग करना रसपरित्याग है। इन्द्रियों के जीतने वाले मुनिराज घृतादि गरिष्ठ रसों के त्यागी होते हैं।
तत्त्वार्थवार्तिककार ने रसों के भेद न गिनकर ‘घृतादिरसव्यंजन’ घृत, दही, गुड़, तेल आदि रसों को छोड़ना रसत्याग है’’ इतना ही कहा है, साथ में प्रश्न किया है कि जितनी भी पौद्गलिक वस्तुएँ हैं, सभी रस वाली हैं, उन सब का उल्लेख होना चाहिए, तब भट्ट श्री अकलंकदेव ने उत्तर दिया कि यहाँ विशेष रस से प्रयोजन है कि जो रस इन्द्रियों को विशेष रीति से लालायित करने वाला है, उसी का त्याग आवश्यक है। तत्त्वार्थसार में नमक को रस नहीं गिनाया। मात्र तेल, क्षीर, इक्षु, दधि और घी को लिया है। तत्त्वार्थवार्तिक में नमक का ग्रहण किया गया है। इस तप से प्रबल इन्द्रियों की विजय होती है। रस ऋद्धि आदि महाशक्तियाँ प्ा्रगट होती हैं और सज्जनों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कायक्लेश-अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रखना, आतापन, वृक्षमूल, सर्दी में नदी तट पर ध्यान करना आदि क्रियाओं से शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप है। मूलाचार में कहा है-‘‘खड़े होना, कायोत्सर्ग करना, सोना, अनेक विधि नियम ग्रहण करना और इन क्रियाओं के द्वारा आगमानुकूल कष्ट सहन करना, यह कायक्लेश तप है।’’ इस तप को आसन, शयन आदि क्रियाओं के माध्यम से करना चाहिए, आसन-वीरासन, स्वस्तिकासन, वज्रासन, पद्मासन, हस्तिशुण्डासन आदि। शयन-शव-शय्या, गो-शय्या, दण्ड-शय्या तथा चाप-शय्या आदि। इनके सिवाय शरीर से ममत्व छोड़कर श्मशान आदि में कायोत्सर्ग से खड़े रहना काय-क्लेश-तप के प्रकार है। दातून नहीं करना, खुजली, स्नान तथा झुकने का त्याग, रात में जागते रहना और केशलोच-ये सब कायक्लेश कहे गये हैं। कायक्लेश तप करने से बल ऋद्धि आदि अनेक महाऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाला सुख प्राप्त होता है और कामेन्द्रिय पर विजय होती है, विषय-सुखों में आसक्ति नहीं होती है तथा धर्म की प्रभावना होती है।
वृत्ते: संख्या (वृत्ति परिसंख्यान)-कठिनता से आहार प्राप्त होने के लिए प्रतिज्ञा कर लेना अथवा इस प्रकार पड़गाहन होगा तो आहार लूँगा, अन्यथा नहीं, इस प्रकार की प्रतिज्ञा लेना वृत्तिपरिसंख्यान है। एक घर, सात घर, एक गली, अर्द्धग्राम आदि के विषय का संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। घरों, दाता, बर्तनों या भोजन का नियम भी वृत्तिपरिसंख्यान तप है। यह तप आशा, तृष्णा की निवृत्ति के लिए किया जाता है। वृत्तिपरिसंख्यान तप करने से योगियों में धीर-वीरता उत्पन्न होती है। आशा और अन्तराय कर्म नष्ट होते हैं। लोलुपता का भी विनाश होता है।
बाह्य तपों के विवेचन के बाद अन्तरंग तपों का वर्णन पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में किया गया है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रदेव अभ्यन्तर तपों के भेदों का उल्लेख कर उन्हें पालने को कहते हैं-
विनयो वैयावृत्यं प्रायश्चित्तं तथैव चोत्सर्ग:।
स्वाध्यायोऽथ ध्यानं भवति निषेव्यं तपोऽन्तरंगमिति।।
विनय, वैय्यावृत्य, प्रायश्चित्त, उत्सर्ग, स्वाध्याय और ध्यान आदि इन अन्तरंग तपों का सेवन करना चाहिए ।
पूर्वाचार्यों ने बाह्य तपों के समान अन्तरंग तपों के नाम तो समान ही दिए हैं किन्तु क्रम में भिन्नता है।
आचार्य श्री वट्टकेर-प्रायश्चित्त, विनय, वैय्यावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग; आचार्य उमास्वामी-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान; आचार्य अमृतचन्द्र-विनय, वैयावृत्य, प्रायश्चित्त, उत्सर्ग, स्वाध्याय, ध्यान।
इनमें केवल व्युत्सर्ग और उत्सर्ग शब्द का अन्तर है ।
ये प्रायश्चित्त आदि अन्य धर्मावलम्बियों के द्वारा अनभ्यस्त हैं, उनसे नहीं किये जाते हैं, अत: इनको उत्तर और अभ्यन्तर तप कहते हैं। वे प्रायश्चित्तादि तप अन्तःकरण के व्यापार का अवलम्बन लेकर होते हैं इसलिए इनके अभ्यन्तरत्व है अथवा वे प्रायश्चित्तादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखते हैं इसलिए इन्हें अभ्यन्तर तप कहते हैं।
विनय-विनीत होना विनय है, कषाय और इन्द्रियों का मर्दन करना विनय है अथवा विनय के योग्य गुरुजनों के विषय में यथायोग्य नम्र भाव रखना विनय है। दर्शन, ज्ञान, तप, चारित्र, उपचार के भेद से चार प्रकार का है और तप को मिलाकर पाँच प्रकार का है।
वैय्यावृत्य-आपत्ति का प्रतिकार करना वैयावृत्य है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, तप, ध्यान, अध्ययन आदि साधर्मियों के कार्य के लिए पुस्तक आदि उपकरणों को देना, इन शास्त्रों की व्याख्या करना, धर्मोपदेश देना तथा युक्तिपूर्वक और भी साधर्मियों की सहायता करना तथा वह सहायता बिना किसी बदले की इच्छा के करना, सो सब वैयावृत्य कहलाता है। मूलाचार में कहा है-
आइरियादिसु पंचसु सबाल बुड्ढा उलेसु गच्छेसु।
वेज्जावच्चं वुत्तं कादव्वं सव्वसत्तीए।।
आचार्य आदि पाँचों में, बाल-वृद्ध से सहित गच्छ में वैयावृत्य को कहा गया है, सो सर्वशक्ति से वैय्यावृत्य करना चाहिए।
तप और त्याग आचार्यों ने शक्ति के अनुसार करने को कहा है किन्तु वैयावृत्ति में सर्वशक्ति से करने का विधान है। इससे वैय्यावृत्ति के विशेष महत्त्व को सूचित किया है।
यहाँ विनय के बाद वैयावृत्य रखने का मुख्य कारण है कि अहंकारी किसी की सेवा नहीं कर सकता है। आचार्य श्री वट्टकेर’ और ‘‘आचार्य श्री उमास्वामी” ने वैयावृत्य के दस भेद बतलाये हैं। तपस्वियों की वैयावृत्ति का फल स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति है।
प्रायश्चित्त-शिष्य चित्त की शुद्धि के लिए तो स्वयं ही गुरु चरणों में दण्ड लेने के लिए जाता है और कहता है कि प्रभु! मुझे शुद्ध करो, जिसकी आत्मा में विशुद्धता नहीं है उसके प्रायश्चित्त लेने के परिणाम कभी नहीं होते, निज चित्त की शुद्धि जिससे हो, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। गुरु से प्रायश्चित्त भी लिया और चित्त की मलिनता दूर नहीं हुई तो ऐसे प्रायश्चित्त लेने से क्या लाभ ?…. इसके स्वरूप पर चर्चा पूर्वग्रन्थों के आधार पर करना भी प्रासंगिक है। आचार्य श्री वट्टकेर स्वामी अपर नाम श्री कुंदकुंदचार्य ने मूलाचार में लिखा है-‘अपराध को प्राप्त हुआ जीव जिस तप के द्वारा अपने पूर्व संचित पापों से विशुद्ध हो जाता है वह प्रायश्चित्त है, जिससे स्पष्टतया पूर्व के व्रतों से परिपूर्ण हो जाता है वह तप भी प्रायश्चित्त कहलाता है। आचार्य वीरसेन ने कहा है संवेग और निर्वेद से युक्त, अपराध करने वाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है, वह प्रायश्चित्त नाम से तप: कर्म है। इसके आलोचना-प्रतिक्रमण-तदुभय-विवेक-व्युत्सर्ग-तप-छेद-परिहार-उपस्थापना आदि ९ भेद हैं।
व्युत्सर्ग-निजस्वभाव की लीनता ही व्युत्सर्ग तप है । बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रहों का ममत्व त्याग कर तथा शरीर छोड़कर सज्जन पुरुष जो ध्यानपूर्वक स्थिर विराजमान होते हैं, वह व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग तप है।
शरीर के प्रति ममत्व तथा अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह के समागम का त्याग करना मुनि का व्युत्सर्ग तप है। जो शरीर से पूर्णतया निर्ममत्व होते हैं उन साधुओं के उत्सर्ग तप है, जो शरीर-पोषण में लगा रहता है, उसके यह तप वैâसे होगा ?…. इसके दो फल हैं। इस तप के प्रभाव से कर्म क्षय होते हैं एवं ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
स्वाध्याय-स्वयं के अध्याय का अध्ययन जिसमें हो, उसका नाम स्वाध्याय है। वट्टकेर आचार्य कहते हैं कि जिनोपदिष्ट बारह अंगों और चौदह पूर्वों का उपदेश करना, प्रतिपादन आदि करना स्वाध्याय है। यह परम तप है क्योंकि कर्मों की निर्जरा का जितना समर्थ कारण स्वाध्याय है, उतना अन्य तप नहीं। स्वाध्याय की महिमा शास्त्रों में विस्तार से वर्णित है। स्वाध्याय के पाँच भेद-वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश हैं। स्वाध्याय का फल केवलज्ञान प्राप्ति कहा गया है। आचार्य सकलकीर्ति का कहना है ‘‘जो मुनि श्रेष्ठ कालशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि और श्रेष्ठ भावशुद्धि को धारण कर स्वाध्याय में सिद्धान्त ग्रन्थों का पठन-पाठन करते हैं, उनको समस्त ऋद्धि आदि श्रेष्ठ गुणों के साथ समस्त श्रुतज्ञान प्राप्त हो जाता है अत: स्वाध्याय नियमपूर्वक करना परमावश्यक है।
ध्यान-ध्यान के सम्बन्ध में जैनाचार्यों ने स्वतंत्र ग्रंथों की रचनाएँ की हैं अत: ध्यान का महत्त्व अपने आप सिद्ध होता है। विचार यह करना है कि किसका ध्यान, कौन सा ध्यान कार्यकारी है ?….इस प्रश्न का आचार्य श्री उमास्वामी द्वारा समाधान दिया गया कि ‘उत्तम संहनन वाले का एक विषय में चित्तवृत्ति का रोकना ध्यान है, जो अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है’ अर्थात् उत्तम संहननधारी पुरुष ही ध्याता हो सकते हैं। एक पदार्थ को लेकर चित्त को उसी में स्थिर कर देना ध्यान है। ध्यान के आर्त्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ये चार भेद हैं। अन्य प्रकार से निश्चयध्यान और व्यवहारध्यान अथवा प्रशस्तध्यान और अप्रशस्तध्यान रूप से भी भेद बताये गये हैं। आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल के भी चार भेद हैं। प्रथम दो ध्यान संसार के कारण हैं और बाद के धर्म्य तथा शुक्ल मोक्ष के कारण हैं, इस प्रकार बाह्य तप और अभ्यन्तर तपों का सर्वजन-संवेद्य प्रतिपादन किया गया। दोनों प्रकार के तपों की साधना के बिना न मोक्षमार्ग है और न मोक्ष की प्राप्ति है।
बहिरंग तपों के बाद अन्तरंग तप तपने में कारण-कार्य सम्बन्ध दिखाकर आचार्यों ने सुन्दर व्याख्यान किया है- बहिरंग तप क्यों करें ?… अन्तरंग की सिद्धि के लिए जैसे-वटलोई तपाते हो, पर वटलोई को तपाने-मात्र पर दृष्टि नहीं है, दृष्टि दूध पर है उसी प्रकार मुमुक्ष जीव बहिरंग तप करता जरूर है लेकिन दृष्टि अन्तरंग आत्म-रूप दुग्ध को शुद्ध करने की होती है। वटलोई के तपे बिना दुग्ध तपता भी तो नहीं है। यहाँ बहिरंग और अन्तरंग दोनों प्रकार के तपो की उपादेयता दिखलायी गई है, जो सर्वथा उचित है।
अन्तरंग तप के बिना बहिरंग तप तो महत्वहीन होता है क्योंकि यह सुनिश्चित है कि बहिरंग तपस्या से मुनिराज तो बनते हैं परन्तु गुणस्थान तभी बनता है जब बहिरंग में निर्ग्रंथभेष तथा अन्तरंग में तप होता है और वही तपस्वी है। तपस्वी की बाह्य तप साधना संक्लेशों का निवारण कराती है और अभ्यन्तर तप मनःशुद्धिपूर्वक आत्मशुद्धि में कारण होते हैं इसीलिए तप को आत्मोत्थान का प्रशस्त पथ कहना सयुक्तिक ही है। तप साधु जीवन का सर्वस्व है। वे तप साधना के द्वारा सकलविभूति के स्वामीपने को प्राप्त हो सकते हैं। यह सब माहात्म्य तप साधना का ही है। तप की उत्कृष्ट आराधना और साधना से तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद की भी उपलब्धि होती है।