परवस्तु की आसक्ति से रहित होना ही, आत्मा का निराहाररूप वास्तविक तप है। अस्तु, जो श्रमण भिक्षा में दोषरहित शुद्ध आहार ग्रहण करता है, वह निश्चय दृष्टि से अनाहार (तपस्वी) ही है। विषयकषायविनिग्रहभावं, कृत्वा ध्यानस्वाध्यायान्। य: भावयति आत्मानं, तस्य तप: भवति नियमेन।।
इन्द्रिय—विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है, उसी के तप धर्म होता है। यत्र कषायनिरोधो, ब्रह्म जिनपूजनम् अनशनं च। तत् सर्वं चैव तपो, विशेषत: मुग्धलोके।।
जहां कषायों का निरोध, ब्रह्मचर्य का पालन, जिनपूजन तथा अनशन (आत्मलाभ के लिए) किया जाता है, वह सब तप है। विशेषकर मुग्ध अर्थात् भक्तजन यही तप करते हैं। ये प्रतनुभक्तपाना:, श्रुतहेतोस्ते तपस्विन: समये। यच्च तप: श्रुतहीनं, बाह्य: स क्षुदाहार:।।
जो शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) के लिए अल्प–आहार करते हैं, वे ही आगम में तपस्वी माने गए हैं। श्रुतिविहीन अनशन तप तो केवल भूख का आहार करना है, भूखे मरना है। तेषामपि तपो न शुद्धं, निष्क्रान्ता: ये महाकुला:। यद् नैवाऽन्ये विजानन्ति, न श्लोकम् प्रवेदयेत्।।
उन महाकुल वालों का तप भी शुद्ध नहीं है, जो प्रव्रज्या धारण कर पूजा—सत्कार के लिए तप करते हैं। इसलिए कल्याणार्थी को इस तरह तप करना चाहिए कि दूसरे लोगों को पता तक न चले। अपने तप की किसी के समक्ष प्रशंसा भी नहीं करनी चाहिए। तं जइ इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। तो तव संजमभंडं, सुविहिय ! गिण्हाहि तुरंतो।।
हे सुविहित ! यदि तू घोर भवसमुद्र के पार तट पर जाना चाहता है तो शीघ्र ही तप—संयम रूपी नौका को ग्रहण कर।