सुमन-सुधा जीजी! भादों का महीना आ गया है, पुराने विचार वाली महिलाओं ने व्रत-उपवास आदि कर करके अपना शरीर सुखाना शुरू कर दिया है। मैं तो उनकी खूब ही खिल्ली उड़ाती रहती हूँ। भला, व्रत-उपवास से कहीं मोक्ष मिलता है? फिर बाह्य तप तो सर्वथा निरर्थक ही है!
सुधा-सुमन! ऐसा नहीं कहना, तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने भी पूर्वभवों में बाह्य तप का खूब ही अनुष्ठान किया था। हरिवंशपुराण में देखो, भगवान नेमिनाथ ने पूर्वभव में कितने प्रकार के तपों का अनुष्ठान किया है तथा केवल बाह्य तप भी निरर्थक नहीं है, किन्तु महाफलदायी है। सुनो, तुम्हें मैं एक रोचक कथा सुनाती हूँ। विदेह क्षेत्र में पुण्डरीक नाम का एक देश है। उसके चक्रधर नामक नगर में त्रिभुवनानन्द नाम का चक्रवर्ती छह खण्ड पृथ्वी पर एक छत्र अनुशासन करता हुआ स्थित था। उसकी अनंगशरा नाम की एक कन्या थी, जो कि सर्व गुणों से मण्डित और सौन्दर्य की एक अपूर्व सृष्टि थी। चक्रवर्ती का एक पुनर्वसु नाम का सामन्त था, जो कि प्रतिष्ठपुर नगर का स्वामी था। उस कन्या के सौन्दर्य पर आसक्त हो उसने किसी समय उसका अपहरण कर लिया और विमान पर बिठाकर आकाश मार्ग से भागा। क्रोध से भरे चक्रवर्ती की आज्ञा पाकर सेवकों ने उसका पीछा किया और युद्ध कर उसके विमान को चूर कर डाला। तब पुनर्वसु ने पर्णलघ्वी विद्या के सहारे उस कन्या को विमान से नीचे छोड़ दिया। वह कन्या उस विद्या के सहारे धीरे से श्वासपद नामक महाअटवी में आ गिरी। वह महावन ऐसा था, जो बड़े-बड़े विद्याधरोें को भी भय उत्पन्न करने वाला था। जिसके अन्दर, प्रवेश करना अत्यन्त कठिन था, जहाँ पर बड़े-बड़े वृक्षों की सघन झाड़ियों से अंधकार ही अंधकार बना रहता था अत: सूर्य की किरणें जहाँ पर अवकाश नहीं पा सकती थीं। उस सघन वन में भेड़िये, शरभ, चीते, तेंदुये और सिंह आदि व्रूर जन्तु ही अपना निवास स्थान बनाये हुए थे। वहाँ की भूमि कठोर थी और कहीं अतीव ऊँची थी, तो कहीं अतीव नीची थी। जिधर देखो उधर ही बड़े-बड़े बिल दिखाई देते थे, जिनमें से निकल-निकलकर बड़े-बड़े सर्प फण उठाये घूम रहे थे। उस वन में अनंगशरा बालिका चारों तरफ दृष्टि डालते हुए महाभय से आक्रांत हो मूच्छित हो गई, जब होश आया, भय से काँपती हुई”
हाय! मैं लोक की रक्षा करने वाले, इन्द्र के समान सुशोभित त्रिभुवनानन्द नाम के चक्रवर्ती पिता से उत्पन्न हुई हूँ और महास्नेह से लालित हुई हूँ, फिर भी आज भाग्य की प्रतिकूलता से इस महाकष्ट की अवस्था को प्राप्त हो रही हूँ। हाय पिता! तुम तो महापराक्रमी हो, षट्खण्डस्वरूप इस लोक की पूर्णतया रक्षा करते हो, फिर वन में असहाय पड़ी हुई, मुझ पर दया क्यों नहीं करते? हाय माता! गर्भ में धारण कर वैसा दु:ख सहकर इस समय तुम मुझ पर दया क्यों नहीं करती हो? हाय मेरे भाई-बंधु आदि परिजन! तुमने मुझे एक क्षण के लिए भी अकेली नहीं छोड़ा था पुन: आज मेरी सुध क्यों नहीं ले रहे हो? हाय, हाय मैं दुखिया इस समय क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? किसका आश्रय लूँ? किसे देखूँ? और इस महावन में मैं पापिनी कैसे रहूँ? क्या यह स्वप्न है? अथवा नरक में मेरा जन्म हो गया है? क्या मैं वही हूँ? अथवा यह कौन सी दशा प्रगट हुई है? इस प्रकार चिरकाल तक विलाप कर वह अत्यन्त विह्वल हो गई। उसका वह विलाप क्रूर पशुओं के भी मन को द्रवित करने वाला था। जब वह भूख की बाधा से व्याकुल होती थी, तब वन के फल-पत्तों को खाकर नदी अथवा झरने का पानी पीकर कुछ शान्त हो जाती थी पुन: कुटुम्बीजनों की याद कर-करके रोने लगती थी और कभी-कभी महामंत्र का स्मरण करते हुए धैर्य धारण करती थी। उसका सारा शरीर शोकरूपी अग्नि से झुलस गया था। कभी रो-रोकर पागल जैसी हो जाती थी, कभी मूच्र्छित होकर जमीन पर गिर जाती थी। कभी उठकर इधर-उधर चलने लगती थी और जंगल से निकलने का मार्ग ढूँढने लगती थी। उस भयावह जंगल में मार्ग न प्राप्तकर पुन; निराश हो धरती माता की गोद में सो जाती थी। शीतकाल की वर्षा से, कुहरे से, बरसात से उसका शरीर नष्टप्राय हो गया था, किन्तु फिर भी उसका मरण नहीं हो रहा था, न ही कोई जंगली प्राणी ही उसका भक्षण करते थे। ग्रीष्म ऋतु की भयंकर गर्मी से वह झुलसने लगती थी और सोचती थी कि क्या ये ही नरक स्थान है? वर्षा ऋतु की मूसलाधार बारिश को भी वह अपने खुले शरीर पर ही झेलती थी। उसके पहने वस्त्र गलकर समाप्त हो चुके थे अत: वन के पत्तों से ही वह अपने शरीर को ढकने का प्रयत्न करती रहती थी। वैथा आदि के वृक्षों के नीचे बैठकर वह पिता का स्मरण कर-करके रोया करती थी। हाय, मैं चक्रवर्ती से उत्पन्न होकर भी इस निर्जन वन में ऐसी दुरवस्था को प्राप्त हो रही हूँ। सो निश्चित ही मैंने जन्मांतर में घोर पाप संचित किया होगा, उसी का यह फल आज मुझे भोगने को मिल रहा है। इस प्रकार अविरल अश्रुवर्षा से जिसका मुख दुर्दिन के समान हो गया था, ऐसी वह अनंगशरा नीची दृष्टि से पृथ्वी की ओर देखकर स्वयं पककर गिरे हुए ऐसे फलों को उठाकर खाकर शांत हो जाती थी। कभी वह बेला करती थी, कभी तेला करती थी और कभी अनेकों उपवास कर लेती थी पुन: उपवास से अत्यन्त कृश हो जाने के बाद कभी वह केवल पानी से पारणा करती थी, सो भी एक ही बार और कभी कुछ फल खाकर सन्तुष्ट होती थी।
जो अनंगसेना पहले अपने केशों से च्युत हो शय्या पर पड़े हुए फूलों से भी खेद को प्राप्त होती थी, वह इस वन में मात्र ऊबड़-खाबड़ कंकरीली पृथ्वी पर ही अनेकों रात्रियाँ निकाल चुकी है। जो पहले पिता के संगीत को सुनकर जागती थी, वह यहाँ पर सियार आदि के भयंकर शब्दों को सुनकर जागती है। इस प्रकार से सर्दी, गर्मी और बरसात के दु:खों को अपने शरीर पर झेलती हुई तथा अनेकों उपवास कर-करके प्रासुक आहार से पारणा करती हुई, उस कन्या ने तीन हजार वर्ष तक महान् उग्र घोरातिघोर बाह्य तप किया। इतने दिनों तक उस वन में उसे मनुष्य का दर्शन क्या, शब्द भी सुनने को नहीं मिला। शरीर भी उसका तपश्चरण से और कष्ट के झेलने से अब शुष्क हो चुका था। तब जीवन से निराश हो उस धीर-वीर बाला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर सल्लेखना धारण कर ली। उसने जिनशासन में पहले जैसा सुन रखा था, वैसा नियम ग्रहण कर लिया कि मैं अब सौ हाथ से बाहर की भूमि में नहीं जाऊँगी। उसे सल्लेखना का नियम लेकर जब छह दिन व्यतीत हो गये, तब लब्धिदास नामक एक पुरुष जो कि मेरुपर्वत की वंदना कर लौट रहा था, सो उसने उस कन्या को देखा। वह उसे उसके पिता के पास ले जाने के लिए तैयार हुआ, तब कन्या ने यह कहकर मना कर दिया कि मैंने अब यम सल्लेखना ग्रहण कर ली है। उस लब्धिदास ने शीघ्र ही चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द के पास पहुँचकर कन्या का समाचार सुना दिया। कन्या के अपहरण के बाद चक्रवर्ती ने सर्वत्र तमाम लोगों को भेज-भेजकर उसका पता लगवाया था, किन्तु कोई भी उसे ढूँढ नहीं सके थे। इसी कन्या के शोक में चक्रवर्ती भी अपनी विशाल सम्पत्ति को तुच्छ समझते थे। उसकी माता भी रो-रोकर अपने शरीर को दुर्बल कर चुकी थी। उस समय चक्रवर्ती तमाम परिजन को लेकर अतिशीघ्र ही वहाँ पहुँचे। वह वहाँ देखते हैं कि अत्यन्त भयंकर एक मोटा अजगर उस बाला को खा रहा था। यह देख उस कन्या को छुड़ाने में तत्पर हो चक्रवर्ती ने उस अजगर को अलग करना चाहा कि कन्या ने तत्क्षण ही रोक दिया। उस स्थूल अजगर के द्वारा खाई गई वह कन्या महामंत्र का स्मरण करते हुए धैर्यपूर्वक शरीर छोड़कर ईशान स्वर्ग में देवी हो गई। इस घटना से चक्रवर्ती त्रिभुवनानन्द को महान् वैराग्य उत्पन्न हो गया। उस समय उन्होंने अपने बाईस हजार पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। अनंगशरा कन्या स्वर्ग के सुखों का अनुभव करके राजा द्रोणमेघ की रानी के गर्भ में आ गई। उस समय रानी अनेकों रोगों से पीड़ित थी, कन्या के गर्भ में आते ही माता पूर्णतया नीरोग हो गई।
किसी समय विंध्य नाम का व्यापारी ऊँट, गधे तथा भैंसे आदि जानवरों पर सामान लादकर अयोध्या में आया और वहाँ ग्यारह माह तक रहा। उनमें से एक भैंसा तीव्र रोग से पीड़ित हो नगर के बीच में गिर पड़ा। कितने ही दिनों तक पड़ा रहा। लोग उसे ठुकराकर चलते थे कभी कोई उसके मस्तक पर पैर रखकर चले जाते थे। वेदना से और भूख-प्यास से पीड़ित होकर भी शान्तभाव धारण करते हुए उसने प्राण छोड़ा तब अकाम निर्जरा के प्रभाव से वह वायवावर्त नाम का धारक वायुकुमार जाति के देवों का स्वामी हो गया। अवधिज्ञान के निमित्त से उसने पूर्वभव के पराभव को जान लिया, तब उसने अयोध्या में आकर महारोग उत्पन्न करने वाली बहुत ही भयंकर विषम वायु चला दी, जिससे अयोध्या में भयंकर रोगों का प्रकोप फैल गया। महादाहज्वर, सर्वशूलरोग, अरुचि, वमन, फोड़े, सूजन आदि अनेकों रोगों से शहर में त्राहि-त्राहि मच गई। जब भरत महाराज ने सुना कि हमारे शहर में क्या, सारे देश में कोई भी निरोग नहीं बचा है मात्र एक द्रोणमेघ नाम का राजा है, जो कि अपने मंत्री परिवार आदि के साथ पूर्ण स्वस्थ रह रहे हैं। भरत महाराज ने उन्हें बुलाकर कहा कि हे महानुभाव! आप जैसे स्वस्थ हैं वैसे ही हम लोगों को स्वस्थ करना उचित है। तब राजा द्रोणमेघ ने अपने अन्त:पुर से सुगंधित जल मँगवाकर उन सभी पर सिंचित किया, जिससे सभी का रोग शान्त हो गया। तब भरत राजा के कहने से द्रोणमेघ ने सारे अयोध्या निवासियों को निरोग कर दिया। उस प्रसंग में भरत महाराज ने प्रश्न किया कि यह महिमाशाली सुगंधित जल आपने कैसे प्राप्त किया है? द्रोणमेघ ने कहा-हे देव! मेरी कन्या विशल्या है यह उसी पुण्यशालिनी के स्नान का जल है जो कि सर्व रोगों का नाशक सिद्ध हो चुका है और इस जल के द्वारा अब तक अगणित जीवों ने जीवन लाभ प्राप्त किया है। ==
किसी समय देवगीतपुर के विद्याधर चन्द्रप्रतिम आकाशमार्ग में विचरण कर रहे थे। उसी समय उनका शत्रु सहस्रविजय कुछ पुराने बैर को याद कर क्रोध को प्राप्त हो उसके साथ युद्ध करने लगा। उस युद्ध में चंडरवा नाम की शक्ति (देवोपनीत अस्त्र) से उसे मारा, जिससे वह मरणासन्न होकर रात्रि के समय आकाश से गिरा, जहाँ पर वह गिरा, वह अयोध्या का महेन्द्रोदय नामक उद्यान था। आकाश से पड़ते हुए ताराबिम्ब के समान उसे देखकर राजा भरत तर्वâ करते हुए उसके पास पहुँचे और शक्ति से शल्ययुक्त वक्षस्थल को देखकर दया से आद्र्र हो उठे। उन्होंने तत्क्षण ही जीवनदान देने वाले जल को मँगाकर उस चन्द्रप्रतिम विद्याधर को स्वस्थ कर दिया। जब राम-रावण के युद्ध में रावण ने लक्ष्मण को अमोघविजया नामक शक्ति से घायल कर दिया था और उनके जीवन में संशय उपस्थित हो गया था, उस समय वह चन्द्रप्रतिम विद्याधर वहाँ पहुँचकर उस विशल्या के स्नान जल के महत्त्व को बतलाकर रामचन्द्र को आश्वस्त करता है। तब रामचन्द्र शीघ्र ही रात्रि में ही भामंडल, हनुमान आदि को अयोध्या नगरी में भरत के पास उसी सुगंधित जल हेतु भेज देते हैं। भरत राजा सर्व समाचार विदित कर अपने अग्रज के जीवन हेतु उपाय में सन्नद्ध द्रोणमेघ की विशल्या कन्या को ही भामंडल आदि के साथ वहाँ भेज देते हैं। विशल्या के निकट पहुँचते ही लक्ष्मण के वक्षस्थल से शक्ति नामक अस्त्र निकल जाता है और वे स्वस्थ हो जाते हैं। सुमन! यह है बाह्य तप का अद्भुत चमत्कार।
सुमन-सुधा जीजी! मुझे तो सुनते ही रोमांच हो गया। ओह! उस अनंगशरा कन्या को तीन हजार वर्ष तक किसी मनुष्य का मुख देखने को नहीं मिला। उसने तीन हजार वर्ष तक गर्मी, सर्दी और वर्षा के भयंकर आघातों को अपने खुले बदन पर कैसे झेला? उसने धैर्यपूर्वक बेला, तेला आदि उपवास कैसे किये? केवलमात्र एक बार जल पीकर पारणा का दिवस कैसे निकाला? ओह! तीन हजार वर्ष तक ऐसी घोर तपश्चर्या कौन कर सकता है?
सुधा-जिस समय वह अमोघ शक्ति नाम की विद्या, लक्ष्मण के वक्षस्थल से निकलकर आकाश मार्ग से जाने लगी, हनुमान ने उसे पकड़ लिया, तब वह देवी के रूप में प्रकट हो बोली, हे हनुमान! मैं तीनों लोकों में प्रसिद्ध अमोघविजया नाम की विद्या हूँ। इस समय इस संसार में इस विशल्या के सिवाय मैं किसी से पराजित नहीं की जा सकती थी। पूर्वभव में इसने अपना शिरीष के फूल के समान सुकुमार शरीर ऐसे तप में तपाया था, जो कि प्राय: मुनियों के लिए भी कठिन था। सचमुच में इसीलिए यह मानव जीवन सारभूत है कि जहाँ पर ऐसे कठिन तप किये जा सकते हैं।
सुमन-बहन, सच में उस कन्या का धैर्य भी अपूर्व ही था, देखो ना, उसने विधिवत् सल्लेखना ग्रहण की। उसने अपघात से, संक्लेश से प्राण नहीं छोड़े थे, नहीं तो मरकर दुर्गति में चली जाती, और देखो, उसने पिता के आ जाने के बाद भी पुन: जीने की आशा नहीं की, लिए हुए नियम को भंग करना उचित नहीं समझा और अपने पिता से उस अजगर को भी अभयदान दिलाया। अहो! इस विशल्या का पूर्वभव तो सचमुच में अतीव ही रोमांचकारी है। अब मैं तप की निन्दा कभी भी नहीं करूँगी।
सुधा-हाँ बहन, शक्य तो अपने को कुछ न कुछ व्रत लेकर तप का अभ्यास करते ही रहना चाहिए और नहीं हो सकता है तो कम से कम करने वालों की सहायता करते रहना चाहिए। उनकी निंदा या हँसी कभी भी नहीं करनी चाहिए।