कुल (Cucurbitaceae) इसकी लता खरबूजे की लता जैसी किंतु उससे भी अधिक दूर तक फैलने वाली है, (कहीं—कहीं यह ३०—४० फीट तक लम्बी), पत्र— हरिताभ श्वेत, रोमश, पंचखंड युक्तचौड़े अनीदार, किनारे कटावदार ; पुष्प—हरिताभ श्वेत रंग के गोल, १ इंच व्यास के,(कहीं—कहीं हरे या काले रंग के); फल—गोल, कोई—कोई लम्बगोल, गहरे हरे रंग के धारी युक्त साधारण १ से ३ किलो तक वजन के (कहीं कहीं ये फल १० से ३० किलो वजन के भी), कच्ची दशा में इनका गूदा श्वेत होता है, ये प्राय: शाक के काम आते हैं। पकने पर गूदा लाल या श्वेत रंग के ही रहता है। जिस रंग का फूल होता है, प्राय: गूदा भी उसी रंग का होता हैं। बीज—काले, लाल बीज वाले का लाल , गुलाबी या पीला, श्वेत बीज वाले का गूदा श्वेत होता है। फलों को ही तरबूज कहते हैं । मारवाड, राजपूताना के ये फल बहुत बड़े एवं अच्छे मीठे होते हैं। सिंध व गुजरात में भी उत्तम तरबूज होते हैं। वैसे तो प्राय: सर्वत्र ही नदी के किनारे की रेतीली भूमि में प्राय: पौष, माघ में इसके बीज बोये जाते हैं । फाल्गुन में फूल आते , वैशाख में फलता और ज्येष्ठ में पक कर खाने योग्य हो जाता है ।भारतवर्ष के अतरिक्त यह अन्यत्र बहुत कम होता है। नाम— संस्कृत— कालिन्दक, कालिंग, सुवर्तुल, मांसफल। हिन्दी— तरबूज, कहिन्दोना, मतीरा। मलियालम— कलिंगड। गुजराती — तरबुच, कालींगडु। बंगाली—तरमूच, चेलना। अंग्रेजी—वाटरमेलन (Water melon) लेटिन— स्ट्रलस व्हलगेरिस। रासायनिक संगठन— इसके बीज में ३० प्रतिशत एक पीला, चिकना, स्थिर तेल तथा सिट्रोलिन (Citrullin) और प्रोटीड्स (Proteid) पाये जाते हैं। प्रयोग—फल, रस और बीज
मधुर, शीतवीर्य, पित्तशामक, पौष्टिक, सर, तृप्तिकारक, मूत्रल, कफ–वर्धक है, दाहशमनार्थ—विशेष उपयोगी है। कच्चा फल— ग्राही, गुरु,शीतल, पित्त, शुक्र और दृष्टि शक्तिनाशक है। पका फल— उष्ण, क्षारयुक्त, पित्तकारक, कफवात नाशक, वृक्कश्मरी, कामला, पांडु, पित्तज अतिसार, आंत्रशोथ आदि में उपयोगी है।
१. रक्तोद्वेग, पित्ताधिक्य, अम्लपित्त, तृष्णाधिक्य, पित्तज ज्वर, आंत्रिकसन्निपात—ज्वर आदि में पके फल का रस (पानी) पिलाते हैं।
२. मूत्र—दाह,सुजाक आदि पर— पके फल के ऊपर चावूâ से चोकोर गहरा चीर एक छोटा टुकड़ा निकाल, उसके भीतर शक्कर या मिश्री भरकर फिर उसमें वह निकाला हुआ टुक़ड़ा पूर्ववत् जमाकर रात को बाहर ओस में ऊपर खूंटी आदि में टांग देवें। प्रात: उसके अन्दर से गूदे को मसलकर छानकर पीने से मूत्रकृच्छ्रदाह दूर होकर मूत्र साफ होता है। शिश्न के ऊपर हुए चट्टे , फुसिया दूर होती है। यदि सुजाक हो तो फल के पानी २५० ग्राम में जीरा और मिश्री का चूर्ण मिलाकर पिलाते रहें। अथवा—उक्तविधि से फल के भीतर शक्कर के स्थान में सोरा ४ ग्राम और मिश्री ५० ग्राम चूर्ण कर भर दें, और उसके बाद छिद्र को उसके काटे हुए टुकड़े से ही बन्द कर, रात को ओस में रख , प्रात: छानकर नित्य १ बार ७ दिन तक पिलावें । इससे अश्मरी में भी लाभ होता है।
३. शिर:शूल (विशेषत: पैत्तिक हो) आदि पर— इसके गूदे को निचोड़, छानकर (कांच के पात्र में) उसमें थोड़ी मिश्री मिला पिलावें। उष्णता से होने वाले सिर दर्द, लू लगने, हृदय की धड़कन, मूर्छा आदि में दिन में २—३ बार पिलाते हैं।
४. उन्माद या पागलपन में— इसके गूदे का रस और गौदुग्ध २५० ग्राम लेकर मिश्री २० ग्राम मिला, श्वेत—बोतल में भर, चन्द्र के प्रकाश में रातभर किसी खूंटी पर लटकाकर प्रात: निराहार पिलावें। इस प्रकार २१ दिन पिलाने से लाभ होता है। ५. खांसी पर— फल का पानी १० ग्राम सोंठ—चूर्ण ३ ग्राम और मिश्री १० ग्राम एकत्र कर थोड़े गरम कर पिलावें।
६. दाद, छाजन (उकौत या चम्बल) और वर्ण पर— फलों के ऊपर के हरे, मोटे छिलकों को सुखाकर आग में राख कर लें। यदि दाद या चम्बल गीली हो तो उस पर इसे बुरकते रहें, सूखी हो तो प्रथम उस पर कडुवा तेल चुपड़ कर इस राख को लगाया करें।
७. व्रणों को पकाने के लिये—उक्त छिलकों को पानी में उबाल कर बांध देने से वे शीघ्र पक जाते हैं। सुपारी के अधिक खाने से कभी—कभी नशा सा चढ़ता व चक्कर आते हैं, ऐसी दशा में इसके खाने से लाभ होता है। नोट— फल का सेवन कफज या शीतप्रकृति वालों को, जिन्हें बार—बार जुखाम होता हो, तथा श्वास, हिक्का के रोगी को एवं मधुमेही , कुष्ठी या रक्तविकृति वाले को हानिकारक होता है। विशेषत: सायंकाल या रात्रि में इसे नहीं खाना चाहिए। इसकी हानि निवारणार्थ गुलकन्द का सेवन कराते हैं। इसका प्रतिनिधि पेठा है। बीज— शीतवीर्य, स्नेहन, पौष्टिक, मार्दवकर, मूत्रल, पित्तशमन, कृमिघ्न, मस्तिष्क शक्तिवर्धक है कृशता, रक्तोद्वेग, पित्ताधिक्य, वृक्कदौर्बल्य, आमाशयशोथ, पित्तज कास एवं पित्तज ज्वर, उर:क्षत यक्ष्मा, मूत्रकृच्छ आदि में उपयोगी है। उक्त विकारों पर प्राय: बीजों की गिरी को ठंडाई की भाँति पीस छानकर पिलाते हैं। अनिद्रा, मस्तिक दौर्बल्य एवं दाह प्रशमनार्थ भी इन्हें पीसकर पिलाते लेप करते या नस्य देते हैं।
८. पुष्टि के लिए— बीजों की गिरी ५० ग्राम और ५ ग्राम एकत्र पीसकर, हलुवा जैसा बना या केवल ठंडाई की भांति पीस छान कर नित्य सेवन करते हैं।
९. उन्माद या मस्तिष्क विकृति पर —इसकी गिरी १० ग्राम रात को पानी में भिगोंएँ, प्रात: पीसकर २० ग्राम मिश्री, छोटी इलायची ४ नग के दानों का चूर्ण एकत्रकर मिलाकर गाय के मक्खन के साथ खिला
१०. मूत्रकृच्छ् , अश्मरी पर—बीज १० ग्राम को पीसकर ठंडाई की भांति आधा सेर जल में घोल छानकर मिश्री मिला, पिलाते रहने से लाभ होता है। साधारण पथरी भर मूत्र द्वारा निकल जाती है।
११. उदर— कृमि, सिरदर्द और ओष्ठ—दारी पर— बीजों को थोड़ा आग पर सेंककर , मींगी निकाल कर खाने से उदर—कृमि नष्ट होते हैं। इसकी गिरी को खरल में खूब घोटकर सिर—दर्द पर लेप करते हैं। शीतकाल में या वात—प्रकोप से ओष्ठ फटकर कष्ट देते हों, तो गिरी को पानी में पीसकर रात्रि के समय लेप करने से लाभ होता है।
१२. रक्तचाप— रक्तचाप में वृद्धि पर नित्य १०—२० ग्राम इसके बीजों को भुनकर खाते रहने से ब्लडप्रेशर घट जाता है। अथवा उत्तम गुड़ की चाशनी बना, उसमें भुने हुए बीज मिला लड्डू, बनाकर खाने से स्वाद के साथ—साथ लाभ की प्राप्ति भी होती है। नोट— बीज गिरी की मात्रा ५ ग्राम से १० ग्राम तक।
पके तरबूज का पानी १०० ग्राम लेकर प्रथम कद्दू के बीजों की गिरी , खीरा ककड़ी की गिरी, कुलफा के बीज, काहू के बीज १५—१५ ग्राम और मीठे बादाम की गिरी ३० ग्राम इनको पानी में घोट कर छान लें। तथा इसी में यवास शर्करा (तुरंज बीन) घोल कर छान लें। फिर उसमें उक्त तरबूज का रस मिलाकर पाक करें, गाढ़ी चाशनी हो जाने पर उसमें खसखस बीज, बबूल का गोंद कतीरा व गेहूं का सत (निसास्ता) प्रत्येक १५ ग्राम महीन पीसकर मिलावें, और फिर बादाम का तेल ६० ग्राम मिला कर रख लें। ५ ग्राम की मात्रा में दिन में ३—४ बार चाट लिया करें। यक्ष्मा, उर:क्षत, रक्त, पित्त, शुष्क या वातज कास एवं नजला में परम लाभ होता है।
मजीठ ५० ग्राम को कूटकर उसमें ५० ग्राम फौलाद का बुरादा मिलावें। फिर एक बड़े तरबूज से एक टूकड़ा चाकू से काट कर अलग करें, तथा तरबूज के भीतर उक्तदोनों द्रव्य के चूर्ण को प्रविष्ट कर, उसी टुकड़े से बन्द कर,तरबूज को अनाज के ढेर में दबा दें। २१ दिन के बाद उसे निकाल कर भीतर के पानी को छान कर उसमें समभाग मिश्री मिला शर्वकरा की चाशनी पका लें। शीतल होने पर शीशी में सुरक्षित रखें। मात्रा १० ग्राम प्रात: सायं सेवन से यकृत—दौर्बल्य, यकृत—शोथ, रक्त की कमी के रोग आदि थोड़े दिनों में ही दूर होकर शरीर स्वस्थ हो जाता है। पांडुरोग, हृदय की धड़कन एवं अर्श को भी अत्यन्त लाभ प्रद है।
शुचि मासिक (जून २०१४)