तीनलोक की रचना का आकार वर्तमान में जो जैन का प्रतीक चिह्न बनाया जाता है। आकार वही है। हाँ, उसमें ‘हाथ’ आदि चिह्न नहीं है।इसमें बीचों बीच में त्रसनाड़ी है। दो इंद्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक ये तीन भागों में विभक्त है। मनुष्य, देव, नारकी एवं पंचेन्द्रिय आदि पशु-पक्षी इसी त्रसनाड़ी में ही हैं।
यहाँ तक कि उपरिम भाग में सिद्ध भगवान भी इसी त्रसनाड़ी में ही हैं। न कि तीन लोक के बाहर ऊपर में हैं।त्रिलोकसार ग्रंथ के आधार से हस्तिनापुर में यह तीनलोक रचना बनायी गई है और यहाँ भी अयोध्या में जो तीनलोक रचना बन रही है वह भी वैसी ही बनेगी।वर्तमान में एक स्थान पर तीन लोक रचना बनायी गई है उसमें अनेक विद्वानों एवं श्रेष्ठियों के मना करने पर भी तीनलोक के ऊपर में बाहर में भगवान की प्रतिमा विराजमान कर दी है एव तीनलोक के बाहर चारों कोनों में स्तंभ खड़े कर दिये हैं तथा नीचे जहाँ निगोद है, नरक हैं, वहाँ पर नंदीश्वर द्वीप रचना एवं त्रसनाड़ी के बाहर बहुत सी जिनप्रतिमाएँ विराजमान करायी गई हैं।यह शोधकर्ता विद्वानों के लिये गलत उदाहरण हो गया है।त्रिलोकसार ग्रंथ के अनुसार नीचे नित्य निगोद पुन: सप्तम, छठे आदि से प्रथम नरक तक सात नरक हैं। उपरिम दो भागों में मध्यलोक के नीचे ही भवनवासी एवं व्यंतर देवों के भवन हैं। उनमें जिनप्रतिमाएँ हैं। जैसे कि रत्नप्रभा पृथिवी के तीन भाग हैं। खरभाग, पंकभाग और अब्बहुल भाग। इसमें नीचे के अब्बहुल भाग में प्रथम नरक है जहाँ नारकी हैं।उपरिम दो भागों में नारकी नहीं हैं। इनमें खरभाग-पंकभाग में देवों के भवनों में देव-देवियाँ रहते हैं एवं उन्हीं के भवनों में प्रत्येक भवन में अकृत्रिम जिनमंदिर हैं उनमें जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं जिनकी ये देवगण सतत पूजा, भक्ति आदि करते रहते हैं। परोक्ष में हम और आप सभी भव्यगण यहाँ तक कि गौतमस्वामी ने भी इनकी स्तुति की है। यथा-
‘‘उड्ढमहतिरियलोए सिद्धायदणाणि णमंसामि।’’
(प्रतिक्रमणभक्ति से)
अर्थात् ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक में जितने भी सिद्धायतन जिनमंदिर हैं उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ।
तथा-चैत्यभक्ति में भी श्री गौतमस्वामी ने इनकी वंदना की है-
श्रीमद्भावनवासस्था: स्वयंभासुरमूर्तय:।
वंदिता नो विधेयासु:, प्रतिमा: परमां गतिम्।।१७।।
ये व्यंतरविमानेषु, स्थेयांस: प्रतिमागृहा:।
ते च संख्यामतिक्रान्ता:, संतु नो दोषविच्छिदे।।१९।।
ज्योतिषामथ लोकस्य, भूतयेऽद्भुतसम्पद:।
गृहा: स्वयंभुव: सन्ति, विमानेषु नमामि तान्।।२०।।
ये भवनवासी के जिनमंदिर ७ करोड़ ७२ लाख हैं एवं व्यंतर देवों के जिनमंदिर असंख्यातों हैं। ज्योतिर्वासी देवों के भी असंख्यातों जिनमंदिर हैं।मध्यलोक में चार सौ अट्ठावन शाश्वत जिनमंदिर हैं। ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवों के चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस जिनमंदिर हैं।तीनों लोक में आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवे हजार, चार सौ इक्यासी ऐसे शाश्वत जिनमंदिर हैं।इन तीनों लोकों के जिनमंदिर में प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं, जिनकी संख्या-९२५ करोड़, ५३ लाख, २७ हजार ९ सौ ४८ है।इन सब जिनमंदिर, जिनप्रतिमाओं को मेरा नमस्कार होंवे।