सर्वज्ञ भगवान से अवलोकित अनंतानंत अलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ राजू प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है। यह लोकाकाश जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पाँचों द्रव्यों से व्याप्त है। आदि और अन्त से रहित—अनादि, अनंत है, स्वभाव से ही उत्पन्न हुआ है। छह द्रव्यों से सहित यह लोकाकाश स्थान निश्चय ही स्वयं प्रधान है। इसकी सब दिशाओं में नियम से अलोकाकाश स्थित है।
इस लोक के ३ भेद हैं—अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक।
अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के सदृश, मध्यलोक का आकार खड़े किये हुए मृदंग के ऊपरी भाग के समान एवं ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े किये हुए मृदंग के सदृश है। सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है एवं मोटाई सर्वत्र ७ राजू है।
तीन लोक के जड़ भाग से लोक की ऊँचाई का प्रमाण-अधोलोक की ऊँचाई ७ राजु है। इसमें ७ भूमियाँ हैं।
ऊर्ध्वलोक की ऊँचाई ७ राजु है। इसमें प्रथम स्वर्ग से लेकर सिद्धशिला पर्यंत व्यवस्था है।
अधोलोक के तल भाग में लोक की चौड़ाई ७ राजु है। यह चौड़ाई घटते-घटते मध्यलोक में १ राजु रह गई है। मध्यलोक से ऊपर बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मलोक (५वें स्वर्ग) तक ५ राजु हो गई है पुन: ब्रह्मस्वर्ग से ऊपर घटते-घटते सिद्धशिला तक चौड़ाई १ राजु रह गई। इस प्रकार यह लोक पैर पैâलाकर खड़े हुए एवं कमर पर हाथ रखे हुए पुरुष के समान बन गया है।
त्रसनाड़ी-तीनों लोकों के बीचों बीच में १ राजु चौड़ी-मोटी तथा १४ राजु उँâची-लम्बी त्रसनाड़ी है।
इस त्रसनाड़ी में ही त्रसजीव-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव पाये जाते हैं। शेष सम्पूर्ण लोक में स्थावर-एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं।
अधोलोक में ७ पृथ्वी हैं, उनके नाम-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और महातम:प्रभा। रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग और अब्बहुलभाग। इनमें अब्बहुलभाग में नरक हैं।
अधोलोक में सबसे नीचे निगोद स्थान है। वहाँ यह अनादिकाल से एकेन्द्रिय अवस्था में है। वहाँ एक श्वांस में अठारह बार जन्म मरण होता है। इतनी तुच्छ-अल्प आयु है। हम और आप सभी वहीं से आकर त्रस पर्याय को प्राप्त कर मनुष्य हुए हैं।
पुन: सातवाँ नरक है। ऐसे नीचे से ऊपर क्रम से छठा, पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा एवं पहला नरक है। इन नरकों में नारकी जीव प्रतिक्षण दु:ख भोग रहे हैं। आरे से चीरे जाना, कढ़ाई में तले जाना, तिल-तिल बराबर टुकड़े किये जाना आदि कष्ट आपस में एक-दूसरे को देते रहते हैं। जो यहाँ हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, शिकार, परस्त्रीसेवन आदि पाप करते हैं। वे नरकों में जाकर दु:ख भोगते हैं। इन नारकियों के दु:खों को देखकर आप पाप न करने की प्रतिज्ञा करें।
अधोलोक में प्रथम पृथ्वी के तीन भाग में से खरभाग में भवनवासी देवों के भवन हैं। भवनवासी देवों के १० भेद हैं-असुरकुमार आदि। इनके क्रमश: ६४ लाख आदि भवन हैं। प्रत्येक भवनों में विशाल जिनमंदिर हैं। इन प्रत्येक भवनवासी देवों में इंद्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक ऐसे दश भेद माने हैं।
भवनवासी के १० भेद | विमान संख्या | |
१. | असुर कुमार के | ६४ लाख |
२. | नाग कुमार के | ८४ लाख |
३. | सुपर्ण कुमार के | ७२ लाख |
४. | द्वीप कुमार के | ७६ लाख |
५. | उदधि कुमार के | ७६ लाख |
६. | स्तनित कुमार के | ७६ लाख |
७. | विधुत्कुमार के | ७६ लाख |
८. | दिक्कुमार के | ७६ लाख |
९. | अग्नि कुमार के | ७६ लाख |
१०. | वायु कुमार के | ९६ लाख |
इन भवनवासी के १० भेदों में एक-एक में इन्द्र के भवन में ओलगशाला के आगे एक-एक चैत्यवृक्ष हैं। असुरकुमारेन्द्र का चैत्यवृक्ष पीपल है। इसकी कटनी पर जिनप्रतिमाएँ हैं। ऐसे ही नागकुमारेन्द्र का सप्तपर्ण, सुपर्णकुमार का शाल्मलि, द्वीपकुमार का जामुन, उदधिकुमार का वेंतस, स्तनितकुमार का कदंब, विद्युत्कुमार का प्रियंगु, दिक्कुमार का शिरीष, अग्निकुमार का पलाश और वायुकुमार का चिरोंजी चैत्यवृक्ष है।
कुल मिलाकर भवनवासी देवों के भवन ७ करोड़ ७२ लाख हैं। इन प्रत्येक भवनों में १-१ जिनमंदिर हैं। अत: भवनवासी के ७,७२,००,००० जिनमंदिर हैं। इनके चैत्यवृक्षों में भी जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
अधोलोक के खरभाग में असुरकुमार को छोड़कर शेष ९ प्रकार के देवों के ७ करोड़ ८ लाख भवन हैं।
द्वितीय पंकभाग में असुरकुमार के ६४ लाख भवन हैं।
व्यंतर देवों के भेद व भवन आदि-व्यंतर देव के किन्नर, किंपुरुष आदि ८ भेद हैं। प्रत्येक के असंख्यातों भवन हैं। इनके भवन, भवनपुर और आवास ऐसे तीन प्रकार के स्थान माने गये हैं। अधोलोक के खरभाग में राक्षस को छोड़कर सात प्रकार के व्यंतर देवों के भवन हैं तथा पंकभाग में राक्षस जाति के व्यंतर देवों के भवन हैं।
मध्यलोक में द्वीप, समुद्रों में इनके भवनपुर हैं एवं पर्वत, सरोवर, वृक्ष आदि के ऊपर इनके आवास माने गये हैं। ये सभी व्यंतरदेव असंख्यातों हैं।
व्यंतर देवों के ८ भेद के नाम-१. किन्नर देव, २. किंपुरुष देव, ३. महोरग देव, ४. गंधर्व देव, ५. यक्ष देव, ६. राक्षस देव, ७. भूतदेव, ८. पिशाच देव
इन व्यंतर देवों के इंद्रों के महल के आगे चैत्यवृक्ष माने गये हैं। किन्नरेंद्र का चैत्यवृक्ष अशोक, िंकपुरुषेन्द्र का चंपक, महोरगेंद्र का नागद्रुम, गंधर्वेन्द्र का तुंबरु, यक्षेंद्र का वट, राक्षसेंद्र का कंटक, भूतेन्द्र का तुलसी एवं पिशाचेन्द्र का कदंब चैत्यवृक्ष है। इन सभी चैत्यवृक्षों में जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
एक राजु प्रमाण विस्तृत एवं एक लाख योजन ऊँचा मध्यलोक है। इसमें असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं। प्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है। यह एक लाख योजन व्यास वाला, गोल थाली के समान है। इसको चारों तरफ घेरकर लवणसमुद्र, उसको चारों तरफ से घेरकर धातकीखण्ड, इसे चारों तरफ से घेरकर कालोदधि समुद्र, इसे घेरकर पुष्करद्वीप आदि द्वीप-समुद्र हैं।
जम्बूद्वीप | – | लवन समुद्र |
धातकीखण्ड द्वीप | – | कलोदधि समुद्र |
पुष्करवर द्वीप | – | पुष्कवर समुद्र |
वारुणीवरद्वीप | – | वारुणीवर समुद्र |
क्षीरवर द्वीप | – | क्षीरवर समुद्र |
घृतवर द्वीप | – | घृतवर समुद्र |
क्षौद्रवर द्वीप | – | क्षौद्रवर समुद्र |
नंदीश्वर द्वीप | – | नंदीश्वर समुद्र |
अरुणवर द्वीप | – | अरुणवर समुद्र |
अरुणाभास द्वीप | – | अरुणाभास समुद्र |
कुण्डलवर द्वीप | – | कुण्डलवर समुद्र |
शंखवर द्वीप | – | शंखवर समुद्र |
रुचकवर द्वीप | – | रुचकवर समुद्र |
ऐसे असंख्यातों द्वीप-समुद्रों के बाद अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप एवं स्वयंभूरमण समुद्र है। इस मध्यलोक में ढाईद्वीप तक कर्मभूमि है। यहीं तक मनुष्य हैं। आगे सभी द्वीपों में तिर्यंच-युगल रहते हैं। अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप में बीचों-बीच में स्वयंप्रभ पर्वत है। उसके इधर तक तिर्यंचों की भोगभूमि है पुन: आधे स्वयंभूरमणद्वीप में और पूरे स्वयंभूरमण समुद्र में कर्र्मभूमियाँ तिर्यंच हैं। इनमें से कोई-कोई तिर्यंच जातिस्मरण अथवा देवों के संबोधन आदि से सम्यक्त्व तथा पाँच अणुव्रत ग्रहणकर देशव्रती बन जाते हैं, वे मरणकर देवगति को प्राप्त कर लेते हैं।
जंबूद्वीप के बीचों-बीच में सुदर्शनमेरु पर्वत है। यह एक लाख योजन ऊँचा है। इसकी चूलिका ४० योजन की है। इसमें हिमवान आदि छह पर्वत, भरतक्षेत्र आदि सात क्षेत्र हैं। इसमें अकृत्रिम ७८ जिनमंदिर हैं। सारी रचना आप हस्तिनापुर में खुले मैदान में निर्मित जम्बूद्वीप में देखें।
आगे पुष्कर द्वीप में बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है अत: इस द्वीप के दो भाग हो गये। इस तरह जंबूद्वीप, धातकीखण्ड, आधा पुष्कर-पुष्करार्धद्वीप, इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत के पहले-पहले मनुष्यों के अस्तित्व हैं। यहीं तक पाँच मेरु, १७० कर्मभूमि आदि व्यवस्था है। यहाँ तक ३९८ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। इन सबको आप हस्तिनापुर में निर्मित तेरहद्वीप जिनालय में देख सकते हैं।
मानुषोत्तर पर्वत से आगे आठवाँ द्वीप-नंदीश्वर द्वीप है। इसमें ५२ जिनमंदिर एवं ग्यारहवें कुण्डलवर द्वीप तथा तेरहवें रुचकवर द्वीप के बीच-बीच में कुण्डलवर-रुचकवर पर्वतों पर चार-चार जिनमंदिर, ऐसे ३९८±५२±४±४·४५८ अकृत्रिम जिनमंदिर मध्यलोक में है। इनके दर्शन आप जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर में निर्मित ‘तेरहद्वीप रचना’ में करें।
यहाँ मध्यलोक में चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन ऊपर आकाश में अधर ज्योतिषी देवों के विमान हैं। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा ऐसे ज्योतिषी देवों के पाँच भेद हैं। ताराओं के विमान भूमि से ३१ लाख साठ हजार मील की ऊँचाई पर हैं। सूर्य ाâे विमान ३२ लाख, चन्द्रमा के विमान ३५ लाख २० हजार मील की ऊँचाई पर हैं। ये विमान अर्धगोलक के समान हैं। इनमें समतल भाग में बीच में जिनमंदिर व चारों तरफ देवों के भवन बने हुए हैं। सूर्य का विमान ३१४७ मील का एवं सबसे छोटा तारा का विमान २५० मील का है। ये सूर्य, चन्द्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में असंख्यातों हैं। ढाईद्वीप तक ये सूर्य, चन्द्र आदि मेरु प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते रहते हैं। इसी से दिन-रात का विभाग होता है। ढाईद्वीप से आगे सभी सूर्यादि विमान स्थिर हैं। प्रत्येक में जिनमंदिर होने से ज्योतिषी देवों के जिनमंदिर असंख्यात हैं। इनका विशेष विवरण ‘जैन ज्योतिर्लोक’ पुस्तक से या त्रिलोकसार आदि से जानें।
सुमेरु की चूलिका के ऊपर एक बालमात्र के अंतर से प्रथम स्वर्ग है। ऊर्ध्वलोक में-१६ स्वर्ग, नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर हैं। पुन: सबसे ऊपर सिद्धशिला है।
1. | सौधर्म-ईशान स्वर्ग | 2. | सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्ग |
3. | ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग | 4. | लांतव-कापिष्ठ स्वर्ग |
5. | शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग | 6. | शतार-सहस्रार स्वर्ग |
7. | आनत-प्राणत स्वर्ग | 8. | आरण-अच्युत स्वर्ग |
ये १६ स्वर्ग दो-दो एक साथ हैं। |
सौधर्म स्वर्ग के ३२ लाख विमान हैं। ईशान स्वर्ग के २८ लाख, सानत्कुमार के १२ लाख, माहेन्द्र के ८ लाख, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर के ४ लाख, लांतव-कापिष्ठ के ५० हजार, शुक्र-महाशुक्र के ४० हजार, शतार-सहस्रार के ६ हजार, आनत-प्राणत, आरण-अच्युत के ७ सौ विमान हैं। इनमें प्रत्येक इंद्र के महल के आगे वटवृक्ष नाम के चैत्यवृक्ष हैं। इनमें कटनी पर जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। उनके आगे मानस्तंभ हैं।
सोलह स्वर्गों तक देव-देवियाँ दोनों हैं। इनमें इंद्र, सामानिक, पारिषद, त्रायस्त्रिंश, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक ये १० भेद हैं। १६ स्वर्ग के ऊपर सभी अहमिंद्र हैं। वहाँ देवियाँ नहीं है।
सौधर्म-ईशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र इन चार स्वर्गों में ऐसे मानस्तंभ बने हुए हैं, जिनमें रत्नों के पिटारे हैं। वहाँ उनमें तीर्थंकर भगवन्तों के लिए वस्त्र, अलंकार आदि वस्तुएँ उत्पन्न होती रहती हैं। देवगण वहाँ से लाकर यहाँ तीर्थंकर भगवन्तों को गार्हस्थ्य अवस्था में प्रदान करते हैं।
नवग्रैवेयक के नाम-सुदर्शन, अमोघ, सुप्रबुद्ध, यशोधर, सुभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस और प्रीतिंकर।
इनमें से तीन अधस्तन ग्रैवेयक के १११, तीन मध्यम के १०७, तीन उपरिम के ९१ विमान हैं।
नवअनुदिश के नाम-अर्चि, अर्चिमालिनी, वैर, वैरोचन, सोम, सोमरूप, अंक, स्फटिक और आदित्य, ये १-१ विमान हैं।
पाँच अनुत्तर के नाम-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि, ये भी १-१ विमान हैं।
ऐसे सौधर्म स्वर्ग से लेकर ३२ लाख सब मिलकर ८४९७०२३ विमान हैं। इन सबमें १-१ जिनमंदिर हैं अत: ऊर्ध्वलोक के ८४ लाख ९७ हजार तेईस जिनमंदिर हैं। प्रत्येक विमान कोई संख्यात योजन के और कोई असंख्यात योजन के हैं। इन सबमें असंख्यातों देव रहते हैं।
स्वर्गों में माता-पिता से जन्म नहीं हैं। वहाँ उपपादशय्या बनी हुई हैं, जिनमें देव ४८ मिनट में ही यौवन शरीर प्राप्त कर जन्म लेकर उठकर बैठ जाते हैं। जो हिंसा आदि पापों को छोड़कर देवपूजा, गुरुभक्ति, दान, तीर्थयात्रा, तपश्चरण आदि पुण्य करते हैं। वे देव योनि को प्राप्त करते हैं अत: आपको सदैव पुण्य संपादन करना चाहिए।
लोक के अग्रभाग पर मनुष्यलोक ढाईद्वीप प्रमाण विस्तृत ४५ लाख योजन प्रमाण सिद्धशिला है। यह मध्य में आठ योजन ऊँची हैै और क्रम से घटते हुए एक अणु प्रमाण रह गई है। यह ‘‘उत्तानचषकमिव१’’-सीधे रखे हुए कटोरे के समान है। अर्धचंद्र के समान है। ढाईद्वीप से अनादिकाल से लेकर आज तक अनंतानंत सिद्ध परमेष्ठी हुए हैं अत: वहाँ पर एक अणुमात्र भी जगह खाली नहीं है।
ये सिद्ध भगवान सिद्धशिला के ऊपर घनोदधिवातवलय, घनवातवलय से ऊपर तनुवालवलय में विराजमान हैं। सभी सिद्धों के मस्तक तनुवातवलय के अंतिम भाग से स्पर्शित हैं। आगे लोकाकाश के बाहर धर्मास्तिकाय का अभाव होने से एवं अलोकाकाश में जीव द्रव्य के नहीं होने से सिद्ध भगवान वहीं तक लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं। उन अनंतानंत सिद्धों को हमारा अनंत-अनंत बार नमस्कार होवे।
परमपूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरामणि ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में तीनलोक रचना का निर्माण हुआ है। जिसमें अधोलोक में नारकी दिखाये गये हैं। इसी अधोलोक में प्रथम पृथ्वी के खरभाग और पंकभाग में भवनवासी के १० भेद व व्यंतर देवों के ८ भेदों के १-१ मंदिर ऐसे १०±८·१८ मंदिर स्थापित हैं। उन १८ प्रकार के इंद्रों के महल के आगे के प्रतीक में १८ चैत्यवृक्ष हैं। उनमें भी ४-४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
मध्यलोक में-ढाईद्वीप में पाँच मेरु दिखाये गये हैं एवं श्री ऋषभदेव, शांतिनाथ आदि की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ मध्यलोक में मनुष्य और तिर्यंच दिखाये गये हैं। यहीं पर सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र व ताराओं के विमान दिखाये गये हैं।
मध्यलोक के ऊपर सोलह स्वर्गों में १-१ मंदिर हैं। सौधर्मेन्द्र के महल आदि बने हैं। इंद्र सभा बनाई गई हैं। चैत्यवृक्ष एवं मानस्तंभ तथा नीलांजना आदि नृत्यांगनाएँ हैं। यथास्थान इंद्र-इन्द्राणी, देव-देवियाँ दिखाये गये हैं।
इनसे ऊपर नवग्रैवेयक में नवमंदिर, नव अनुदिश के ९ मंदिर एवं पाँच अनुत्तर के ५ मंदिर हैं। यथास्थान अहमिन्द्र दिखाये गये हैं।
अनंतर सिद्धशिला पर पद्मासन एवं खड्गासन सिद्धप्रतिमाएँ विराजमान हैं।
इस प्रकार यहाँ तीनलोक रचना में अधोलोक में १०++८=१८ मंदिर, मध्यलोक में पाँच मेरु में प्रतिमाएँ, मध्यलोक में प्रतिमाएँ एवं सूर्य, चंद्र में प्रतिमा विराजमान हैं। ऊर्ध्वलोक में १६+९+९+५=३९ मंदिर हैं। ऐसे १०+८+१६+९+९+५=५७ मंदिरों में प्रत्येक में ४-४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
अधोलोक में १८ एवं १६ स्वर्गों में १६ ऐसे १८+१६=३४ चैत्यवृक्षों में ४-४ प्रतिमाएँ विराजमान हैं।
इस प्रकार ५७ मंदिर में ५७ x ४ = २२८ पुन: ३४ चैत्यवृक्षों की ३४ x ४· = १३६, मध्यलोक में मेरु की ४० + २ सूर्य, २ चंद्र की ४ तथा अन्य २८ प्रतिमाएँ एवं सिद्धशिला की ४ पद्मासन एवं ८ खड्गासन ऐसी १२ प्रतिमाएँ हैं। कुल मिलाकर २२८+१३६+४०+४+२८+१२=४४८ प्रतिमाएँ तीनलोक रचना में विराजमान हैं।