== पांच अणुव्रतों की रक्षा करने के लिए या उनकी वृद्धि के लिए तीन गुणव्रत होते हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्ड व्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत । दिग्व्रत-सूक्ष्म पाप के निराकरण के लिए मरणपर्यंत दशों दिशाओं की मर्यादा करके उसके बाहर नहीं जाना दिग्व्रत है । अनर्थदण्डव्रत-दिशाओं की मर्यादा के भीतर निष्फल पापोपदेश आदि क्रियाओं से विरक्त होना अनर्थदण्डव्रत है । उसके पाँच भेद हैं-
पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या । पापोपदेश-तिर्यंचों को क्लेश देना, व्यापार करना, हिंसा, आरम्भ और छल-कपटसंबंधी कथा करना । हिंसादान-कुल्हाड़ी, तलवार, कुदाली आदि हसा के उपकरणों का दान देना । अपध्यान-रागद्वेष आदि से दूसरे का अशुभ चिंतवन करना । दु:श्रुति-आरम्भ, परिग्रह, मिथ्यात्व आदि वर्धक शास्त्रों का सुनना । प्रमादचर्या-निष्प्रयोजन पृथ्वी, जल आदि को नष्ट करना, वनस्पति तोड़ना आदि । भोगोपभोग परिमाण व्रत-भोग और उपभोग संबंधी वस्तुओं का त्याग करना या कुछ काल के लिए छोड़ना । यम और नियम का स्वरूप- यावज्जीवन त्याग को यम और कुछ काल तक त्याग को नियम कहते हैं।