तीरथ करने चली मोहिनी, शान्ति मार्ग अपनाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
एक बार जब गई मोहिनी, साधु चतुर्विध संघ जहाँ।
वह अजमेर धर्म की नगरी, दिखता चौथा काल वहाँ।।
तीर्थवंदना शुरू वहीं से, हुई मुक्तिपथ पाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
धन्य तिथि मगसिर बदि तृतिया, वरदहस्त गुरु का पाया।
संयम की अनमोल डोर वे, भवसागर से तिरवाया।।
रत्नमती बन गई मोहिनी, गाथा अमर बनाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।
सुखशान्ती का वैभव पाकर कहें मोहिनी माता है।
जैनी दीक्षा त्याग तपस्या, का विराग से नाता है।।
जग की ममता नहीं ‘‘माधुरी’’ हुई सफल माँ पाने को।
धर्मसागराचार्य संघ में, ज्ञानमती श्री पाने को।।