शांति–कुंथु–अरहनाथ को, नमन करूँ शतबार।
हस्तिनागपुर में हुए, तीनों के अवतार।।१।।
गर्भ जन्म तप ज्ञान ये, चार-चार कल्याण।
तीनों जिनवर के हुए, हस्तिनापुर में महान।।२।।
एक साथ इन तीन का, चालीसा सुखकार।
पढ़कर के त्रय पद लहूँ, पाऊँ शिव का द्वार।।३।।
जय हो शांतिनाथ जिनवर जी, सोलहवें तीर्थंकर प्रभु जी।।१।।
पंचम चक्रवर्ति पद धारी, द्वादश कामदेव सुखकारी।।२।।
विश्वसेन राजा के महल में, ऐरादेवी के आंगन में।।३।।
पन्द्रह मास रतन बरसे थे, देव-इन्द्र-नर सब हरषे थे।।४।।
भादों कृष्णा सप्तमि तिथि में, माँ ऐरा को स्वप्न दिखे थे।।५।।
सबने गर्भ कल्याण मनाया, माँ ने स्वप्नों का फल पाया।।६।।
जेठ वदी चौदस तिथि आई, तीन लोक में खुशियाँ छार्इं।।७।।
सोलहवें तीर्थंकर जनमे, लाञ्छन हिरण तुम्हारे पद में।।८।।
इसी तिथी में दीक्षाधारी, छोड़ी जग की सम्पति सारी।।९।।
पौष शुक्ल दशमी को प्रभु ने, पाया केवल पद जिनवर ने।।१०।।
फिर सम्मेदशिखर पर जाकर, कुंद कूट पर ध्यान लगाकर।।११।।
कर्मनाश कर शिवपद पाया, ज्येष्ठ कृष्ण चौदस दिन आया।।१२।।
शांतिनाथ की महिमा भारी, शांतिमंत्र जपते नर नारी।।१३।।
जय हो कुंथुनाथ तीर्थंकर, सत्रहवें जिनवर क्षेमंकर।।१४।।
चक्रवर्ति छट्ठे कहलाए, कामदेव तेरहवें गाए।।१५।।
सूरसेन पितु माँ श्रीकान्ता, हस्तिनापुर का राजभवन था।।१६।।
गर्भ तिथी श्रावण वदि दशमी, रत्नवृष्टि धनपति ने की थी।।१७।।
सुदि वैशाख प्रतिपदा तिथि में, हस्तिनापुर में प्रभु जन्मे थे।।१८।।
इस तिथि में ही दीक्षा धारी, वन में किया तपस्या भारी।।१९।।
चैत्र शुक्ल तृतिया तिथि आई, प्रभु ने केवल ज्योति जलाई।।२०।।
हस्तिनापुर में चार कल्याणक, बकरा चिन्ह सहित कुंथू प्रभु।।२१।।
सुदि वैशाख की एकम तिथि में, मुक्ति वरी सम्मेदगिरी से।।२२।।
कूट ज्ञानधर की महिमा है, गणधर चरण निकट पहला है।।२३।।
जय हो अरहनाथ तीर्थंकर, जो अठारवें माने जिनवर।।२४।।
हस्तिनापुर में जन्म हुआ था, उसका कण कण धन्य हुआ था।।२५।।
पिता सुदर्शन जी हरषाये, मात मित्रसेना उर आये।।२६।।
फाल्गुन वदि तृतिया की तिथि में, गर्भकल्याण किया सुरपति ने।।२७।।
धनदराज ने रत्नवृष्टि की, पन्द्रह महिने स्वर्ण वृष्टि की।।२८।।
मगसिर सुदि चौदस तिथि आई, जन्मकल्याणक खुशियाँ छाईं।।२९।।
नरकों में भी शांति हो गई, कुछ क्षण को विश्रान्ति हो गई।।३०।।
तीन लोक के नाथ की महिमा, तीर्थंकर के जन्म की गरिमा।।३१।।
चक्रवर्ति सप्तम कहलाए, कामदेव चौदहवें गाए।।३२।।
छह खंड राज्य किया फिर त्यागा, जब विराग था मन में जागा।।३३।।
मगसिर शुक्ल दशमि तिथि आई, प्रभुवर ने दीक्षा अपनाई।।३४।।
तपकर के केवल पद पाया, कार्तिक सित बारस दिन आया।।३५।।
चार कल्याणक हस्तिनापुर में, फिर पहुँचे सम्मेदशिखर पे।।३६।।
नाटक कूट पे ध्यान लगाया, वहीं से मोक्षधाम को पाया।।३७।।
चैत्र अमावस की शुभ तिथि में, शिवतिय वरण किया अर प्रभु ने।।३८।।
मछली लाञ्छन स्वर्णिम तन था, तीनों प्रभु तन कनक वर्ण था।।३९।।
तीनों प्रभु की भक्ति करें हम, रत्नत्रय की प्राप्ति करें हम।।४०।।
श्री शांति कुंथु अर तीर्थंकरत्रय का चालीसा पढ़ो सदा।
नवनिधि का व्रत भी करके भौतिक सुख सम्पत्ती भरो सदा।।
इन तीनों प्रभु की जन्मभूमि हस्तिनापुरी के दर्श करो।
तीरथ की रज मस्तक पे लगा मानव जीवन को सफल करो।।१।।
हस्तिनापुरी के जम्बूद्वीप में तीन विशाल मूर्तियाँ हैं।
जिनके दर्शन वन्दन करके मिट जाती सभी व्याधियाँ हैं।।
श्री गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी के ज्ञान का प्रतिफल है।
उनकी ही दिव्य देशना से तीरथ का कण-कण पावन है।।२।।
उनकी शिष्या चंदनामती आर्यिका रचित यह चालीसा।
पच्चिस सौ छत्तिस वीर संवत् वैशाख कृष्ण दुतिया को लिखा।।
श्री ज्ञानमती माता का दीक्षा दिवस सदा स्मरण करो।
रत्नत्रय बोधि प्राप्ति हेतू तीर्थंकरत्रय को नमन करो।।३।।
चालीसा पढ़ चालिस दिन तक चालिस फल को मंत्रित कर लो।
फिर एक-एक वह फल सब भव्यात्माओं को अर्पित कर दो।।
चालीसा का उत्तम फल हे भव्योत्तम! तुम पा जाओगे।
नवनिधियों के स्वामी बनकर इक दिन शिवपद पा जाओगे।।४।।