-मंगलाचरण-
त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्विरुपोपयोगभाक्।
त्वं त्रिरूपैकमुत्त्âयंगः स्वोत्थानंतचतुष्टयः।।१।।
त्वं पंचब्रह्मतत्त्वात्मा पंचकल्याणनायकः।
षड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः।।२।।
दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवललब्धिकः।
दशावतारनिर्धार्यो मां पाहि परमेश्वर!१।।३।।
हे भगवन्! आप जगत् को प्रकाशित करने वाले जगज्योतिस्वरूप एक हैं ज्ञान तथा दर्शन रूप द्विविध उपयोग के धारक होने से दो रूप हैं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप त्रिविध मोक्षमार्गमय होने से तीन रूप हैं। अपने आप में उत्पन्न हुए अनन्त चतुष्टयरूप होने से चार रूप हैं। पंच परमेष्ठीरूप होने से अथवा गर्भादि पंचकल्याणकों के नायक होने से पाँच रूप हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों के ज्ञाता होने से छह रूप हैं। नैगम आदि सात नयों के संग्रह स्वरूप होने से सात रूप हैं। सम्यत्त्âव आदि आठ अलौकिक गुणरूप होने से आठ रूप हैं। नौ केवललब्धियों से सहित होने से नव रूप हैं और महाबल आदि दश अवतारों से आप का निर्धारण होता है। इसलिए आप दश रूप हैं। इस प्रकार हे परमेश्वर! संसार के दुःखों से आप मेरी रक्षा कीजिए।
इन दश अवतारों का कथन करते हुए श्रीमज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में भगवान् की अग्रलिखित पद्यों से सौधर्मेंद्र के द्वारा स्तुति करायी है।
महाबल! नमस्तुभ्यं ललितांगाय ते नमः।
श्रीमते वङ्काजंघाय धर्मतीर्थप्रवर्तिने।।१।।
नमः स्तादार्य ते शुद्धि-श्रिते श्रीधर! ते नमः।
नमः सुविधये तुभ्य-मच्युतेन्द्र! नमोऽस्तु ते।।२।।
वङ्कास्तंभस्थिरांगाय नमस्ते वङ्कानाभये।
सर्वार्थसिद्धिनाथाय सर्वार्थां सिद्धिमीयुषे।।३।।
दशावतारचरम – परमौदारिकत्विषे।
सूनवे नाभिराजस्य नमोऽस्तु परमेष्ठिने१।।४।।
हे नाथ!आप इस भव से दशवें भव में महाबल नाम के विद्याधर राजा थे। यह आपका ‘महाबल’ नाम का प्रथम अवतार हुआ क्योंकि उसी भव से आपने उत्थान प्रारंभ किया था अथवा आप महान् बल-अतुल्यबल के धारक हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप नवमें भव पूर्व ‘ललितांग’ नाम के देव थे अथवा आप अतिशय सुन्दर-ललित अंग के धारक हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आठवें भव पूर्व आप वङ्काजंघ राजा थे अथवा आप वङ्का के समान मजबूत जंघाओं को धारण करने वाले एवं अंतरंग-बहिरंग लक्ष्मी से सहित, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं, अतः आपको नमस्कार हो।
आप सातवें भव पूर्व भोगभूमिज आर्य थे अथवा आप ‘आर्य‘-पूज्य हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप छठे भव पूर्व श्रीधर नाम के देव थे अथवा दिव्य उत्तम शोभा को धारण करने वाले होने से आपका ‘श्रीधर’ नाम सार्थक हैं, ऐसे आपको नमस्कार हो। आप पाँचवे भव पूर्व ‘सुविधि‘ राजा थे अथवा आप सुविधि-उत्तम भाग्यशाली हैं अतः आपको नमस्कार हो। आप चौथे भव पूर्व अच्यतु नाम के सोलहवें स्वर्ग के इंद्र थे अथवा ‘अच्युतेन्द्र’ अर्थात् अविनाशी स्वामी हैं अतः आपको नमस्कार हो। आप तीसरे भव में वङ्कानाभि चक्रवर्ती थे अथवा आप वर्तमान में वङ्का के समान मजबूत नाभि को धारण करने वाले हैं अतः आप ‘वङ्कानाभि’ भगवान् को नमस्कार हो। आप इस भव से दूसरे भव पूर्व सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान के स्वामी थे अथवा आज आप सम्पूर्ण अर्थ-मनोरथों की या सर्वप्रयोजनों की सिद्धि को प्राप्त हैं इसलिए ‘सर्वार्थसिद्धिनाथ’ आप को नमस्कार हो। हे नाथ! आप ‘दशावतारचरम’ हैं अर्थात् आप सांसारिक पर्यायों में अंतिम अथवा ऊपर कहे हुए महाबल आदि दश अवतारों में अंतिम परमौदारिक शरीर को धारण करने वाले महाराजा नाभिराज के पुत्र प्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव परमेष्ठी हुए हैं इसलिए आपको नमस्कार हो।
इन दशावतारों में क्रम से-१. महाबल २. ललितांग देव ३. राजा वङ्काजंघ ४. भोगभूमिजआर्य ५. श्रीधरदेव ६. राजा सुविधि ७. अच्युतेन्द्र ८. चक्रवर्ती वङ्कानाभि ९. सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र १०. भगवान ऋषभदेव, इन भवों को समझना चाहिए।
सौधर्मेन्द्र ने भगवान ऋषभदेव का जन्मोत्सव सुमेरु पर्वत पर करने के बाद अयोध्या में आकर जब बालक को माता-पिता को सौंप दिया था उसके बाद वहीं पर ‘आनन्द’ नाम से बहुत ही सुन्दर नाटक किया उसी के अंतर्गत ताण्डव नृत्य किया था, उसी समय इंद्र ने भगवान के दशावतार सम्बंधी नाटक भी किया था।
इस पुस्तक में क्रम से इन दश भवों का वर्णन किया गया है।
इसी जम्बूद्वीप में विदेहक्षेत्र के अंतर्गत ‘गंधिला’ नाम का देश है। अपने इस भरत क्षेत्र के सदृश वहाँ पर भी मध्य में विजयार्ध पर्वत है, जिसकी दक्षिण-उत्तर दोनों ही श्रेणियों में विद्याधर लोग निवास करते हैं। इस पर्वत की उत्तर श्रेणी में ‘अलका’ नाम की सुन्दर नगरी है। वहां पर ‘महाबल’ नाम के राजा धर्मनीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। उनके महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयंबुद्ध ये चार मंत्री थे।विद्याधरों के पास तीन प्रकार की विद्यायें हुआ करती हैं। जातिविद्या, कुल विद्या और साधितविद्या। मातृ पक्ष से प्राप्त विद्या जातिविद्या है। पितृ पक्ष से प्राप्त विद्या कुलविद्या है एवं मंत्रादि से सिद्ध की हुई विद्या साधितविद्या है। इन विद्याओं के बल से वे अनेक प्रकार के रूप, महल, नगर वस्तु आदि बना लेते हैं और भोगोपभोग सामग्री से अधिक सुखी रहते हैं। विद्या के बल से यत्र-तत्र मानुषोत्तर पर्वत तक विहार करते रहते हैं। मेरु आदि पर्वतों पर जाकर भक्ति, पूजा, वंदना करव्ाâे महान् पुण्य बंध किया करते हैं।किसी दिन राजा महाबल की जन्मगाँठ का उत्सव हो रहा था, विद्याधरों के राजा महाबल सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय वे चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए, किसी को स्थान, मान, दान देकर, किसी के साथ हँसकर, किसी से संभाषण आदि कर सभी को संतुष्ट कर रहे थे। उस समय राजा को प्रसन्नचित देखकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने कहा-हे राजन् ! जो आपको यह विद्याधरों की लक्ष्मी प्राप्त हुई है, उसे केवल पुण्य का ही फल समझिये। ऐसा कहते हुए मंत्री ने अहिंसामयी सच्चे धर्म का विस्तृत विवेचन किया।यह सुनकर महामति नाम के मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्! इस जगत् में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिए आत्मा की और परलोक की चिंता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोक संबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से च्युत होकर व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं।
अनंतर संभिन्नमति मंत्री बोलने लगा कि, हे राजन! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षण भंगुर हैं। जो-जो क्षण भंगुर होते हैं वे सब ज्ञान के ही विकार हैं। ज्ञान से पृथक् चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं है। यदि पदार्थों का अस्तित्व मानो तो वे नित्य होना चाहिए परन्तु संसार में कोई भी पदार्थ नित्य नहीं दिखते हैं, सब एक-एक क्षण में ही नष्ट हो जाते हैंं अतः परलोक में सुख प्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है।इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा।उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्यरूप हैं, इसमें नर, पशु, पक्षी, घट, पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सर्व मिथ्या हैं। भ्रांति से ही वैसा प्रतिभास होता है जैसे कि इंद्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं, भ्रांति रूप ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है। अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं, वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं।इन तीनों मंत्रियों के सिद्धान्तों को सुनकर स्वयंबुद्ध मंत्री ने अपने सम्यग्ज्ञान के बल से उनका बलपूर्वक खंडन करके स्याद्वाद सिद्धान्त को सत्य सिद्ध कर दिया तथा राजा महाबल के पूर्वजों का पुण्य चरित्र भी सुनाते हुए धर्म और धर्म के फल का महत्व बतलाया। इस प्रकार स्वयंबुद्ध मंत्री के उदार और गंभीर वचनों से समस्त सभा प्रसन्न हो गई।किसी समय स्वयंबुद्ध मंत्री सुमेरु पर्वत की वंदना को गया था। वहां वंदना करते हुए सौमनसवन के पूर्व दिशा के चैत्यालय में बैठ गया। अकस्मात् ही पूर्व विदेह से युगमंधर भगवान् के समवसरण रूपी सरोवर के मुख्य हंस स्वरूप आकाश में चलने वाले आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो मुनिराज वहां आ गये। बुद्धिमान् मंत्री ने उनकी पूजा-स्तुति आदि करके उपदेश श्रवण किया। अनंतर प्रश्न किया कि हे भगवन् ! हमारा महाबल स्वामी भव्य है या अभव्य?
आदित्यगति मुनिराज ने कहा-हे मंत्रिन् ! तुम्हारा स्वामी भव्य ही है। वह इससे दशवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम ‘तीर्थंकर’ होगा। पश्चिम विदेह के गंधिला देश में सिंहपुर नगर है। वहां के राजा श्रीषेण के जयवर्मा और श्रीवर्मा नाम के दो पुत्र थे। उनमें से छोटा श्रीवर्मा माता-पिता और सभी को अतिशय प्रिय था, अतः राजा ने उसे ही राज्य भार सौंप दिया और बड़े पुत्र की उपेक्षा कर दी। इस घटना से जयवर्मा ने पूर्वकृत पापों की निंदा करते हुए विरक्त होकर स्वयंप्रभ गुरु से जिन-दीक्षा ले ली। वह मुनि नव दीक्षित था। एक दिन आकाश मार्ग से जाते हुए महीधर विद्याधर का वैभव देखकर विद्याधर के भोगों का निदान कर लिया अर्थात् ‘ये विद्याधर के भोग मुझे अगले भव में प्राप्त हो’ ऐसा भाव कर लिया। उसी समय बामी से निकलकर एक भयंकर सर्प ने उसे डस लिया। वह मुनिराज मरकर के आपके राजा महाबल हुए हैं। पूर्व में भोगों की इच्छा से आज भी उसे भोगों में आसक्ति अधिक है किन्तु अभी आपके वचनों से वह शीघ्र ही विरक्त होगा। आज रात को उसने स्वप्न देखा है कि तीन मंत्रियों ने उसे जबरदस्ती कीचड़ में गिरा दिया और तुमने मंत्रियों की भर्त्सना करके राजा को सिंहासन पर बिठा कर अभिषेक किया है। अनंतर दूसरे स्वप्न में अग्नि की एक ज्वाला को क्षीण होते हुए देखा है। अभी वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा में बैठा है, अतः तुम शीघ्र ही जाकर उसके पूछने के पहले ही स्वप्नों को फल सहित बतलाओ।
मंत्री स्वयंबुद्ध ने तत्क्षण ही जाकर राजा को बताया कि प्रथम स्वप्न का फल भविष्य में विभूतिसूचक है एवं द्वितीय स्वप्न का फल यह है कि आपकी आयु एक माह की शेष रह गई है। अब शीघ्र ही धर्म को धारण करो और बहुत कुछ विस्तृतरूप में धर्म का उपदेश दिया। राजा महाबल ने विरक्त चित्त होकर अपने पुत्र अतिबल को राज्य देकर घर के उद्यान के जिन मंदिर में आठ दिन तक आष्टाह्निक महायज्ञ पूजन किया। अनन्तर सिद्धकूट चैत्यालय में जाकर गुरु की साक्षीपूर्वक जीवन-पर्यन्त के लिए चतुराहार का त्याग करके विधिवत् सल्लेखना ग्रहण कर ली। मंत्री को सल्लेखना कराने में निर्यापचार्य बनाकर सन्मान किया। शरीर से निर्मम हो बाह्य-अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर वह मुनि के सदृश प्रायोपगमन संन्यास में स्थिर हो गया। इस सन्यास में स्वकृत-परकृत उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है। कठिन तपश्चर्या करते हुए महाबल विद्याधर ने शरीर को अतिशय क्षीण करके पंच परमेष्ठियों का स्मरण करते हुए अत्यन्त निर्मल परिणामों को प्राप्त हो गया। मांस, रक्त के सूख जाने पर महाबल ने शरीर को छोड़ कर ऐशान स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में ‘ललितांग’ नामक उत्तम देव हो गया। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से धर्म की सहायता करने वाले मंत्री ने अन्त तक अपने मंत्रीपने का कार्य किया।वास्तव में हितैषी बन्धु, मंत्री, पत्नी, पुत्र, मित्र वे ही हैं जो मोक्षमार्ग में लगाते हैं किन्तु आजकल तो ये परिकर लोग धर्म से हटाकर विषयों में पँâसाने में ही सच्ची हितैषिता समझते हैं।पूर्वकाल में भी ऐसे लोग थे जो कि धर्म से छुटाकर पाप मार्ग में या विषयों में लगाकर अपना प्रेम व्यक्त करते थे किन्तु ऐसे लोग कम थे और आज भी ऐसे लोग हैं जो अपने कुटुम्बियों को हितकर धर्म मार्ग में-त्याग मार्ग में लगाकर प्रसन्न होते हैं परन्तु ऐसे लोग विरले ही हैं।
ललितांग देव अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों का धारक ऐशान स्वर्ग के दिव्य भोगों का अनुभव कर रहा था। उस देव के चार हजार देवियाँ थीं और चार महादेवियाँ थीं। महादेवियों के नाम क्रमशः स्वयंप्रभा, कनकप्रभा, कनकलता और विद्युल्लता थे। देवों की आयु सागर प्रमाण से रहती थी और देवियों की आयु पल्य के प्रमाण से रहती थी। अतः उस देव की अनेकों देवियाँ अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर चुकीं और उनके-उनके स्थान पर अन्य-अन्य देवियाँ आती गयीं। जब ललितांग देव की आयु कुछ पल्य प्रमाण ही शेष रही तब स्वयंप्रभा नाम की अतिशय प्यारी महादेवी उत्पन्न हुई।
धातकीखण्ड द्वीप के विदेह क्षेत्र में पलाल पर्वत नाम के ग्राम में देविल नाम के पटेल की पत्नी सुमति के उदर से धनश्री नाम की कन्या हुई। किसी दिन उसने पाठ करते हुए एक समाधिगुप्त नाम के मुनिराज के समीप में एक मरे हुए कुत्ते का दुर्गंधित कलेवर डाल दिया। मुनिराज ने इस घटना से उसे सम्बोधित किया-पुत्री! तूने यह बहुत ही गलत कार्य किया है तुझे इस पाप के निमित्त से बहुत ही कटु फल भोगना पड़ेगा। सुनकर वह बालिका धनश्री घबरा गई एवं गुरु के चरणों में बार-बार नमस्कार कर क्षमा याचना करने लगी। उस क्षमा याचना से उसका पाप हल्का हो गया। अपनी आयु पूर्ण कर वह धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिमविदेह में गंधिला देश के पाटली नामक ग्राम में नागदत्त वैश्य की पत्नी सुमति के गर्भ से कन्या हो कर जन्मी। उसका नाम निर्नामा रखा गया। एक दिन उसने अम्बर तिलक पर्वत पर विराजमान अवधिज्ञानी पिहितास्रव महामुनि के दर्शन किये। पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! मैं किस कर्म के उदय से इस दरिद्र कुल में जन्मी हूं? महामुनि ने कहा-पुत्री! तूने पूर्वभव में एक महामुनि के निकट में मृतक कुत्ते को डालकर पाप संचित किया था, यद्यपि तूने मुनि के सम्बोधन से क्षमायाचना कर बहुत कुछ पाप घटा लिया था फिर भी जो शेष पाप बच गया था उसी के निमित्त से तू मनुष्य योनि में आकर भी दरिद्रावस्था को प्राप्त है।पुनः पुनः कन्या के द्वारा इस पापक्षय का उपाय पूछने पर गुरुदेव ने बताया कि-बालिके! तू जिनेन्द्रगुणसंपत्ति व्रत एवं श्रुतज्ञानव्रत विधिवत् कर जिससे तेरे समस्त पापों का क्षय होगा।इसकी विधि इस प्रकार है-तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारणभूत सोलहकारण भावनाओं के १६ व्रत, पाँच कल्याणक के ५, आठ प्रातिहार्य के ८, चौंतीस अतिशय के ३४ ऐसे ६३ व्रत करने होते हैं। यह व्रत जिनेन्द्रगुणसंपत्ति व्रत कहलाता है।दूसरे श्रुतज्ञानव्रत में मतिज्ञान के २८, ग्यारह अंगों के ११, परिकर्म के २, सूत्र के ८८, अनुयोग का १, पूर्व के १४, चूलिका के ५, अवधिज्ञान के ६, मनःपर्ययज्ञान के २ और केवलज्ञान का १ ऐसे १५८ व्रत होते हैं।
इन व्रतों की उत्तम विधि तो उपवास की ही है। मध्यम या जघन्य रूप से अपनी शक्ति एवं गुरु आज्ञा के अनुसार भी आज व्रत किये जाते हैं।
यही निर्नामा कन्या इन व्रतों के प्रभाव से ईशान स्वर्ग में ललितांग देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी हुई।वह देव स्वयंप्रभा देवी के साथ मेरु पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत आदि पर सदैव क्रीड़ा किया करता था। किसी समय अकस्मात् ललितांग देव के गले की मंदार की माला मुरझा गई और भी अनेकों चिन्हों से देव ने अपनी आयु छह माह की अवशेष जान ली और शोक से पीड़ित हो गया। इस समाचार को जानकर सामानिक जाति के देवों ने आकर ललितांग देव को समझाना शुरू किया। उन्होंने कहा-हे देव! अधिक कहाँ तक कहा जावे, स्वर्ग से च्युत होने के सम्मुख देव को जो तीव्र दुःख होता है वह नारकी को भी नहीं हो सकता। इस समय आप प्रत्यक्ष उस दुःख का अनुभव कर रहे हैं, किन्तु स्वर्ग से च्युत होना अनिवार्य है। इसलिए हे आर्य! ऐसे धर्म का अवलम्बन करो जो कि जन्म-मरण के चक्कर से छुटाने वाला है। यह धर्म परम शरण है।
इस प्रकार देवों के सम्बोधन से ललितांग देव ने धैर्य को धारण कर धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिनचैत्यालयों की पूजा की। अनन्तर अच्युत स्वर्ग की जिन-प्रतिमाओं की पूजा करता हुआ आयु के अन्त में स्थिर चित्त होकर चैत्य वृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार मंत्र का उच्चारण करता हुआ अदृश्य हो गया अर्थात् मर गया।
उधर ईशान स्वर्ग में स्वयंप्रभा देवी ललितांग देव के वियोग में बहुत ही संताप को प्राप्त हुई। तब दृढ़धर्म देव ने उसका शोक दूर करके उसे धर्म में स्थिर किया। उस समय वह स्वयंप्रभा छह महीने तक बराबर जिन पूजा करने में उद्यत रही। तदनन्तर सौमनस वन संबंधी पूर्व दिशा के जिन मंदिर में चैत्य वृक्ष के नीचे पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए समाधि पूर्वक प्राण त्याग कर स्वर्ग से च्युत हुई। पूर्व विदेह के पुण्डरीकिणी नगर के राजा वङ्कादन्त की रानी लक्ष्मीमती से ‘श्रीमती’ नाम की कन्या हो गई। क्रमशः श्रीमती कन्या ने यौवन अवस्था को प्राप्त कर लिया।
इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है, उसमें उत्पल खेट नाम का नगर है। वहां के राजा वङ्काबाहु की रानी वसुंधरा ने शुभ दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया, जिसका नाम ‘वङ्काजंघ’ रखा गया। वह वङ्काजंघ अपनी रूप संपत्ति से मानो ललितांग देव के रूप को भी हँस रहा था।एक दिन केवली भगवान् के पूजार्थ देवों के आगमन को देखकर श्रीमती को ललितांग देव का स्मरण हो गया। अनन्तर उसने एक चित्रपट पर ललितांग देव संबंधी घटनाएं बनाकर अपनी धाय को दे दिया और वह पंडित धाय महापूत जिनालय में जाकर वह चित्रपट लेकर बैठ गई। अनेकों राजकुमारों के अनंतर कदाचित् वह वङ्काजंघ राजकुमार वहाँ दर्शनार्थ आये और चित्रपट को देखते ही उन्हें जातिस्मरण हो गया। कुमार वङ्काजंघ ने भी अपना परिचय देकर और अपना चित्रपट देकर उस पंडिता को विदा कर दिया।चक्रवर्ती वङ्कादंत की वसुंंधरा बहन थी और वङ्काबाहु बहनोई तथा वङ्काजंघ भानजा था। बड़े ही आदर से वङ्काजंघ के साथ श्रीमती का विवाह सम्पन्न हो गया।चक्रवर्ती की कन्या को ब्याह कर राजकुमार वङ्काजंघ दूसरे दिन सायंकाल में अनेक दीपकों का प्रकाश कर रानी श्रीमती के साथ महापूत जिनालय में दर्शनार्थ आये और स्वर्णमयी जिनप्रतिमा का अभिषेक करके अष्ट द्रव्यों से पूजा की, अनेकों स्तुतियों से जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करके राजमहल में आ गये।किसी समय अपनी ससुराल जाते हुए राजा वङ्काजंघ ने वन में डेरा डाल दिया। वहीं पर आकाश में गमन करने वाले दमधर और सागरसेन मुनिराज आहारार्थ पधारे। उन्होंने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा कर रखी थी। राजा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ उनको भक्ति से पड़गाहा और विधिवत् आहारदान दिया, उसी समय देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि कर दी। अनन्तर कंचुकी के कहने से यह मालूम हुआ कि ये तुम्हारे ही अंतिम युगल पुत्र हैं। अर्थात् बाबा वङ्काबाहु के साथ वङ्काजंघ के अट्ठानवे पुत्रों ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी। उनमें से ये अंतिम युगल पुत्र थे। यह जानकर राजा-रानी के हर्ष का पार नहीं रहा।
उनकी भक्तिपूजा करके उनसे धर्म का स्वरूप सुना, पुनः अपने और श्रीमती के तथा औरों के पूर्व भव पूछे। दमधर मुनिराज ने बताया कि हे राजन् ! आप इससे आठवें भव में भरतक्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव होंगे और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होकर दान तीर्थ का प्रवर्तक होगा। ये मतिवर मंत्री आदि जो बड़े प्रेम से आहारदान देख रहे थे, इनमें से क्रमशः मतिवर मंत्री का जीव भरत चक्रवर्ती होगा। आनन्द पुरोहित का जीव बाहुबलि होगा। अकंपन सेनापति ऋषभसेन पुत्र होगा एवं धनमित्र सेठ अनन्तविजय पुत्र होगा। ये सिंह, सूकर, वानर और नकुल जो बड़े प्रेम से आहारदान देख रहे थे, ये इस दान की अनुमोदना से उन्नति करते हुए आपकी ऋषभदेव की पर्याय में क्रमशः विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नाम के पुत्र होंगे। ये सभी जीव आपके तीर्थ में ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे। इन सबका संबंध सुनकर राजा वङ्काजंघ आदि सभी को महान हर्ष हुआ।राजा वङ्काजंघ ने एक बार में ही आहारदान देकर इतना महान् पुण्य संचय कर लिया था।किसी समय वे राजा अपनी रानी श्रीमती के साथ महल में सोये हुए थे। नौकरों ने कमरों को सुगंधित करने के लिए धूप खेई थी। अनन्तर खिड़कियाँ खोलना भूल गये। बस अंदर में धुएँ के रुक जाने से दोनों के कंठ रुँध गये और वे दीर्घ निद्रा में सो गये अर्थात् मर गये।अहो! देखो जो भोगापभोग की वस्तुएँ आनन्दमयी होती हैं, वे ही मृत्यु का कारण बन गईं, इसलिए इन भोगों को धिक्कार हो।इस दान के प्रभाव से वे दोनों मरकर उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में दम्पत्ति हो गये और वहाँ पर दस प्रकार के कल्पवृक्षों के भोगों का अनुभव करने लगे।
किसी समय वङ्काजंघ आर्य अपनी स्त्री के साथ कल्पवृक्ष की शोभा देखते हुए बैठे थे कि वहां पर आकाश मार्ग में दो चारण-ऋद्धिधारी मुनि उतरे। वङ्काजंघ के जीव आर्य ने शीघ्र ही पत्नी सहित खड़े होकर उनका विनय करके नमस्कार किया। उस समय उन दोनों दम्पत्ति के नेत्रों से हर्षाश्रु निकल रहे थे। दोनों मुनि दम्पत्ति को आशीर्वाद देकर यथायोग्य स्थान पर बैठ गये। उनके नाम प्रीतिंकर और प्रीतिदेव थे। वङ्काजंघ ने पूछा-हे भगवन् ! आप कहाँ से आये हैं? आपके प्रति मेरे हृदय में आत्मीयता का भाव उमड़ रहा है।प्रीतिंकर मुनिराज बोले-हे आर्य! आप इससे पूर्व चतुर्थ भव में विद्याधर के राजा महाबल थे और मैं आपका स्वयंबुद्ध नाम का मंत्री था। उस समय मैंने तुम्हें जैनधर्म ग्रहण कराया था, पुनः मैं जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अंत में मरकर स्वर्ग में गया। वहाँ से पूर्व विदेह के राजा प्रियसेन की रानी सुन्दरी देवी के मैं प्रीतिंकर पुत्र हुआ हूँ और यह प्रीतिदेव महातपस्वी मेरा छोटा भाई है। हम दोनों ने स्वयंप्रभ जिनराज के समीप दीक्षा लेकर अवधिज्ञान एवं चारणऋद्धि प्राप्त कर ली है। चूँकि उस भव में आप मेरे परम मित्र थे इसलिए आपको समझाने के लिए हम यहाँ आये हैं।हे भव्य! निर्मल सम्यक्त्व के बिना केवल पात्र दान के प्रभाव से तू यहाँ उत्पन्न हुआ है, ऐसा समझ। महाबल के भव में तूने हमसे ही तत्वज्ञान प्राप्त कर शरीर छोड़ा था, परन्तु उस समय भी तू सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सका था, अब हम सम्यक्त्वरूपी अमूल्य निधि को तुझे देने के लिए यहाँ आये हैं। इसलिए हे आर्य! आज सम्यग्दर्शन ग्रहण करें। वीतराग सर्वज्ञ देव, आप्त कथित आगम और जीवादि पदार्थों का बड़ी निष्ठा से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह आठ अंग सहित, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता रहित होता है। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य-ये चार इसके गुण हैं।
इस प्रकार मुनिराज वङ्काजंघ आर्य को समझाकर श्रीमती आर्या को समझाने लगे। हे मातः! सम्यग्दर्शन के बिना ही यह स्त्री-पर्याय प्राप्त होती है, सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम नरक के बिना छह नरकों में, स्त्री पर्याय में, एकेन्द्रिय पर्याय, विकलत्रय पर्याय आदि निंद्य योनियों में उत्पन्न नहीं होते हैं। हे मातः! तू भी सम्यग्दर्शन धारण कर और इस स्त्री पर्याय से छूटकर क्रम से सप्तपरम स्थानों को प्राप्त कर।दोनों दम्पत्ति ने अत्यधिक प्रसन्नचित होकर सम्यक्त्व-रत्न को ग्रहण किया। पहले कहे हुए वङ्काजंघ पर्याय में आहारदान के समय जो सिंह, सूकर, वानर और नेवला थे, वे दान की अनुमोदना से वहीं पुरुष पर्याय में जन्मे थे। वे भी इस समय प्रीतिंकर गुरुदेव के मुख से उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन रूपी अमृत को प्राप्त हुए थे। दोनों ही दम्पत्ति को दोनों ही मुनिराज ने बार-बार धर्म-प्रेम से स्पर्श किया और आशीर्वाद देते हुए आकाश मार्ग से विहार कर गये। जब वे मुनिराज चले गये तब आर्य वङ्काजंघ ने बहुत देर तक उनके वियोग जन्य दुःख का अनुभव किया। अनन्तर उनके गुणों का चिंतवन करते हुए सोचने लगा कि देखो! महाबल के भव में भी वे स्वयंबुद्ध नामक मेरे गुरु हुए थे और इस भव में सम्यग्दर्शन देकर विशेष गुरु हुए हैं। सचमुच में सिद्धरस ताँबा आदि धातुओं को स्वर्ण बना देता है वैसे ही गुरु संगति भी भव्यजनों को शुद्ध सिद्ध बना देती है। गुरु उपदेश रूपी नौका के बिना यह घोर संसार समुद्र नहीं तिरा जाता है। गुरु ही अकारण बन्धु है। इस प्रकार सम्यक्त्व से विशुद्ध उन भोगभूमिज आर्यों ने कल्पवृक्ष के उत्तम भोगों का अनुभव करते हुए और तत्त्वभावना में मन को लगाते हुए तीन पल्य की आयु को समाप्त कर दिया।
वङ्काजंघ का जीव ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम का ऋद्धिधारी देव हुआ। श्रीमती आर्या भी सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्री पर्याय से छूटकर उसी स्वर्ग में स्वयंप्रभ नाम का उत्तम देव हुआ। सिंह, सूकर, वानर, नकुल के जीव भी उसी स्वर्ग में उत्तम ऋद्धि के धारक देव हो गये। ये वङ्काजंघ का जीव भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर वृषभदेव होगा और श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होगा।
प्रश्न-मुनियों के उपदेश के सिवाय भोगभूमिज में क्या और भी कोई सम्यक्त्व के कारण हैं?उत्तर-हाँ, जातिस्मरण हो जाने से, उपदेश श्रवण से, देवर्द्धि आदि देखने से भी सम्यक्त्व प्रगट हो सकता है।
कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भोगभूमि में नहीं जा सकता। सम्यग्दृष्टि पात्रदान के प्रभाव से स्वर्ग ही जायेगा। हाँ, यदि किसी ने पहले मनुष्यायु तिर्यंचायु का बंध कर लिया अनन्तर सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ है तब वह जीव नियम से कर्मभूमि का मनुष्य या तिर्यंच न होकर भोगभूमि में ही मनुष्य या तिर्यंचयोनि में जन्म लेगा और वहाँ से सौधर्म-ईशान स्वर्ग जन्मेगा।सचमुच में पूर्व जन्म के स्नेह के संस्कार से ही प्रीतिंकर महामुनिराज ने उन भोगभूमिजों को सम्यक्त्व ग्रहण कराया अन्यथा वहाँ भोगभूमि में वे मुनिराज क्यों जाते?स्नेह और बैर दोनों के संस्कार जीवों के कई भवों तक चलते रहते हैं। अतः बैर का संस्कार कभी नहीं बनाना चाहिए।
श्रीप्रभ नामक पर्वत पर ध्यान करते हुए प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो गया और देवों ने आकर गंधकुटी की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। ईशान स्वर्ग के श्रीधर देव ने भी अवधिज्ञान से जान लिया कि हमारे गुरु प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्रकट हो चुका है, वह भी उत्तमोत्तम सामग्री लेकर पूजा के लिए वहाँ आया। पूजन आदि करके धर्म का स्वरूप सुना, अनंतर प्रश्न किया।
हे भगवन् ! महाबल की पर्याय में जो मेरे तीन मंत्री मिथ्यादृष्टी थे, वे इस समय किस गति में हैं? उस समय सर्वज्ञदेव ने कहा, कि हे भव्य! उन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो मंत्री तो निगोद पर्याय को प्राप्त हो चुके हैं जहाँ मात्र सघन अज्ञानांधकार ही व्याप्त है। वहाँ अत्यन्त तृप्त खौलते हुए जल में होने वाला खलबलाहट के समान अनेकों बार जन्म-मरण धारण करने पड़ते हैं। वहाँ निगोद पर्याय में यह जीव एक श्वास के काल में अठारह बार जन्म-मरण कर लेता है। निगोद से निकलकर पुनः त्रस पर्याय पाना बहुत ही किठन है। जैसे कि कोई मनुष्य समुद्र में एक राई का दाना डाल दे और हजार वर्ष के बाद उसको ढूंढ़े तो मिलना कठिन है, वैसे ही निगोद पर्याय से निकलना अत्यन्त कठिन है तथा शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण द्वितीय नरक में चला गया है।
उस समय प्रीतिकर गुरुदेव के वचनों से अत्यन्त तृप्त हुआ। वह श्रीधर देव सोचने लगा-अहो! निगोद पर्याय में जाकर संबोधा भी नहीं जा सकता है। देखो, पाँचो इन्द्रियों की प्राप्ति होना कितना कठिन है और ये जीव क्षणिक स्वार्थ में पड़कर मिथ्यात्व से मोहित होकर ऐसी दुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं। उस समय उसने द्वितीय नरक में जाकर शतमति मंत्री के जीव को समझाने का प्रयन्त किया।
देव ने कहा-अरे मूढ़ शतमति! देख, क्या तू मुझ महाबल को जानता है? उस भव में तूने मुझे भी मिथ्यात्व का उपदेश दिया था और उसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष में तू इस नरक वेदना को भोग रहा है। अब तू शीघ्र ही सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को ग्रहण कर। इस प्रकार देव के बहुत कुछ उपदेश से उस नारकी ने मिथ्यात्व का वमन करके सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लिया। आयु के अंत में भयंकर नरक से निकलकर पुष्करद्वीप के पूर्व विदेह में महीधर चक्रवर्ती का पुत्र जयसेन हुआ। यौवन अवस्था में उसका विवाह हो रहा था, उस समय पुनः श्रीधर देव ने स्वर्ग से आकर उसे समझाया और नरकों के भयंकर दुःख की याद दिलाई जिससे वह जयसेन तत्क्षण ही विषयों से विरक्त हो गया और यमधर मुनिराज के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। तपश्चरण करते हुए अंत में समाधि पूर्वक प्राण छोड़ कर ब्रह्म स्वर्ग में इंद्र पद को प्राप्त कर लिया। देखो, कहाँ तो नारकी होना, कहाँ इंद्र पद की प्राप्ति होना? मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का यह प्रत्यक्ष फल देख कर हे भव्य जीवों! धर्म में ही अपनी बुद्धि को स्थिर करो। अनंतर अवधि ज्ञानी इस ब्रह्मेन्द्र ने अपने पूर्वभवों के वृत्तांत को याद कर ब्रह्म स्वर्ग से ईशान स्वर्ग में आकर श्रीधर देव की विशेष रूप से पूजा की क्योंकि उपकारी के उपकार को न भूलना उनकी पूजा, भक्ति करना ही विनीत सम्यग्दृष्टि का कर्त्तव्य है।
श्रीधर देव का जीव ईशान स्वर्ग से च्युत होकर जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में महावत्सा देश की सुसीमा नगरी के राजा सुदृष्टि की रानी सुंदरनंदा के गर्भ में आ गया। नव माह बाद सुंदरनंदा ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसके अनेक उत्तम-उत्तम लक्षणों को देखकर परिवार के जनों ने उसका सुविधि यह नाम रखा। यह बालक माता-पिता एवं प्रजाजनों के हर्ष को बढ़ाते हुए धीरे-धीरे तरुण अवस्था को प्राप्त हो गया। वहीं विदेह क्षेत्र में अभयघोष नाम के चक्रवर्ती थे, उनकी एक पुत्री का नाम मनोरमा था। चक्रवर्ती ने अपनी पुत्री मनोरमा का विवाह राजकुमार सुविधि के साथ कर दिया।
इधर राजा सुदृष्टि ने भी सुविधि को सर्वगुणों से युक्त देखकर उसे अपना राज्य सौंप दिया। राजा सुविधि अपनी रानी मनोरमा के साथ धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का सेवन कर रहे थे। इसी मध्य ईशान स्वर्ग के श्रीप्रभ देव का जीव रानी के गर्भ में आ गया, नव माह बाद पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उसका नाम ‘केशव’ रखा। राजा वङ्काजंघ की पर्याय में जो रानी श्रीमती का जीव था और जिसने भोगभूमि में ‘आर्या’ की पर्याय में श्रीगुरु से सम्यग्दर्शन धारण किया था। अतएव सम्यक्त्व के माहात्म्य से जिसने स्त्रीपर्याय से छूटकर ईशानस्वर्ग में श्रीप्रभ देव के वैभव को प्राप्त किया था वहीं श्रीमती पत्नी का जीव इस भव में राजा का पुत्र हो गया है। वास्तव में पुत्र ही पिता के लिए अतीव स्नेह बन्धन का कारण होता है पुनः वह यदि पूर्वभवों में प्रिय पत्नी के रूप में रहा हो तो भला उसके प्रति प्रेम का क्या कहना? यही कारण था कि राजा सुविधि का अपने पुत्र केशव के प्रति अप्रतिम स्नेह था।इधर वङ्काजंघ राजा के द्वारा वन में आहारदान के समय जो सिंह, नकुल, वानर और सूकर पशुओं ने दान की अनुमोदना से पुण्यसंचित कर भोग भूमि के सौख्य को पाया था पुनः वे चारों ही द्वितीय स्वर्ग में देव हुए थे। वे चारों ही देव अपनी-अपनी आयु पूर्ण कर स्वर्ग से च्युुत होकर उसी विदेह क्षेत्र में क्रम से वरदत्त, वरसेन, चित्रांगद और प्रशान्तमदन नाम के राजपुत्र हो गये। ये सभी समान आकार समान रूप और समान वैभव को धारण करने वाले अपने-अपने योग्य राज्यलक्ष्मी को पाकर सुख का अनुभव करते थे।एक समय भगवान् विमलवाहन का समवसरण वहाँ आया हुआ था। अभयघोष चक्रवर्ती और वे वरदत्त आदि चारों राजा अपने अनेक परिकर को लेकर भगवान् की वंदना करने के लिए गये। भगवान् की वंदना, भक्ति करके प्रभु का दिव्य उपदेश सुना। साथ में हजारों-हजारों राजा थे। चक्रवर्ती को प्रवचन सुनने के बाद वैराग्य हो गया। संसार की क्षणभंगुरता को जानकर सम्राट् चक्रवर्ती ने चारों राजा समेत अठारह हजार राजाओं के साथ एवं अपने पाँच हजार राजपुत्रों के साथ वहीं समवसरण में दैगंबरी दीक्षा ले ली और महामुनि बन गये।
राजा सुविधि को जब यह समाचार विदित हुआ तब उसे धर्मप्रेम के साथ आश्चर्य भी हुआ तथा रानी मनोरमा को पिता व पाँच हजार भ्राताओं की एक साथ मुनिदीक्षा सुनकर बहुत ही शोक हुआ, वह मोह के वशीभूत हो विलाप करने लगी।हे पिताजी! आपने सम्पूर्ण राज्य को, सम्पूर्ण अन्तःपुर को एवं सम्पूर्ण प्रजा को वैâसे अनाथ कर दिया? Dाब यह चक्ररत्न किसकी आज्ञा में रहेगा?
रानी के शोक को दूर करने के लिए राजा सुविधि ने उन सभी मुनियों की वंदना के लिए प्रस्थान किया। वहाँ समवसरण में पहुँचकर भगवान् विमलवाहन की वंदना की स्तुति की पुनः पूजा करने के बाद चक्रवर्ती महामुनि के चरणों में नमस्कार किया। मनोरमा ने अपने पूज्य पिता के चरणों की वंदना करके शोक और मोह को छोड़कर हर्षितमना हो हाथ जोड़कर स्तुति करना प्रारंभ किया।
हे भगवन् ! आप धन्य हैं, आपने छह खण्ड के वैभव को, चक्ररत्न को एवं सर्व आरंभ-परिग्रह को छोड़कर अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए यह अर्हंत मुद्रा धारण की है। आपकी भक्ति करके मैं भी अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने के पुरुषार्थ में लगा सवूँâ ऐसी मुझे शक्ति प्राप्त हो, मैं यही याचना करती हूँ।अनन्तर क्रम-क्रम से सभी भाइयों के चरणों में नमोऽस्तु करते हुए और आनंदाश्रु से उनके चरणों का प्रक्षालन करते हुए सभी के गुणों की स्तुति करके अपने कोठे में आकर बैठ गई।राजा सुविधि मनोरमा के साथ प्रभु का दिव्य उपदेश सुनकर अपने राज्य में वापस आ गये।
एक दिन राजा सुविधि चिन्तन करते हैं-
अहो! मेरे श्वसुर ने और मेरे चारों साथी राजाओं ने तथा पाँच हजार मेरी पत्नी के भाइयों ने, मेरे सालों ने मुनि दीक्षा ले ली, उन्होंने एक क्षण में इतने विशाल चक्रवर्ती साम्राज्य को छोड़ दिया। मेरा राज्य तो उसके आगे बहुत ही अल्प है फिर भी मैं नहीं छोड़ पा रहा हूँ। वास्तव में राज्य को, रानी को एवं सब कुछ परिग्रह को छोड़ना सरल है, मुझे कुछ भी कठिन नहीं लगता किन्तु मैं भला इस ‘केशव’ पुत्र को वैâसे छोड़ँ? इसके स्नेह बंधन को छोड़ना ही आज मेरे लिए दुष्कर हो रहा है।इत्यादि प्रकार से चिन्तन कर राजा ने क्रम-क्रम से ग्यारह प्रतिमा के स्थान को प्राप्त कर क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली।१
१. दर्शन प्रतिमा २. व्रत प्रतिमा ३. सामायिक प्रतिमा ४. प्रोषधप्रतिमा ५. सचित्तत्याग प्रतिमा ६. दिवामैथुनत्याग प्रतिमा अथवा रात्रि भोजन त्याग प्रतिमा ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा ८. आरम्भत्याग प्रतिमा ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा १०. अनुमतित्याग प्रतिमा ११. उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। इन ग्यारह प्रतिमाओें के धारी क्षुल्लक उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं।इस प्रकार सम्यग्दर्शन से पवित्र व्रतों की शुद्धता को प्राप्त हुए राजर्षि सुविधि ने बहुत काल तक मोक्ष मार्ग की उपासना की थी।अनन्तर जीवन के अन्त में सर्व परिग्रह का त्याग कर दैगंबरी दीक्षा ग्रहण कर ली और समाधिपूर्वक शरीर का त्याग कर अच्युत स्वर्ग में इंद्र पद प्राप्त कर लिया। पुत्र केशव ने भी निर्ग्रंथ दीक्षा ग्रहण कर आयु के अंत में शरीर को छोड़ कर सभी सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त कर लिया। वरदत्त आदि चारों राजाओं ने जो दीक्षा ली थी वे भी वहीं यथायोग्य सामानिक जाति के देव हो गये।
सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र की उपपाद शय्या से सुविधि महामुनि का जीव नवयौवन के रूप में ऐसे उठ कर बैठ गया कि मानों जैसे सोकर ही उठ कर बैठा हो। इंद्र के जन्म लेते ही अन्य देवगण ‘जय-जय’ शब्दों का उच्चारण करते हैं, आनन्दरूप बाजे बजने लगते हैं। तब इंद्र अपने अवधिज्ञान से अपनी उत्पत्ति को जानकर सामने खड़े हुए देव परिवार को देख कर धर्म की प्रशंसा करते हैं।
अहो! धर्म की महिमा अपरम्पार है कि जहाँ मनुष्यलोक से प्राणी इस स्वर्गलोक में आ जाता है।पुनः सर्वप्रथम इंद्र ने सरोवर में स्नान कर वस्त्रालंकारों को धारण कर अपने विमान के जिनमंदिर में प्रवेश किया। भक्तिभाव से जिनप्रतिमाओं की वंदना की। भक्तिपूर्वक स्तोत्र पाठ किया। अनन्तर जिनबिंबों का अभिषेक पूजन किया।इन्हें अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ प्राप्त थीं। बाईस सागर प्रमाण यहाँ की आयु थी। इनके अधिकार में एक इंद्रक विमान, पैंतीस बड़े-बड़े श्रेणीबद्ध विमान और एक सौ तेईस प्रकीर्णक विमान-ऐसे एक सौ उनसठ विमान थे। तेंतीस त्रायस्त्रिंश देव, पुत्र के समान थे। दश हजार सामानिक देव और चालीस हजार आत्मरक्ष देव थे। तीन प्रकार की सभा में अन्तःपरिषद में एक सौ पच्चीस देव, मध्यमपरिषद में दो सौ पचास देव और बाह्यपरिषद में पाँच सौ देव थे। चारों दिशाओं की रक्षा करने वाले चार लोकपाल थे।
इन अच्युतेन्द्र की आठ महादेवियाँ थीं। त्रेसठ बल्लभिका देवियाँ थी। एक-एक महादेवी ढाई सौ-ढाई सौ अन्य देवियों से घिरी रहती थीं। इस इंद्र की प्रत्येक देवी अपनी विक्रिया से दश लाख चौबीस हजार सुन्दर स्त्रीरूप बना सकती थी।हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गंधर्व और नृत्यकारिणी के भेद से इंद्र की सेना में सात कक्षायें थीं। पहली सेना में बीस हजार हाथी थे, फिर आगे की कक्षाओं में दूनी-दूनी संख्या थी, इस प्रकार इंद्र की यह विशाल सेना थी।इस इंद्र की एक-एक देवी की तीन-तीन सभायें थीं। उनमें से पहली सभा में २५ अप्सरायें थीं, दूसरी सभा में ५० एवं तीसरी सभा में १०० अप्सरायें थीं।इस अच्युतेन्द्र का इंद्राणियों के साथ मैथुन मानसिक था। ये बाईस हजार वर्षों में एक बार मानसिक आहार लेते थे। ग्यारह महिने मेंं एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे और इनके शरीर की अवगाहना तीन हाथ प्रमाण थी।ये इंद्र अपनी इंद्राणी और अनेक परिवार देवों के साथ भगवान् के पंचकल्याणकों में जाकर अतिशय भक्ति किया करते थे।कभी-कभी इन्द्र की सभा में अप्सराओं के नृत्य हुआ करते थे, जिसमें तीर्थंकर भगवंतों के गुणानुवाद गाये जाते थे। इस तरह संगीत, नृत्य आदि के द्वारा मनोरंजन करते-कराते बहुत सा काल इंद्रराज का व्यतीत हो रहा था।
ये अच्युतेन्द्र नंंदीश्वर द्वीप में वर्ष में तीन बार आष्टान्हिक पर्व में पहुँचते थे। वहाँ असंख्य देव परिकर के साथ मिलकर नंदीश्वर के बावन जिनमंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाओं का अभिषेक करके विशेष-संगीत, नृत्य आदि से चौबीस घण्टे अखण्ड पूजा करते थे। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं वहाँ विराजमान हैं। प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्रीदेवी, लक्ष्मीदेवी और श्रतुदेवी-सरस्वती देवी विराजमान रहती हैं तथा सर्वाण्ह यक्ष और सनत्कुमार यक्ष की मूर्तियाँ भी रहती हैं। इसी तरह आठ-आठ मंगल एक-एक प्रतिमाओं के गर्भगृह में रहते हैं जो कि प्रत्येक १०८-१०८ रहते हैं।
कहा भी है-
सिरिदेवी सुददेवी सव्वण्हसणक्कुमारजक्खाणं।
रूवाणि य जिणपासे मंगलमट्ठविहमवि होदि।।१
आठ दिन तक लगातार चारों निकायों के देव-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवगण वहाँ आठवें नंदीश्वर द्वीप में पूजा करते रहते हैं पुनः वहाँ पूजा पूर्ण कर वापिसी में ढाई द्वीप के अंतर्गत सुदर्शनमेरु, विजयमेरु, अचलमेरु, मंदरमेरु और विद्युन्मालीमेरु की तीन-तीन प्रदक्षिणा देकर पूजा, भक्ति करके अपने-अपने स्वर्गों में चले जाते हैं।
जम्बूद्वीप में सुदर्शनमेरु है जो कि विदेहक्षेत्र में ठीक मध्य में स्थित है। धातकी खण्ड में पूर्वधातकी खण्ड में विजयमेरु एवं पश्चिमधातकी खण्ड में अचलमेरु है। पुष्करार्ध द्वीप में पूर्व पुष्करार्ध में मंदरमेरु एवं पश्चिम पुष्करार्ध में विद्युन्माली मेरु है। धातकी खण्ड में दक्षिण और उत्तर में इष्वाकार पर्वत होने से इसके पूर्वधातकी खण्ड और पश्चिम धातकी खण्ड ऐसे दो भेद हो गये हैं। ऐसे ही पुष्कर द्वीप में बीचों-बीच में मानुषोत्तर पर्वत होने से उसके आधे भाग में कर्मभूमि है-मनुष्यों का अस्तित्व है और मानुषोत्तर से परे मनुष्यों का अस्तित्व नहीं है अतः वहाँ मात्र तिर्यंचों की भोगभूमि है।
मानुषोत्तर के इधर के भाग में दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वतों के होने से इस पुष्करार्ध के भी पूर्व-पश्चिम ऐसे दो भाग हो गये हैं। इन्हीं के पूर्व में मंदरमेरु एवं पश्चिम में विद्युन्माली मेरु हैं।
प्रथम स्वर्ग से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के इंद्र एवं देवगण अपनी इंद्राणी, देवी आदि के साथ मध्यलोक में आते रहते हैं और सुमेरु पर्वत से लेकर तेरह द्वीपों के ४५८ ऐसे अकृत्रिम जिन मंदिरों की वंदना किया करते हैं। इन अच्युत स्वर्ग से ऊपर के सभी देव ‘अहमिंद्र’ कहलाते हैं। उसके न तो देवियाँ हैं न परिवार देव ही हैं। वे अपने स्थान से वहीं अपने-अपने विमानों में स्थित जिनमंदिरों में विराजमान जिनबिंबों की पूजा करते हैं, यहाँ मध्यलोक में उनका आना-जाना नहीं है।इस प्रकार वह अच्युतेन्द्र अपने प्रतीन्द्र के साथ पूरे स्वर्ग के सुखों का अनुभव करके वहाँ जीवन भर जो जिनेन्द्रभक्ति पूजा से महान् पुण्य अर्जित किया था उसके फलस्वरूप अपनी आयु के अंत में वहाँ से च्युत होकर यहाँ मध्यलोक में विदेह क्षेत्र में रानी श्रीकांता के गर्भ में आ गया और जन्म लेकर चक्रवर्ती ‘वङ्कानाभि’ हो गया।
जम्बूद्वीप से पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कासेन राज्य करते थे जो कि तीर्थंकर थे। उनकी रानी का नाम श्रीकांता था।
सुविधि राजर्षि जो कि अच्युतेन्द्र हुए थे, उनका जीव स्वर्ग से चलकर श्रीकांता रानी के ‘वङ्कानाभि’ नाम का पुत्र हुआ। पहले कहे हुए सिंह, सूकर, वानर और नकुल के जीव भी जो कि अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुए थे, वे उन्हीं रानी से क्रमशः विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के पुत्र हो गये। वङ्काजंघ की पर्याय में जो मतिवर आदि मंत्री के जीव थे, वे राजा वङ्काजंघ के मरने के बाद दीक्षा लेकर अंत में मरकर ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए थे। वे भी उन्हीं श्रीकांता रानी के क्रमशः सुबाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हो गये। श्रीमती का जीव केशव जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था, वह भी वहाँ से चयकर उसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक् की अनंतमती भार्या से ‘धनदेव’ नाम का पुत्र हो गया जो कि चक्रवर्ती वङ्कानाभि का गृहपति रत्न हुआ है।
किसी समय तीर्थंकर वङ्कासेन को वैराग्य होते ही लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु की पूजा-स्तुति करके दीक्षा की अनुमोदना की। राजा वङ्कासेन ने भी युवा पुत्र वङ्कानाभि को समस्त पृथ्वी का राज्यभार सौंप पट्ट बाँध करके मुकुटबद्ध राजाओं से नमस्कार कराते हुए ऐसा आशीर्वाद दिया ‘तू बड़ा भारी चक्रवर्ती हो’ और आप देवों द्वारा आनीत पालकी में बैठकर आम्रवन में पहुंचे जहाँ एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली।
इधर राजा वङ्कानाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ और उधर पिता वङ्कासेन को केवलज्ञान प्रगट हो गया था। राजा वङ्कानाभि चक्ररत्न से छह खंड वसुधा को जीतकर छियानवे रानियों से युक्त एकछत्र साम्राज्य का उपभोग कर रहे थे। किसी समय पिता वङ्कासेन तीर्थंकर से धर्मोपदेश सुनकर सम्पूूर्ण साम्राज्य को जीर्ण-तृण के समान मानकर एक क्षण में त्याग कर दिया और सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से पिता वङ्कासेन तीर्थंकर के समवसरण में ही जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
तेरह प्रकार का चारित्र, बारह प्रकार का तप, बाईस परिषह आदि उत्तर गुणों का पालन करते हुए उन मुनिराज ने तीर्थंकर के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था।
उन सोलहकारण भावनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं-
१. दर्शनविशुद्धि २. विनयसंपन्नता ३. शीलव्रतेष्वनीचार ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ५. संवेग ६. शक्तिस्त्याग ७. शक्तितस्तप ८. साधु समाधि ९. वैयावृत्यकरण १०. अर्हद्भक्ति ११. आचार्यभक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति १३. प्रवचनभक्ति १४. आवश्यक अपरिहाणि १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवत्सलता।
सम्यग्दर्शन को विशुद्धि रखना, विनय से सम्पन्न होना, शीलव्रतों में अतिचार न लगाना, नित्य ही ज्ञानोपयोग में लीन रहना, संसार से भीरुता, शक्ति के अनुसार तप करना, ज्ञान और संयम के साधनाभूत पदार्थों का त्याग (दान) करना, साधुओं के व्रतादि में विघ्न आने पर उन्हें दूर करना, साधुओं की वैयावृत्ति करना, अरहंत भगवान् की भक्ति, आचार्य की भक्ति, बहुश्रुत मुनियों की भक्ति और प्रवचन की भक्ति करना, आवश्यक क्रियाओं का पूर्णरूप से पालन करना, जैन धर्म की प्रभावना करना तथा धर्मात्माओं में अखंड प्रेम रखना। इस प्रकार की सोलह भावनाओं का उत्कृष्ट रीति से चिंतन करते हुए उन धीर-वीर वङ्कानाभि मुनिराज ने तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाली तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया।
उन मुनिराज को ऋद्धियों की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी फिर भी अणिमा, महिमा आदि गुणों सहित विक्रिया ऋद्धि प्रगट हो गई। कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि आदि बुद्धि ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गईं। जगत् का हित करने वाली जल्लौषधि, सर्वौषधि आदि ऋद्धियों ने भी उनका वरण किया, यद्यपि मुनिराज ने घी, दूध आदि रस का त्याग कर दिया था तो भी घी, दूध आदि को झराने वाली अनेकों रस ऋद्धियाँ भी प्रगट हुई थीं। वे बल ऋद्धि के प्रभाव से कठिन से कठिन परिषह भी सह लेते थे।अक्षीण ऋद्धि के बल से वे जिस दिन घर आहार लेत थे, उस दिन उस घर में अन्न अक्षय हो जाता था-चक्रवर्ती के कटक को भोजन कराने पर भी वह भोजन क्षीण नहीं होता था। इस प्रकार वे मुनिराज सदैव छठे-सातवें गुणस्थान में चढ़ते-उतरते रहते थे।परिणामों की विशुद्धि से वे सातिशय अप्रमत्त नाम सातवें गुणस्थान से आगे बढ़कर उपशम श्रेणी में चढ़ गये अर्थात् आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच गये। अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर वे मुनि नीचे उतर कर पुनः स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित हो गये। उसका खास कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है। तत्पश्चात् आयु के अंत में श्रीप्रभ पर्वत पर पहुंचकर वङ्कानाभि महामुनि ने प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर लिया। वे उस समय स्वयं तथा पर से किंचित् भी शरीर का उपचार नहीं करते थे, न कराते ही थे। उस समय उनके शरीर में चर्म और हड्डी मात्र ही शेष रह गई थी, तो भी वे निश्चल चित्त निराकुलता से ध्यानस्थ थे।वे द्वितीय बार उपशम श्रेणी पर आरुढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए। अंत में उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिंद्र पद को प्राप्त हो गये।
वङ्कानाभि चक्रवर्ती उपशम श्रेणी में ध्यान में आरूढ़ थे, उनकी आयु पूर्ण हो गई और उन महामुनि ने शुक्ल ध्यान के प्रभाव से तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ ऐसे सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में जन्म धारण किया। यह विमान लोक के अंतिम भाग से बारह योजन नीचे है अर्थात् इस विमान से बारह योजन ऊपर सिद्ध शिला है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई और गोलाई जम्बूद्वीप के बराबर है-एक लाख योजन है। यह स्वर्ग के त्रेसठ पटलों के अंत में चूड़ामणि रत्न के समान स्थित है। चूँकि उस विमान में उत्पन्न होने वाले जीवों के सम्पूर्ण मनोरथ अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं इसलिए उसका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है। उस विमान में निर्ग्रन्थ दिगम्बर महामुनि ही जन्म लेते हैं।इस प्रकार अकृत्रिम और श्रेष्ठ रचना से शोभायमान उस विमान में उपपाद शय्या में वह देव क्षण भर में पूर्ण शरीर को प्राप्त हो गया। दोष, धातु, मल और पसीना आदि से रहित, सुन्दर लक्षणों से युक्त तथा पूर्ण यौवन अवस्था को प्राप्त उसका शरीर क्षण भर में ही प्रगट हो गया। उसके जन्म लेते ही वहाँ उत्तम-उत्तम बाजे बजने लगे सर्वत्र हर्ष की लहर दौड़ गई। वह अहमिंद्र साथ-साथ उत्पन्न हुए वस्त्र, अलंकार, दिव्य माला आदि से अतिशय सुन्दर था। एक हाथ का उस का दिव्य वैक्रियक शरीर था, तेंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु थी। तेंतीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उसका दिव्य मानसिक अमृत का आहार था और साढ़े सोलह महीने व्यतीत होने पर श्वासोच्छ्वास ग्रहण करता था ‘‘मैं इंद्र हूँ, मैं इंद्र हूँ’’ इस प्रकार वहाँ के सभी उत्तम देव ‘अहमिंद्र’ इस अन्वर्थ नाम को धारण करते थे। वहाँ उन अहमिंद्रों में न तो परस्पर में असूया है, न परनिन्दा है, न आत्म प्रशंसा है और न ईर्ष्या ही है। वे सभी पूर्णतया सुखी हुए हर्षयुक्त निरन्तर क्रीड़ा करते रहते हैं। इन सबका शरीर श्वेतवर्ण का रहता है। इन सबकी लेश्यायें, वस्त्राभरण आदि श्वेत-शुक्ल रहते हैं।वहाँ जन्म लेने के बाद उन अहमिंद्र ने अपने विमान में स्थित अतिशायी जिनमंदिर में जाकर भगवान् की प्रतिमाओं का अभिषेक किया। दिव्य अष्ट द्रव्य की सामग्री और दिव्य रत्नों के थाल भरकर भगवान् का पूजन किया।
चक्रवर्ती वङ्कानाभि की पर्याय में जो विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नाम के भाई थे तथा रानी श्रीमती का जीव जो कि ‘धनदेव’ नाम से चक्रवर्ती का गृहपति रत्न हुआ था। इन नौ महामुनियों ने भी तपश्चर्या के प्रभाव से वहीं सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र पद को प्राप्त हुए थे। ये सब अपने-अपने अवधिज्ञान से अपने स्वामी ‘वङ्कानाभि’ चक्रवर्ती के जीव ऐसे अहमिंद्र के पास आये और पूर्वभवों की चर्चा तथा धर्म के माहात्म्य की प्रशंसा करते हुए मनोविनोद करने लगे।ये सर्वार्थसिद्धि के अहमिंद्र अपने अवधिज्ञान से सम्पूर्ण लोक के मूर्तिक पदार्थों को देखते रहते थे लेकिन कहीं भी इनका गमनागमन नहीं था। अतः एक दिन इन सभी ने निर्णय किया कि-आज हम सभी यहीं से परोक्ष में सुदर्शनमेरु पर्वत के सोलह जिन मंदिरों की पूजा करेंगे। वे सब वहीं से सुमेरु पर्वत को मानों साक्षात् देखते हुए के समान ही उसकी पूजा कर रहे थे। ऐसे ही कभी नन्दीश्वर द्वीप के जिनालयों की, कभी मध्यलोक के ४५८ जिनमंदिरोें की, कभी तीन लोक के सम्पूर्ण ८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ जिनमंदिरों में विराजमान सम्पूर्ण जिनप्रतिमाओं की पूजा, भक्ति, स्तुति किया करते थे।कभी-कभी तीर्थंकर के जन्मकल्याणक के निमित्त से वहाँ पर बाजों के बजने से ‘भगवान् का जन्म हुआ है’ ऐसा जानकर परोक्ष में ही सात पैंड आगे जाकर नमस्कार करते थे।कभी-कभी ये अहमिंद्र वहाँ पर तत्त्वचर्चा किया करते थे-जैसे कि -‘जो संसार के दुःखों से प्राणियों को निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचावे वही धर्म है’।‘आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा है, जैसे कि बीज में शक्तिरूप से वृक्ष विद्यमान है, दूध में घी है, तिल में तेल है ऐसे ही आत्मा में परमात्मा छिपा हुआ है उसे प्रयोग से-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र के बल से प्रगट किया जा सकता है।’‘‘जो जीव अपनी आत्मा को भगवान् बना लेते हैं, शुद्ध सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं वे फिर कभी संसार में जन्म नहीं धारण करते हैं।
‘संसार में पंचेन्द्रिय के विषय सुखों में आसक्त हुआ प्राणी बार-बार नरक, निगोदों में तिर्यंच योनियों में अनेक प्रकार के दुःख उठाता रहता है। जब यही प्राणी सच्चे अहिंसामयी परमधर्म का आश्रय ले लेता है तब सदा-सदा के लिए नित्य, निरंजन, निर्विकार, चिच्चैतन्यस्वरूप परमपद को प्राप्त कर लेता है।
अहो! हम सभी ने कई जन्मों में महान पुण्य संचित किया है, सच्ची निर्दोष तपस्या की है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष और मत्सर आदि अंतरंग शत्रुओं को वश में किया है। तभी ये उत्तम अहमिंद्र पद प्राप्त हुआ है।अब हमें यहाँ के सुखों को भोगकर मनुष्य पर्याय प्राप्त करना है। हम सभी नियम से उस मनुष्य भव में मुनि बनेंगे और मोक्ष को प्राप्त करेंगे। हम सभी एक भवावतारी हैं, हमारे संसार का अब अन्त आ चुका है।वङ्कानाभि के जीव अहमिंद्र जो कि आगे तीर्थंकर होने वाले थे छह महीने पूर्व से ही इस मध्यलोक के जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी की रचना की गयी। सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता मरुदेवी के आँगन में रत्न बरसाना शुरू किया। तभी वहाँ के अहमिंद्रों ने आकर उन भावी तीर्थंकर के गुणों की स्तुति करना प्रारंभ कर दिया।
‘हे स्वामिन् ! आप धन्य हैं, आपके प्रसाद से ही हम सभी ने धर्म को पाया है और आगे भी आपके तीर्थ में ही हम सभी मोक्ष को प्राप्त करेंगे।’इत्यादि प्रकार से धर्मचर्चा करते हुए वङ्कानाभि के जीव अहमिंद्र ने अपनी तेंतीस सागर की आयु पूर्ण कर ली और मध्यलोक में आने के सन्मुख हो गये। इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव का यह नवमां अवतार हुआ है।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बंधी आर्य खण्ड में भोगभूमि का तृतीय काल समाप्त होने वाला था कि चौदह कुलकरों में अंतिम कुलकर श्री नाभिराज हुए थे। उस समय इंद्र ने उत्तम कुल में जन्मी कन्या मरुदेवी के साथ नाभिराज का विवाहोत्सव बड़ी विभूति के साथ कराया था। मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में उनके पुण्य के द्वारा बार-बार बुलाये हुए इंद्र ने एक नगरी की रचना की। इंद्र की आज्ञा से बड़े-बड़े उत्साही देवों ने उसे स्वर्गपुरी के समान अत्यन्त सुन्दर बनाई और उसका अयोध्या नाम रखा। अनन्तर इंद्र ने शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभ योग और शुभ लग्न में हर्षित होकर उस नगरी में पुण्याहवाचन किया। उसी समय आनन्दित हो नाभिराज ने मरुदेवी के साथ अयोध्या नगरी में निवास करना प्रारंभ किया। ‘इन दोनों के सर्वज्ञ ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे’ यह समझकर इंद्र ने अभिषेकपूर्वक उन दोनों की महती पूजा की।
महाराजा नाभिराय और मरुदेवी से अलंकृत पवित्र स्थान में कल्पवृक्षों का अभाव देखकर और ‘‘इन दोनों के स्वयंभू ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे।’’ ऐसा अवधिज्ञान से जानकर स्वयं इंद्र अनेक उत्साही देवों के साथ वहाँ आते हैं और उसी स्थल को मध्य में करके एक सुन्दर नगरी की रचना कर देते हैं। चार गोपुर द्वार, परिखा, उद्यान आदि से सहित वह नगरी ‘अरिभिः योद्धुं न शक्या इति अयोध्या’ शत्रुओं से युद्ध करने में समर्थ न होने से ‘अयोध्या’ इस सार्थक नाम से सम्बोधित की जाती है। इस नगरी के मध्यभाग में इन्द्रपुरी के साथ स्पर्धा करने वाला ऐसा दिव्य राजमहल तैयार किया जाता है। सभी देव मिलकर शुभ दिन, शुभ मुहूर्त, शुभयोग और शुभ लग्न में वहाँ पुण्याहवाचन करते हैं। उसी समय अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराय अपनी महारानी मरुदेवी के साथ उस महल में प्रवेश करते हैं। तभी इन्द्र उन दोनों का अभिषेक करके सम्मान करते हुए उनकी पूजा करते हैं।
‘तीर्थंकर ऋषभदेव यहाँ अवतार लेने वाले हैं।’ ऐसा समझकर इन्द्र कुबेर को बुलाकर आज्ञा देते हैं-
‘हे धनपते! छह महीने बाद तीर्थंकरदेव यहाँ स्वर्ग से अवतार लेने वाले हैं अतः तुम बड़े आदर से रत्नों की वर्षा करना शुरू कर दो।’
इन्द्र की आज्ञा पाते ही कुबेर बहुमूल्य उत्तम-उत्तम पंचवर्णी रत्नों की मोटी-मोटी धारा बरसाने लगता है। आँंगन में बरसती हुई रत्नों की धारा ऐसी मालूम पड़ती है, मानों पुण्य की परम्परा ही बरस रही हो। तभी से कुबेर के द्वारा की जाने वाली रत्न और सुवर्ण की वर्षा से यह पृथ्वी ‘हिरण्यगर्भा’ इस नाम को प्राप्त हो गई है।
अनन्तर महारानी मरुदेवी राजमहल में गंगा की लहरों के समान श्वेत रेशमी चद्दर से सुशोभित कोमल शय्या पर शयन कर रही है। रात्री के पिछले प्रहर में वे सोलह स्वप्न देखती हैं। पुनः वे देखती हैं कि सुवर्ण के समान कांतिवाला एक सुन्दर बैल हमारे मुख में प्रवेश कर रहा है। तत्क्षण ही बजते हुए मांगलिक बाजों की ध्वनि से और बंदीजनों तथा सखियों द्वारा गाये गये प्राभातिक मंगलगान से रानी जाग्रत होकर उठकर महामंत्र का स्मरण करके अपने नेत्रों का उद्घाटन करती हैं। मंगल स्नान करके मांगलिक वस्त्राभूषण धारण कर वह अपने पतिदेव के समीप पहुँचकर उचित विनय से महाराजा नाभिराय का दर्शन करके उन्हीं के समीप अपने लिए रखे गये भद्रासन पर बैठ जाती हैं। पुनः प्रसन्नमुद्रा में महाराज से निवेदन करती हैं-
‘हे देव! आज मैंने सोते हुए रात्रि के पिछले प्रहर में बहुत ही आश्चर्यजनक उत्तम-उत्तम स्वप्न देखे हैं। पहले स्वप्न में ऐरावत हाथी, पुनः उत्तम बैल, सिंह, हाथियों द्वारा अभिषेक को प्राप्त होती हुई लक्ष्मी, दो मालाएं, चन्द्रमा, उगता हुआ सूर्य, मछलियों का युगल, जल से भरे दो कलश, कमलों से युक्त सरोवर, समुद्र, सिंहासन, स्वर्ग से आता हुआ विमान, नागेन्द्र भवन, रत्नों की राशि और बिना धुँए की अग्नि। इन सोलह स्वप्नों के बाद मैंने मेरे मुख में एक स्वर्ण वर्ण का बैल प्रवेश करते हुए देखा है। सो मैं इन सबका फल आपके श्रीमुख से सुनना चाहती हूँ।’
महाराजा नाभिराय रानी के मुख से स्वप्नों को सुनकर तथा अपने दिव्य अवधिज्ञान से उनके फलों को जानकर कहते हैं-
‘हे देवि! सुनो, सर्वप्रथम जो स्वप्न में तुमने ऐरावत हाथी देखा है उसका फल यह है कि तुम त्रिभुवन के गुरु ऐसे तीर्थंकर पुत्र को जन्म देवोगी। द्वितीय स्वप्न में उत्तम बैल के देखने से वह समस्त लोक में ज्येष्ठ होगा। सिंह के देखने से वह अनन्त बल से युक्त होगा। मालाओं के देखने से वह समीचीन धर्मतीर्थ का चलाने वाला होगा। अभिषेक को प्राप्त होती हुई लक्ष्मी के देखने से वह सुमेरु पर्वत पर देवों के द्वारा अभिषेक को प्राप्त होगा। पूर्ण चन्द्रमा के देखने से वह समस्त लोगों को आनन्द देने वाला होगा। सूर्य के देखने से देदीप्यमान प्रभा का धारक होगा। दो कलश देखने से वह अनेक निधियों का स्वामी होगा। मछलियों का युगल देखने से सुखी होगा। सरोवर के देखने से अनेक लक्षणों से शोभित होगा। समुद्र के देखने से पूर्णज्ञानी केवली होगा। सिंहासन के देखने से जगत् का गुरु होकर साम्राज्य को प्राप्त करेगा। देवों का विमान देखने से वह स्वर्ग से अवतीर्ण होगा। नागेन्द्र का भवन देखने से जन्म से ही वह अवधिज्ञानरूपी लोचनों से सहित होगा। चमकते हुए रत्नों की राशि देखने से वह गुणों की खान होगा और निर्धूम अग्नि के देखने से कर्मरूपी ईन्धन को जलाने वाला होगा तथा तुम्हारे मुख में जो वृषभ ने प्रवेश किया है उसका फल यह है कि तुम्हारे निर्मल गर्भ में तीर्थंकर भगवान् अपना शरीर धारण करेंगे।’
महाराजा नाभिराय के मुख से ऐसा फल सुनकर रानी मरुदेवी हर्ष के अतिरेक से रोमांचित हो जाती हैं। उस समय उन्हें इतना आनन्द होता है कि मानों साक्षात् अभी ही तीर्थंकर शिशु को प्राप्त कर लिया हो। तदनन्तर आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में अहमिन्द्र का जीव सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर माता मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हो जाता है। उसी समय अनेक चिन्होें से तीर्थंकर के ‘गर्भावतार’ को जानकर सौधर्म इन्द्र असंख्य देव-देवियों के साथ स्वर्ग से चलकर यहाँ मृत्यु लोक की अयोध्या नगरी में आ जाते हैं। नगरी की तीन प्रदक्षिणा देकर माता-पिता को नमस्कार करते हैं पुनः माता-पिता की नाना प्रकार से पूजा कर संगीत नृत्य आदि उत्सव करके गर्भकल्याणक महोत्सव मनावâर अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं।
इस अवसर्पिणी काल के सुषमादुःषमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के शेष रह जाने पर भगवान् ऋषभदेव का गर्भावतार कल्याणक मनाया गया है।
उसी समय से इन्द्र की आज्ञानुसार दिक्कुमारी देवियाँ वहाँ आकर दासियों के समान माता की सेवा करने लगती हैं।
मध्यलोक के बीचों बीच में जम्बूद्वीप नाम का पहला द्वीप है। यह एक लाख योजन विस्तृत थाली के समान गोल आकार वाला है। इसमें पूर्व-पश्चिम लम्बे छह कुलाचल हैं जिनके नाम हैं-हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी। इन पर्वतों से विभाजित सात क्षेत्र हो जाते हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ये उनके नाम हैं। सर्वप्रथम भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप के १९० वाँ भाग अर्थात् ५२६, ६/१९ योजन है। आगे के पर्वत और क्षेत्र विदेह पर्यन्त इससे दूने-दूने प्रमाण वाले होते गये हैं। पुनः विदेह के बाद नील पर्वत से लेकर आधे-आधे प्रमाण वाले होते गये हैं। इन हिमवान आदि पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिञ्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छह सरोवर हैं। पद्म सरोवर के पूर्व-पश्चिम से गंगा-सिंधु नदी निकलती हैं जो कि भरत क्षेत्र में बहती हैं। इसी पद्म सरोवर के उत्तर तोरण द्वार से रोहितास्या नदी निकल कर हैमवत क्षेत्र में चली जाती है तथा महापद्म सरोवर के दक्षिण तोरणद्वार से रोहित् नदी निकल कर हैमवत क्षेत्र में चली जाती है। इस प्रकार मध्य के सरोवरों से दो-दो नदियाँ एवं अंतिम शिखरी सरोवर से प्रथम सरोवर के समान तीन नदियाँ निकली हैं। ऐसी ये गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या हरित् -हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा नाम की चौदह महानदियाँ हैं जो कि भरत आदि सात क्षेत्रों में क्रम से दो-दो बहती हैं।
इन पद्म आदि सरोवरों में बहुत ही सुन्दर, सुवर्णमयी कमल खिल रहे हैं जो कि वनस्पतिकायिक न होकर पृथ्वीकायिक रत्नों से निर्मित अकृत्रिम हैं। इन कमलों की कर्णिकाओं पर दिव्य भवन बने हुए हैं जिन पर क्रम से श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ निवास करती हैं।प्रथम पद्म सरोवर हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा और दश योजन गहरा है। इसके मध्य भाग में जो कमल है वह एक योजन विस्तृत है। इसके एक हजार ग्यारह पत्ते हैं। इसकी नाल ब्यालीस कोश ऊँची और एक कोश मोटी है यह वैडूर्य मणि से निर्मित है। इसका मृणाल तीन कोश मोटा रूप्यमय श्वेत वर्ण का है। इस कमल की नाल चालीस कोश तो जल के अंदर है और दो कोश जल के ऊपर है। कमल की कर्णिका दो कोश ऊँची और एक कोश चौड़ी है। इस कर्णिका के ऊपर श्री देवी का भवन बना हुआ है। यह भवन एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा और पौन कोश ऊँचा है। उसमें श्री देवी निवास करती हैं, इनकी आयु एक पल्य प्रमाण है।इसी पद्म सरोवर में मुख्य कमल से आधे प्रमाण वाले ऐसे एक लाख चालीस हजार एक सौ पन्द्रह और भी कमल हैं जिन्हें परिवार कमल कहते हैं। इन कमलों के भवनों में श्री देवी के परिवार देव निवास करते हैं।श्री देवी की अपेक्षा ह्री देवी के मुख्य कमल का विस्तार दूना है व परिवार कमलों की संख्या भी दूनी हो गई है। ह्री देवी की अपेक्षा धृति देवी की दूनी है व आगे कीर्ति देवी की धृति देवी के बराबर, बुद्धि देवी की ह्री देवी के बराबर व लक्ष्मी देवी की श्री देवी के बराबर है।
इन सरोवरों में जितने कमल हैं सभी में जिनमंदिर हैं, इसलिए जितने कमल हैं उतने ही जिनमंदिर में प्रत्येक १०८-१०८ जिन प्रतिमाएं विराजमान हैंं। ये देवियाँ भक्ति-भाव से सतत ही जिन प्रतिमाओं की पूजा, अर्चा किया करती हैंं।इन्द्र की आज्ञा से ये ही श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नाम वाली देवियाँ वहाँ से इस भरत क्षेत्र में आकर माता मरुदेवी की सेवा में तत्पर हो जाती हैं। वे देवियाँ सर्व प्रथम स्वर्ग से लाये हुए पवित्र पदार्थों द्वारा माता को विशुद्ध करती हैं। उन देवियों में कोई तो माता के आगे अष्ट मंगल द्रव्य धारण करती हैं, कोई ताम्बूल देती हैं, कोई स्नान कराती हैं और कोई वस्त्राभूषण पहनाती हैं। कोई भोजनशाला के काम में लग जाती हैं, कोई शय्या बिछाती हैं, कोई पैर दबाती हैं, कोई तरह-तरह की सुगंधित माला पहनाती हैं। कोई सुगंधित द्रव्यों का विलेपन करके माता के शरीर को सुवासित करती हैंं।
पुनः एक देवी राजमहल का आंगन बुहारती है तो दूसरी गीले कपड़े से भूमि को स्वच्छ करती है, तीसरी चंदन के घोल का छिड़काव करती है, चौथी रत्नों के चूर्ण से रंगावली का विन्यास करती है, रंग-बिरंगे चौक पूरती है, पाँचवी दिव्य पुष्पगुच्छों का उपहार भेंट करती हैं।इन देवियों के अतिरिक्त भी कितनी देवियाँ अपना शरीर छिपाकर दिव्य प्रभाव दिखलाती हुई योग्य सेवा क्रिया द्वारा निरन्तर माता की शुश्रूषा करती रहती हैं। कितनी ही देवियाँ अन्तर्हित होकर अपने दिव्य प्रभाव से माता के लिए माला, वस्त्र, आहार और आभूषण आदि देती हैं। जब माता मरुदेवी चलती हैं तब देवियाँ उनके वस्त्रों को कुछ ऊपर उठा लेती हैं, माता जब बैठती हैं तब देवियाँ आसन लाकर उपस्थित करती हैं और जब खड़ी होती हैं तब वे देवियाँ माता के चारों ओर से खड़ी होकर सेवा करती हैं। कितनी ही दोfवयाँ रात्रि के प्रारंभ काल में राज-महल के अग्रभाग पर अतिशय देदीप्यमान मणियों के दीपक रखती हैं। कितनी ही देवियाँ दृष्टि दोष दूर करने के लिए उतारना उतारती हैं कितनी ही देवियाँ मन्त्राक्षरों द्वारा माता का रक्षा बन्धन करती हैं और कितनी ही देवियाँ नंगी तलवार हाथ में लेकर रात्रि के समय माता के निकट बैठकर पहरा देने का काम करती हैं।कितनी ही देवियाँ मिलकर माता को जलक्रीड़ा के लिए प्रेरित करती हैं, कभी-कभी सभी मिलकर माता को वनक्रीड़ा के लिए ले जाती हैं तो कभी कथा गोष्ठी से माता का मन अनुरञ्जित करती हैं। कभी संगीत गोष्ठी का कार्यक्रम चलता है तो कभी नाना प्रकार के वादित्रों को बजाकर सारे अयोध्या नगर को मुखरित कर देती हैं। कभी-कभी वे देवियाँ भक्ति से विभोर हो माता के गुणों का गान करते हुए नृत्य कला का प्रदर्शन करती हैं। उस समय देवियाँ रंग-बिरंगे चौक के चारों ओर फूलों को बिखेरते हुए उस रंग भूमि में पुष्पांजलि क्षेपण करती हैं। कभी-कभी ये देवियाँ तीर्थंकर के गुणों का गान करते हुए वीणा बजाती हैं तो कोई देवी बांसुरी बजाकर माता का मनोरंजन करती है। इस प्रकार देवियों के द्वारा सेवा को प्राप्त हुई मरुदेवी ऐसी शोभायमान हो रही हैं कि मानों तीनों लोकों की लक्ष्मी ही एकरूपता को प्राप्त होकर मरुदेवी के रूप में स्थित हैं।माता के गर्भ का नवमाँ महीना निकट आ जाने पर ये देवियाँ विशिष्ट-विशिष्ट काव्य गोष्ठियों के द्वारा माता को प्रसन्न करते हुए नाना प्रकार के गूढ़ प्रश्न करना प्रारंभ कर देती हैं। एक देवी कहती है-
कः पंजरमध्यास्ते……….कः परुषनिस्वनः।
कः प्रतिष्ठा जीवानां…कः पाठ्योक्षरच्युतः।।
हे मातः पिंजड़े में कौन रहता है? कठोर शब्द करने वाला कौन है? जीवों का आधार क्या है? और अक्षरच्युत होने पर भी पढ़ने योग्य क्या है?
शुकः पंजरमध्यास्ते, काकः परुषनिस्वनः।
लोकः प्रतिष्ठा जीवानां, श्लोकः पाठ्योक्षरच्युतः।।
तब श्लोक के पाद में जो एक-एक अक्षर कम था उसकी पूर्ति करते हुए माता उसी श्लोक से उत्तर देती हैं। ‘तोता पिंजड़े में रहता है। कौआ कठोर शब्द बोलने वाला है। जीवों का आधार लोक है और अक्षरच्युत होने पर भी श्लोक पढ़ने योग्य है।’
एक देवी प्रश्न करती है-
त्वत्तनौ काम्ब गम्भीरा, राज्ञो दोलंब आकुतः।
कीदृव्â किं नु विगाढव्यं, त्वं च श्लाघ्या कथं सती।।
हे मातः! तुम्हारे शरीर में गंभीर क्या है? राजा नाभिराय की भुजाएँ कहाँ तक लम्बी हैं? वैâसी और किस वस्तु में अवगाहना करनी चाहिए और हे पतिव्रते! तुम अधिक प्रशंसनीय किस प्रकार हो?’’
तब माता एक ही वाक्य से चारों प्रश्नों का उत्तर दे देती हैं-
‘‘नाभिराजानुगाधिकं नाभिः आजानु गाधि-कं, नाभिराजानुगाअधिकं।’’ इस वाक्य के एक-एक पद से ही चारों प्रश्नों का उत्तर ऐसा है किः-
‘‘हमारे शरीर में गंभीर (गहरी) नाभि है। महाराजा नाभिराय की भुजाएं आजानु-घुटनों तक लम्बी है। गाधि-कुछ गहरे कं-जल में अवगाहन करना चाहिए और नाभिराज की अनुगामिनी-आज्ञाकारिणी होने से अधिक मैं प्रशंसनीय हूँ।
एक देवी चित्रबद्ध श्लोक द्वारा माता की स्तुति करते हुए कहती है-
मुदेऽस्तु वसुधारा ते, देवताशीस्तताम्बरा।
स्तुतादेशे नभाताधा वशीशे स्वस्वनस्तसु।।
जिसकी आज्ञा अत्यन्त प्रशंसनीय है और जो जितेन्द्रिय पुरुषों में अतिशय श्रेष्ठ है ऐसी हे माता! देवताओं के आशीर्वाद से आकाश को व्याप्त करने वाली अत्यन्त सुशोभित जीवों की दरिद्रता को नष्ट करने वाली और नम्र होकर आकाश से पड़ती हुई यह रत्नों की वर्षा तुम्हारे आनन्द के लिए हो।’’
यह अर्धभ्रम श्लोक है। इस श्लोक के तृतीय और चतुर्थ चरण के अक्षर प्रथम तथा द्वितीय चरण में ही आ गये हैं।
मु दे स्तु व सु धा रा ते
दे व ता शी स्त ता म्ब रा
स्तु ता दे शे न भा ता धा
व शी शे स्व स्व न स्त सु
इस प्रकार अनेक अर्थों से गूढ़ और तत्त्व चर्चा के रहस्य से भरपूर ऐसे बहुत से प्रश्नों को देवियाँ कर रही हैं और माता बिना श्रम के सहजभाव से उन प्रश्नों का उत्तर दे रही हैं। यद्यपि माता स्वयं ही ज्ञान में कम नहीं हैं फिर भी मति, श्रुत और अवधि ऐसे तीन ज्ञान से युक्त बालक को उदर में धारण करने से वे और भी अधिक प्रतिभासंपन्न हो रही है। जैसे अनेक रत्नों से परिपूर्ण रत्न की खान अतिशय शोभा को प्राप्त होती है वैसे ही गुणरत्नों के पुंज ऐसे तीर्थंकर को उदर में धारण करने से माता मरुदेवी भी अतिशय शोभा को प्राप्त हो रही है।माता का उदर पहले के समान ही कृश है, न त्रिवली भंग हुई है, न उदर बढ़ा है। फिर भी अन्दर में गर्भ वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। न माता का मुख सफेद हुआ है, न मुख का स्वाद ही फीका हुआ है और न साधारण गर्भवती महिलाओं के समान उन्हें कुछ क्लेश ही प्रतीत हो रहा है। दर्पण में पड़े प्रतिबिंब के समान माता के उदर में स्थित तीर्थंकर बालक माता को किंचित् भी पीड़ा नहीं पहुँचा रहा है, यही एक आश्चर्य की बात है। जैसे स्फटिक मणि के बने हुए घर के बीच में रखा हुआ निश्चल दीपक सुशोभित होता है, उसी प्रकार से तीर्थंकर शिशु स्वयं में किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न करते हुए माता के उदर में विराजमान हैं। अपने उदर में नाभिकमल के ऊपर तीर्थंकर ऋषभदेव को धारण करती हुई महारानी मरुदेवी साक्षात् लक्ष्मी के समान सुशोभित हो रही हैं।अपने समस्त पापों का न्ााश करने के लिए इन्द्र के द्वारा भेजी हुई इन्द्राणी भी अनेक अप्सराओं के साथ वहाँ आकर गुप्तरूप से महासती मरुदेवी की सेवा कर रही है। माता मरुदेवी स्वयं किसी को नमस्कार नहीं करती हैं फिर भी संसार के समस्त लोग उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। इस विषय में अधिक कहने से क्या? यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त है कि उस समय तीनों लोकों में वे ही एक प्रशंसनीय महिला हैं क्योंकि जगत् स्रष्टा अर्थात् भोगभूमि के बाद कर्मभूमि की व्यवस्था करने वाले ऐसे ऋषभदेव तीर्थंकर की वे जननी हैं इसलिए कहना चाहिए कि वे समस्त लोक की जननी हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ सतत जागरूक होकर अत्यन्त विनय और भक्ति से उनकी उपासना कर रही हैं और महाराजा नाभिराय भी स्वयं हर वक्त उन्हें प्रसन्न रखते हुए अपने समय को सुन्दरता से व्यतीत कर रहे हैं।
नव महीना पूर्ण हो जाने पर माता मरुदेवी पुत्ररत्न को जन्म देती हैं। जिस प्रकार प्रातःकाल के समय पूर्व दिशा से कमलों को विकसित करने वाले ऐसे देदीप्यमान सूर्य का उदय होता है, उसी प्रकार चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय ब्रह्मनामक महायोग में माता मरुदेवी से मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों से शोभायमान तीर्थंकर के अवतार ऐसे महापुरुष का जन्म होता है। उसी समय समस्त दिशायें स्वच्छ हो जाती हैं, आकाश निर्मल हो जाता है। स्वर्ग में देवों के यहाँ बिना बजाये बाजे बजने लगते हैं। कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टा की ध्वनि होने लगती है, ज्योतिषी देवों के विमानों में सिंहनाद गूंजने लगता है, व्यंतरवासी देवों के यहाँ शंख की ध्वनि होने लगती है। इन्द्रों के तथा देवों के सिंहासन कंपायमान हो उठते हैं। उनके यहाँ कल्पवृक्षों से फूल बरसने लगते हैंं। प्रजा में सर्वत्र आनन्द की लहर दौड़ने लगती है।उस समय इन सारे आश्चर्यों के प्रगट होने से और स्वयं के आसन के हिल उठने से सौधर्म इन्द्र आश्चर्यचकित हो अपने अवधिज्ञान को लगाता है। उसे उसी क्षण विदित हो जाता है कि इस मध्यलोक में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के अंतर्गत अयोध्या नगरी में महाराजा नाभिराय की महारानी मरुदेवी ने तीन लोक के स्वामी ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया है।
सौधर्म इन्द्र उसी समय अपने आसन से उतर कर उस दिशा में सात पैंड चलकर शिर झुकाकर तीर्थंकर को परोक्षरूप में नमस्कार करते हैं। पुनः हर्ष से गद्गद् हो देवों को आज्ञा देते हैं कि-
‘हे देवगण! भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड की अयोध्या नगरी में इस अवसर्पिणी के तृतीयकाल के अंत में युगादिपुरुष प्रथम तीर्थंकर का जन्म हुआ है। अतः आप लोग शीघ्र ही सेना से सुसज्जित होकर अपने परिवार सहित वहाँ चलने के लिए तैयार हो जावो।’’ एक क्षणमात्र में ही सोलहस्वर्ग तक के सभी इन्द्र-इन्द्राणियाँ और असंख्य देवगण अपने-अपने स्थान से निकल पड़ते हैं।
सौधर्म इन्द्र का वाहनजाति का देव ऐरावत हाथी का रूप लेकर वहाँ आ जाता है। यह ऐरावत हाथी बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। यह बहुत ही विशाल है, इसका रंग श्वेत है, इसके बत्तीस मुख हैं, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत हैं, एक-एक दाँत पर एक-एक सरोवर है, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी है, एक-एक कमलिनी में बत्तीस-बत्तीस कमल खिल रहे हैं, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल हैं और इन लम्बे-लम्बे प्रत्येक दलों पर बत्तीस-बत्तीस देव अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। इन देव अप्सराओं की सुन्दरता और उनकी नृत्यकला सामान्य स्त्रियों में असंभव है।
सौधर्म इन्द्र अपनी शची इन्दाणी के साथ इस ऐरावत हाथी पर सवार होकर स्वर्ग से प्रस्थान कर देता है। इन्द्र के सामानिक, त्रायस्ंित्रश, पारिषद, आत्मरक्ष और लोकपाल देव इन्द्र को चारों ओर से घेर कर चलने लगते हैं। अनीक जाति के देव हाथी, घोड़े, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पदाति और बैल इन सात प्रकार की सेना को सजाकर निकल पड़ते हैं। उस समय सभी इन्द्र अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर बहुत ही वैभव के साथ चल पड़ते हैं। असंख्य देव-देवियाँ साथ में चल रहे हैंं। दुन्दुभि बाजों के गंभीर शब्दों से तथा देवों के जय-जय शब्दों के उच्चारण से आकाश मंडल में बड़ा भारी कोलाहल व्याप्त हो जाता है।
अर्धनिमिष मात्र में ही इन्द्रगण अयोध्या में आकर नीचे उतर जाते हैं और महाराजा नाभिराय के आँगन में पहुँच जाते हैं। इन्द्र की आज्ञा से शची देवी जिनमाता के प्रसूतिगृह में प्रवेश करती हैं वहाँ जिनबालकरूपी सूर्य से युक्त माता मरुदेवी को देखकर बार-बार उनकी प्रदक्षिणा देकर प्रच्छन्नरूप से ही जिनमाता की स्तुति करती हैं-
‘हे मातः! तुम तीनों लोकों की कल्याणकारी माता हो, तुम्हीं मंगल करने वाली हो, तुम्हीं महादेवी हो, तुम्हीं पुण्यवती हो और तुम्हीं यशस्विनी हो।’’
इस प्रकार के नाना वर्णों से माता की स्तुति कर उन्हें बार-बार नमस्कार कर वह इन्द्राणी गुप्तरूप से ही माता को मायामयी निद्रा से सुलाकर उनके पास में दूसरा मायामयी बालक सुला देती है और आप स्वयं जिनबालक को दोनों हाथों से उठाकर गोद में ले लेती हैं। उस समय तीर्थंकर शिशु के शरीर का स्पर्श कर इन्द्राणी को इतना हर्ष होता है कि मानों उसे तीनों लोकों का समस्त ऐश्वर्य ही मिल गया हो। वह बार-बार बालक का मुख देखती है और उसके कोमल शरीर का स्पर्श करती है। उस समय उसके इतना पुण्य संचित हो जाता है कि आगे सदा-सदा के लिए उसकी स्त्रीपर्याय का छेद हो जाता है और वह एक१ भवावतारिणी हो जाती है।
वह शची देवी जिन बालक को लेकर प्रसूतिगृह से बाहर आने लगती है। उस समय दिक्कुुमारी देवियाँ हाथों में छत्र, ध्वजा, कलश, चमर, सुप्रतिष्ठ, झारी, दर्पण और ताड़ का पंखा इन आठ मंगल द्रव्यों को लेकर भगवान् के आगे-आगे चलने लगती हैं। कोई देवियाँ मंगल हेतु मंगल दीपक हाथ में लिए हुए हैंं वे दीपक जिनबालक की दीप्ति के आगे फीके हो रहे हैं। इंद्राणी बाहर आकर जिनबालक को बड़े प्रेम से अपने पतिदेव के हाथों में सौंप देती हैं। उस समय इन्द्र भगवान् शिशु को गोद में लेकर परम आनन्द को प्राप्त होता हुआ गद्गदवाणी से भगवान् की स्तुति करने लगता है-
‘‘हे देव! आप तीनों जगत् की एक दिव्य ज्योति हैं, हे देव! आप तीनों जगत् के गुुरु हैं, हे देव! आप तीनों जगत् के विधाता हैं, हे देव! आप तीनों जगत् के स्वामी हैं, हे देव! केवलज्ञान रूपी सूर्य के लिए आप उदयाचल पर्वत हैं, भव्य कमलसमूह को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, हे नाथ! आप गुरुओं के भी गुरु हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, हे नाथ! आपसे ही हम लोगों को ज्ञान प्राप्त होगा, इसलिए आपको नमस्कार हो।’’इस प्रकार अनेक स्तुति करके भगवान् को गोद में लिए हुए ऐरावत हाथी पर आरुढ़ हो जाता है और मेरुपर्वत पर चलने के लिए इशारा करता है। उसी क्षण ऐशान इन्द्र जिन-शिशु के ऊपर छत्र लगा लेता है। सानत्कुमार और माहेन्द्र ये दोनों तरफ से चँवर ढोरने लगते हैंं। किन्नर देव वीणा आदि बजाते हुए भगवान् के जन्मोत्सव के गीत गाने लगते हैं, किन्नरियाँ नाचने लगती हैं। सभी देव जय-जयकार की ध्वनि से आकाश-पाताल को एक कर देते हैंंं। अनेक प्रकार के बाजे एक साथ बजने लगते हैं। सौधर्म इन्द्र के साथ-साथ असंख्य देवों का समूह चल पड़ता है और वह अर्धनिमिष मात्र में ही ज्योतिषपटल का उल्लंघन कर निन्यानवे हजार योजन ऊँचे सुमेरुपर्वत पर पहुँच जाता है।
इसी जम्बूद्वीप के बीच में विदेहक्षेत्र है उसके ठीक मध्य में सुमेरुपर्वत स्थित है। यह एक लाख योजन ऊँचा है। इसकी नींव पृथ्वी में एक हजार योजन है और इसकी चूलिका चालीस योजन की है अतः यह इस चित्रा भूमि से निन्यानवे हजार चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी तल पर इसकी चौड़ाई दस हजार योजन प्रमाण है। सुमेरु के चारों तरफ पृथ्वी तल पर ही भद्रसाल वन है जो कि पूर्व-पश्चिम में २२००० योजन विस्तृत है और दक्षिण-उत्तर में २५० योजन प्रमाण है। इस वन में पाँच सौ योजन ऊपर जाकर नन्दनवन है जो कि अन्दर में पाँच सौ योजन तक कटनीरूप है। इस वन से साढ़े बासठ हजार योजन ऊपर जाकर सौमनस वन है जो पाँच सौ योजन की कटनीरूप है। इससे आगे छत्तीस हजार योजन ऊपर पांडुक वन है जो कि चार सौ चौरानवे योजन प्रमाण कटनीरूप है। इस पर्वत की चूलिका प्रारंभ में बारह योजन है और घटते हुए अग्रभाग में चार योजन मात्र रह गई है।इस पर्वत के विस्तार में मूल से एक प्रदेश से ग्यारह प्रदेशों पर एक प्रदेश की हानि हुई है। इसी प्रकार ग्यारह अंगुल जाने पर एक अंगुल, ग्यारह हाथ जाने पर एक हाथ और ग्यारह योजन जाने पर एक योजन की हानि हुई है। अतः घटते-घटते यह पर्वत अग्रभाग में चार योजन मात्र विस्तृत रह गया है।
यह पर्वत नींव में १००० योजन तक वङ्कामय है। पृथ्वीतल से लेकर ६१००० योजन तक नाना प्रकार के उत्तम पंचवर्णी रत्नमयी है, आगे ३८००० योजन तक सुवर्णमय है और चूलिका वैडूर्यमणिमय है। इस सुमेरु के भद्रसाल, नंदन, सौमनस और पांडुक इन चारों ही वनों में आम्र, अशोक, सप्तच्छद और चंपक आदि नाना प्रकार के वृक्ष सतत फल और फूलों से शोभायमान रहते हैंं। इन वनों में कितने ही कूट, देवभवन, स्वच्छ जल से भरी हुई बावड़ी आदि हैं। इन चारों ही वनों में पूर्व-दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में एक-एक जिन-मंदिर हैं जो कि अकृत्रिम हैं, अनादि निधन हैं और सुवर्ण, रत्न आदि उत्तम धातु के बने हुए हैंं। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं। ऐसे इस सुमेरुपर्वत में सोलह जिन-मंदिर हैं। चारण ऋद्धिधारी मुनि, देव-देवियाँ और विद्याधर हमेशा वहाँ जिन-प्रतिमाओं की वंदना के लिए आते रहते हैं और इन नंदन आदि वनों में विचरण करते हुए कहीं भी शिलापट्ट पर स्थित होकर अपनी आत्मा का ध्यान किया करते हैं।पांडुक वन की विदिशाओं में चार शिलाएँ हैं। ईशान दिशा में पांडुकशिला, आग्नेय में पांडुकम्बला, नैऋत्य में रक्ताशिला और वायव्य में रक्तकंबला नाम वाली हैं। ये शिलाएं अर्धचन्द्राकार हैं सौ योजन लंबी, पचास योजन चौड़ी और आठ योजन मोटी हैं। इन शिलाओं के ऊपर बीच में तीर्थंकर के जन्माभिषेक के लिए सिंहासन है और उसके आजू-बाजू सौधर्म-ईशान इन्द्र के लिए भद्रासन हैं जिन पर खड़े होकर ये दोनों जिन-बालक का जन्माभिषेक करते हैं। ये आसन गोल हैं।
पांडुकशिला पर हमारे इस भरत क्षेत्र के जन्मे हुए तीर्थंकरों का जन्माभिषेक उत्सव मनाया जाता है। पांडुकम्बला शिला पर पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का, रक्ताशिला पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का और रक्तकम्बलाशिला पर पूर्वविदेह के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक होता है। इन पांडुक आदि शिलाओं की देवगण सतत जल, चंदन, अक्षत आदि से पूजा किया करते हैं। इन पर छत्र, चमर, झारी, ठोना, दर्पण, कलश, ध्वजा और ताड़ का पंखा ये आठ मंगल द्रव्य सदा स्थित रहते हैं।
सौधर्म इन्द्र महामहोत्सव सहित बड़े प्रेम से देवों के साथ-साथ सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता है। पुनः पांडुक शिला के सिंहासन पर जिनबालक को पूर्व दिशा में मुख करके विराजमान कर देता है। उस समय जिनेंद्रदेव की जन्मकल्याणक महिमा को देखने के लिए उत्सुक हुए सभी देव क्रम-क्रम से यथायोग्य स्थान पर बैठ जाते हैं। कहीं देवगण नृत्य में विभोर हो रहे हैं तो कहीं अर्घ्य समर्पण कर रहे हैं। कहीं देवियाँ मंंगल गीत गा रही हैं तो कहीं वीणा, बांसुरी आदि बजाकर नृत्य कर रही हैं। उस समय इन्द्र की आज्ञा से वहाँ पर इतने बड़े मंडप की रचना की गई कि जिसमें तीनों लोकों के समस्त प्राणी परस्पर में बाधा न देते हुए बैठ सकें। यह एक तीर्थंकर बालक का ही प्रभाव समझना चाहिए। इस मंडप की सजावट अनुपम है। चारों तरफ कल्पवृक्ष के पुष्पों की मालाएँ लटक रही हैं जिनकी सुगंध से सारा वातावरण सुगंधित हो रहा है।स्वयं इन्द्र समस्त विधि संपन्न करने में लगा हुआ है। देवगण क्षीरसागर से कलश भर-भर कर ला रहे हैं। ये कलश आठ योजन लम्बे हैं, इनका पेट चार योजन चौड़ा है और मुख के पास की चौड़ाई एक योजन प्रमाण है। ये सब कलश स्वर्णमयी हैं। ये सब चंदन से चर्चित हैं, इनके कंठ भाग में मोतियों की मालाएं पहनाई गई हैं। इनमें क्षीरसागर का जल जो कि दूध के समान श्वेत है वह लबालब भरा हुआ है। इनके मुख पर खिले हुए कमल रखे हुए हैं अतः ये कलश बहुत ही सुन्दर दिख रहे हैं। ऐसे ये १००८ कलश जिनबालक के जन्माभिषेक हेतु सजाये गये हैं।
सर्वप्रथम सौधर्म इन्द्र मंत्रोच्चारण पूर्वक प्रथम कलश हाथ में उठाता है और ऐशान इन्द्र द्वितीय कलश उठाता है। दोनों इन्द्र एक साथ जिनबालक के मस्तक पर जलधारा छोड़ते हैं उसी समय एक साथ सर्व प्रकार के देवदुंदुभि आदि बाजे बजने लगते हैं और देवगण जय-जय शब्द बोलने लगते हैं। उस समय ऐसा लगता है कि मानों सारा विश्व शब्दमय ही हो गया है। पुनः सौधर्म इन्द्र सभी कलशों को एक साथ उठाने के लिए अपनी एक हजार भुजाएँ बना लेता है और सारे कलशों को एक साथ उठाकर ऐसा लगता है मानों भाजनांग जाति का एक विशाल कल्पवृक्ष ही आ गया हो। शेष सभी इन्द्र-इन्द्राणी और देवगण भी भगवान् के मस्तक पर अनेक कलशों से जलधारा छोड़ते हैं। आश्चर्य इसी बात का है कि तीर्थंकर के अवतार ये जन्मजात शिशु इतने-इतने बड़े कलशों के इतने जल को अपने मस्तक पर लीलामात्र से झेल लेते हैं चूँकि उनमें जन्मजात ही अतुल्यबल विद्यमान है। उस समय अगणित देव भगवान के मस्तक पर एक साथ जल की धारा छोड़ रहे हैं तब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानों गंगा-सिंधु आदि महानदियाँ ही एक साथ आकर प्रभु के मस्तक पर गिर रही हैं और जिनबालक मेरु के समान ही स्थिर बैैठे हुए हैं। उस समय अभिषेक की जलबिंदुएँ आकाश में ऊपर उछल कर पुनः चारों तरफ नीचे गिरती हुई झरनों के समान प्रतीत होती हैं।भगवान् स्वयं पवित्र हैं, उन्होंने अपने पवित्र अंगों से उस जल को पवित्र कर दिया है और उस जल ने समस्त दिशाओं में पैâलकर इस सारे संसार को पवित्र कर दिया है। वह अभिषेक जल का प्रवाह अपनी इच्छानुसार बैठे हुए सुरदम्पत्तियों को दूर हटाता हुआ पाण्डुक वन में चारों तरफ पैâल गया। पहले तो वह मेरुपर्वत के अच्छे-अच्छे वनों में विश्राम करता है अर्थात् वन के भीतर वृक्षों के समूह से रुक जाने के कारण धीरे-धीरे चलता है परन्तु ज्यों ही वह वन के मार्ग को पार कर जाता है त्यों ही शीघ्र दूर तक पैâल कर नीचे की ओर बहने लगता है। वह सुमेरु के नीचे चारों तरफ से बहता हुआ दुग्ध सदृश श्वेत जल उस समय ऐसा दिख रहा है कि मानों आकाशगंगा की धारा ही नीचे पड़ रही है। मेरुपर्वत के ऊपर से पड़ता हुआ वह जल का प्रवाह ऐसा शोभ रहा है कि मानों मेरुपर्वत को खड़े नाप से नाप ही रहा है।
‘‘क्या यह अमृत की राशि है? अथवा स्फटिकमणि का पर्वत है? या कोई दूसरा चाँदी का पर्वत है?’’
देवों को भी एक क्षण के लिए ऐसा वितर्क हो रहा था। वह अभिषेक जल का प्रवाह अपनी बिन्दुओं से ऊपर स्वर्ग तक पहुँच कर पुनः नीचे ज्योतिर्लोक तक आकर सब ओर वृद्धि को प्राप्त हो रहा था। उस समय आकाश में पैैâले हुए तारागण अभिषेक जल में डूबकर बिखरे हुए मोतियों के समान सुशोभित हो रहे थे। सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल भी जल प्रवाह में डूब कर दूसरे ही क्षण बाहर आ गये थे। इसके बाद विधि-विधान को जानने वाले सौधर्म इन्द्र सुगन्धित जल से जिनबालक का अभिषेक करते हुए सम्पूर्ण जगत् की शान्ति के लिए शान्ति मंत्र का उच्चारण करते हैं। अभिषेक की विधि सम्पन्न हो जाने पर सभी इन्द्र उस गन्धोदक को अपने-अपने मस्तक पर लगा कर फिर सारे शरीर में लगा लेते हैं और कुछ गन्धोदक अपने-अपने स्वर्ग में ले जाने के लिए रख लेते हैं।
अनन्तर सभी इन्द्र-इन्द्राणी और देव-देवियाँ मिल कर भगवान् की प्रदक्षिणा देते हैं पुनः जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल और अर्घ्य से भगवान् की पूजा करते हैं। वे इन्द्रादिगण सुमेरु के चूड़ामणि ऐसे जिनबालक की पुनः-पुनः प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार करते हैं। उस समय पवनकुमार देव भक्ति से प्रत्येक दिशाओं में मन्द सुगन्धित वायु चला देते हैं। मेघकुमार देव अमृत से मिश्रित मन्द-मन्द जल कण को बरसाने लगते हैं और सभी देव कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा करने लगते हैं। देवों के द्वारा बजाये गये दुंदुभि बाजे तीनों लोकों को कल्याण की सूचना करते हुए ही गंभीर ध्वनि करने लगते हैं।जिनका अभिषेक कराने वाला स्वयं इन्द्र है, स्नान करने का सिंहासन सुमेरुपर्वत है, नृत्य करते हुए मंगल गीत गाने वाली देवियाँ हैं, परिचर्या हेतु किंकर सभी देवगण हैं और स्नान कराने का कटाह (टब) क्षीरसमुद्र है ऐसे पवित्रात्मा जिनेन्द्रदेव समस्त जगत् को पवित्र करने वाले होवें।
इंद्रों द्वारा तीर्थंकर ऋषभदेव का अभिषेक महोत्सव संपन्न हो जाने पर सौधर्म इन्द्र की शची इन्द्राणी हर्ष के साथ जगद्गुरु तीर्थंकर शिशु को अलंकार पहनाने के लिए अपने गोद में ले लेती हैं। स्नान के अनंतर ऋषभदेव के शरीर में लगे हुए जलकणों को वस्त्र से पोंछते हुए भगवान् के मुख पर अपने निकटवर्ती कटाक्षों की छाया को जलकण समझते हुए पुनः पुनः पोेंछने का प्रयास करती हैं। अनंतर ऋषभदेव के शरीर में चन्दनादि सुगन्धित गंध का विलेपन करके उन्हें स्वर्ग से लाये हुए सुन्दर वस्त्र पहनाती हैं। जगत् के तिलक ऐसे ऋषभदेव के ललाट में तिलक लगाती हैं, मस्तक पर कल्पवृक्ष के पुष्पों का मुकुट पहनाती हैं, जगत् के चूड़ामणि के मस्तक पर चूड़ामणि रत्न रख देती है, नेत्रों में अंजन लगाती हैं, ऋषभदेव के दोनों कान बिना बेधन किये ही छिद्रसहित थे, अतः उनके दोनों कानों में इन्द्राणी मणिमय कुण्डल पहनाती हैं, मणियों का हार पहनाकर कंठ की शोभा को द्विगुणित कर देती हैं, दोनों भुजाओं में बाजूबन्द, कड़ा, अनन्त पहनाती हैं तब ऐसा मालूम होता है कि मानों उनकी दोनों भुजाएं कल्पवृक्ष की दो शाखाएं ही हों, छोटी-छोटी घंटियाँ जिसमें बज रही हैं ऐसी मणिमयी करधनी कमर में पहना देती हैं, गोमुख के आकार वाले मणियों से शब्दायमान ऐसे सुन्दर आभूषण से चरणों की आभा द्विगुणित कर देती हैं। इन्द्राणी की गोद में बैठे हुए तथा सर्व अलंकारों से अलंकृत जिनबालक इतने अधिक सुन्दर दिख रहे हैं कि उस समय सौधर्मइन्द्र भगवान् के रूप को देखते हुए भक्ति से विभोर हो जाता है। जब वह टिमकार रहित एकटक देखते हुए भी तृप्त नहीं होता है तब अपनी विक्रिया से हजार नेत्र बनाकर एकटक देखता ही रह जाता है पुनः भक्ति रस में डूबा हुआ वह इन्द्र अन्य अनेक देवों के साथ प्रभु की स्तुति प्रारंभ करता है-
‘‘हे देव! हम लोगों को परम आनन्द देने के लिए ही आप उदित हुए हैं, क्या सूर्य के उदित हुए बिना कभी कमलों का समूह प्रबोध को प्राप्त हो सकता है? हे देव! मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकूप में पड़े हुए इन संसारी-जीवों के उद्धार करने की इच्छा से आप धर्मरूपी हाथ का सहारा देने वाले हो। हे देव! आप देवों के आदिदेव हैं, तीनों जगत् के आदिगुरु हैं, जगत् के आदि विधाता हैं और धर्म के आदिनायक हैं। हे देव! आप ही जगत् के स्वामी हैं। आप ही जगत् के पिता हैं और आप ही जगत् के रक्षक हैं। हे नाथ! संसाररूपी रोग से दुःखी ये प्राणी अमृत के समान आपके वचनरूपी औषधि के द्वारा निरोग होकर आपसे परम कल्याण को प्राप्त होंगे।हे भगवन् ! आप सम्पूर्ण क्लेशों को नष्ट कर इस तीर्थंकर रूप परमपद को प्राप्त हुए हैं अतएव आप ही पवित्र हैं, आप ही दूसरों को पवित्र करने वाले हैं और आप ही अविनाशी उत्कृष्ट ज्योतिः स्वरूप हैं। हे देव! यद्यपि आप बिना स्नान किये ही पवित्र हैं तथापि मेरुपर्वत पर जो आपका अभिषेक किया गया है वह पापों से मलिन हुए इस जगत् को पवित्र करने के लिए ही किया गया है। हे देव! आपके जन्माभिषेक से केवल हम लोग ही पवित्र नहीं हुए हैं, किन्तु यह मेरुपर्वत, क्षीर समुद्र तथा उन दोनों के वन, उपवन और जल भी पवित्र हो गये हैं।
हे देव! यद्यपि आप बिना लेप लगाये ही सुगन्धित हैं और बिना आभूषण पहने ही सुन्दर हैं तथापि हम भक्तों ने भक्तिवश ही सुगन्धित द्रव्यों के लेप और आभूषणों से आपकी पूजा की है। हे भगवन् ! आप तेजस्वी हैं, संसार में सबसे अधिक तेज को धारण करते हुए प्रगट हुए हैं, इसलिए ऐसे मालूम होते हैं मानों मेरुपर्वत के गर्भ से संसार का एक शिखामणि-सूर्य ही उदित हुआ हो। हे देव! स्वर्गावतरण के समय आप ‘सद्योजात’ नाम को धारण कर रहे थे। ‘अच्युत’-अविनाशी आप ही हैं और आज सुन्दरता को धारण करते हुए ‘कामदेव’ इस नाम को आपने ही सार्थक किया है अर्थात् ब्रह्मा हैं, विष्णु हैं और महेश हैं। जिस प्रकार शुद्ध खान से निकला हुआ मणि संस्कार के योग से देदीप्यमान हो जाता है उसी प्रकार आप भी जन्माभिषेक रूपी जातकर्म संस्कार से अतिशय देदीप्यमान हो रहे हैं। हे देव! विस्तार से आपकी स्तुति करने वाले योगिराज आपको पुराणपुरुष, पुरु, कवि और पुराण आदि मानते हैं। हे नाथ! आपकी आत्मा अत्यन्त पवित्र है इसलिए आपको नमस्कार हो, आपके गुण सर्वत्र प्रसिद्ध हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और आप ही जन्म-मरण के भय को नष्ट करने वाले हैं, इसलिए आपको नमस्कार हो।
हे नाथ! आप क्षमा-पृथ्वी के समान क्षमा-शान्ति गुण को ही प्रधान रूप से धारण करते हैं इसलिए क्षमा-पृथ्वीरूप को धारण करने वाले आपके लिए नमस्कार हो। आप जल के समान जगत् को आनन्दित करने वाले हैं इसलिए जलरूप धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप वायु के समान वेगशाली हैं और मोहरूपी महावृक्ष को उखाड़ने वाले हैं इसलिए वायुरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले हैं, आपका शरीर कुछ लालिमा लिए हुए पीतवर्ण का है इसलिए अग्निरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप आकाश की तरह पापरूपी धूलि से रहित हैं, विभु हैं, व्यापक हैं, अनादि अनन्त हैं, निर्विकार हैं, सबके रक्षक हैं इसलिए आकाश रूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप याजक के समान ध्यानरूपी अग्नि में कर्मरूपी साकल्य का होम करने वाले हैं, इसलिए याजक रूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप चन्द्रमा के समान निर्वाण (मोक्ष अथवा आनन्द) को देने वाले हैं इसलिए चन्द्ररूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। आप अनन्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले केवलज्ञानरूपी सूर्य से सर्वथा अभिन्न रहते हैं इसलिए सूर्यरूप को धारण करने वाले आपको नमस्कार हो। हे नाथ! इस प्रकार आप पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, याजक, चन्द्र और सूर्य इन आठ मूर्तियों को धारण करने वाले महादेव हैं इसलिए आपको नमस्कार हो।१
हे नाथ! आप ‘महाबल’-अतुल्यबल के धारक हैं अथवा इस भव से पूर्व दशवें भव में महाबल विद्याधर थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘ललितांग’ हैं-सुन्दर शरीर को धारण करने वाले हैं अथवा नवमें भव पूर्व ऐशान स्वर्ग में ललितांग देव थे, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप धर्मरूपी तीर्थ को प्रवर्ताने वाले ऐश्वर्यशाली ‘वङ्काजंघ’ हैं-वङ्का के समान मजबूत जंघाओं को धारण करने वाले हैं अथवा आठवें भवपूर्व ‘वङ्काजंघ’ नाम के राजा थे, इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘आर्य’-पूज्य हैं अथवा सातवें भवपूर्व भोगभूमिज आर्य थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप दिव्य ‘श्रीधर’-उत्तम शोभा से युक्त हैं अथवा छठे भवपूर्व ‘श्रीधर’ नाम के देव थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘सुविधि‘-उत्तम भाग्यशाली हैं अथवा पाँचवे भवपूर्व सुविधि नाम के राजा थे इसलिए आपको नमस्कार हो। आप ‘अच्युतेन्द्र’-अविनाशी स्वामी हैं अथवा चौथे भवपूर्व अच्युत स्वर्ग के इन्द्र थे, ऐसे आपके लिए नमस्कार हो। आप ‘वङ्कानाभि‘-वङ्का के समान नाभि और सारे शरीर को धारण करने वाले हैं अथवा तीसरे भवपूर्व वङ्कानाभि नाम के चक्रवर्ती थे ऐसे आपको नमस्कार हो। आप ‘सर्वार्थसिद्धि के नाथ’ अर्थात् सब पदार्थों की सिद्धि के स्वामी हैं अथवा दूसरे भवपूर्व आप सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिंद्र थे ऐसे आपको नमस्कार हो। हे नाथ! आप ‘दशावतारचरम’ अर्थात् सांसारिक पर्यायों में अंतिम अथवा ऊपर कहे हुए महाबल आदि दश अवतारों में अंतिम शरीर को धारण करने वाले नाभिराज के पुत्र ‘ऋषभदेव’ हुए हैं इसलिए आपको नमस्कार हो२।हे देव! इस प्रकार परम आनन्द से युक्त होकर आपकी स्तुति करते हुए हम लोग इसी फल की आशा करते हैं कि हम लोगों की भक्ति सतत आप में ही बनी रहे, बस! हमें अन्य किसी के पास जाने से अब कुछ प्रयोजन नहीं है।
इस प्रकार हर्ष से गद्गद होकर सौधर्म इन्द्र, उनके साथ अन्य इन्द्र तथा देवगण सभी मिलकर जिनबालक की स्तुति करके बार-बार नमस्कार करते हैं पुनः अयोध्या की ओर प्रस्थान करने के लिए तैयारी करते हैं। पूर्ववत् दुंदुभि बाजे बजने लगते हैं, सौधर्म इन्द्र जिनबालक को ऐरावत हाथी के कंधे पर विराजमान करके आप इन्द्राणी सहित उसी पर सवार होकर वहाँ से प्रस्थान कर देता है। सभी देवगण जय-जयकार के नारों से आकाश मण्डल को गुञ्जायमान कर देते हैं, बड़े भारी कोलाहल, गीत, नृत्य और वाद्य के साथ-साथ आकाशरूपी आँगन को उलंघन कर क्षणमात्र में वे अयोध्या नगरी में आ जाते हैं।
महाराजा नाभिराय के श्रीगृह के आँगन में देवों ने अतिशय सुन्दर मण्डप रचना करके मध्य में उच्चासन पर सिंहासन रख दिया था। सौधर्म इन्द्र जिनबालक को गोद में लिए हुए वहाँ माता मरुदेवी के महल में प्रवेश कर मध्य में रचित दिव्य सिंहासन पर पूर्वाभिमुख करके ऋषभदेव को विराजमान कर देता है। देवों के जय-जयकार के साथ दुंदुभि बाजों का गंभीर घोष होने लगता है। महाराजा नाभिराय अपने पुत्र को देखकर एकदम रोमांचित हो उठते हैं और एकटक देखते ही रह जाते हैं। इन्द्राणी द्वारा मायामयी निद्रा दूरकर जगाई गई माता मरुदेवी भी वहाँ आकर अपने उचित आसन पर विराजमान हो जाती हैं और अपने पुत्ररत्न के मुख को देखकर अतिशय हर्ष को प्राप्त हो जाती हैं। तत्पश्चात् सौधर्मइन्द्र अन्य इन्द्रों और देव-देवियों के साथ उन जगत् पूज्य माता-पिता को बहुमूल्य वस्त्र-आभूषण समर्पित कर विधिवत् पूजा करता है। पुनः वह इन्द्र उन दोनों की स्तुति करता है-
‘‘हे पूज्य! आप दम्पती महापुण्यशाली हैं और धन्य हैं क्योंकि समस्त लोक में श्रेष्ठ ऐसा तीर्थंकर पुत्र आपको ही हुआ है। आप दोनों की बराबरी करने वाला इस लोक में अन्य कोई भी नहीं है, क्योंकि आप जगत् के गुरु के भी गुरु अर्थात् माता-पिता हैं। हे नाभिराज! आप ऐश्वर्यशाली उदयाचल हैं और हे माता मरुदेवि! आप पूर्वदिशा हैं क्योंकि वह पुत्ररूपी परमज्योति आप से ही उत्पन्न हुई है। आज आपका यह घर हम लोगों के लिए जिनालय के समान पूज्य है और आप जगत्पिता के भी माता-पिता हैं अतः हम लोगों के लिए सदा पूज्य हैं।’’
इस प्रकार इन्द्र माता-पिता की स्तुति कर उनके हाथों में जिनबालक को सौंप देता है। पुनः तीर्थंकर को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर वहाँ पर जन्माभिषेक करने की सारी विधि का वर्णन करता है। माता-पिता अपने जन्मजात पुत्र का ऐसा पुण्य प्रताप सुनते हुए हर्ष और आश्चर्य की चरम सीमा पर पहुँच जाते हैं। अनन्तर इन्द्र माता-पिता से अनुमति प्राप्त कर अयोध्यावासी लोगों के साथ-साथ बड़े वैभव सहित पुनरपि जिनबालक का जन्मोत्सव मनाता है।
उस समय अयोध्या नगरी की शोभा स्वर्ग से भी बढ़कर अनुपम दिख रही है। सर्वत्र पताकाओं की पंक्तियाँ लहरा रही हैं, नगर निवासिनी स्त्रियाँ अप्सराओं के समान वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो मंगलगीत गा रही हैं, धूप की सुगन्धि से सारा दिग्मंडल व्याप्त हो गया है, नगर की सब गलियों में रत्नचूर्ण से चौक बनाये गये हैं। नगर के गोपुर और दरवाजों पर बँधे हुए तोरण अपनी शोभा से जन-जन का मन आकृष्ट कर रहे हैं। समस्त पुरवासी लोग गीत, नृत्य तथा वादित्र आदि अन्य अनेक मंगल कार्यों में तन्मय हो रहे हैं। उस समय उस नगर में न तो कोई दीन ही रहा है, न निर्धन ही और न कोई ऐसा ही रहा है कि जिसकी इच्छायें पूर्ण नहीं हुई हों और आनन्द से हर्षातिरेक नहीं हो रहा हो। इस तरह सारे संसार को आनन्दित करने वाला महोत्सव जैसा मेरुपर्वत पर हुआ था वैसा ही अन्तःपुर सहित इस अयोध्या नगर में हो रहा है। उन नगर निवासियों का आनन्द देखकर अपने आनन्द को प्रकाशित करते हुए इन्द्र ‘आनन्द’ नामक नाटक करने के लिए उद्यमशील होता है।
ज्यों ही इन्द्र नृत्य करना प्रारंभ करता है त्यों ही संगीत विद्या में कुशल गन्धर्वदेव अपने बाजे वगैरह ठीक कर विस्तार के साथ संगीत प्रारंभ कर देते हैं। उस समय अनेक बाजे बज रहे हैं, तीनों लोकों में पैâली हुई कुलाचलों सहित पृथ्वी ही इन्द्र की रंगभूमि है, स्वयं सौधर्म इन्द्र प्रधान ही नृत्य करने वाला है, नाभिराज आदि उत्तम-उत्तम पुरुष उस नृत्य के दर्शक हैं, जगद्गुरु भगवान् ऋषभदेव उसके आराध्य (प्रसन्न करने योग्य) देव हैं और धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों की सिद्धि तथा परमानन्द रूप अपवर्ग की प्राप्ति होना ही उसका फल है। इन ऊपर कही हुई वस्तुओं में से एक-एक वस्तु भी सज्जन पुरुषों को प्रीति उत्पन्न करने वाली है फिर पुण्योदय से सभी वस्तुओं का समुदाय किसी एक जगह आ मिले तो कहना ही क्या?
उस समय इन्द्र पहले त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, कामरूप फल को सिद्ध करने वाला गर्भावतार सम्बन्धी नाटक करता है। पुनः जन्माभिषेक संंबंधी नाटक करना प्रारंभ करता है। तदनंतर तीर्थंकर के महाबल आदि दशावतार संबंधी वृत्तान्त को लेकर अनेक रूप दिखलाने वाले अन्य अनेक नाटक करता है। इन नाटकों का प्रयोग करते समय इन्द्र सबसे पहले पापों का नाश करने के लिए मंगलाचरण करता है। पुनः सावधान होकर पूर्वरंग का प्रारंभ करता है। पूर्वरंग प्रारंभ करते समय इन्द्र पुष्पाञ्जलि क्षेपण करते हुए सबसे पहले ताण्डव नृत्य प्रारंभ करता है। उसके प्रारंभ में वह नान्दी मंगल करता है फिर नान्दी मंगल कर चुकने के बाद रंगभूमि में प्रवेश करता है। उस समय नाट्यशास्त्र के अवतार को जानने वाला और मंगलमय वस्त्राभूषण धारण करने वाला वह इन्द्र बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। वह रंगभूमि में उतरते ही पहले अपने दोनों हाथ कमर पर रख कर चारों ओर से देवों से घिरा हुआ ऐसा दिखता है कि मानों वातवलयों से घिरा हुआ लोक स्कंध ही हो। वह इन्द्र ताल के साथ-साथ पैर रखकर रंगभूमि के चारों ओर घूमता हुआ ऐसा लगता है मानो पृथ्वी को नाप ही रहा हो। जब वह पुष्पाञ्जलि बिखेर कर ताण्डव नृत्य करना शुरू करता है तब उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए देवगण आकाश से पुष्प बरसाने लगते हैं। उसी समय पुष्कर आदि करोड़ों प्रकार के बाजे एक साथ बजने लगते हैं फिर भी वे सभी वाद्य लय से लय मिलाकर बज रहे हैं। वीणा बजाती हुई किन्नरियाँ भगवान् के गुणों के गीत गा रही हैं।
नृत्य करते हुए इन्द्र अपनी विक्रिया से हजारों भुजाएँ बना लेता है तब पृथ्वी हिलने लगती है और समुद्र लहराने लगता है मानों आनन्द से थिरक-थिरक कर नाच ही रहा है। नृत्य करते समय वह इन्द्र क्षण भर में एक रह जाता है, पुनः अनेक हो जाता है, क्षण भर में पास में दिखाई देता है पुनः बहुत दूर पहुँच जाता है, क्षण भर में आकाश में दिखाई देता है तत्क्षण ही जमीन पर आ जाता है। विक्रिया से इस प्रकार नृत्य करता हुआ इन्द्र ऐसा लगता है कि मानों इन्द्रजाल का खेल ही दिखा रहा हो।
इन्द्र की हजारों भुजाओं पर मंद-मंद हास्य करती हुई देव अप्सराएँ नृत्य कर रही हैं। भुजाओं पर स्थित होकर नृत्य करती हुई देव नर्तकियाँ वर्द्धमान लय के साथ, कितनी ही ताण्डव नृत्य के साथ और कितनी ही देवांगनाएँ अनेक प्रकार के अभिनय दिखलाते हुए नृत्य कर रही हैं। नृत्य के समय फिरकी लेता हुआ इन्द्र हर्ष से विभोर होकर विक्रिया से अपने हजार नेत्र बना लेता है। कितनी ही देवियाँ इन्द्र के हाथों की अंगुलियों पर अपने चरण पल्लव रखती हुई लीलापूर्वक नृत्य कर रही हैं उस समय ऐसा लगता है कि मानों ये देवियाँ सूची नृत्य (सुई की नोक पर ही नृत्य) कर रही हों। अपने भुजदण्डों पर देव- नर्तकियों को नृत्य कराता हुआ वह इन्द्र ऐसा दिख रहा है मानों किसी यंत्र की पटियों पर लकड़ी की पुतलियों को नचाता हुआ कोई यान्त्रिक-यंत्र चलाने वाला ही हो। कभी वह इन्द्र अपनी एक ओर की भुजाओं पर देवों को नृत्य कराता है और दूसरी ओर की भुजाओं पर देवियों को नृत्य कराता हुआ अद्भुत ही प्रतीत हो रहा है।उस समय एक ओर तो दीप्त और उद्धत रस से भरा हुआ ताण्डव नृत्य हो रहा है, दूसरी ओर सुकुमार प्रयोगों से भरा हुआ लास्य नृत्य हो रहा है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न रस वाले, उत्कृष्ट और आश्चर्यकारक नृत्य को दिखलाता हुआ इन्द्र लोगों में अतिशय प्रेम उत्पन्न कर रहा है। ऐसा आनन्द नाम का नृत्य बड़े सज-धज के साथ सम्पन्न करके इन्द्र अपनी विक्रिया को समेट कर जिनबालक के सन्मुख हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है। पुनः-
‘‘ये भगवान् वृष-श्रेष्ठ धर्म से सहित हैं’’।
ऐसा कहते हुए इन्द्र प्रभु का ‘वृषभस्वामी’ यह नामकरण करता है। पुनः ‘पुरुदेव’ इस नाम से सम्बोधित करते हुए दूसरा नामकरण भी कर देता है। उसी समय सभी देवगण एक साथ-
‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव की जय हो, पुरुदेव की जय हो, जय हो, जय हो।’’ऐसे जय जयकार करने लगते हैं। अनन्तर माता-पिता को प्रसन्न करके वह इन्द्र जिनबालक की सेवा के लिए अर्थात् स्नान कराने, वस्त्राभूषण पहनाने, शरीर संस्कार करने और क्रीड़ा कराने आदि के लिए अनेक देवियों को धाय बनाकर नियुक्त कर देता है। पुनः सौधर्म इन्द्र अन्य देव देवियों के साथ पिता नाभिराय से आज्ञा लेकर अपने स्थान को चला जाता है।
जिनबालक ऋषभदेव को रत्नों के बने पालने में झुलाती हुई देवांगनाएं तीर्थंकर के पुण्य गीत को गा रही हैं और फूली नहीं समा रही हैं। वे देवांगनाएं धायरूप में बालक को कभी गोद में लेकर प्यार करती हैं, कभी हँसाती हैं तो कभी माता की गोद में दे देती हैं, पुनः दूसरी देवी आकर झट से अपनी गोद में ले लेती हैं। प्रजा के लोग दिन पर दिन दर्शन के लिए वहाँ आते रहते हैं और बालक को यदि गोद में ले पाते हैं तो अपने आप को बहुत ही पुण्यशाली समझ लेते हैं। कितनी ही महिलाएं, बालिकाएं और नववधुएं आकर बालक को गोद में ले-लेकर खिलाती रहती हैं। जिनबालक के मुखरूपी चन्द्रमा पर मन्द हास्यरूपी चाँदनी सदैव प्रगट रहती हैं, उससे माता-पिता का सन्तोषरूपी समुद्र अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। ऋषभदेव दूज के चन्द्रमा के समान शरीर की वृद्धि के साथ-साथ अनेक गुणों से भी वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं।धीरे-धीरे उनके मुख कमल से क्रम-क्रम से अस्पष्टवाणी प्रगट होने लगती है जिसे सुन-सुनकर माता-पिता व प्रजा के लोग अत्यधिक आनन्द का अनुभव करते हुए ऐसा चाहते हैं कि हम लोग सदा प्रभु की वाणी सुनते ही रहें। इन्द्रनील मणियों की भूमि पर धीरे-धीरे गिरते-पड़ते चलते हुए बालक ऋषभदेव बहुत ही सुन्दर लगते हैं। कभी देवियाँ हाथ की अँगुली का सहारा देती हैं और कभी भगवान् स्वयं चलना चाहते हैं तब देवियाँ अंगुली छोड़ देती हैं तथा बालक की डगमगाती हुई चाल को देखकर हँसने लगती हैं। तब बालक भी खिलखिलाकर हँसने लगता है। बालक को हँसते हुए देखकर माता मरुदेवी हर्ष के अतिरेक से रोमांचित हो जाती हैं।
बालक ऋषभदेव धीरे-धीरे मणियों की भूमि पर बैठने लगते हैं और देव बालकों के साथ रत्नों की धूलि में क्रीड़ा करने लगते हैं। इन्द्र की आज्ञा से बहुत से देव स्वर्ग से आकर जिनबालक की अवस्था के अनुसार अपने-अपने शरीर को बनाकर बालक के साथ क्रीड़ा करते हुए बहुत ही सुख का अनुभव करते हैं। जिनबालक अपनी बाल्य अवस्था को पार कर कौमार अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं। उनके साथ-साथ ही देवगण वैसा ही शरीर बनाकर उनके साथ खेला करते हैं। बालक का मनोहर शरीर, प्यारी बोली, मनोहर अवलोकन और मुस्कराते हुए वार्तालाप करना यह सब संसार की प्रीति को बढ़ा रहे हैं। बालक के शरीर के साथ-साथ उनकी कलायें वृद्धिगत होती जा रही हैं। ऋषभदेव बालक होते हुए भी उनमें बालसुलभ चेष्टाएँ न होकर प्रौढ़ता और गंभीरता विद्यमान है।
बालक ऋषभदेव गर्भ से ही मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञान से समन्वित हैं। इसलिए वे समस्त विद्याओं के ईश्वर हैं क्योंकि जन्मान्तर का संस्कार स्मरण शक्ति को सदैव पुष्ट रखता है यही कारण है कि वे समस्त लोक के गुरु हैं उनका कोई भी गुरु नहीं बन सकता है। वे प्रभु बिना शिक्षा के ही समस्त कलाओं में प्रशंसनीय कुशलता को, समस्त विद्याओं में प्रशंसनीय चतुराई को और समस्त क्रियाओं में प्रशंसनीय कर्मठता को प्राप्त हो चुके हैं। वे प्रभु सरस्वती के एकमात्र स्वामी हैं इसलिए समस्त वाङ्मय (शास्त्र) इन्हें प्रत्यक्ष हो गये हैं। ये समस्त प्राचीन इतिहास के ज्ञाता हैं, उत्तम कवि हैं, वक्ता हैं, गमक हैं और सबको प्रिय हैं, क्योंकि कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि आदि विद्यायें उन्हें स्वभाव से प्राप्त हो गई हैं। क्षायिक सम्यग्दर्शन ने उनके मन के समस्त दोषों को दूर कर दिया है और स्वभाव से प्राप्त हुई सरस्वती ने उनके वचन संंबंधी समस्त दोषों का अपहरण कर लिया है। उनके परिणाम बहुत ही शान्त हैं, आठ वर्ष की उम्र में बिना गुरु के ही पाँच अणुव्रत रूप चर्या प्रगट हो चुकी है अतः उनकी सारी चेष्टाएँ जगत का हित करने वाली ही होती हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव कभी तो, जिनका पूर्वभव में अच्छी तरह अभ्यास किया है ऐसे लिपिविद्या तथा संगीतादि कला शास्त्रों का स्वयं अभ्यास करते हैं और कभी दूसरों को कराते हैं। कभी छन्द शास्त्र, कभी अलंकार शास्त्र, कभी प्रस्तार नष्ट उद्दिष्ट संख्या आदि का विवेचन और कभी चित्र खींचना आदि कला शास्त्रों का मनन करते हैंं। कभी वैयाकरणों के साथ व्याकरण संबंधी चर्चा करते हैं, कभी कवियों के साथ काव्य-चर्चा, कभी अधिक बोलने वाले वादियों के साथ वाद करते हैं। कभी गीतगोष्ठी, कभी नृत्यगोष्ठी, कभी वादित्रगोष्ठी और वीणागोष्ठी के द्वारा विद्वानों का मनोरंजन करते हैं।
कभी मयूरों का रूप धरकर नृत्य करते हुए देवकिंकरों को लय के अनुसार हाथ की ताल दे देकर नृत्य कराते हैं। कभी विक्रिया शक्ति से तोते के रूपधारी देवकुमारों को स्पष्ट और मधुर अक्षरों से श्लोक पढ़ाते हैं। कभी हंसरूपधारी देवों को अपने हाथ से मृणाल के टुकड़े देकर सम्मानित करते हैं। कभी हाथी का रूप धरकर क्रीड़ा करने वाले देवों के साथ आनन्द से क्रीड़ा करते हैं। कभी मुर्गों का रूप धारण कर रत्नमयी जमीन में पड़ते हुए अपने प्रतिबिंबों के साथ ही युद्ध करने के इच्छुक देवों को देखते हुए उन पर प्रेम से हाथ फेरते हैं। कभी विक्रिया शक्ति से मल्ल का रूप धारण कर मात्र क्रीड़ा करने के लिए युद्ध के इच्छुक देवों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। कभी क्रौंच और सारस पक्षियों के रूपधारी देवों का उच्च स्वर-क्रेंकार शब्द सुनते हुए उन पर हाथ फिराते हैं। कभी माला आदि आभूषणों से अलंकृत देव बालकों को दण्ड क्रीड़ा (पड़गर का खेल) में लगाकर नचाते हैं। कभी घर के आँगन में देवांगनाओं द्वारा बनायी गयी रत्नचूर्ण की चित्रावली का निरीक्षण करते हैं।कभी वे देव बालक एक साथ मिलकर गद्य में और पद्य में उनके निर्मल यश का बखान करते हैं उसे प्रभु सुनते हुए मुस्करा देते हैंं। कभी उनके दर्शनों के लिए प्रजा के लोग आ जाते हैं तब प्रभु मधुर और स्नेह युक्त दृष्टि से उनका अवलोकन करके किन्हीं के साथ मन्द हास्य से सहित सम्भाषण करके उन्हें प्रसन्न कर देते हैं। उस समय प्रजा को भी ऐसा लगता है मानों हमारा राज्याभिषेक ही हो गया हो। कभी देव बालकों के साथ कृत्रिम बावड़ियों में जल क्रीड़ा का आनन्द लेते हैं तो कभी सरयू नदी में प्रवेश कर लकड़ी के बने हुए यंत्रों से जलक्रीड़ा करते हैं।
जलक्रीड़ा के समय मेघकुमार जाति के देव भक्ति से धारा-गृह (फव्वारा) की रचना करके चारों ओर जल की धारा छोड़ते हुए प्रभु की सेवा करते हैं। नन्दन के समान अयोध्या के बगीचे में जब प्रभु वन क्रीड़ा के लिए जाते हैं तब पवनकुमार जाति के देव पृथ्वी को धूलि रहित करते हुए बगीचे के वृक्षों को धीरे-धीरे हिलाते हैं तब लताओं से पुष्पों की वर्षा होने लगती है उस समय ऐसा लगता है मानों प्रभु के आगमन की खुशी में ही लताएँ नाच रही हैं और पुष्पाञ्जलि क्षेपण कर रही हैं। इस प्रकार देवगण ऋषभदेव के वय के अनुसार वेष, भूषा और क्रीड़ा से प्रभु का मनोरंजन करने के बहाने स्वयं का मनोरंजन करते हुए प्रभु की सेवा का पुण्य सम्पादन कर रहे हैं। प्रभु के सानिध्य में ऊँची से ऊँची व्याकरण छन्द आदि चर्चायें तथा तत्त्व चर्चायें करते हुए अपने ज्ञान को विकसित कर रहे हैं।
महाराजा नाभिराय के घर में देव बालकों के साथ समय यापन करते हुए ऋषभदेव सारी प्रजा के नेत्रों को आह्लादित कर रहे हैं। सौधर्म इन्द्र अपने यहाँ के मानस्तंभ के रत्नकरण्डकों में उत्पन्न हुई सुगन्धित मालाएं, दिव्यलेप आदि दिव्यभोग सामग्री और वस्त्र अलंकार आदि वस्तुएं नित्य प्रति वहीं (स्वर्ग) से प्रभु के लिए भेजता रहता है। तीर्थंकर कुमार स्वर्ग से लाए हुए उन माला, लेप, वस्त्र आभरण आदि भोगोपभोग सामग्री का ही उपभोग करते हैं।
यौवन अवस्था में प्रवेश करने पर तीर्थंकर ऋषभदेव का शरीर बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। जन्मकाल से ही प्रभु के दश अतिशय प्रगट हो गये थेः १. उनका रूप बहुत ही सुन्दर और असाधारण था जो कि तपाये हुए स्वर्ण के समान कांतिवाला था २. पसीना से रहित था ३. धूलि और मल से रहित था, ४. उनका रुधिर दूध के समान था ५. समचतुरस्रनामक सुन्दर संस्थान था ६. वङ्कावृषभनाराच नाम का उत्तम संहनन था ७. सुगंधि की परम सीमा प्राप्त कर चुका था ८. एक हजार आठ लक्षणों से अलंकृत था ९. अप्रमेय, महाशक्तिशाली था और १०. प्रिय तथा हितकारी वचन बोलने वाला था। ये दश प्रकार की विशेषताएं तीर्थंकर के अवतार पुण्यशाली दिव्य पुरुष में जन्म से ही विद्यमान रहती हैं।श्री वृक्ष, शंख, कमल, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, सफेद, छत्र, सिंहासन, पताका, दो मछली, दो कुम्भ, कच्छप, चक्र, समुद्र, सरोवर, विमान, भवन, हाथी, मनुष्य, स्त्रियाँ, सिंह, वाण, धनुष, मेरु, इन्द्र, देवगंगा, पुर, गोपुर, चंद्रमा, सूर्य, उत्तम घोड़ा ताल-वृन्त-पंखा, बांसुरी, वीणा, मृदंग, मालाएं, रेशमीवस्त्र, दूकान, कुंडल आदि चमकते हुए आभूषण, फल सहित उपवन, पके हुए कलमों से सुशोभित खेत, रत्नद्वीप, वङ्का, पृथ्विी, लक्ष्मी, सरस्वती, कामधेनु, वृषभ, चूड़ामणि, महानिधियाँ, कल्पलता, सुवर्ण, जम्बूद्वीप, गरुड़, नक्षत्र, तारे, राजमहल, मंगलादि ग्रह, सिद्धार्थ वृक्ष, आठ प्रातिहार्य और आठ मंगलद्रव्य इन्हें आदि लेकर एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यञ्जन तीर्थंकर के शरीर में विद्यमान रहते हैं। इन मनोहर और शुभ लक्षणों से व्याप्त श्री ऋषभदेव का शरीर ऐसा सुन्दर दिख रहा है कि जैसे ज्योतिषी देवों से भरित आकाशरूपी आँगन। उनका मुखरूपी चन्द्र इतना अधिक कांतिमान है कि तीनों लोकों में उसके समान कांति अन्य किसी की भी नहीं है। वात, पित्त और कफ इन तीन दोषों से उत्पन्न हुई व्याधियाँ तीर्थंकर के शरीर में स्थान नहीं पा सकी थीं सो ठीक ही है वृक्ष अथवा अन्य पर्वतों को हिलाने वाली वायु मेरु पर्वत पर अपना असर नहीं दिखा सकती। उनके शरीर में न कभी बुढ़ापा आ सकता है, न कभी उन्हें खेद होता है और न कभी असमय में उनका अपघात (मृत्यु) ही हो सकता है। उनके श्रीवत्स से चिन्हित वक्षस्थल पर ‘इन्द्रच्छद’ नाम का दिव्य हार बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा है।
किसी एक दिन महाराजा नाभिराय ऋषभदेव की यौवन अवस्था का प्रारंभ देखकर अपने मन में विचार करते हैं-
‘‘ये देव अतिशय सुन्दर शरीर के धारक हैं इनके चित्त को हरण करने वाली कौन सी सुन्दर स्त्री हो सकती है? सुन्दर स्त्री तो मिल सकती है, परन्तु इनका विषयराग अत्यन्त मन्द है इसलिए इनके विवाह का प्रारंभ करना ही कठिन कार्य है। दूसरी बात यह है कि इनका धर्म तीर्थ की प्रवत्ति करने में बहुत बड़ा उद्योग है इसलिए ये नियम से सर्व परिग्रह को छोड़कर वन में प्रवेश करेंगे। तथापि तपस्या करने के लिए जब तक इनका समय आता है तब तक इनके लिए लोकव्यवहार के अनुरोध से योग्य स्त्री का विचार करना चाहिए। जिस प्रकार हंसी कीचड़ रहित मानसरोवर में निवास करती है उसी प्रकार कोई योग्य और कुलीन स्त्री इनके निर्मल मानस में निवास करे।’’ऐसा विचार कर लक्ष्मीवान् महाराजा नाभिराय बड़े ही आदर और हर्ष के साथ तीर्थंकर ऋषभदेव के पास पहुँचते हैं। पिता को सामने आते देख प्रभु ऋषभदेव उनका स्वागत करते हैं। दोनों यथायोग्य अपने-अपने आसन पर विराजमान हो जाते हैं। तब महाराजा नाभिराय शांतिपूर्वक ऋषभदेव से कहते हैं-
‘‘हे देव! मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ इसलिए आप सावधान होकर सुनिये। आप जगत् के अधिपति हैं इसलिए आपको जगत् का उपकार करना चाहिए। हे देव! आप जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा हैं तथा स्वयंभू हैं-अपने आप ही उत्पन्न हुए हैं, क्योंकि आपकी उत्पत्ति में अपने आपको पिता मानने वाले हम तो एक छल मात्र हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने में उदयाचल निमित्त मात्र है क्योंकि सूर्य तो स्वयं ही उदित होता है उसी प्रकार आपकी उत्पत्ति होने में हम निमित्त मात्र हैं क्योंकि आप स्वयं ही उत्पन्न हुए हैं। आप माता के पवित्र गर्भ-गृह में कमलरूपी दिव्य-आसन पर अपनी उत्कृष्ट शक्ति स्थापन कर उत्पन्न हुए हैं इसलिए वास्तव में आप शरीर रहित हैं। यद्यपि मैं आपका यथार्थ में पिता नहीं हूँ, निमित्त मात्र से ही पिता कहलाता हूँ तथापि मैं आपसे एक अभ्यर्थना करता हूँ कि आप इस समय संसार की सृष्टि की ओर भी अपनी बुद्धि लगाइये। आप आदि पुरुष हैं इसलिए आपको देखकर अन्य लोग भी ऐसी ही प्रवृत्ति करेंगे क्योंकि जिनके उत्तम सन्तान होने वाली है ऐसी प्रजा महापुरुषों के ही मार्ग का अनुगमन करती है। इसलिए हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ! आप इस संसार में किसी इष्ट कन्या के साथ विवाह करने के लिए मन कीजिए क्योंकि ऐसा करने से प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होगा और प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होने पर धर्म की संतति बढ़ती रहेगी। इसलिए हे देव! मनुष्यों के इस अविनाशीक विवाहरूपी धर्म को आप अवश्य ही स्वीकार कीजिये। हे देव! आप इस विवाह कार्य को गृहस्थों का एक धर्म समझिये क्योंकि गृहस्थों को सन्तान की रक्षा में प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए। यदि आप मुझे किसी भी तरह गुरु (बड़ा) मानते हैं तो आपको मेरे वचनों का किसी भी कारण से उलंघन नहीं करना चाहिए क्योंकि गुरुओं के वचन उलंघन करना इष्ट नहीं है।’’इस प्रकार वचन कहकर धीर-वीर महाराजा नाभिराय चुप हो गए तब ऋषभदेव हँसते हुए-
‘‘ओम्’’ऐसा कहकर उनके वचन स्वीकार कर लेते हैं।‘‘अहो! इन्द्रियों को वश में करने वाले भगवान् ने जो विवाह कराने की स्वीकृति दी थी वह क्या उनके पिता की चतुराई थी, अथवा प्रजा का उपकार करने की इच्छा थी अथवा वैसा कोई कर्मों का नियोग ही था।’’
ऋषभदेव की अनुमति जानकर नाभिराय निःशंक होकर बड़े हर्ष के साथ विवाह का बड़ा भारी आयोजन करते हैं। पहले सौधर्म इन्द्र की अनुमति से सुशील, सुन्दर लक्षणों वाली, सती, बहुत ही शांत परिणामों वाली और यौवनवती ऐसी यशस्वती तथा सुनन्दा नाम की दो कन्याओं को उनके भ्राता तीर्थंकर महापुरुष के साथ अपनी बहनों का विवाह प्रस्ताव सुनकर रोमांचित हो जाते हैं उनके हर्ष का पार नहीं रहता है। तभी इन्द्र के साथ बहुत से देवगण आकर आनन्द के साथ बहुत बड़े विवाह मण्डप की रचना कर देते हैं। अयोध्या नगरी की शोभा का तो कहना ही क्या? प्रजा के लोगों में तो आनन्द की विशेष लहर है ही वे सभी लोग मंगल महोत्सव को मनाने में विशेष तैयारियाँ कर ही रहे हैं। सारी नगरी ध्वजा, पताका, तोरणद्वार और फूलों की मालाओं से सजायी गई है। देवगण भी उत्साह से सारे महोत्सव को सम्पन्न कराने में दत्तचित्त हैं।इस प्रकार महामहोत्सव के साथ तीर्थंकर ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न होता है। नाभिराय अपने परिवार के लोगों के साथ दोनों पुत्रवधुओं को देखकर बहुत ही सन्तुष्ट हो रहे हैं, सो ठीक ही है क्योंकि संसारीजनों को विवाह आदि लौकिक धर्म ही प्रिय होता है। उस समय माता मरुदेवी बहुत प्रसन्न हो रही हैं, सो सच ही है पुत्र के विवाहोत्सव में माताओं को अधिक प्रेम होता ही हैै। प्रजा के लोगों का भी आनन्द बढ़ता ही जा रहा है। मनुष्य स्वयं ही भोगों की तृष्णा रखते हैं इसलिए वे स्वामी को भोग स्वीकार करते देखकर उन्हीं का अनुसरण करने लगते हैं। तीर्थंकरदेव का वह विवाहोत्सव केवल मनुष्यलोक की ही प्रीति के लिए नहीं हुआ था, प्रत्युत् उसने स्वर्गलोक में भी भारी प्रीति को उत्पन्न किया था।
नवविवाहिता यशस्वती और सुनन्दा साक्षात् तीर्थंकर ऋषभदेव जैसे वर को प्राप्त कर महासौभाग्यशालिनी हुई ही थीं, साथ ही अपने स्त्रीपर्याय को भी वे उस समय बहुत ही उत्तम गिन रही थीं। उन दोनों की सुन्दरता श्री ऋषभदेव के योग्य थी और गुणों में वे स्त्री सृष्टि में सर्वोच्च थीं, जभी तो उन्हें तीर्थंकर की पत्नी होने का पुण्य अवसर मिला था। वे नाना प्रकार के सुन्दर-सुन्दर स्वर्ग से लाये गये वस्त्र, आभूषणों से अलंकृत थीं। उनके गले में एकावली हार शोभायमान हो रहा था जो कि उनके कण्ठ की शोभा को द्विगुणित कर रहा था।जहाँ तीर्थंकर ऋषभदेव तो वर हैं और यशस्वती-सुनन्दा जैसी यथा नाम तथा गुणों वाली कन्यायें वधू हैं। अन्तिम कुलकर महाराजा नाभिराय के साथ ही सौधर्म इन्द्र विवाह महोत्सव करने वाला है और अयोध्या की भाग्यशालिनी प्रजा के साथ-साथ सर्व आर्यखण्ड के लोग तथा स्वर्ग के असंख्य देव-देवियाँ जहाँ उत्सव को देखने वाले हैं। पुरी की पुरन्ध्रिकायें और अप्सरायें जहाँ मंगलगीत गाने वाली और नृत्य करने वाली हैं, वहाँ के उस समय के महामहोत्सव का भला कौन वर्णन कर सकता है?कीर्ति और लक्ष्मी के समान यशस्वती और सुनन्दा ने अपने सर्व उत्तम-उत्तम गुणों से प्रभु ऋषभदेव का मन हरण कर लिया था, सो ठीक है। यद्यपि कामदेव तीर्थंकर ऋषभदेव के सामने अनेक बार अपमानित हो चुका था तथापि वह गुप्त रूप से अपना संचार करता ही रहता था। इस प्रकार उन देवियों के साथ सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए जगद्गुरु तीर्थंकर ऋषभदेव का बहुत-सा समय भी क्षणमात्र के समान व्यतीत हो जाता है।
यशस्वती महादेवी राजहल में सो रही हैं, रात्रि के पिछले प्रहर में कुछ उत्तम-उत्तम स्वप्न देखती हैं, उसी समय तुरही की मंगल ध्वनि बजने लगती है और बंदीजन मंगलपाठ-सुप्रभाती पढ़ने लगते हैं-
‘‘हे दूसरों का कल्याण करने वाली और स्वयं सैकड़ों कल्याणों को प्राप्त होने वाली देवि! अब तुम जागो, क्योंकि यह उषा की मंगल बेला पूर्व दिशा को अनुरक्त (लाल) कर रही है। हे मातः! तुम्हारे द्वारा देखे गये अनेकों मंगलीक शुभ स्वप्न तुम्हारे और जगत् के मंगल के लिए होवें। हे कल्याणि! आपके पतिदेव के स्मरण से आपका यह सुप्रभात आपके लिए मंगलमयी होवे। हे ऋषभदेव की प्रिय वल्लभे! अब तुम शय्या छोड़ो और सभी परिवार के जनों को आनन्दित करो।’’
इत्यादि मंगल पदों से सुप्रभाती पढ़ते हुए बंदीजनों का कोलाहल शांत हो रहा है। तब यशस्वती महादेवी शय्या को छोड़कर प्राप्तःकाल का मंगलस्नान कर हर्ष से रोमांचित शरीर हो सबके स्वामी तीर्थंकर ऋषभदेव के समीप पहुँचती हैं। विनय से पतिदेव को प्रणाम कर उनके द्वारा निर्दिष्ट भद्रासन पर बैठ जाती हैं। पुनः तीर्थंकर देव के सन्मुख हाथ जोड़कर निवेदन करती हैं-
तब ऋषभदेव अपने दिव्य अवधिज्ञान से स्वप्नों के फल को जानकर कहते हैं-
‘‘ हे देवि! स्वप्नों में जो तूने सुमेरु पर्वत देखा है उसका फल यह है कि तेरे चक्रवर्ती पुत्र होगा।
सूर्य उसके प्रताप को और चन्द्रमा उसकी कांतिरूपी सम्पदा को सूचित कर रहा है।
सरोवर के देखने से तेरा पुत्र अनेक पवित्र लक्षणों से चिन्हित शरीर छोड़कर अपने विस्तृत वक्षस्थल पर कमलवासिनी-लक्ष्मी को धारण करने वाला होगा।
हे देवि! पृथ्वी का ग्रसा जाना देखने से तुम्हारा वह पुत्र चक्रवर्ती होकर समुद्ररूपी वस्त्र को धारण करने वाली समस्त छह खण्ड पृथ्वी का स्वामी होगा तथा समुद्र को देखने से वह चरमशरीरी होकर संसाररूपी समुद्र को पार करने वाला होगा।
हे कमल नयने! इक्ष्वाकुवंश को आनन्द देने वाला वह पुत्र तेरे सौ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ होगा।’’
इस प्रकार पति के वचन सुनकर महारानी यशस्वती हर्ष के अतिरेक से रोमांच को प्राप्त होती हुई पतिदेव को प्रणाम कर अपने राजमहल में वापस आ जाती हैं। इधर सर्वार्थसिद्धि से अहमिंद्र का जीव च्युत होकर महादेवी यशस्वती के पवित्र गर्भ में निवास करने लगता है। वह देवी तीर्थंकरदेव के दिव्य प्रभाव से उत्पन्न हुए गर्भ को धारण कर रही है। यही कारण है कि वह अपने ऊपर आकाश में चलते हुए सूर्य को भी नहीं सहन करती है। वीर सम्राट् को गर्भ में धारण करने वाली वह अपने मुख को तलवाररूपी दर्पण में देखती है। पुनः अतिशय मान से संयुक्त वह तलवार में पड़ती हुई अपनी प्रतिकूल छाया को भी नहीं सहन कर सकती है। वह रत्नगर्भा भूमि के समान, फलवाली बेल के समान सूर्यरूपी तेज जिसमें छिपा है ऐसी पूर्व दिशा के समान अतिशय सुन्दरता को प्राप्त हो रही हैै। यशस्वती देवी के गर्भावस्था में भी उदर की त्रिवली भंग नहीं हुई थी ऐसा लगता था कि मानों बालक अभंग दिग्विजय प्राप्त करेगा। उस देवी को सदा उत्तम-उत्तम दोहले होते रहते हैं जो कि माता मरुदेवी के हर्षसागर की वृद्धि को करने वाले रहते हैं।
इस प्रकार नव महीने व्यतीत हो जाने पर यशस्वती महादेवी देदीप्यमान तेज से परिपूर्ण और महापुण्यशाली पुत्ररत्न को जन्म देती हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव के जन्म के समय में जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा और शुभ नक्षत्र आदि थे वे ही शुभ दिन आदि उस समय भी हैं अर्थात् उस समय चैत्र कृष्ण नवमी, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धनराशि का चंद्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र है। उस समय उत्तम मुहूर्त में जन्मा हुआ वह शिशु अपनी दोनों भुजाओं से पृथ्वी का आलिंगन कर उत्पन्न हुआ है इसलिए निमित्त ज्ञानियों ने बतलाया कि ‘यह समस्त पृथ्वी का अधिपति अर्थात् चक्रवर्ती होगा।’ उस समय पुत्र जन्म के अवसर पर उसके दादा-दादी अर्थात् महाराजा नाभिराय और महारानी मरुदेवी दोनों ही परमहर्ष को प्राप्त हो रहे हैं। अतीव हर्ष को प्राप्त हुई पुत्रवती सौभाग्यवती स्त्रियाँ मंगल बधाई गाती हुई यशस्वती देवी को आशीर्वाद देते हुए कहती हैं-
‘‘हे देवि! पुत्राणां शतं प्रसूष्व, शतपुत्रा भव, अर्थात् हे देवि! तू इसी प्रकार सौ पुत्रों को उत्पन्न कर।’’
उसी क्षण राजमंदिर में बड़े-बड़े नगाड़े बजने लगते हैं, तुरही, दुंदुभि, झल्लरी, शहनाई, सितार, शंख, काहल और ताल आदि अनेक बाजे बज रहे हैं। देवगण भी आकाश से सुगन्धित पुष्पोें की वर्षा कर रहे हैं। सुगंधित कमल पराग से मिश्रित जल के छींटों से सहित ऐसी हवा मंद-मंद चल रही है। देवगण आकाश में जय-जयकार के शब्दोच्चारण से सारे वातावरण को मुखरित कर रहे हैं। देवियाँ शुभ मंगल शब्दों के द्वारा शिशु को शुभाशीर्वाद दे रही हैं-
‘हे तीर्थंकर के सुपुत्र! तुम चिरंजीव रहो, करोड़ों मंगल को प्राप्त करो।’’
नर्तकियाँ मंगल गीत गाते हुए नृत्य कर रही हैं, अयोध्या नगर की गली-गली में चंदन का छिड़काव किया जा रहा है एवं मंगल चौक पूरे जा रहे हैं। रत्न निर्मित तोरणों से घर-घर के द्वार सजाये गये हैं। सौभाग्यवती स्त्रियाँ रत्नों के चूर्ण से नाना तरह के सुन्दर चौक बनाकर उन पर सुवर्ण कमलों से ढके हुए ऐसे मंगलीक सुवर्ण कलश रख रही हैं। उस समय समस्त अयोध्यानगरी उत्सव को धारण कर रही है।
तीर्थंकर ऋषभदेव स्वयं अपने हाथों से सुवर्ण, रत्न आदि दान से दान की धारा बरसा रहे हैं अर्थात् सुवर्ण रत्न आदि दान दे रहे हैं। वह बालकरूपी चंद्रमा तीर्थंकर ऋषभदेवरूपी उदयाचल से उदय को प्राप्त हुआ है। अतएव वह समस्त अंतःपुर सहित नगर भर में आनन्दरूपी अमृत को बरसा रहा है। ‘‘उस समय प्रेम से भरे हुए सभी बंधुगण समस्त भरत क्षेत्र के अधिपति होने वाले उस पुत्र को ‘भरत’ इस नाम से संबोधित कर रहे हैं। इतिहास के जानने वालों का कहना है कि जहाँ अनेक आर्य पुरुष रहते हैं ऐसा यह हिमवान पर्वत से लेकर समुद्र पर्यत का चक्रवर्तियोें का क्षेत्र उसी ‘भरत’ पुत्र के नाम के कारण ‘भारतवर्ष’ इस नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हो रहा है।’’१
उस बालक के चरण कमलों में चक्र, छत्र, तलवार, दण्ड आदि चौदह रत्नों के चिन्ह बने हुए हैं और वे ऐसे मालूम पड़ते हैं कि मानों ये चौदह रत्न लक्षणों के बहाने ही भावी चक्रवर्ती की पहले से ही सेवा कर रहे हों। वह बालक माता यशस्वती के स्तन का पान करता हुआ जब कभी दूध के कुरले को बार-बार उगलता था तब वह ऐसा मालूम पड़ता था कि मानों अपना यश ही दिशाओं में बाँट रहा है। वह बालक ‘भरत’ अपनी मंद मुस्कान, मनोहर हास, मणिमयी भूमि पर चलना और अव्यक्त मधुर भाषण आदि के द्वारा अपने दादा-दादी और माता-पिता के हर्ष समुद्र को बढ़ा रहा है। जैसे-जैसे बालक बढ़ रहा है वैसे-वैसे ही उसके गुण भी बढ़ते जा रहे हैं।
विधि के विधाता तीर्थंकर ऋषभदेव उस बालक के क्रम से अन्नप्राशन, चौल और उपनयन आदि संस्कार स्वयं करते हैं।
बालक भरत शैशव में प्रवेश कर रहे हैं। उस समय उनकी वाणी, कला, विद्या, द्युति, शील और विज्ञान आदि सब कुछ वही हैं जो कि उनके पिता ऋषभदेव के हैं। पिता के साथ तन्मयता को प्राप्त भरत पुत्र को देखकर प्रजा कहा करती है कि ‘पिता का आत्मा ही पुत्र नाम से कहा जाता है’ यह बात बिल्कुल सच है। वह भरत पन्द्रहवें मनु तीर्थंकर ऋषभदेव के मन को भी अपने अधीन कर लेते हैं इसलिए लोग कहने लगे कि-
‘‘अहो! यह सोलहवाँ मनु उत्पन्न हो गया है।’’
केवल मात्र भरत के चरणों का पराक्रम ही समस्त पृथ्वी मंडल पर आक्रमण करने वाला है फिर भला उसके सम्पूर्ण शरीर का पराक्रम कौन सहन कर सकता है? उसके शरीर सम्बन्धी बल का वर्णन केवल इतने से ही समझ लिया जाता था कि वह चरमशरीरी है, और उसकी आत्मा संबंधी बल का वर्णन दिग्विजय आदि ब्रह्मा चिन्हों से जाना जावेगा। चक्रवर्ती के क्षेत्र में रहने वाले समस्त मनुष्य और देवों में जितना बल होता है उससे कई गुना अधिक बल चक्रवर्ती भरत की भुजाओं में है। ‘जहाँ सुन्दर आकार है वहीं समस्त गुण निवास करते हैं।’ इस लोकोक्ति के अनुसार सत्य, शौच, क्षमा, त्याग, प्रज्ञा, उत्साह, दया, दम, दशम और विनय ये गुण उनकी आत्मा के साथ-साथ रह रहे हैं। सुन्दर शरीर, नीरोगता, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति, बल, आयु, यश, बुद्धि, सर्वप्रियवचन और चातुर्य आदि इस संसार में जितने भी कुछ सुख के कारण हैं वे सब अभ्युदय कहलाते हैं और वे सब संसारी जीवों को पुण्य के उदय से ही प्राप्त होते हैं। जब तीर्थंकर ऋषभदेव भी अपने प्रिय पुत्र भरत के मुख को देखकर उसके विनयपूर्ण शब्दों को सुनकर प्रणाम के बाद उठाकर खड़े हुए उसका बार-बार आलिंगन कर तथा उसे अपनी गोद में बिठाकर परम संतोष को प्राप्त होते रहते हैं। तब पुनः महाराजा नाभिराज, दादी मरुदेवी और माता यशस्वती तथा सुनन्दा के आनन्द का क्या कहना है वे तो भरत की चेष्टा को उत्सुकता से देखा ही करते हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव की द्वितीय वल्लभा सुनन्दा महादेवी किसी समय रात्रि के पिछले प्रहर में शुभ स्वप्नों को देखकर सर्वार्थसिद्धि से च्युत हुए अहमिंद्र के जीव को अपने उदर में धारण करती हैं। सुखपूर्वक नवमास व्यतीत कर उत्तम नक्षत्र आदि शुभयोग में पुत्र रत्न को जन्म देती हैं। उस समय भी पूर्ववत् नाना उत्सव किये जाते हैं तथा बालक का ‘बाहुबली’ यह नामकरण किया जाता है जो कि मानों उस बालक के भविष्य में होने वाले अचिन्त्य बाहुबल को ही सूचित कर रहा है। यह बालक भी इस युग के चौबीस कामदेवों में से ‘प्रथम कामदेव’ है अतः इसकी सुन्दरता का वर्णन लेखनी के द्वारा कोई नहीं कर सकता है। इस बालक के शरीर का वर्ण मरकतमणि के समान हरा है जो कि अभूतपूर्व ही सौंदर्य को दिखा रहा है।इधर माता यशस्वती के क्रम-क्रम से निन्यानवे पुत्र होते हैं। वृषभसेन, अनन्तविजय, अनन्तवीर्य, अच्युत, वीर और वरवीर आदि जिनके अच्छे-अच्छे नाम हैं और ये सभी भी चरमशरीरी महापुण्यवान् हैं। इनके बाद महादेवी यशस्वती के एक सुन्दर कन्या का जन्म होता है जिसका ‘ब्राह्मी’ ऐसा नाम रखा जाता है। उसी प्रकार से सुनन्दा देवी के भी एक पुत्री का जन्म होता है जिसे सुन्दरी नाम से पुकारा जाता है। इस प्रकार तीर्थंकर ऋषभदेव के भरत, बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र एवं ब्राह्मी-सुन्दरी ऐसी दो पुत्रियाँ हैं। इन सभी परिवार के साथ महाराजा नाभिराय और माता मरुदेवी अपने आप में महान् सुख का अनुभव कर रहे हैं।कर्मयुग के प्रारंभ में तीर्थंकर ऋषभदेव स्वयं अपने पुत्रों के लिए कण्ठ और वक्षस्थल के अनेक आभूषण बनाते हैं, भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्र भी उन आभूषणों को धारण कर ज्योतिषी देवों के समान सुशोभित हो रहे हैं।
उन आभूषणों में यष्टि, हार और रत्नावली आदि, मोती तथा रत्नों के बने हुए अनेक आभूषण हैं। उनमें से यष्टि नामक आभूषण शीर्षक, उपशीर्षक, अवघाटक, प्रकाण्डक और तरल प्रबंध के भेद से पाँच प्रकार का होता है। ये पाँचों प्रकार की यष्टियाँ मणिमध्या और शुद्धा के भेद से दो-दो प्रकार की हैंं। जिसके बीच में एक मणि लगा हो उसे मणिमध्या और जिसके बीच में मणि नहीं लगा हो उसे शुद्धा यष्टि कहते हैं। मणिमध्या यष्टि को सूत्र तथा एकावली भी कहते हैं और यदि यही मणिमध्या यष्टि सुवर्ण तथा मणियों से चित्र-विचित्र हो तो उसे रत्नावली भी कहते हैं। जो यष्टि किसी निश्चित प्रमाण वाले सुवर्ण मणि, माणिक्य और मोतियों के द्वारा बीच में अन्तर दे दे कर गूँथी जाती हैै, उसे अपवर्तिका कहते हैं।
जिसके बीच में एक बड़ा मोती हो वह शीर्षक है। जिसके बीच में क्रम से तीन मोती लगे हों उसे उपशीर्षक, जिसमें पाँच मोती हों उसे प्रकाण्डक, जिसके बीच में एक बड़ा मणि हो और उसके दोनों ओर क्रम-क्रम से घटते हुए छोटे-छोटे मोती लगे हों उसे तरल प्रबंध कहते हैं।यष्टि अर्थात् लड़ियों के समूह को हार कहते हैं, वह हार लड़ियों की संख्या के न्यूनाधिक होने से इन्द्रच्छंद आदि के भेद से ग्यारह प्रकार का होता है। जिसमें १००८ लड़ियाँ हों वह इन्द्रच्छंद है। यह हार सबसे उत्कृष्ट होता है, इसे इन्द्र, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर ही पहनते हैं। जिसमें ५०४ लड़ियाँ हों उसे विजयच्छंद हार कहते हैं, यह हार अर्ध चक्रवर्ती और बलभद्र के पहनने योग्य है। जिसमें १०८ लड़ियाँ हों उसे हार कहते हैं, जिसमें मोतियों की ८१ लड़ियाँ हों उसे देवच्छंंद, जिसमें ६४ लड़ियाँ हों उसे अर्धहार, जिसमें ५४ हों उसे रश्मिकलाप जिसमें ३२ हों उसे गुच्छ, जिसमें २७ हों उसे नक्षत्रमाला, जिसमें २४ हों उसे अर्धगुच्छ, २० लड़ियों के हार को माणव और १० लड़ियों के हार को अर्धमाणव कहते हैं। इन इच्द्रच्छंद आदि हारों के मध्य में जब मणि लगा दिया जाता है तब उन नामों के साथ माणव शब्द और भी सुशोभित होने लगता है। अर्थात् इन्द्रच्छंद माणव, विजयछन्द माणव आदि।
जो एक शीर्षकहार है वह शुद्धहार है। यदि शीर्षक के आगे इन्द्रच्छंद आदि उपपद लगा दिये जाते हैं तो वह भी ग्यारह भेदों से युक्त हो जाता है। इसी प्रकार उपशीर्षक आदि शुद्ध हारों के भी ग्यारह-ग्यारह भेद होते हैं। इस प्रकार सब हार पचपन प्रकार के होते हैं। अर्धमाणव हार में यदि मणि लगाया गया हो तो उसे फलकहार कहते हैं। उसी फलकहार में जब सोने के तीन अथवा पाँच फलक लगे हों तो उसके सोपान और मणि सोपान ऐसे दो भेद हो जाते हैं।इस प्रकार से तीर्थंकरदेव के द्वारा निर्मित कराये गये आभूषणों को धारण करने से उनके सभी पुत्र और पुत्रियाँ अतिशय अलंकृत हो रहे हैं। सर्व राजकुमारों में भरत अतिशय तेजस्वी सूर्य के समान हैं, युवा बाहुबली चंद्रमा के समान हैं, शेष राजपुत्र ग्रह, नक्षत्र और तारागण के समान हैं। उन सभी राजपुत्रों में ब्राह्मी दीप्ति के समान और सुन्दरी चाँदनी के समान सुशोभित हो रही हैं।सभी पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए तीर्थंकर ऋषभदेव ज्योतिषी देवों से घिरे हुए ऊँचे सुमेरु पर्वत के समान शोभायमान हो रहे हैं और महाराजा नाभिराय तथा माता मरुदेवी के आनन्द को बढ़ा रहे हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव राज्यसभा में सिंहासन पर विराजमान हैं। उनके चित्त में विद्या और कला के उपदेश की भावना जाग्रत हो रही है। इसी बीच ब्राह्मी और सुंदरी दोनों कन्याएं मांगलिक वेष-भूषा धारण किए हुए अपने पूज्य पिता के निकट आती हैं। उस समय देखने वालों को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि-
‘‘ये कोई दिव्य कन्याएं हैं? अथवा नागकन्याएं हैं? अथवा दिक् कन्यायें हैं? अथवा सौभाग्य देवियाँ हैं? अथवा लक्ष्मी और सरस्वती हैं? अथवा उनकी अधिष्ठात्री देवी हैं? अथवा उन्हीं का अवतार हैं? अथवा क्या जगन्नाथ ऋषभदेव रूपी महासमुद्र से उत्पन्न हुई लक्ष्मी हैं?’’
इत्यादिरूप सभासद लोग उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। दोनों कन्यायें पिता के समीप आकर विनयपूर्वक हाथ जोड़कर गवासन से बैठकर नमस्कार करती हैं।
‘‘हे पूज्य पिताजी! प्रणाम।’’
‘‘चिरंजीव रहो पुत्री!’’
ऐसा आशीर्वाद देते हुए तीर्थंकर महाराज नमस्कार करती हुई अपनी पुत्रियों को बड़े प्यार से उठाकर अपनी गोद में बिठा लेते हैं। पुनः उनके मस्तक पर हाथ फेरते हुए और मुस्कराते हुए बड़े प्रेम से कहते हैं-
‘‘आओ, पुत्रियों आओ! तुम समझती होंगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जायेंगी परन्तु अब ऐसा नहीं हो सकता चूँकि वे देवगण पहले ही चले गए।’’
दोनों कन्याएं भी पिता का असीम प्रेम प्राप्त कर और उनके ऐसे विनोदपूर्ण मधुर शब्द सुनकर हँस पड़ती हैं। तब ऐसा प्रतीत होता है कि मानों उनके मुख से फूल ही झड़ रहे हैं।
इस प्रकार कुछेक क्षण तीर्थंकर देव अपनी पुत्रियों के साथ विनोद करते हुए अनंतर कहते हैं-
‘‘पुत्रियों! तुम अपने शील और विनय गुण के कारण इस किशोरावस्था में भी वृद्धा के समान हो। तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था और यह अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित कर दिया जावे तो तुम दोनों का यह जन्म सफल हो सकता है। इस लोक में विद्यावान् पुरुष पंडितों के द्वारा भी सम्मान को प्राप्त होता है और विद्यावती स्त्री भी सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त होती है।
विद्या ही सभी मनुष्यों का हित करने वाली है, विद्या ही सम्पूर्ण दिशाओं में यश को विस्तृत करने वाली है, अच्छी तरह से आराधना की गई यह विद्या देवता ही मनुष्यों के संपूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली है। यह विद्या ही मनुष्यों के लिए कामधेनु है, विद्या ही चिंतामणि रत्न है, विद्या ही धर्म, अर्थ तथा कामरूप फल से सहित संपदाओं को उत्पन्न करती है, विद्या ही बंधु है, विद्या ही मित्र है, विद्या ही कल्याण करने वाली है, विद्या ही साथ जाने वाला धन है और विद्या ही सर्व प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है। इसलिए हे पुत्रियों! तुम दोनों अब विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम दोनों की यही विद्या ग्रहण करने की उम्र है।’’
तीर्थंकर ऋषभदेव ऐसा कहकर बार-बार उन्हें आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित करते हैं, पुनः-
‘सिद्धं नमः’
इस मंगलाचरण रूप मंत्र का उच्चारण कर पुत्रियों से उच्चारण कराकर अपने दाहिने हाथ से दाईं ओर बैठी हुई पुत्री को ‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ, क ख ग घ ङ, च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म, य र ल व, श ष स ह, अनुस्वार (अं), विसर्ग (अः), जिह्वामूलीय और उपध्मानीय इन चार अयोगवाह पर्यंत समस्त स्वर व्यंजन रूप शुद्ध अक्षरावली को लिखाते हैं और बायें हाथ से अपनी बाईं तरफ बैठी हुई पुत्री को इकाई दहाई आदि स्थानों के क्रम से १, २, ३, आदि संख्यारूप गणित लिखाते हैं।वे दोनों कन्यायें पूज्य पिता ऋषभदेव के मुख से इन सिद्धमातृका रूप अक्षर लिपि१ व गणित को अच्छी तरह से समझकर हृदय में धारण कर लेती हैं। गणधर देव व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को ‘वाङ्मय’ कहते हैं। इस वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है। इसलिए प्रभु ऋषभदेव सबसे पहले उन पुत्रियों को वाङ्मय का ही उपदेश देते हैं।उस समय स्वयंभू ऋषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ था, उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गंभीर था। इसी प्रकार उन्होंने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का भी उपदेश दिया और उसके ‘उक्ता, अत्युक्ता’ आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये। अनेक विद्याओं के अधिपति ऋषभदेव ने प्रस्तार, नष्ट उद्दिष्ट, एक द्वि त्रि लघु क्रिया, संख्या और अध्वयोग, छन्दशास़्त्र के इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया। प्रभु ने अलंकारों का संग्रह करते समय अथवा अलंकार संग्रह ग्रंथ में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया और माधुर्य, ओज आदि दशप्राण अर्थात् गुणों का भी निरूपण किया था।कुछ ही दिनों में ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की व्याकरणरूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्यायें और कलायें अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो जाती हैं। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से उन्होंने समस्त विद्यायें पढ़ ली हैं। अतः अब वे दोनों पुत्रियाँ सरस्वती देवी के अवतार लेने के लिए पात्रता को प्राप्त हो चुकी हैं। अर्थात् वे इतनी ज्ञानवती हो चुकी हैं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती हैं।
जगद्गुरु तीर्थंकर ऋषभदेव अपने भरत आदि पुत्रों को भी विनयी बनाकर क्रम से आम्नाय के अनुसार उन्हें अनेक शास्त्र पढ़ाते हैं। भरत पुत्र को अत्यन्त विस्तृत बड़े-बड़े अध्यायों से स्पष्ट अर्थशास्त्र और संग्रह प्रकरण सहित नृत्यशास्त्र पढ़ाते हैं। वृषभसेन पुत्र को गाना, बजाना आदि अनेक पदार्थों के संग्रह सहित सौ से भी अधिक अध्याय युक्त ऐसे गंधर्व शास्त्र को पढ़ाते हैंं। अनन्तविजय पुत्र के लिए नाना प्रकार के सैकड़ों अध्यायों से भरी हुई चित्रकला संबंधी विद्या का उपदेश देते हैं और लक्ष्मीशोभा सहित समस्त कलाओं का निरूपण करते हैं तथा सूत्रकार की विद्या और मकान बनाने की विद्या को भी विस्तार से सिखाते हैं। बाहुबली पुत्र के लिए कामनीति, स्त्री-पुरुषों के लक्षण, आयुर्वेद, धनुर्वेद, घोड़ा-हाथी आदि के लक्षण जानने के तंत्र और रत्न परीक्षा आदि के शास्त्रों को अनेक प्रकार के बड़े-बड़े अध्यायों में विभाजित कर सिखाते हैं।इस विषय में अधिक कहने से क्या? संक्षेप में इतना ही बस है कि लोक का उपकार करने वाले जितने भी शास्त्र हो सकते हैं, जगद्गुरु प्रभु ऋषभदेव उन सभी को अपने पुत्रों को सिखलाते हैं। जिस प्रकार स्वभाव से देदीप्यमान रहने वाले सूर्य का तेज शरद् ऋतु में और भी अधिक हो जाता है उसी प्रकार प्रभु ऋषभदेव के अपनी समस्त विद्याओं के प्रकाशित कर देने पर उनका तेज उस समय अत्यधिक महिमा को प्राप्त हो रहा है। इस प्रकार अपने इष्ट पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए और अनेक प्रकार के दिव्य सुखों का अनुभव करते हुए तीर्थंकर ऋषभदेव का बीस लाख पूर्व वर्ष पर्यन्त का कुमार काल पूर्ण हो चुका है।
इसी बीच में काल के प्रभाव से महौषधि, दीप्तौषधि, कल्पवृक्ष तथा सब प्रकार की औषधियाँ शक्तिहीन हो गई हैं। मनुष्यों के निर्वाह के लिए जो बिना बोये हुए धान्य उत्पन्न हो रहे थे वे भी काल के प्रभाव से प्रायः विरलता को प्राप्त हो गये हैं, जहाँ कहीं कुछ-कुछ मात्रा में ही रह गये हैं। कल्पवृक्ष रस, वीर्य और फल देने आदि से रहित हो गये हैंं। ऐसे समय में वहाँ की प्रजा रोग आदि अनेक बाधाओंं से व्याकुलता को प्राप्त होने लगती है। तब जीवित रहने की इच्छा से प्रजा के प्रमुख-प्रमुख लोग महाराजा नाभिराय के समीप पहुँचकर अपना दुःख निवेदन करते हैं। महाराय नाभिराय कहते हैं-
‘‘हे प्रजाजनों! अब तुम तीर्थंकर के अवतार उन ऋषभदेव के पास जाओ, वे ही तुम्हें आजीविका का उपाय बतायेंगे।’’इतना सुनकर तथा नाभिराय को नमस्कार कर प्रजाजन तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव के समीप आ जाते हैं और साष्टांग नमस्कार कर प्रार्थना करते हैंं-‘‘हे प्रभु! जीवित रहने की इच्छा से हमलोग आपकी शरण में आये हुए हैं, इसलिए हे तीन लोक के नाथ! अब आप जीविका का उपाय बतला कर हम लोगों की रक्षा कीजिए। हे विभो! जो कल्पवृक्ष पिता के समान हमारी रक्षा करते थे वे सब मूल से नष्ट हो गये हैं और जो धान्य बिना बोए हुए उग रहे थे वे भी अब नहीं फल रहे हैं। हे देव! हम लोगों को भूख-प्यास की बाधा सता रही है और अन्न-पानी से रहित हुए हम लोग अब एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकते हैं। हे देव! शीत, आतप, महावायु और वर्षा आदि का उपद्रव, आश्रयरहित, मकानरहित हमलोगों को दुःखी कर रहा है इसलिए अब इन सबके दूर करने का उपाय बतलाइये। हे विभो! आप ही इस युग के आदिकर्ता हैं और कल्पवृक्ष के समान उन्नत हैं सो आपका आश्रय पाकर हम लोग भय के स्थान वैâसे हो सकते हैं? हे देव! जिस प्रकार हम लोगों की आजीविका निरुपद्रव हो जाये आज उसी प्रकार का उपदेश देकर हम लोगों को कृतार्थ कीजिये। हे दयानिधे! अब शीघ्र ही हम लोगों पर प्रसन्न होइये।’’
प्रजाजनों के इस प्रकार के दीन वचन सुनकर दया के सागर तीर्थंकर देव का हृदय करुणा से आर्द्र हो उठा, वे अपने मन में विचार करने लगे-
‘‘पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है तभी यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जिस प्रकार असि, मषि आदि छह कर्म हैं, जैसी क्षत्रिय आदि वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम-नगर, घर आदि की पृथव्â-पृथव्â रचना है उसी प्रकार यहाँ पर भी होनी चाहिए। इन्हीं उपायों से इन सबकी आजीविका चल सकती है। इनके जीवन के लिए और कोई अन्य उपाय नहीं हैं।१ कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने पर अब यह कर्मभूमि प्रगट हो गई है, इसलिए यहाँ अब प्रजा को असि, मषि आदि छह क्रियाओं द्वारा आजीविका करना ही उचित है।’’
इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव क्षणभर सोचकर पुनः प्रजा को बार-बार आश्वासन देते हुए कहते हैं-
‘‘तुम लोग भयभीय मत होओ।’’
इतना कहते ही प्रभु उसी क्षण मन में इन्द्र का स्मरण करते हैं। प्रभु के स्मरण मात्र से ही सौधर्म इन्द्र बहुत से देवों के साथ वहाँ उपस्थित हो जाता है और प्रभु को नमस्कार कर उनको इच्छानुसार प्रथम ही मांगलिक कार्य करके अयोध्यापुरी के मध्य में जिनमंदिर की रचना करता है। उस काल में शुभ दिन, शुभ नक्षत्र, शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न था तथा सूर्य आदि ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में स्थित थे और जगद्गुरु ऋषभदेव की हर तरह की अनुकूलता थी। मध्य में जिनमंदिर का निर्माण करके वह इन्द्र पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इस प्रकार चारों दिशाओं में भी क्रम से जिनमंदिर का निर्माण करता है। पुनः कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि महानगर, वन और सीमा सहित गाँव, खेड़ों आदि की भी रचना करता है।सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, वंग, सुह्य, समुद्रक, काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स,पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, करहाट, महाराष्ट्र, सुराष्ट्र, आभीर, कोंकण, वनवास, आन्ध्र, कर्णाट, कौशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सोवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिन्धु, गान्धार, यवन, चेदि, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, बाल्हीक, तुरुष्क, शक और केकय इन देशों की रचना करता है तथा इनके सिवाय और भी अनेक देशों का विभाग कर देता है।उस समय इन्द्र ने कितने ही देश अदेवमातृक, कितने ही देश देवमातृक और कितने ही देश साधारण बनाएं। जहाँ नदी और नहरों से सिंचाई होती है वे अदेवमातृक हैं, जहाँ वर्षा के जल से सिंचाई हो जाती है ऐसे प्रदेश देवमातृक कहलाते हैं और जहाँ दोनों प्रकार से सिंचाई संभव हो उन्हें साधारण देश कहते हैं।
‘विजयार्ध पर्वत के समीप से लेकर समुद्रपर्यंत (दक्षिण दिशा में लवण समुद्र पर्यंत) कितने ही देश साधारण थे, कितने ही बहुत जलवाले थे और कितने ही देश जल की दुर्लभता से सहित थे।’१
उन सभी देशों से व्याप्त यह पृथ्वी (भरत क्षेत्र का आर्यख्ण्ड) ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों यह स्वर्ग का एक टुकड़ा ही हो। जिस प्रकार स्वर्ग के स्थानों की सीमाओं पर लोकपाल देवों के स्थान होते हैं उसी प्रकार उन देशों की अन्त सीताओं पर भी सब ओर सीमारक्षक पुरुषों के किले बना दिए। उन देशों के मध्य में भी अनेक देश ऐसे थे जो लुब्धक, आरण्य, चरट, पुलिंद तथा शबर आदि म्लेच्छ जाति के लोगों द्वारा रक्षित हो रहे थे। उन देशों के मध्य भाग में कोट, प्राकार, परिखा, गोपुर और अटारी आदि से शोभायमान राजधानी बनाई गई थीं। राजधानी को घेरकर सब ओर शास्त्रोक्त लक्षण वाले गाँवों आदि की रचना हुई थी।जिनमें बाड़ से घिरे हुए घर हों, अधिकतर शूद्र और किसान लोग रहते हों, जो बगीचे और तालाबों से सहित हों, उन्हें ग्राम कहते हैं। जिसमें सौ घर हों उसे छोटा गाँव कहते हैं। जिसमें पाँच सौ घर हों और किसान धनसंपन्न हों उसे बड़ा गाँव कहते हैं। छोटे गाँवों की सीमा एक कोस की और बड़े गाँवों की सीमा दो कोस की होती है। नदी, पहाड़, गुफा, श्मशान, क्षीरवृक्ष, बबूल आदि कंटीले वृक्ष, वन और पुल, इनसे गाँवों की सीमा का विभाग किया जाता है।
जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकार से सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हों और प्रधान पुरुषों के रहने योग्य हो वह पुर या नगर कहलाता है।
जो नगर नदी और पर्वत से घिरा हो उसे खेट कहते हैं। जो केवल पर्वत से घिरा हो उसे कर्वट कहते हैं। जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो वह मडम्ब कहलाता है। जो समुद्र के किनारे बसा हो उसे पत्तन कहते हैं। जो नदी के किनारे हो वह द्रोणमुख है। जो ऊँचे-ऊँचे धान्य के ढेरों से सहित हो वह संवाह है।इस प्रकार इन्द्र जहाँ-तहाँ उन-उन योग्य स्थानों के अनुसार बड़े ही अच्छे ढंग से गाँव नगर आदि की रचना कर देता है, उसी समय से वह ‘पुरन्दर’ इस सार्थक नाम को धारण कर लेता है। तदनन्तर वह सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर ऋषभदेव की आज्ञा से इन नगर, आदि स्थानों में प्रजा को बसाकर कृतकृत्य होता हुआ प्रभु की आज्ञा लेकर अपने स्वर्गधाम को चला जाता है। पुनः तीर्थंकर ऋषभदेव अपनी बुद्धि की कुशलता से असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्पकला इन छह क्रियाओं का प्रजा के लिए उपदेश देते हैं। उस समय प्रभु सरागी हैं, गृहस्थावस्था में राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हैं, वीतरागी नहीं हैं, इसलिए वो प्रजा को गृहस्थाश्रम की आजीविका का उपाय बतला रहे हैं१।
‘‘हे प्रजाजनों! असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह क्रियाओं द्वारा तुम लोग आजीविका करो। तलवार आदि धारण करना असि कर्म है। लिख कर आजीविका करना मषिकर्म है। जमीन को जोतना-बोना कृषि कर्म है। शास्त्र पढ़ाकर या नृत्य-गायन आदि सिखाकर आजीविका करना विद्या कर्म है। व्यापार करना वाणिज्य कर्म है और हस्त की कुशलता से जीविका करना शिल्पकर्म है, यह शिल्प चित्र खींचना, फूल-पत्ते काटना आदि की अपेक्षा अनेक प्रकार है।’’ऋषभ तीर्थंकर उस समय उन-उन की योग्यतानुसार उन्हें वैसी-वैसी शिक्षा दे रहे हैं। उसी समय आदि ब्रह्मा ऋषभदेव तीन वर्ण की स्थापना करते हैंं। तो तलवार धारण कर विपत्ति से रक्षा करने में समर्थ हैं उन्हें क्षत्रिय संज्ञा देते हैं जो खेती, व्यापार तथा पशुपालन आदि के द्वारा आजीविका करने योग्य हैं उन्हें वैश्य संज्ञा दी तथा जो उनकी सेवा शुश्रूषा के योग्य हैं उन्हें शूद्र संज्ञा से अभिहित करते हैं, शूद्र में दो भेद हैं-कारू और अकारू। धोबी आदि शूद्र कारू हैं और उनसे भिन्न अकारू हैं।
प्रभु से उपदेश, आदेश और वर्ण व्यवस्था को प्राप्त कर प्रजा अपने-अपने योग्य कर्मों को यथायोग्य रूप से करना प्रारंभ कर देती है। अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर कोई भी मनुष्य दूसरी आजीविका नहीं करता है, इसलिए उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) दोष नहीं आता है। उस समय उनके विवाह, जाति संंबंध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य प्रभु ऋषभदेव की आज्ञानुसार ही होते थे। उस काल में जितने भी पाप रहित आजीविका के उपाय थे वे सब प्रभु ऋषभदेव की सम्मति से ही प्रवृत्त हुए थे, क्योंकि सनातन ब्रह्मा प्रभु ऋषभदेव ही माने गए हैं।युग की आदि में प्रथम तीर्थंकर के अवतार ऋषभदेव ने इस प्रकार से कर्मयुग का प्रारंभ किया था, इसलिए पुराण के जानने वाले महामुनि उन्हें ‘कृतयुग’ नाम से पुकारते हैं। जिस दिन प्रभु ने वर्ण व्यवस्था बना कर प्रजा को असि, मसि आदि षट्कर्मों का उपदेश दिया था वह पुण्य तिथि मानी जा रही है। अतः उसी समय से प्रभु ऋषभदेव को प्रजा ने ‘प्रजापति’ कहकर भी सम्बोधा था। अब प्रभु के द्वारा सदुपदेश प्राप्त कर प्रजा सुख से अपना गार्हस्थ्य जीवन बिता रही है।
एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार (थाली सदृश) इस जम्बूद्वीप में हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी इन छह कुलाचलों से विभाजित सात क्षेत्र हैं, जिनके नाम भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत हैं। भरत क्षेत्र का दक्षिण-उत्तर िवस्तार ५२६-६/१९ योजन है। आगे पर्वत और क्षेत्र के विस्तार विदेह क्षेत्र तक दूने-दूने हैं पुनः आधे-आधे हैं।
इनमें से भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन से भोगभूमि और कर्मभूमि की व्यवस्था चलती रहती है जो अशाश्वत कहलाती है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोग भूमि की व्यवस्था है। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। विदेह क्षेत्र में दक्षिण-उत्तर में देवकुरु-उत्तरकुरु नाम से क्षेत्र हैं जहाँ पर उत्तम भोग भूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियाँ शाश्वत हैं। विदेह क्षेत्र में पूर्व पश्चिम में १६ वक्षार पर्वत और १२ विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ क्षेत्र हो जाते हैं। जिनके नाम कच्छा, सुकच्छा आदि हैं। इन बत्तीसों विदेह क्षेत्रों में कर्मभूमि की व्यवस्था सदाकाल एक जैसी रहती है अतः इन्हें शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं।विदेह क्षेत्र का विस्तार (दक्षिण-उत्तर) ३३६८४-४/१९ योजन है और उसकी लम्बाई (पूर्व-पश्चिम) १००००० योजन है। इस विदेह के ठीक मध्य में सुदर्शन मेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी पर इसकी चौड़ाई १० हजार है और घटते-घटते ऊपर जाकर ४ योजन मात्र की रह गई है। इस सुमेरु की चारों विदिशाओं में एक-एक गजदन्त पर्वत है जो कि एक तरफ से सुमेरु का स्पर्श कर रहे हैं और दूसरी तरफ से निषध-नील पर्वत को छूते हुए हैं। इन पर्वतों के निमित्तों से भी विदेह की चारों दिशाएँ पृथव्â-पृथक् विभक्त हो गई हैं। सुमेरु से उत्तर की ओर उत्तरकुरु में ईशान कोण में जम्बूवृक्ष है और सुमेरु से दक्षिण की ओर देवकुरु है जिसमें आग्नेय कोण में शाल्मलीवृक्ष है। इन दोनों कुरुओं में दश प्रकार के कल्पवृक्ष होने से वहाँ पर सदा ही उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
सुमेरु के पूर्व-पश्चिम में विदेह क्षेत्र में सीता-सीतोदा नदियाँ बहती हैं। इससे पूर्व-पश्चिम विदेह में भी दक्षिण-उत्तर भाग हो जाते हैं। सुमेरु के पूर्व में और सीता नदी के उत्तर में सर्वप्रथम भद्रसाल वन की वेदिका है, पुनः क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत है जो कि ५०० योजन विस्तृत, १५५९३-२/१९ योजन लम्बा तथा नील पर्वत के पास ४०० योजन एवं सीता नदी के पास ५०० योजन ऊँचा है। यह पर्वत सुवर्णमय है। इस पर चार कूट हैं। जिनमें से नदी के पास के कूट पर जिन मंदिर एवं शेष तीन कूटों पर देव-देवियों के आवास हैं। इस पर्वत के बाद क्षेत्र, पुनः विभंगानदी, पुनः क्षेत्र, पुनः वक्षार पर्वत ऐसे क्रम से चार वक्षार पर्वत और तीन विभंगा नदियों के अन्तराल से तथा एक तरफ भद्रसाल की वेदी और दूसरी तरफ देवारण्य वन की वेदी के निमित्त से इस एक तरफ से विदेह में आठ क्षेत्र हो गए हैं। ऐसे ही सीता नदी के दक्षिण तरफ ८ क्षेत्र हैं तथा पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण-उत्तर में ८-८ क्षेत्र ऐसे बत्तीस क्षेत्र हैं। बत्तीस विदेह क्षेत्रों के नाम-
कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या, रमणीया, रम्यकावती, पद्मा, सुपद्मा, महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिनी, कुमुदा, सरिता, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गन्धा, सुगन्धा, गन्धिला और गन्धमालिनी।
कच्छा विदेह का वर्णन-
यह कच्छा विदेह क्षेत्र पूर्व-पश्चिम में २२१२-७/८ योजन विस्तृत है और दक्षिण-उत्तर में १६५९२-२/१९ योजन लम्बा है। इस क्षेत्र के बीचों-बीच में ५० योजन चौड़ा, २२१२-७/८ योजन लम्बा और २५ योजन ऊँचा विजयार्ध पर्वत है। इस विजयार्ध में भी भरत क्षेत्र के विजयार्ध के समान दोनों पार्श्व भागों में दो-दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं। इन दोनों तरफ की श्रेणियों पर विद्याधर मनुष्यों की ५५-५५ नगरियाँ हैं। इस विजयार्ध पर्वत पर ९ कूट हैं, इनमें से एक कूट पर जिनमंदिर और शेष ८ कूटों पर देवों के भवन हैं। नील पर्वत की तलहटी में गंगा-सिंधु नदियों के निकलने के लिए दो कुण्ड बने हैं। इन कुण्डों में से दो नदियाँ निकल कर सीधी बहती हुई विजयार्ध पर्वत की तिमिस्रगुफा और खण्डप्रपातगुफा में प्रवेश कर बाहर निकल कर क्षेत्र में बहती हुई आगे आकर सीता नदी में प्रवेश कर जाती हैं। इस कच्छा देश में विजयार्ध और गंगा-सिंधु के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से नदी के पास के मध्य में आर्यखण्ड है और शेष पाँचों म्लेच्छ खण्ड हैं। आर्यखण्ड के बीचों-बीच में क्षेमा नाम की नगरी है, जो कि मुख्य राजधानी है। यह एक कच्छा विदेह देश का वर्णन है। इसी प्रकार से महाकच्छा आदि इकतीस विदेह देशों की व्यवस्था है ऐसा समझना।
विदेह क्षेत्र की व्यवस्था-प्रत्येक विदेह में ९६ करोड़ ग्राम, २६ हजार नगर, १६ हजार खेट, २४ हजार कर्वट, ४ हजार मडंब, ४८ हजार पत्तन, ९९ हजार द्रोण, १४ हजार संवाह और २८ हजार दुर्गाटवी हैं।
जो चारों ओर कांटों की बाड़ से वेष्टित हो, उसे ग्राम कहते हैं। चार दरवाजों युक्त कोट से वेष्टित को नगर कहते हैं। नदी और पर्वत दोनों से वेष्टित को खेट कहते हैं। पर्वत से वेष्टित कर्वट हैं। ५०० ग्रामों से संयुक्त मडंब हैं। जहाँ रत्नादि वस्तुओं की निष्पत्ति होती है, वे पत्तन हैं। नदी से वेष्टित को द्रोण, समुद्र की वेला से वेष्टित संवाह और पर्वत के ऊपर बने हुए को दुर्गाटवी कहते हैं।
प्रत्येक विदेह देश में प्रधान राजधानी और महानदी के बीच स्थित आर्यखण्ड में एक-एक उपसमुद्र है, और उस समुद्र में एक-एक टापू है, जिस पर ५६ अन्तरद्वीप, २६ हजार रत्नाकर और रत्नों के क्रय-विक्रय के स्थानभूत ऐसे ७०० कुक्षिवास होते हैं।
सीता-सीतोदा नदियों समीप जल में पूर्वादि दिशाओं में मागध, वरतनु और प्रभास नामक व्यंतर देवों के तीन द्वीप हैं।
विदेह क्षेत्र में वर्षा ऋतु-विदेह क्षेत्र में वर्षाकाल में सात प्रकार के कालमेघ सात-सात दिन तक अर्थात् ४९ दिनों तक और द्रोण नाम वाले बारह प्रकार के श्वेत मेघ सात-सात दिन तक (१२²७·८४ दिनों तक) बरसते हैं। इस प्रकार वहाँ वर्षा ऋतु में कुल ४९±८४·१३३ दिन मर्यादा पूर्वक वर्षा होती है।विदेह देश में क्या-क्या नहीं हैं?-विदेह क्षेत्र में सर्वत्र कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है। सात प्रकार की ‘‘ईति’’ नहीं है। १. अतिवृष्टि २. अनावृष्टि ३. मूषक प्रकोप ४. शलभ प्रकोप (टिड्डी) ५. शुक प्रकोप ६. स्वचक्र प्रकोप और ७. परचक्र प्रकोप-ये सात ईतियाँ वहाँ नहीं हैं तथा गाय या मनुष्य आदि जिसमें अधिक मरने लगें उसे मारि रोग कहते हैं वह भी वहाँ नहीं है। वहाँ कुदेव, कुलिंगी साधु और कुमत भी नहीं है अर्थात् वहाँ पर दुर्भिक्ष, ईति, मारि रोग, कुदेव, कुलिंगी और कुमतों का अभाव है।१
यहाँ विदेह में हमेशा चतुर्थकाल सदृश ही वर्तना रहती है अर्थात् सतत ही उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले मनुष्य होते हैं और वहाँ मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष की है। वहाँ पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्णन होते हैं जो कि असि, मषि, कृषि आदि के द्वारा आजीविका करते हैं। वहाँ पर हमेशा गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म चलता रहता है तथा हमेशा ही तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण होते रहते हैं। इस जम्बूद्वीप के ३२ विदेहों में यदि अधिक से अधिक तीर्थंकर आदि होते हैं तो ३२ होते हैं और कम से कम ४ अवश्य होते हैं। वहाँ चार तीर्थंकर आज भी विद्यमान है जिनके नाम हैं-सीमंधर, युगमंधर, बाहु और सुबाहु। ये विहरमाण तीर्थंकर भी कहलाते हैं ऐसे ही पाँचों मेरु संबंधी ३२²५·१६० विदेह होते हैं। उनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि भी अधिक रूप से १६० और कम से कम २० माने गये हैं।१
चौदह नदियाँ-हिमवान आदि छह पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छह सरोवर हैं इनमें पद्म तथा पुण्डरीक सरोवर से तीन एवं शेष चार सरोवरों से दो-दो नदियाँ निकलती हैं। जिनके नाम हैं-गंगा-सिंधु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकांता, सुवर्णकूला-रूप्यकूला और रक्ता-रक्तोदा। ये चौदह नदियाँ दो-दो मिलकर भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं।इस क्षेत्र का विस्तार ५२६-६/१९ योजन है। इसके बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा ५० योजन चौड़ा और २५ योजन ऊँचा एक विजयार्ध पर्वत है इसमें दक्षिण उत्तर बाजू में विद्याधरों की नगरियां हैं। इस पर्वत में दो गुफाएं हैं जिनके नाम हैं-तमिस्र गुफा, खण्डप्रपात गुफा। हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर के पूर्वतोरण द्वार से गंगा नदी एवं पश्चिम तोरण द्वार से सिंधु नदी निकलकर ५००-५०० योजन तक पूर्व-पश्चिम दिशा में पर्वत पर ही बहकर पुनः दक्षिण की ओर मुड़कर पर्वत के किनारे आ जाती है। वहाँ पर गोमुख आकार वाली नालिका से नीचे गिरती है। हिमवान पर्वत की तलहटी में नदी गिरने के स्थान पर गंगा-सिंधु कुण्ड बने हुए हैं। जिनमें बने कूटों पर गंगा सिंधु देवी के भवन हैं। भवन की छत पर फूले हुए कमलासन पर अकृत्रिम जिन प्रतिमा विराजमान हैं। उन प्रतिमा के मस्तक पर जटाजूट का आकार बना हुआ है। ऊपर से गिरती हुई गंगा-सिंधु नदियाँ ठीक भगवान् की प्रतिमा के मस्तक पर अभिषेक करते हुए के समान पड़ती हैं। पुनः कुण्ड से बाहर निकल कर क्षेत्र में कुटिलाकार से बहती हुई पूर्व-पश्चिम की तरफ लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं।इसलिए इस भरत क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत और गंगा-सिंधु नदी के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से जो दक्षिण की तरफ बीच का खण्ड है वह आर्यखण्ड है, शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं। उत्तर की तरफ के तीन म्लेच्छ खण्डों में से बीच वाले म्लेच्छ खण्ड में एक वृषभाचल पर्वत है। चक्रवर्ती जब इन छहों खण्डों को जीत लेता है तब अपनी विजय प्रशस्ति इसी पर्वत पर लिखता है।भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है। अर्थात् आर्यखण्ड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप हैं।
अयोध्या से दक्षिण में ४७६००० मील (चार लाख छियत्तर हजार मील) जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में ४७६००० मील जाने से विजयार्ध पर्वत है। उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व ४०००००० (चालीस लाख) मील दूर पर गंगा नदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूर पर सिन्धु नदी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखण्ड में है। हम और आप सभी इस आर्यखण्ड में ही भारतवर्ष में रहते हैं। इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड से विदेह क्षेत्र की दूरी २० करोड़ मील से अधिक ही है। भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में सदा ही अरहट घड़ी यंत्र के समान छह कालों का परिवर्तन होता रहता है।
षट्काल परिवर्तन-‘‘भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दो कालों के द्वारा षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इनमें से अवसर्पिणीकाल में जीवों के आयु, शरीर आदि की हानि एवं उत्सर्पिणी में वृद्धि होती रहती है।१’’
अवसर्पिणी के सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा ऐसे छह भेद हैं। ऐसे ही उत्सर्पिणी के इनसे उल्टे अर्थात् दुःषमादुःषमा, दुःष्षमा, दुःषमासुषमा, सुषमादुःषमा सुषमा, और सुषमासुषमा ये छह भेद हैं।अवसर्पिणी के सुषमासुषमा की स्थिति ४ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा की ३ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमादुःषमा की २ कोड़ाकोड़ी सागर, दुःषमासुषमा की ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, दुषमा की २१ हजार वर्ष की एवं अतिदुःषमा की २१ हजार वर्ष की है। ऐसे ही उत्सर्पिणी में २१ हजार वर्ष से समझना।
इन छह कालों में से प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है तथा चौथे, पाँचवे और छठे काल में कर्मभूमि की व्यवस्था हो जाती है। उत्तम भोगभूमि में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश और आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। मध्यम भोगभूमि में शरीर की ऊंचाई दो कोश, आयु दो पल्य की होती है और जघन्य भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई एक कोश और आयु एक पल्य की है। यहाँ पर दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती है। चतुर्थ काल में उत्कृष्ट अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष, और उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि वर्ष है। पंचम काल में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ और आयु १२० वर्ष है। छठे काल में शरीर २ हाथ का और आयु २० वर्ष है।इस वर्तमान की अवसर्पिणी में-‘‘तृतीय काल में पल्य का आठवाँ भाग शेष रहने पर प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित्, नाभिराज और उनके पुत्र ऋषभदेव ये कुलकर उत्पन्न हुए हैं।’’२
अन्यत्र ग्रंथों में नाभिराय को १४वाँ अंतिम कुलकर माना है। यहाँ पर नाभिराय के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को भी कुलकर संज्ञा दे दी है।
इस युग में कर्मभूमि के प्रारंभ में तीर्थंकर ऋषभदेव के सामने जब प्रजा आजीविका की समस्या लेकर आई, तभी प्रभु की आज्ञा से इन्द्र ने ग्राम, नगर आदि की रचना कर दी। पुनः प्रभु ने अपने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की सारी व्यवस्था को ज्ञातकर प्रजा में वर्ण व्यवस्था बनाकर उन्हें आजीविका के साधन बतलाये थे। यही बात श्री नेमिचन्द्राचार्य ने भी कही है-
नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना, लौकिक, शास्त्र, असि, मषि, कृषि, आदि लोक व्यवहार और दया प्रधान धर्म का स्थापन, आदिब्रह्मा श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर ने किया है।३
एक समय स्वर्ग से इन्द्र के साथ देवगण आकर तीर्थंकर ऋषभदेव महाराज का सम्राट पद पर अभिषेक करने के लिए महाराजा नाभिराय के अनुमति प्राप्त कर बहुत वैभव के साथ राज्याभिषेक महोत्सव मनाते हैं। उस समय समस्त आर्यखण्ड आनन्द से भर जाता है और अयोध्या नगर देव-देवियों से खचाखच भर जाता है। देवों ने अयोध्या नगरी को खूब अच्छी तरह से सजाई है। प्रजा के लोगों ने अपने-अपने मकानों के अग्रभाग पर पताकायें लगाई हैं जो कि आकाश में फहरा रही हैं। उस समय राजमन्दिर में आनन्दभेरियाँ बज रही हैं, स्त्रियाँ मंगलगान गा रही हैं और देवांगनाएं नृत्य कर रही हैं। गन्धर्वजाति के देव मंगलस्तोत्रों के साथ तीर्थंंकर प्रभु का पराक्रम गा रहे हैं, और देवगण मिलकर-
‘हे नाथ! त्वं जय जीव, वर्धस्व, वर्धस्व।’’
इत्यादि पदों के द्वारा जय-जय नाद कर रहे हैं।
राज्याभिषेक के पहले देव कारीगरों ने आनन्द मण्डप बनाया है और उसके मध्य में मिट्टी की वेदी बनाई है। उस पर रत्नों के चूर्ण से रांगोली-चित्ररचना की गई है और सर्वत्र नाना वर्ण के फूल बिखेरे गये हैं। ऊपर से चनेवा बाँधा गया है, मोतियों और मणियों से निर्मित तोरण द्वार सजाये गये हैं। वेदी में मंगलद्रव्य और मंगलकलश स्थापित हैं। देवियाँ अष्ट मंगलद्रव्य को हाथ में धारण कर खड़ी हैं। देवअप्सरायें चँवर ढोर रही हैं और देवगण मंगलस्नान की सामग्री लेकर वहाँ आ रहे हैं।उसी समय राजमहल के आँगनरूपी रंगभूमि में सौधर्मइन्द्र योग्य सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके श्री ऋषभदेव को बैठाते हैं। तब देवों द्वारा मृदंग आदि वाद्य बजाये जाने लगते हैं जिनका गंभीर नाद सारे लोक में व्याप्त हो जाता है। किन्नरियाँ वीणा बजाती हुई संगीत स्वर के साथ प्रभु का यश गाने लगती हैं। प्रभु के अभिषेक के लिए गंगा-सिन्धु इन दोनों महानदियों का जल लाया जा रहा है जो कि हिमवानपर्वत के शिखर से धारारूप में नीचे गिरते समय ही लिया जाता है नीचे गिरकर पृथ्वीतल से स्पर्शित होने के पहले ही घड़ों में भरा जा रहा है। इसी प्रकार ऊपर पड़ती हुई अन्य नदियों का पवित्र जल भी लाया जा रहा है।
इन्द्र स्वयं खड़े होकर बड़े हर्ष से श्री ऋषभदेव के मस्तक पर घड़े से जलधारा डालते हुए राज्याभिषेक कर रहा है। अन्य देवगण भी भक्ति से विभोर होकर प्रभु का अभिषेक कर रहे हैं। श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियाँ भी अपने-अपने सरोवरों से जल लाकर मंगल अभिषेक कर रही हैं। नन्दीश्वर द्वीप में जो नन्दा, नन्दोत्तरा आदि बावड़ियाँ हैं उनके जल से भी अभिषेक किया जा रहा है। इसके सिवाय लवणसमुद्र, क्षीरसमुद्र, नन्दीश्वर समुद्र, और स्वयंभूरमण समुद्र के जल को लाकर भी देवगण अभिषेक कर रहे हैं। इन्द्र उस समय स्वयं पवित्र जगद्गुरु ऋषभदेव के शरीर का ही प्रक्षालन नहीं कर रहे थे प्रत्युत् देखने वाले देवों और मनुष्यों की म्ानोवृत्ति, नेत्र और शरीर का भी प्रक्षालन कर रहे थे। अर्थात् उस समय दर्शकों के मन का पाप मैल धुल रहा था, उन्हें पुण्यबंध हो रहा था, उनके नेत्र पवित्र और तृप्त हो रहे थे तथा प्रत्येक दर्शक के शरीर पर अभिषेक के जल के छींटे पड़ने से उनके शरीर भी पवित्र हो रहे थे। उस समय प्रभु के अभिषेक के बहते हुए जल से सब तरफ पृथ्वी व्याप्त हो गई थी सो ऐसा मालूम पड़ता था मानो स्वामी ऋषभदेव की राज्य-सम्पदा से संतुष्ट होकर अपने शुभ भाग्य से यह पृथ्वी बढ़ ही रही है।
महाराजा नाभिराज स्वयं ही ‘सब राजाओं में श्रेष्ठ ये ऋषभदेव वास्तव में सम्राट् के योग्य हैं।’ ऐसा कहते हुए ऋषभदेव का राज्याभिषेक करते हैं। तभी अन्य और राजागण भी एक साथ मिलकर प्रभु का अभिषेक कर रहे हैं। अयोध्या नगर के निवासी भी आकर बड़े ही प्रेम से अपने स्वामी का अभिषेक करना शुरू कर देते हैं। कोई बड़े-बड़े घड़ों पर खिले हुए कमल रखकर उनसे अभिषेक कर रहे हैं। कोई सरयू नदी के जल को मिट्टी के घड़ों में लाकर अभिषेक कर रहे हैं और कोई कमलपत्र के दोने बनाकर उसमें जल भर कर अभिषेक कर रहे हैं। उसी समय मागध आदि व्यन्तर देवों के इन्द्र भी आकर ‘‘ये हमारे देश के स्वामी हैं।’’ऐसा कहते हुए अभिषेक करते हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव का सबसे पहले तीर्थजल से अभिषेक किया गया, फिर कषाय के जल से (औषधिमिश्रित द्रव्य से) अभिषेक किया गया, और पुनः सुगंधित द्रव्यों से मिले हुए ऐसे सुगंधित जल से अभिषेक किया गया। अभिषेक पूर्ण होने के बाद महाराजा ऋषभदेव ने स्वयं कुछ-कुछ गरम जल से भरे हुए ऐसे सुवर्ण के कुण्ड में प्रवेश कर सुखकारी स्नान किया, पश्चात् स्नान करने के अंत में माला, वस्त्र और आभूषण उतारकर पृथ्वी पर छोड़ दिए, उस समय पृथ्वीरूपी स्त्री ऐसी मालूम होती थी कि मानो उसे स्वामी के शरीर से स्पर्शित वस्तुएं ही प्रदान की गई हों।
तदनन्तर अभिषेक विधि संपन्न हो जाने के बाद देवगण स्वर्ग से लाए हुए वस्त्र, आभूषण और माला आदि से सम्राट ऋषभदेव को अलंकृत करने लगे। देवांगनाएं प्रभु की मंगल आरती उतारने लगीं। अनंतर महाराजा नाभिराय स्वयं अपने मस्तक पर मुकुट अपने हाथ से उतार कर-
‘‘महामुकुटबद्ध राजाओं के अधिपति तीर्थंकर ऋषभदेव ही हैं।’’ ऐसा कहते हुए प्रभु के मस्तक पर मुकुट पहना देते हैं। तभी जय-जयकारों के नाद से पृथ्वी और आकाश गुंजायमान हो उठते हैं। उसी समय सौधर्म इन्द्र जगत् मात्र के एक बन्धु ऐसे ऋषभदेव के ललाट पर पट्ट बंध करता है। सो ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो यहाँ-वहाँ भागने वाली राज्य लक्ष्मी को स्थिर करने वाला एक बन्धन ही हो। उस समय सम्राट ऋषभदेव के गले में मालाएं शोभ रही हैं। दोनों कानों में कुण्डल चमक रहे हैं। कमर में करधनी लटक रही है और कण्ठ में हारलता प्रभु की शोभा बढ़ा रही है। जिस प्रकार हिमवान पर्वत गंगा का प्रवाह धारण करता है, उसी प्रकार प्रभु भी अपने कंधे पर यज्ञोपवीत१ धारण किए हुए हैं।’ उनकी दोनों लम्बी भुजाएँ कड़े, बाजूबन्द और अनन्त आदि आभूषणों से विभूषित हो रही हैं। उनके चरणों में नीलमणि से बने हुए नूपुर शोभ रहे हैं। इस प्रकार प्रत्येक अंग में पहने हुए आभूषणरूपी संपदा से आदिब्रह्मा सम्राट् ऋषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों भूषणांग जाति के कल्पवृक्ष ही हों। इसके बाद नाट्य शास्त्र का ज्ञाता इन्द्र उस सभा रूपी रंगभूमि में आनन्द के साथ आनन्द नाम का नाटक करके अपने आराध्य प्रभु ऋषभदेव की उपासना करता है तथा महाराजा नाभिराय आदि सर्व राजा-प्रजा को प्रसन्न करके अपने देवगणों के साथ स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर देता है।
अनन्तर सम्राट ऋषभदेव प्रजा का पालन करने के लिए सबसे पहले प्रजा की सृष्टि का विभाग करते हैं फिर उनकी आजीविका के नियम बनाते हैं कि जिससे प्रजा अपनी-अपनी मर्यादा का उल्लंघन न कर सके। आदिब्रह्मा ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की थी, अर्थात् उन्हें शस्त्र विद्या का उपदेश दिया था क्योंकि जो हाथों में तलवार आदि लेकर सबल शत्रुओं के प्रहार से निर्बलों की रक्षा करते हैं वे ही क्षत्रिय कहलाते हैं। तदनन्तर प्रभु ने अपने ऊरुओं से यात्रा दिखलाकर अर्थात् परदेश आकर धन कमाना सिखलाकर वैश्यों की रचना की, सो ठीक ही है कि जल, स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा कर व्यापार करना ही उनकी मुख्य आजीविका है। हमेशा दैन्यवृत्ति में तत्पर रहने वाले शूद्रों की रचना बुद्धिमान् ऋषभदेव ने पैरों से की, क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन उत्तम वर्णों की सेवा शुश्रूषा आदि करना ही उनकी अनेक प्रकार की आजीविका है। इस प्रकार तीन वर्णों की सृष्टि (व्यवस्था) तो तीर्थंकर ऋषभदेव ने की है तथा ब्राह्मण वर्ण की रचना उनके पुत्र भरत ने सम्राट होने के बाद में की है।सम्राट ऋषभदेव ने उस समय यह नियम बनाये कि शूद्र, शूद्र की आजीविका ही करे अन्य न करे। वैश्य वैश्यवृत्ति ही करे कदाचित् शूद्रवृत्ति भी कर सकता है। क्षत्रिय क्षत्रिय आजीविका ही करे कदाचित वह भी शूद्र और वैश्य की कर सकता है किंतु अपनी-अपनी इन आजीविकाओं को छोड़कर जो कोई भी अन्य की वृत्ति-आजीविका को करेगा वह राजाओं द्वारा दण्डनीय होगा और यदि ऐसा नहीं करेंगे तो वर्णसंकर हो जावेगा।सम्राट् आदि ब्रह्मा ने इस आजीविका के नियम के पहले ही अिस, मषि आदि षट् क्रियाओें का उपदेश दिया था। इसलिए इन षट् कर्मों की व्यवस्था होने से यह आर्यखण्ड की भूमि तभी से कर्म भूमि कहलाने लगी थी। इसी प्रकार आदिब्रह्मा ने प्रजा के योग (नवीन वस्तु की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा) की रक्षा के लिए ‘हा, मा, और धिक्’ इन तीन दण्डों की व्यवस्था कर दी। दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना और सज्जन पुरुषों का पालन करना यह व्यवस्था भोगभूमि में नहीं थी क्योंकि उस समय पुरुष निरपराधी होते थे और अब कर्मभूमि में अपराध शुरू हो जाने से दण्ड व्यवस्था की आवश्यकता हो गई थी।
अब कर्मभूमि में न्याय करने वाले राजाओं की आवश्यकता समझकर आदि ब्रह्मा ने ‘हरि, अकम्पन, काश्यप और सोमप्रभ’ इन चार महाभाग्यशाली क्षत्रियों को बुलाकर उनका यथोचित सम्मान और सत्कार किया, तदनन्तर राज्याभिषेक कर उन्हें ‘महामण्डलीक’ राजा बनाया। ये राजा चार-चार हजार अन्य छोटे-छोटे राजाओं के अधिपति हुए हैं। उस समय ‘सोमप्रभ’ भगवान् से ‘कुरुराज’ नाम पाकर कुरुदेश का राजा हुआ और कुरुवंश का शिखरमणि कहलाया। हरि सम्राट ऋषभदेव की आज्ञा से ‘हरिकान्त’ नाम को धारण कर हरिवंश को अलंकृत करने लगा। अकम्पन भी प्रभु से ‘श्रीधर’ नाम पाकर नाथवंश का नायक हुआ और काश्यप भी जगद्गुरु आदिदेव से ‘मघवा’ नाम प्राप्त कर उग्रवंश का मुख्य राजा माना जाने लगा३।इसके बाद सम्राट आदिब्रह्मा ने कच्छ, महाकच्छ आदि प्रमुख-प्रमुख राजाओं का सत्कार कर उन्हें ‘अधिराज’ के पद पर स्थापित किया। पुनः अपने पुत्रों के लिए यथायोग्य महल, सवारी आदि अन्य अनेक प्रकार की संपत्ति का विभाग कर दिया था।
इसके बाद सम्राट आदिब्रह्मा ने कच्छ, महाकच्छ आदि प्रमुख-प्रमुख राजाओं का सत्कार कर उन्हें ‘अधिराज’ के पद पर स्थापित किया। पुनः अपने पुत्रों के लिए भी यथायोग्य महल, सवारी आदि अन्य अनेक प्रकार की संपत्ति का विभाग कर दिया था।
उस समय आदिब्रह्मा ने मनुष्यों को इक्षुरस निकालने का उपदेश दिया था, इसलिए जगत् के लोग उन्हें ‘इक्ष्वाकु’ कहने लगे। गो शब्द का अर्थ स्वर्ग है और उत्तम स्वर्ग गौतम है, ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धि से आए थे, इसलिए लोग उन्हें गौतम कहने लगे। काश्य-तेज, इस तेज के रक्षक प्रभु ‘काश्यप’ कहलाते थे प्रजा की आजीविका के उपायों को बतलाने से वे ‘मनु’, ‘कुलकर’ और ‘कुलधर’ भी कहलाए थे तथा वर्ण व्यवस्था आदि बनाने से प्रजा उन्हें ‘विधाता’, विश्वकर्मा’, ब्रह्मा और ‘स्रष्टा’ आदि अनेक नामों से पुकारती थी। इस प्रकार सम्राट् ऋषभदेव राज्यसिंहासन पर आरूढ़ होकर पुण्योदय से प्राप्त हुई साम्राज्य लक्ष्मी का अनुभव कर रहे हैं। स्वर्ग से सौधर्म इन्द्र सदा ही उनके विशाल पुण्ययोग से नाना प्रकार की भोगोपभोग सामग्री भेजता रहता है। पुत्र-पौत्र आदि से घिरे हुए प्रभु का राज्य भोग में कितना अधिक समय निकल गया है, यह किसी को पता भी नहीं लग रहा है।
तीर्थंकर ऋषभदेव विशाल सभा मण्डप के मध्य राज्यसिंहासन पर विराजमान हैं। उस समय सौधर्म इन्द्र बहुत से देवों और अप्सराओं के साथ पूजा की सामग्री साथ लेकर वहाँ आता है। तीर्थंकर प्रभु को नमस्कार कर इन्द्र उन जगत् प्रभु की आराधना करने की इच्छा से अप्सराओं और गंधर्वों का नृत्य कराना प्रारंभ करता है। प्रभु ऋषभदेव नृत्य का अवलोकन कर रहे हैं। जैसे अत्यन्त शुद्ध स्फटिकमणि भी अन्य पदार्थों के संसर्ग से रागलालिमा को धारण कर लेती है उसी प्रकार उस धार्मिक नृत्य के आयोजन ने प्रभु के मन को भी अनुरक्त बना लिया है। उस नृत्य में तीर्थंकर के गुणों का आख्यान किया जा रहा है और पुण्य की महिमा गाई जा रही है।‘‘प्रभु राज्य और भोगों से किस प्रकार विरक्त होंगे। क्योंकि इन्हीं के द्वारा अब धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलने वाली है।’’
ऐसा विचार कर इन्द्र उस समय नृत्य करने के लिए एक ऐसे पात्र को नियुक्त करता है कि जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो चुकी है। वह नृत्य करने वाली अप्सरा अत्यन्त सुन्दरी नीलांजना नाम की नर्तकी है। प्रभु के सामने भक्ति में विभोर हो वह नर्तकी रस, भाव और लय सहित फिरकी लगाती हुई नृत्य कर रही थी कि इतने में ही उसकी आयु समाप्त हो गई और वह अदृश्य हो गई। जिस प्रकार बिजली देखते-देखते क्षणभर में विलीन हो जाती है उसी प्रकार वह नीलांजना अप्सरा भी देखते-देखते क्षणभर में नष्ट हो गई।
‘रस में भंग न हो’ इस भय से सौधर्म इन्द्र तत्क्षण ही दूसरी अप्सरा को उसी स्थान पर खड़ी कर देता है। नृत्य ज्यों का त्यों चल रहा है। दूसरी देवी खड़ी कर देने के बाद भी यद्यपि वही मनोहर स्थान है और वही नृत्य का परिक्रम है तथापि तीर्थंकर ऋषभदेव उसी समय उसके स्वरूप का अन्तर समझ लेते हैं किन्तु सभा के अन्य लाखों सभासद इस रहस्य को नहीं जान पाते हैं।
प्रभु ऋषभदेव उसी समय भोगों से विरक्त और अत्यन्त संवेग तथा वैराग्य भावना को प्राप्त हुए मन में सोचते हैं-
‘‘अहो! यह विश्व विनश्वर है, लक्ष्मी बिजली के समान चंचल है, यौवन, शरीर, आरोग्य और ऐश्वर्य आदि सभी क्षणभंगुर हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि अज्ञ पुरुष इन सबमें स्थिर बुद्धि कर रहा है। यह आयु की स्थिति घटीयंत्र के जल की धारा के समान शीघ्रता से गलती जा रही है-कम होती जाती है। यह निश्चित है कि इस असार संसार में सुख का लेश मात्र भी दुर्लभ है और दुःख बहुत भारी है फिर भी आश्चर्य है कि मंद बुिद्ध पुरुष उसमें सुख की इच्छा करते हैं। इस जीव ने नरकों में जो महान् दुःख भोगे हैं यदि उनका स्मरण भी हो जावे तो फिर ऐसा कौन है, जो इन इन्द्रिय भोगों की इच्छा करेगा? निरन्तर आर्तध्यान में लगे हुए जीव जितने कुछ भोगों का अनुभव करते हैं वे सब उन्हें अत्यन्त असाता के उदय से भरे हुए नरकों में दुःख रूप होकर उदय में आते हैं। दुःखों से भरे हुए नरकों में कभी स्वप्न में भी सुख प्राप्त नहीं होता है क्योंकि वहाँ रात-दिन दुःख ही दुःख रहता है और ऐसा दुःख होता है जो कि पुनः दुःख के कारण ऐसे असाता कर्म का ही बंध कराने वाला होता है।
उन नरकों से निकलकर यह मूर्ख जीव अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ तिर्यंच गति के बड़े भारी दुःखों को भोगता है। बड़े दुःख की बात है कि यह अज्ञानी प्राणी पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में पुनः पुनः जन्म लेता हुआ न जाने कितने दुःख भोगता है। त्रस पर्याय में भी यह प्राणी मारा जाना, बांधा जाना, रोका जाना और पीड़ित किया जाना आदि के द्वारा जीवन पर्यंत अनेक कष्टों को झेलता रहता है।
कदाचित् अशुभ कर्मों का उदय कुछ मंद होने से यह जीव मनुष्य पर्याय को प्राप्त कर लेता है। यद्यपि यहाँ पर वह जीव दुःखों को नहीं चाहता है फिर भी कर्म के वश में होने से इसे नाना प्रकार के शारीरिक, मानसिक दुःख भोगने पड़ते हैं। दूसरों की सेवा करना, दरिद्र होना, चिन्ता से आकुल-व्याकुल रहना, व्याधियों से व्यथित होना, इष्ट का वियोग हो जाना अथवा अनिष्ट का संयोग हो जाना आदि बहुत प्रकार के ऐसे दुःख हैं जो कि प्रत्यक्ष नरक के समान मालूम पड़ते हैं।यद्यपि देव पर्याय में जीवों को कुछ सुख प्राप्त होता है तथापि जब स्वर्ग से पतन होता है तब इसे सबसे अधिक दुःख प्राप्त होता है। देवों में भी इष्ट वियोग, अल्पविभूति, अन्य देवों के वाहन आदि बनने के अनेक दुःख हैं जो कि उस देव को संतप्त कर पुनः एकेन्द्रिय पर्याय में ला पटकते हैं। इस प्रकार यह बेचारा दीन प्राणी संसाररूपी चक्र में अनेक परिवर्तन करता हुआ अनंतकाल व्यतीत कर देता है।देखो, यह अत्यन्त मनोहर स्त्रीरूपी यन्त्र हमारे साक्षात् देखते-देखते किस प्रकार नाश को प्राप्त हो गया? इन्द्र ने जो यह कपट नाटक किया है-नीलांजना का नृत्य कराया है सो अवश्य ही उस बुद्धिमान ने सोच-विचार कर हमारे बोध कराने के लिए ही कराया है।जगद्गुरु तीर्थंकर ऋषभदेव विरक्त हो गये हैं’ यह बात उसी क्षण इन्द्र अपने अवधिज्ञान से जान लेता है तथा उसी समय तपकल्याणक की पूजा करने के लिए लौकांतिक देव ब्रह्मलोक से उतर कर वहाँ आ जाते हैं। वे लौकांतिक देव सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध और अरिष्ट इस तरह आठ प्रकार के हैं। ये सभी देवों में उत्तम हैं, बाल ब्रह्मचारी हैं तथा सम्पूर्णश्रुत के ज्ञाता हैं अतः ये देवर्षि कहलाते हैं। ये पाँचवे ब्रह्मस्वर्ग में उपरिम भाग में रहते हैं तथा एक भवावतारी होते हैं। ये अन्य कल्याणकों में न आकर मात्र तप कल्याणक में ही आते हैं।ये लौकान्तिक देव सभा में आकर पहले तीर्थंकर देव के चरणों के समीप पुष्पांजलि छोड़ते हैं पुनः कल्पवृक्षों के फलों से प्रभु के चरणों की पूजा करके अनेक अर्थ से भरे हुए स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति करना प्रारंभ कर देते हैं-
हे देव! आपने जो इस समय मोहरूपी शत्रु को जीतने के उद्योग की इच्छा की है उससे स्पष्ट सिद्ध है कि आप भव्यजीवों के साथ भाईपने का कार्य करने जा रहे हैं। हे नाथ! आज आपके द्वारा दिखलाए हुए धर्मरूपी तीर्थ को पाकर भव्यजीव इस दुस्तर और भयानक संसाररूपी समुद्र से लीलामात्र में पार हो जायेंगे। हे भगवन् ! आप स्वयंबुद्ध हैं, मति, श्रुत और अवधिज्ञानरूपी तीन निर्मल नेत्रों के धारक हैं, इसलिए हमारे जैसे देवों के द्वारा आप प्रबोध कराने के योग्य नहीं है। तथापि हम लोगों का यह नियोग ही आज हम लोगों को वाचालित कर रहा है। हे स्वामिन् ! आप प्रथम गर्भ कल्याणक में सद्योजात अर्थात् शीघ्र ही अवतार लेने वाले कहलाये, द्वितीय जन्मकल्याणक में वामता अर्थात् सुन्दरता को प्राप्त हुए और अब उसके अनन्तर तृतीय तपकल्याणक में अघोरता अर्थात् सौम्यता को धारण कर रहे हैं। हे नाथ! अनादि प्रवाह से चला आया यह काल अब आपके धर्मरूपी अमृत को उत्पन्न करने के योग्य हुआ है अतः हे विधाता! अब आप धर्म की सृष्टि कीजिये।’’
इत्यादि प्रकार से स्तुति करके वे लौकांतिक देव प्रभु को पुनः-पुनः नमस्कार कर स्वस्थान को चले जाते हैं। तभी आसन के कम्पित होने आदि कारणों से प्रभु के तप कल्याणक का अवतार जानकर असंख्य देवगण अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ हो वहाँ आ जाते हैं।इसके बाद तीर्थंकर ऋषभदेव अपने बड़े पुत्र भरत का साम्राज्य पद पर अभिषेक करके उनसे इस भारतवर्ष को सनाथ कर देते हैं और बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित कर देते हैं तथा शेष निन्यानवे पुत्रों को भी उनके योग्य पृथक्-पृथक् अनेक देशों का राज्य विभाजित कर देते हैं।
उस समय इंद्राणी प्रभु के मंगलस्नान के लिए नाना रत्न चूर्णों से रंगावली बना रही है। तो दूसरी तरफ माता-यशस्वती और सुनन्दा अपने पुत्रों के राज्याभिषेक के लिए मंगल चौक पूर रही हैं।
उसी क्षण सौधर्मइन्द्र आदि इन्द्रगण मिलकर क्षीरसागर के जल से प्रभु का मंगल अभिषेक कर उन्हें अनेक दिव्य वस्त्र आभूषण अलंकाराें से अलंकृत करते हैंं। पुनः ‘सुदर्शना’ नामकी सुन्दर पालकी सामने लाकर रख देते हैं। तीर्थंकरदेव महाराजा नाभिराय आदि परिवार के लोगों की स्वीकृति लेकर उस पालकी पर आरूढ़ होते हैं। प्रभु की उस पालकी को प्रथम ही राजा लोग सात पैंड तक ले जाते हैं पुनः विद्याधर राजागण उस पालकी को आकाश में सात पैंड तक लेकर चलते हैं। अनन्तर वैमानिक और भवनत्रिक देव अत्यन्त हर्षित हो वह पालकी अपने कंधों पर रखते हैं और आकाश मार्ग से चलने लगते हैं। उस समय स्वयं सौधर्म आदि इन्द्र प्रभु की पालकी ढो रहे हैं। यक्ष जाति के देव सुगंधित पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं, और गंगा नदी के जलकणों से मिश्रित वायु बह रही है। देव बंदीजन उच्चस्वर से मंगल पाठ पढ़ रहे हैं और देवगण चारों ओर मंगल प्रस्थान सूचक भेरियाँ बजा रहे हैं। इन्द्र की आज्ञा पाकर देव जोर-जोर से जयनाद करते हुए यही घोषणा कर रहे हैं कि-
‘‘जगद्गुरु ऋषभदेव के मोह शत्रु को जीतने के लिए उद्योग करने का यह बहुत ही सुन्दर समय है। अब भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का समीचीन ज्ञान प्राप्त होने वाला है।’’
आकाशरूपी आँगन में देव अप्सरायें नृत्य कर रही हैं और उस मंगल प्रस्थान में इन्द्रों के करोड़ों दुंदुभि बाजे बज रहे हैं। हाथों में कमल धारण किए हुए लक्ष्मी आदि देवियां आगे-आगे चल रही हैं। बड़े आदर से अष्ट मंगल द्रव्य तथा अर्घ लेकर दिक्कुमारी देवियाँ उनके साथ-साथ चल रही हैं। पालकी के इधर-उधर आकाश में ही अधर इन्द्रगण चँवर ढोर रहे हैं। इस प्रकार असंख्य महोत्सव से सहित तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के बाहर निकलते हैं।
भगवान् के प्रस्थान करने पर यशस्वती आदि रानियाँ मंत्रियों सहित भगवान् के पीछे-पीछे चल रही हैं। उस समय शोक से उनके नेत्रों में आंसू भरे हुए हैं। बहुत सी अंतःपुर की रानियाँ रो रही हैं।उस समय वृद्ध पुरुष उन्हें समझाते हैं-‘‘हे बाले! स्वामी के मंगल प्रस्थान में रोकर अमंगल मत करो।’’ बहुत सी महिलाओं को कुछ दूर जाने के बाद कुछ वृद्धजनों ने ऐसा कहकर रोक दिया कि-
‘‘भगवान् की आज्ञा है अब आप लोग वापस जाइये।’’तब नदी के प्रवाह के समान बहुत बड़ा स्त्री समुदाय वहीं मार्ग से वापस लौट आता है किन्तु स्वामी की इच्छानुसार चलने वाली यशस्वती और सुनंदा ये दोनों ही महादेवियां अंतःपुर की मुख्य-मुख्य स्त्रियों से परिवृत होकर पूजा की सामग्री साथ लेकर प्रभु के पीछे-पीछे पैदल ही चली जा रही हैं। उस समय महाराजा नाभिराय भी मरुदेवी तथा सैकड़ों राजाओें से परिवृत होकर तीर्थंकरदेव के तपकल्याणक का उत्सव देखने के लिए पालकी के पीछे-पीछे चल रहे हैं। सम्राट् भरत भी मंत्रीगण, नगर निवासी, राजा लोग तथा अपने छोटे भाइयों के साथ-साथ बड़ी भारी विभूति लेकर भगवान् के पीछे-पीछे चल रहे हैं।
इस प्रकार प्रभु ऋषभदेव अयोध्या से न बहुत दूर और न अति निकट ही ऐसे ‘सिद्धार्थक’ नाम के वन में पहुँचते हैं। वहाँ पहले से ही देवों ने ‘चंद्रकांत’ शिला स्थापित कर रखी थी और स्वयं इन्द्राणी ने अपने हाथ से उस पर दिव्य रत्नचूर्ण से मंगल चौक बनाया था। उस शिला के ऊपर बहुत बड़ा मंडप बनाया गया था। तीर्थंकरदेव पालकी से उतर कर उस शिलापट्ट पर बैठते हैं। उस शिला को देखते ही प्रभु को अपने जन्माभिषेक के समय की पांंडुक शिला का स्मरण हो आया।प्रभु क्षण भर उस शिला पर आसीन होकर मनुष्य, देव तथा धरणेंद्र आदि से भरी हुई इस सभा को यथायोग्य उपदेश के द्वारा संबोधित करते हैं। वे ऊँची और गंभीर वाणी द्वारा अपने बन्धुजनों से दीक्षा की आज्ञा लेते हैंं। पुनः जगद्गुरु ऋषभदेव अपने वस्त्र, आभूषण, माला, मुकुट आदि को उतार कर पृथ्वी पर डाल देते हैं और स्वयं की, देवों की तथा सिद्धों की साक्षीपूर्वक दीक्षा लेने के लिए तत्पर हो जाते हैं। प्रभु पूर्व दिशा की ओर मुख कर पद्मासन से विराजमान हो जाते हैं पुनः ‘‘ॐ नमः सिद्धेभ्यः’’ उच्चारण पूर्वक सिद्धों को नमस्कार कर पंच मुष्टियों से केशलोंच कर दिगंबर मुद्रा के धारक प्रभु जिनदीक्षा धारण कर लेते हैं। उस समय समस्त सावद्ययोग से विरक्त हो सामायिक चारित्र धारण कर लेते हैं। चैत्र कृष्णा नवमी का अपरान्ह काल प्रभु की दीक्षा से पवित्र हुआ है। महामुनि ऋषभदेव पुनः जिनमुद्रा से ध्यान में लीन हो जाते हैं।
सौधर्म इन्द्र आदि देवगण प्रभु के केशों को रत्न के पिटारे में रखते हैं तथा तीर्थंकरदेव के द्वारा छोड़े गए वस्त्र, आभूषण और माला आदि की असाधारण पूजा करते हैं। पुनः भगवान् की अनेक स्तोत्रों से स्तुतिकर वे देवगण बहुत ही वैभव के साथ भगवान् के केशों को क्षीर समुद्र में ले जाकर विसर्जित करते हैं।‘‘ये केश धन्य हैंं कि जो तीर्थंकर ऋषभदेव के मस्तक पर अधिष्ठित हुए थे तथा यह पाँचवाँ क्षीर समुद्र भी धन्य है जो इन केशों को भेंट स्वरूप प्राप्त कर रहा है।’’ऐसी प्रशंसा करते हुए वे सभी देवगण प्रभु का तप कल्याणक महोत्सव सम्पन्न कर अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं।
भगवान् के दीक्षा ग्रहण कर लेने पर उत्तम-उत्तम वंशों में उत्पन्न हुए कच्छ, महाकच्छ आदि बड़े-बड़े चार हजार राजागण भी केवल स्वामी की भक्ति से प्रेरित हो दीक्षित हो गए।
‘‘जो हमारे स्वामी को अच्छा लगता है वही हम लोगों को भी अच्छा लगना चाहिए। स्वामी के अभिप्रायानुसार चलना ही सेवकों का कर्तव्य है। इस लोक और परलोक संबंधी सभी कार्य के लिए हमें हमारे गुरु भगवान् ऋषभदेव ही प्रमाणभूत हैं।’’
यही विचार कर कितने ही स्नेह से, कितने ही मोह से और कितने ही भय से भगवान् को दीक्षित हुए देख उन्हीं के सदृश निर्ग्रंथ बन गये। ये सब भाव से निर्ग्रंथ मुनि न होकर द्रव्यलिंगी साधु हो गये हैं। जिनका भाव संयम प्रकट नहीं हुआ है, ऐसे उन द्रव्यलिंगी मुनियों से घिरे हुए महायोगी ऋषभदेव छोटे-छोटे कल्पवृक्षों से घिरे हुए एक महान कल्पवृक्ष के समान शोभित हो रहे हैं।
सम्राट भरत भक्ति के भार से अतिशय नम्र हो, पिता के चरणों की पूजा कर स्तुति करते हैं पुनः बाहुबली, वृषभसेन आदि सभी छोटे भाइयों और अनेक राजाओं के साथ अयोध्या नगरी में वापस आ जाते हैं।
तीर्थंकर ऋषभदेव जैनेश्वरी दीक्षा लेकर छह मास का योग धारण कर ध्यान में स्थिर खड़े हो गए हैं। तीर्थंकर प्रभु को जन्म से ही मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान थे ही। परिणामों की निर्मलता से उन्हें अंतर्मुहूर्त में ही मनःपर्ययज्ञान भी प्रगट हो चुका है। अतः ये महायोगिराज चार ज्ञानों के द्वारा सब जीवों के पूर्वापर पर्यायों को जानते हुए भी उनसे उपक्षित हो अपनी आत्मा के स्वरूप का ही चिंतवन कर रहे हैं।तभी कच्छ, महाकच्छ आदि साधुओं में बहुत बड़ा क्षोभ उत्पन्न होने लगता है। अर्थात् जो ये कच्छ आदि चार हजार राजा बिना कुछ समझे ही दीक्षित हो (नग्न हो) खड़े हो गए थे उनका धैर्य छूटने लगता है। दीक्षा लेकर उन्हें दो तीन माह भी नहीं हुआ था कि अपने को मुनि मानने वाले यह राजा लोग, भूख प्यास से व्याकुल हो अपने-अपने स्थान छोड़कर इधर-उधर विचरण करने लगते हैं और आपस में कहते हैं-
‘‘अहो! देखो तो सही भगवान् पुरुदेव का कितना बड़ा साहस है जो ये निश्चल खड़े हुए हैं। क्या पता ये कब तक इसी तरह खड़े रहेंगे?’’
दूसरा कहता है-
‘‘मैंने तो समझा था कि प्रभु एक दो दिन ध्यान करेंगे पुनः इच्छित कार्य पूर्ण कर वापस अयोध्या चलेंगे। अहो! अब हम लोग यहाँ कितने दिन खड़े रहें, क्या करें? क्या खायें? और कहाँ विश्राम करें?………प्रभु तो कुछ आदेश भी नहीं देते हैं।’’
तीसरा कहता है-
‘‘यदि हम लोग वस्त्र पहन कर वापस अपने-अपने नगर चले जायें तो भरत सम्राट दण्डित करेंगे। अतः अब हम लोग क्या करें? समझ में नहीं आता है।’’
इसी प्रकार सभी भूख प्यास से पीड़ित हुए दीनवृत्ति धारण कर इधर-उधर घूमने लगते हैं। पुनः कुछ लोग भगवान् के चरणों को पकड़ कर कहते हैं-
‘‘हे प्रभो! हमारी रक्षा कीजिए, अब हमारा शरीर भूख से अत्यन्त कृश हो गया है। अतः अब हमें क्षमा कीजिए।’’
इसके बाद ये सभी साधु फल खाने की इच्छा से वन के वृक्षों के नीचे पहुँच जाते हैं और अपने हाथ से फल तोड़ कर खाना तथा तालाब का पानी पीना शुरू कर देते हैं। इनको इस अर्हंत मुद्रा (नग्न मुद्रा) में स्वयं तोड़ कर फल खाते, पानी पीते देख कर वन देवता कहते हैं-
‘‘हे अज्ञानियों! यह दिगम्बर मुद्रा सर्वश्रेष्ठ है। अरहंत (तीर्थंकर) तथा चक्रवर्ती के भी धारण करने योग्य है इसे तुम लोग कातरता का स्थान मत बनाओ। इस मुद्रा में तुम लोग स्वयं अपने हाथ से फल मत तोड़ो और तालाब आदि का अप्रासुक पानी मत पीओ।
वन देवता के ऐसे वचन सुनकर ये लोग दिगम्बर वेष में ऐसा करने से डर जाते हैं। तब वे दीन चेष्टा वाले साधु भ्रष्ट होकर अनेक वेष धारण कर लेते हैं। वृक्षों के वल्कल धारण कर फल खाने लगते हैं और तालाब का पानी पीने लगते हैंं। कितने ही लोग जीर्ण-शीर्ण लंगोटी पहन कर अपनी इच्छानुसार कार्य करने लगते हैं। कितने ही लोग शरीर को भस्म से लपेट कर जटाधारी हो जाते हैं, कितने ही एक दण्ड को और कितने ही तीन दण्ड को धारण करने वाले साधु बन जाते हैं। इस प्रकार अनेक वेष धारण कर वन में होने वाले छालरूप वस्त्र, स्वच्छ जल और कन्दमूल आदि के द्वारा बहुत समय तक अपना जीवन निर्वाह करते रहते हैं। ये लोग भरत महाराज के डर से अपने-अपने नगर न जाकर वहीं वन में झोपड़ियाँ बनाकर रहने लगते हैं।
ये लोग पाखण्डी तपस्वी तो बने ही थे उसी में कितने ही परिव्राजक हो जाते हैं। तीर्थंकर ऋषभदेव का ही पोता मरीचि कुमार भी परिव्राजक होकर योग शास्त्र और सांख्य शास्त्र का उपदेश देकर उनके प्रचार में अग्रणी बन जाता है। ये मिथ्यामत की प्ररूपणा करके मिथ्यात्व की वृद्धि करते हुए भी जल और फूलों के उपहार से भगवान् ऋषभदेव के चरणों की पूजा करते हैं क्योंकि ‘स्वयंभू’ ऋषभदेव को छोड़कर ये अन्य किसी देवता को नहीं मानते हैं।
भगवान् ध्यान में खड़े हैं। इसी बीच में महाराज कच्छ, महाकच्छ के नमि, विनमि नाम के दो राजपुत्र वहाँ आ जाते हैं, वे बहुत ही सुकुमार और तरुण हैं। दोनों ही भक्ति से निर्भर हो भगवान के चरणों में नमस्कार कर उनके चरणों में लिपट जाते हैं और ध्यान में विघ्न करते हुए प्रार्थना करते हैं-
‘‘हे भगवन् ! आपने अपना यह साम्राज्य अपने पुत्र-पौत्रों के लिए तो बाँट दिया है किन्तु आपने हम दोनों को तो भुला ही दिया। हे स्वामिन् ! प्रसन्न होइए और हम दोनों को भी अब कुछ भोग सामग्री दीजिए।’’इस प्रकार ये दोनों राजकुमार योगिराज ऋषभदेव से बार-बार आग्रह कर रहे हैं। उन्हें उस समय उचित-अनुचित का कुछ भी भान नहीं है। ये दोनों ही जल, पुष्प तथा अर्घ्य से भगवान् की उपासना भी कर रहे हैं और उनसे भोगोपभोग की सामग्री माँग रहे हैं। ये राजपुत्र भगवान् ऋषभदेव की महारानी यशस्वती और सुनन्दा के भाइयों के पुत्र अर्थात् उन रानियों के भतीजे थे।
भगवान् के ध्यान में विघ्न डालते हुए उस समय अकस्मात् धरणेंद्रदेव का आसन कम्पायमान हो जाता है। वह अपने अवधिज्ञान से नमि-विनमि की इस चेष्टा को जानकर वहाँ आता है और प्रभु को सुमेरु समान अचल देख कर बार-बार उनकी प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करता है पुनः अदृश्य होकर उन दोनों कुमारों से कहता है-
‘‘हे तरुण पुरुषों! कहाँ यह शान्त तपोवन और कहाँ हाथ में शस्त्रों को लिए हुए तुम दोनों राजकुमार? अहो! यह भोग बड़े ही निन्दनीय हैं जो अयोग्य स्थान में भी याचना कराते हैं। देखो, ये प्रभु तो सर्व राज्य के भोगों को छोड़कर अपनी आत्मसाधना कर रहे हैं। अब ये तुम्हें राज्य लक्ष्मी वैâसे देंगे? जिस प्रकार पत्थर के शिखर पर कमल नहीं उगते वैसे ही अब निर्ग्रंथ मुनि से तुम्हें भोग साम्राज्य नहीं मिलेंगे। अतः तुम्हारा यहाँ धरना देना व्यर्थ है। तुम दोनों भोगों के इच्छुक हो अतः भरत की उपासना करने के लिए उन्हीं के पास जाओ। वह सम्राट् है वही तुम्हारी इच्छा पूरी करेगा।’’
यह शिक्षा सुनते ही दोनों कहते हैं-
‘‘अहो ! हमारे कार्य में आप क्यों बोल रहे हैं, आप यहाँ से चुपचाप चले जाइए। इस विषय में योग्य अथवा अयोग्य हम लोग स्वयं जानते हैं। गुरु-भगवान् ऋषभदेव को प्रसन्न करना सब जगह उत्तम ही है। इनकी प्रसन्नता से भला ऐसी क्या वस्तु है जो न मिल सके। आप जो सम्राट् भरत के पास जाने की सलाह दे रहे हैं सो कहाँ तक ठीक है? भला कौन ऐसा बुद्धिमान है जो कल्पवृक्ष को छोड़कर सामान्य वृक्ष की सेवा करेगा?…..’’
इस प्रकार नमि-विनमि के अभिमान भरे वचन को सुनकर और उनकी भगवान् में अगाध भक्ति देखकर धरणेंद्र मन में विचार करता है-
‘‘ये महापुरुष भगवान से ही भोग चाहते हैं तो सचमुच में भगवान् की भक्ति भला क्या नहीं दे सकती है? इन्हें विजयार्ध पर्वत पर ले जाकर वहाँ का राजा बना देना चाहिए।’’
पुनः वह अपने रूप को प्रगट कर कहता है-
‘‘अहो! तुम दोनों तरुण होकर भी वृद्ध के समान हो और प्रभु के सच्चे भक्त हो। देखो, मेरा नाम धरणेंद्र है। मैं पाताललोक में रहने वाला हूूँ और ऋषभदेव का किंकर हूँ। भगवान ने ही मुझे आज्ञा दी है कि ‘ये दोनों कुमार बड़े ही भक्त हैं अतः इनकी इच्छानुसार इन्हें भोग सामग्री से युक्त करो।’ इसलिए मैं यहाँ आया हूँ अतः आप प्रभु की आज्ञा लेकर मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें प्रभु के द्वारा बतलाए हुए इच्छित स्थान पर ले चलूँगा।’’
इतना सुनते ही दोनों कुमार प्रसन्न हो जाते हैं और धरणेंद्र उन्हें आकाश मार्ग से अपने साथ विजयार्ध पर्वत पर ले जाकर वहाँ की शोभा दिखाते हुए कहता है-
‘‘यह विजयार्ध पर्वत ५० योजन (५०²४०००·२००००० मील) चौड़ा है। २५ योजन (२५²४०००· १००००० मील) ऊँचा है तथा पूर्व-पश्चिम में लवण समुद्र को स्पर्श करता हुआ उतना ही लम्बा है। यह इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के ठीक बीच में स्थित है। इसमें तीन कटनी हैं। भूमितल से १० योजन ऊपर जाकर अन्दर १० योजन गहरी प्रथम कटनी है। यह कटनी दक्षिण और उत्तर दोनों तरफ हैं। पुनः १० योजन ऊपर जाकर १० योजन अन्दर ही दूसरी कटनी है। इसके ऊपर ५ योजन जाकर तृतीय कटनी है, यह कटनी भी १० योजन चौड़ी है। इसकी प्रथम कटनी पर तो विद्याधर नगरियाँ हैं। दूसरी कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के भवन बने हुए हैं और तीसरी कटनी पर नव कूट है। ये कूट ६-१/४ योजन चौड़े, इतने ही ऊँचे तथा घटते हुए अग्रभाग में कुछ अधिक ३ योजन चौड़े हैं। इनमें से आठ कूटों पर तो देवों के भवन बने हुए हैं और पूर्व दिशा के कूट पर अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। यह पर्वत चाँदी के समान है अतः इसे रजताचल भी कहते हैं।’’
इतना कहते हुए यह धरणेंद्र उन्हें साथ लेकर इस पर्वत की पहली कटनी पर उतरता है और विद्याधरों की नगरियों को दिखाता हुआ कहता है-
‘‘हे कुमार! सुनो, इस दक्षिण श्रेणी पर विद्याधरों के रहने के लिए अकृत्रिम-अनादि निधन ५० नगरियाँ हैं उनके नाम क्रम से इस प्रकार हैं-१. किन्नामित २. किन्नरगीत ३. नरगीत ४. बहुकेतुक ५. पुण्डरीक ६. सिंहध्वज ७. श्वेतकेतु ८. गरुड़ध्वज ९. श्रीप्रभ १०. श्रीधर ११. लोहार्गल १२. अरिंजयनगर १३. वङ्काार्गल १४. वङ्कााढ्य १५. विमोच १६. पुरंजय १७. शकटमुखी १८. चतुर्मुखी १९. बहुमुखी २०. अरजस्का २१. विरजस्का २२. रथनूपुरचक्रवाल २३. मेखलाग्र २४. क्षेमपुरी २५. अपराजित २६. कामपुष्प २७. गगनचरी २८. विनयचरी २९. चक्रपुर ३०. संजयंती ३१. जयंती ३२. विजया ३३. वैजयंती ३४. क्षेमंकर ३५. चन्द्राभ ३६. सूर्याभ ३७. रतिकूट ३८. चित्रकूट ३९. महाकूट ४०. हेमकूट ४१. मेघकूट ४२. विचित्रकूट ४३. वैश्रवणकूट ४४. सूर्यपुर ४५. चंद्रपुर ४६. नित्योद्योतिनी ४७. विमुखी ४८. नित्यवाहिनी ४९. सुमुखी और ५०. पश्चिमा।
इसी प्रकार उत्तर श्रेणी में ६० नगरियाँ हैं जिनके नाम-१. अर्जुनी २. वारुणी ३. वैâलाशवारुणी ४. विद्युत्प्रभ ५. किलकिल ६. चूड़ामणि ७. शशिप्रभा ८. वंशाल, ९. पुष्पचूड़, १०. हंसगर्भ ११. बलाहक १२. शिवंकर १३. श्रीहर्म्य १४. चमर १५. शिवमंदिर १६. वसुमत्क १७. वसुमती १८. सिद्धार्थक १९. शिवमंदिर २०. केतुमाला २१. सुरेंद्रकांत २२. गगननंदन २३. अशोका २४. विशोका २५. वीतशोका २६. अलका २७. तिलका २८. अम्बरतिलक २९. मंदिर ३०. कुमुद ३१. कुंद ३२. गगनवल्लभ ३३. द्युतिलक ३४. भूमितिलक ३५. गंधर्वपुर ३६. मुक्ताहार ३७. ाfनमिष ३८. अग्निज्वाल ३९. महाज्वाल ४०. श्रीनिकेत ४१. जय ४२. श्रीनिवास ४३. मणिवङ्का ४४. भद्राश्व ४५. भवनंजय ४६. गोक्षीर ४७. फेन ४८. अक्षोम्य ४९. गिरिशिखर ५०. धरणी ५१. धारण ५२. दुर्ग ५३. दुर्धर ५४. सुदर्शन ५५. महेन्द्रपुर ५६. विजयपुर ५७. सुगंधिनी ५८. वङ्कापुर ५९. रत्नाकर ६०. चन्द्रपुर।
ये दक्षिण और उत्तर श्रेणी की ५०±६०·११० नगरियाँ हैं। इनमें से प्रत्येक नगरी तीन-तीन परिखाओं से घिरी हुई है। ये परिखायें सुवर्णमय ईंटों से निर्मित और रत्नमयी पाषाणों से जड़ी हैं। इनमें ऊपर तक स्वच्छ जल भरा हुआ है जिनमें लाल, नीले, सफेद कमल फूल रहे हैं। उसके बाद एक कोट है जो ६ धनुष (६²४·२४ हाथ) ऊँचा और १२ धनुष (१२²४·४८ हाथ) चौड़ा है। इस धूलिकोट के आगे एक परकोटा है यह १२ धनुष (१२²४·४८ हाथ) चौड़ा और २४ धनुष (२४²४·९६ हाथ) ऊँचा है। यह परकोटा भी सुवर्ण की ईंटों से व्याप्त और रत्नमय पाषाणों से युक्त है। इस परकोटे पर अट्टालिकाओं की पक्तियाँ हैं। इन अट्टालिकाओं के बीच-बीच में गोपुर द्वार हैं और उन पर रत्नों के तोरण लगे हुए हैं। गोपुर और अट्टालिकाओं के बीच में बुरज बने हुए हैं। इस प्रकार परिखा (खाई) कोट और परकोटे से घिरी हुई ये नगरियाँ १२ योजन लम्बी और ९ योजन चौड़ी हैं। इन सभी नगरियों का मुख पूर्व दिशा की ओर है। इन नगरियों में से प्रत्येक नगरी में एक हजार चौक हैं, बारह हजार गलियाँ हैं और छोटे-बड़े सब मिलाकर एक हजार दरवाजे हैं। इन नगरियों के राजभवन आदि का वर्णन बहुत सुन्दर है। इन नगरियों के प्रति १-१ करोड़ गाँवों की संख्या है तथा खेट, मडम्ब आदि की रचना जुदी-जुदी हैं।
हे राजकुमारों! अब मैं तुम्हें यह बतलाता हूँ कि यहाँ के मनुष्य वैâसे हैं? इन मनुष्यों को शत्रु राजाओं से तीव्र भय नहीं होता है, न यहाँ अति वर्षा होती है और न अनावृष्टि-अकाल ही पड़ता है। यहाँ पर दुर्भिक्ष ईति, भीति आदि के प्रकोप भी नहीं होते हैं। यहाँ पर चतुर्थकाल के आदि से अंत तक परिवर्तन होता है१। अभिप्राय यह है कि यहाँ भरत क्षेत्र के आर्य खंड में जब अवसर्पिणी का चतुर्थकाल प्रारंभ होता है उस समय मनुष्यों की ऊँचाई ५०० धनुष (२००० हाथ) और उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है। पुनः घटते-घटते चतुर्थ काल के अंत में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ की और आयु सौ वर्ष की हो जाती है। ऐसे ही इन विजयार्ध पर्वत के विद्याधरों में चतुर्थकाल के आदि में उत्कृष्ट ऊंचाई ५०० धनुष और उत्कृष्ट आयु १ करोड़ वर्ष पूर्व तक रहती है। पुनः घटते-घटते जब यहाँ आर्यखंड में चतुर्थ काल का अंत आ जाता है तब वहाँ पर जघन्य ऊँचाई ७ हाथ और आयु १०० वर्ष मात्र ही रह जाती है। यहाँ पंचम और छठा काल होने तक तथा बाद में भी छठा, पंचम काल व्यतीत होने तक यही जघन्य व्यवस्था बनी रहती है। जब यहाँ आर्यखण्ड में उत्सर्पिणी के चतुर्थ काल में ऊँचाई ७ हाथ और आयु १०० वर्ष से बढ़ना शुरू होती है तब वहाँ भी बढ़ते-बढ़ते यहाँ के चतुर्थ काल के अंत में वहाँ की ऊँचाई और आयु बराबर उत्कृष्ट प्रमाण हो जाती है।
तभी तो यहाँ आर्यखंड के चक्रवर्तियों के विवाह संबंध वहाँ से होते हैं। चूँकि उस-उस समय इस आर्यखंड के समान ही वहाँ के विद्याधरों की आयु, ऊँचाई आदि रहती हैं।
भरत-ऐरावत क्षेत्रों के विजयार्धों की विद्याधर श्रेणियों में तथा यहीं के म्लेच्छखंडों में यह चतुर्थ काल की आदि से अन्त तक का परिवर्तन माना गया है। अन्यत्र विदेह क्षेत्र के आर्यखंडों में सदा एक सी व्यवस्था रहने से वहाँ के विजयार्धों की विद्याधर श्रेणियों और म्लेच्छखंडों में भी परिवर्तन नहीं है। वहाँ चतुर्थकाल के प्रारंभ जैसी व्यवस्था ही सदा काल रहती है।
यहाँ विद्याधर नगरियों में कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। वर्षा, सर्दी, गर्मी आदि ऋतुओं का परिवर्तन रहता है तथा असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और कला इन छह कर्मों से आजीविका चलती है। आर्यखंड की कर्मभूमि से यहाँ पर यह एक विशेषता अधिक है कि यहाँ मनुष्यों को महाविद्याएं उनकी इच्छानुसार फल दिया करती हैं। ये विद्यायें दो प्रकार की हैं-१. कुल या जाति पक्ष के आश्रित २. साधित। पहले प्रकार की विद्यायें माता अथवा पिता की कुल परंपरा से ही प्राप्त हो जाती हैं। दूसरी विद्यायें यत्नपूर्वक आराधना करने से प्राप्त होती हैं। विद्यासिद्ध करने वाले मनुष्य सिद्धायतन में या उसके समीप अथवा द्वीप, पर्वत या नदी के किनारे आदि किसी भी पवित्र स्थान में पवित्र वेष धारण कर ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए विद्या अधिष्ठात् देवता की पूजा करते हैं। पुनः नित्य पूजा पूर्वक महोपवास धारण कर उन विद्याओं की (खासमंत्रों की) आराधना करते हैं। इस तरह नित्यपूजा, तपश्चरण, जाप्य और होम आदि से वे प्रज्ञप्ति आदि महाविद्यायें सिद्ध हो जाती हैं। विद्याओं के बल से यह विद्याधर लोग आकाश मार्ग में विचरण करते हुए अनेक अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन, पूजन का पुण्य लाभ लिया करते हैं।’’
इस प्रकार विस्तार से विजयार्ध पर्वत का वर्णन करके धरणेन्द्र इन दोनों के साथ दक्षिण श्रेणी की २२वीं नगरी ‘रथनूपुर चक्रवाल’ में प्रवेश करता है। वहाँ पर दोनों को सिंहासन पर बिठा कर सभी विद्याधर राजाओं को बुलाकर कहता है-
‘‘हे विद्याधरों! सुनो, ये तुम्हारे स्वामी हैं। कर्मभूमि रूपी जगत् को उत्पन्न करने वाले जगद्गुरु श्रीमान् भगवान् ऋषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहाँ भेजा है इसलिए आप सब लोग प्र्रेम स्ो मस्तक झुकाकर इनकी आज्ञा पालन करो। अब इनका राज्याभिषेक कर इनके मस्तक पर राज्यपट्ट बाँधो।’’
इतना कहकर विद्याधरों के साथ धरणेन्द्र स्वयं बड़े आदर से सुवर्ण के बड़े-बड़े कलशों से इन दोनों का राज्याभिषेक कर देता है। पुनः इन दोनों को गांधारपदा और पन्नगपदा नाम की विद्याओं को देकर विद्याधरों से कहता है-
‘‘ये नमि महाराज दक्षिण श्रेणी के स्वामी हैं और ये विनमि महाराज उत्तरश्रेणी के अधिपति हैं। हे विद्याधरों! अब आप इनके अनुशासन में रहते हुए अपने अभ्युदयों का अनुभव करो।’’ इतना कहकर धरणेन्द्र अपने स्थान पर चला जाता है। तब पुनः विद्याधर राजगण अनेक भोग सामग्री, रत्नों के उपहार आदि भेंट करते हुए इन दोनों का बहुत ही सम्मान करते हैं। आचार्य कहते हैं-
‘‘देखो, कहाँ इन नमि, विनमि का जन्म यहाँ भूमि गोचरियों में और कहाँ विद्याधर श्रेणियों का आधिपत्य? अहो! भगवान् की भक्ति की कितनी महिमा है कि जो अज्ञानरूप से की गई थी, कल्पवृक्ष के समान उत्तम फल देने वाली हो गई।’’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् ऋषभदेव की उपासना कभी भी निष्फल नहीं जा सकती है।
जगद्गुरु तीर्थंकर ऋषभदेव जिनमुुद्रा से योग धारण कर आज छह मास पूर्ण कर चुके हैं। अब संयमरूपी यात्रा की सिद्धि के लिए शरीर की स्थिति चाहने वाले मुनियों को निर्दोष आहार विधि बतलाने के उद्देश्य से स्वयं आहार हेतु विहार कर रहे हैं। महायोगिराज ऋषभदेव जिस-जिस ओर कदम रखते हैं वहीं-वहीं के लोग प्रसन्न होकर बड़े आदर के साथ उन्हें प्रणाम करते हैं। कितने ही लोग कहते हैं-
‘‘हे देव! प्रसन्न होइये और कहिये क्या काम हैं?’’
कितने ही लोग भगवान् के पीछे-पीछे चलने लगते हैं। अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर महायोगी के सामने रखते हैं और कहते हैें-
‘‘ हे देव! प्रसन्न होइये और हमारी इस पूजा को स्वीकृत कीजिए।’’ कितने ही लोग नाना प्रकार के पदार्थ और अनेक सवारियोें को लेकर प्रभु के सन्मुख आते हैं और कहते हैं-
‘‘हे नाथ! इन्हें ग्रहण कीजिए।’’
कितने ही लोग वस्त्र, आभूषण, गन्ध, माला, आदि सामग्री लेकर आते हैं और निवेदन करते हैं-
‘‘प्रभो! इन्हें धारण कीजिए।’’
कितने ही अज्ञानी लोग सुन्दर और यौवन सम्पन्न कन्याओं को लाकर तीर्थंकर ऋषभदेव के सामने खड़ी कर देते हैं। कितने ही लोग अच्छे-अच्छे आसन और भोजन की सामग्री लाकर हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं-
‘‘प्रभो! इस आसन पर विराजिए और भोजन ग्रहण कर हमें कृतार्थ कीजिए।’’
तीर्थंकर देव अपनी चर्या में विघ्न जानकर आगे बढ़ जाते हैं। लोग निराश हो खड़े-खड़े देखते रह जाते हैं। भगवान् के अभिप्राय को जानने में असमर्थ हुए लोग ‘‘अब क्या करना चाहिए?’’ ऐसा सोचते हुए आँखों से आँसू डालते हुए चिन्तासागर में डूब जाते हैें। कितने ही लोग अपने पुत्र, स्त्री आदि परिवार को लाकर गुरुदेव के चरणों में पड़ जाते हैंं। योगिराज कुछ क्षण खड़े रह जाते हैं। पुनः लोगों के हटते ही आगे विहार कर जाते हैं। इस प्रकार आश्चर्यकारी गूढ़चर्या से उत्कृष्ट चर्या करते हुए तीर्थंंकर ऋषभदेव के छह महीने और व्यतीत हो जाते हैं। इस तरह एक वर्ष पूर्ण हो जाने के बाद ये महामुनि कुरुजांगल देश के आभूषण ऐसे हस्तिनापुर नगर के समीप पहुँचते हैं। उस समय उस नगर के शासक राजा सोमप्रभ और भाई श्रेयांसकुमार थे। तभी रात्रि के पिछले भाग में राजकुमार श्रेयांस को उत्तम-उत्तम सात स्वप्न दिखाई देते हैं। प्रातः उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त हो श्रेयांसकुमार राजसभा में अपने अग्रज सोमप्रभ के सन्मुख विनय पूर्वक उन स्वप्नों को कहते हैं-
‘‘हे अग्रज! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने उत्तम सात स्वप्न देखे हैं।’’ राजा सोमप्रभ उत्कण्ठा पूर्वक पूछते हैं-
‘‘हे बंधुवर! वे क्या-क्या हैं?’’
श्रेयांसकुमार कहते हैं-
‘‘प्रथम स्वप्न में मैंने अतिशय ऊँचा सुवर्णमय सुमेरुपर्वत देखा है। दूसरे स्वप्न में जिसकी शाखाओं के अग्रभाग पर आभूषण लटक रहे हैं। ऐसा कल्पवृक्ष देखा है। तीसरे स्वप्न में सिंह, चौथे स्वप्न में बैल, पाँचवे स्वप्न में सूर्य और चन्द्रमा, छठे स्वप्न में लहरों और रत्नों से सुशोभित समुद्र तथा सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्यों को हाथों में धारण किए व्यंतर देवों को देखा है।’’
इतना सुनकर राजा सोमप्रभ राजपुरोहित की ओर देखते हैं। तभी संकेत पाकर पुरोहित महाराज निवेदन करते हैं-
‘‘हे राजन् ! हे महानुभाव! स्वप्न में सुमेरुपर्वत के देखने से यह प्रगट होता है कि जो सुमेरु के समान अतिशय उन्नत है और सुमेरु पर्वत पर ही जिसका अभिषेक हुआ है ऐसा कोई देव आज अवश्य ही अपने घर पर आयेगा और ये अन्य छह स्वप्न भी उन्हीं के गुणों की उन्नति को सूचित करते हैं। आज उन महापुरुष के योग्य की गई विनय से हम लोगों के महान पुण्य का उदय होवेगा।’ हे कुमार आज हम लोग जगत् में बड़ी भारी प्रशंसा प्रसिद्धि और लाभ सम्पत्ति को प्राप्त करेंगे।’’
इतना सुनकर राजा सोमप्रभ और श्रेयांसकुमार हर्ष से रोमांचित हो जाते हैं। पुनः दोनों भाई स्वप्न की और तीर्थंकर परमदेव की चर्चा करते हुए बैठे ही थे कि इतने में ही योगिराज तीर्थंकर ऋषभदेव हस्तिनापुर में प्रवेश करते हैं। उस समय महामुनि के दर्शनों की इच्छा से घर-घर से निकलकर आकर एकत्रित हुए जन समुदाय का बहुत भारी कोलाहल शुरू हो जाता है। कोई कहता है-
‘‘आदिकर्ता तीर्थंकर ऋषभदेव हम लोगों का पालन करने के लिए यहाँ आए हैं, चलो जल्दी चलकर उनका दर्शन करें और भक्ति पूर्वक उनके चरणों की पूजा करें।’’
कितने ही लोग कह रहे हैं-
‘‘सनातन भगवान् केवल हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिए ही वन प्रदेश से वापस लौटे हैं।’’
कोई कहता है-
‘‘देखो-देखो, जिनका शरीर सुवर्ण के समान चमक रहा है, और जो सुमेरुपर्वत के समान अतिशय ऊँचे हैं ऐसे तीर्थंकर ऋषभदेव इधर ही चले आ रहे हैं।’’
कोई कहता है-
‘‘संसार का कोई एक पितामह है ऐसा हम लोग केवल कानों से सुनते थे, अहो! आज हम लोग ऐसे सनातन पितामह का प्रत्यक्ष आँखों से दर्शन कर रहे हैं। हम लोग कितने भाग्यशाली हैं?’’
कोई कहता है-
‘‘अहो! बड़े आश्चर्य की बात है कि ये तीन लोक के स्वामी भगवान् ऋषभदेव समस्त राज्य वैभव का त्याग कर पूर्ण दिगम्बर होकर आज अकेले ही इस पृथ्वी तल पर विचरण कर रहे हैं।’’
कोई स्त्री अपनी दासी से कहती है-
‘‘हे माँ! ले तू बालक को दूध पिला दे, मैं भगवान् के चरणों का दर्शन करने जा रही हूँ।’’
दूसरी कोई महिला कह रही है-
‘‘हे सखि! स्नान और श्रृंगार की सामग्री दूर हटा, जल्दी चल, देख भगवान तीर्थंकर देव यहाँ पधार चुके हैं।’’
उसी समय-
‘‘मैं पहले पहुँचूँ, मैं पहले पहुँचूँ’’ इसी होड़ में धक्का-मुक्की करते हुए विशाल जन समुदाय का बहुत बड़ा कोलाहल सुनाई पड़ता है। तीर्थंकर परमदेव अपनी गूढ़चर्या से राजमन्दिर की ओर आ रहे हैं। देखकर सिद्धार्थ नामक द्वारपाल शीघ्र ही आकर राजा सोमप्रभ और श्रेयांस के सन्मुख हाथ जोड़कर निवेदन करता है-
‘‘हे राजाधिराज! भगवान् ऋषभदेव इधर ही आ रहे हैं।’’ सुनते ही महान हर्ष से पुलकित हुए दोनोंं भाई अपने अन्तःपुर सेनापति आदि के साथ उठ खड़े होते हैं और राजमहल के आँगन तक बाहर आ जाते हैं। दूर से आते हुए प्रभु को देखकर दोनों हाथ जोड़कर नम्रीभूत होते हुए भक्तिपूर्वक और आगे बढ़कर महायोगिराज के चरणों में नमस्कार करते हैं। पुनः भगवान् की तीन प्रदक्षिणा देते हैं और क्षण के लिए सोचते हैं कि-
‘‘अब हमारा क्या कर्तव्य है?’’
कि तत्क्षण ही राजकुमार श्रेयांस को जाति स्मरण हो जाता है। उन्हेंं अपने इस भव से आठवें भव पूर्व में राजा वङ्काजंघ की रानी श्रीमती की पर्याय में साथ-साथ मुनियों को दिए गए आहार दान की सारी विधि स्मरण में आ जाती है। ‘‘मुनियों को आहार देने का प्रातःकाल का यह उत्तम समय है। आहार देने के पूर्व नवधा भक्ति करनी होती है।’’ ऐसा स्मरण कर राजा श्रेयांस योगिराज ऋषभदेव की नवधा भक्ति करते हैं-
प्रभु को पड़गाहन कर उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करते हैं, प्रभु के चरणों का प्रक्षालन कर अपने मस्तक पर गंधोदक लगा कर अपना जीवन धन्य समझते हैं। पुनः अष्टद्रव्य से पूजा कर प्रभु को नमस्कार करते हैं। ‘‘हे भगवन् ! मेरा मन, वचन, काय शुद्धि और यह आहार भी शुद्ध है।’’
ऐसा निवेदन कर प्रभु से आहार ग्रहण हेतु प्रार्थना करते हैं। योगिराज ऋषभदेव खड़े होकर अपने दोनों करपुटों को पात्र बना लेते हैं। तब राजा सोमप्रभ रानी लक्ष्मीमती और राजा श्रेयांस कुमार बड़ी भक्ति से प्रभु के अंजलिपुट में इक्षुरस का आहार देते हैं। उसी समय आकाश से देवों द्वारा छोड़ी हुई रत्नों की वर्षा होने लगती है। नाना वर्णमयी सुगंधित पुष्प बरसने लगते हैं। नाना प्रकार के उत्तम बाजे बजने लगते हैं। मंद सुगंध हवा चलने लगती हैं और देवगण ‘धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य दाता’ ऐसे शब्दों से आकाश को मुखरित कर देते हैं। आहार के समय देवों द्वारा किये गये ये पाँच अतिशय ‘पंचाश्चर्य’ कहलाते हैं। राजा श्रेयांस प्रभु को आहार देने में मग्न हैं। देवगण हर्ष से विभोर हो पंचाश्चर्य वृष्टि कर रहे हैं। राज-परिवार, मंत्री आदि बहुत से भव्यजीव अभूतपूर्व दानविधि को देखकर भाव विभोर हो रहे हैं। तभी सातिशय पुण्य का संचय कर रहे हैं।
योगिराज तीर्थंकर ऋषभदेव आहार ग्रहण करने के अनंतर पुनः वन की ओर चले जा रहे हैं। दोनों भाई भी बहुत कुछ दूर तक भगवान् के पीछे-पीछे जाते हैंं। पुनः अपने पवित्र हृदय में जगद्गुरु की मूर्ति स्थापित किये हुए उन्हीं के गुणों की कथा करते हुए वापिस अपने महल में आ जाते हैं।
सभी परिजन और पुरजन कुतूहल से भरे हुए वहाँ आकर राजा श्रेयांस को चारों तरफ से घेर लेते हैं और बहुत प्रकार से उनकी प्रशंसा करते हुए भी अपने आप में तृप्त नहीं हो रहे हैं। आँगन में और बड़ी-बड़ी गलियों में जहाँ-तहाँ बिखरे हुए, बड़े-बड़े रत्नों के समूह को एकत्रित करने वाले तथा साधारण जन आनंद के अतिरेक से नाच रहे हैं। उस दिन हस्तिनापुर में ही नहीं सारे संसार में राजा श्रेयांस के द्वारा दिये गये दान की प्रशंसा हो रही है। उसी समय देवगण भी आश्चर्य से चकित होते हुए हस्तिनापुर आकर राजा श्रेयांस की आदर भाव से पूजा करते हैं।
उस आहार दान के दिन वैशाख शुक्ला तृतीया थी। उस दिन राजा के यहाँ इक्षुरस आदि भोजन भी अक्षय हो गया और रत्नों की वर्षा से भी अक्षय भंडार भर गया था। इसलिए सभी लोग उस दिन को ‘‘अक्षय तृतीया’’ कहने लगे।
सम्राट् भरत चक्रवर्ती भी अयोध्या से हस्तिनापुर आ जाते हैं और बड़े आदर से राजा श्रेयांस की प्रशंसा करते हुए उनसे प्रश्न करते हैं-
‘‘हे कुरुवंश शिरोमणे! कहो तो सही तुमने पूज्य पिता तीर्थंकर ऋषभदेव का यह अभिप्राय वैâसे जान लिया? इस संसार में पहले कभी देखने में नहीं आई ऐसी इस दान की विधि को भला तुमने वैâसे जान लिया है? हे राजकुमार श्रेयांस! आज तुम हमारे लिए भगवान् ऋषभदेव के समान ही पूज्य हो गये हो। हे दानपते! तुम दानतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले हो और महापुण्यवान् हो, इसलिए मैं तुमसे यह सब पूछ रहा हूँ कि जो सत्य हो वह मुझसें कहो।’’
इतना सुनकर प्रसन्नमना श्रेयांस कुमार कहते हैं-
‘‘हे सम्राट्! मैंने जैसे ही महायोगिराज ऋषभदेव का दर्शन किया वैैसे ही मुझे इस भव से आठवें भव पूर्व का यह दृश्य स्मरण हो आया कि जब मैं रानी श्रीमती था और ये प्रभु ऋषभदेव मेरे पति राजा वङ्काजंघ थे, हम दोनों ने बहुत ही भक्ति से ‘‘अपने ही युगलपुत्र जो चारण ऋद्धिधारी महामुनि थे उनको आहार दान दिया था। उस समय जैसे नवधाभक्ति आदि विधि की थी वह सब मुझे स्मरण हो आई। उसी क्षण मैंने भगवान् को पड़गाहन कर नवधाभक्ति करके विधिवत् इक्षुरस का आहार दिया है।’’१
इतना सुनकर भरत सम्राट् बहुत ही प्रसन्न होते हैं। पुनः राजकुमार श्रेयांस से कहते हैं-श्रेयांस कुमार! आप अपने पूर्वभवों का किंचित् विस्तार से वर्णन कीजिए, क्योंकि सभी लोग सुनने के लिए उत्सुक हैं।
भरत सम्राट् की जिज्ञासा देखकर श्रेयांसकुमार अपने जाति-स्मरण से जाने हुए पूर्व भवों को सुनाने लगे। वे बोले-‘‘हे भरत सम्राट््! सुनो मैं आपको विस्तार से सुनाता हूँ।
इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु के पूर्व के विदेह को पूर्व विदेह कहते हैं। उसमें सीता नदी के उत्तर तट पर चार वक्षार और तीन विभंगा नदी के निमित्त से आठ देश विभाग हो गये। वे एक-एक देश यहाँ के इस भरत क्षेत्र के विस्तार से कई गुने बड़े हैं। उनके नाम हैं कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला और पुष्कलावती। प्रत्येक क्षेत्र का पूर्वा पर विस्तार २२१२-७/८ योजन है तथा दक्षिण-उत्तर लम्बाई १६५९२-२/१९ योजन है। ये प्रत्येक विदेह देश समान व्यवस्था वाले हैं।इनमें जो आठवाँ पुष्कलावती देश हैं वह वन, ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, मटब, पत्तन, द्रोणमुख, दुर्ग-अटवी, अन्तरद्वीप और कुक्षिवासोें से सहित तथा रत्नाकरों से अलंकृत हैं। इस देश में छयानवें करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौंतीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब, अड़तालीस हजार पत्तन, निन्यानवे हजार द्रोणमुख, चौदह हजार संवाहन, अट्ठाईस हजार दुर्गाटवी, छप्पन अन्तरद्वीप, सात सौ कुक्षिनिवास और छब्बीस हजार रत्नाकर होते हैं।
यहाँ पुष्कलावती देश के बीचों-बीच ५० योजन विस्तृत, २२१२-८/७ योजन लम्बा विजयार्ध पर्वत है। इसमें तीन कटनी हैंं। प्रथम कटनी पर विद्याधर मनुष्य रहते हैं। दूसरी कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के भवन हैं और तीसरी कटनी पर ९ कूट हैं। इसमें एक कूट पर जिनमंदिर शेष ८ पर देवों के भवन हैं।
नील पर्वत की तलहटी में दो कुण्ड बने हुए हैं, जिनसे गंगा सिन्धु नदी निकलकर विजयार्ध की गुफा में प्रवेश कर इस क्षेत्र में बहती हुई सीता नदी में प्रवेश कर जाती हैं। इस निमित्त से यहाँ भी भरत क्षेत्र के समान छह खण्ड हो जाते हैं। जिसमें से नदी के तरफ का मध्य का आर्य खण्ड है और शेष पाँच म्लेच्छ खण्ड हैं।इस आर्य खण्ड के ठीक बीच में पुण्डरीकिणी नाम की नगरी है। इसके बाहर प्रत्येक दिशा में ३६० वनखण्ड हैं जिनमें सदा फल-फूलों से शोभा बनी रहती है।यह नगरी नव योजन विस्तृत और बारह योजन लम्बी है। इसके चारों तरफ सुवर्ण प्राकार-परकोटा है। पुनः परकोटे को घेरकर विस्तृत खातिका-खाई है।यह चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की राजधानी रहती है। इस नगरी में एक हजार गोपुरद्वार, पाँच सौ क्षूद्र द्वार बारह हजार वीथियाँ और एक हजार चतुष्पथ हैं। वहाँ सुवर्ण, प्रवाल, स्फटिक, मरकत आदि से निर्मित सुन्दर-सुन्दर महल बने हुए हैं।इस आर्यखण्ड में मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष है और उत्कृष्ट आयु कोटि पूर्व वर्ष की है। यहाँ इन्द्र धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों से भी नमस्कृत तीर्थंकर भगवान् होते रहते हैं।गणधर देव, अनगार मुनि, केवली मुनि, चारणऋद्धिधारी मुनि और श्रुतकेवली भी विहार करते रहते हैं। मुनि आर्यिका और श्रावक श्राविका का चतुर्विध संघ जहाँ सर्वदा विचरण करता ही रहता है।छह खण्ड पर अनुशासन करने वाले चक्रवर्ती त्रिखण्डाधिपति नारायण प्रतिनारायण और बलभद्र भी जन्म लेते हैं।
इसी पुष्कलावती विदेह क्षेत्र के आर्यखण्ड में एक उत्पलखेटक नाम का नगर है। उस नगरी के राजा वङ्काबाहु की रानी वसुन्धरा ने पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम ‘वङ्काजंघ’ रखा गया और मैं पुण्डरीकिणी राजधानी के चक्रवर्ती वङ्कादंत की कन्या श्रीमती थी सो मेरा विवाह इन वङ्काजंघ के साथ सम्पन्न हुआ। हम दोनों का बहुत सा समय सुखपूर्वक निकल जाने के बाद एक समय पुण्डरीकिणी नगरी से विद्याधर एक पिटारे में बंद पत्र लेकर आए। जिसे पढ़कर मेरे पति ने समाचार बताया कि-‘‘चक्रवर्ती वङ्कादंत ने तीर्थंकर यशोधर भगवान के शिष्य गुणधर मुनिराज के समीप अपने पुत्र, स्त्रियों तथा अनेक राजाओं के साथ दैगंबरी दीक्षा धारण कर ली है। अर्थात् महाराज वङ्कादंत के साथ साठ हजार रानियों ने, बीस हजार राजाओं ने और एक हजार पुत्रों ने दीक्षा ले ली है। चक्रवर्ती ने अपने सार्वभौम राज्य का भार पुत्रों के दीक्षा के भाव देखकर एक छोटे से पौत्र पुण्डरीक को दे दिया है। यह अभी बालक है सो आप आकर इस राज्य की व्यवस्था सुचारू संभालें।’’
सो मैं श्रीमती पर्याय में अपनी माता लक्ष्मीमती और भावज अनुन्धरी जो कि मेरे पति वङ्काजंघ की बहन थी और मेरे भाई अर्थात् चक्रवर्ती के पुत्र अमिततेज को ब्याही थी। उसके पुत्र को प्राप्त कर राजा वङ्काजंघ के साथ पुण्डरीकिणी नगरी की ओर जा रहा था। मार्ग में एक वन में डेरा डाला गया था। वहाँ अकस्मात् आकाश मार्ग से दो चारणमुनि को आते देख राजा ने मेरे साथ में उनका पड़गाहन कर भक्ति से उन्हें आहार दिया। उस आहार के समय मेरे स्वामी के मंत्री, पुरोहित, सेनापति, और सेठ ये चारों ही वहीं सामने खड़े होकर बड़ी भक्ति से आहार देख रहे थे और नकुल, सिंह, वानर तथा सूकर ये चारों पशु भी बहुत ही प्रेम से आहार देख रहे थे। आहार के समय ही देवों ने आकाश से रत्न बरसाना शुरु कर दिया। रत्नवृष्टि, पृष्पवृष्टि, गन्धोदक वृष्टि, दुंदुभिबाजों की गंभीर ध्वनि और जय जयकार इस प्रकार से देवों द्वारा पंचार्श्च किए गए थे।१
आहारपूर्ण होने के बाद मुनिराज वहीं शिला पर विराज गए। राजा वङ्काजंघ ने उनके चरण निकट में बैठकर विनय से बड़े मुनि दमधर से अपने, श्रीमती (मेरे) मंत्री आदि चारों के तथा नकुल आदि चारों पशुओं के भी पूर्व भव पूछे। मुनिराज ने अवधिज्ञान के द्वारा सबके पूर्व भव सुना दिए। अनन्तर उन्होंने भविष्यत् के बारे में पूछा तब मुनिराज ने कहा-
‘‘राजन! इस भव से आठवें भव में तुम भरत क्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव होवोगे। रानी श्रीमती का जीव राजा श्रेयांस होकर दानतीर्थ की प्रवृत्ति करेगा। ये मंत्री आदि चारों जीव तुम्हारे भरत, बाहुबली, वृषभसेन आदि पुत्र होवेंगे और ये नकुल आदि चारों पशु भी, इन्हें इस समय जातिस्मरण हो गया है अतः ये पाप का पश्चात्ताप कर रहे हैं तथा इस आहारदान की जो इन्होंने अनुमोदना की है इसके प्रभाव से ये भोगभूमि में मनुष्य पर्याय को प्राप्त करेंगे और तीर्थंकर अवस्था में तुम्हारे ही पुत्र होंगे। ये सब उसी भव से मोक्ष प्राप्त करेंगे।’’
इस भविष्य को सुनकर मुझे भी बहुत ही खुशी हुई। उस समय कंचुकी ने हमारे पति श्री वङ्काजंघ और मुझे दोनों को बताया कि-
‘‘ये आपके ही अंतिम युगलिया पुत्र हैं जिन्होंने तपश्चरण के बल से चारण ऋद्धि प्राप्त कर ली है।’’
यह परिचय जानकर तो मेरा मातृत्व हृदय भर आया और प्रसन्नता का पार नहीं रहा। अनन्तर मुनिराज तो आकाशमार्ग से विहार कर गये। राजा वङ्काजंघ पुण्डरीकिणी नगरी पहुँचे। मेरी माता और अपनी बहन अनुन्धरी से मिले। उन सबको सान्त्वना दी। राज्य की व्यवस्था को सुव्यवस्थित किया और कुछ काल बाद मुझे साथ में लेकर अपने नगर में आ गये।
एक बार नौकरों ने सायंकाल में मेरे शयनागार में धूप खेने के बाद खिड़कियाँ नहीं खोली भूल गये, जिससे अन्दर घुटन हो गई। जिस कारण राजा वङ्काजंघ और रानी श्रीमती (मैं) वहाँ रात्रि में साते के सोते ही रह गये। अर्थात् दोनों के प्राण निकल गये।मुनियों को आहार देने के पुण्य प्रभाव से हम दोनों उत्तरकुरु भोगभूमि में दम्पती हो गये।
इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु की उत्तर दिशा में उत्तरकुरु नाम की भोगभूमि हैं। वहाँ पर मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस़्त्रांग इन दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। यह पृथ्वीकायिक हैं और भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों को सर्वभोग सामग्री प्रदान करते रहते हैं।मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष अमृत के समान अनेक प्रकार के रस देते हैं। कामोद्दीपन करने वाले होने से इन्हें उपचार से मद्य कह देते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं। मद्यपायी लोग जिस मदिरा का पान करते हैं वह नशा करने वाला है और अन्तःकरण को मोहित करने वाला है अतः वह आर्य पुरुषों के लिए सर्र्वथा त्याज्य है१।वादित्रांग वृक्ष दुन्दुभि आदि बाजे देते हैं। भूषणांग मुकुट हार आदि भूषण देते हैं। मालांग वृक्ष माला आदि अनेक सुगन्धित पुष्प देते हैं। दीपांग वृक्ष मणिमय दीपकों से शोभायमान रहते हैं। ज्योतिरंग वृक्ष सदा प्रकाश पैâलाते रहते हैं। गृहांग वृक्ष ऊँचे-ऊँचे महल आदि देते हैं। भोजनांग वृक्ष अमृतसदृश अशन, पान आदि भोजन देते हैं। भाजनांग थाली, कटोरा आदि देते हैं। वस्त्रांग वृक्ष अनेक प्रकार के वस्त्र प्रदान करते हैं।ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न देवों के द्वारा ही अधिष्ठित हैं। केवल पृथ्वी के आकार से परिणत हुए पृथ्वी के सार ही हैं। यह सभी वृक्ष अनादि निधन हैं और स्वभाव से ही फल देने वाले हैं। इन वृक्षों का ऐसा ही स्वभाव है इसलिए ‘ये वृक्ष वस्त्र, भोजन, बर्तन आदि वैâसे देंगे?’ ऐसा कुतर्क कर इनके स्वभाव में दूषण लगाना उचित नहीं है। जिस प्रकार आजकल के अन्य वृक्ष अपने-अपने फलने का समय आने पर अनेक प्रकार के फल देकर प्राणियों का उपकार करते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त कल्पवृक्ष भी मनुष्यों के दान के फल से अनेक प्रकार के फल फलते हुए वहाँ के प्राणियों का उपकार करते हैं।
वहाँ पर न गर्मी है, न सर्दी है, न पानी बरसता है, न तुषार पड़ता है, न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ हैं और न प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाले साँप, बिच्छू, खटमल आदि दुष्ट जन्तु ही हैं। वहाँ न रात-दिन का विभाग है और न ऋतुओं का परिवर्तन ही हैं। वहाँ के दम्पती युगल सन्तान को जन्म देते ही स्वयं स्वर्गस्थ हो जाते हैं। माता को छींक और पुरुष को जम्भाई आते ही मर जाते हैं और उनके शरीर क्षणमात्र में कपूर के समान उड़कर विलीन हो जाते हैं। इसलिए वहाँ पर पुत्र-पुत्री और भाई-ब्ाहन का व्यवहार नहीं रहता है। वे युगलिया सात दिन तक शय्या पर उत्तान लेटे हुए अंगूठा चूसते रहते हैं। पुनः सात दिन तक पृथ्वी पर रेंगने-सरकने लगते हैं। तीसरे सप्ताह में खड़े होकर अस्पष्ट किन्तु मीठी भाषा बोलते हुए गिरते-पड़ते खेलते हुए जमीन पर चलने लगते हैं। पाँचवे सप्ताह में अनेक कलाओं और गुणों से सहित हो जाते हैं। छठे सप्ताह में युुवावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और सातवें सप्ताह में वस्त्राभूषण धारण कर पति-पत्नी रूप से भोग-भोगने वाले हो जाते हैं।
इन आर्य-आर्या युगलिया दम्पती की शरीर की ऊँचाई ६००० धनुष (तीन कोष) प्रमाण होती है और इनकी आयु तीन पल्य की होती है। दोनों का वङ्काऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है। इन दम्पत्तियों को न बुढ़ापा है, न रोग है, न विरह है, न शोक है, न अनिष्ट का संयोग है, न चिन्ता है, न दीनता है, न नींद है, न आलस्य है, न नेत्रों के पलक झपकते हैं, न शरीर में मल-मूत्रादि हैं,न लार बहती हैं, न पसीना है,न उन्माद है, न कामज्वर है, न भोगों का विच्छेद है, न विषाद है, न भय है, न ग्लानि है, न अरुचि है, न क्रोध है, न कृपणता है, न अनाचार है, न वहाँ कोई बलवान् है और न निर्बल ही है और न असमय में मृत्यु ही है। वहाँ के दम्पत्ती चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी हैं।
इस प्रकार से हम दोनों वहाँ आर्य-आर्या होकर दश प्रकार के कल्पवृक्षों से अनुपम सुखों का उपभोग कर रहे थे कि एक समय अकस्मात् आकाश मार्ग से जाते हुए सूर्य प्रभदेव का विमान देखकर हम दोनों को जातिस्मरण हो गया। स्वर्ग में ललितांगदेव और स्वयंप्रभा देवी के सुख भोगों का तथा मनुष्य पर्याय में राजा बङ्कागंध और रानी श्रीमती के भवों का भी स्मरण हो आया। इसी बीच आकाश मार्ग से चारण ़ऋद्धिधारी दो मुनिराज वहाँ उतरे, उन्हें देखते ही हम दोनों उठकर विनय से नमस्कार किया। उन्होंने हम दोनों को आशीर्वाद दिया। उनमें से बड़े मुनिराज ने हमारे पूर्वभव बतलाए पुनः उपदेश देते हुए बोले-‘‘हे आर्य! आप पूर्वभव में हमारे परम मित्र थे इसलिए हम आपको समझाने के लिए यहाँ आए हैं। हे नरश्रेष्ठ! तुम सम्यग्दर्शन से रहित केवल पात्रदान की विशेषता से यहाँ उत्पन्न हुए हो। महाबल विद्याधर की पर्याय में तुमने हमसे ही तत्त्वज्ञान प्राप्त कर शरीर छोड़ा था, उस समय भी तुम सम्यग्दर्शन नहीं प्राप्त कर सके थे। सो अब आप दोनों दम्पती सम्यग्दर्शन ग्रहण करो। हे आर्ये! सम्यग्दर्शन के प्रभाव से पुनः तुम्हें स्त्रीपर्याय नहीं मिलेगी।’इत्यादि रूप से महामुनि के उपदेश से हम दोनों ने वहाँ सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया था। अन्त में मरणकर ऐशान स्वर्ग में राजा वङ्काजंघ का जीव श्रीधरदेव हो गया था। मैं तथा नकुल आदि चारों पशु के जीव जो वहीं भोगभूमि में आर्य हुए थे वे भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से वहीं ऐशान स्वर्ग में देवपद को प्राप्त कर लिए थे।
पुनः राजा वङ्काजंघ ने सुविधिराजा, अच्युत स्वर्ग का इन्द्र, वङ्कानाभि चक्रवर्ती, सर्वार्थसिद्धि का अहमिंद्र पद प्राप्त किया। पुनः ये ऋषभदेव तीर्थंकर हुए हैं। मेरा जीव स्वर्ग से च्युत हो राजा सुविधि का पुत्र केशव हुआ। पुनः सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ। पुनः धनदेव नाम से चक्रवर्ती वङ्कानाभि का गृहपति रत्न हुआ। अनन्तर मैंने दीक्षा लेकर देवपद प्राप्त कर वहाँ से च्युत हो यहाँ हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयासंकुमार हुआ हूँ।
हे राजाधिराज! इस प्रकार से मैंने आपके सामने सब बता दिया है ‘‘ मुझे भगवन् को देखते ही जो पूर्वभवों का जातिस्मरण हुआ था कि जो मैंने राजा वङ्काजंघ के साथ रानी श्रीमती की पर्याय में चारणयुगल मुनियों को आहार दिया था उस समय की आहार देने के समय की नवधा भक्ति भी मुझे स्मरण हो आई। कैसे पड़गाहन करना? कैसे आहार देना? आदि सब स्मरण हो आने से मैंने प्रभु ऋषभदेव को आहारदान दिया है वास्तव में आहारदान का कितना बड़ा फल है? सो तो देवों के द्वारा रत्नों की वर्षा आदि पंचाश्चर्य करने से ही प्रगट दिख रहा है। इसका अब मैं और विशेष क्या वर्णन करूँ।?हे राजर्षि भरत! हम सभी को उत्तम दान देना चाहिए। अब भगवान् ऋषभदेव के तीर्थ में मुनि, आर्यिका आदि उत्तम पात्र सर्वत्र पैâल जायेंगे। उन्हें आहार देने से ही वे रत्नत्रय की साधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे। इसलिए मोक्षमार्ग को चलाने के लिए यह आहारदान सर्वोत्कृष्ट दान है, इसमें कोई संदेह नहीं है।’’इतना सब सुनकर चक्रवर्ती भरत, राजा सोमप्रभ आदि सभी लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। भरत महाराज ने राजा सोमप्रभ और श्रेयांस का बहुत ही सम्मान किया। उन पर बहुत ही स्नेह प्रगट किया। पुनः ऋषभदेव के गुणों का स्मरण करते हुए अपनी अयोध्या नगरी में वापस आ गये।
अध्यात्म तत्त्व को जानने वाले वे भगवान् ऋषभदेव कभी तो पर्वत के ऊपर लतागृहों में, कभी पर्वत की गुफाओं में और कभी पर्वत के शिखरों पर ध्यान लगाते थे। वे भगवान् अध्यात्म की शुद्धि के लिए कभी तो पहाड़ों के ऊपर पड़ी हुई शिला तलों पर आरूढ़ होते थे। कभी उपद्रव रहित शून्य एकान्त वन में बैठ कर आत्मा के स्वरूप पर चिंतवन करते थे, कभी नदी के किनारे कभी सरोवरों के तट पर और कभी श्मसान भूमि में विराजमान होकर निश्चल एकाग्र समाधि लगा लेते थे। ऐसे वे योगिराज एक हजार वर्ष तक तपश्चरण करते हुए अनेक देशों में विहार करते रहे। पुनः किसी एक दिन पुरिमताल नगर के समीप एक शकट नाम के उद्यान में पहुुँचे। वह स्थान उस नगर से न अधिक समीप था और न अधिक दूर ही था। शुद्ध बुद्धि के धारक महायोगिराज जिनराज ध्यान की सिद्धि के लिए वटवृक्ष के नीचे एक पवित्र शिला पर पूर्व की ओर मुख करके पद्मासन से स्थित हो गए।वे भगवान् अपने अंतःकरण की विशुद्धिरूपी सेना को तैयार कर मोहरूपी शत्रु की सेना को जीतने लिए कटिबद्ध हो गए। उन्होंने इन्द्रिय संयम और प्राणी संयम को शिर की रक्षा करने वाला टोप और शरीर की रक्षा करने वाला कवच बनाया। विशुद्धिरूपी सेना की आपत्ति से रक्षा करने के लिए ज्ञानरूपी मंत्रियों को नियुक्त किया और विशुद्ध परिणाम को सेनापति का भार सौंपा और अनेक गुणों को सैनिक बनाया। इस प्रकार जगद्गुरु वृषभदेव ने ज्यों ही कर्मों के जीतने का उद्योग किया त्यों ही भगवान् की गुणश्रेणी निर्जरा के बल से कर्मरूपी सेना खण्ड-खण्ड होकर नष्ट होने लगी विशुद्धि को बढ़ाते हुए भगवान् क्षपक श्रेणी पर आरुढ़ हो गये।
प्रथम ही उन्होंने मोहराजा के अंगरक्षक के समान अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण संबंधी आठ कषायों को चूर्ण किया। फिर नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेद तथा नौ कषाय नाम के हास्य आदि छह योद्धाओं को नष्ट कर दिया। अनन्तर संज्वलन क्रोध, मान, माया को नष्ट कर बादर लोभ को भी नष्ट कर दिया। महाध्यानरूपी रंगभूमि में चारित्ररूपी ध्वज को फहराते हुए, ज्ञानरूपी तीक्ष्ण हथियार बाँधे हुए और दयारूपी कवच को पहने हुए महायोद्धा भगवान् ने अनिवृत्तिकरण नामक नवमें गुण स्थान की जयश्री प्राप्त कर ली।नवमें गुणस्थान में ३६ प्रकृतियों का नाश होता है। उनके नाम १.-नरक गति २. नरकगत्यानुपूर्वी ३. तिर्यग्गति ४. तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ५. एकेन्द्रिय ६. द्वीन्द्रिय ७. त्रीन्द्रिय ८. चतुरिन्द्रिय जाति ९. आतप १०. उद्योत ११. स्थावर १२. सूक्ष्म १३. साधारण १४. स्त्यानगृद्धि १५. निद्रा-निद्रा १६. प्रचला-प्रचला १७. अप्रत्याख्यानावरण क्रोध १८.मान १९. माया २०. लोभ २१. प्रत्याख्यानावरण क्रोध २२. मान २३. माया २४. लोभ २५. नपुंसकवेद २६. स्त्रीवेद २७. हास्य २८. रति २९. अरति ३०. शोक ३१. भय ३२. जुगुप्सा ३३. पुरुषवेद ३४. संज्वलन क्रोध ३५. संज्वलन मान और ३६. संज्वलन माया ये ३६ प्रकृतियाँ हैं।
अनंतर भगवान ऋषभदेव ने सूक्ष्म सांपराय नामक दशवें गुण स्थान में पहुँचकर सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर दिया। उस समय क्षपक श्रेणी रूपी रंगभूमि में मोहरूपी शत्रु के नष्ट हो जाने से अतिशय देदीप्यमान होते हुए मुनिराज वृषभदेव ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे किसी कुश्ती के मैदान से प्रतिमल्ल के भाग जाने पर विजयी मल्ल सुशोभित होता है। तदनन्तर अविनाशी गुणों का संग्रह करने वाले भगवान् क्षीण कषाय नामक बारहवें गुणस्थान में प्राप्त हुए। वहाँ पर मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय, निद्रा और प्रचला इन सोलह प्रकृतियों को ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा घातिया कर्मोें को जलाकर केवलज्ञानी हो लोकालोक के देखने वाले सर्वज्ञ हो गये। इस प्रकार ६३ प्रकृतियों को जड़मूल से नष्ट कर भगवान् अर्हन्त अवस्था को प्राप्त हो गये।
तीर्थंकर होने के पूर्व ही अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व, सम्यक, मिथ्यात्व और सम्यव्âप्रकृति इन सात कर्मों को नष्ट कर क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट कर लिया था। अनंतर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लेने पर इस भव में मनुष्यायु के सिवाय नरकायु, तिर्यंच आयु और देवायु इन तीन आयु की सत्ता न होने से ये तीन प्रकृतियाँ बिना प्रयास के ही नष्ट हो गई थीं। नवमें गुणस्थान में ३६, दशवें में १ तथा बारहवें में १६ इस तरह ७±३±३६±१±१६·६३ इन त्रेसठ प्रकृतियों को नष्टकर केवली बन गये।
उसी समय नवकेवल-लब्धियों के स्वामी हो गये और समवसरण का वैभव प्राप्त हो गया। फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन इन्द्रों ने आकर भगवान् का केवलज्ञान महोत्सव मनाया था।
जिस समय भगवान् को केवलज्ञान प्रगट हुआ उसी समय वे पृथ्वी से ऊपर ५००० धनुष (२०००० हाथ) आकाश में अधर विराजमान हो गये। उसी समय स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र आदि इन्द्रों के आसन कंपायमान हो उठे। उनके मुकुट झुक गये। सारे संसार में शांति छा गई और तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न हो गया। कल्पवासी देवों के यहाँ बिना बजाये घण्टा बजने लगा, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद शुरू हो गया, व्यंतर देवोंं के घरों में नगाड़ों के जोरदार शब्द होने लगे और भवनवासी देवों के भवनों में अपने आप शंख बजने लगे। कल्पवृक्षों से पुष्प वर्षा होने लगी। उसी क्षण इन्द्र ने भगवान् को केवलज्ञान प्रगट हुआ जानकर देवकारीगरों को समवसरण रचना की आज्ञा दे दी। अर्धनिमिष से भी कम समय में समवसरण तैयार हो गया और उसमें कमलासन पर भगवान् चार अंगुल अधर विराजमान हो गये।सौधर्म इन्द्र आदि सभी इन्द्रों ने अपने-अपने वाहनोें पर आरूढ़ हो असंख्य देव-देवियों के परिकर के साथ प्रस्थान कर दिया। सबसे आगे किल्विषिक जाति के देव जोर-जोर से सुन्दर नगाड़े बजा रहे थे, उनके पीछे, इन्द्र, सामानिक, त्रायस्ंित्रश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल अनीक और प्रकीर्णक जाति के देव अपने-अपने वाहनों पर बैठकर स्ाौधर्म इन्द्र के पीछे-पीछे चल रहे थे। अप्सरायें नृत्य कर रही थीं। गंधर्व देव बाजे बजा रहे थे और किन्नरियाँ मंगलगीत गा रही थीं। इस प्रकार देवों की सेना असंख्य वैभव के साथ वहाँ आ रही थी।
समवसरण की ‘दिव्य भूमि’ स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊँची ‘‘कल्पभूमि’’ होती है। भगवान् ऋषभदेव की समवसरण भूमि का विस्तार १२ योजन ४८ कोश प्रमाण है। यह भूमि कमल के आकार की होती है। इसमें गंध कुटी तो कर्णिका के समान ऊपर ऊँची उठी होती है और बाह्य भाग कमल दल के समान विस्तृत होता है। यह नीलमणि से निर्मित रहती है। इसमें चारों दिशाओं में मानस्तंभ होते हैं जो कि दो-दो हजार पहलू के होते हैं। ये बारह योजन की दूरी से दिखाई देते हैं। जिनका मन अहंकार से सहित है ऐसे देवों और मनुष्यों को ये वहीं रोक देने वाले हैं।
‘‘चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं।’’
मानस्तंभ के चारों दिशाओं में चार-सरोवर हैं। इसके आगे एक वङ्कामयकोट है। इस कोट के चारों ओर से घेर कर एक परिखा हैंं उसमें घुटनों तक जल भरा हुआ है। उसके चारों ओर लताओं का उपवन है। उसको घेर कर सुवर्ण का परकोटा है। उसमें चार गोपुर द्वार हैं। उन द्वारों पर व्यन्तर जाति के देव द्वारपाल हैं जो अपने प्रभाव से हाथ में मुद्गर लिए हुए अयोग्य व्यक्तियों को दूर हटाते हैं। इन गोपुरों में मणिमय तोरणों के दोनों ओर छत्र चमर आदि आठ मंगल द्रव्य एक सौ आठ, एक सौ आठ संख्या में सुशोभित हैं। उन गोपुर के आगे वीथियों के दोनों ओर तीन-तीन खण्ड की दो-दो नाट्य शालाएं हैं। जिनमें बत्तीस-बत्तीस देव कन्यायें नृत्य करती हैं। अनन्तर पूर्व दिशा में अशोक वन, दक्षिण में सप्तपर्ण, पश्चिम में चंपक और उत्तर में आम्र वन हैंं। इन वनों में एक-एक मुख्य वृक्ष सिद्ध प्रतिमाओं से सहित हैं। इन वनों में क्रम से छह-छह वापिकायें हैं। ये क्रम से उदय, विजय, प्रीति और ख्याति नामक फलों को देती हैं। आगे पुनः बत्तीस नाट्यशालाएं हैं। उन पर ज्योतिषी देवांगनाएं नृत्य करती हैं। आगे चारों ओर से घेरे हुए वङ्कामय वेदिका है। चारों गोपुरों के आगे चार वीथियाँ हैं। उनके दोनो पसवाड़े में ध्वजाएं फहराती हैं। इन ध्वजाओं में मयूर, हंस, माला आदि दश प्रकार के चिन्ह क्रमशःहोते हैं। इनमें छोटी-छोटी घंटिकायें लगी हुई हैं। विशेष रीति से एक दिशा में एक करोड़ सोलह लाख चौंसठ हजार हैं और चारों दिशा संबंधी ध्वजाएं चार करोड़ अड़सठ लाख छत्तीस हजार से अधिक हैं। आगे की नृत्यशालाओं में व्यन्तर देवियाँ नृत्य करती हैं। उसके आगे स्वर्ण निर्मित दूसरा परकोटा है। इस कोट के द्वारों पर भवनवासी इन्द्र द्वारपाल हैं। ये बेंत की छड़ी धारण किए हुए पहरा देते हैं।
उसके आगे नाट्यशालाएं, धूपघट और कल्पवृक्ष वन हैं। आगे नौ-नौ स्तूप हैं। ये स्तूप पद्मराग मणियों से निर्मित हैं। उनके समीप स्वर्ण रत्नों से निर्मित मुनियों के और देवों के योग्य सभागृह हैं। सभागृहों के आगे स्फटिक मणि से निर्मित तीसरा परकोटा है। इस परकोटे के चारों गोपुरों के दोनों बाजू में उत्तम रत्नमय आसनों के मध्य मंगल रूप दर्पण हैं जो देखने वालों के पूर्व भव दिखलाते हैं। इन गोपुर द्वारों पर कल्पवासी देव द्वारपाल हैं। आगे अन्तर्वन, नाट्यशालाएं, सिद्धार्थवृक्ष आदि हैं।आगे एक मंदिर हैं। उसमें बारह स्तूप हैं। इनके आगे नन्दा, भद्रा, जया और पूर्णा बावड़ियाँ हैं। जिनमें स्नान करके जीव अपना पूर्वभव जान लेते हैं। इनमें देखने वाले जीवों को अपने आगे-पीछे के सात भव दिखने लगते हैं। वापियों के आगे एक जयांगण हैं जो तीन लोक की विजय का आधार है। उसके मध्य में एक इन्द्रध्वज सुशोभित होता है। उसके आगे एक हजार खंभों पर खड़ा हुआ एक महोदय मंडप है, जिसमें मूर्तिमयी श्रुतदेवता विराजमान रहती हैं। उस श्रुत देवता को दाहिने भाग में करके अनेक मुनियों से युक्त श्रुतकेवली धर्र्म का व्याख्यान करते हैं। इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने हैं। जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक मुनि इच्छुक जनों की इष्ट वस्तु का निरूपण करते हैं।आगे विजयांगण के कोनों में चार लोक स्तूप हैं। जिन पर ध्वजाएं फहराती हैं। ये लोक स्तूप तीन लोक के आकार वाले स्वच्छ स्फटिक से निर्मित हैं। इनमें लोक की रचना स्पष्ट दिखाई देती हैं। इन स्तूपों के आगे मध्यलोक स्तूप हैं जिसके भीतर मध्यलोक की रचना स्पष्ट है। आगे मन्दर स्तूप हैं जो कि सुमेरु पर्वत की रचना स्पष्ट करते हैं। उनके आगे क्रम से कल्पवास-स्तूप, ग्रैवेयक स्तूप, अनुदिश नाम के नौ स्तूप और सर्वार्थसिद्धि नामक स्तूप हैं। ये सब अपने नाम के अनुरूप ही रचनाओं को दिखा रहे हैं। इनके आगे सिद्ध स्तूप हैं। जिनमें सिद्धों के स्वरूप को प्रगट करने वाली दर्पणों की छाया दिखाई देती है।
उनके आगे भव्यकूट नाम के स्तूप हैं। जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते हैं। उनके नेत्र अन्धे हो जाते है। आगे प्रमोहस्तूप हैं। पुनः प्रबोध नाम का स्तूप हैं। आगे अत्यन्त ऊँचे दस स्तूप हैं। इसके आगे पुनः एक कोट है जिसके मंडल की भूमि को बचाकर देव तथा मनुष्य प्रदक्षिणा देते रहते हैं आगे परिधि हैं। वहाँ गणधर देव की इच्छा करते ही एक पुर बन जाता है। उसके त्रिलोकसार, श्रीकांत आदि अनेकों नाम हैंं। भगवान के प्रभाव से वह नगर तीनों लोकों के श्रेष्ठ पदार्थों से युक्त आश्चर्य उत्पन्न करने वाला होता है।उसके बनाने वाला कुबेर भी यदि एकाग्रचित हो उसके बनाने का पुनः विचार करे तो वह भी नियम से भूल कर जायेगा, फिर अन्य मनुष्य की तो बात ही क्या है। उस नगर का निर्माण यथा-स्थान छब्बीस प्रकार के सुवर्ण और मणियों से चित्र-विचित्र हैं। उसके तल भाग में तीन जगती हैं। उनमें द्वारपालों के द्वार पर कुबेर की धनराशि का ढेर है। इस जगती में हजारों कूट और ध्वजाएं हैं।वहाँ चारों ओर देदीप्यमान पीठ होते हैं। उनमें पहले पीठ पर चार हजार धर्मचक्र सुशोभित हैं। दूसरी पीठ पर चार ध्वजाएं हैं। तीसरी पीठ पर गन्धकुटी नाम का प्रसाद हैं। उस पर भगवान् का सिंहासन हैं। उस कमलासन पर चार अंगुल अधर जिनेन्द्रदेव विराजमान रहते हैं।
पहली पीठ-कटनी के चारों तरफ आकाश स्फटिक की दीवालों वाले बारह विभाग सुशोभित हैं। इन बारह कोठों में क्रम से प्रथम कोठे में गणधर देव और अपने-अपने दीक्षा गुरुओं से अधिष्ठित मुनिगण सुशोभित हो रहे हैं। द्वितीय कोठे में कल्पवासी देवियाँ, तृतीय में आर्यिकायें और श्राविकायें, चतुर्थ में ज्योतिषी देवियाँ, पाँचवें में व्यन्तर देवियाँ, छठे में भवनवासिनी देवियाँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतरदेव, नवमें में ज्योतिषी देव, दशवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में मनुष्य चक्रवर्ती आदि श्रावकगण और बारहवें कोठे में सिंह, हरिण आदि पशु गण बैठे रहते हैं।
इन बारह सभाओं में संख्यातों मनुष्यों, तिर्यंञ्चों से तथा असंख्यातों देव-देवियों से वेष्ठित भगवान चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य से विभूषित अनन्त चतुष्टय आदि अनन्त गुणों के स्वामी देवाधिदेव विराजमान रहते हैं।
प्रश्न-जितना वर्णन आपने समवसरण के अन्दर की चीजों का किया है। मेरी समझ में नहीं आया कि इतना वैभव समवसरण में आवे।
उत्तर-इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। एक सामान्य अणिमा ऋद्धि धारक देव भी कमल की नाल के तन्तु जैसे बारीक छिद्र में चक्रवर्ती के कटक को स्थापित कर सकता है अथवा अक्षीण-महालय ऋद्धि धारक मुनि जहाँ बैठते हैं, उस चार हाथ प्रमाण कमरे में भी असंख्यात देवगण, विद्याधर, मनुष्य, पशु आदि बैठकर उपदेश सुन सकते हैं। पुनः तीन लोक के नाथ तीर्थंकर भगवान के सानिध्य में इतना चमत्कार हो जावे तो कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है।इस समवसरण में गन्धकुटी पर विराजमान भगवान इस पृथ्वी तल से ५००० धनुष·२०००० हजार हाथ ऊँचे जाकर विराजमान हैं। अतः इसमें १-१ हाथ की २०००० (बीस हजार) सीढ़ियाँ हैं। इस पर अन्धे, लँगड़े, बाल, वृद्ध और रोगी आदि सभी अड़तालिस मिनट के भीतर ही भीतर चढ़ जाते हैं। यह भगवान का ही माहात्म्य है। समवसरण में मिथ्यादृष्टि, पाखंडी, शूद्र, क्रूर प्राणी और अभव्यजीव नहीं जा सकते हैं।ऐसे समवसरण में स्थित भगवान को नमस्कार करने से समवसरण का ध्यान करने से आज भी महान् पुण्य का बंध हो जाता है। ऐसा समवसरण आज विदेहों में सीमंधर आदि तीर्थंकरों का विद्यमान है।
सौधर्म इन्द्र उस समवसरण भूमि को देखकर विस्मय चकित होते हुए जिनेन्द्र भगवान् के दर्शनों की इच्छा से बहुत अधिक विभूति से युक्त होकर असंख्य देवों के साथ भीतर प्रवेश करते हैं। आठ महाप्रातिहार्य से विभूषित जिनेन्द्रदेव के चरणों में साष्टांग नमस्कार करके श्रद्धायुक्त हो अपने ही हाथों से गन्ध, पुष्पमाला, धूप, दीप, अक्षत और उत्कृष्ट अमृत के पिंडों द्वारा भगवान के चरण कमलों की पूजा करते हैं। पुनः अनेक स्तोत्रों द्वारा भगवान के चरण कमलों की पूजा करते हैं। पुनः अनेक स्तोत्रों द्वारा भगवान के गुणों की स्तुति करते हैं। इस प्रकार मुख्य-मुख्य बत्तीस इन्द्र (भवनवासी के १०, व्यंतरों के ८, ज्योतिषी के २ और कल्पवासी के १२) अनेक सुर, असुर, मनुष्य, नागेन्द्र, यक्ष सिद्ध, गन्धर्व और चारण समूह के साथ-साथ जगत् के एकमात्र बंधु ऐसे ऋषभदेव भगवान की स्तुति कर समवसरण भूमि में जिनेन्द्र भगवान की ओर मुख कर उन्हीं के चारों ओर यथायोग्य रूप से अपने-अपने कोठे में बैठ जाते हैं।
उसी क्षण राजर्षि भरत को एक साथ तीन समाचार प्राप्त होते हैं। पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है २. अंतःपुर में पुत्र का जन्म हुआ है और ३. आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। ये तीनों ही कार्य एक साथ हुए हैं। इनमें से पहले किसका उत्सव करना चाहिए? यह सोचते हुए सम्राट् भरत एकक्षण के लिए व्याकुल से हो जाते हैं-
‘‘पुण्यतीर्थ भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न होना यह धर्म का फल है। चक्ररत्न का प्रकट होना यह अर्थ प्राप्त कराने वाले अर्थ पुरुषार्थ का फल है और पुत्र का होना यह काम पुरुषार्थ का फल है अथवा यह सभी धर्म पुरुषार्थ का ही पूर्ण फल है, क्योंकि अर्थ धर्मरूपी वृक्ष का फल है और काम उसका रस है।’’
इतना सोचकर तत्क्षण ही वे निर्णय लेते हैं कि-
‘‘सब कार्यों में पहले धर्मकार्य ही करना चाहिए क्योंकि-वह सर्व कल्याणों को प्राप्त कराने वाला है और बड़े-बड़े फल देने वाला है अतः सर्वप्रथम जिनेन्द्र भगवान् की पूजा ही करनी चाहिए।’’
उसी क्षण सम्राट् की आज्ञा से आनन्दकाल में बजने वाले नगाड़े बजने लगते हैं। भरत महाराज अपने छोटे भाइयों, अंतःपुर की स्त्रियों और नगर के मुख्य-मुख्य लोगों के साथ बहुत भारी पूजा की सामग्री साथ लेकर प्रभु के दर्शनों के लिए प्रस्थान कर देते हैं। उनके साथ बहुत बड़ी सेना चल पड़ती है जिसमें असंख्यात ध्वजाएँ लहरा रही हैं ऐसी वह सेना एक महान् समुद्र के समान गंभीर शब्द करते हुए अयोध्या से प्रस्थान कर देती है।
भरत महाराज समवसरण में पहुँचकर तीन प्रदक्षिणा देकर मानस्तंभों की पूजा करके आगे बढ़ते हैं। वहाँ क्रम-क्रम से परिखा, लताओं के वन, कोट, चार वन और दूसरे कोट का उल्लंंघन कर ध्वजाओं, कल्पवृक्षों की पंक्तियों, स्तूपों और मकानों के समूहों को देखते हुए आश्चर्य को प्राप्त होते हैं। तदनन्तर द्वारपाल देवों के द्वारा भीतर प्रवेश कराये गये भरत महाराज भगवान् के श्रीमण्डप की शोभा को देखकर प्रथम पीठिका पर पहुँचकर धर्मचक्रों की पूजा करके द्वितीय पीठिका पर स्थित ध्वजाओं की पूजा करते हैं। पुनः गन्धकुटी के मध्य में महामूल्य श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान आदि-ब्रह्मा श्री ऋषभदेव को देखकर भक्ति से रोमांचित हो प्रभु की प्रदक्षिणा देकर पुनः पुनः नमस्कार करते हैं। जल, चंदन आदि सामग्री से महान् अतिशायि पूजा करके सैकड़ों स्तुतियों से स्तुति करते हैं-
‘‘हे भगवन् ! आपने घातिया कर्मों को नष्टकर परमज्योति-स्वरूप दिव्य केवलज्ञान को प्रकट कर संपूर्ण चराचर विश्व को जान लिया है। इसलिए आप ही इस जगत् के परमपिता परमेश्वर हैं, आप ही देवाधिदेव हैं।’’
इत्यादि प्रकार से स्तुति करके श्रीमण्डप में प्रवेश कर वहाँ अपने कोठे में यथायोग्य स्थान में बैठ जाते हैं।
उसी समय पुरिमताल नगर के स्वामी, भरत के छोटे भाई राजा वृषभसेन भगवान् के दर्शन कर तत्क्षण ही वैराग्य को प्राप्त हुए भगवान् के पास दीक्षा धारण कर लेते हैं और प्रभु के प्रथम गणधर हो जाते हैं। तत्क्षण ही उन्हें सातों ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं और मनःपर्यय ज्ञान भी प्रकट हो जाता है। उसी काल में कुरुवंश शिरोमणि महाराज सोमप्रभ, श्रेयांसकुमार तथा अन्य राजागण भी दीक्षा लेकर भगवान के गणधर हो जाते हैं।
भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी गुरुदेव की कृपा से आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं के बीच में गणिनी (स्वामिनी) पद को प्राप्त कर लेती हैं और सर्वदेवों के द्वारा पूज्य हो जाती हैं। भगवान् ऋषभदेव की दूसरी पुत्री सुंदरी भी आर्यिका दीक्षा लेकर ब्राह्मी के सदृश पूज्य बन जाती हैं।
इनके सिवाय अन्य अनेक राजागण तथा राजकन्यायें संसार से भयभीत हो प्रभु के समीप दीक्षा धारण कर लेते हैं।
अनन्तर भगवान् से प्रबोध को प्राप्त होने वाला वह सभा रूपी सरोवर जब हाथरूपी कुड़मल जोड़कर शांत हो जाता है तब महाराज भरत विनय से मस्तक झुकाकर भगवान ऋषभदेव से तप्वों का स्वरूप जानने की इच्छा रखते हुए प्रार्थना करते हैं-
‘‘हे तीन लोक के नाथ! हे देवाधिदेव! हे भगवन् ! तत्त्वों का स्वरूप वैâसा है? मार्ग वैâसा है? और उसका फल भी वैâसा है? आप हम सबके लिए कहिए।’’
भगवान् की अतिशय गंभीरवाणी रूप दिव्यध्वनि खिरती है उस समय भगवान् के न तो तालु, ओठ आदि स्थान ही हिलते हैं और न उसके मुख की कांति ही बदलती हैं तथा जो अक्षर प्रभु के मुख से निकलते हैं उनसे प्रभु के मुख कमल पर कुछ भी विकार उत्पन्न नहीं होता है। भगवान् की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रगट हो रही है, सो ठीक ही है क्योंकि योगबल से उत्पन्न हुई महापुरुषों की शक्तियाँ अचिन्त्य ही होती हैं।
भगवान् कहते हैं-
‘‘हे आयुष्मान् ! जीव आदि पदार्थों का यथार्थ स्वरूप ही तत्त्व है, यही सम्यग्ज्ञान का अंग है और यही जीवों के लिए मुक्ति का कारण है। इन तत्त्वों का श्रद्धान, ज्ञान और सम्यक् चारित्र का अनुष्ठान ही परब्रह्मस्वरूप मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। अतः तत्त्वों के जानने का फल निर्वाण ही है।’’
भगवान विस्तार से धर्म का उपदेश दे रहे हैं। उसमें आत्मा , धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ, मुनि श्रावकों का धर्म, स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग का फल, बन्ध-मोक्ष तथा इनके कारण आदि का स्पष्ट वर्णन है। इसी प्रकार भगवान् के उपदेश में तीनों लोकों का आकार, नरकों के पटल, द्वीप, समुद्र, कुलाचल और सरोवरों का भी विस्तार है। स्वर्ग, देवों की आयु, उनके भोग, मोक्षस्थान तथा त्रसनाली का भी खुलासा है एवं तीर्थंकरों का चरित्र, चक्रवर्तियों का वैभव तीर्थंकर पद के लिए कारणभूत सोलह कारण भावनाएं, दशधर्म तथा भूत, भविष्यत् वर्तमान काल आदि सर्व वस्तुओं का विस्तार से कथन किया जा रहा है।
भगवान् की दिव्यध्वनि सात सौ अठारह भाषाओं में तथा समस्त जनता की समस्त भाषाओं में परिणत हो रही हैं।
इस प्रकार से प्रभु की दिव्य ध्वनि से परम प्रबोध को प्राप्त हुए भरत आदि श्रोतागण सम्यग्दर्शन की परम विशुद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।
श्रुतकीर्ति नाम के एक बुद्धिमान पुरुष श्रावक के व्रत ग्रहण कर श्रावकों में श्रेष्ठ हो जाते हैं और एक प्रियव्रता नाम की पवित्र महिला श्राविकाओं के व्रतों को ग्रहण कर श्राविकाओं में अग्रणी हो जाती है।
भरत के भाई अनन्तवीर्य भी संबोध प्राप्त कर दीक्षा ले लेते हैं। उस युग में इन्होंने ही सर्वप्रथम मोक्ष प्राप्त किया है।
जो चार हजार राजा भगवान् के साथ दीक्षा लेकर भ्रष्ट तपस्वी बन गये थे वह भी वहाँ समवसरण में आकर तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझकर फिर से दीक्षा लेकर सच्चे मुनि बन जाते है। इनमें से मरीचिकुमार ही पुनः दीक्षा न लेकर अपने मिथ्या मत का ही प्रचार करता रहता है। राजर्षि भरत के चले जाने के बाद भगवान् की दिव्यध्वनि बन्द हो जाती है। तब इन्द्र उठकर खड़ा होकर भक्ति में गद्गद् हो भगवान् की १००८ नामों से स्तुत्िा करना प्रारंभ कर देता है।
भरत महाराज अपने छोटे भाई बाहुबली आदि के साथ जगद्गुरु भगवान की वंदना कर वापस अपने नगर की ओर आ रहे हैं। अब उन्हें चक्ररत्न की पूजा करने की कुछ जल्दी हो रही है। सम्राट् भरत अपनी अयोध्या राजधानी में आकर बहुत ही वैभव के साथ चक्ररत्न की पूजा करते हैं। पुनः पुत्ररत्न का जन्मोत्सव मनाते हैं। उस समय राजा भरत ने इतना दान दिया था कि इस भरत क्षेत्र में कोई भी दरिद्र रह ही नहीं गया था। भरत महाराज ने चौराहों में, गलियों में, नगर के भीतर और बाहर रत्नों के ढेर लगवा दिये, वे सब रत्न याचकों को दे दिये गये थे।अनन्तर महाराज भरत दिग्विजय के लिए प्रस्थान करते हैं। उस समय गंभीर शब्द करते हुए प्रस्थान काल के नगाड़े बज रहे हैं। महामुकुटबद्ध राजा लोग भरत को चारों ओर से घेर कर खड़े हुए हैं। सैकड़ों पुण्याशीर्वाद के द्वारा नगर के लोग भरत की पूजा कर रहे हैं और जय-जय के नारों से आकाश को मुखरित कर रहे हैं। भरत सम्राट् चक्ररत्न को आगे कर स्वयं रथ पर आरूढ़ हो नगरी के बाहर निकलते हैं। उनके पीछे असंख्य सेना चल रही है। सो मानों पृथ्वीतल को कंपायमान ही कर रही है।भरत महाराज इस भरत क्षेत्र के छह खण्ड को जीतकर अपनी विजय प्रशस्ति लिखने के लिए वृषभाचल पर्वत के समीप पहुँचते हैं। यह पर्वत १०० योजन ऊँचा, मूल में १०० योजन विस्तृत एवं घटते हुए ऊपर भाग में ५० योजन विस्तार वाला है। श्वेत वर्ण का है और कल्पांत काल तक कभी नष्ट नहीं होने वाला-अनादि-अनिधन है।१ उत्तरीय भरत क्षेत्र के तीन खण्डों के मध्यखण्ड में ठीक बीच में स्थित है। चक्रवर्ती भरत काकिणी रत्न लेकर ज्यों ही उस पर्वत की भित्ति पर लिखने के लिए तत्पर होते हैं, देखते हैं कि उस पर असंख्यातों चक्रवर्तियों के नाम लिखे हुए हैं ऐसा देखते ही उनका गर्व खर्व हो जाता है ओर वे सोचने लगते हैं-
‘‘अहो! इस पृथ्वी पर मेरे सदृश ही असंख्यातों चक्रवर्ती हो गये हैं और वे सब इसे भोगकर पुनः छोड़-छोड़ कर चले गये हैं अतएव यह पृथ्वी अनन्य शासन (जिस पर दूसरे का शासन न चले) नहीं है।’’
पुनः चक्रवर्ती भरत स्वयं अपने हाथों से (दण्डरत्न से) एक चक्रवर्ती की प्रशस्ति को मिटाकर अपनी प्रशस्ति लिखते हुए प्रायः समस्त संसार को स्वार्थपरायण समझते हैं। चक्रवर्ती लिख रहे हैं-
‘‘स्वस्ति श्री इक्ष्वाकुवंश रूपी आकाश का चंद्रमा, समस्त पृथ्वी का स्वामी, मैं भरत हूँ, मैं अपनी माता के सौ पुत्रों में से सबसे बड़ा पुत्र हूँ, प्रजापति प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव का पुत्र और अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराज का पौत्र हूँ, सोलहवाँ मनु हूैं, चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती हूँ, ऐसा मैं भरत षट्खण्ड वसुन्धरा को जीतकर एकच्छत्र समस्त पृथ्वी का पालन करने वाला होते हुए भी इस लक्ष्मी को नश्वर समझकर जगत् में पैâलने वाली अपनी कीर्ति को इस पर्वत पर स्थापित कर रहा हूँ१।’’प्रशस्ति को लिखते समय देवगण आकाश से भरत के ऊपर पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। जोर-जोर से नगाड़ों के शब्दों के साथ आकाश और भूमि पर सर्वत्र चक्रवर्ती भरत के जय-जयकार के शब्दों से समस्त दिशायें व्याप्त हो रही हैं। इस प्रशस्ति में लेख, साक्षी और उपभोग योग्य क्षेत्र ये तीनों बातें थीं। अर्थात् लेख तो वृषभाचल पर लिखा गया था, दिग्विजय करने से छह खण्ड भरतक्षेत्र उनके उपभोग का क्षेत्र था और देवगण साक्षी थे। चक्रवर्ती को इस दिग्विजय में ६० हजार वर्ष लगे थे।
अनन्तर भरत महाराज अपना दिग्विजय पूर्ण कर अयोध्या में प्रवेश कर रहे हैं कि उसी समय चक्ररत्न बाहर ही रुक जाता है। ऐसा देखते ही देव गण-
‘‘यह क्या? यह क्या?’’
ऐसा शब्द करने लगते हैं। भरत के आश्चर्य की सीमा नहीं रहती है।
‘‘अहो! यह क्या? सर्वत्र छह खण्ड में अबाधित गति से चलने वाला चक्ररत्न आज मेरे इस नगर के बाहर ही क्यों रुक गया? क्या अभी भी मुझे कुछ जीतना शेष है?’’
पुरोहित के द्वारा जानकारी प्राप्त होती है कि-
‘‘हाँ, महाराज! अभी आपके सभी भ्राता अजेय हैं। अतः यह चक्ररत्न अयोध्या में प्रवेश नहीं कर सकता है।’’
चक्रवर्ती भरत मंत्रियों से मंत्रणा करके एक चतुर दूत को पत्र देकर अपने छोटे भाईयों के पास भेज देते हैं। वृषभसेन और अनंतवीर्य ने तो भगवान् के पास दीक्षा ही ले ली थी। बाहुबली से अतिरिक्त अन्य भाइयों के पास दूत पहुँचकर भरत का संदेशा देता है। सभी भाई मिलकर आपस में परामर्श कर भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में पहुँचकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। चूँकि वे सब स्वाभिमानी थे भरत को राजाधिराज मानकर नमस्कार करते हुए उनके शासन में नहीं रहना चाहते थे।दूत के द्वारा यह समाचार विदित कर यद्यपि भरत को शोक और खेद होता है परन्तु उपाय न होने से वे आगे बाहुबली के लिए बहुत कुछ ऊहापोह करके उनके पास भी दूत भेजते हैं। बाहुबली अनेक चर्चाओं के बाद भरत से युद्ध करने के लिए सन्नद्ध हो जाते हैं। यह भाई-भाई के महायुद्ध का निर्णय उस युग की आदि में महान् आश्चर्य का विषय बन जाता है। अंत में मंत्रियों की सलाह से ये दोनों भाई आपस में ही दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध करने की घोषणा कर देते हैं।२ तीनों युद्ध में भरत हार जाते हैं तब वे क्रुद्ध होकर अपना चक्ररत्न बाहुबली के ऊपर चला देते हैं। आश्चर्य है कि वह चक्ररत्न बाहुबली की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास खड़ा रह जाता है।३ इस दृश्य को देखकर सभी राजा लोग भरत को धिक्कार देते हैं और बाहुबली की जयकारों से आकाश गुंजा देते हैं।उसी क्षण बाहुबली इस नश्वर राज्य लक्ष्मी से विरक्त हो जाते हैं कि वहाँ का वातावरण ही बदल जाता है। दोनों भाई वैरभाव को भुलाकर आपस में चर्चा कर रहे हैं। भरत बाहुबली को भरसक रोकने का प्रयत्न कर रहे हैं किन्तु बाहुबली क्षमायाचना कराकर अपने पुत्र महाबली को राज्य सौंपकर स्वयं गुरुदेव भगवान् ऋषभदेव के चरणों की आराधना करते हुए जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। वे उसी क्षण ध्यान में खड़े होकर एक वर्ष का प्रतिमायोग धारण कर लेते हैं।
इधर भरत का चक्ररत्न अयोध्या में प्रवेश करता है और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजागण तथा अगणित देवगण मिलकर उन भरत सम्राट् का चकव्रर्ती पद के योग्य महान् राज्याभिषेक कर देते हैं।
उधर बाहुबली महायोगिराज ध्यान में खड़े हैं। उन्हें मनः पर्याय ज्ञान प्रकट हो गया है और सर्वौषधि आदि अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हो चुकी हैं। अनेक विद्याधर आकर उनके चरणों की पूजा कर रहे हैं। सर्पों ने उनके चरणों में वामी बना ली है और चिड़ियों ने घोसलें बना लिये हैं। माधवी लतायें उनकी भुजाओं तक पहुँच चुकी हैं और भी अनेक अतिशायि चमत्कार वहाँ दिख रहे हैं।दीक्षा लेते ही बाहुबली भगवान् ने एक वर्ष का उपवास लेकर प्रतिमायोग धारण कर लिया था। वह उनका योग पूर्ण होने वाला है कि भरत चक्रवर्ती आकर उनके चरणों में नमस्कार करके उनकी पूजा करते हैं, तत्क्षण ही बाहुबली को केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। इसके पूर्व ‘भरत को मुझसे क्लेश हो गया’ यह विकल्प बाहुबली के मन में हो जाया करता था अतः उनके पूजा करते ही बाहुबली का मन निर्विकल्प हो गया और क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया हृै। उसी क्षण देवों के द्वारा गंधकुटी की रचना हो जाती है और भगवान् बाहुबली आकाश में ५००० धनुष जाकर कमलासन पर अधर विराजमान हो जाते हैं।भरत महाराज के हर्ष का पार नहीं रहता है वे पुनरपि गंधकुटी में पहुँच कर भगवान् बाहुबली की अतिशयपूर्ण सामग्री से महान् आश्चर्यकारी-अतिशायि पूजा करते हैं। भगवान् बाहुबली कुछ वर्षों तक पृथ्वीतल पर विहार कर अनंतर भगवान् ऋषभदेव के समवसरण में पहुँच जाते हैं।
चक्रवर्ती भरत महाराज षट्खण्ड पृथ्वी का एक छत्र, उपभोग करते हुए सर्वप्रजा का पुत्रवत् पालन कर रहे हैं। नवनिधि, चौदह रत्न, छ्यानवे हजार रानियाँ आदि का इतना ऐश्वर्य होते हुए भी सम्राट् भरत धर्म की भावना को दिनदूनी रात चौगुनी वृद्धिंगत करने में ही लगे रहते हैं। एक दिन सहसा उनके मन में विचार आता है-
‘‘मेरा यह अतुल वैभव है, दूसरे के उपकार में मेरी इस संपदा का उपयोग किस प्रकार हो सकता है? मैं श्री जिनेंद्रदेव का बड़े ऐश्वर्य के साथ ‘महामह’ नाम का यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसार को संतुष्ट कर दूं। सदा निःस्पृह रहने वाले दिगम्बर मुनिराज तो हम लोगों से धन लेते नहीं हैं। परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धनधान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा पूजने के योग्य है? जो अणुव्रत को धारण करने वाले हों, धीर वीर हों ओैर गृहस्थों में मुख्य हों ऐसे पुरुष ही हम जैसे राजाओं के द्वारा इच्छित धन तथा सवारी आदि वाहनों के द्वारा तर्पण (संतुष्ट) करने के योग्य हैं।’’
इस प्रकार निश्चय कर योग्य व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से राजराजेश्वर भरत ने समस्त राजाओं को अपने यहाँ बुलाया। सबके यहाँ सूचना भिजवा दी कि-
‘‘आप लोग अपने-अपने इष्ट-मित्र आदि को साथ लेकर हमारे उत्सव में आवें।’’इधर चक्रवर्ती ने उन सबकी परीक्षा के लिए अपने घर के आंगन में हरे-हरे अंकुर, पुष्प और फल खूब भरवा दिये। उन आने वालें में जो अव्रती थे वे बिना कुछ सोच विचार के राजमंदिर में घुस आये। राजा भरत ने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगों को बुलाया। परन्तु बड़े-बड़े कुल में उत्पन्न हुए और अपने व्रत की सिद्धि के प्रयत्नशील उन लोगोें ने जब तक मार्ग में हरे अंकुरे हैं तब तक उस मार्ग से प्रवेश करने की इच्छा नहीं की। उनमें से कुछ लोग वापस लौटने लगे और कुछ लोग वहीं खड़े रहे। पुनः चक्रवर्ती के अत्यधिक आग्रह से वे लोग दूसरे प्रासुक मार्ग से राजा के निकट पहुँचे। तब राजा भरत ने इनसे पूछा-
‘‘आप लोग पहले किस कारण से नहीं आये?’’
उन लोगों ने उत्तर दिया-
‘‘महाराज! आज पर्व के दिन कोंपल, पत्ते तथा पुष्प आदि का विघात नहीं किया जाता। हे देव! इन हरे अंकुरों में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं ऐसे सर्वज्ञदेव के वचन हम लोगों ने सुने हैं। इसलिए जिधर गीले-गीले अंकुर, पुष्प आदि से शोभा की गई थी उन पर पैर रखकर हम लोग नहीं आये।’’इस प्रकार उनके वचन सुनकर प्रभावित हुए भरत महाराज ने व्रतों में दृढ़ रहने वाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान-मान आदि से सम्मानित किया। पद्मनाम की निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह तक की संख्या वाले ब्रह्मसूत्र नाम के सूत्र से उन सबके चिन्ह किये तथा जो व्रती नहीं थे उन्हें वैसे ही जाने दिया। पुनः भरत चक्रवर्ती ने उन्हें उपदेश देकर उनके कर्तव्य को बतलाया।‘‘हे व्रतों में प्रधान पुरुषों! भगवान् ने समवसरण में श्रावकों के लिए उपासकाध्ययन नाम के अंग का विस्तार से प्रतिपादन किया है उसमें संक्षेप में श्रावक के चार धर्म प्रमुख हैं। पूजा, दान, शील और उपवास अथवा गृहस्थ के षट्कर्तव्य कहे गये हैं-
इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप, यह षट्कर्म श्रावक का कुल धर्म है। इन षट् क्रियाओं में सर्वप्रथम इज्या है। इज्या पूजा को कहते हैं। इसके चार भेद हैं-नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पदु्रम और आष्टाह्निक।नित्यमह-प्रतिदिन अपने घर से जल, चंदन, अक्षत, पुष्प आदि अष्टद्रव्य सामग्री लेकर जिनमंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की पूजा करना नित्यमह है इसे सदार्चन भी कहते हैं। अथवा भक्तिपूर्वक अर्हंतदेव की प्रतिमा का, जिनमंदिर का निर्माण कराना तथा दानपात्र लिखकर ग्राम, खेत आदि का दान देना भी नित्यमह है। इसके सिवाय अपनी शक्ति के अनुसार नित्य दान देते हुए महामुनियों की जो पूजा की जाती है इसे भी नित्यमह कहते हैं।चतुर्मुख-महामुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ कहते हैं। इसी का दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है।
कल्पद्रुम-जिस जिनपूजा महामहोत्सव में कल्पवृक्ष के समान सब जीवों को दान देते हुए सबकी इच्छाएँ पूर्ण की जावें वह कल्पद्रुम पूजा है। इसे चक्रवर्ती ही कर सकते हैं।
आष्टाह्निक पूजा-आष्टाह्निक पर्व में सब लोग करते हैं। यह सब जगत् में प्रसिद्ध ही है। आष्टाह्निक पर्व में सिद्ध-चक्र की आराधना या इन्द्रध्वज विधान, नन्दीश्वर विधान आदि अनुष्ठान करते हुए जो नन्दीश्वर द्वीप के ५२ चैत्यालयों की पूजा की जाती है। उसी का नाम आष्टाह्निक पूजा है।इसके सिवाय ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी है जिसे इन्द्र किया करते हैं। बलि अर्थात् नैवेद्य चढ़ाना, अभिषेक करना, तीनों संध्याओं में उपासना करना तथा इन्हीं के समान जो और भी पूजा के प्रकार हैं वे सब इन चार भेदों में ही अन्तर्भूत हैं। यह जिनपूजा ही इज्या नाम से पहला कर्तव्य है।
वार्ता-शुद्ध आचरण पूर्वक खेती आदि के द्वारा आजीविका करना वार्ता किया है। यह भी गृहस्थ श्रावक का कर्तव्य है।
दत्ति-दान देना दत्ति क्रिया है, इसके दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ऐसे चार भेद हैं।
अनुग्रह करने योग्य प्राणियों पर अर्थात् दीन दुःखी लोगों पर करुणा करके उनके भय को दूर करना उन्हें यथायोग्य भोजन, पान, वस्त्र आदि देना दयादत्ति-दया दान है।
महातपस्वी मुनियों को पड़गाहन कर उन्हें आहार दान देना, उन्हें औषधि दान देना, शास्त्र आदि देना, वसतिका देना यह सब पात्रदत्ति अर्थात् पात्रदान है।
क्रिया, मन्त्र और व्रत आदि से जो अपने समान हैं तथा जो संसार समुद्र से पार कर देने वाले अन्य उत्तम गृहस्थ हैं उनके लिए पृथ्वी, सुवर्ण आदि देना अथवा मध्यम पात्र के लिए समान बुद्धि से श्रद्धा के साथ दान देना यह समदत्ति है।
अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुल पद्धति तथा धन के साथ अपना कुटुम्ब समर्पित कर देना सकलदत्ति है।
स्वाध्याय-शास्त्रों का पठन-पाठन और चिन्तवन करना स्वाध्याय है।
संयम-व्रत धारण करना अथवा त्रसजीवों की दया पालना, स्थावर जीवों का भी व्यर्थ ही घात नहीं करना और पाँचों इन्द्रियों को तथा मन को वश में रखना संयम है।
तप-उपवास आदि करना। शक्ति के अनुसार मुक्तावली, रविवार, दशलक्षण आदि व्रत करना तप है।
ये छह प्रकार की वृत्ति तुम द्विजों के करने योग्य हैं।जो इनका उल्लंघन करता है वह नाममात्र से द्विज है। तप, शास्त्रज्ञान और उत्तम जाति ये तीन ब्राह्मण होने के लिए कारण है। आप लोगों की आजीविका पाप से रहित है तथा दान, पूजा और अध्ययन से कार्य ही आपके लिए प्रमुख हैं। इसलिए मैं आज आप लोगों को ‘ब्राह्मण’ इस संज्ञा से सम्बोधित करके ‘आप सभी के लिए मान्य हैं’ ऐसी घोषणा करता हूँ। जो एक बार गर्भ से और दूसरी बार क्रिया से इस तरह दो बार उत्पन्न हुआ है वह द्विजन्मा अथवा द्विज है।
मनुष्य जाति सामान्यतया एक है, फिर भी वह चार वर्णों में विभाजित है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण है। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीचवृत्ति अर्थात् सेवावृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाते हैं।
इन चारों वर्णों में आपका ब्राह्मणवर्ण सभी वर्णों के द्वारा दान सन्मान आदि से मान्य होगा।
श्रावकाध्याय संग्रह में क्रियाएँ तीन प्रकार की मानी गई हैं-गर्भान्वय, दीक्षान्वय और कर्त्रन्वय। गर्भान्वय क्रिया के ५३ भेद हैं। दीक्षान्वय क्रिया ४८ प्रकार की हैं और कर्त्रन्वय क्रिया के ७ भेद माने गये हैं।१
ये सब क्रियाएँ आपको करना-कराना चाहिए।
इस प्रकार भरत क्षेत्र के अधिपति राजा भरत ने धर्म-प्रेम से राजा लोगों की साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करने वाले उन उत्तम द्विजों को अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की। जिन्हें चक्रवर्ती से सत्कार प्राप्त हुआ है और शास्त्रों के पारंगत हैं ऐसे वे ब्राह्मण उस समय सभी के द्वारा सम्मान को प्राप्त हुए थे। राजा भरत भी प्रतिदिन उन लोगों को दान आदि देकर अपने को धन्य मानने लगे सो ठीक ही हैं। क्योंकि अपने द्वारा बनाई गई सृष्टि को देखते हुआ ऐसा कौन पुण्यवान् पुरुष है जो अपने आपको कृतकृत्य न माने।
जिन पूजा और दान में सतत प्रवृत्ति करते हुए चक्रवर्ती भरत अपना बहुत सा समय सुखपूर्वक बिता रहे हैं। इसी मध्य एक रात्रि में उन्हें कुछ विशेष स्वप्न दिखते हैं। उनकी निद्राभंग हो जाती हैं तभी वे कुछ खेद खिन्न होते हुए सोचने लगते हैं-
‘‘ये स्वप्न मुझे प्रायः बुरे फल देने वाले जान पड़ते हैं तथा साथ में यह भी जान पड़ता है कि ये स्वप्न कुछ दूर आगे के पंचम काल में फल देने वाले होंगे। क्योंकि यहाँ इस समय भगवान् ऋषभदेव के प्रकाशमान रहते हुए प्रजा व्ाâो इस प्रकार का उपद्रव होना वैâसे संभव हो सकता है? इसलिए कदाचित इस कृतयुग-चतुर्थ काल के व्यतीत हो जाने पर जब पाप की अधिकता होने लगेगी तब ये अनिष्ट स्वप्न अपना फल दे सकेंगे। जो भी हो मेरा तो यह अनुमान ज्ञापन है। जब तीनों लोकों को प्रत्यक्ष देखने वाले भगवान् ऋषभदेव समवसरण में विराजमान हैं तब सारा स्पष्टीकरण प्रभु से ही करना चाहिए। इसमें मैंने जो ब्राह्मण वर्ण की एक नवीन सृष्टि की है उसे भी भगवान् के चरणों में निवेदन करना चाहिए। पुनः अच्छे पुरुषों का तो यह कर्तव्य है कि ‘‘वे प्रतिदिन गुरुओं का दर्शन करे उनसे अपना हित-अहित पूछें और बड़े वैभव से उनकी पूजा करें।१’’
इस प्रकार मन में विचार कर महाराज भरत शय्या से उठकर प्रातःकालीन समस्त क्रियाएँ करते हैं। पुनः जगद्गुरु भगवान् की वन्दना के लिए प्रस्थान कर देते हैं। वहाँ पहुँचकर पहले समवसरण भूमि की बाहर से ही प्रदक्षिणाएँ देकर अन्दर प्रवेश करते हैं। वहाँ क्रम-क्रम से मानस्तंभ, चैत्यवृक्ष, स्तूप आदि की पूजा करते हुए भगवान् की गन्धकुटी के पास पहुँच जाते हैंं। ‘उस समय भक्तिपूर्वक भगवान् की वंदना करते हुए राजा भरत के परिणामों में इतनी विशुद्धि होती है कि उन्हें उसी क्षण ही अवधिज्ञान प्रगट हो जाता है।’२ अहो! भक्ति का माहात्म्य अचिन्त्य है।
अनन्तर भगवान् की पूजा स्तुति कर चुकने के बाद सम्राट् भरत अपने मनुष्यों के कोठे में बैठ जाते हैं। पुनः विनय से हाथ जोड़कर भगवान् के श्रीचरणों में निवेदन करते हैं-
‘‘हे भगवन् ! मैंने आपके द्वारा कहे हुए उपासकाध्याय सूत्र के मार्ग पर चलने वाले तथा श्रावकाचार में निपुण ऐसे ‘ब्राह्मण’ निर्माण किए हैं। हे प्रभो! समस्त धर्मरूपी सृष्टि को साक्षात् उत्तम करने वाले आपके विद्यमान रहते हुए भी मैंने यह बहुत बड़ी मूर्खता की है कि जो यह नई सृष्टि बना दी है। देवाधिदेव! इन ब्राह्मणों की रचना में क्या तो दोष है? और क्या गुण है? यह रचना योग्य हुई या नहीं? इस प्रकार मेरा मन दोलायमान हो रहा है सो आप मेरे मन को किसी निश्चय में स्थिर कीजिए। हे परमपिता परमेश्वर! इसके अतिरिक्त मैंने आज रात्रि के अंतिम भाग में सोलह स्वप्न देखे हैं उनका फल क्या है? सो यह सब मैं आपकी दिव्यध्वनि से सुनना चाहता हूँ।’’
यद्यपि निधियों के अधिपति चक्रवर्ती भरत उसी समय प्रगट हुए अपने अवधिज्ञान से उन प्रश्नों का फल जानने में निपुण हैं। फिर भी विनय गुण की अधिकता से तथा सभा में सभी लोग इन बातों को अच्छी तरह से जान लेवें, इसी अभिप्राय से वे प्रश्न कर रहे हैं। उनका प्रश्न होने के बाद जगद्गुरु ऋषभदेव भगवान् की दिव्यध्वनि खिरने लगती हैं। भगवान् कहते हैं-
‘‘हे वत्स! जो तूने द्विजों की पूजा की है सो बहुत अच्छा किया है परन्तु इसमें कुछ दोष है उसे तू सुन। हे आयुष्मन् ! जो तूने इन गृहस्थों की रचना की है सो जब तक कृतयुग की स्थिति रहेगी तब तक ये उचित आचार का पालन करते रहेंगे किन्तु कलयुग में ये सदाचार से च्युत होकर मोक्षमार्ग के विरोधी बन जायेंगे। यद्यपि यह सृष्टि कालांतर में दोष का बीजरूप है। तथापि धर्मसृष्टि का उल्लंघन न हो इसलिए इस समय इनका परिहार करना भी अच्छा नहीं है। यह तो ब्राह्मण वर्ण की स्थापना का उत्तर हुआ, अब स्वप्नों का फल सुनो।
१. प्रथम स्वप्न में जो तुमने ‘तेईस सिंह अकेले पृथ्वी पर विहार कर पर्वत पर चढ़ गये’ ऐसा देखा है उसका फल यह है कि-महावीर स्वामी को छोड़कर शेष तेईस तीर्थंकरों के समय में दुष्ट नयों की उत्पत्ति नहीं होगी।
२. दूसरे स्वप्न में ‘अकेले सिंह के बच्चे के पीछे चलते हुए हरिणों का समूह’ देखा है। उसका फल यह है कि महावीर स्वामी के तीर्थ में परिग्रह को धारण करने वाले बहुत से कुलिंगंी हो जावेंगे।
३. ‘बड़े हाथी के योग्य भार को घोड़े की पीठ पर लाद देने से ‘उसकी पीठ झुक गई है’। इस तृतीय स्वप्न का फल यह कहता है कि पंचमकाल के साधु तपश्चरण के समस्त गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं हो सकेंगे। कोई मूलगुण और उत्तरगुणों के पालन करने की प्रतिज्ञा लेकर उनके पालन करने में आलसी हो जायेंगे। कोई उन्हें मूल से ही भंग कर देंगे और कोई उनमें मन्दता, कुछ अतिचार आदि लगा देंगे।
४. चतुर्थ स्वप्न में ‘बकरों का समूह सूखे पत्तों को खा रहा है।’’ इसे देखने का यह फल समझो कि आगामी काल में मनुष्य सदाचार को छोड़कर दुराचारी हो जायेंगे।
५. ‘हाथी के कन्धे पर वानरों के देखने से’ यह फल है कि आगे चलकर प्राचीन क्षत्रियवंश का उच्छेद हो जाएगा और नीच कुल वाले पृथ्वी का पालन करेंगे।
६. ‘कौवों के द्वारा उल्लू का त्रास दिया जाना देखने से’ यह स्पष्ट है कि आगे मनुष्य धर्म की इच्छा से जैन मुनियों को छोड़कर अन्य पाखण्डियों के समीप जायेंगे।
७. ‘नाचते हुए बहुत से भूतों के देखने से’ प्रजा के लोग नामकर्म आदि कारणों से व्यन्तरों को देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे।
८. ‘तालाब के चारों ओर पानी भरा है किन्तु मध्य का भाग सूख गया है’ ऐसा देखने का यह फल है कि धर्म आर्य-खण्ड से हटकर प्रत्यन्तवासी-म्लेच्छ निवासी लोगों में ही रह जावेगा।
९. ‘धूलि से मलिन रत्नों की राशि’ देखने से पंचमकाल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे।
१०. आदर सत्कार से जिसकी पूजा की गई है ऐसा कुत्ता नैवेद्य खा रहा है’। इसका यह फल है कि व्रतरहित ब्राह्मण गुणी पात्रों के समान आदर पाएंगे।
११. ‘ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार’ देखने से लोग तरुण अवस्था में ही मुनिपद में ठहर सकेंगे, अन्य अवस्था में नहीं।
१२. परिमण्डल से घिरे हुए चन्द्रमा के देखने से यह समझो कि पंचमकाल के मुनियों में अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान नहीं होगा।
१३. परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों को देखने से यह सूचित होता है कि पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होंगे।
१४. सूर्य मेघों के आवरण से ढक गया है ऐसा स्वप्न देखने का यह फल होगा कि पंचमकाल में केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होगा।
१५. छाया रहित सूखा वृक्ष देखने से यह सूचित होता है कि स्त्री-पुरुषों का चरित्र भ्रष्ट हो जावेगा।
१६. ‘जीर्ण पत्तों का समूह’ देखने से यह सूचित हो रहा है कि महा औषधियों का रस नष्ट हो जायेगा, वे नीरस हो जाने से रोगादि को नष्ट करने में पूर्णतया समर्थ नहीं हो सकेंगे।
ऐसे फल देने वाले इन स्वप्नों को तू दूरविपाकी-बहुत समय बाद फल देने वाले समझ, इसलिए इस समय कोई दोष नहीं होगा, इनका फल पंचमकाल में होगा। हे वत्स! मुझसे इन स्वप्नों का यथार्थ फल जानकर तू समस्त विघ्नों की शांति के लिए धर्म में अपनी बुद्धि कर।’’
महाराज भरत गुरुदेव के वचन सुनकर सन्देह मन से रहित अपने चित्त को निर्मल करके बहुत ही प्रसन्न होते हैं। पुनः भगवान् को बार-बार नमस्कार करके तथा बार-बार पूछकार बड़ी कठिनाई से वहाँ से वापस लौटते हैं। यद्यपि उनकी इच्छा प्रभु के चरणों को छोड़कर आने की नहीं होती है फिर भी वे अपने सार्वभौम राज्य के संचालन आदि कार्यों के लिए घर वापस आ जाते हैं।
अयोध्या में प्रवेश कर महाराज भरत खोटे स्वप्नों से होने वाले अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्रदेव का महाअभिषेक, उत्तम पात्रों को आहारदान आदि पुण्य क्रियाओं से शांतिकर्म करते हैं। अनेक जिनबिम्ब और जिनमंदिरों की रचना कराकर कल्पवृक्ष नाम का बहुत बड़ा यज्ञ करते हैं। अनेक श्रावकोचित क्रियाओं को करने से उस समय चक्रवर्ती भरत गृहस्थों मे मुख्य गिने जाते हैंं
भगवान् ऋषभदेव समवसरण में विराजमान हैं और अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा अनन्त भव्यजीवों का अनुग्रह कर रहे हैंं। उनकी दिव्यध्वनि प्रातः, मध्यान्ह, सायं और अर्धरात्रि में छह-छह घड़ी पर्यंत खिरती हैं तथा गणधर, चक्रवर्ती और इन्द्र के प्रश्न के अनुसार अन्य समय में भी खिरती हैं। बिना इच्छा के ही भगवान् का उपदेश होता है तथा बिना इच्छा के ही श्रीविहार होता है। जब भगवान विहार करते हैं तब समवसरण विघटित हो जाता है। भगवान् आकाश में अधर विहार करते हैं देवगण उनके चरण कमलों के नीचे दिव्य सुगन्धित सुवर्णमय कमलों की रचना करते चले जाते हैंं।
सम्पूर्ण आर्य खण्ड के कौशल, अयोध्या, कुरुजांगल-हस्तिनापुर, अंग, बंग, चंपापुरी, आन्ध्र, कर्नाटक, आदि सर्व देशों में विहार कर चुके हैं। उनके साथ वृषभसेन आदि चौरासी गणधर हैं। उनके नाम- १. वृषभसेन २. कुंभ ३. दृढ़रथ ४. शतधनु ५. देवशर्मा ६. देवभाव ७. नन्दन ८. सोमदत्त ९. सूरदत्त १०. वायुशर्मा ११. यशोबाहु १२. देवाग्नि १३. अग्निदेव १४. अग्निगुप्त १५. मित्राग्नि १६. हलभृत १७. महीधर १८. महेन्द्र १९. वसुदेव २०. वसुंधर २१. अचल २२. मेरु २३. मेरुधन २४. मेरुभूति २५. सर्वयश २६. सर्वयज्ञ २७. सर्वगुप्त २८. सर्वप्रिय २९. सर्वदेव ३०. सर्वविजय ३१. विजयगुप्त ३२. विजयमित्र ३३. विजयिल ३४. अपराजित ३५. वसुमित्र ३६. विश्वसेन ३७. साधुसेन ३८. सत्यदेव ३९. देवसत्य ४०. सत्यगुप्त ४१. सत्यमित्र ४२. निर्मल ४३. विनीत ४४. संवर ४५. मुनिगुप्त ४६. मुनिदत्त ४७. मुनियज्ञ ४८. मुनिदेव ४९. मुनिगुप्त ५०. मित्रयज्ञ ५१. स्वयंभू ५२. भगदेव, ५३. भगदत्त ५४. भगफल्गु ५५. गुप्तफल्गु ५६. मित्रफल्गु ५७. प्रजापति ५८. सर्वसंघ ५९. वरुण ६०. धनपालक ६१. मद्यवान ६२. तेजोराशि ६३. महावीर ६४. महारथ ६५. विशालाक्ष ६६. महाबल ६७. शुचिशाल ६८. वङ्का ६९. वङ्कासार ७०. चन्द्रचूल ७१. जयकुमार ७२. महारस ७३. कच्छ ७४. महाकच्छ ७५. नमि ७६. विनमि ७७. बल ७८. अतिबल ७९. भद्रबल ८०. नन्दी ८१. महाभागी ८२. नन्दिमित्र ८३. कामदेव और ८४. अनुपम ये। सभी गणधर सर्व ऋद्धियों से विभूषित और मनः पर्ययज्ञान से सहित हैं, चार हजार सात सौ पचास पूर्व ज्ञानधारी हैं, चार हजार सात सौ पचास शिक्षक मुनि हैं, नौ हजार अवधिज्ञानी हैं, बीस हजार छह सौ विक्रिया-ऋद्धि के धारक हैं और बारह हजार सात सौ पचास वादी मुनि हैं, ये सब चौरासी हजार मुनिराज निरन्तर प्रभु की वंदना कर रहे हैं। ब्राह्मी-सुन्दरी आदि तीन लाख पचास हजार आर्यिकाएँ हैं। दृढ़व्रत आदि तीन लाख श्रावक और सुव्रता आदि पाँच लाख श्राविकाएँ हैं। भवनवासी आदि चार प्रकार के असंख्य देव-देवियाँ प्रभु के चरण कमलों का स्तवन कर रहे हैं। अगणित तिर्यंच जीव वहाँ बैठे हुए हैं। यह सब क्रूर हिंसक भाव को छोड़कर शान्त भाव से प्रभु का उपदेश सुन रहे हैं। भगवान् एक लाख वर्ष और चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्ष पर्यंत पृथ्वी पर श्री विहार कर धर्मोपदेश कर चुके हैं। अब मात्र आयु के चौदह दिन शेष रह गये हैं तब पौषमास की पूर्णिमा के दिन वैâलाश पर्वत पर जाकर विराजमान हो जाते हैं।
उसी दिन रात्रि में भरत महाराज स्वप्न में देखते हैं कि महामेरु पर्वत अपनी लम्बाई से सिद्ध क्षेत्र तक पहुँच गया। उसी दिन युवराज अर्ककीर्ति भी स्वप्न में देखते हैं कि महौषधि का वृक्ष मनुष्यों के जन्म रूपी रोग को नष्ट कर फिर स्वर्ग को जा रहा है। उसी दिन गृहपति देखते हैं कि एक कल्पवृक्ष निरन्तर लोगों को अभीष्ट फल देकर अब स्वर्ग को जाने के लिए तैयार हुआ है। प्रधान मंत्री देखते हैं कि एक रत्नद्वीप अनेक इच्छुक लोगों को रत्नों का समूह देकर अब आकाश में जाने के लिए उद्यत हो रहा है। सेनापति जयकुमार देखते हैं कि एक सिंह वङ्का के पींजड़े को तोड़कर वैâलाश पर्वत को उल्लंघन करने के लिए तैयार हो गया है। जयकुमार के पुत्र अनन्तवीर्य देखते हैं कि चन्द्रमा तीनों लोकों को प्रकाशित कर ताराओं सहित जा रहा है। सोती हुई सुभद्रा महारानी भी स्वप्न में देखती हैं कि यशस्वती और सुनंदा के साथ बैठी हुई इन्द्राणी बहुत देर तक शोक कर रही है। बनारस के राजा चित्रांगद भी घबराहट के साथ स्वप्न देखते हैं कि सूर्य पृथ्वी तल को प्रकाशित कर आकाश की ओर उड़ा जा रहा है।
इस प्रकार भरत आदि सभी प्रमुख लोग स्वप्न देखते हैं पुनः सुर्योदय होते ही सब अपने-अपने पुरोहित से स्वप्न का फल पूछते हैं। पुरोहित कहते हैं-
‘‘ये स्वप्न, ‘भगवान् ऋषभदेव सभी कर्मों को नष्ट कर अनेक मुनियों के साथ मोक्ष जाने वाले हैं।’ ऐसी सूचना दे रहे हैं।’’
इस प्रकार पुरोहित फल सुना ही रहे हैं कि इतने में ही आनन्द नाम का एक किंकर आकर महाराज भरत से कहता है-
‘‘राजाधिराज! भगवान् ऋषभदेव ने अपनी दिव्य-ध्वनि का संकोच कर लिया है इसलिए संपूर्ण सभा हाथ जोड़कर बैठी हुई है और ऐसा मालूम पड़ रहा है कि मानो सूर्यास्त के समय निमीलित कमलों से युक्त सरोवर ही हो।’’
यह सुनते ही भरत चक्रवर्ती बहुत ही शीघ्र सब लोगों के साथ वैâलाश पर्वत पर पहुँच जाते हैं। वहाँ आकर वे भगवान् की तीन प्रदक्षिणाएँ देते हैं, स्तुति करते हैं और भक्तिपूर्वक अपने हाथ से महामह नाम की पूजा करते हुए वे चौदह दिन तक इसी प्रकार भगवान् की सेवा करते रहे हैं।भगवान् ऋषभदेव पूर्व दिशा की ओर मुँह कर अनेक मुनियों के साथ पर्यंकासन से विराजमान हैं। माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के शुभ मुहूर्त और अभिजित् नक्षत्र में भगवान् तीसरे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नाम के शुक्ल ध्यान में तीनों योगों का निरोध करते हैं पुनः अंतिम गुणस्थान में ठहर कर पाँच लघु अक्षरों के उच्चारण प्रमाण काल में चौथे व्युपरतक्रियानिवर्ति नाम के शुक्ल-ध्यान से अघातिया कर्मों का नाश कर देते हैं। उसी क्षण औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीर नाम कर्म की प्रकृतियों के नष्ट हो जाने से सिद्धत्व पर्याय प्राप्त कर वे सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघु और अव्याबाध इन आठ गुणों से सहित होकर एक समय मात्र में ही लोक शिखर के अग्रभाग पर तनुवातवलय में पहुँच जाते हैं। वहाँ पर वे नित्य, निरन्तर, अपने शरीर से कुछ कम, अमूर्तिक हुए अपनेआत्मसुख में तल्लीन होकर संसार को निरन्तर देखते हुए विराजमान हो जाते हैं।
उसी समय देवेन्द्रों काआसन कम्पायमान होते ही सभी देवेन्द्र, असुरेन्द्र और असंख्य देव-देवीगण भी वहाँ आ जाते हैं। सौधर्म इन्द्र तो पहले से ही वहाँ उपस्थित हैं। सभी मिलकर भगवान् के मोक्ष कल्याणक की पूजा करने की इच्छा से-‘‘यह भगवान् का शरीर अतिशय पवित्र है, उत्कृष्ट है, मोक्ष का साधन है, स्वच्छ और निर्मल हैं१।’’यह विचार कर भगवान् के शरीर को बहुमूल्य पालकी में विराजमान करते हैं। अग्निकुमार देवों के इन्द्र के मुकुट से उत्पन्न हुई अग्नि से उस शरीर का संस्कार करते हैं। उसमें चन्दन, अगुरु, कपूर, केशर आदि सुगन्धित पदार्थ और घी, दूध आदि से उस अग्नि को वृद्धिंगत करते हैं। उस समय उस अग्नि से जगत् में अभूतपूर्व सुगंधि पैâल जाती है। देखते ही देखते प्रभु का वर्तमान शरीर आकार नष्ट हो जाता है वह उस समय दूसरी पर्यायरूप से परिणत हो जाता है।उस काल में भगवान् के अग्निकुण्ड के दाहिनी ओर गणधरों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की गई थी और बायीं ओर सामान्य केवलियों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की गई थी। इस प्रकार इन्द्रों ने उस काल में पृथ्वी पर तीन प्रकार की अग्नि स्थापित करके गन्ध पुष्प आदि से उन अग्नियों की पूजा की थी। यद्यपि अग्नि स्वयं पूज्य नहीं है तथापि तीर्थंकर आदि के शरीर का संस्कार करने वाली ये तीनों कुण्डों की अग्नि पूज्य मानी गई हैं जैसे कि भगवान् के स्पर्श से वैâलाशपर्वत आदि पर्वत पूज्य माने गये हैं१। तदनन्तर वे सौधर्म इन्द्र आदि सभी देवगण पंंचकल्याणक को प्राप्त होने वाले श्री ऋषभदेव के शरीर की भस्म को हाथ में लेकर-’
‘‘हम लोग भी ऐसे ही हों।’’
ऐसा सोचकर बड़ी भक्ति से यह भस्म अपने ललाट पर , दोनों भुजाओं में और वक्षःस्थल में लगाते हैं। वे सब उस भस्म को अत्यन्त पवित्र मानकर धर्मानुराग के रस में तन्मय हे जाते हैं। तत्पश्चात् सब इन्द्रादि मिल करके बहुत ही हर्ष से ‘आनन्द’ नाम का नाटक करते हैं। पुनः श्रावकों को उपदेश देते हैं-‘‘हे सप्तम आदि प्रतिमा को धारण करने वाले सभी ब्रह्मचारियों! तुम लोग तीनों सन्ध्याओं में स्वयं गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्नि इन तीनों अग्नियों की स्थापनाकरो, और उनके समीप ही धर्मचक्र, छत्र तथा जिनेन्द्रदेव की प्रतिमाओं की स्थापना कर तीनों काल मन्त्रपूर्वक उनकी पूजा करो। इस प्रकार गृहस्थों के द्वारा आदर सत्कार पाते हुए अतिथि बनो।’’इत्यादि प्रकार से कहकर देवगण भगवान् के निर्वाण कल्याणक महोत्सव के सम्पन्न कर पुनः-पुनः गणधर आदि गुरुओं को नमस्कार कर अपने-अपने स्वर्ग को चले जाते हैं।
चक्रवर्ती भरत अतिशय प्रबुद्ध हैं, उन्हें क्षायिक सम्यग्दर्शन है, अवधिज्ञान है, तथा वे देशसंयमी हैं। फिर भी उस समय इष्टवियोग से उत्पन्न हुई और स्नेहरूपी घृत से प्रज्वलित हुई शोकरूपी अग्नि उनके चित्त को जला रही है। अर्थातृ शोक से उनका भी चित्त व्याकुल हो रहा है यह देखकर श्रीवृषभसेन गणधर उनका शोक दूर करने की इच्छा से भरत को उपदेश देते हुए अपने सभी के पूर्व भवों को प्रतिपादन करते हुए कहते हैं-‘‘हे भरत! सुनो, भगवान् ऋषभदेव के साथ हम लोगों का कई भवोें से संबंध चला आ रहा है। आज भगवान् ने जैसे निर्वाणधाम को प्राप्त किया है वैसे ही हम सभी उनके पुत्र भी इसी भव से निर्वाण को प्राप्त करेंगे। मैं भगवान् के हमारे, आपके तथा आपके कतिपय भाइयों के और राजा श्रेयांस के पूर्वभवों को सुना रहा हूँ। तुम सावधान होकर सुनो।
इसी जंबूद्वीप के विदेह क्षेत्र में एक गन्धिला नाम का देश है। वहाँ के सिंहपुर नगर में राजा श्रीषेण की सुन्दरी नाम की रानी के जयवर्मा नाम का बड़ा पुत्र था। उसने विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, परन्तु संयम के (भावसंयम के) प्रगट नहीं होने से यह उसी देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी पर ‘अलका’ नाम की नगरी में महाबल का विद्याधर राजा हो गया। वहाँ उसने स्वयंबुद्ध मंत्री के उपदेश से आत्मज्ञान प्राप्त कर आष्टान्हिक पर्व में जिनपूजा करके समाधिमरण से शरीर छोड़ा, उसके प्रभाव से स्वर्ग में ललितांग नाम का देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर राजा वङ्काजंघ हुआ। पुनः दान के प्रभाव से मरण कर उत्तकुरु भोगभूमि में आर्य हो गया। वहाँ ऋद्धिधारी मुनि से सम्यक्तव प्राप्त कर अंत में मर कर स्वर्ग में ‘श्रीधर’ देव हुआ। पुनः सुविधि राजा हुआ, इसके बाद अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हो गया। अनन्तर नवमें भव में राजा वङ्कानाभि हुआ। वहाँ पर संयम धारण कर और तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके सर्र्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गया। वे ही अहमिंद्र यहाँ भगवान् ऋषभदेव हुए हैं।
अब राजा श्रेयांस के भवों को कहता हूँ। पूर्वधातकी खंड में गंधिला देश के पलाल नामक गांव में एक गृहस्थ की पुत्री धनश्री थी। वह कुछ पुण्य के उदय से पुनः उसी देश के पाटली गांव के एक वणिक की निर्नामिका नाम की पुत्री हो गई, वहाँ उसने ‘पिहितास्रव’ नाम के महामुनि से जिनेंद्रगुणसंपत्ति और श्रुतज्ञान नाम के व्रतों को ग्रहण कर विधिवत् उपवास किया उससे वह कन्या स्वर्ग में स्वयंप्रभा नाम की देवी होकर भगवान् वृषभदेव के जीव ललितांग देव की प्रिय वल्लभा हुई। वहाँ से चयकर राजा वङ्काजंघ की रानी श्रीमती हो गई। इन्हीं वङ्काजंघ और श्रीमती नेचारणयुगल मुनियों को आहार दान दिया था। जिसका स्मरण राजा श्रेयांस को भगवान् के आहार दान के समय हो आया था। पुनः यह रानी श्रीमती दान के प्रभाव से भोगभूमि में उन्हीं वङ्काजंघ आर्य की पत्नी हो गई। वहाँ पर मुनिराज से सम्यक्त्व प्राप्त कर स्त्रीपर्याय से छूटकर वह आर्या स्वर्ग में स्वयंप्रभ देव हो गया। वहाँ से च्युत होकर सातवें भव में केशव हुआ, आठवें भव में अच्युत स्वर्ग की प्रतीन्द्र हुआ, नवमें भव में धनदत्त हुआ, दशवें भव में अहमिंद्र हुआ पुनः ग्यारहवें भव में राजा श्रेयांस होकर दान तीर्थ का प्रवर्तक हुआ है।
हे राजन् ! आपके भी नव भवों को कहता हूँ। इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्सकावती नाम का देश है। उसमें एक प्रभाकारी नाम की नगरी है। वहाँ का राजा अतिगृद्ध अपने नाम के अनुसार ही विषयों में अति आसक्त था। उसने अधिक आरंभ और परिग्रह में पँâसकर नरकायु बाँध ली। अन्त में मरकर चौैथे नरक में चला गया। वहाँ दुःखों को भोगकर वहाँ से निकला तब यहाँ मध्यलोक में उसी प्रभाकरी नगरी के समीप ही एक पर्वत पर व्याघ्र हो गया चूँकि उसने राजा की पर्याय मेंं उसी पर्वत पर बहुत सा धन गाड़ रखा था उसी संस्कार से वह उसी पर्वत पर रहा करता था।
एक दिन उस नगरी के राजा प्रीतिवर्धन कारणवश वहाँ पर्वत पर ठहरे थे। उन्होंने वहीं पर पिहितास्रव नाम के एक मासोपवासी महामुनि को आहार दान दिया। उसके फल से वहाँ पर देवों ने पंचाश्चर्य बरसाये। उस समय वहाँ देवदुन्दुभि आदि को सुनकर उस व्याघ्र को जातिस्मरण हो गया। जिससे उसने शान्तभाव धारण कर शरीर से ममत्व छोड़कर सल्लेखना धारण कर ली। धर्म के प्रेम से उन महामुनि ने भी आकर उसे विधिवत् सल्लेखना दे दी और राजा प्रीतिवर्धन को उसकी सेवा करने का आदेश देकर वे विहार कर गये। वह व्याघ्र संन्यासविधि से मरकर स्वर्ग में दिवाकर प्रभ नाम का देव हो गया। पाँचवे भव में वही देव राजा वङ्काजंघ का मतिवर नाम का मंत्री हो गया। वहाँ पर तपश्चरण करके छहे भव में अहमिन्द्र हो गया। सातवें भव में सुबाहु हुआ, आठवें भव में अहमिन्द्र हुआ। पुनः नवमें में वहीं अहमिन्द्र का जीव तू भरत चक्रवर्ती हुआ है।
जिस समय राजा वङ्काजंघ वन में चारणयुगल मुनियों को आहार दे रहे थे। उस समय उनके मतिवर नाम के मंत्री, अकंपन नाम के सेनापति, आनन्द नाम के पुरोहित और धनमित्र नाम के सेठ थे वे चारों भी आहार देख रहे थे। उसी समय नेवला, सिंह, वानर, और सूकर ये चार पशु भी बड़े ही भक्ति भाव से मुनिराज का आहार देख रहे थे। इन चारों पशुओं ने भी आहारदान की अनुमोदना से महान् पुण्य बंध लिया था। आयु के अंत में वे चारों ही मरकर भोगभूमि में आर्य हो गये थे तथा वे मंत्री सेनापति आदि भी उसी भव में दीक्षा लेकर अंत में संन्यास से मरणकर अहमिन्द्र हो गये थे। उनमें से मतिवर मंत्री के जीव तुम भरत हुए हो। अकंपन सेनापति का जीव ही कई भवों बाद भगवान् वृषभदेव का द्वितीय पुत्र बाहुबली हुआ है। आनन्द नाम के पुरोहित का जीव ही मैं भगवान् का तृतीय पुत्र वृषभसेन होकर भगवान् का ही प्रथम गणधर हुआ हूँ। धनमित्र सेठ का जीव भगवान् का पुत्र अनन्तविजय होकर उन्हीं का गणधर हुआ है। आहार देखने वाले सिंह, नेवला, वानर और सूकर के जीव भी इस भव में भगवान् के ही पुत्र हुए हैं।
हम और आप सभी आठ दश भवों तक भगवान् के साथ ही देव और मनुष्य के सुखों का अनुभव करते रहे हैं। हम सभी उन्हीं के पावन तीर्थ में कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त करेंगे। इसलिए हे भरत! संसार की स्थिति का विचार करने में कुशल होते हुए तुम आज खिन्न हृदय क्यों हो रहे हो? भगवान् ऋषभदेव तो आठों कर्मों को नष्ट कर अनुपम अविनाशी सौख्य को प्राप्त कर चुके हैं फिर भला संतोष के स्थान पर विषाद क्यों करना? पूज्य पिता का वियोग हो जाने से यदि तुम शोक करते हो तो बताओ ये इन्द्रादि सभी देवगण जन्म से पहले से ही भगवान् की अतिशय सेवा कर रहे थे पुनः ये उनके शरीर को जलाकर आनन्द नृत्य महोत्सव क्यों कर रहे थे?यदि तुम सोच रहे हो कि अब यह भगवान् हमें नेत्रों से दिखाई नहीं देंगे तो भी वे भगवान् अब हृदय में विद्यमान हैं। तुम अपने हृदय में सदैव उनको देखते रहो। हे निधिपते! अब तुम शीघ्र ही शोकरूपी अग्नि को निर्मल ज्ञानरूपी जल से शांत करो। देखो, इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग आदि होना यह तो संसार का स्वभाव ही है।’’ इत्यादि प्रकार से श्री वृषभसेन गणधर से संबोध प्राप्त कर महाराज भरत अपने मन के शोक को दूर कर शांत चित्त हो पुनः-पुनः सभी गुरुओं के चरणों में प्रणाम करते हैं पुनः अपने हृदय में भगवान् के प्रतिबिंब को विराजमान करके उनके पंचकल्याण वैभव और अनुपम गुणों का अतिशयरूप से चिंतवन करते हुए अयोध्यापुरी की ओर प्रस्थान कर देते हैं।
भगवान् ऋषभदेव की आयु चौरासी लाख वर्ष पूर्व की थी। उसमें बीस लाख वर्ष पूर्व तक उनका कुमार काल रहा है। तिरेसठ लाख वर्ष पूर्व तक राज्यकाल रहा है। दीक्षा लेने के बाद छद्मस्थ काल एक हजार वर्ष का था, पुनः प्रभु का केवलीकाल एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष प्रमाण रहा है।
जब चतुर्थ काल में तीन वर्ष साढ़े आठ माह काल शेष रह गया था तभी भगवान् मोक्ष को चले गये थे।
इस तरह प्रथम तीर्थंकर तृतीय काल में ही जन्मे हैं और तृतीय काल में ही मोक्ष गये हैं। इनके शरीर की अवगाहना पाँच सौ धनुष (२००० हाथ) प्रमाण थी, शरीर का वर्ण तपाये हुए स्वर्ण के समान था और इनका चिह्न वृषभ-बैल का माना गया है।
इस युग के आदि में जन्म लेकर प्रभु ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य इन छह प्रकार की आजीविका का उपाय बताया, पुनः श्रावकों की देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह क्रियाओं का तथा सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छह प्रकार की मुनियों की क्रियाओं का उपदेश देकर मोक्षमार्ग का विधान किया था। इसलिए वे प्रभु ऋषभदेव ‘आदिब्रह्मा’ युग स्रष्टा, युगादिपुरुष, विधि और विधाता आदि नामों से पुकारे गए हैं। ऐसे ये ‘आदिब्रह्मा’ भगवान् आदिनाथ महाराज नाभिराज के पुत्र होकर भी स्वयंभू हैं, समस्त परिग्रह को त्याग करने के बाद भी सबके स्वामी हैं और स्वयं किसी को गुरु न बनाने पर भी तीन लोक के एक गुरु हैं। वे ‘आदिब्रह्मा’ हम सबकी तथा सम्पूर्ण विश्व की रक्षा करें और सबको सुख-शांति प्रदान करें। उनका यह लोकोत्तर चरित्र भी युग-युग तक भव्य जीवों के शिवपथ को प्रशस्त करता हुआ युग-युगों तक जयशील होता रहे।
।।इति शं भूयात् ।।
इस जम्बूद्वीप के अतिशय प्रसिद्ध पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर ‘वत्स’ नाम का विशाल देश है। उसके सुसीमा नामक नगर में विमलवाहन राजा राज्य करते थे। किसी समय राज्य लक्ष्मी से निस्पृह होकर राजा विमलवाहन ने अनेकों राजाओं के साथ गुरू के समीप में दीक्षा धारण कर ली। ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त कर दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन करके तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। आयु के अन्त में समाधिमरण करके विजय नामक अनुत्तर विमान में तेंतीस सागर आयु के धारक अहमिंद्र हो गये।
पंचकल्याणक वैभव-इन महाभाग के स्वर्ग से पृथ्वी तल पर अवतार लेने के छह माह पूर्व से ही प्रतिदिन जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी के अधिपति इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्रीय राजा जितशत्रु के घर में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। ज्येष्ठ मास की अमावस के दिन विजयसेना ने सोलह स्वप्नपूर्वक भगवान को गर्भ में धारण किया और माघ शुक्ल दशमी के दिन अजितनाथ तीर्थंकर को जन्म दिया। देवों ने ऋषभदेव के समान इनके भी गर्भ, जन्म कल्याणक महोत्सव मनाये। अजितनाथ की आयु बहत्तर लाख पूर्व की, शरीर की ऊँचाई चार सौ पचास धनुष की और वर्ण सुवर्ण सदृश था। एक लाख पूर्व कम अपनी आयु के तीन भाग तथा एक पूर्वांग तक उन्होंने राज्य किया। किसी समय भगवान महल की छत पर सुख से विराजमान थे तब उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य हो गया पुन: देवों द्वारा आनीत ‘सुप्रभा’ पालकी पर आरूढ़ होकर माघ शुक्ल नवमी के दिन सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे एक हजार राजाओं के साथ बेला का नियम लेकर दीक्षित हो गये।
प्रथम पारणा में साकेत नगरी के ब्रह्म राजा ने पायस का आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये।
बारह वर्ष की छद्मस्थ अवस्था के बाद पौष शुक्ल एकादशी के दिन सायं के समय रोहिणी नक्षत्र में सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे केवलज्ञान को प्राप्त कर सर्वज्ञ हो गये। इनके समवसरण में सिंहसेन आदि नब्बे गणधर थे। एक लाख मुनि, प्रकुब्जा आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पांच लाख श्राविकायें और असंख्यात देव देवियाँ थीं। भगवान बहुत काल तक आर्य खंड में विहार करके भव्यों को उपदेश देकर अंत में सम्मेदाचल पर पहुँचे और एक मास का योग निरोध कर चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन प्रात:काल के समय सर्वकर्म से छूटकर सिद्ध पद प्राप्त किया।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर एक ‘कच्छ’ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में राजा विमलवाहन राज्य करता था। एक दिन वह किसी कारण से विरक्त होकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों को पढ़कर उन्हीं भगवान के चरण सान्निध्य में सोलह कारण भावनाओं द्वारा तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लिया। संन्यासविधि से मरण कर प्रथम ग्रैवेयक के सुदर्शन विमान में तेतीस सागर आयु वाला अहमिन्द्र देव हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की ‘श्रावस्ती’ नगरी के राजा दृढ़राज इक्ष्वाकुवंशीय, काश्यपगोत्रीय थे। उनकी रानी का नाम सुषेणा था। फाल्गुन शुक्ला अष्टमी के दिन, मृगशिरानक्षत्र में रानी ने पूर्वोक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया और कार्तिक शुक्ला पौर्णमासी के दिन मृगशिरा नक्षत्र में तीन ज्ञानधारी पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र ने पूर्वोक्त विधि से गर्भकल्याणक मनाया था, उस समय जन्मोत्सव करके ‘संभवनाथ’ यह नाम रखा। इनकी आयु साठ लाख पूर्व की तथा ऊँचाई चार सौ धनुष थी। भगवान को राज्य सुख का अनुभव करते हुए जब चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वांग व्यतीत हो चुके तब किसी दिन मेघों का विभ्रम देखने से उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हो गया। तब भगवान देवों द्वारा लाई गई ‘सिद्धार्थ’ पालकी में बैठकर सहेतुक वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे जाकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। भगवान की प्रथम पारणा का लाभ श्रावस्ती के राजा सुरेन्द्रदत्त ने प्राप्त किया था। संभवनाथ भगवान चौदह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्था में मौन से तपश्चरण करते हुए दीक्षा वन में शाल्मली वृक्ष के नीचे कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन मृगशिर नक्षत्र में अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर केवली हो गये। इनके समवसरण में चारूषेण आदि एक सौ पाँच गणधर थे। दो लाख मुनि, धर्मार्या आदि तीन लाख बीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अन्त में जब आयु का एक माह अवशिष्ट रहा तब उन्होंने सम्मेदाचल पर जाकर एक हजार राजाओं के साथ प्रतिमायोग धारण किया तथा चैत्रमास के शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन सूर्यास्त के समय मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया। देवों द्वारा किये गये पंचकल्याणक महोत्सव को पूर्ववत् समझना चाहिए।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक मंगलावती देश है उसके रत्नसंचय नगर में महाबल राजा रहता था। किसी दिन विरक्त होकर विमलवाहन गुरू के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंग का पठन करके सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन किया, तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके अन्त में समााfधमरणपूर्वक विजय नाम के अनुत्तर विमान में तेतीस सागर आयु वाला अहमिन्द्र देव हो गया।पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अयोध्या नगरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्रीय ‘स्वयंवर’ नाम के राजा थे उनकी ‘सिद्धार्था’ महारानी थी। माता ने वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन उस अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया और माघ शुक्ला द्वादशी के दिन उत्तम पुत्र को उत्पन्न किया। सौधर्म इन्द्र ने देवों सहित मेरू पर्वत पर जन्म महोत्सव मनाया और भगवान का ‘अभिनन्दननाथ’ नाम प्रसिद्ध करके वापस माता-पिता को सपि गये। उनकी आयु पचास लाख पूर्व और ऊँचाई साढ़े तीन सौ धनुष की थी। कुमार काल के साढ़े बारह लाख पूर्व बीत जाने पर राज्य पद को प्राप्त हुए, राज्य काल के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व वर्ष व्यतीत हो गये और आठ पूर्वांग शेष रहे तब वे एक दिन आकाश में मेघों का महल नष्ट होता देखकर विरक्त हो गये और देवनिर्मित ‘हस्तचित्रा’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर माघ शुक्ला द्वादशी के दिन वेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ जिनदीक्षा धारण कर ली उसी समय उन्हें मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। पारणा के दिन साकेत नगरी के राजा इन्द्रदत्त ने भगवान को क्षीरान्न का आहार कराया और पंचाश्चर्य को प्राप्त किया।
छद्मस्थ अवस्था के अठारह वर्ष बीत जाने पर दीक्षा वन में असन वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुए। पौष शुक्ल चतुर्दशी के दिन शाम के समय पुनर्वसु नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। इनके समवसरण में वङ्कानाभि आदि एक सौ तीन गणधर, तीन लाख मुनि, मेरूषेणा आदि तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यातों देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच बारह सभा में बैठकर धर्मोपदेश श्रवण करते थे।इन अभिनन्दननाथ भगवान ने अन्त में सम्मेदशिखर पर पहुँचकर एक महीने का प्रतिमायोग लेकर वैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन प्रात:काल के समय अनेक मुनियों के साथ मोक्ष प्राप्त किया। इन्द्रों के द्वारा किये गये सारे वैभव यहाँ भी समझना चाहिए।
धातकी खंड द्वीप में मेरूपर्वत से पूर्व की ओर स्थित विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावती नाम का देश है। उसकी पुंडरीकिणी नगरी में रतिषेण नाम का राजा था। किसी दिन राजा विरक्त होकर अपना राज्य अतिरथ ने पुत्र को देकर अर्हन्नन्दन जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि कारणों से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।पंचकल्याणक वैभव-वैजयन्त विमान से च्युत होकर वह अहमिन्द्र इसी भरत क्षेत्र के अयोध्यापति मेघरथ की रानी मंगलावती के गर्भ में आया वह दिन श्रावण शुक्ल द्वितीया का था। तदनन्तर चैत्र माह की शुक्ला एकादशी के दिन माता ने सुमतिनाथ तीर्थंकर को जन्म दिया। वैशाख सुदी नवमी के दिन प्रात:काल सहेतुक वन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। छद्मस्थ अवस्था में बीस वर्ष बिताकर सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे चैत्र शुक्ल एकादशी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त किया। इनकी सभा में एक सौ सोलह गणधर, तीन लाख बीस हजार मुनि, अनन्तमती आदि तीन लाख तीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकायें थीं। अन्त में भगवान ने सम्मेदाचल पर पहुँचकर एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में शाम के समय निर्वाण प्राप्त किया। सारे पंचकल्याणक महोत्सव आदि पूर्ववत् समझना ।
धातकीखंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीतानदी के दक्षिण तट पर वत्सदेश है। उसके सुसीमा नगर के अधिपति अपराजित थे। किसी दिन भोगों से विरक्त होकर पिहिता व जिनेन्द्र के पास दीक्षा धारण कर ली, ग्यारह अंगों का अध्ययन कर तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में ऊर्ध्व ग्रैवेयक के प्रीतिंकर विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप की कौशाम्बी नगरी में धरण महाराज की सुसीमा रानी ने माघ कृष्ण षष्ठी के दिन उक्त अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन पुत्ररत्न को उत्पन्न किया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद उनका नाम ‘पद्मप्रभ’ रखा। किसी समय दरवाजे पर बंधे हुए हाथी की दशा सुनने से उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो गया जिससे भगवान को वैराग्य हो गया। वे देवों द्वारा लाई गई ‘निवृत्ति’ नाम की पालकी पर बैठ मनोहर नाम के वन में गये और कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली। छह मास छद्मस्थ अवस्था के व्यतीत हो जाने पर चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन मध्या में केवलज्ञान प्रकट हो गया। बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन सम्मेदाचल से मोक्ष को प्राप्त कर लिया।
धातकीखंड के पूर्व विदेह में सीतानदी के उत्तर तट पर सुकच्छ नाम का देश है, उसके क्षेमपुर नगर में नन्दिषेण राजा राज्य करता था। कदाचित् भोगों से विरक्त होकर नन्दिषेण राजा ने अर्हन्नन्दन गुरू के पास दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन कर दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। सन्यास से मरण कर मध्यम गै्रवेयक के सुभद्र नामक मध्यम विमान में अहमिन्द्र हो गये।पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भारतवर्ष सम्बन्धी काशीदेश में बनारस नाम की नगरी थी उसमें सुप्रतिष्ठित महाराज राज्य करते थे। उनकी पृथ्वीषेणा रानी के गर्भ में भगवान भाद्रपद शुक्ल षष्ठी के दिन आ गये। अनन्तर ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन उस अहमिन्द्र पुत्र को उत्पन्न किया। इन्द्र ने जन्मोत्सव के बाद सुपार्श्वनाथ नाम रखा। सभी तीर्थंकरों को अपनी आयु के प्रारम्भिक आठ वर्ष के बाद देशसंयम हो जाता है। किसी समय भगवान ऋतु का परिवर्तन देखकर वैराग्य को प्राप्त हो गये। तत्क्षण देवों द्वारा लाई गई ‘मनोगति’ पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में जाकर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन वेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। सोमखेट नगर के महेन्द्रदत्त राजा ने भगवान को प्रथम आहारदान दिया। छद्मस्थ अवस्था के नौ वर्ष व्यतीत कर फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। आयु अन्त के एक माह पहले सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का प्रतिमायोग लेकर फाल्गुन कृष्णा सप्तमी के दिन सूर्योदय के समय मोक्ष को चले गये।
इस मध्यलोक के पुष्कर द्वीप में पूर्व मेरू के पश्चिम की ओर विदेह क्षेत्र में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर एक ‘सुगन्धि’ नाम का देश है। उस देश के मध्य में श्रीपुर नाम का नगर है। उसमें इन्द्र के समान कांति का धारक श्रीषेण राजा राज्य करता था। उसकी पत्नी धर्मपरायणा श्रीकांता नाम की रानी थी। दम्पत्ति पुत्र रहित थे अत: पुरोहित के उपदेश से पंच वर्ण के अमूल्य रत्नों से जिन प्रतिमायें बनवाईं, आठ प्रातिहार्य आदि से विभूषित इन प्रतिमाओं की विधिवत् प्रतिष्ठा करवाई, पुन: उनके गंधोदक से अपने आपको और रानी को पवित्र किया और आष्टा िकी महापूजा विधि की। कुछ दिन पश्चात् रानी ने उत्तम स्वप्नपूर्वक गर्भधारण किया पुन: नवमास के बाद पुत्र को जन्म दिया। बहुत विशेष उत्सव के साथ उसका नाम ‘श्रीवर्मा’ रखा गया।
किसी समय ‘श्रीपद्म’ जिनराज से धर्मोपदेश को ग्रहण कर राजा श्रीषेण पुत्र को राज्य देकर दीक्षित हो गया। एक समय राजा श्रीवर्मा भी आषाढ़ मास की पूर्णिमा के दिन जिनपूजा महोत्सव करके अपने परिवारजनों के साथ महल की छत पर बैठा था कि आकस्मिक उल्कापात देखकर विरक्त होकर श्रीप्रभ जिनेन्द्र के समीप दीक्षा लेकर श्रीप्रभ पर्वत पर सन्यास मरण करके प्रथम स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधर नाम का देव हो गया।धातकीखंड द्वीप की पूर्व दिशा में जो इष्वाकार पर्वत है उसके दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र में एक ‘अलका’ देश है। उसमें अयोध्या नगर है उस नगर के अजितंजय राजा की अजितसेना रानी ने किसी समय उत्तम स्वप्न देखे और नवमास बाद श्रीधर देव को जन्म दिया। उसका नाम ‘अजितसेन’ रखा गया। पुण्य के उदय से अजितसेन ने चक्रवर्ती के चक्ररत्न और वैभव को प्राप्त कर लिया। श्रद्धा आदि गुणों से सम्पन्न राजा ने किसी समय एक मास का उपवास करने वाले अरिन्दम साधु को आहार दान देकर महान पुण्य बन्ध कर लिया था। दूसरे दिन वह राजा गुप्तप्रभ जिनेन्द्र की वन्दना के लिए मनोहर नामक उद्यान में गया। भगवान के मुख से अपने पूर्व भव सुनकर विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। आयु के अन्त में नभस्तिलक पर्वत के अग्रभाग पर शरीर छोड़कर सोलहवें स्वर्ग में इन्द्र हो गया।
पूर्व धातकीखंड द्वीप में सीता नदी के दाहिने तट पर एक मंगलावती नाम का देश है। इसके रत्नसंचय नगर में कनकप्रभ राजा राज्य करते थे उनकी कनकमाला रानी थी। वह अच्युतेन्द्र वहाँ से आकर इन दोनों के पद्मनाभ नाम का पुण्यशाली पुत्र हुआ। किसी समय पद्मनाभ राजा श्रीधर मुनि के समीप धर्मोपदेश श्रवण कर दीक्षित हो गये, सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन कर ग्यारह अंग में पारंगत होकर सिंहनि:क्रीडित आदि कठिन-कठिन तप करने लगे। तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके आयु के अन्त में विधिवत् मरण करके वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हो गये। इनके श्रीवर्मा, श्रीधरदेव, अजितसेन चक्रवर्ती, अच्युतेन्द्र, पद्मनाभ, अहमिन्द्र, चन्द्रप्रभ भगवान ये सात भव प्रसिद्ध हैं।पंचकल्याणक वैभव-अनन्तर जब इनकी छह माह की आयु बाकी रह गई तब जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में चन्द्रपुर नगर के महासेन राजा की लक्ष्मणा महादेवी के यहाँ रत्नों की वर्षा होने लगी। चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गर्भकल्याणक महोत्सव हुआ एवं पौष कृष्ण एकादशी के दिन भगवान चन्द्रप्रभ का जन्म हुआ। किसी समय दर्पण में अपना मुख देख रहे थे कि भोगों से विरक्त होकर देवों द्वारा लाई गई ‘विमला’ नाम की पालकी पर बैठकर सर्वर्तुक वन में गये। वहाँ पौष कृष्ण एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। पारणा के दिन नलिन नामक नगर में सोमदत्त के यहाँ आहार हुआ था। तीन माह का छद्मस्थ काल व्यतीत कर भगवान दीक्षा वन में नाग वृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। ये चन्द्रप्रभ भगवान समस्त आर्य देशों में विहार कर धर्म की प्रवृत्ति करते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँचे। एक माह तक प्रतिमायोग से स्थित होकर फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में सायंकाल के समय शुक्लध्यान के द्वारा सर्वकर्म को नष्ट कर सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व दिग्भाग में जो मेरू पर्वत है उसके पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर पुष्कलावती नाम का एक देश है उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में महापद्म नाम का राजा राज्य करता था। किसी दिन भूतहित जिनराज की वंदना करके धर्मोपदेश सुनकर विरक्तमना राजा दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगरूपी समुद्र का पारगामी होकर सोलहकारण भावनाओं से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया और समाधिमरण के प्रभाव से प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की काकन्दी नगरी में इक्ष्वाकु वंशीय काश्यप गोत्रीय सुग्रीव नाम का क्षत्रिय राजा था, उनकी जयरामा नाम की पट्टरानी थी। उन्होंने फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन ‘प्राणतेन्द्र’ को गर्भ में धारण किया और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्र को जन्म दिया। इन्द्र ने बालक का नाम ‘पुष्पदन्त’ रखा। पुष्पदन्तनाथ राज्य करते हुए एक दिन उल्कापात से विरक्ति को प्राप्त हुए तभी लौकान्तिक देवों से स्तुत्य भगवान इन्द्र के द्वारा लाई गई ‘सूर्यप्रभा’ पालकी में बैठकर मगसिर सुदी प्रतिपदा को दीक्षित हो गये। शैलपुर नगर के पुष्पमित्र राजा ने भगवान को प्रथम आहार दान दिया था। छद्मस्थ अवस्था के चार वर्ष के बाद नाग वृक्ष के नीचे विराजमान भगवान को कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन केवलज्ञान प्राप्त हो गया। आर्यदेश में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए भगवान अन्त में सम्मेदशिखर पहुँचकर भाद्रपद शुक्ला अष्टमी के दिन सर्व कर्म से मुक्ति को प्राप्त हो गये।
पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध भाग में मेरू पर्वत के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर ‘वत्स’ नाम का एक देश है, उसके सुसीमा नगर में पद्मगुल्म नाम का राजा रहता था। किसी समय बसन्त ऋतु की शोभा समाप्त होने के बाद राजा को वैराग्य हो गया और आनन्द नामक मुनिराज के पास दीक्षा लेकर विपाकसूत्र तक अंगों का अध्ययन किया, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके आरण नामक स्वर्ग में इन्द्र हो गया।पंंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मलयदेश के द्रपुर नगर का स्वामी दृढ़रथ राज्य करता था, उसकी महारानी का नाम सुनन्दा था। रानी सुनन्दा ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उस आरणेन्द्र को गर्भ में धारण किया एवं माघ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शीतलनाथ को जन्म दिया। भगवान ने किसी समय वन विहार करते हुए क्षणभर में पाले के समूह (कुहरा) को नष्ट हुआ देखकर राज्यभार अपने पुत्र को सपिकर देवों द्वारा लाई गई ‘शुक्रप्रभा’ नाम की पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में पहुंचे और माघ कृष्ण द्वादशी के दिन स्वयं दीक्षित हो गये। अरिष्ट नगर के पुनर्वसु राजा ने उन्हें प्रथम खीर का आहार दिया था। अनन्तर छद्मस्थ अवस्था के तीन वर्ष बिताकर पौष कृष्ण चतुर्दशी के दिन बेल वृक्ष के नीचे केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। अन्त में सम्मेदशिखर पहुँच कर एक माह का योग निरोध कर आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन कर्म शत्रुओं को नष्ट कर मुक्तिपद को प्राप्त हो गये।
पुष्करार्ध द्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के सुकच्छ देश में सीता नदी के उत्तर तट पर क्षेमपुर नाम का नगर है। उसमें नलिनप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। एक समय सह ाम्रवन में श्री अनन्त जिनेन्द्र पधारे। उनके धर्मोपदेश से विरक्तमना राजा बहुत से राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके समाधिमरणपूर्वक अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में अच्युत नाम का इन्द्र हुआ।
पंचकल्याणक वैभव-इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्वामी इक्ष्वाकुवंश से प्रसिद्ध ‘विष्णु’ नाम का राजा राज्य करता था। उसकी वल्लभा का नाम सुनन्दा था। ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में उस अच्युतेन्द्र ने माता के गर्भ में प्रवेश किया। सुनन्दा ने नौ मास बिताकर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन तीन ज्ञानधारी भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने उसका नाम ‘श्रेयांसनाथ’ रखा। किसी समय बसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर भगवान को वैराग्य हो गया, तदनन्तर देवों द्वारा उठाई जाने योग्य ‘विमलप्रभा’ पालकी पर विराजमान होकर मनोहर नामक उद्यान में पहुँचे और फाल्गुन शुक्ल एकादशी के दिन हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। दूसरे दिन सिद्धार्थ नगर के नन्द राजा ने भगवान को खीर का आहार दिया। छद्मस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर मनोहर नामक उद्यान में तुंबुरू वृक्ष के नीचे माघ कृष्णा अमावस्या के दिन सायंकाल के समय भगवान को केवलज्ञान प्रगट हो गया। धर्म का उपदेश देते हुए सम्मेदशिखर पर पहुँच कर एक माह तक योग का निरोध करके श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन भगवान श्रेयांसनाथ नि:श्रेयसपद को प्राप्त हो गये।
पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरू की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती नाम का देश है। उसके अतिशय प्रसिद्ध रत्नपुर नगर में पद्मोत्तर नाम का राजा राज्य करता था। किसी दिन मनोहर नाम के पर्वत पर युगन्धर जिनेन्द्र विराजमान थे। पद्मोत्तर राजा वहाँ जाकर भक्ति, स्तोत्र, पूजा आदि करके अनुपे्रक्षाओं का चिन्तवन करते हुए दीक्षित हो गया। ग्यारह अंगों का अध्ययन करके दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं की सम्पत्ति से तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध कर लिया। जिससे महाशुक्र विमान में महाशुक्र नामका इन्द्र हुआ।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में चम्पानगर में ‘अंग’ नाम का देश है जिसका राजा वसुपूज्य था और रानी जयावती थी। आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन रानी ने पूर्वोक्त इन्द्र को गर्भ में धारण किया और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन पुण्यशाली पुत्र को उत्पन्न किया। इन्द्र ने जन्म उत्सव करके पुत्र का ‘वासुपूज्य’ नाम रखा। जब कुमार काल के अठारह लाख वर्ष बीत गये तब संसार से विरक्त होकर भगवान जगत के यथार्थस्वरूप का विचार करने लगे। तत्क्षण ही देवों के आगमन हो जाने पर देवों द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर मनोहर नामक उद्यान में गये और फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन छह सौ छिहत्तर राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर भगवान ने कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठकर माघ शुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। भगवान बहुत समय तक आर्यखंड में विहार कर चम्पानगरी में आकर एक वर्ष तक रहे। जब आयु में एक माह शेष रह गया तब योग निरोध कर रजतमालिका नामक नदी के किनारे की भूमि पर वर्तमान चम्पापुरी नगरी में स्थित मन्दारगिरि के शिखर को सुशोभित करने वाले मनोहर उद्यान में पर्यंकासन से स्थित होकर भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन चौरानवे मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए।
पश्चिम धातकीखंड द्वीप में मेरू पर्वत से पश्चिम की ओर सीता नदी के दक्षिण तट पर रम्यकावती नाम का एक देश है। उसके महानगर में पद्मसेन राजा राज्य करता था। किसी एक दिन राजा पद्मसेन ने प्रीतिंकर वन में स्वर्गगुप्त केवली के समीप धर्म का स्वरूप जाना और यह भी जाना कि ‘म् ितीसरे भव में तीर्थंकर होऊँगा।’ उस समय उसने ऐसा उत्सव मनाया कि मानों म् ितीर्थंकर ही हो गया हूँ। अनन्तर सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। अन्त में सह ार स्वर्ग में सह ार इन्द्र हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इसी भरत क्षेत्र के कांपिल्य नगर में भगवान ऋषभदेव का वंशज कृतवर्मा नाम का राजा राज्य करता था। जयश्यामा उसकी प्रसिद्ध महादेवी थी। उसने ज्येष्ठ कृष्ण दशमी के दिन उस इन्द्र को गर्भ में धारण किया, माघ कृष्ण चतुर्थी के दिन जयश्यामा ने तीन लोक के गुरू भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने उनका नाम ‘विमलनाथ’ रखा।
एक दिन भगवान ने हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण में विलीन होते हुए देखा, जिससे उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। तत्क्षण ही भगवान विरक्त हो गये। तदनन्तर देवों द्वारा लाई गई ‘देवदत्ता’ पालकी पर बैठकर सहेतुक वन में गये और स्वयं दीक्षित हो गये, उस दिन माघ शुक्ला चतुर्थी थी। जब तपश्चर्या करते हुए तीन वर्ष बीत गये तब भगवान दीक्षावन में जामुन वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ होकर घातिया कर्मों का नाशकर माघ शुक्ल षष्ठी के दिन केवली हो गये। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का योग निरोध कर आठ हजार छह सौ मुनियों के साथ आषाढ़ कृष्ण अष्टमी के दिन सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
धातकी खंड द्वीप के पूर्व मेरू से उत्तर की ओर अरिष्टपुर नगर में पद्मरथ राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप जाकर वंदना भक्ति आदि करके धर्मोपदेश सुना और विरक्त हो दीक्षा ले ली। ग्यारह अंगरूपी सागर का पारगामी होकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध किया। अन्त में सल्लेखना से मरण कर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में इन्द्रपद प्राप्त किया।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भारत की अयोध्या नगरी में इक्ष्वाकुवंशी सिंहसेन महाराज राज्य करते थे, उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था। कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा के दिन वह अच्युतेन्द्र रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ। नव माह के बाद ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन पुत्र उत्पन्न हुआ। इन्द्र ने पुत्र का नाम ‘अनन्तनाथ’ रखा। भगवान को राज्य करते हुए पन्द्रह लाख वर्ष बीत गये तब एक दिन उल्कापात देखकर भगवान विरक्त हो गये। भगवान देवों द्वारा निर्मित पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये तथा ज्येष्ठ कृष्ण द्वादशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। छद्मस्थावस्था के दो वर्ष बीत जाने पर चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। अन्त में सम्मेदशिखर पर जाकर एक माह का योग निरोध कर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन परमपद को प्राप्त कर लिया।
पूर्व धातकी खंड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है, उसमें सुसीमा नाम का महानगर है। वहां पर राजा दशरथ राज्य करता था। एक बार वैशाख शुक्ला पूर्णिमा के दिन सब लोग उत्सव मना रहे थे। उसी समय चन्द्रग्रहण पड़ा देख कर राजा दशरथ का मन भोगों से विरक्त हो गया। उसने दीक्षा लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करके अन्त में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गया।
पंचकल्याणक वैभव-इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में एक रत्नपुर नाम का नगर था उसमें कुरूवंशीय काश्यपगोत्रीय महाविभव सम्पन्न भानु महाराज राज्य करते थे उनकी रानी का नाम सुप्रभा था। रानी सुप्रभा के गर्भ में वह अहमिन्द्र वैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन अवतीर्ण हुए और माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी ने भगवान को जन्म दिया। इन्द्र ने धर्मतीर्थ प्रवर्तक भगवान को ‘धर्मनाथ’ कहकर सम्बोधित किया था। किसी एक दिन उल्का के देखने से भगवान विरक्त हो गये और नागदत्ता नाम की पालकी में बैठकर शालवन के उद्यान में पहुँचे। माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षित हो गये। तदनन्तर छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर दीक्षावन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे पौष शुक्ल पूर्णिमा के दिन केवलज्ञान को प्राप्त हो गये। आर्यखण्ड में सर्वत्र धर्मोपदेश देकर भगवान अन्त में सम्मेद शिखर पधारे और एक माह का योग निरोध कर आठ सौ नौ मुनियों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला चतुर्थी के दिन मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त हुए।
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रत्नपुर नाम का नगर है। उस नगर का राजा श्रीषेण था, उसके सिंहनन्दिता और अनिन्दिता नाम की दो रानियाँ थीं। इन दोनों के इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन नाम के दो पुत्र थे। उसी नगर की सत्यभामा नाम की एक ब्राह्मण कन्या अपने पति को दासी पुत्र जानकर उसे त्याग कर राजा के यहाँ अपने धर्म की रक्षा करते हुए रहने लगी थी। किसी एक दिन राजा श्रीषेण ने अपने घर पर हुए आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनियों को पड़गाहन कर स्वयं आहारदान दिया और पंचाश्चर्य प्राप्त किये तथा दश प्रकार के कल्पवृक्षों के भोग प्रदान करने वाली उत्तरकुरू भोगभूमि की आयु बाँध ली। दान देकर राजा की दोनो रानियों ने तथा दान की अनुमोदना से सत्यभामा ने भी उसी उत्तम भूमि की आयु बाँध ली सो ठीक ही है क्योंकि साधुओं के समागम से क्या नहीं होता‘किसी समय इन्द्रसेन की रानी श्रीकांता के साथ अनन्तमति नाम की एक साधारण स्त्री आई थी उसके साथ उपेन्द्रसेन का स्नेह समागम हो गया। इस निमित्त को लेकर बगीचे में दोनों भाईयों का युद्ध शुरू हो गया। राजा इस युद्ध को रोकने में असमर्थ रहे, साथ ही अत्यन्त प्रिय अपने इन पुत्रों के अन्याय को सहन करने में असमर्थ रहे अत: वे विषपुष्प सूंघ कर मर गये, वही विषपुष्प सूंघ कर दोनों रानियां और सत्यभामा भी प्राणरहित हो गईं तथा धातकी खंड के पूर्वार्ध भाग में जो उत्तर कुरू प्रदेश है उसमें राजा तथा सिंहनन्दिता दोनों दम्पत्ती हुए और अनिन्दिता नाम की रानी आर्य तथा सत्यभामा उसकी स्त्री हुई इस प्रकार वे सब वहाँ भोगभूमि के सुखों को भोगते हुए सुख से रहने लगे।
राजा श्रीषेण का जीव भोगभूमि से चलकर सौधर्म स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान में श्रीप्रभ नाम का देव हुआ। रानी सिंहनन्दिता का जीव उसी स्वर्ग के श्रीनिलय विमान में विद्युतप्रभा नाम की देवी हुई। सत्यभामा ब्राह्मणी और अनिन्दिता नाम की रानी के जीव क्रमश: विमलप्रभ विमान में शुक्लप्रभा नाम की देवी और विमलप्रभ नाम के देव हुए।विजयार्ध के राजा ज्वलनजटी के पुत्र अर्ककीर्ति थे। उस अर्ककीर्ति की ज्योतिर्माला रानी से राजा श्रीषेण का जीव श्रीप्रभ विमान से स्वर्ग में आकर अमिततेज नाम का पुत्र हुआ है। सिंहनन्दिता का जीव अमित तेज की ज्योति:प्रभा नाम की स्त्री हुई। देवी अनिन्दिता का जीव श्रीविजय हुआ और सत्यभामा का जीव अमित तेज की बहन सुतारा हुआ है। यह अमित तेज विद्याधर समस्त पर्वों में उपवास करता था। दोनों श्रेणियों का अधिपति होने से वह सब विद्याधरों का राजा था। किसी एक दिन दमवर नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि को विधिपूर्वक आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये।किसी समय अमिततेज और विजय दोनों ने मुनि के मुख से अपनी आयु एक मास मात्र है ऐसा जानकर अपने पुत्रों को राज्य दे दिया और बड़े आदर से अष्टा िका पूजा की तथा नन्दन नामक मुनि के समीप चन्दन वन में सब परिग्रह त्याग कर प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया। अन्त में समाधिमरण कर शुद्ध बुद्धि का धारक अमिततेज तेरहवें स्वर्ग के नन्द्यावर्त विमान में रविचूल नाम का देव हुआ और श्रीविजय भी इसी स्वर्ग के स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ।
वहाँ के भोगों का अनुभव करके रविचूल नाम का देव नन्द्यावर्त विमान से च्युत होकर जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमित सागर और उनकी रानी वसुन्धरा के अपराजित नाम का पुत्र हुआ। मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमान से च्युत होकर उसी राजा की अनुमति नाम की रानी के अनन्तवीर्य नाम का लक्ष्मी सम्पन्न पुत्र हुआ। ये दोनों भाई बलभद्र और अर्द्धचक्री नारायण पद के धारक हुए तथा दमितारि नाम के प्रतिनारायण को मार कर चक्ररत्न को प्राप्त कर बहुत काल तक राज्य के उत्तम सुखों का अनुभव करते रहे।
किसी समय अनन्तवीर्य के मरण से बलभद्र अपराजित पहले तो बहुत दु:खी हुए, जब प्रबुद्ध हुए तब अनन्तसेन नामक पुत्र के लिए राज्य देकर यशोधर मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर ली। वे तीसरा अवधिज्ञान प्राप्त कर अत्यन्त शान्त हो गये और तीस दिन का सन्यास लेकर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुए।इधर अनन्तवीर्य नारायण नरक गया था वहाँ पर जाकर धरणेन्द्र ने उसे समझा बुझाकर सम्यक्त्व ग्रहण कराया। उसके प्रभाव से वह अनन्तवीर्य नरक से निकलकर जम्बूद्वीपसम्बन्धी भरत क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के राजा मेघवाहन की रानी मेघमालिनी से मेघनाद नाम्ा का पुत्र हो गया। कालान्तर में दीक्षा लेकर आयु के अन्त में मरकर तपश्चरण के प्रभाव से अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हो गये और इन्द्र के साथ उत्तम प्रीति रखकर स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगे।अपराजित का जीव जो पहले इन्द्र हुआ था वह पहले च्युत हुआ और इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के रत्नसंचय नामक नगर में राजा क्षेमंकर तीर्थंकर की कनकचित्रा नाम की रानी से मेघ की बिजली के समान पुण्यात्मा श्रीमान ‘वङ्काायुध नाम का पुत्र हुआ। इस पुत्र की उत्पत्ति में आधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रियोद्भव आदि क्रियायें की गई थीं। जिस प्रकार चन्द्रमा शुक्ल पक्ष को पाकर कान्ति तथा चन्द्रिका से सुशोभित होता है उसी प्रकार वह वङ्काायुध भी तरूण अवस्था पाकर राज्यलक्ष्मी तथा लक्ष्मीमती नामक स्त्री से सुशोभित हो रहा था। उन वङ्काायुध और लक्ष्मी के अनन्तवीर्य (प्रतीन्द्र) का जीव सह ायुध नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार राजा क्षेमंकर पुत्र-पौत्र आदि परिवार से परिवृत होकर राज्य करते थे।
किसी समय क्षेमंकर तीर्थंकर वङ्काायुध का राज्याभिषेक करके लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त होते हुए तपोवन को चले गये और तपश्चरण के प्रभाव से केवलज्ञान को प्राप्त कर बारह सभाओं को दिव्यध्वनि द्वारा सन्तुष्ट करने लगे।इधर वङ्काायुध के यहाँ चक्ररत्न की उत्पत्ति हो गई और वे चक्रवर्ती हो गये। दिग्विजय करके षट्खंड पृथ्वी को जीतकर सार्वभौम राज्य करने लगे।
किसी समय नाती के केवलज्ञान का उत्सव देखने से वङ्काायुध चक्रवर्ती को भी आत्मज्ञान हो गया जिससे उन्होंने सह ायुध पुत्र को राज्य देकर क्षेमंकर तीर्थंकर के समीप पहुंचकर दीक्षा धारण कर ली। दीक्षा के बाद ही उन्होंने सिद्धिगिरि पर्वत पर जाकर एक वर्ष के लिये प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का आश्रय पाकर सर्पों की बहुत सी वामियाँ तैयार हो गईं सो ठीक ही है क्योंकि महापुरूष चरणों में लगे हुए शत्रुओं को भी बढ़ाते हैं। उनके शरीर के चारों तरफ सघनरूप से जमी हुई लतायें भी मानों उनके परिणामों की कोमलता को प्राप्त करने के लिए उन मुनिराज के पास जा पहुँची थीं।इधर वङ्काायुध के पुत्र सह ायुध को भी किसी कारण से वैराग्य हो गया उन्होंने अपना राज्य शतबली को दे दिया, सब प्रकार की इच्छाएं छोड़ दीं और पिहिता व नाम के मुनिराज के पास उत्तम संयम धारण कर लिया। जब पिता वङ्काायुध मुनि का एक वर्ष का योग समाप्त हो गया तब वे सह ायुध मुनि उन्हीं के समीप जा पहुँचे। पिता पुत्र दोनों ने चिरकाल तक दु:सह तपस्या की। अन्त में वे वैभार पर्वत के अग्रभाग पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने शरीर से स्नेह रहित हो सन्यास मरण किया और ऊर्ध्व ग्रैवेयक के नीचे के सौमनस नामक विमान में बड़ी ऋद्धि के धारक अहमिन्द्र हुए।
इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नाम का देश है उसकी पुंडरीकिणी नगरी में राजा घनरथ राज्य करते थे, उनकी मनोहरा नाम की सुन्दर रानी थी। वङ्काायुध का जीव ग्रैवेयक से च्युत होकर उन्हीं दोनों के मेघरथ नाम का पुत्र हुआ उसके जन्म के पहले गर्भाधान आदि क्रियायें हुई थीं। उन्हीं घनरथ राजा की मनोरमा नाम की दूसरी रानी से सह ायुध का जीव (अहमिन्द्र) दृढ़रथ नाम का पुत्र हो गया। राजा घनरथ ने तरूण होने पर मेघरथ का विवाह प्रियमित्रा और मनोरमा के साथ किया था और दृढ़रथ का विवाह सुमतिदेवी से किया था। इस प्रकार पुत्र-पौत्र आदि सुख के समस्त साधनों से युक्त राजा घनरथ सिंहासन पर बैठकर इन्द्र की लीला धारण कर रहे थे।
इसी बीच में प्रियमित्रा पुत्रवधु की सुषेणा नाम की दासी घनतुंड नामक मुर्गा लाकर दिखलाती हुई बोली कि यदि दूसरों के मुर्गे इसे जीत लें तो म् िएक हजार दीनार दूंगी। यह सुनकर छोटी पुत्रवधु की कांचना नाम की दासी एक वङ्कातुंड नामक मुर्गा ले आई । दोनों का युद्ध होने लगा वह युद्ध दोनों मुर्गों के लिए दु:ख का कारण था तथा देखने वालों के लिये भी हिंसानन्द आदि रौद्रध्यान कराने वाला था अत: धर्मात्माओं के देखने योग्य नहीं, ऐसा विचार कर राजा घनरथ बहुत से भव्यजीवों को शान्ति प्राप्त कराने के लिये अपने पुत्र मेघरथ से उन मुर्गों के पूर्व भव पूछने लगे।
अवधिज्ञान के धारक मेघरथ ने बतलाया कि जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में रत्नपुर नाम का नगर है। उसमें भद्र और धन्य नाम के दो सगे भाई थे। दोनों ही गाड़ी चलाने का काम करते थे एक दिन दोनों भाई नदी के किनारे बैल के निमित्त लड़ पड़े और मरकर नदी के किनारे श्वेतकर्ण-ताम्रकर्ण नाम के जंगली हाथी हुए। वहाँ भी पूर्व वैर के संस्कार से लड़कर मरे और दोनों भ्सिे हुए पुन: लड़कर मरे और मेढ़ा हुए, मेढ़े भी परस्पर में लड़े और ये दोनों मुर्गे हुए हैं। दो विद्याधर हम लोगों से मिलने के लिये यहाँ आये थे और विद्या से इन मुर्गों में प्रविष्ट होकर इन्हें और अधिक शक्तिशाली बना रहे हैं। इस तरह मेघरथ से सब समाचार सुनकर उन विद्याधरों ने अपना स्वरूप प्रकट किया राजा घनरथ और कुमार मेघरथ की पूजा की तथा गोवर्धन मुनिराज के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
उन दोनों मुर्गों ने भी अपना पूर्वभव का सम्बन्ध जानकर परस्पर का बंधा हुआ वैर छोड़ दिया और अन्त में साहस के साथ सन्यास धारण कर लिया एवं भूतरमण तथा देवरमण नामक वन में ताम्रचूल और कनकच्ाूल नाम के भूतजातीय व्यन्तर हुए।
उसी समय वे देव पुंडरीकिणी नगरी में आये और प्रेम से मेघरथ युवराज की पूजा कर अपने मुर्गे के भव को बतलाकर परमोपकारी मान कर कुछ प्रत्युपकार करने की प्रार्थना करने लगे। अन्त में उन दोनों देवों ने कहा कि आप मानुषोत्तर पर्वत के भीतर विद्यमान समस्त संसार को देख लीजिये। हम लोगों के द्वारा आपका कम-से-कम यही उपकार हो जावे। देवों के ऐसा कहने पर कुमार ने जब ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति प्रदान कर दी तब देवों ने कुमार को उनके आप्तजनों के साथ अनेक ऋद्धियों से युक्त विमान में बैठाया और आकाश मार्ग में ले जाकर यथाक्रम से चलते-चलते सुन्दर देश दिखलाये।वे बतलाते जाते थे कि यह पहला भरत क्षेत्र है, यह हैमवत है इत्यादिरूप से सभी क्षेत्र, पर्वतों को दिखलाते हुए मानुषोत्तर पर्वत के भीतर के सभी अकृत्रिम चैत्यालयों की वन्दना करा दी। तदनन्तर बड़े उत्सव से युक्त नगर में वापस आ गये। आचार्य कहते हैं कि जो मनुष्य अपने उपकारी का प्रत्युपकार नहीं करता है वह गन्धरहित पुष्प के सदृश जीवित भी मृतकवत् है।
घनरथ महाराज तीर्थंकर थे। किसी दिन विरक्त होकर दीक्षित हो गये। इधर मेघरथ महाराज ने दमवर नामक ऋद्धिधारी मुनि को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। कभी नन्दीश्वर पर्व में महापूजा कर रात्रि में प्रतिमा योग से ध्यान करते थे और इन्द्रों द्वारा पूजा को प्राप्त होते थे। किसी दिन घनरथ तीर्थंकर के समवसरण में धर्मोपदेश को सुनकर संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो गये और अपने पुत्र को राज्य देकर दृढ़रथ भाई और अन्य सात हजार राजाओं के साथ दीक्षित होकर ग्यारह अंग के पाठी हो गये और सोलह कारण भावनाओं से तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर लिया। अत्यन्त धीर वीर मेघरथ ने दृढ़रथ के साथ ‘नमस्तिलक’ पर्वत पर आकर एक महीने का प्रायोपगमन संन्यास धारण कर शरीर छोड़कर अहमिन्द्र१ पद प्राप्त कर लिया।
शान्तिनाथ का जन्म-कुरूजांगल देश की हस्तिनापुर राजधानी में काश्यप गोत्रीय राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ऐरावती था। भगवान शान्तिनाथ के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही इन्द्र की आज्ञा से हस्तिनापुर नगर में माता के आँगन में रत्नों की वर्षा होने लगी और श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा में तत्पर हो गईं। भादों वदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रानी ने गर्भ धारण किया। उस समय स्वर्ग से देवों ने आकर तीर्थंकर महापुरूष का गर्भ महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की।
नव मास व्यतीत होने के बाद रानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन याम्ययोग में प्रात:काल के समय तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्र रत्न को जन्म दिया। उसी समय चार प्रकार के देवों के यहाँ स्वयं ही बिना बजाये शंखनाद, भेरीनाद, सिंहनाद और घंटानाद होने लगे। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्राणी और असंख्य देवगणों सहित नगर में आया तथा भगवान को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक मनाया। अभिषेक के अनन्तर भगवान को अनेकों वस्त्रालंकारों से विभूषित करके उनका ‘शान्तिनाथ’ यह नाम रखा, इस प्रकार भगवान को हस्तिनापुर वापस लाकर माता-पिता को सपिकर पुनरपि आनन्द नामक नाटक करके अपने-अपने स्थान पर चले गये।भगवान की आयु एक लाख वर्ष की थी। शरीर चालीस धनुष ऊँचा था। सुवर्ण के समान कांति थी। ध्वजा, तोरण, शंख, चक्र आदि एक हजार आठ शुभ चि उनके शरीर में थे। उन्हीं विश्वसेन की यशस्वती रानी के चक्रायुध नाम का एक पुत्र हुआ। देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान शान्तिनाथ अपने छोटे भाई चक्रायुध के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कान्ति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया।
इस तरह भगवान के जब कुमार काल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया। इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गईं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे। काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीग्रह में प्रकट हुए थे। पुरोहित, सेनापति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और कन्या, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं।
चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शान्तिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है‘ इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चामरों को ढुराया करते थे। चक्रवर्तियों के साढ़े तीन करोड़ बन्धु कुल होते हैं। अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथ्ाी, तीन करोड़ उत्तम वीर, अनेकों करोड़ विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। छ्यानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौबीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब और अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं इत्यादि अनेकों वैभव होते हैं।चौदह रत्नों के नाम-अश्व, गज, गृहपति, स्थपति, सेनापति, स्त्री और पुरोहित ये सात जीवित रत्न हैं एवं छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं।
नवनिधियों के नाम-काल, महाकाल, पाण्डु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न ये नौ निधियाँ हैं। ये क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्यों, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हर्म्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हंै।
दशांग भोग-दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भोजन, भाजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं।
इस प्रकार संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियों से वेष्टित भगवान शान्तिनाथ चक्रवर्ती के साम्राज्य को प्राप्त कर दस प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए सुख से काल व्यतीत कर रहे थे। भगवान तीर्थंकर और चक्रवर्ती होने के साथ-साथ कामदेव पद के धारक भी थे।भगवान का वैराग्य-जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष साम्राज्य पद में व्यतीत हो गये तब एक समय अलंकार गृह के भीतर अलंकार धारण करते हुए उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिये। उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और पूर्व जन्म का स्मरण भी हो गया तब भगवान संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप का विचार करते हुए विरक्त हो गये। उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर अनेकों स्तुतियों से पूजा स्तुति की। अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्र सभी देवगणों के साथ उपस्थित हो गये। भगवान ने नारायण नाम के पुत्र का राज्याभिषेक करके सभी कुटुम्बियों को यथायोग्य उपदेश दिया।भगवान का दीक्षा ग्रहण-अनन्तर इन्द्र ने भगवान का दीक्षाभिषेक करके ‘सर्वार्थसिद्धि’ नाम की पालकी में विराजमान करके हस्तिनापुर नगर के सह ाम्र वन में प्रवेश किया। उसी समय ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर भगवान ने पंचमुष्टि लोंच करके ‘ नम: सिद्धेभ्य:’ कहते हुए जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके ध्यान में स्थिर होते ही मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया।भगवान का आहार-मन्दिरपुर के राजा सुमित्र ने भगवान शान्तिनाथ को खीर का आहार देकर पंचाश्चर्य वैभव को प्राप्त किया। इस प्रकार अनुक्रम से तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष व्यतीत हो गये।
भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-भगवान शान्तिनाथ सह ाम्र वन में नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे पर्यंकासन से स्थित हो गये और पौष कृष्ण दशमी के दिन अन्तर्मुहूर्त में दसवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का नाश कर बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का सर्वथा अभाव करके तेरहवें गुणस्थान में पहुंच कर केवलज्ञान से विभूषित हो गये और उन्हें एक समय में ही सम्पूर्ण लोकालोक स्पष्ट दीखने लगा। पहले भगवान ने चक्ररत्न से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर साम्राज्य पद प्राप्त किया था। अब भगवान ने ध्यान चक्र से विश्व में एकछत्र राज्य करने वाले मोहराज को जीतकर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी।समवसरण का संक्षिप्त वर्णन-यह समवसरण पृथ्वी तल से पाँच हजार धनुष ऊँचा था, इस पृथ्वीतल से एक हाथ ऊँचाई से ही इसकी सीढ़िया प्रारंभ हो गयी थीं। ये सीढ़ियां एक-एक हाथ की थीं और बीस हजार प्रमाण थीं। यह समवसरण गोलाकार रहता है। इसमें सबसे पहले धूलिसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ हैं। मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर है। फिर निर्मल जल से भरी परिखा है। फिर पुष्पवाटिका (लतावन) है। उसके आगे पहला कोट है। उसके आगे दोनों ओर से दो-दो नाट्यशालाएँ हैं। उसके आगे दूसरा अशोक, आम्र, चंपक और सप्तपर्ण का वन है। उसके आगे वेदिका है। तदनन्तर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं। फिर दूसरा कोट है। उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है। उसके बाद स्तूप, स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं। फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है। उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभायें हैं। तदनन्तर पीठिका है और पीठिका के अग्रभाग पर कमलासन पर चार अंगुल अधर ही अर्हन्त देव विराजमान रहते हैं। भगवान पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर स्थित रहते हैं फिर भी अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में ही भगवान का मुँह दिखता रहता है। समवसरण में चारों ओर प्रदक्षिणा के क्रम से पहले कोठे में गणधर और मुनिगण, दूसरे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएं और श्राविकाएं, चौथे में ज्योतिषी देवांगनायें, पाँचवें में व्यन्तर देवांगनाएँ, छठे में भवनवासी देवांगनायें, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यन्तर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि मनुष्य और बारहवें में पशु बैठते हैं।
समवसरण में भव्य जीवों का प्रमाण-भगवान के समवसरण में चक्रायुध को आदि लेकर छत्तीस गणधर थे। बासठ हजार मुनिगण और साठ हजार तीन सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकायें, असंख्यातों देव देवियाँ और संख्यातों तिर्र्यंच थे। इस प्रकार बारहगणों के साथ-साथ भगवान ने बहुत काल तक धर्म का उपदेश दिया।
भगवान का मोक्ष गमन-जब भगवान की आयु एक माह शेष रह गई तब वे सम्मेद शिखर पर आये और विहार बंद कर अचल योग से विराजमान हो गये। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भगवान चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा चारों अघातिया कर्मों का नाश कर एक समय में लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो गये। वे नित्य, निरंजन, कृतकत्य सिद्ध हो गये। उसी समय इन्द्रादि चार प्रकार के देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक की पूजा की और अन्तिम संस्कार करके भस्म से अपने ललाट आदि उत्तमांगों को पवित्र कर स्व-स्वस्थान को चले गये।
ये शान्तिनाथ भगवान तीर्थंकर होने से बारहवें भव पूर्व राजा श्रीषेण थे और मुनि को आहार दान देने के प्रभाव से भोगभूमि में गये थे। फिर देव हुये, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वङ्काायुध चक्रवर्ती हुए। उस भव में इन्होंने दीक्षा ली थी और एक वर्ष का योग धारण कर खड़े हो गये थे तब इनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई थीं। सर्पों ने वामी बना ली थीं। पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे और ये वङ्काायुध मुनिराज ध्यान में लीन रहे थे। अनन्तर अहमिन्द्र हुए, फिर मेघरथ राजा हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करते हुए सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया था और उसके प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था। फिर वहाँ से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, फिर वहाँ से आकर जगत् को शांति प्रदान करने वाले सोलहवें तीर्थंकर और पंचम चक्रवर्ती ऐसे शान्तिनाथ भगवान हुए।उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि इस संसार में अन्य लोगों की बात जाने दीजिए श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र को छोड़कर भगवान तीर्थंकरों में ऐसा कौन है जिसने पूर्व के बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो‘
इसलिये हे विद्वान लोगों! यदि तुम शान्ति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र का निरन्तर ध्यान करते रहो। यही कारण है कि आज भी भव्य जीव शांति प्राप्ति के लिए श्री शान्तिनाथ की आराधना करते हैं।
पुष्पदन्त तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई। अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौनपल्य अन्तर पावपल्य काल तक इस भरत क्षेत्र के आर्य खण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पावपल्य प्रमाण काल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था उस समय शान्तिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्म परम्परा अविछिन्न रूप से चली आ रही है। इसलिए उत्तरपुराण में भी गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि-
‘भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभदेव आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन: पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रकट किया वही आज तक अखण्डरूप से बाधारहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्यगुरू श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो १५ तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।’जिनके शरीर की ऊँचाई एक सौ आठ हाथ है, जो पंचम चक्रवर्ती हैं और कामदेव पद के धारी है, जिनके हरिण का चि है, जो भादों वदी सप्तमी को माता के गर्भ में आये, ज्येष्ठ वदी चौदस को जन्म लिया और ज्येष्ठ वदी चौदस को ही दीक्षा ग्रहण किया, पौष शुक्ल दशमी के दिन केवलज्ञानी हुए पुन: ज्येष्ठ वदी चौदस को ही मुक्तिधाम को प्राप्त हुए ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें।
इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है। उसके सुसीमा नगर में सिंहरथ राजा राज्य करता था। वह राजा किसी समय उल्कापात देखकर विरक्त हो गया और विरक्त होकर संयम धारण कर लिया। उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त किया तथा सोलहकारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में समाधिमरण करके सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हो गये।पंचकल्याणक वैभव-कुरूजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कौरववंशी काश्यप गोत्रीय महाराज सूरसेन राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम श्रीकान्ता था। उस पतिव्रता देवी ने देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त की थी। श्रावण कृष्ण दशमी के दिन रानी ने सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया। उस समय इन्द्रों ने आकर भगवान का गर्भमहोत्सव मनाया और माता की पूजा करके स्वस्थान को चले गये। क्रम से नवमास व्यतीत हो जाने पर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय इन्द्रादि देवगण आये और बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर महामहिम जन्माभिषेक महोत्सव करके, अलंकारों से अलंकृत किया एवं बालक का नाम ‘कुन्थुनाथ’ रखा। वापस लाकर माता-पिता को सपिकर देवगण स्वस्थान को चले गये। पंचानवे हजार वर्ष की उनकी आयु थी। प्तिीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाये हुए स्वर्ण के समान शरीर की कान्ति थी।
तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और इतना ही काल बीत जाने पर उन्हें वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिली। इस प्रकार वे बाधारहित, निरन्तर दस प्रकार के भोगों का उपभोग करते थे। सारा वैभव शान्तिनाथ के समान ही था। किसी समय भगवान षडंग सेना से संयुक्त होकर क्रीड़ा से वहाँ वापस लौट रहे थे कि मार्ग में उन्होंने किसी मुनि को आतपयोग से स्थित देखा। देखते ही मंत्री के प्रति तर्जनी अंगुली से इशारा किया कि देखो-देखो! मंत्री उन मुनिराज को देखकर नतमस्तक हो गया और पूछने लगा कि हे देव! इस तरह कठिन तप कर ये क्या फल प्राप्त करेंगे‘ चक्रवर्ती कुंथुनाथ हँसकर कहने लगे कि ये मुनि या तो इसी भव से कर्म काटकर निर्वाण प्राप्त करेंगे या तप के प्रभाव से शाश्वत धाम प्राप्त करेंगे। जो परिग्रह का त्याग नहीं करते वे संसार में ही परिभ्रमण करते रहते हैं। इत्यादि रूप से भगवान ने मंत्री को मोक्ष तथा संसार के कारणों का निरूपण किया। चक्रवर्ती पद के साम्राज्य का उपभोग करते हुए भगवान के तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत हो गये।
किसी समय भगवान को पूर्व भव का स्मरण हो जाने से आत्म ज्ञान प्राप्त हो गया और वे भोगों से विरक्त हो गये उसी समय लौकान्तिक देवों ने आकर प्रभु का स्तवन-पूजन किया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्यभार देकर इन्द्रों द्वारा किया हुआ दीक्षा कल्याणक उत्सव प्राप्त किया। देवों द्वारा लाई गई विजया नाम की पालकी में सवार होकर भगवान सहेतुक वन में पहुँचे। वहाँ तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन कृतिका नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी समय प्रभु को मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन हस्तिनापुर के धर्ममित्र राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। इसी प्रकार घोर तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष बीत गये। किसी दिन भगवान तेला का नियम लेकर तप करने के लिए वन में तिलक वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहाँ चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना की। भगवान के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर प्तिीस गणधर, साठ हजार मुनिराज, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवी और संख्यातों तिर्यंच थे। भगवान दिव्यध्वनि के द्वारा चिरकाल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते रहे। भगवान का केवली काल तेईस हजार सात सौ चतिीस वर्ष का था।जब भगवान की आयु एक मास की शेष रह गयी तब वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे और प्रतिमायोग धारण कर लिया। वैशाख शुक्ल प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्व भाग में समस्त कर्मों से रहित, नित्य, निरंजन, सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये कुंथुनाथ भगवान तीर्थंकर होने के तीसरे भव पहले सिंहरथ राजा थे, मुनि अवस्था में सोलहकारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया पुन: सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए वहाँ से आकर कुंथुनाथ नाम के १७वें तीर्थंकर, छठे चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारक हुए हैं।
तिलोयपण्णत्ति और उत्तरपुराण के अनुसार इन भगवान के भी गर्भ जन्म, तप और ज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर में ही हुए हैं। भगवान का गर्भकल्याणक श्रावण कृष्णा दशमी को हुआ, दीक्षा कल्याणक चैत्र शुक्ला तृतीया को हुआ तथा जन्म, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को हुआ है। भगवान के शरीर की ऊँचाई १४० हाथ प्रमाण थी, बकरे का चि था, ऐसे सत्तरहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ भगवान हम और आप सबको शाश्वत सुख प्रदान करें।
इस जम्बूद्वीप में सीता नदी के उत्तर तट पर एक कच्छ नाम का देश है। उसके क्षेमपुर नगर में धनपति राजा राज्य करता था। किसी दिन उसने अर्हन्नन्दन तीर्थंकर की दिव्यध्वनि से धर्मामृत का पान किया, जिससे विरक्त होकर शीघ्र ही जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। ग्यारहअंगरूपी महासागर का पारगामी होकर सोलह कारण भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। अन्त में प्रायोपगमन संन्यास के द्वारा मरण करके जयंतिविमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया।पंचकल्याणक वैभव-इसी भरत क्षेत्र के कुरूजांगल देश में हस्तिनापुर नगरी है। यहाँ सोमवंश में उत्पन्न हुए काश्यप गोत्रीय राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी मित्रसेना नाम की रानी थी। रानी ने रत्नवृष्टि आदि देव सत्कार पाकर फाल्गुन कृष्ण तृतीया के दिन गर्भ में अहमिन्द्र के जीव को धारण किया। उसी समय देवों ने आकर गर्भ कल्याणक महोत्सव मनाया। रानी मित्रसेना ने नव मास के बाद मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरूपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करके भगवान का ‘अरनाथ’ नाम रखा। भगवान की आयु ८४ हजार वर्ष की थी। तीस धनुष ऊँचा अर्थात् १२० हाथ ऊँचा शरीर था। सुवर्ण के समान शरीर की कांति थी।
भगवान के कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मंडलेश्वर के योग्य राज्य पद प्राप्त हुआ, इसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय होना देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुत्य भगवान अपने अरविन्द कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई ‘वैजयंती’ नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुँचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।जब भगवान के छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बीत गये तब वे दीक्षावन में कार्तिक शुक्ल दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में आम्रवन के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए और घातिया कर्मों का नाशकर केवली बन गये। देवों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। भगवान के समवसरण में तीस गणधर, पचास हजार मुनि, साठ हजार आर्यिकायें, एक लाख साठ हजार श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव देवियां और संख्यातों तिर्यंच थे। इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान अरनाथ ने बीस हजार नौ सौ चौरासी वर्ष केवली अवस्था में व्यतीत किये।
जब एक माह की आयु शेष रही तब भगवान सम्मेदशिखर पर जाकर प्रतिमायोग से स्थित हो गये। चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्व भाग में सम्पूर्ण कर्मों से रहित अशरीरी होकर सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ सातवें चक्रवर्ती थे। तीर्थंकर से पूर्व तीसरे भव में ये भगवान धनपति नाम के राजा थे, दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया था पुन: जयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। इनका मत्स्य का चि है।
इन अरनाथ के भी गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर नगर में ही हुए हैं। इनको मुक्त हुए लगभग सौ अरब, पंैसठ लाख, छयासी हजार पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ भगवान सदा हम सबकी रक्षा करें।
इसी जम्बूद्वीप में मेरूपर्वत से पूर्व की ओर कच्छकावती नाम के देश में एक वीतशोक नाम का नगर है। उसमें ‘वैश्रवण’ नाम का उच्चकुलीन राजा राज्य करता था। किसी समय वह राजा वर्षा के प्रारम्भ में बढ़ती हुई वनावली को देखने के लिये नगर के बाहर गया। वहाँ किसी एक महान राजा के सदृश, अपनी शाखाओं और उपशाखाओं को पैâलाकर तथा पृथ्वी को व्याप्त कर स्थित एक विशाल वटवृक्ष को देखा। उसको देख राजा ने समीपवर्ती लोगों से कहा कि देखो-देखो! इसका विस्तार तो देखो! यह ऊँचाई और बद्धमूलता को धारण करता हुआ मानो मेरा ही अनुकरण कर रहा है। इस प्रकार आश्चर्य के साथ बातचीत करता हुआ वह राजा दूसरे वन में चला गया। अनन्तर घूमकर वापस उसी मार्ग से आते हुए देखा कि वही वटवृक्ष वङ्का गिरने के कारण तत्क्षण ही जड़ तक भस्म हो गया है। उसे देखकर यह विचार करने लगा कि इस जगत में मजबूत जड़ किसकी है‘ विस्तार किसका है‘ और ऊँचाई किसकी है‘ इत्यादि वटवृक्ष की स्थिति का विचार करते हुए विरक्त हुआ वह राजा नगर में वापस आकर अपने पुत्र को राज्य देकर श्रीनाग पर्वत पर विराजमान श्रीनाग मुनिराज के पास जाकर धर्मामृत का पान करके जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर लेता है।
अनेक प्रकार से तपश्चरण करते हुए ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। सोलहकारण भावनाओं के चिन्तवन से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। अन्त में संन्यास विधि से प्राण विसर्जन करके अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त कर लिया। वहाँ पर एक हाथ का ऊँचा शरीर था और तेंतीस सागर प्रमाण आयु थी।पंचकल्याणक वैभव-इसी भरतक्षेत्र के बंगदेश में मिथिला नगरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी काश्यपगोत्रीय ‘कुम्भ’ नाम के महाराज धर्मनीतिपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे। उनकी रानी का नाम ‘प्रजावती’ था।
अहमिन्द्र की आयु छह मास की अवशिष्ट रहने पर ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नवर्षा प्रारम्भ कर दी थी।
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा के दिन सोलहस्वप्नविलोकनपूर्वक रानी प्रजावती ने अहमिन्द्र देव को गर्भ में धारण किया और मगशिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में पूर्ण चन्द्र सदृश पुत्ररत्न को जन्म दिया। सौधर्म इन्द्र ने समस्त देवों सहित महावैभव के साथ सुमेरू पर्वत पर तीर्थंकर बालक का जन्माभिषेक किया। अनन्तर ‘मल्लिनाथ’ नामकरण करके मिथिला नगरी में जाकर महामहोत्सव पूर्वक माता-पिता को सपि दिया।
अरहनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर भगवान मल्लिनाथ हुए हैं। उनकी आयु भी इसी में शामिल थी। पचपन हजार वर्ष की उनकी आयु थी एवं पच्चीस धनुष ऊँचा सुवर्ण वर्णमय शरीर था। कुमार काल के सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाह के लिए सजाया गया है। सर्वत्र मनोहर वाद्य बज रहे हैं। उसे देखते ही उन्हें पूर्व जन्म के सुन्दर अपराजित विमान का स्मरण आ गया। वे विचार करने लगे कि कहाँ तो वीतरागता से उत्पन्न हुआ प्रेम और उससे प्रकट हुई महिमा और कहाँ सज्जनों को लज्जा उत्पन्न करने वाला यह विवाह‘ उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर भगवान की स्तुति की। अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्रों ने देवों सहित आकर ‘जयन्त’ नामक पालकी पर भगवान को विराजमान किया और श्वेतवन के उद्यान में पहुँचे।वहांँ पर भगवान ने मगसिर सुदी एकादशी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायंकाल के समय सिद्ध साक्षीपूर्वक बेला का नियम लेकर तीन सौ राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया एवं अन्तर्मुहूर्त में ही मन:पर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया। तीसरे दिन पारणा के लिये आये तब मिथिलानगरी के नंदिषेण राजा ने आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये।
छद्मस्थ अवस्था के छह दिन व्यतीत हो जाने पर भगवान ने बेला का नियम लेकर उसी श्वेतवन में अशोक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाया। पौष वदी दूज के दिन अश्विनी नक्षत्र में प्रात:काल चार घातिया कर्मों का नाश करके भगवान केवलज्ञानी हो गये। उनके समवसरण में विशाख आदि को लेकर अट्ठाईस गणधर थे। चालीस हजार महामुनिराज, बन्धुसेना आदि पचपन हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। भगवान ने बहुत काल तक आर्यखंड में विहार किया।एक मास की आयु के अवशेष रह जाने पर वे भगवान सम्मेदाचल पर पहुंचे। वहां पाँच हजार मुनियों के साथ योग निरोध किया और फाल्गुन शुक्ला पंचमी के दिन भरणी नक्षत्र में संध्या के समय लोक के अग्रभाग पर विराजमान हो गये। उसी समय देवों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया।
इसी भरत क्षेत्र के अंग देश के चम्पापुर नगर में हरिवर्मा नाम के राजा थे। किसी एक दिन वहाँ के उद्यान में ‘अनन्तवीर्य’ नाम के निर्ग्रन्थ मुनिराज पधारे। उनकी वन्दना करके राजा ने धर्मोपदेश श्रवण किया और तत्क्षण विरक्त होकर अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। उन्होंने गुरू के समागम से ग्यारह अंगों का अध्ध्यन किया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। चिरकाल तक तपश्चरण करते हुए अन्त में समाधिपूर्वक मरण करके प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हो गये। वहाँ बीस सागर की आयु थी और उनका साढ़े तीन हाथ का ऊँचा शरीर था।
पंचकल्याणक वैभव-इसी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृह नाम का नगर है। उसमें हरिवंश शिरोमणि, काश्यपगोत्रीय, सुमित्र महाराज राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सोमा था। श्रावण कृष्णा द्वितीया के दिन श्रवण नक्षत्र में रानी ने उन प्राणत इन्द्र को गर्भ में धारण किया अनुक्रम से नव मास के बाद रानी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने भगवान का जन्मोत्सव मनाकर ‘मुनिसुव्रत’ नाम प्रकट किया। मल्लिनाथ के बाद चौवन लाख वर्षों के बीच जाने पर इनका जन्म हुआ। इनकी आयु तीस हजार वर्ष एवं ऊँचाई बीस धनुष की थी।
कुमार काल के सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर भगवान का राज्याभिषेक हुआ। राज्य अवस्था में प्रभु के पन्द्रह हजार वर्ष बीत जाने पर किसी दिन गर्जती हुई घन-घटा के समय उनके यागहस्ती ने वन का स्मरण कर खाना-पीना बन्द कर दिया। उस समय महाराज मुनिसुव्रतनाथ अपने अवधिज्ञान से उस हाथी के मन की सारी बातें जान गये। वे कुतूहल से भरे मनुष्यों के सामने हाथी का पूर्वभव कहने लगे कि यह हाथी पूर्वभव में तालपुर नगर का नरपति राजा था। अपने उच्चकुल के अभिमान सहित इसने अशुभलेश्याओं से सहित, मिथ्याज्ञानी, पात्र-अपात्र की परीक्षा से रहित किमिच्छिक दान दिया था, उसके फलस्वरूप यह हाथी हुआ है। इस समय भी यह अपने अज्ञान आदि का स्मरण न करता हुआ वन का स्मरण कर रहा है। इतना सुनते ही उस हाथी को अपने पूर्व भव का स्मरण हो गया और उसने प्रभु से संयमासंयम ग्रहण कर लिया।
इसी निमित्त से प्रभु को वैराग्य हो गया और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त भगवान अपराजित नामक पालकी पर बैठकर नीलवन में पहुंचे। वहाँ बेला के उपवास का नियम लेकर वैशाख कृष्ण दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उनकी प्रथम पारणा का लाभ राजगृह नगर के राजा वृषभसेन को प्राप्त हुआ था।
प्रभु के छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह मास व्यतीत हो गये तब वे उसी नीलवन में पहुँचे और बेला के नियम से सहित ध्यानारूढ़ हो गये। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में शाम के समय प्रभु को केवलज्ञान प्रकट हो गया। भगवान के समवसरण में मल्लि को आदि लेकर अठारह गणधर थे, तीस हजार मुनिराज, पुष्पदन्ता को आदि लेकर पचास हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। भगवान एक मास की आयु अवशेष रहने पर विहार बन्द करके सम्मेद शिखर पर जा पहुँचे तथा एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग में लीन हो गये। फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले भाग में शरीर से रहित अशरीरी सिद्ध हो गये। इन मुनिसुव्रत भगवान को मेरा नमस्कार होवे।
इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्र के वत्स देश में एक कौशाम्बी नाम की नगरी है। उसमें इक्ष्वाकुवंशी ‘पार्थिव’ नाम के राजा रहते थे और उनकी सुंदरी नाम की रानी थी। इन दोनों के सिद्धार्थ नाम का श्रेष्ठ पुत्र था। राजा ने किसी समय सिद्धार्थ पुत्र को राज्यभार देकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और आयु के अन्त में समाधिमरणपूर्वक स्वर्गस्थ हो गये। पिता के समाधिमरण का समाचार सुनकर राजा सिद्धार्थ विरक्त हो गये। मनोहर नाम के उद्यान में जाकर महाबल नामक केवलीभगवान से धर्म का स्वरूप सुनकर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया और शान्त संयमी मुनि हो गये। उन्होंने ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त करके सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया। तपश्चरणपूर्वक कर्म की निर्जरा करते हुए अन्त में समाधिमरण करके अपराजित नाम के श्रेष्ठ अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हो गये। वहाँ तेतीस सागर की आयु थी और एक हाथ ऊँचा शरीर था।पंचकल्याणक वैभव-जम्बूद्वीप के अन्तर्गत बंग देश में मिथिलानगरी है। वहाँ पर ऋषभदेव के वंशज काश्यपगोत्रीय विजय महाराज की रानी का नाम ‘वप्पिला’ था। आश्विन कृष्ण द्वितीया के दिन अश्विनी नक्षत्र में वप्पिला महादेवी के गर्भ में उपर्युक्त अहमिन्द्र का जीव आ गया। आषाढ़ कृष्ण दशमी के दिन स्वाति नक्षत्र में रानी ने तीन ज्ञानधारी पुत्र को जन्म दिया। इन्द्रों ने जन्मोत्सव के बाद पुत्र का नाम ‘नमिनाथ’ रखा। मुनिसुव्रतनाथ के बाद साठ लाख वर्ष के बीत जाने पर ये तीर्थंकर हुए हैं। प्रभु की आयु दस हजार वर्ष की थी और शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा था।
जब कुमार काल के ढाई हजार वर्ष बीत गये तब उनका राज्याभिषेक हुआ। राज्य करते हुए पाँच हजार वर्ष के बीत जाने पर एक दिन प्रभु वर्षा ऋतु से बादलों के व्याप्त होने पर उत्तम हाथी पर बैठकर वन विहार को गये थे। उसी समय आकाशमार्ग से दो देवों ने आकर विनयपूर्वक नमस्कार करके कहना शुरू किया कि हे देव! इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वत्सकावती देश है उसकी सुसीमा नगरी में अपराजित नाम के तीर्थंकर को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। उस केवलज्ञान की पूजा महोत्सव में हम लोग आये थे। उनकी सभा में प्रश्न हुआ कि क्या इस समय भरतक्षेत्र में कोई तीर्थंकर हैं ‘ सर्वदर्शी भगवान ने कहा कि हाँ! बंग देश की मिथिला नगरी के राजा नमिनाथ तीर्थंकर होने वाले हैं। इस समय वे देवों द्वारा लाये गये भोगोपभोग का अनुभव करते हुए गृहस्थावस्था में विद्यमान हैं।
उन देवों की बात सुनते ही प्रभु नगर में वापस आ गये। विदेहक्षेत्रस्थ अपराजित तीर्थंकर तथा उनके साथ अपने पूर्व भव के सम्बन्ध का स्मरण कर भगवान संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो गये। तत्क्षण ही लौकांतिक देवों ने उन महामना की पूजा की। देवों द्वारा आनीत ‘उत्तरकुरू’ नामक पालकी पर आरूढ़ होकर ‘चैत्रवन’ नामक उद्यान में पहुंचे। वहाँ बेला का नियम लेकर आषाढ़ कृष्णा दशमी के दिन अश्विनी नक्षत्र में सायं के समय एक हजार राजाओं के साथ ‘ नम: सिद्धेभ्य:’ मंत्र का उच्चारण करते हुए दीक्षित हो गये।वीरपुर नगर के राजा दत्त ने प्रभु की प्रथम पारणा का लाभ लिया था। छद्मस्थ अवस्था के नव वर्ष बीत जाने पर वे प्रभु एक दीक्षावन में पहुंचकर बेला के नियमपूर्वक वकुल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये। मगसिर शुक्ला एकादशी के दिन सायंकाल में लोकालोक प्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त हो गये।
उनके समवसरण में सुप्रभार्य आदि सत्रह गणधर थे। बीस हजार मुनि, मंगिनी आदि प्तिालीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें थीं। विहार करते हुए एक मास की आयु अवशेष रहने पर भगवान नमिनाथ सम्मेद शिखर पर पहुँच गये। वहाँ एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग में लीन हुए। प्रभु को वैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन रात्रि के अन्तिम अश्विनी नक्षत्र में सिद्धपद प्राप्त हो गया। देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया। ऐसे वे नमिनाथ तीर्थंकर सदा हमारी रक्षा करें।
पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम सुमेरू की पश्चिम दिशा में जो महानदी (सीतोदा नदी है) उसके उत्तर तट पर एक गंधिल नाम का महादेश है। उसके विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी में सूर्यनगर का स्वामी सूर्यप्रभ राज्य करता था। उसकी स्त्री का नाम धारिणी था दोनों के चिन्तागति, मनोगति और चपलगति नाम के तीन पुत्र हुए। उसी विजयार्ध की उत्तर श्रेणी के अरिन्दमन नगर में राजा अरिंजय की अजितसेना रानी से प्रीतिमती नाम की पुत्री हुई। उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो विद्या से मेरू की प्रदक्षिणा में मुझे जीत लेगा म् िउसी से विवाह करूँगी। उसने अपनी विद्या से चिन्तागति को छोड़कर समस्त विद्याधर कुमारों को मेरूपर्वत की तीन प्रदक्षिणा में जीत लिया।तब चिन्तागति उसे अपने वेग से जीतकर कहने लगा कि तू रत्नों की माला से मेरे छोटे भाई को स्वीकार कर। प्रीतिमती बोली, जिसने मुझे जीता है उसके सिवाय म् िदूसरे का वरण नहीं करूँगी। चिन्तागति ने कहा, चूँकि तूने पहले उन्हें प्राप्त करने की इच्छा से ही मेरे छोटे भाई के साथ गति युद्ध किया था अत: तू मेरे लिये त्याज्य है। चिन्तागति के यह वचन सुनते ही वह विरक्त हो गई और विवृत्ता नाम की आर्यिका के पास जाकर दीक्षित हो गई। यह देख वहाँ बहुत से लोगों ने दीक्षा धारण कर ली। कन्या का यह साहस देखकर चिन्तागति ने भी अपने दोनोें भाइयों के साथ दमवर नामक गुरू के पास दीक्षा ले ली। बहुत काल तक तपश्चरण करते हुये वे तीनों समाधिपूर्वक मरकर चौथे स्वर्ग में देव हो गये।मनोगति और चपलगति नाम के दोनों छोटे भाई के जीव स्वर्ग से च्युत हुए। जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के पुष्कला देश में जो विजयार्ध पर्वत है उसकी उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ नगर के राजा गगनचन्द की गगनसुंदरी रानी से दोनों देव के जीव अमितगाfत और अमिततेज नाम के पुत्र उत्पन्न हो गये।
इसी जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में सीतोदा के उत्तर तट पर सुगंधिलादेश में एक सिंहपुर नाम का नगर है। उसके अर्हदास राजा की जिनदत्ता रानी से चिंतागति देव का जीव च्युत होकर पुत्र हो गया। माता-पिता ने उसका नाम अपराजित रखा था।
किसी दिन राजा अर्हदास ने मनोहर नामक उद्यान में पधारे हुए विमलवाहन तीर्थंकर की वंदना करके धर्मरूपी अमृत का पान किया। अनन्तर अपराजित पुत्र को राज्य देकर पाँच सौ राजाओं के साथ मुनि हो गये। कुमार अपराजित पिता के दिये हुए राज्य का संचालन करने लगे और सम्यग्दर्शन तथा अणुव्रत से विभूषित होकर धर्म का पालन करने लगे। किसी दिन उन्होंने सुना कि ‘हमारे पिता के साथ श्री विमलवाहन भगवान गंधमादन पर्वत से मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं।’ यह सुनते ही उन्होंने प्रतिज्ञा की कि ‘ म् िविमलवाहन भगवान के दर्शन किये बिना भोजन नहीं करूँगा।’ इस प्रतिज्ञा से उसे आठ दिन का उपवास हो गया। तदनंतर इन्द्र की आज्ञा से यक्षपति ने उस राजा को भगवान विमलवाहन का साक्षात्कार कराकर दर्शन कराया अर्थात् समवसरण बनाकर विमलवाहन का दर्शन कराया।
किसी एक दिन बसंत ऋतु में अष्टान्हिका के समय बुद्धिमान राजा अपराजित जिन प्रतिमाओं की पूजा स्तुति करके वहीं पर बैठे हुए धर्मोपदेश कर रहे थे कि उसी समय आकाश से दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज आकर वहीं पर विराजमान हो गये। राजा ने उनके सम्मुख जाकर बड़ी विनय से उनके चरणों में नमस्कार किया, धर्मोपदेश सुना अनन्तर कहा कि हे पूज्य! म्निे पहले कभी आपको देखा है। उनमें से ज्येष्ठ मुनि बोले-हाँ राजन्! ठीक कहते हो, आपने हम दोनों को देखा है परंतु कहाँ देखा है‘ वह स्थान म् िकहता हूँ सो सुनो-
पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम मेरू संबंधी पश्चिम विदेह में गंधिल नाम का महादेश है। उसके विजयार्ध की उत्तर श्रेणी में सूर्यप्रभ नगर के राजा सूर्यप्रभ के चिंतागति, मनोगति और चपलगति नाम के तीन पुत्र थे। प्रीतिमती नाम की विद्याधर कन्या के गतियुद्ध के प्रसंग में हम तीनों ने दीक्षित होकर तपश्चरण करके चतुर्थ स्वर्ग को प्राप्त किया था।
वहाँ से च्युत होकर हम दोनों छोटे भाई पूर्व विदेह में अमितगति और अमिततेज नाम के विद्याधर हुए हैं। किसी एक दिन हम दोनों पुण्डरीकिणी नगरी गये। वहाँ श्री स्वयंप्रभ तीर्थंकर से हम दोनों ने अपने पिछले तीन जन्मों का वृत्तांत पूछा। तब भगवान ने सब भवावली बतलाई। अनन्तर हमने पूछा कि हमारा बड़ा भाई इस समय कहाँ है‘ इसके उत्तर में भगवान ने कहा कि वह सिंहपुर का अपराजित नाम का राजा है। यह सुनकर हम दोनों ने उन्हीं के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और तुम्हें देखने के लिए जन्मान्तर के स्नेहवश यहाँ आये हैं। अब तुम्हारी आयु केवल एक माह की शेष रह गई है शीघ्र ही आत्म कल्याण करो। हे अपराजित! तुम इससे पाँचवें भव में भरत-क्षेत्र के हरिवंश नामक महावंश में ‘अरिष्टनेमि’ नाम के तीर्थंकर होवोगे।’ यह सुनकर राजा ने बार-बार उन मुनियों की वंदना की और कहा कि आप यद्यपि निगर्ं्रथ अवस्था को प्राप्त हुए हैं तो भी जन्मांतर के स्नेह से आपने मेरा बड़ा ही उपकार किया किया। अनंतर मुनिराज के चले जाने के बाद राजा ने अपने पुत्र को राज्य देकर आप प्रायोपगमन संन्यास विधि से मरण करके सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र हो गये।
वह पुण्यात्मा वहाँ के दिव्य भोगों का अनुभव कर आयु के अंत में वहाँ से च्युत हुआ। इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र संबंधी कुरूजांगल देश में हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र की श्रीमती रानी से सुप्रतिष्ठ नाम का यशस्वी पुत्र हुआ। कालांतर में पिता द्वारा प्रदत्त राज्य का निष्कंटक उपभोग करते हुये किसी दिन यशोधर नामके मुनिराज को आहारदान देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया। किसी दूसरे दिन वह राजा रानियों के साथ राजमहल की छत पर बैठा हुआ दिशाओं की शोभा का अवलोकन कर रहा था कि इसी बीच अकस्मात् उल्कापात को देखकर विरक्त हो गया और सुमंदर नामक जिनेन्द्र भगवान के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।‘मुनिराज सुप्रतिष्ठ ने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों का अध्ययन किया और सर्वतोभद्र को आदि लेकर सिंहनिष्क्रीडितपर्यन्त अनेकों व्रतों का अनुष्ठान किया। हे यादव! श्रवण मात्र से ही पापों को नष्ट करने वाले उन उपवासों की महाविधि को तुम स्थिर मन कर के सुनो।” ऐसा हरिवंश पुराण में बताया है। यहाँ इन व्रतों की विधि न बतलाकर केवल कुछ नाममात्र दिये जाते हैं। विशेष जिज्ञासुओं को हरिवंश पुराण में ही देखना चाहिए।‘सर्वतोभद्र, वसंतभद्र, महासर्वतोभद्र, त्रिलोकसार, वङ्कामध्य, मृदंगमध्य, मुरजमध्य, एकावली, द्विकावली, मुक्तावली, रत्नावली, रत्नमुक्तावली, कनकावली, द्वितीय रत्नावली, सिंहनिष्क्रीडित, मध्यम सिंहनिष्क्रीडित तथा उत्तम और जघन्य सिंहनिष्क्रीडित, नंदीश्वर पंक्ति, मेरूपंक्ति, विमानपंक्ति शात कुंभ, चान्द्रायण, सप्तसप्त मतपोविधि, अष्टष्टम, नवनमादि, आचाम्लवर्धन, श्रुतविधि, दर्शनशुद्धि, तप:शुद्धि चारित्रशुद्धि, एककल्याण, पंचकल्याण, शीलकल्याण विधि, भावनाविधि, पंचविंशति-कल्याण भावनाव्रत, दु:खहरण कर्मक्षय, जिनेंद्रगुण संपत्ति, दिव्यलक्षणपंक्ति, धर्मचक्रविधि, परस्पर कल्याण, परिनिर्वाण, प्रातिहार्य प्रसिद्धि, विमान पंक्ति आदि व्रत।
‘इस प्रकार विधिवत इन व्रतों के कर्ता सुप्रतिष्ठ मुनिराज ने उस समय निर्मल सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म का बंध कर लिया।”
जब आयु का अंत आया तब समाधि धारण कर एक महीने का संन्यास लेकर प्राणों का त्याग किया और जयंत नामक अनुत्तर विमान मे अहमिंद्र पद प्राप्त कर लिया। वहां पर तेंतीस सागर की आयु थी और एक हाथ ऊँचा शरीर था। उनको साढ़े सोलह माह के अंत में एक बार श्वास का ग्रहण होता है। तेतीस हजार वर्ष बीत जाने पर एक बार मानसिक आहार था। इस प्रकार सुख सागर में निमग्न उन अहमिंद्र ने वहां की आयु को समाप्त कर दिया।नेमिनाथ का जन्म-कुशार्थ देश के शौरीपुर नगर में हरिवंशी राजा शूरसेन रहते थे। उनके वीर नाम के पुत्र की धारिणी रानी से अंधकवृष्टि और नरवृष्टि नाम के दो पुत्र हुए। अंधकवृष्टि की रानी का नाम सुभद्रा था। इन दोनों के समुद्रविजय, स्तिमितसागर, हिमवान्, विजय, अचल, धारण, पूरण, पूरितार्थीच्छ, अभिनंदन और वासुदेव ये दस पुत्र थे तथा कुन्ती और माद्री नाम की दो पुत्रियाँ थीं।समुद्रविजय की रानी का नाम शिवादेवी था। पिता के द्वारा प्रदत्त राज्य का श्री समुद्रविजय महाराज धर्मनीति से संचालन करते थे। छोटे भाई वसुदेव की रोहिणी से बलभद्र एवं देवकी रानी से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था।जब जयंत विमान के इन्द्र की आयु छह मास की शेष रह गई तब काश्यपगोत्री, हरिवंश शिखामणि राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के आंगन में देवोें द्वारा की गई रत्नों की वर्षा होने लगी। कार्तिक शुक्लाषष्ठी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वह अहमिंद्र का जीव रानी के गर्भ में आ गया।अनंतर नवमास के बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में ब्रह्मयोग के समय तीन ज्ञान के धारक भगवान का जन्म हुआ। इंद्रादि देवोें ने जन्मोत्सव मनाकर तीर्थंकर शिशु का ‘नेमिनाथ’ नामकरण किया। भगवान नमिनाथ के बाद पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमिजिनेन्द्र उत्पन्न हुये हैं। उनकी आयु एक हजार वर्ष की थी, शरीर दश धनुष ऊँचा था। प्रभु के शरीर का वर्ण नील कमल के सदृश होते हुये भी इतना सुन्दर था कि इंद्र ने एक हजार नेत्र बना लिये फिर भी रूप को देखते हुये तृप्त नहीं हुआ था।
हरिवंश पुराण में नेमिनाथ तीर्थंकर का जन्म सौर्यपुर में ही माना है। पश्चात् देवों द्वारा रची गई द्वारावती नगरी में श्री कृष्ण आदि के जाने की बात कही है।
कारणवश श्रीकृष्ण तथा होनहार श्री नेमिनाथ तीर्थंकर के पुण्य प्रभाव से इन्द्र की आज्ञा पाकर कुबेर ने एक सुन्दर ‘द्वारावती’ नामक नगरी की रचना की।
भगवान देवों द्वारा आनीत दिव्य भोगसामग्री का अनुभव करते हुये चिरकाल तक द्वारावती में रहे। किसी एक दिन मगध देश के कुछ व्यापारी उस नगरी में आ गये और वहाँ से श्रेष्ठरत्न खरीद कर अपने देश में ले गये तथा अर्धचक्री (प्रतिनारायण) राजा जरासंध को रत्न भेंट किये। राजा ने उन रत्नों को देखकर महान आश्चर्य चकित होकर उनसे पूछा कि आप ये रत्न कहाँ से लाये हो‘ उत्तर में उन लोगों ने श्रीकृष्ण और भगवान नेमिनाथ के वैभव का वर्णन कर दिया। यह सुनते ही जरासंध कुपित होकर युद्ध करने को तैयार हो गया।‘शत्रु चढ़कर आ गया है’ यह समाचार सुनकर श्री कृष्ण को जरा भी चिंता नहीं हुई। वे भगवान नेमिनाथ के पास गये और बोले कि आप इस नगर की रक्षा कीजिये। सुना है कि राजा जरासंध हम लोगों को जीतना चाहता है सो म् िउसे आपके प्रभाव से घुने हुये जीर्णवृक्ष के समान शीघ्र ही नष्ट किये देता हूँ। श्रीकृष्ण के वचन सुनकर प्रभु ने अपने आप अवधिज्ञान से विजय को निश्चित जानकर मुसकुराते हुये ‘ओम्- शब्द कह दिया अर्थात् अपनी स्वीकृति दे दी। श्रीकृष्ण भी प्रभु की मुस्कान से अपनी विजय को निश्चित समझकर समस्त यादव और पांडव आदिकों के साथ कुरूक्षेत्र में आ गये।इस भयंकर युद्ध में राजा जरासंध ने कुपित होकर चक्र श्रीकृष्ण पर चला दिया। वह चक्ररत्न भी श्रीकृष्ण की प्रदक्षिणा देकर उनकी दाहिनी भुजा पर ठहर गया बस क्या था श्रीकृष्ण ने उसी चक्र से जरासंध का काम समाप्त कर दिया और तत्क्षण ही देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। अर्धचक्री (नारायण) हो गये। अनंतर बड़े हर्ष से इन लोगों ने द्वारावती में प्रवेश किया और वहाँ पर राज्याभिषेक को प्राप्त हुए।
‘किसी एक दिन कुबेर द्वारा भेजे हुए वस्त्राभरणों से अलंकृत युवा श्री नेमिकुमार, बलदेव तथा नारायण आदि कोटि-कोटि यादवों से भरी हुई कुसुम-चित्रा नाम की सभा में गये। राजाओं ने अपने-अपने आसन छोड़ प्रभु के सन्मुख आकर उन्हें नमस्कार किया। श्रीकृष्ण ने भी आकर उनकी अगवानी की। तदनंतर श्रीकृष्ण के साथ वे उनके आसन को अलंकृत करने लगे।
वहाँ वार्तालाप के प्रसंग में बलवानों की गणना छिड़ने पर किसी ने अर्जुन को, किसी ने युधिष्ठिर को इत्यादि रूप से किसी ने श्रीकृष्ण को अत्यधिक बलशाली कहा। तरह-तरह की वाणी सुनकर बलदेव ने लीलापूर्ण दृष्टि से भगवान की ओर देखकर कहा कि तीनों जगत में इनके समान दूसरा बलवान् नहीं है, ये गिरिराज को अनायास ही कंपायमान कर सकते हैं यथार्थ में ये जिनेंद्र हैं इनसे उत्कृष्ट दूसरा कौन हो सकता है‘इस प्रकार वचन सुनकर श्रीकृष्ण न्ो भगवान से कहा-भगवन्! यदि आपके शरीर का ऐसा उत्कृष्ट बल है तो बाहुयुद्ध में उसकी परीक्षा क्यों न ली जाये‘ भगवान ने कहा-हे अग्रज! यदि आपको मेरी भुजाओं का बल जानना ही है तो मल्लयुद्ध की क्या आवश्यकता है‘ सहसा इस आसन से मेरे इस पैर को ही विचलित कर दीजिये। श्रीकृष्ण उसी समय कमर कसकर जिनेंद्र भगवान को जीतने की इच्छा से उठ खड़े हुए, परन्तु पैर का चलाना तो दूर ही रहा वे एक अंगुली को भी नहीं हिला सके। उसी समय इन्द्र का आसन कंपित होने से देवों सहित इन्द्र ने आकर भगवान की अनेकों स्तुतियों से स्तुति और पूजा की। तदनंतर सब अपने-अपने महलों में चले गये।नेमिनाथ का वैराग्य-किसी समय मनोहर नामक उद्यान में भगवान नेमिनाथ तथा सत्यभामा आदि जलकेलि कर रहे थे। स्नान के अनंतर श्री नेमिनाथ ने सत्यभामा से कहा-हे नीलकमल के समान नेत्रों वाली! तू मेरा यह स्नान का वस्त्र ले। सत्यभामा ने कहा, मैं इसका क्या करूँ ? नेमिनाथ ने कहा कि तू इसे धो डाल। तब सत्यभामा कहने लगी क्या आप श्रीकृष्ण हैं‘ वह श्रीकृष्ण, जिन्होंने कि नागशय्या पर चढ़कर शार्ङ्ग नाम का धनुष अनायास ही चढ़ा दिया था और दिग्दिगंत को व्याप्त करने वाला शंख पूरा था? क्या आपमें यह साहस है? यदि नहीं तो आप मुझसे वस्त्र धोने की बात क्यों करते हैं‘
नेमिनाथ ने कहा कि ‘मंै यह कार्य अच्छी तरह कर दूँगा’ इतना कहकर वे गर्व से प्रेरित हो आयुधशाला में पहुँच गये। वहाँ नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशय्या पर अपनी ही शय्या के समान चढ़ गये और शार्ङ्ग धनुष चढ़ाकर समस्त दिशाओं के अंतराल को रोकने वाला शंख फूंक दिया। उस समय श्रीकृष्ण अपनी कुसुमचित्रा सभा में विराजमान थे। वे सहसा ही यह आश्चर्य पूर्ण काम सुनकर व्यग्र हो उठे। बड़े आश्चर्य से किंकरों से पूछा कि यह क्या है‘ किंकरों ने भी पता लगाकर सारी बात बता दी।उस समय अर्ध चक्री श्रीकृष्ण ने विचार करते हुये कहा कि आश्चर्य है, बहुत समय बाद कुमार नेमिनाथ का चित्त राग से युक्त हुआ है। अब इनका विवाह करना चाहिए। वे शीघ्र ही राजा उग्रसेन के घर स्वयं पहुँच गये और रानी जयावती से उत्पन्न राजीमति कन्या की श्री नेमिनाथ के लिए याचना की। राजा उग्रसेन ने कहा हे देव! आप तीन खण्ड के स्वामी हंै अत: आपके सामने हम लोग कौन होते हैं‘ शुभ मुहूर्त में विवाह निश्चित हो गया।तदनंतर देवोें द्वारा आनीत नाना प्रकार के वस्त्राभूषणों से सुसज्जित भगवान नेमिनाथ, समान वयवाले अनेक मंडलेश्वर राजपुत्रों से घिरे हुये चित्रा नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर दिशाओं का अवलोकन करने के लिए निकले। वहाँ उन्होंने करूणस्वर से चिल्लाते हुये और इधर-उधर दौड़ते हुए, भूख, प्यास से व्याकुल हुए तथा अत्यंत भयभीत हुए, दानदृष्टि से युक्त मृगों को देख दयावश वहां के रक्षकों से पूछा कि यह पशुसमूह क्यों इकट्ठा किया गया है‘ नौकरों ने कह दिया कि आपके विवाह में ये मारे जायेंगे। उसी समय श्री नेमिकुमार को पशुओं के अत्याचार के प्रति करूणा जाग्रत हो गई और शीघ्र ही भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया और विरक्त चित्त हुए लौटकर अपने घर वापस आ गये। अपने अनेक पूर्व भवों का स्मरण कर भयभीत हो गये। अब तक प्रभु के कुमार काल के तीन सौ वर्ष व्यतीत हो चुके थे।
तत्क्षण ही लौकांतिक देवों से पूजा को प्राप्त हुए प्रभु को देवों ने देवकुरू नाम की पालकी पर बिठाया और सहस्राम्र वन में ले गये। श्रावण कृष्ण षष्ठी के दिन सायंकाल के समय तेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा से विभूषित हो गये। उसी समय उन्हें चौथा मन:पर्यय ज्ञान प्रगट हो गया।
राजीमती ने भी प्रभु के पीछे तपश्चरण करने का निश्चय कर लिया सो ठीक ही है क्योंकि शरीर की बात तो दूर ही रही, वचनमात्र से भी दी हुई कुलस्त्रियों का यही न्याय है।
पारणा के दिन द्वारावती नगरी में राजा वरदत्त ने पड़गाहन करके प्रभु को आहार दिया जिसके फलस्वरूप पंचाश्चर्य को प्राप्त हो गये अर्थात् देवों ने साढ़े बारह करोड़ रत्न वर्षाये। पुष्प वृष्टि, मन्द सुगन्ध वायु, दुन्दुभी बाजे और अहोदानं आदि प्रशंसा वाक्य होने लगे।
इस प्रकार तपश्चर्या करते हुये प्रभु के छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन व्यतीत हो गये तब वे रैवतक पर्वत पर पहुँचे, तेला का नियम लेकर किसी बड़े भारी बाँस वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रात: काल के समय प्रभु को लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान प्रकट हो गया। उनके समवसरण में वरदत्त को आदि लेकर ग्यारह गणधर थे, अठारह हजार मुनि, राजीमती आदि चालीस हजार आर्यिकाएं, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएं थीं। भगवान की सभा में बलभद्र और श्रीकृष्ण जैसे महापुरूष आये। धर्म का स्वरूप सुना और अपने सभी भव-भवांतर पूछे।किसी समय भगवान की दिव्यध्वनि से यह बात मालूम हुई कि ‘द्वीपायन मुनि के क्रोध के निमित्त से इस द्वारावती नगरी का विनाश होगा’ इस भावी दुर्घटना को सुनकर कितने ही महापुरूषों ने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली थी। इस प्रकार प्रभु नेमिनाथ ने छह सौ निन्यानवे वर्ष, नौ महीना और चार दिन तक विहार किया था।
अनन्तर गिरनार पर्वत पर आकर विहार छोड़कर पाँच सौ तेतीस मुनियों के साथ एक महीने का योग निरोध करके आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारम्भ में ही प्रभु ने अघातिया कर्मों का नाश कर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। उसी समय इंद्रादि देवों ने आकर बड़ी भक्ति से प्रभु का परिनिर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया। वे श्री नेमिनाथ भगवान हमारे अंत:करण को पूर्णशांति प्रदान करें।
इसी जम्बूद्वीप के दक्षिण भरत क्षेत्र में एक सुरम्य नाम का बड़ा भारी दे७ा है। उसके पोदनपुर नगर में अति७ाय धर्मात्मा अरविन्द राजा राज्य करते थे। उसी नगर में वि७वभूति ब्राह्मण की अनुन्धरी ब्राह्मणी से उत्पन्न हुए कमठ और मरूभूति नाम के दो पुत्र थे जोकि क्रम७ा: विष और अम त से बनाये हुए के समान मालूम पड़ते थे। कमठ की स्त्री का नाम वरूणा तथा मरूभूति की स्त्री का नाम वसुन्धरा था। ये दोनों ही राजा के मन्त्री थे।
एक समय किसी राज्यकार्य से मरूभूति बाहर गया था तब कमठ मरूभूति की स्त्री वसुन्धरा के साथ व्यभिचारी बन गया। राजा अरविंद को यह बात पता चलते ही उन्होंने उस कमठ को दण्डित करके दे७ा से निकाल दिया। वह कमठ भी मानभंग से दु:खी होकर किसी तापस आश्रम में जाकर हाथ में पत्थर की ७िाला लेकर कुतप करने लगा। भाई के प्रेम के व७ाीभूत हो मरूभूति भी कमठ को ढूंढ़ता हुआ उधर चल पड़ा। उसे आते देख क्रोध के आवे७ा में आकर कमठ ने वह हाथ की ७िाला उसके सिर पर पटक दी जिससे मरूभूति मरकर सल्लकी वन में वङ्काघोष नाम का हाथी हो गया।
किसी समय अरविन्द ने विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया और संयम धारणकर सब संघ की वंदना के लिये प्रस्थान किया। चलते-चलते वे उसी वन में पहुँचकर सामायिक के समय प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। वह हाथी संघ में हाहाकार करता हुआ अरविन्द महाराज के सन्मुख आकर मारने के लिए दौड़ा, तत्क्षण ही उनके वक्षस्थल में वत्स के चिन्ह को देखते ही उसे पूर्व भव संबंध का स्मरण हो आया तब वह पश्चाताप से शांत होता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। अनंतर अरविन्द मुनिराज ने उसे धर्मोपदेश देकर श्रावक के व्रत ग्रहण करा दिये।उस समय से वह हाथी पाप से डर कर दूसरे हाथियों द्वारा तोड़ी हुई वृक्ष की शाखाओं और सूखे पत्तों को खाने लगा। पत्थरों के गिरने से अथवा हाथियों के समूह के संघटन से जो पानी प्रासुक हो जाता था उसे ही वह पीता था तथा प्रोषधोपवास के बाद पारणा करता था। इस प्रकार चिरकाल तक महान तपश्चरण करता हुआ वह हाथी अत्यन्त दुर्बल हो गया। किसी दिन वह हाथी पानी पीने के लिए वेगवती नदी के किनारे गया और कीचड़ में गिरकर पँâस गया, निकल नहीं सका। वहाँ पर दुराचारी कमठ का जीव मरकर कुक्कुट सर्प हुआ था उसने पूर्व वैर के संस्कार से उसे काट खाया जिससे वह हाथी महामंत्र का स्मरण करते हुए मरकर बारहवें स्वर्ग में देव हो गया। इधर वह सर्प पाप से मरकर तीसरे नरक चला गया।
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश है उसके विजयार्ध पर्वत पर त्रिलोकोत्तम नगर में राजा विद्युत्गति राज्य करते थे। वह देव का जीव वहाँ से च्युत होकर राजा की विद्युन्माला रानी से रश्मिवेग नाम का पुत्र हो गया। रश्मिवेग ने युवावस्था में समाधिगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा लेकर महासर्वतोभद्र आदि श्रेष्ठ उपवास किये। किसी समय हिमगिरि पर्वत की गुफा में योग धारण कर विराजमान थे कि कुक्कुट सर्प का जीव जो नरक से निकल कर अजगर हुआ था उसने निगल लिया। मुनि का जीव मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ और कालांतर में अजगर मरकर छठे नरक चला गया।
जंबूद्वीप के पूर्व विदेह सम्बन्धी पद्मादेश में अश्वपुर नगर है। वहाँ के राजा वङ्कावीर्य और रानी विजया के वह स्वर्ग का देव मरकर वङ्कानाभि नाम का पुत्र हुआ। वह पुण्यशाली वङ्कानाभि चक्रवर्ती के पद का भोक्ता हो गया, अनंतर किसी समय विरक्त होकर साम्राज्य वैभव का त्यागकर क्षेमंकर गुरू के समीप जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। कमठ का जीव, जो कि अजगर की पर्याय में मरकर छठे नरक गया था वह कुरंग नाम का भील हो गया था। किसी दिन तपस्वी चक्रवर्ती वन में आतापन योग ये विराजमान थे, उन्हें देखकर उस भील का वैर भड़क उठा, उसने मुनिराज पर भयंकर उपसर्ग किए। मुनिराज आराधनाओं की आराधना से मरण कर मध्यम ग्रैवेयक में श्रेष्ठ अहमिन्द्र हो गए तथा वह पापी भील आयु पूरी करके पाप के भार से पुन: नरक चला गया।जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशलदेश सम्बन्धी अयोध्या नगरी में काश्यपगोत्री इक्ष्वाकुवंशी राजा वङ्काबाहु राज्य करते थे। उनकी रानी प्रभंकरी थी वह अहमिन्द्र च्युत होकर रानी के गर्भ से आनंद नाम का आनंददायी पुत्र हो गया। वह बड़ा होकर मंडलेश्वर राजा हुआ। किसी दिन आनंद राजा ने महामंत्री के कहने से आष्टान्हिक महापूजा कराई जिसे देखने के लिए विपुलमति नाम के मुनिराज पधारे। आनंदराज ने उनकी वंदना पूजा आदि करके उनसे पूछा कि हे भगवन्! जिनेन्द्र प्रतिमा अचेतन है उसकी पूजा से पुण्यबंध वैâसे होता है‘ मुनिराज ने कहा यद्यपि प्रतिमा अचेतन है तो भी महान पुण्य का कारण है जैसे चिंतामणि रत्न, कल्पवृक्ष आदि अचेतन होकर मनचिंतित और मनचाहे फल देते हैं वैसे ही प्रतिमाओं की वंदना पूजा आदि से जो शुभ परिणाम होते हैं उनसे सातिशय पुण्य ब्ांध हो जाता है इत्यादि प्रकार से वीतराग प्रतिमा का वर्णन करते हुए मुनिराज ने राजा के सामने तीन लोक सम्बन्धी अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन करना शुरू किया। उसमें प्रारम्भ में ही सूर्य के विमान में स्थित जिनमंदिर की विभूति का अच्छी तरह वर्णन किया। उस असाधारण विभूति को सुनकर राजा आनन्द को बहुत ही श्रद्धा हो गई। उस दिन से वह प्रतिदिन हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर सूर्य विमान में स्थित जिनप्रतिमाओं की स्तुति करने लगा। उसने कारीगरों द्वारा मणि और सुवर्ण का एक सूर्य विमान बनवाकर उसके भीतर जिनमन्दिर बनवाया। अनन्तर शास्त्रोक्त विधि से आष्टान्हिक, चतुर्मुख, रथावर्त, सर्वतोभद्र और कल्पवृक्ष इन नाम वाली पूजाओं का ‘अनुष्ठान’ किया।
‘‘उस राजा को इस तरह सूर्य की पूजा करते देखकर उसकी प्रामाणिकता से अन्य लोग भी स्वयं भक्तिपूर्वक सूर्यमंडल की स्तुति करने लगे। आचार्य कहते हैं कि इस लोक में उसी समय से सूर्य की उपासना चल पड़ी है।’’किसी दिन आनन्द राजा ने अपने सिर पर एक सफेद बाल देखा तत्क्षण विरक्त होकर पुत्र को राज्य वैभव देकर समुद्रगुप्त मुनिराज के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और सोलहकारण भावनाओं के चिंतवन से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयु के अंत समय वे धीर-वीर शांतमना मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर ध्यान में लीन थे। पूर्व जन्म के कमठ का जीव नरक से निकलकर वहीं सिंह हुआ था। सो उसने आकर उन मुनि का कण्ठ पकड़ लिया। सिंहकृत उपसर्ग से विचलित नहीं होने वाले वे मुनिराज मरणकर अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग के प्राणत नामक विमान में इन्द्र हो गए। वहाँ पर उनकी आयु बीस सागर की थी, साढ़े तीन हाथ ऊँचा शरीर था। वे वहाँ दिव्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। उधर सिंह का जीव भी आयु पूरी करके मरकर नरक चला गया और वहाँ के भयंकर दु:खों का चिरकाल तक अनुभव करता रहा।गर्भावतार-इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी काशी देश में बनारस नाम का एक नगर है। उसमें काश्यप गोत्री राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ब्राह्मी था। जब उन सोलहवें स्वर्ग के इन्द्र की आयु छह मास की अवशेष रह गई थी तब इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आँगन में रत्नों की धारा बरसाना शुरू कर दी थी। रानी ब्राह्मी ने सोलहस्वप्नपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीया के दिन इन्द्र के जीव को गर्भ में धारण किया था।
नवमास पूर्ण होने पर पौष कृष्णा एकादशी के दिन पुत्र का जन्म हुआ था। इन्द्रादि देवों ने सुमेरू पर्वत पर ले जाकर तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक करके ‘पार्श्वनाथ’ यह नामकरण किया था। श्री नेमिनाथ के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयु सौ वर्ष की थी जोकि इसी अंतराल में सम्मिलित है। प्रभु की कांति हरितवर्ण की एवं शरीर की ऊँचाई नौ हाथ प्रमाण थी। ये उग्रवंशी थे।सोलह वर्ष बाद नवयौवन से युक्त भगवान किसी समय क्रीडा के लिये अपनी सेना के साथ नगर के बाहर गये। कमठ का जीव जो कि सिंह पर्याय से नरक गया था वह वहाँ से आकर महीपाल नगर का महीपाल नाम का राजा हुआ था। उसी की पुत्री ब्राह्मी (वामा देवी) भगवान पार्श्वनाथ की माता थीं। यह राजा (भगवान के नाना) किसी समय अपनी पत्नी के वियोग में तपस्वी होकर वहीं आश्रम के पास वन में पंचाग्नियों के बीच में बैठा तपश्चरण कर रहा था। देवों द्वारा पूज्य भगवान उसके पास जाकर उसे नमस्कार किये बिना ही खड़े हो गये। यह देखकर वह खोटा साधु क्रोध से युक्त हो गया और सोचने लगा ‘‘म् िकुलीन हूँ, तपोवृद्ध हूँ और इसका नाना हूँ’’ फिर भी इस अज्ञानी कुमार ने अहंकारवश मुझे नमस्कार नहीं किया है, क्षुभित हो उसने अग्नि में लकड़ियों को डालने के लिए पड़ी हुई लकड़ी को काटने हेतु अपना फरसा उठाया, इतने में ही अवधिज्ञानी भगवान पार्श्वनाथ ने कहा, ‘‘इसे मत काटो’’ इसमें जीव हैं किन्तु मना करने पर भी उसने लकड़ी काट ही डाली, तत्क्षण ही उसके भीतर रहने वाले सर्प और सर्पिणी निकल पड़े और घायल हो जाने से छटपटाने लगे।
यह देखकर प्रभु के साथ स्थित सुभौमकुमार ने कहा कि तू अहंकारवश यह कुतप करके ताप का ही आस्रव कर रहा है। सुभौम के वचन सुन तपस्वी क्रुधित होकर अपने तपश्चरण की महत्ता प्रकट करने लगा। तब सुभौमकुमार ने अनेक युक्तियों से उसे समझाया कि सच्चे देव, शास्त्र और गुरू के सिवाय कोई हितकारी नहीं है। जिनधर्म में प्रणीत सच्चे तपश्चरण से ही कर्म निर्जरा होती है। यह मिथ्यातप, जीव हिंसा सहित होने से कुतप ही है। यद्यपि वह तापसी समझ तो गया किन्तु पूर्व बैर का संस्कार होने से अपने पक्ष के अनुराग से अथवा दु:खमय संसार के कारण से अथवा स्वभाव से ही दुष्ट होने से उसने स्वीकार नहीं किया प्रत्युत् यह सुभौमकुमार अहंकारी होकर मेरा तिरस्कार कर रहा है ऐसा समझ वह भगवान पार्श्वनाथ पर अधिक क्रोध करने लगा। इसी शल्य से मरकर ‘शम्बर’ नाम का ज्योतिषी देव हो गया।इधर सर्प और सर्पिणी कुमार के उपदेश से शांतभाव को प्राप्त हुए तथा मरकर बड़े ही वैभवशाली धरणेन्द्र और पद्मावती हो गये।
अनंतर भगवान जब तीस वर्ष के हो गये तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने उत्तम घोड़ा आदि की भेंट के साथ अपना दूत भगवान पार्श्वनाथ के समीप भेजा। भगवान ने भेंट लेकर उस दूत से अयोध्या की विभूति पूछी। उत्तर में दूत ने सबसे पहले भगवान ऋषभदेव का वर्णन किया पश्चात् अयोध्या का हाल कहा। उसी समय ऋषभदेव के सदृश अपने को तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हुआ है, ऐसा सोचते हुए भगवान गृहवास से पूर्ण विरक्त हो गये और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त हुए। प्रभु देवों द्वारा लाई गई विमला नाम की पालकी पर बैठकर अश्ववन में पहुँच गये। वहाँ तेला का नियम लेकर पौष कृष्णा एकादशी के दिन प्रात: काल के समय सिद्ध भगवान को नमस्कार करके प्रभु तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षित हो गये।
पारणा के दिन गुल्मखेट नगर के धन्य नामक राजा ने अष्ट मंगलद्रव्यों से प्रभु का पड़गाहन कर आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त कर लिये। छद्मस्थ अवस्था के चार मास व्यतीत हो जाने पर भगवान अश्ववन नामक दीक्षावन में पहँुचकर देवदारू वृक्ष के नीचे विराजमान होकर ध्यान में लीन हो गये। इसी समय कमठ का जीव शम्बर ज्योतिषी आकाशमार्ग से जा रहा था, अकस्मात् उसका विमान रूक गया, उसे विभंगावधि से पूर्व का बैर बंध स्पष्ट दिखने लगा। फिर क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना, महावृष्टि, भयंकर वायु आदि से महा उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया, बडे+ बड़े पहाड़ तक लाकर समीप में गिराये, इस प्रकार उसने सात दिन तक लगातार भयंकर उपसर्ग किया।अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जानकर धरणेन्द्र अपनी भार्या पद्मावती के साथ पृथ्वी तल से बाहर निकला। धरणेन्द्र ने भगवान को सब ओर से घेर कर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया और उस की पत्नी वङ्कामय छत्र तान कर खड़ी हो गई। आचार्य कहते हैं देखो! स्वभाव से ही क्रूर प्राणी इन सर्प सर्पिणी ने अपने ऊपर किये गये उपकार को याद रखा सो ठीक ही है क्योंकि सज्जन पुरूष अपने ऊपर किये हुए उपकार को कभी नहीं भूलते हैं।तदनंतर ध्यान के प्रभाव से प्रभु का मोहनीय कर्म क्षीण हो गया इसलिए बैरी कमठ का सब उपसर्ग दूर हो गया। मुनिराज पार्श्वनाथ ने चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में लोकालोकप्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्रों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। शंबर नाम का देव भी का काललब्धि पाकर उसी समय शांत हो गया और उसने सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया। यह देख, उस वन में रहने वाले सात सौ तपस्वियों ने मिथ्यादर्शन छोड़कर संयम धारण कर लिया, सभी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हो गये और बड़े आदर से प्रदक्षिणा देकर भगवान की स्तुति भक्ति की। आचार्य कहते हैं कि पापी कमठ के जीव का कहां तो निष्कारण वैर और कहां ऐसी पार्श्वनाथ की शांति! इसलिए संसार के दु:खों से भयभीत प्राणियों को वैर विरोध का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर दस गणधर थे, सोलह हजार मुनिराज, सुलोचना को आदि लेकर छत्तीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। इस प्रकार बारह सभाओं को धर्मोपदेश देते हुए भगवान ने पाँच मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया। अंत में आयु का एक माह शेष रहने पर विहार बंद हो गया। प्रभु पार्श्वनाथ सम्मेदाचल के शिखर पर छत्तीस मुनियों के साथ प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन प्रात:काल के समय विशाखा नक्षत्र में सिद्धपद को प्राप्त हो गये। इन्द्रों ने आकर मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया। ऐसे पार्श्वनाथ भगवान हमें भी सम्पूर्ण प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति प्रदान करें।
जन्मभूमि कुण्डलपुर-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड है। इस आर्यखण्ड में ‘‘विदेह” नाम से एक प्रसिद्ध देश माना गया है। कभी यह देश खेट, खर्वट, मटंब, पुटभेदन, द्रोणामुख, आकर-सुवर्ण, चाँदी आदि की खान, खेत, ग्राम और घोषों से विभूषित था। जैसा कि वर्णन है-
सखेटखर्वटाटोपिमटंबपुटभेदनै:। द्रोणामुखाकरक्षेत्रग्रामघोषैर्विभूषित:१।।३।।
जो देश नगर, नदी और पर्वत से घिरा हो वह ‘‘खेट” है। जो केवल पर्वतों से घिरा हो वह ‘खर्वट” है। जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो वह ‘‘मटम्ब” है। जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नाव से उतरते हों वह ‘‘पत्तन” या ‘‘पुटभेदन” कहलाता है। जो नदी के किनारे बसा हो उसे ‘‘द्रोणामुख” कहते हैं। जहाँ सोना, चाँदी आदि निकलते हैं उसे ‘‘खान” कहते हैं। अन्न उत्पन्न होने की भूमि क्षेत्र-‘‘खेत” है। जिसमें बाढ़ से घिरे हुए घर हों, जिसमें अधिकतर किसान लोग निवास करते हों, जो बाग-बगीचा और मकानों से सहित हों उन्हें ‘‘ग्राम” कहते हैं और जहाँ अहीर लोग रहते हों उसे ‘घोष” कहते हैं। ये सब शास्त्रीय प्राचीन परिभाषाएँ हैं। इन सभी से सहित वह ‘विदेह” देश था।
इस देश की राजधानी कुण्डपुर या कुण्डलपुर प्रसिद्ध थी। यह परकोटा एवं खाई आदि से विभूषित बहुत ही वैभवपूर्ण नगरी थी। इसका वर्णन बहुत ही सुन्दर किया गया है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि-
एतावतैव पर्याप्तं, पुरस्य गुणवर्णनम्।
स्वर्गावतरणे तद्यद्वीरस्याधारतां गतम्१।।१२।।
इस नगर के गुणों का वर्णन तो इतने से ही पर्याप्त हो जाता है कि वह नगर स्वर्ग से अवतार लेते समय भगवान महावीर का आधार हुआ था अर्थात् साक्षात् महावीर स्वामी जहाँ अवतीर्ण हुए थे।
राजा सिद्धार्थ के माता-पिता का नाम हरिवंशपुराण में वर्णित है-
सर्वार्थश्रीमतीजन्मा, तस्मिन् सर्वार्थदर्शन:।
सिद्धार्थोऽभवदर्काभो, भूप: सिद्धार्थपौरूष:२।।३।।
यहाँ के राजा ऽ‘सर्वार्थ” महाराज थे और उनकी महारानी का नाम ‘‘श्रीमती” था। इनके पुत्र का नाम ‘‘सिद्धार्थ” था। इनकी रानी महाराजा चेटक की पुत्री ‘‘प्रियकारिणी” थीं जिनका दूसरा नाम ‘‘त्रिशला” था। जो राजा सिद्धार्थ वर्तमान में भगवान वर्द्धमान के पिता के पद को प्राप्त हुए थे भला उनके उत्कृष्ट गुणों का वर्णन कौन कर सकता है‘ तथा अपने पुण्य से तीर्थंकर महावीर को जन्म देने वाली उन त्रिशला के गुणों का वर्णन भी कोई मनुष्य नहीं कर सकता है।
महावीर प्रभु का जन्म कुण्डलपुर में हुआ ऐसा वर्णन तिलोयपण्णत्ति एवं षट्खण्डागम में भी आया है। यथा-
सिद्धत्थरायपियकारिणीहिं, णयरम्मि कुंडले वीरो।
उत्तरफग्गुणिरिक्खे, चित्तसिया तेरसीए उप्पण्णे।।५४९।।
अब भगवान महावीर के नाना के कुल का संक्षिप्त वर्णन आपके लिए प्रस्तुत है-
सिंध्वाख्ये विषये भूभृद्वैशाली नगरेऽभवत्।
चेटकाख्योऽतिविख्यातो विनीत: परमार्हत:३।।३।।
सिंधुदेश के वैशालीनगर में चेटक नाम के प्रसिद्ध राजा थे, इनकी रानी का नाम भद्रा-सुभद्रा था। इनके दश पुत्र थे जिनके नाम धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, शिवदत्त, हरिदत्त, कम्बोज, कम्पन, प्रयंग, प्रभंजन और प्रभास थे ये दशों पुत्र दशधर्मों के समान निर्मल गुणों से विभूषित थे। इन्हीं राजा चेटक की महारानी ने सात ऋद्धियों के समान ही सात पुत्रियों को जन्म दिया था जो क्रमश: प्रियकारिणी, मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलिनी, ज्येष्ठा और चन्दना इन नाम को धारण करने वाली थीं।विदेहदेश की कुण्डपुरीदृकुण्डलपुरी नगरी में ‘‘नाथवंश” के राजा सिद्धार्थ के साथ राजा चेटक ने अपनी बड़ी पुत्री प्रियकारिणी ‘‘त्रिशला” का विवाह किया था। वत्सदेश में कौशाम्बी नगरी के चंद्रवंशी राजा शतानीक के साथ दूसरी पुत्री मृगावती का विवाह हुआ था। दशार्ण देश के हेरकच्छनगर में सूर्यवंशी राजा दशरथ राज्य करते थे, राजा चेटक की तृतीय पुत्री सुप्रभा इन दशरथ की पट्टरानी हुई थीं। कच्छदेश के ‘‘रोरूकनगर” में राजा उदयन राज्य करते थे, चतुर्थ पुत्री प्रभावती उनकी महारानी हुई थीं। पांचवी पुत्री चेलिनी राजगृही के राजा श्रेणिक की पट्टरानी हुई थीं१ तथा ज्येष्ठा और चन्दना कुमारिका ने आर्यिका दीक्षा से अपना जीवन विभूषित किया था।
यही प्रकरण ‘‘वीरजिणिंदचरिउ” ग्रंथ में भी आया है-
जम्बूद्वीप के विदेहप्रदेश में कुण्डपुर-कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ की महारानी प्रियकारिणी से भगवान महावीर जन्में हैं२।
इसी ग्रन्थ में राजा चेटक की राजधानी वैशाली का वर्णन आया है इसे सिंधुदेश में माना है। इन राजा के दश पुत्र और प्रियकारिणी आदि सात पुत्रियाँ थीं। जिनमें से बड़ी पुत्री प्रियकारिणी को कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ की महारानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था३।
गर्भावतरण-भगवान महावीर होने वाले महापुरूष सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में थे। जब उनकी आयु मात्र छह महिने की शेष रही तब सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने विदेहदेश की राजधानी कुण्डलपुरी में राजा सिद्धार्थ के आँगन में रत्नों की वृष्टि करना शुरू कर दी। ये रत्न प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ बरसते थे।
जैसा कि उत्तरपुराण में लिखा है-
तस्मिन् षण्मासशेषायुष्यानाकादागमिष्यति।
भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये, विषये भवनांगणे।।२५१।।
राज्ञ: कुंडपुरेशस्य, वसुधाराप तत्पृथु।
सप्तकोटीमणी: सार्द्धा:, सिद्धार्थस्य दिनं प्रति।।२५२।।
यहाँ यह बात ध्यान में रखना है कि राजा सिद्धार्थ वैशाली के राजा नहीं थे और न ही वे वैशाली के अन्तर्गत छोटे से कुण्डग्राम के छोटे-मोटे राजा थे किन्तु वे तत्कालीन वैशाली के राजा चेटक जो कि उनके श्वसुर थे, ये सिद्धार्थ इनसे भी श्रेष्ठ तथा इन्द्रों से भी पूज्य महान राजा थे।इन राजा के महल का नाम ‘नंद्यावर्त” था। यह सात खन का बहुत ही सुन्दर था। एक दिन महारानी त्रिशला अपने ‘‘नंद्यावर्त” महल में रत्ननिर्मित सुंदर पलंग पर सोई हुई थीं, रात्रि में रत्नों के दीपों का प्रकाश पैâला हुआ था। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन पिछली रात्रि में रानी ने सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव से उनका फल पूछने पर ‘‘आप तीर्थंकर पुत्र को जन्म देंगी” ऐसा सुनकर प्रसन्नता को प्राप्त हुईं। तभी इन्द्रादिदेवगण ने आकर ‘गर्भकल्याणक” उत्सव मनाया।
आचार्य श्री सकलकीर्ति विरचित ‘‘श्री महावीर पुराण” में भी कहा है-
जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में ‘विदेह’ नाम का एक विस्तृत देश है। धार्मिक पुरूषों का निवास स्थान होने के कारण वह विदेहक्षेत्र तीर्थ तुल्य ही शोभायमान है। इस स्थान से कितने ही मुनियों ने मोक्ष को प्राप्त किया है अत: नाम के अनुसार इसका गुण भी सार्थक है। यहाँ के निवासी कोई-कोई सोलहकारण आदि भावनाओं को भाकर तीर्थंकर नामकर्म का बंध किया करते हैं। यहाँ के वन पर्वत भी ध्यानस्थ योगियों से विशेषरूप से शोभायमान हैं एवं भव्य उत्तुंग जिनमंदिरों को देखकर किसी महान धार्मिक स्थान का बोध होता है। विदेह प्रदेश के ग्राम-मुहल्ले सभी जिनालयों से सुशोभित हैं। यहाँ पर मुनिसमूह चारों प्रकार के संघ के साथ धर्म प्रवृत्ति के लिये सदा विहार किया करता है।इसी विदेह देश-जनपद के ठीक मध्य में ‘कुण्डलपुर’ एक अत्यंत रमणीय नगर है। यहाँ के कोट द्वार एवं अलंघ्य खाइयों को देखकर अपराजिता-अयोध्या नगरी का भान होता है। देवगणों के आवागमन से इस नगर में सदा कोलाहल सा मचा रहता था। यहाँ के ऊँचे-ऊँचे जैन मंदिरों को देखकर लोगों को कुण्डलपुर के प्रति अपार श्रद्धा होती थी। वह नगर धर्म का समुद्र जैसा प्रतीत होता था। वहाँ के जिनालय ‘जय-जय’ शब्द, स्तुति, नृत्य, गीत आदि से सर्वदा मुखरित रहते थे। स्वर्ग के दिव्य उपकरणों सहित रत्नमयी प्रतिमाओं का दर्शन कर वहाँ के लोग कृतार्थ हो जाया करते थे। उस नगर के ऊँचे परकोटे को देखकर यह भान होता था कि वे उच्च स्थान देने के लिये स्वर्ग के देवों को बुला रहे हैं। उस नगर के निवासी दाता, धर्मात्मा, शूरवीर, व्रत-शीलादि से युक्त संयमी होते थे। वे पुरूष जिनेन्द्रदेव की भक्ति, निर्ग्रंन्थ गुरू भक्ति, सेवा एवं पूजा में सदा तत्पर रहा करते थे।
उस नगरी-राजधानी के राजा का नाम ‘सिद्धार्थ’ था। वे नाथवंशरूपी गगन को सुशोभित करने वाले साक्षात् सूर्य थे। वे महाराज मति, श्रुत, अवधि तीनों ज्ञान को धारण करने वाले थे। उन्होंने सदा नीतिमार्ग को प्रश्रय दिया था। वे जिनदेव के भक्त, महादानी एवं दिव्य ज्ञान के धारक थे। उनके चरणों की सेवा बड़े-बड़े विद्याधर, भूमिगोचरी एवं देव किया करते थे। वे समस्त राजाओं में इन्द्र के समान शोभायमान थे।उनकी त्रिशला नाम की अत्यन्त रूपवती महारानी थी। वे पति-परायणा सरस्वती के समान एवं सर्वगुण संपन्न थीं।
एक दिन सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने कुबेर से कहा-
हे धनपते! तुम भरतक्षेत्र के कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के आंगन में दिव्य रत्नों की वर्षा करना प्रारम्भ कर दो। उस समय यह रत्न-सुवर्णमयी वर्षा आकाश से गिरती हुई ऐसी प्रतीत होती थी मानों प्रकाशरूपी माला श्रीजिनेन्द्र के माता-पिता की सेवा करने को आ रही हो। गर्भाधान के छह माह पूर्व से ही कल्पवृक्ष के पुष्प, सुगंधित जल, सुवर्ण एवं रत्नों के ढेर से राजमहल जगमगा उठा।सोलह स्वप्न-एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में कोमल शय्या पर सोती हुई महारानी त्रिशला ने सोलह स्वप्न देखे जो सर्वथा कल्याणकारी एवं सौभाग्य सूचक थे।
सोलह स्वप्नों में उन्होंने सर्वप्रथम मदोन्मत्त गजराज को देखा। बाद में चन्द्रमा के सदृश शुभ कांतियुक्त, ऊँचे कन्धेवाला बैल गम्भीर शब्द करता हुआ दिखलाई दिया। तीसरा स्वप्न अपूर्व कान्तिवान वृहद्काय लाल कन्धेवाला सिंह था। चौथे स्वप्न में कमलरूपी सिंहासन पर विराजमान लक्ष्मी देवी को उन्होंने देव-हस्तियों द्वारा अभिषेक करते हुए देखा। पाँचवें में दो सुगन्धित मालायें थीं। छट्ठे में ताराओं से घिरे हुए चन्द्रमा को देखा, जिससे सारा संसार आलोकित हो रहा था। सातवें स्वप्न में देवी ने अन्धकार का विनाश करने वाले सूर्य को उदयाचल पर्वत से निकलते हुए देखा। आठवें स्वप्न में कमल के पत्तों से आच्छादित मुखवाले सुवर्ण के दो कलश देखे। नवमें स्वप्न में तालाब में क्रीड़ा करती हुई मछलियाँ देखीं। वह तालाब खिली हुई कुमुदिनी एवं कमलिनी से शोभायमान हो रहा था। दशवें स्वप्न में उन्होंने एक भरपूर तालाब देखा, जिसमें कमल पुष्पों की पीत रज तैर रही थी। ग्यारहवें स्वप्न में गम्भीर गर्जन करता हुआ चंचल तरंगों से युक्त समुद्र दिखलाई दिया। बारहवें स्वप्न में उन्होंने दैदीप्यमान मणि से युक्त ऊँचा सिंहासन देखा। तेरहवाँ स्वप्न बहुमूल्य रत्नों से प्रकाशित स्वर्ग का विमान था। चौदहवें स्वप्न में पृथ्वी को भेद कर ऊपर की ओर जाता हुआ फणीन्द्र (भवनवासी देव) का ऊँचा भवन दिखलाई दिया। पन्द्रहवें स्वप्न में उन्होंने रत्नों की विशाल राशि देखी, जिसकी किरणों से आकाश तक दैदीप्यमान हो रहा था। सोलहवें स्वप्न में माता ने निर्धूम अग्नि देखी।
उपरोक्त सोलह स्वप्नों को देखने के पश्चात् महारानी त्रिशला ने पुत्र के आगमनसूचक ऊँचे शरीरवाले उत्तम गजराज को मुख-कमल में प्रवेश करते हुए देखा। माता के स्वप्न देखने के थोड़ी देर बाद ही प्रात:काल हुआ। महारानी त्रिशला को जगाने के लिए राजमहल में सुमधुर वाद्य बजने लगे। बन्दी जनों ने कहना आरम्भ किया ‘हे महादेवी! अब जागने का समय हो गया है। अतएव आप को अपनी शैय्या त्याग कर अपने योग्य शुभ कार्यों को आरम्भ कर देना चाहिये, जिससे कल्याणकारी वस्तुएँ आप को बड़ी सरलता से प्राप्त हों।कुछ समय तक इसी प्रकार वाद्यों के शब्द एवं बन्दीजनों द्वारा मंगल गान होते रहे। महारानी त्रिशला एकाएक जाग उठीं। उन्हें प्रात:काल के देखे हुए स्वप्नों से अतीव प्रसन्नता हुई। शैय्या त्याग कर उन्होंने मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से स्तवन, सामायिक आदि उत्तम नित्य- कर्म करना आरम्भ किया। इस प्रकार की नित्य क्रिया सर्वथा कल्याणकारिणी है एवं सब प्रकार से मंगल करने वाली है।तत्पश्चात् महारानी ने स्नान समाप्त कर अपना श्रृंगार किया। वे आभूषणों से सुसज्जित हो सेवकों को साथ लेकर राज्य सभा में गयीं। महाराज अपनी प्राणप्रिया को अपनी ओर आती हुई देख कर बड़े प्रसन्न हुए। बैठने के लिए उन्होंने रानी को अपना आधा आसन समर्पित कर दिया। महारानी प्रसन्नचित्त होकर उक्त आसन पर बैठ गयीं। उन्होंने बड़े मधुर शब्दों में महाराज से निवेदन किया- ‘हे देव! आज रात्रि के तीसरे प्रहर में म्निे अत्यन्त आश्चर्यजनक स्वप्न देखे हैं। मेरी अभिलाषा है कि गजराज इत्यादि इन सोलह स्वप्नों का फल आप मुझे अलग-अलग सुनायें।’महारानी के मुख से स्वप्न की बातें सुनकर मति-श्रुति-अवधि तीनों ज्ञान के धारक महाराज सिद्धार्थ ने कहा- ‘हे सुन्दरी! म् िइन स्वप्नों के शुभ फलों का शीघ्र ही वर्णन कर रहा हूँ। तुम सावधान होकर श्रवण करो।’ महाराज ने कहना आरम्भ किया-हे कान्ते!
१. गजराज देखने का फल यह हुआ कि तेरा पुत्र तीर्थंकर होगा।
२. बैल देखने से फल यह हुआ कि वह धर्मचक्र का संचालक होगा।
३. सिंह के दर्शन से वह पुत्र कर्मरूपी गजराजों को विनष्ट करनेवाला अत्यन्त बलवान होगा।
४. लक्ष्मी का अभिषेक देखने का फल यह है कि सुमेरू पर्वत पर इन्द्रादि देवों के द्वारा इस बालक का स्नान कराया जायेगा।
५. स्वप्न में मालाओं के देखने से सुगन्धित शरीरवाला एवं श्रेष्ठ ज्ञानी होगा।
६. पूर्ण चन्द्रमा के दर्शन से वह पुत्र अपने धर्मरूपी अमृत-वर्षण से भव्य जीवों को प्रसन्न करनेवाला होगा।
७. सूर्य के देखने से वह अज्ञानरूपी अन्धकार का विनाशक तथा उन्हीं के समान कान्तिवाला होगा।
८. जल से परिपूर्ण घड़ों के देखने का फल यह है कि वह अनेक निधियों का स्वामी तथा ज्ञान- ध्यानरूपी अमृत का घट होगा।
९. मछली की जोड़ी देखने से सब के लिए कल्याणकारी तथा स्वयं महान सुखी होगा।
१०. सरोवर देखने से शुभ लक्षण तथा व्यंजनों से सुशोभित शरीरधारी होगा।
११. समुद्र के देखने से नौ केवल-लब्धियों वाला केवलज्ञानी होगा।
१२. सिंहासन के देखने से महाराज पद से वाच्य जगत् का स्वामी होगा।
१३. स्वर्ग का विमान देखने का फल यह हुआ कि वह पुत्र स्वर्ग से आकर अवतार धारण करेगा।
१४. नागेन्द्र भवन के अवलोकन से अवधिज्ञानरूपी नेत्र को धारण करने वाला होगा।
१५. रत्नों का ढेर देखने से वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि रत्नों की खानि होगा।
१६. निर्धूम अग्नि के दर्शन से वह कर्मरूपी ईंधन को भस्म करने वाला होगा।
अन्त में गजेन्द्र के दर्शन का फल यह हुआ कि वह अन्तिम तीर्थंकर स्वर्ग से आकर तुम्हारे निर्मल पवित्र गर्भ में प्रवेश कर चुका है।
महाराज के मुख-कमल से सोलहों स्वप्नों का फल सुनकर पतिव्रता महारानी का हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उन्हें ऐसा लगा कि जैसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति ही हो गई हो। वे बड़ी प्रसन्न हुईं।
देवियों द्वारा माता की सेवा-उसी समय सौधर्म इन्द्र का आदेश पाकर पद्म आदि सरोवरों में निवास करने वाली श्री, Ðी आदि छ: देवियाँ राजमहल में आ गयीं। उन्होंने तीर्थंकर के गर्भाधान के लिए स्वर्ग से लाई हुई पवित्र वस्तुओं से माता के गर्भ का शोधन किया, जिससे उन्हें पुण्य की प्राप्ति हो पुन: वे अपने-अपने शुभ गुणों को माता में स्थापित कर उनकी सेवा में संलग्न हो गयीं।
श्री देवी ने शोभा, Ðी देवी ने लज्जा, धृति देवी ने धैर्य, कीर्ति देवी ने स्तुति, बुद्धि देवी ने श्रेष्ठ बुद्धि तथा लक्ष्मी देवी ने भाग्य ऐसे इन गुणों की वृद्धि की। वे जिनमाता बड़ी गुणवती हुईं। यों तो महारानी पूर्व में ही स्वभाव से पवित्र थीं, पर जब देवियों ने शुद्ध वस्तुओं से उन्हें शुद्ध किया, तब तो वे मानों स्फटिक मणि से ही बनाई गई हों ऐसी शोभायमान प्रतीत होने लगीं। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की शुद्ध तिथि षष्ठी को आषाढ़ नक्षत्र में एवं शुभ लग्न में वह देव (अच्युतेन्द्र) स्वर्ग से चय कर माता के शुद्ध गर्भ में आया। महावीर प्रभु के गर्भ में आते ही स्वर्ग के कल्पवासी देवों के विमानों में घण्टे की ध्वनि होने लगी एवं इन्द्र का आसन काँप उठा।
ज्योतिषी देवों के यहाँ स्वयं सिंहनाद होने लगा। भवनवासी देवों के यहाँ शंख की प्रचण्ड ध्वनि हुई। साथ ही व्यन्तर देवों के महलों में भेरी की विशेष ध्वनि हुई। केवल यही नहीं अन्य भी अनेक आश्चर्यजनक घटनायें घटीं। उक्त आश्चर्यजनक घटनाओं को घटते देखकर चारों निकायों के देवों को यह ज्ञात हो गया कि महावीर प्रभु का गर्भावतरण हो गया है। तत्पश्चात् वे देवगण भगवान् का गर्भ-कल्याणक उत्सव मनाने के उद्देश्य से नगर में पधारे। उस समय देवों के समूह को देखते ही बनता था। वे सर्वोत्तम सम्पदाओं से सुशोभित थे, अपनी-अपनी सवारियों पर आरूढ़ थे, उत्तम धर्म का पालन करने वाले उद्यमी थे। वे अपने अंग के आभूषणों एवं तेज से दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले थे। उन्होंने अपने ध्वजा-छत्र-विमानादिकों से आकाश को मानो ढँक दिया था। वे देव अपनी देवियों के साथ ‘जय-जय’ शब्द कर रहे थे।उस समय नगर का वातावरण देखने योग्य ही था। विमानों, अप्सराओं एवं देवों की सेनाओं से घिरा हुआ वह नगर स्वर्ग जैसा सर्वोत्तम प्रतीत होने लगा। देवों के साथ इन्द्र ने भगवान के माता-पिता को सिंहासन पर बिठाकर सोने के कलशों से स्नान कराया तथा उन्हें दिव्य आभूषण-वस्त्र पहिनाये। माता के गर्भस्थ शिशु (भगवान) की सभी ने तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें प्रणाम किया अर्थात् माता की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें प्रणाम किया।इस प्रकार सौधर्म इन्द्र भगवान का गर्भकल्याणक सम्पन्न कर जिनमाता की सेवा में उपयुक्त देवियों को नियुक्त कर देवों के साथ पुण्य उपार्जन कर बड़ी प्रसन्नता के साथ पुन: स्वर्ग को वापस चले गये।
स्वर्ग से आई हुई देवियों में से कोई तो जिन-माता के समक्ष मंगल द्रव्य रखती थीं, कई देवियों ने महादेवी की शय्या को सुसज्जित करने का भार अपने ऊपर लिया, किसी ने दिव्य आभूषण पहिनाने का भार लिया तथा किसी ने माला तथा रत्नों के गहने देने का। कई देवियाँ माता की अंग-रक्षा के लिए खुले खड्गों से सज्जित होकर पहरा देती थीं एवं कई उनके लिए भोग्य सामग्रियों को एकत्रित करने में संलग्न थीं। कई एक देवियाँ पुष्प-रज से आच्छादित राज्य-प्रांगण की सफाई में लगी थीं एवं चन्दन-जल का छिड़काव करती जाती थीं।उक्त देवियों ने रत्नों के चूर्ण से स्वस्तिक आदि की रचना की एवं महल को कल्पवृक्ष के पुष्पों से सजाया। किसी ने महलों के ऊँचे शिखरों पर रत्नों के दीप जलाये, जो अन्धकार को विनष्ट करनेवाले थे। वस्त्र पहिनाना, आसन बिछाना आदि समस्त कार्य देवियाँ ही करती थीं। महादेवी की वन-क्रीड़ा के समय मधुर गीत, सुन्दर नृत्य एवं धार्मिक कथायें सुनाकर वे माता को सुख पहुँचाया करती थीं। इस प्रकार जिनदेव की माता महादेवी त्रिशला की सेवा देवियों द्वारा होती रही एवं उनकी शोभा अनुपम थी।जब नवम मास निकट आया, तो गर्भवती महादेवी की बुद्धि अति प्रखर होती गई। उन्हें प्रसन्न रखने के उद्देश्य से देवियाँ मनोहर प्रहसन किया करतीं एवं तरह-तरह की कवितायें सुनाया करती थीं। देवियाँ कुछ गूढ़ अर्थपूर्ण पहेलियाँ महादेवी से पूछा करती थीं एवं महादेवी उनका समुचित उत्तर दे दिया करती थीं। उदाहरण के रूप में निम्न पहेली एवं उसका उत्तर मनन करने योग्य है-
विरक्ता नित्यकामिन्या, कामुकोऽकामुको महान्।
सस्पृहो नि:स्पृहो लोके, परात्मान्यश्च य: स क:।।१।।
अर्थात् जो वैरागी होने पर भी सर्वदा कामिनी की इच्छा रखता है एवं निस्पृही होने पर भी इच्छा किया करता है, वह विलक्षण पुरूष इस संसार में कौन है‘ यह तो हुई पहेली। महादेवी ने पहेली का श्लोक में ही उत्तर दिया। महादेवी का उत्तर थादृ ‘परमात्मा’। कारण, ‘परमात्मा’ का एक अर्थ तो विलक्षण पुरूष होता है एवं दूसरा अर्थ परमात्मा भी होता है। परमात्मा नित्य-कामिनी अर्थात् अविनाशी मोक्षरूपी स्त्री में अनुरागी है एवं उसी की इच्छा रखनेवाला होता है। दूसरी एक पहेली भी सुनिये-
दृश्योऽदृश्योऽस्ति चिद्भूष:, प्रकृत्या निर्मलोऽव्यय:।
हन्ता देहविधेर्देवो, नाऽयं को वर्ततेऽद्य स: ।।२।।
अर्थात् जो अदृश्य है, फिर भी देखने योग्य है; स्वभाव से निर्मल होने पर भी देह की रचना का नाशक है, पर महादेव नहीं है, ऐसा वह कौन है‘ इस श्लोक का महादेवी ने ‘देवोना’ शब्द से उत्तर दिया। ‘देवोना’ का अर्थ हैदृ देवरूपी मनुष्य श्री अर्हन्त देव।
इस प्रकार उन देवियों ने प्रश्नोत्तर के रूप में महादेवी से अनेक पहेलियाँ पूछीं। वे भिन्न प्रकार की हैंदृ ‘हे सुन्दरी! असंख्यात मनुष्य एवं देवों द्वारा पूज्य तीनों जगत् का गुरू तेरा पुत्र अनेक उत्तम गुणों से युक्त तथा विजयी हो। जिसने दूसरी स्त्रियों से प्रेम करना त्याग दिया है, पर फिर भी अविनाशी मोक्ष-सुख में अनुरागी है, ऐसा गुणों का समुद्र तेरा पुत्र हमारी रक्षा करे। हे जगत् का कल्याण करनेवाली, तीन लोकों के स्वामी को गर्भ में धारण करनेवाली! हरिहरादि के मन की रक्षा कर।
जगत् के कल्याण के लिए अपने गर्भ में तीर्थंकर को धारण करनेवाली, हे महादेवी! धर्म-तीर्थ स्थापित करनेवाले की उत्पत्ति में देव- विद्याधर-भूमिगोचरी जीवों का तीर्थ-स्थान बन। (इसमें ‘अठ’ क्रिया गुप्त है)
देवी का प्रश्न-हे देवी महारानी! इहलोक एवं परलोक में कल्याण करने वाला कौन है‘
माता का उत्तर-जो धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक हैं, वे ही श्री अर्हन्त देव तीनों जगत् का कल्याण करने वाले हैं।
देवी का प्रश्न-गुरूओं में सबसे महान कौन है‘
माता का उत्तर-जो तीन जगत् का गुरू एवं सब अतिशयों से तथा दिव्य अनन्त गुणों से सुशोभित है, ऐसे श्री जिनेन्द्र देव ही महान् गुरू हैं।
देवी का प्रश्न-इस जगत् में किसके वचन श्रेष्ठ एवं प्रामाणिक हैं‘
माता का उत्तर-जो सबको जानने वाले, दुनिया का हित करने वाले, अठारह दोषरहित एवं वीतरागी हंै, ऐसे श्री अर्हन्त भगवान के वचन ही श्रेष्ठ एवं मानने योग्य हैं। इसके सिवा दूसरे मिथ्यामतियों के नहीं।
देवी का प्रश्न-जन्म-मरणरूपी विष को दूर करनेवाला अमृत के समान क्या पीना चाहिये‘
माता का उत्तर श्री जिनेन्द्र के मुख-कमल से निकला हुआ ‘ज्ञानामृत’ पीना चाहिये। दूसरे मिथ्या-ज्ञानियों के विषरूपी वचन नहीं मानने चाहिये।
देवी का प्रश्न-इहलोक में बुद्धिमानों को किसका ध्यान करना चाहिये‘
माता का उत्तर-पंच-परमेष्ठी का, जैन शास्त्र का एवं आत्म-तत्त्व का ध्यान करना चाहिये, दूसरा आर्त-रौद्र रूप खोटा ध्यान कभी नहीं करना चाहिये।
देवी का प्रश्न-शीघ्र कौन-सा काम करना चाहिए‘
माता का उत्तर-जिससे संसार के भोगों का नाश हो, ऐसे अनन्त ज्ञान-चारित्र का पालन करना चाहिए, मिथ्यात्वादिकों का नहीं।
देवी का प्रश्न-इस संसार में सज्जनों के साथ में जानेवाला कौन है‘
माता का उत्तर-दयामय धर्म ही सहायता करनेवाला बन्धु है, जो सब दु:खों से रक्षा करनेवाला है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई सहगामी नहीं है।
देवी का प्रश्न-धर्म के क्या-क्या लक्षण हैं एवं कार्य क्या हैं‘
माता का उत्तर-बारह तप, रत्नत्रय, महाव्रत, अणुव्रत, शील एवं उत्तम क्षमा आदि दश लक्षण धर्मदृ ये सब धर्म के कार्य एवं लक्षण हैं।
देवी का प्रश्न-इहलोक में धर्म का फल क्या है‘
माता का उत्तर-तीन लोक के स्वामियों की इन्द्र-धरणेन्द्र-चक्रवर्ती पद-रूप सम्पदायें, श्री जिनेन्द्र का अनन्त सुख, ये सब धर्म के ही उत्तम फल हैं।
देवी का प्रश्न-धर्मात्माओं के चिन्ह क्या हैं‘
माता का उत्तर-शान्त स्वभाव, अभिमान का न होना एवं रात-दिन शुद्ध आचरणों का पालन-ये ही धर्मात्माओं की पहिचान है।
देवी का प्रश्न-पाप के चिन्ह क्या-क्या हैं‘
माता का उत्तर-मिथ्यात्वादि, क्रोधादि कषाय, खोटी संगति एवं छ: तरह के अनायतन ये पाप के चिन्ह हैं।
देवी का प्रश्न-पाप का फल क्या है‘
माता का उत्तर-जो अपने को अप्रिय है, दु:ख का कारण एवं दुर्गति करानेवाला, अन्य रोग-क्लेशादि देने वाला हैदृ ऐसे सभी निन्दनीय कार्य पाप के फल हैं।
देवी का प्रश्न-पापी जीवों की पहिचान क्या है‘
माता का उत्तर-क्रोध आदि कषायों का बहुत होना, दूसरों की निन्दा, अपनी प्रशंसा एवं रौद्रादि खोटे ध्यान का होनादृ ये सब पापियों के चिन्ह हैं।
देवी का प्रश्न-असली लोभी कौन है‘
माता का उत्तर-बुद्धिमान, मोक्ष का चाहनेवाला भव्य जीव निर्मल आचरण से तथा कठिन तप से केवल धर्म का सेवन करनेवाला ही असली लोभी है।
देवी का प्रश्न-इहलोक में विचारशील कौन है‘
माता का उत्तर-जो मन में निर्दोष देव-शास्त्र-गुरू का एवं उत्तम धर्म का विचार करता है, दूसरे का नहीं।
देवी का प्रश्न-धर्मात्मा कौन है‘
माता का उत्तर-जो श्रेष्ठ उत्तम क्षमा आदि दशलक्षण युक्त धर्म का पालन करता है। श्री जिनेन्द्र देव की आज्ञा का पालन करनेवाला ही बुद्धिमान, ज्ञानी एवं व्रती हैदृ वही धर्मात्मा है, दूसरा कोई नहीं।
देवी का प्रश्न-परलोक जाते समय मार्ग का भोजन क्या है‘
माता का उत्तर-दान, पूजा, उपवास, व्रत, शील एवं संयमादि से उपार्जन किया गया जो निर्मल पुण्य है, वही परलोक के मार्ग का उत्तम भोजन है।
देवी का प्रश्न-इहलोक में किसका जन्म सफल है‘
माता का उत्तर-जिसने मोक्ष-लक्ष्मी के सुख के प्रदाता उत्तम भेद-विज्ञान को पा लिया, उसी का जन्म सफल है, दूसरे का नहीं।
देवी का प्रश्न-संसार में सुखी कौन है‘
माता का उत्तर-जो सब परिग्रह की उपाधियों से रहित एवं ध्यानरूपी अमृत का पान करनेवाला वन में रहता है अर्थात् योगी है, वही सुखी है, अन्य कोई नहीं।
देवी का प्रश्न-इस संसार में चिन्ता किस वस्तु की करनी चाहिए‘
माता का उत्तर-कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने की एवं मोक्ष-लक्ष्मी पाने की चिन्ता करनी चाहिये, दूसरे इन्द्रियादिक विषय-सुखों की नहीं।
देवी का प्रश्न-महान उद्योग किस कार्य में करना चाहिये‘
माता का उत्तर-मोक्ष देनेवाले रत्नत्रय, तप, शुभ योग, सुज्ञानादिकों के पालने में महान यत्न करना चाहिये, धन एकत्रित करने में नहीं। कारण, धन तो धर्म से प्राप्त होगा ही।
देवी का प्रश्न-मनुष्यों का परम मित्र कौन है‘
माता का उत्तर-जो तप-दान-व्रतादिरूप धर्म को आग्रहपूर्वक समझा कर पालन करावे एवं पाप कर्मों को छुड़ावे।
देवी का प्रश्न-इस संसार में जीवों का शत्रु कौन है‘
माता का उत्तर-जो हित करनेवाले तप-दीक्षा-व्रतादिकों का नहीं पालन करने दे, वह दुर्बुद्धि अपना एवं दूसरे कादृ दोनों का शत्रु है।
देवी का प्रश्न-प्रशंसा करने योग्य क्या है‘
माता का उत्तर-थोड़ा धन होने पर भी सुपात्र को दान देना, निर्बल शरीर होने पर भी निष्पाप तप करना, यही प्रशंसनीय है।
देवी का प्रश्न-हे महादेवी! आप के समान महारानी कौन है‘
माता का उत्तर-जो धर्म के प्रवर्तक, जगत् के गुरू, ऐसे तीर्थंकर देवाधिदेव को उत्पन्न करे, वही मेरे समान है, दूसरी कोई नहीं।
देवी का प्रश्न-पण्डिताई क्या है‘
माता का उत्तर-शास्त्रों को जानकर खोटा आचरण, खोटा अभिमान जरा भी नहीं करना एवं अन्य पाप की क्रियायें भी नहीं करना, यही पण्डिताई है।
देवी का प्रश्न-मूर्खता किसे कहते हैं‘
माता का उत्तर-ज्ञान के हित का कारण, निर्दोष तप, धर्म की क्रिया को जानकर आचरण नहीं करना।
देवी का प्रश्न-बड़े भारी चोर कौन हैं‘
माता का उत्तर-जो मनुष्यों के धर्मरत्न को चुरानेवाले, पाप के कर्ता एवं अनर्थ करनेवाले हैं। ऐसे पाँच इन्द्रियरूपी चोर हैं।
देवी का प्रश्न-इस संसार में शूरवीर कौन हैं‘
माता का उत्तर-जो धैर्यरूपी खड्ग से परिषहरूपी महायोद्धाओं को, कषायरूपी शत्रुओं को तथा काम-मोह आदि शत्रुओं को जीतनेवाले हों।
देवी का प्रश्न-देव कौन हैं‘
माता का उत्तर-जो सबको जाननेवाल, क्षुधादि अठारह दोषों से रहित, अनन्त गुणों के समुद्र, धर्म के प्रवर्तक हों, ऐसे अर्हन्त प्रभु ही देव हैं।
देवी का प्रश्न-महान गुरू कौन हैं‘
माता का उत्तर-जो इस संसार में बाह्य-आभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हों। जगत् के भव्य जीवों के हित-साधन में उद्यत हों एवं स्वयं भी मोक्ष के लिए इच्छुक हों, वही महान गुरू हैं। दूसरा मिथ्यामती धर्मगुरू नहीं हो सकता।
इस प्रकार देवियों द्वारा किये गए प्रश्नों का उत्तर माता ने गर्भस्थ तीर्थंकर शिशु के प्रभाव से दिया। प्रथम तो महारानी की बुद्धि स्वभाव से ही निर्मल थी पुन: अपने उदर में तीन ज्ञान के धारक प्रकाशमान तीर्थंकर देव को धारण करने से वे अत्यधिक पवित्र हो गई थीं। महारानी के गर्भ में स्थित तीर्थंकर बालक को कोई कष्ट नहीं हुआ, क्योंकि सीप में रहनेवाली जल-बिन्दु में कभी विकार उत्पन्न नहीं हो सकता है। उस महादेवी के उदर की त्रिवली भी भंग नहीं हुई। उदर पूर्व जैसा ही रहा, पर गर्भ की क्रमश: वृद्धि होती गईदृ यह सब प्रभु का ही प्रभाव था।
गर्भ में स्थित प्रभु के प्रभाव से महारानी की मुखाकृति बड़ी ही शोभायमान हो गई। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि मानो वे असंख्य रत्नों को धारण करनेवाली पृथ्वी ही हों। अप्सराओं के साथ इन्द्र के द्वारा भेजी गई इन्द्राणी ही जिनकी सेवा कर रही हो, उनकी कान्ति एवं उनके मुख का वर्णन नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार लगातार नौ महीने तक महान उत्सव सम्पन्न होते रहे।
देखते-देखते नवमा महीना पूर्ण हो गया। शुभ चैत्र मास की शुक्ला त्रयोदशी के दिन अर्यमा नाम के शुभ योग में एवं शुभ लग्न में त्रिशला महादेवी ने अलौकिक पुत्र को जन्म दिया है। वह पुत्र अपने उज्ज्वल शरीर की कान्ति से अन्धकार को विनष्ट करने वाला, जगत् का हित करने वाला मति-श्रुत-अवधि तीनों ज्ञान को धारण करने वाला, महा दैदीप्यमान एवं धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक तीर्थंकर हुआ।
भगवान महावीर का जन्म तेरस की रात्रि में हुआ है ऐसा जयधवला में वर्णित है-
‘आसाढ़ जोण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव-णाहवंस-सिद्धत्थणरिंदस तिसिला-देवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्ख- तेरसीए रत्तीएउत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाणजिणिंदो।”
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कुंडलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की रानी त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहाँ नवमास आठ दिन रहकर चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुये वर्द्धमान जिनेंद्र ने जन्म लिया।
उनके जन्म के साथ-साथ सभी दिशायें निर्मल हो गयीं। आकाश में निर्मल वायु बहने लगी। स्वर्ग से कल्प-वृक्षों के पुष्पों की वर्षा हुई एवं चारों निकायों के देवों के आसन कम्पायमान हो गये। स्वर्ग में बिना बजाये ही वाद्यों की ध्वनि होने लगी, मानो वे भी भगवान का जन्मोत्सव मना रहे हों। इसके अतिरिक्त अन्य तीनों जातियों (निकायों) के देवों के महलों में शंख-भेरी आदि के शब्द होने लगे।
कल्पेषु घण्टा भवनेषु शंखो, ज्योतिर्विमानेषु च सिंहनाद:।
दध्वान भेरी वनजालयेषु, यज्जन्मनि ख्यात जिन: स एष:।।
कल्पवासी देवों के यहाँ घंटे बजने लगे, भवनवासी देवों के यहाँ शंखध्वनि होने लगी, ज्योतिष्क देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगा और व्यंतर देवों के यहाँ भेरी बजने लगी। जिनके जन्म के समय ऐसा हुआ ये जिन भगवान् वे ही हैं।जैसे कि आज टेलीविजन या रेडियो का बटन दबाते ही हजारों किलोमीटर दूर के भी दृश्य और संगीत सामने आ जाते हैं किंतु वहाँ तो बटन दबाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी प्रत्युत् तीर्थंकर प्रकृति का पुण्यरूपी बटन अपने आप ही दब गया और ४० करोड़ मील से अधिक ऊँचाई पर स्थित स्वर्गलोक में अतिशय पैâल गया। तत्क्षण ही सौधर्म इंद्र असंख्य देव परिवारों के साथ मध्यलोक में आये और जन्मजात शिशु को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से उनका जन्माभिषेक संपन्न किया।कुछ विद्वान सहज ही कह देते हैं कि वे तीर्थंकर हम आप जैसे साधारण मानव थे लेकिन ऐसा नहीं है वे तीर्थंकर प्रकृति नाम कर्म के बंध करने तक तो साधारण कहे जा सकते हैं किन्तु तीर्थंकर प्रकृति को बांध लेने के बाद उनमें कुछ विशेष ही अतिशय प्रगट हो जाते हैं इसीलिए तो श्रीसमन्तभद्रस्वामी ने कहा है-
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वपि च देवता यत:।
तेन नाथ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।।
हे नाथ! आपने मनुष्य योनि में जन्म तो लिया है किंतु आप मानुषी प्रकृति का उलंघन कर चुके हैं इसलिए आप देवताओं के भी देवता हैं यही कारण है कि आप परमदेवता हैं।
हे जिनधर्म तीर्थंकर! आप हमारे कल्याण के लिए हम पर प्रसन्न होइये।सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भगवान के जन्म का समाचार पाकर उनका जन्मकल्याणक मनाने का विचार करने लगा। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से देवों की सेनायें ‘जय-जयकार’ करती हुई स्वर्ग से उतरीं। उनकी विशाल सेनायें समुद्र से उठती हुई प्रचण्ड लहरों के समान प्रतीत होती थीं। गजराज, अश्व, रथ, गन्धर्व, नर्तकी, पैदल एवं बैल आदि से युक्त सात प्रकार की सेनायें निकलीं। तत्पश्चात् सौधर्म स्वर्ग का स्वामी इन्द्र अपनी इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर चला। उसके चारों ओर देवों की सेनायें पैâली हुईं थीं।इन्द्र के पीछे-पीछे बड़ी विभूतियों के साथ सामानिक देव आदि चल रहे थे। उस समय दुन्दुभी आदि वाद्यों की ध्वनि एवं देवों की ‘जय-जयकार’ से सारा आकाश गूँजने लगा। मार्ग में कितने ही देव गाते हुए चल रहे थे। कोई नृत्य करता जाता था एवं कोई प्रसन्नता के कारण दौड़ लगा रहा था। उनके छत्र-चमर एवं ध्वजाओं से समस्त आकाश-मण्डल आच्छादित हो गया था। वे चारों निकाय के देव बड़ी विभूति के साथ क्रम-क्रम से कुण्डलपुर जा पहुँचे। उस समय आकाश में ऊपर एवं बीच का भाग देव-देवियों से घिर गया था। राजमहल का आँगन इन्द्रादिक देवों से बिलकुल भर गया था।
इन्द्राणी ने तत्काल प्रसूतिग्रह में जाकर दिव्यशरीरधारी कुमार एवं जिनमाता का दर्शन किया। वे बारम्बार उन्हें प्रणाम कर जिनमाता के आगे खड़ी होकर उनके गुणों की प्रशंसा करने लगीं। इन्द्राणी ने कहा ‘हे महादेवी! आप तीनों जगत् के स्वामी को उत्पन्न करने के कारण समग्र विश्व की माता हो एवं आप ही महादेवी भी हो। महान देव उत्पन्न कर आपने अपना नाम सार्थक कर लिया है। संसार में आपकी तुलना की अन्य कोई स्त्री नहीं है।’
इस प्रकार महादेवी की स्तुति कर इन्द्राणी ने उन्हें निद्रित कर दिया। जब जिनमाता सो गयीं, तो इन्द्राणी ने उनके आगे एक माया का बालक बना कर सुला दिया एवं स्वयं अपने हाथों से शिशु भगवान को उठाकर उनके शरीर का स्पर्श किया। वे बारम्बार उनके मुख का चुम्बन करने लगीं। भगवान के शरीर से निकलती हुई उज्ज्वल ज्योति को देखकर उनके हर्ष का ठिकाना न रहा। तत्पश्चात् वह उस बालक भगवान को लेकर आकाश-मार्ग की ओर चलीं। वे भगवान आकाश में ठीक सूर्य की तरह जान पड़ते थे। समस्त दिक्कुमारियाँ छत्र, ध्वजा, कलश, चमर एवं स्वस्तिक आदि आठ मांगलिक द्रव्यों को लेकर इन्द्राणी के आगे-आगे चल रही थीं।उस समय इन्द्राणी ने जगत् को आनन्द प्रदान करनेवाले जिनदेव को लाकर बड़ी प्रसन्नता से इन्द्र को सपि दिया। भगवान की अपूर्व सुन्दरता व उनकी तेजोमय दीप्ति देखकर देवों का स्वामी इन्द्र उनकी स्तुति करने लगादृ ‘हे देव! आप हमें परम आनन्द प्रदान करने के लिए बाल-चन्द्रमा की भांति लोक को प्रकाश देने के लिए प्रगट हुए हो। हे ज्ञानी! आप विश्व के स्वामी इन्द्र-धरणेन्द्र-चक्रवर्ती के भी स्वामी हो। धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक होने के कारण आप ही ब्रह्मा भी हो।’
‘हे देव! योगीराज आपको ज्ञानरूपी सूर्य का उदयाचल मानते हैं। आप भव्य पुरूषों के रक्षक एवं मोक्षरूपी स्त्री के पति हो। आप मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकूप में पड़े हुए अनेक भव्य जीवों को धर्मरूपी हाथ का सहारा देकर उद्धार करने वाले हो। संसार के सभी विचारशील व्यक्ति आपकी अलौकिक वाणी सुनकर अपने कर्मों को नष्ट कर परम पवित्र मोक्ष प्राप्त करेंगे एवं अनेक भव्य जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति होगी। आज आपके अभ्युदय से सन्त पुरूषों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वस्तुत: आप ही धर्म की प्रवृत्ति के कारण हैं।’अतएव हे देव! हम आपको प्रणाम करते हैं, आपकी सेवा करते हैं, भक्ति प्रकट करते हैं एवं प्रसन्नतापूर्वक केवल आपकी आज्ञा का पालन करते हैंदृ अन्य मिथ्यात्वी देव की नहीं।’ इस तरह देवों का स्वामी सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भगवान की स्तुति कर उन्हें गोद में उठा कर सुमेरू पर्वत पर चलने को उद्यत हुआ। उसने अन्य देवों को भी सुमेरू पर्वत पर चलने के लिए आज्ञा दी। उस समय सभी देवों ने ‘प्रभु की जय हो, आनन्द की वृद्धि हो’ आदि शब्दों से ‘जय-जयकार’ की। उनकी ध्वनि समस्त दिशाओं में पैâली।
इन्द्र के साथ-साथ आये देव भी ‘जय-जय’ शब्द करते हुए आनन्द मनाने लगे। प्रसन्नता के कारण उनका शरीर रोमांचित हो उठा। आकाश में प्रभु के समक्ष अप्सरायें नृत्य करने लगीं। गन्धर्वदेव भी वीणा आदि वाद्यों के साथ गान करने लगे। देवों की दुन्दुभी की आवाज से सारा आकाश-मण्डल गूँज उठा। किन्नरियाँ हर्षित होकर अपने किन्नरों के साथ जिनदेव का गुणगान करने लगीं। उस समय सब देव भगवान का दर्शन कर अपने जीवन को सार्थक समझने लगे। वे बड़ी देर तक भगवान का दिव्य रूप देखते रहे। इन्द्र की गोद में विराजमान भगवान को ऐशान स्वर्ग के इन्द्र ने दिव्य छत्र लगाया। सनत्कुमार एवं माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र भी चमर ढुराते हुए भगवान की सेवा करने लगे। श्री जिनेन्द्र भगवान की ऐसी विभुता देखकर अनेक देवों ने उसी समय सम्यक्त्व धारण किया। उन्होंने इन्द्र के वचनों को प्रमाण माना। वे इन्द्रादि देव ज्योति-चक्र को लाँघकर अपने शरीर के आभूषणों की किरणों से आकाश को प्रकाशित करते हुए जा रहे थे।
जन्माभिषेक-परस्पर सैकड़ों उत्सव मनाते हुए वे देव बड़ी विभूति के साथ उत्तुंग सुमेरू पर्वत पर जा पहुँचे। उस सुमेरू पर्वत की ऊँचाई एक लाख योजन की है। पर्वत के आरम्भ में ही ‘भद्रशाल वन’ है। उस वन में परकोटा एवं ध्वजाओं से सुशोभित कल्याणकारक चार जैन-मन्दिर सुशोभित हैं। उस वन से ५०० योजन ऊपर ‘नंदनवन’ है, यह पाँच सौ योजन प्रमाण कटनीरूप है। इसकी भी चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं। इसके बाद साढ़े बासठ हजार योजन की ऊँचाई पर महा रमणीक ‘सौमनस वन’ है, जहाँ पर सभी ऋतुओं में फल देनेवाले एक सौ आठ वृक्ष हैं एवं जिन-चैत्यालयों की संख्या चार है। उस सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन की ऊँचाई पर चौथा एवं अन्तिम ‘पाण्डुक वन’ है। वहाँ जिन-चैत्यालयों के ऊँचे-ऊँचे समूह हैं। उस वन की सुन्दरता अपूर्व है। वन के बीच में एक चूलिका है। वह चालीस योजन ऊँची है। उसी चूलिका के ऊपर स्वर्ग है। मेरू की ईशान दिशा में सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊँची एक ‘पाण्डुक’ नाम की शिला है। वह सिद्ध शिला चन्द्रमा के समान सुशोभित है। छत्र, चमर, स्वस्तिक, दर्पण, कलश, ध्वजा, ठोना, पंखा ये अष्ट मंगल द्रव्य उस शिला पर रक्खे हुए थे।
शिला के मध्य भाग में वैडूर्य मणि के सदृश रंगीन एक सिंहासन है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई एवं ऊँचाई आधा योजन प्रमाण है। जिनेन्द्र भगवान के स्नान-जल से पवित्र हुए रत्नों के तेज से वह सिंहासन ऐसा प्रतीत होता था कि मानो सुमेरू का दूसरा शिखर ही हो। उसके ठीक दक्षिण की ओर दूसरा सिंहासन सौधर्म इन्द्र का है एवं उत्तर दिशा की ओर ईशान इन्द्र के बैठने का आसन है। सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अन्य देवों के साथ महोत्सव सम्पन्न करते हुए, स्नान कराने के उद्देश्य से भगवान को उसी शिला पर विराजमान किया। देवराज ने सर्वप्रथम उस पर्वतराज की परिक्रमा की।
इस प्रकार देवेन्द्र ने पुण्योदय से बड़ी विभूति के साथ वर्तमान कालखण्ड के अन्तिम तीर्थंकर (शिशु) को शिला पर विराजमान किया अत: भव्यजन यदि ऐसी अतुलनीय सम्पदा एवं अपरम्पार सुख की आकांक्षा रखते हैं, तो उन्हें सोलहकारण भावनाओं के चिन्तवन से निर्मल पुण्य का उपार्जन करना चाहिए। ‘तीर्थंकर’ सदृश अक्षुण्ण सम्पदा प्राप्त कराने में पुण्य ही सहायक होता है। पुण्य से इस जगत् में पवित्रता की वृद्धि होती है। पुण्य के अतिरिक्त इस जगत् में दूसरी कोई वस्तु सुख प्रदान करनेवाली नहीं है। इस पुण्य का मूल कारण व्रत है। प्राणियों को पुण्य के बल से ही अनेक गुणों की प्राप्ति हुआ करती है।
श्री जिनेन्द्र भगवान के महान अभिषेक उत्सव को देखने की इच्छा रखनेवाले धार्मिक देव उस पर्वतराज को घेर कर बैठ गये। दिक्पाल देव अपनी-अपनी मण्डली को साथ लेकर अपनी दिशा की ओर बैठे। उस स्थान पर देव शिल्पियों ने एक ऐसे मण्डप का निर्माण किया था, जिसमें सभी देव सुखपूर्वक बैठ सकते थे। मण्डप में यत्र-तत्र कल्पवृक्ष की मालायें लटक रही थीं। उन मालाओं पर बैठे हुए भरिे इस प्रकार गूँज रहे थे, मानो वे प्रभु का गुण-गान ही कर रहे हों।गन्धर्व देव एवं किन्नरियों ने बड़े ही सुमधुर स्वरों में जिनदेव के कल्याणकारी गुणों का गान आरम्भ किया। अनेक देवियाँ हाव-भावपूर्वक नृत्य करने लगीं। देवों के विविध प्रकार के वाद्य बजने आरम्भ हो गये। कुछ देव पुण्यादि की अभिलाषा से पुष्पों की वर्षा करने लगे। इसके पश्चात् इन्द्र ने अभिषेक करने के लिए प्रस्ताव रख कलशों की रचना की। कलश-निर्माण-मंत्र जाननेवाले सौधर्म इन्द्र ने मोतियों की माला एवं चन्दन से युक्त कलश को हाथ में लिया एवं सब कल्पवासी देव ‘जय-जय’ शब्द करते हुए कल्याणक संबंधी कार्य करने लगे। इन्द्राणी एवं देवियाँ भी कार्य करने में संलग्न हो गईं। उनके हर्ष का पारावार नहीं था। ‘स्वयम्भू’ भगवान का शरीर स्वभाव से ही पवित्र है। उनके रक्त का रंग दुग्ध के सदृश श्वेत है। अतएव उनके लिए क्षीर-समुद्र के जल के अतिरिक्त अन्य कोई जल स्पर्श करना उचित नहीं है, ऐसा सोच कर वे देवगण पर्वत से लेकर समुद्र तक कतारें बाँध कर खड़े हो गये। उस समय इन्द्र ने श्रीजिनेन्द्र को स्नान कराने के लिए मोतियों के हार से सुशोभित आठ योजन गहरे एवं एक योजन मुखवाले सुवर्णमय कलश को पकड़ने के उद्देश्य से दिव्य आभूषणों से युक्त हजार भुजायें बना ली। उस समय इन्द्र की शोभा देखने ही योग्य थी। एक सहस्र हाथों से एक हजार कलशों को पकड़े हुए इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह ‘भाजनांग’ जाति का कल्पवृक्ष ही हो। सौधर्म इन्द्र ने ‘जय-जय’ शब्द का गम्भीर उच्चारण करते हुए भगवान के मस्तक पर पहली जलधारा छोड़ी। अन्य देव भी उस समय ‘जय हो, हमारी रक्षा करो’ आदि जयघोष करने लगे। उनके गम्भीर निनाद से पर्वतराज पर बड़ा कोलाहल मचा। दूसरे देवेन्द्र भी सौधर्म इन्द्र के साथ भगवान के मस्तक पर गंगा की तीव्र धारा के सदृश जलधारा डालने लगे।
वह जलधारा बड़ी तीव्र गति से भगवान के मस्तक पर पड़ने लगी। वह धारा यदि दूसरे किसी पहाड़ पर पड़ती, तो उसके खण्ड-खण्ड हो जाते पर अतुलित बलशाली होने के कारण भगवान के शरीर पर वह पुष्प जैसी सुकोमल अनुभूत हुई। जल के छींटे आकाश में बहुत ऊँचे उछलते हुए ऐसे प्रतीत होते थे, मानो वे भगवान के शरीर का स्पर्श करने से पापों से मुक्त होकर ऊर्ध्व गति को जा रहे हैं। स्नान-जल के कितने ही छींटे मोतियों जैसे मालूम पड़ते थे। स्नान-जल का ऊँचा प्रवाह उस पर्वतराज के वनों में ऐसे वेग से बढ़ा कि देखने से मालूम होने लगा कि पर्वतराज को खण्ड-खण्ड कर देगा।
भगवान के स्नान किये हुए जल से डूबी हुई वनस्थली ऐसी दीखने लगी, मानो वह दूसरा क्षीरसमुद्र ही हो। महान उत्सवों से सम्पन्न, नृत्य-गीतादि से युक्त उस समय का उत्सव देखकर देवों के आनन्द की सीमा न रही। इन्द्र ने आत्म-शुद्धि के लिए भगवान को शुद्ध स्नान कराया।
स्नान की जलधारा भगवान के शरीर का स्पर्श कर अत्यन्त पवित्र हो गई। अपार पुण्य प्राप्त करानेवाली एवं संसार की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करने वाली वह जलधारा हमें एवं भव्य जीवों को मोक्ष-लक्ष्मी प्रदान करे। जो जलधारा पुण्यास्त्र जलधारा के समान मनवांछित पदार्थों को प्रदान करनेवाली है, वह समस्त भव्य जीवों को इच्छित वस्तुयें प्रदान करे।वह जलधारा तीक्ष्ण खड्ग के सदृश सत्पुरूषों के विघ्नों का नाश कर देती है। वह दु:ख एवं असह्य वेदना का नाश करनेवाली है। जो जलधारा भगवान के शरीर से लगकर पवित्र हो चुकी है, वह हमारे दु:ख (कर्मरूपी मैल) को हटा कर हमें पवित्र करे। इस प्रकार देवों के अधिपति ने भगवान का अभिषेक कर के ‘भव्यों को शान्ति हो’ ऐसा कहा। उस सुगन्धित जल (गन्धोदक) को देवों ने शुद्धि के लिए मस्तक पर लगाया।
अभिषेक का उत्सव सम्पन्न होने के पश्चात् तीर्थंकर, इन्द्र एवं देवताओं द्वारा पूजे गये उन भगवान श्री महावीर की दिव्य गन्ध, मोतियों के अक्षत, कल्पवृक्ष के पुष्प, अमृत के पिण्डरूपी नैवेद्य, रत्नों के दीप, अष्टांग धूप, कल्पवृक्ष के फल, अर्घ, पुष्पांजलि आदि के साथ पूजा की गई। इस प्रकार इन्द्र ने बड़ी भक्ति के साथ भगवान की प्रार्थना करते हुए अभिषेक उत्सव सम्पन्न किया पुन: इन्द्र ने इन्द्राणी एवं अन्य देवों के साथ भगवान को प्रणाम किया।
उस समय का प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही मनोरम था। आकाश से सुगन्धित जल के साथ पुष्पों की वर्षा होने लगी। देवों ने मन्द सुगन्ध एवं शीतल वायु प्रवाहित की। वस्तुत: जिन (प्रभु) के जन्माभिषेक का सिंहासन सुमेरू पर्वत है एवं स्नान करानेवाला इन्द्र है, मेघ के समान दुग्ध से भरे हुए कलश हैं, स्व्ायं देवियाँ नृत्य प्रस्तुत करने वाली हैं, स्नान के लिए क्षीर-समुद्र है एवं जिस जगह देवगण सेवक हैं, भला ऐसे जन्माभिषेक की महिमा का कोई वैâसे वर्णन कर सकता है‘ अर्थात् कोई नहीं कर सकता।अभिषेक किये हुए भगवान (शिशु) के सर्वांग को इन्द्राणी ने उज्ज्वल वस्त्र से पोंछा। इसके बाद उसने भक्तिपूर्वक सुगन्धित द्रव्यों से उनका लेपन किया। यद्यपि वे प्रभु तीनों जगत् के तिलक थे, फिर भी भक्तिवश उसने उनके मस्तक पर तिलक लगाया। जगत् के चूड़ामणि भगवान के मस्तक में चूड़ामणि रत्न बाँधा गया। यद्यपि भगवान के नेत्र स्वभाव से ही काले थे, फिर भी लोक-व्यवहार दिखलाने के लिए उनके नेत्रों में इन्द्राणी ने अंजन लगाया।भगवान के कानों में इन्द्राणी ने रत्नों के कुण्डल पहिनाये। प्रभु के कण्ठ में रत्नों का हार, बाहों में बाजूबन्द, हाथों में कड़े एवं अँगुलियों में अँगूठी पहिनाई। कमर में छोटी घण्टियोंवाली मणियों की करधनी पहिनाई, जिसके तेज से सारी दिशायें व्याप्त हो गयीं। प्रभु के पैरों में मणिमय गोमुखी कड़े पहिनाये गये। इस प्रकार असाधारण दिव्य मण्डनों (गहनों) की कान्ति एवं स्वाभाविक गुणों से प्रदीप्त वे प्रभु ऐसे प्रतीत होने लगे, मानो लक्ष्मी के पुंज ही हों।
भगवान का दिव्य शरीर आभूषणों से द्विगुणित शोभायमान हो गया। आभूषणों से सजे हुए इन्द्र की गोद में विराजमान श्री महावीर प्रभु को देखकर इन्द्राणी को परम आश्चर्य हुआ। इन्द्र को भी कम आश्चर्य नहीं हुआ दोनों नेत्रों से उन्हें देखने से जब इन्द्र को तृप्ति नहीं हुई, तब उसने अपने हजार नेत्र कर लिये। अन्य देव-देवियाँ भी भगवान की रूप-सुधा का पान कर अत्यन्त हर्षित हुईं।
तत्पश्चात् सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र प्रभु की स्तुति करने के लिए प्रस्तुत हुआ। वह तीर्थंकर के पुण्योदय से उत्पन्न उनके गुणों की प्रशंसा करने लगा। उसने कहा ‘हे देव! बिना स्नान के ही आप का सर्वांग पवित्र है, पर म्निे अपने पापों की शान्ति के लिये आज भक्तिपूर्वक आप को स्नान कराया है। आप तीनों जगत् के आभूषण हैं, पर म्निे अपने सुखों की प्राप्ति के लिए आपको आभूषणों से विभूषित किया है। हे प्रभो! आपकी महान सत्ता आज सारे संसार पर अपने प्रभाव का विस्तार कर रही है।’हे देव! कल्याण की कामना रखने वाले लोगों का कल्याण आपके ही द्वारा होगा। आप मोह के सागर में गिरे हुए व्यक्तियों के लिए सहारा हो। आप की अमृतमयी वाणी मोह-शत्रु का विनाश करेगी। आप धर्म- तीर्थरूपी जलपोत के द्वारा भव्य जीवों को संसार-समुद्र से पार उतारोगे। हे नाथ! आपकी वचनरूपी किरणें जीवों के मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार का सर्वथा विनाश करेंगी, इसमें सन्देह नहीं। हे स्वामिन्! आप केवल मोक्ष-प्राप्ति के उद्देश्य से ही नहीं उत्पन्न हुए हैं, आप का उद्देश्य मोक्ष की आकांक्षा रखने वाले जीवों को मार्ग दिखलाना भी है। आप सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की वर्षा करते हुए सत्पुरूषों को निर्मल बनायेंगे। आपका जन्मधारण करना सर्वथा स्तुत्य है।हे महाभाग! मोक्षरूपी स्त्री आप में आसक्त हो रही है। भव्य जीव तो आपकी प्रतीक्षा करते ही हैं। वे बड़े प्रेम एवं भक्ति के साथ आप की चरण-सेवा के लिए सन्नद्ध हैं। वे आप को मोहरूपी महायुद्ध के विजेता, शरण में आये हुए के रक्षक, कर्मरूपी शत्रुओं के विनाशक एवं मोक्ष-मार्ग प्रशस्त करनेवाला मानते हैं। हे प्रभो! वस्तुत: आज हम आपका जन्माभिषेक कर अत्यन्त कृतार्थ हो गये हैं एवं आप का गुणानुवाद करने से हमारा मन अत्यन्त निर्मल हो गया है।
हे गुणों के अपार सागर! आपकी स्तुति करने से हमारा जन्म सफल हो गया एवं आपकी देह-सेवा से हमारा शरीर भी सफल हुआ। जिस प्रकार खान से निकलने वाले रत्न का संशोधन करने पर उसमें और अधिक चमक आने लगती है, ठीक उसी प्रकार आप स्नान आदि से बहुत सुशोभित हो रहे हैं। हे नाथ! आप समस्त संसार के नाथ हैं एवं आप बिना किसी कारण के ही लोक-हित-चिन्तक हैं। परमानंद प्रदान करने वाले हे विभो! आप को शत शत प्रणाम है। तीनों ज्ञानरूपी नेत्रों के धारक आप को बारम्बार प्रणाम है।धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक हे भगवन्! उत्तम गुणों के सागर एवं मल-स्वेद आदि से रहित शरीर धारण करने वाले आपको प्रणाम है। हे देव! निर्वाण का मार्ग दिखलाने वाले, कर्मरूपी शत्रुओं के संहारक, पंचेन्द्रियों के मोह को परास्त करनेवाले, पंच-कल्याणकों के भागी, स्वभाव से निर्मल, स्वर्ग-मोक्ष प्रदान करनेवाले, अनन्त महिमा से मण्डित, बिना स्वार्थ के समस्त संसारी जीवों का हित करनेवाले, मोक्षरूपी भार्या के स्वामी, संसार का अन्धकार नष्ट करनेवाले, तीनों जगत् के स्वामी एवं सत्पुरूषों के गुरू, आप को करबद्ध प्रणाम है।हे देव, म् िआपकी स्तुति इसलिये नहीं करता कि मुझे तीनों जगत् की सम्पदा प्राप्त हो, बल्कि मुझे ऐसी सम्पदा प्रदान करो, जिससे मोक्ष का मार्ग सुलभ हो। वस्तुत: इस संसार में आप के सदृश अन्य कोई दाता नहीं है।’ इस प्रकार श्री महावीर स्वामी की स्तुति कर सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने व्यवहार की प्रसिद्धि के लिए उनके दो नाम रख दियेदृ कर्म-शत्रु पर विजय प्राप्त करने के कारण ‘श्रीमहावीर’१ एवं सद्गुणों की वृद्धि होने से ‘वर्द्धमान’। इस प्रकार भगवान का नामकरण कर इन्द्र ने देवों के साथ उनको ऐरावत गजराज पर बिठा कर कुण्डलपुर की ओर प्रस्थान किया।कुण्डलपुर में जन्म महोत्सव-उस समय सारा नगर देव-देवियों से भर गया था। तत्पश्चात् इन्द्र ने थोड़े से देवों को साथ लेकर राजभवन में प्रवेश किया। वहाँ अत्यन्त रमणीक महल के आँगन में रत्नों के सिंहासन पर शिशु-भगवान को विराजमान किया। अपने बन्धु-बान्धवों के साथ महाराज सिद्धार्थ अनुपम गुण-कांतियुक्त पुत्र को देखने लगे।
इन्द्राणी ने जाकर मायामयी निद्रा में लीन महारानी को जगाया। उन्होंने बड़े प्रेम से आभूषणों से युक्त अपूर्व कान्तिवाले पुत्र को देखा। इन्द्राणी सहित इन्द्र को देखकर जगत्-पिता की माता को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझ लिया कि आज हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया। इसके पश्चात् ही सब देवों ने मिल कर माता-पिता को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उनकी विधिवत् पूजा की। इन्द्र ने बड़ी श्रद्धा के साथ माता-पिता की स्तुति की। उसने कहा ‘आप दोनों संसार में धन्य हो, आप श्रेष्ठ पुण्यवान एवं चराचर में प्रधान हो।’
आप विश्व के सम्मान एवं विश्व के माता-पिता हो। तीनों लोक के पिता को उत्पन्न करने के कारण आज आपकी मान्यता सारे संसार में है। आपकी कीर्ति अक्षुण्ण है, क्योंकि भविष्य में सबका उपकार एवं कल्याण होने में आप दोनों सहभागी हो। आज से आपका यह गृह चैत्यालय मंंदिर के सदृश हो गया है एवं गुरू (तीर्थंकर) के सम्बन्ध से आप हमारे पूज्य एवं मान्य हो’। इस प्रकार इन्द्र ने माता-पिता की स्तुति कर एवं भगवान को उन्हें सपि कर सुमेरू पर्वत पर अभिषेक महोत्सव का पूर्ण विवरण सुनाया। वे दोनों ही जन्माभिषेक का विवरण सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनके आनन्द की सीमा न रही।इन्द्र की सम्मति से उन दोनों (माता-पिता) ने बन्धुवर्ग के साथ भगवान का जन्मोत्सव सम्पन्न किया। सर्वप्रथम श्री जिन-मन्दिर में भगवान की अष्ट द्रव्यों से पूजा की गई। इसके पश्चात् ही बन्धुओं एवं दास-दासियों को अनेक प्रकार के दान दिये गये। बन्दी१ एवं दीन अनाथों को भी उनकी योग्यता के अनुसार दान देकर उन्हें संतुष्ट किया गया। नगर को तोरण एवं मालाओं से खूब सजाया गया। वाद्य एवं शंख की गम्भीर ध्वनि होने लगी। ऐसे ही नृत्य-गीतादि सैकड़ों उत्सवों से वह नगर स्वर्ग जैसा प्रतीत होने लगा।इस उत्सव से नगर की प्रजा एवं कुटुम्बीजनों को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। पुरवासी एवं नगर-निवासी जनों को प्रसन्नता प्रगट करते देख कर देवेन्द्र ने भी स्वयं प्रसन्नता प्रकट की। उस समय इन्द्र ने प्रभु की सेवा के लिए देवियों के साथ त्रिवर्ग साधक फल का प्रदायक दिव्य नृत्य-नाटक मंचस्थ किया। इन्द्र का नृत्य आरम्भ होने पर गन्धर्व देवों ने वाद्य एवं गान आरम्भ किये। राजा सिद्धार्थ नवजात पुत्र को गोद में लेकर बैठे। आरम्भ में इन्द्र ने जन्माभिषेक सम्बन्धी दृश्य दिखलाया पुन: जिनेन्द्र के पूर्व जन्म के अवतारों को नाटक की तरह दिखलाता हुआ एवं नृत्य करता हुआ इन्द्र कल्पवृक्ष-सा प्रतीत हो रहा था। रंगभूमि के चारों ओर नृत्य करता हुआ वह इन्द्र विमान की भांति शोभायमान हुआ।
इधर इन्द्र का तांडव नृत्य चल रहा था एवं उधर देवगण भक्तिवश इन्द्र पर पुष्प-वृष्टि कर रहे थे। नृत्य के साथ अनेकों सुमधुर वाद्य बजने आरम्भ हुए। किन्नरी देवियाँ भगवान का गुणगान करने लगीं। इन्द्र अनेक रसों से मण्डित ताण्डव नृत्य कर रहा था। हजारों भुजाओं वाले इन्द्र के नृत्य से पृथ्वी चंचल हो उठी। इन्द्र कभी एक रूप एवं कभी अनेक रूप, कभी स्थूल एवं कभी सूक्ष्म रूप धारण कर लेता था। क्षणभर में समीप, क्षण भर में दूर एवं क्षणभर में ही आकाश में पहुँच जाता था। इस प्रकार वह नृत्य-नाट्य बड़ा ही मनोरंजक एवं प्रभावोत्पादक हुआ। साथ-साथ देवांगनाओं के नृत्य भी बड़े आकर्षक हुए। वे बड़ी लय के साथ गातीं एवं हाव-भाव के साथ नृत्य करती थीं। उनमें से कई तो ऐरावत गजराज के ऊपर विराजमान इन्द्र की भुजाओं में से निकलती हुई एवं पुन: प्रवेश करती हुई कल्पबेलि के समान प्रतीत होती थीं। अनेक अप्सरायें इन्द्र की हस्तांगुलि पर अपनी नाभिरख कर नृत्य करने लगीं। इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर नृत्य करती हुई अनेक अप्सरायें सबको प्रसन्न करने लगीं।अप्सरायें प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार का नृत्य करती थीं। इस प्रकार नृत्य में सम्मिलित इन्द्र चतुर ऐन्द्रजालिक (पक्का जादूगर) मालूम होता था। इन्द्र की सारी कलायें उन नर्तकी देवियों में बँट गयीं। विक्रिया ऋद्धि से नृत्य करता हुआ इन्द्र भगवान के माता-पिता आदि सभी दर्शकों को मंत्र-मुग्ध करने लगा।तत्पश्चात् श्री जिनेन्द्र देव की सेवा के लिए अनेक देवियों को तथा असुर कुमार देवों को वहाँ रखकर इन्द्र शेष देवों के साथ बड़ी प्रसन्नतापूर्वक स्वर्ग में चला गया। इस प्रकार पुण्य के फलस्वरूप तीर्थंकर स्वामी सम्पूर्ण सम्पदाओं से पूर्ण हुए। अतएव भव्यजनों को चाहिये कि वे सर्वदा धर्म का पालन करते रहें।बाल्यकाल की विशेषतायें-एक बार ‘संजय’ और ‘विजय’ नामक दो चारण मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह हुआ, भगवान् के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आये और प्रभु के दर्शन मात्र से ही उनका संदेह दूर हो गया। इसलिए उन्होंने बड़ी भक्ति से बालक का ‘सन्मति’ यह नाम रखा। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर प्रतिदिन भगवान् के समय, आयु और इच्छा के अनुसार स्वर्ग से भोगोपभोग की वस्तुओं को लाया करता था। अर्थात् भगवान के भोजन, आभूषण आदि स्वर्ग से ही आते थे।
पूर्व के अध्याय में बतलाया जा चुका है कि भगवान की सेवा के लिए सौधर्म इन्द्र अनेक देव-देवियों को राजमहल में नियुक्त कर गये थे। उनमें से कोई धाय का काम करती, कोई वस्त्र-आभूषण आदि से उनके अंगों को सजाती, कोई अनेक प्रकार के खिलौने आदि के द्वारा उनका विशेष मनोरंजन करती थी। जब वे देवियाँ उन्हें सम्बोधन कर बुलातीं, तो भगवान मुस्कुराते हुए उनके पास चले जाते थे। तीर्थंकर भगवान चन्द्रकला की भाँति बढ़ने लगे। उनकी बाल-सुलभ चपलता से माता-पिता को बड़ा ही आनन्द होता था।जब उनकी अवस्था कुछ अधिक बढ़ी, तो उनके मुख से सरस्वती की भाँति वाणी निकलने लगी। रत्नजटित भूमि पर चलते हुए उनके आभूषण सूर्य की किरणों की तरह दमदमाते थे एवं वे स्वयं किरणों से परिवेष्टित सूर्य-से प्रतीत होते थे। उनकी क्रीड़ा के लिए देव स्वयं गजराज, अश्व आदि का कृत्रिम रूप ले लिया करते थे। वे उनके साथ क्रीड़ा किया करते थे। इस प्रकार विभिन्न क्रीड़ाओं से स्वयं प्रसन्न हो कर दूसरों को प्रसन्न करते हुए वे भगवान कुमार अवस्था को प्राप्त हुए। पूर्व में उनका जो क्षायिक सम्यक्त्व था, उससे उन्हें समग्र पदार्थों का ज्ञान स्वत: हो गया।उस समय प्रभु के दिव्य शरीर में स्वाभाविक मति-श्रुति-अवधि आदि ज्ञान वृद्धि को प्राप्त हुए। उन्हें समस्त कलायें एवं विद्यायें स्वत: प्राप्त हो गयीं। इसलिए वे प्रभु मनुष्यों तथा देवों के लिए गुरू सदृश हो गये, पर उनका कोई गुरू नहीं था। ठीक आठवें वर्ष में भगवान ने बारह व्रतों को ग्रहण किया। प्रभु का शरीर स्वेद-रहित कान्तिवान एवं मल-मूत्रादि से रहित स्वर्ण सदृश था। श्वेत रूधिरयुक्त एवं महान सुगन्धित आठ शुभ लक्षणों से वे शोभायमान थे। आगे चलकर भगवान वङ्कावृषभ-नाराच-संहनन एवं समचतुर संस्थान वाले उत्तम रूपयुक्त एवं विशालकाय बलवान पुरूष हुए।संगमदेव द्वारा बालक वर्द्धमान की परीक्षा-वे सबके हितकारक एवं कर्णमधुर शब्दों का उच्चारण करते थे। इस प्रकार जन्मकाल से ही दिव्य दश अतिशयों से युक्त, धीरज आदि अपरिमित गुण, कीर्ति-कला-विज्ञान आदि सभी से वे सुशोभित थे। उनके शरीर का वर्ण तपाये हुए स्वर्ण के वर्ण जैसा था। वे दिव्य देह के धारक धर्म की प्रतिमूर्ति के सदृश जगत् के धर्मगुरू थे।एक दिन की घटना है इन्द्र की सभा में देवों ने भगवान की दिव्य कथा पर चर्चा की। वे कहने लगे ‘देखो, वीर जिनेश्वर तो कुमार अवस्था में ही धीर-वीरों में अग्रणी, अतुल पराक्रमी, दिव्य रूपधारी एवं अनेक गुणों के धारी सांसारिक क्षेत्र में क्रीड़ा करते हुए कितने मनोज्ञ प्रतीत होते हैं।’ उसी स्थान पर संगम नाम का एक देव बैठा हुआ था। देवों की बातें सुनकर भगवान की परीक्षा लेने के लिए वह स्वर्ग से चल पड़ा। वह उस वन में आया, जहाँ प्रभु अन्य राजपुत्रों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उस देव ने प्रभु को डराने के उद्देश्य से काले सर्प का विकराल रूप बनाया। वह एक वृक्ष की जड़ से लेकर स्कन्ध तक लिपट गया। उस सर्प के भय से अन्यान्य राजकुमार वृक्ष से कूद कर घबराये हुए दूर भाग गये।
किन्तु कुमार महावीर जरा भी भयभीत नहीं हुए। वे उस विकराल सर्प के ऊपर आरूढ़ होकर क्रीड़ा करने लगे। ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वे माता की गोद में ही क्रीड़ा कर रहे हों। कुमार का धैर्य देख कर सर्परूपी देव बड़ा चकित हुआ। वह प्रगट होकर प्रभु की स्तुति करने लगा। उसने बड़े नम्र शब्दों में कहा ‘हे देव! आप संसार के स्वामी हो, आप महान धीर-वीर हो, आप कर्मरूपी शत्रु के विनाशक तथा समग्र जीवों के रक्षक हो।’वह कहने लगा ‘हे देव! आपके अतुल पराक्रम से प्रगट हुई कीर्ति स्वच्छ चांदनी के सदृश लोक के कण-कण में विस्तृत हो रही है। आपका नाम स्मरण करने मात्र से ही प्रयोजनों को सिद्ध करानेवाला धैर्य प्राप्त होता है। अत्यन्त दिव्य मूर्तिवाली सिठ्ठि-वधू के स्वामी श्री महावीर म् िआपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ।’ इस प्रकार वह देव भगवान की स्तुति कर उनका ‘महावीर’ नाम सार्थक करता हुआ स्वर्ग को चला गया।१ कुमार ने भी अपने यशगान को बड़े ध्यान से सुना। देव की स्तुति बड़ी ही कर्णप्रिय तथा भगवान के यश को संसार में विस्तृत करनेवाली थी।
इस प्रकार भगवान श्री महावीर स्वामी का गुणानुवाद बारम्बार हुआ करता था। वे भगवान किन्नरी देवियों द्वारा गाये गये अनेक गुणानुवाद को बड़े ध्यानपूर्वक सुना करते थे। कभी नेत्रों को तृप्त करने वाले स्वर्ग की अप्सराओं के नृत्य तथा विभिन्न प्रकार के नाटक देखते थे, तो कभी स्वर्ग से प्राप्त आभूषण-वस्त्र-माला आदि अन्य को दिखाकर प्रसन्न होते थे। अन्य देव कुमारों के साथ कभी जल-क्रीड़ा तथा कभी अपनी इच्छा से वन-क्रीड़ा करते थे। इस प्रकार क्रीड़ा में संलग्न धर्मात्मा कुमार का समय बड़े सुख से व्यतीत होने लगा।
सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भी अपनी कल्याण-कामना के लिए देवियों से अनेक प्रकार के नृत्य-गीत करवाने लगा। काव्य आदि की गोष्ठी तथा धर्म-चर्चा में समय व्यतीत करते हुए कुमार ने संसार को सुखी करने वाली यौवनावस्था को प्राप्त किया। कुमार के मस्तक का मुकुट धर्म-रूपी पर्वत के शिखर की भाँति शोभायमान हो रहा था। इनके कपोल तथा मस्तक की कान्ति ऐसी मालूम पड़ती थी, मानो पूर्णिमा के चन्द्रमा की ज्योत्स्ना ही हो। प्रभु की सुन्दर भहिों से शोभित कमल-नेत्रों का वर्णन भला यह तुच्छ लेखनी क्या कर सकती थी, जिसके खुलने-मात्र से संसार के प्राणी तृप्त हो जाते थे।
प्रभु के कानों के कुण्डल बड़े ही भव्य दीखते थे। वे ऐसे शोभायमान होते थे, मानो ज्योतिष्क चक्र से घिरे हुए हों। भला प्रभु के मुखरूपी चन्द्रमा का क्या वर्णन किया जा सकता है, जिसके द्वारा संसार का हित करनेवाली ध्वनि निकलती है। प्रभु की नासिका-ओष्ठ-दन्त एवं कण्ठ की स्वाभाविक सुन्दरता जैसी थी, उसे बतलाने की शक्ति किसी में नहीं है। उनका विस्तृत वक्षस्थल रत्नों के हार से ऐसा सुसज्जित होता था, मानो लक्ष्मी का निवास ही हो।अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित उनकी भुजायें ठीक कल्पवृक्ष के सदृश प्रतीत होती थीं। अंगुलियों के दशों नख अपनी किरणों से ऐसे प्रतिभासित हो रहे थे, मानो वे धर्म के दश अंग ही हों। उनकी गहरी नाभि सरस्वती एवं लक्ष्मी की क्रीड़ास्थली (सरोवर) जैसी प्रतीत होती थी। प्रभु के वस्त्र-पट की करधनी ऐसी मालूम होती थी, जैसे वह कामदेव को बांधने के लिए नाग-पाश ही हो।प्रभु के दोनों जानु विस्तीर्ण एवं पुष्ट थे। यद्यपि वे कोमल थे, फिर भी व्युत्सर्गादि तप करने में उनकी समानता नहीं की जा सकती थी। भला प्रभु के ऐसे चरणकमलों की तुलना किससे की जा सकती है, जिनकी सेवा इन्द्र-धरणेन्द्र आदि सभी देव किया करते हैं। इस प्रकार शिखा से नख तक प्रभु के अंग-प्रत्यंग की शोभा अपूर्व थी। उसका वर्णन करना असाध्य है, मानो ब्रह्मा अथवा कर्म ने तीन जगत् में रहनेवाले दिव्य प्रकाशमान, पवित्र एवं सुगन्धित परमाणुओं से प्रभु का अद्वितीय शरीर बनाया था। उस शरीर का पहिला गुण वङ्का-वृषभ-नाराच-संहनन था।
प्रभु के शरीर में मद, स्वेद, दोष, रागादिक तथा वातादिक तीन दोषों से उत्पन्न रोग किसी समय भी नहीं होते थे। उनकी वाणी समस्त संसार को प्रिय थी। वह सबको सत्य एवं शुभ मार्ग दिखलानेवाली धर्ममाता के समान थी, दूसरे खोटे मार्ग को व्यक्त करनेवाली नहीं थी। दिव्य शरीर को पाकर वे प्रभु ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे धर्मात्माओं को पाकर धर्मादि गुण सुशोभित होते हैं। भगवान के लक्षण ये हैंश्रीवृक्ष, शंख, पद्म, स्वस्तिक, अंकुश, तोरण, चमर, श्वेत छत्र, ध्वजा, सिंहासन, दो मछलियाँ, दो घड़े, समुद्र, कछुआ, चक्र, तालाब, विमान, नाग-भवन, पुरूष-स्त्री का जोड़ा, बड़ा भारी सिंह, तोमर, गंगा, इन्द्र, सुमेरू, गोपुर, चन्द्रमा, सूर्य, घोड़ा, बींजना, मृदंग, सर्प, माला, वीणा, बांसुरी, रेशमी वस्त्र, दैदीप्यमान कुंडल, विचित्र आभूषण, फल सहित बगीचा, पके हुए अनाजवाला खेत, हीरा रत्न, बड़ा दीपक, पृथ्वी, लक्ष्मी, सरस्वती, सुवर्ण कमलबेल, चूड़ारत्न, महानिधि, गाय, बैल, जामुन का वृक्ष, पक्षिराज, सिद्धार्थ वृक्ष, महल, नक्षत्र, ग्रह, प्रातिहार्य आदि दिव्य एक सौ आठ लक्षणों से तथा नौ सौ सर्वश्रेष्ठ व्यंजनों से, विचित्र आभूषणों से एवं मालाओं से प्रभु का स्वभाव-सुन्दर, दिव्य, औदारिक शरीर अत्यन्त सुशोभित हुआ।विशेष वर्णन ही क्या किया जाय‘ संसार में जितनी भी शुभ-लक्षणरूप सम्पदा एवं प्रिय वचन-विवेकादि गुण हैं, वे सब पुण्य कर्मों के उदय से तीर्थंकर भगवान में स्वत: ही समाविष्ट थे। अधिष्ठित स्वामी सदा उनकी सेवा में रत रहते थे। वे महावीर कुमार धर्म की सिद्धि के लिए मन-वचन-काय की शुद्धि से अतिचार रहित भक्तिपूर्वक गृहस्थों के बारह व्रतों का पालन करते थे। वे सर्वदा शुभ-ध्यान की ओर विचार किया करते थे। पुण्य के शुभोदय से प्राप्त हुए सुखों का उपभोग करते हुए वे कुमार आनन्दपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे।भगवान का वैराग्य-विश्वपति, मन्दरागी उन महाप्रभु ने तीस वर्ष का समय मानो क्षणभर में ही व्यतीत कर दिया। एक बार अच्छे होनहार के कारण चारित्र-मोह-कर्म के क्षयोपशम से उन्हें स्वत: अपने पूर्व के करोड़ों जन्मों का संसार-भ्रमण ज्ञात हो गया। वे इस प्रकार की पूर्व-घटित घटनाओं पर विचार कर बड़े ही क्षुब्ध हुए। उन्हें तत्काल ही वैराग्य उत्पन्न हो गया। वे विचार करने लगे कि मोहरूपी महान शत्रु का सर्वनाश करने के लिए रत्नत्रयरूप तप का पालन ही श्रेयस्कर है। उन्होंने सोचा चारित्र के अभाव में मेरा इतने दिन का समय व्यर्थ ही व्यतीत हो गया, जो अब लौट नहीं सकता। पूर्वकाल में ऋषभादि जितने भी तीर्थंकर हो गये हैं, उनकी आयु पर्याप्त दीर्घ थी, इसलिये वे सब कुछ कर सकने में समर्थ हुए थे, पर हम सरीखे थोड़ी-सी आयुवाले मनुष्य सांसारिक कार्य कुछ भी नहीं कर सकते। वे श्री नेमिनाथादि तीर्थंकर धन्य हैं, जिन्होंने अपने जीवन की अवधि थोड़ी-सी समझकर अल्पायु में ही मोक्ष के उद्देश्य से तपोवन की ओर प्रस्थान किया था अत: संसार हित चाहनेवाले थोड़ी आयुवाले व्यक्तियों को एक क्षण भी संयम के बिना व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।
वस्तुत: वे बड़े अज्ञानी हैं, जो थोड़ी आयु पाकर भी तपस्या के बिना अपने अमूल्य समय को नष्ट कर देते हैं। वे यहाँ तो दु:ख भोगते ही हैं एवं नरकादि में यातनायें भी। म् िज्ञानी होते हुए भी संयम के अभाव में एक अज्ञानी की भांति भटक रहा हूँ। अब गृहस्थाश्रम में रहकर समय व्यतीत करना उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। वे तीनों ज्ञान ही किस काम के, जिनके द्वारा आत्मा को एवं कर्मों को अलग-अलग न किया जाय तथा मोक्षरूपी लक्ष्मी की उपासना न की जाय‘ ज्ञान प्राप्त करने का उत्तम फल उन्हीं महापुरूषों को प्राप्त है, जो निष्पाप तप का आचरण करते रहते हैं। दूसरों का ज्ञान तप के बिना नितान्त निष्फल है।उस व्यक्ति के नेत्र निष्फल हैं, जो नेत्र होते हुए भी अन्धकूप में गिरता है। वही दशा ज्ञानी पुरूषों की है जो ज्ञान होते हुए भी मोहरूपी कूप में गिरे रहते हैं। वस्तुत: अज्ञान (अनजान) में किये गये पाप से छुटकारा तो ज्ञान प्राप्त होने पर मिल भी जाता है, पर ज्ञानी (जानकार) का पाप से मुक्त होना बड़ा ही दुष्कर होता है। अतएव ज्ञानी पुरूषों को मोहादि निंद्य कर्मों के द्वारा किसी प्रकार पाप का बंध नहीं करना चाहिये। इसका कारण यह है कि मोह से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं एवं राग-द्वेष से घोर पाप होता है। उस पाप के फलस्वरूप जीव को बहुत दिनों तक दुर्गतियों में भटकना पड़ता है। वह भटकना भी साधारण नहीं, अनन्तकाल तक का, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।ऐसा समझ कर ज्ञानियों को चाहिये कि वे मोहरूपी शत्रु को वैराग्यरूपी खड्ग से मार दें। कारण, यह मोह ही सारे अनर्थों की जड़ है, पर यह स्मरण रहे कि यह मोह गृहस्थों द्वारा नहीं छोड़ा जा सकता इसलिये पाप के बन्धन गृह को तो त्यागना ही पड़ेगा। गृह-बन्धन बाल्यावस्था में तथा यौवनावस्था में सारे अनर्थ उत्पन्न करता रहता है। अत: धीर-वीर पुरूष मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से गृह-बन्धन का सर्वथा परित्याग कर देते हैं। वे संसार में पूज्य एवं महापुरूष हैं, जो यौवनावस्था में दुर्जेय कामदेव को भी परास्त करने में समर्थ होते हैं।
यौवनावस्थारूपी राजा ने कामदेव को पंचेन्द्रिय आदि चारों काय के जीवों के जीवन को विकृत करने के लिए भेजा है; पर जब यौवन की अवस्था मन्द हो जाती है, तब उसके साथ बुढ़ापेरूपी फन्दे में बंधे हुए वे कामदेवादि भी ढीले पड़ जाते हैं। अतएव यह उचित होगा कि म् ियौवनावस्था में ही उग्र तप आरम्भ कर दूँ, जिससे कामदेव एवं पंचेन्द्रिय विषयरूपी शत्रुओं का सर्वनाश हो। इस प्रकार की चिन्ता कर वे महाबुद्धिमान महावीर प्रभु अपने चित्त को निर्मल कर राज्य-भोगादि से विरक्त हुए एवं मोक्ष-साधन में संलग्न हो गये।
वीर भगवान को वैराग्य उत्पन्न होने के पश्चात् आठों लौकान्तिक देवों ने अपने अवधिज्ञान से यह निश्चय कर लिया कि भगवान के तप-कल्याणक का उत्सव मनाना चाहिये। तत्पश्चात् वे भगवान श्रीमहावीर के पास आये। उन देवों ने अपने पूर्व जन्म में द्वादशांग श्रुत का अभ्यास किया था तथा वैराग्य भावनाओं का चिन्तवन किया था। चौदह श्रुत के जाननेवाले, देवों में श्रेष्ठ वे देवर्षि कहलाते थे।कर्मरूपी बैरियों को नाश करने में जो प्रयत्नशील हैं, ऐसे वीर भगवान को प्रणाम कर तथा स्वर्ग से लाये हुए पवित्र द्रव्यों से भगवान की पूजन कर वैराग्यमय परिणाम हो जाय, ऐसी वैराग्यमयी स्तुति के द्वारा वे विद्वान लौकान्तिक देव भगवान का गुणगान करने लगे।हे वीर प्रभु! आप जगत् के स्वामी हैं, गुरूओं के श्रेष्ठ महान गुरू हैं, ज्ञानियों में श्रेष्ठ ज्ञानी हैं, समझदारों में आप सर्वश्रेष्ठ समझदार हैं। आपको हम विशेष क्या समझा सकते हैं‘ इसलिये स्वयंबुद्ध तथा सर्व पदार्थों के ज्ञाता आपको हम क्या समझावें‘ क्योंकि आप स्वयं हमको सद्बुद्धि देनेवाले हैं। जिस प्रकार प्रकाशमान दीपक समस्त पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी तरह आप भी संसार के समस्त पदार्थों को प्रकाशित करेंगे। परन्तु हे भगवन्! हमें सन्तोष होता है कि हम आपको समझाने के बहाने से आपके दर्शन एवं आपकी भक्ति करने को यहाँ आने का सौभाग्य प्राप्त कर लेते हैं। आप तो तीन ज्ञान के धारी हैं, आपको भला शिक्षा कौन दे सकता है‘ क्या सूर्य का दर्शन करने के लिए दीपक की आवश्यकता होती है‘ कदापि नहीं। हे देव! बलवान मोहरूपी शत्रु को जीतने के लिए आपने जो उद्यम किया है, उसे देख कर संसार-समुद्र पार होने की इच्छा रखने वाले अनेक भव्य आत्माओं का महान हित होगा। आप जैसे दुर्लभ जलपोत को पाकर असंख्यात भव्य जीव विकट संसार-सागर से पार हो सकेंगे। कितने ही भव्य जीव आपके पवित्र उपदेश से रत्नत्रय को अंगीकार कर उसके द्वारा ‘सर्वार्थसिठ्ठि’ जैसे स्थान में गमन करेंगे। कितने ही प्राणी आपकी वाणी को सुनकर मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार का निवारण कर सब पदार्थों के साथ-ही-साथ मोक्ष-लक्ष्मी को भी देखेंगे। हे प्रभु! आप से बुद्धिमानों को मनचाहे इष्ट पदार्थों की सिद्धि होगी। हे देव! आपके प्रसाद से ही स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी।
हे दीनानाथ! मोहरूपी फन्दे में फंसे हुए भव्य प्राणियों को आप ही लगातार सहारा देंगे, क्योंकि आप ही तीर्थ को चलानेवाले धर्म-प्रवर्तक हैं। आपके वचनरूपी मेघ से वैराग्यरूपी अपूर्व वङ्का को पाकर असंख्यात बुद्धिमान बहुत ऊँचे मोहरूपी शिखर को बात-की-बात में खण्ड-खण्ड कर देंगे। आपके उपदेश से पापी प्राणी अपने पापों को एवं कामी व्यक्ति काम-शत्रु को शीघ्र ही परास्त कर डालेंगे, इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं है। हे स्वामी! यह भी निश्चय है कि बहुत से प्राणी आपके चरण-कमलों के सेवन से दर्शन-विशुद्ध्यादि सोलह भावनाओं को स्वीकार करके आप ही के समान महान हो जायेंगे।
हे प्रभो! संसार से बैर करनेवाले, वैराग्यरूपी अस्त्र को रखने वाले आपके अवलोकनमात्र से मोह एवं इन्द्रियरूपी शत्रु अपनी जीवन-लीला समाप्त होने के भय से कांप रहे हैं क्योंकि हे दीनबन्धु! आप बलवान सुभट हैं, दुर्जय परीषहरूपी वीरों को क्षण-मात्र में जीतने की सामर्थ्य रख्ाते हैं। इसलिये हे वीर प्रभो! आप मोह एवं इन्द्रियरूपी बैरियों को जीतने में तथा भव्यात्माओं का उपकार करने के लिए चारों घातिया कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने का शीघ्र उपाय करें, क्योंकि अब यह उत्तम समय तपस्या करने के लिए एवं भव्यों को मोक्ष में ले जाने के लिए आपके हाथ में आया है।
हे वीर प्रभु! आपको प्रणाम है, आप जगत्-हितैषी हैं, आप ही मोक्षरूपी रमणी की प्राप्ति के लिए उद्योगी हैं, इसलिये आपको हम पुन: प्रणाम करते हैं। अपने ही शरीर के भोगों के सुख में इच्छारहित हैं, इसलिये भी आपको प्रणाम है। मोक्षरूपी स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा रखते हैं, इसलिये आपको प्रणाम है। महान पराक्रमी, बाल ब्रह्मचारी, राज्यलक्ष्मी के त्यागी, अविनाशी लक्ष्मी में लीन आपको प्रणाम है। योगियों के भी आप महान गुरू हैं, इसलिये आपको प्रणाम है। सब जीवों के परम बन्धु हैं, सर्वज्ञ हैं, इसलिये पुन: आपको प्रणाम है।
‘हे महान प्रभु! इस स्तुति द्वारा हम यही प्रार्थना करते हैं कि परलोक में चारित्र की सिद्धि के लिए आप हमें पूरी शक्ति दें। हे वीर प्रभु! वह शक्ति मोहरूपी शत्रु का नाश करनेवाली है।” इस प्रकार जगत्पूज्य श्रीवीर भगवान की स्तुति एवं अनेक प्रार्थनाएँ करके वे लौकान्तिक देव अपने-अपने स्थान को चले गये।
उसी समय समस्त देवादि सहित चारों जाति के इन्द्रों ने घण्टादि के स्वत: बजने से भगवान का संयमोत्सव समझकर भक्तिभाव से अपनी इन्द्राणियों के साथ महान विभूति से विभूषित होकर अपनी-अपनी सवारियों पर आरूढ़ होकर नगरी में प्रवेश किया। देवों की सेना ने अपनी पत्नियों सहित, सवारियों पर चढ़े हुए नगर एवं वन को चारों ओर से घेर लिया। तत्पश्चात् इन्द्र ने भगवान महावीर स्वामी को एक सिंहासन पर बैठाकर अत्यन्त प्रसन्नता प्रदर्शित करते हुए गीत, नृत्य, ‘जय-जयकार’ शब्दों का उच्चारण करते हुए क्षीर-सागर से भरे हुए एक हजार आठ स्वर्ण के कलशों से उनका अभिषेक किया। इन्द्र ने उन त्रिलोकीनाथ को दिव्य आभूषणों एवं वस्त्रों से अलंकृत किया, सुगन्धित दिव्य मालायें पहिनाईं। इस तरह इन्द्र ने भगवान को खूब सजाया। तत्पश्चात्, भगवान ने जन्म देनेवाली अपनी माता को ज्ञानामृत से सिंचित प्रभावशाली, सरल एवं मीठे शब्दों में सान्त्वना प्रदान कर, वैराग्य को उत्पन्न करनेवाले उपदेशों के सैकड़ों वाक्यों से अपनी दीक्षा की बात समझा दी। संयमरूपी लक्ष्मी के सहवास-सुख में उद्यमी वे वीर प्रभु हर्ष के साथ समस्त राज-पाट, माता-पिता एवं बन्धुओं को त्याग कर इन्द्र द्वारा लाई हुई दैदीप्यमान ‘चन्द्रप्रभा’ नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर दीक्षा के लिए वन की ओर चले गये। उस समय वे जगत् के स्वामी समस्त देवों से घिरे हुए, दिव्य आभूषणों से युक्त, अत्यन्त मनोज्ञ प्रतीत होते थे।
सबसे पहिले भूमिगोचरी मनुष्यों ने पालकी को उठाया एवं सात प्डि आगे ले जाकर रख दिया। तत्पश्चात् विद्याधर आकाश-मार्ग से सात प्डि ले गये, उसके बाद धर्म से प्रेम रखनेवाले समस्त देवों ने अपना-अपना कन्धा लगाया एवं आकाश-मार्ग से चलने लगे। इस समय की शोभा का वर्णन करना इसलिये असम्भव है कि जिस पालकी को ले जानेवाले स्वयं इन्द्र एवं स्वर्ग के देवता लोग हों, उसकी अनुपम छटा का वर्णन क्या सामान्य लेखनी द्वारा हो सकता है‘ उस समय हर्ष से पुलकित समस्त देव पुष्पों की वर्षा कर रहे थे, वायुकुमार देव गंगाजल के कणों से युक्त मधुर पवन चला रहे थे, कुछ देव भेरी बजा रहे थे। इन्द्र की आज्ञा से उन देवों ने यह घोषणा की कि भगवान का यह समय मोहादि शत्रुओं को जीतने का है। यह सुन समस्त देवों ने हर्षित होकर प्रभु के सामने खूब उत्सव मनायादृ ‘जयवन्त हो’, ‘आनन्दयुक्त’ हो, ‘वृद्धि पाओ’दृ आदि शब्द होने लगे। दुन्दुभी वाद्यों के शब्द होने लगे, अप्सरायें नृत्य करने लगीं, किन्नरी देवियाँ मधुर शब्द में मोहरूपी शत्रु को जीतने का यश गान करने लगीं। प्रभु के आगे दिक्कुमारी देवियाँ मंगल-अर्घ लेकर चलने लगीं।
महापुराण में लिखा है-
अग्रेसरीषु लक्ष्मीषु पंकजव्यग्रपाणिषु।
संय मंबगलार्धाभि-र्दिक्कुमारीभिरादरात््१।।
हाथों में कमल धारण किए हुए लक्ष्मी आदि देवियां आगे-आगे जा रही थीं और बड़े आदर से मंगलद्रव्य तथा अर्घ्य लेकर दिक्कुमारी देवियां उनके साथ-साथ जा रही थीं।
इस प्रकार भगवान महावीर नगर से वन को चले गये। नगरवासियों ने प्रभु की भूरि-भूरि प्रशंसा की। कितने ही लोग यह भी कहते थे कि अभी जिनराज कुमार ही हैं, फिर भी थोड़ी-सी उम्र में इन्होंने कामरूपी शत्रु को पराजित कर बड़ा भारी उच्च कोटि का काम किया है एवं आज मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए तपोवन को चले जा रहे हैं।
इस तरह के वाक्य सुन कर अन्य लोग भी इसी तरह कहने लगे कि मोह को तथा कामदेव-रूपी शत्रु को प्रभु ने ही जीत पाया है, दूसरे में यह सामर्थ्य नहीं है। उसके पश्चात् सूक्ष्म विचारवाले इस तरह कहने लगे कि यह सब वैराग्य का ही माहात्म्य है, जो अन्तरंग शत्रुओं का नाश करनेवाला है। वैराग्य के प्रभाव से पंचेन्द्रियरूपी चोरों को मारने के लिए स्वर्ग के भोग, तीन लोक की सम्पदायें त्याग दी जाती हैं, क्योंकि जिसके हृदय में पूर्ण वैराग्य का स्रोत बहता हो, वही चक्रवर्ती की विभूति को क्षण-भर में त्याग सकता है। दरिद्र मनुष्य अपनी कच्ची झोपड़ी को भी छोड़ने में समर्थ नहीं है। कुछ मनुष्य यह भी व्ाâहते सुने गये कि यह बात सत्य है कि वैराग्य के बिना मन पवित्र नहीं हो सकता। इस तरह की बातचीत करते हुए बहुत-से नगर-निवासी इस कौतुक को देखने के लिए वन में जा पहुँचे। किन्तु भगवान के दर्शन होते ही उनका मस्तक स्वयं झुक गया। इस प्रकार वे त्रिलोकीनाथ नगर के बाहर जा पहुँचे।
जब माता ने भगवान के वन-गमन का संवाद सुना, तो पुत्र-वियोग में वे मूर्च्छित होकर कोमल बेल के समान मुरझा गईं। तत्पश्चात् इस शोक को क्रमश: सहन करती हुई अनेक पुरजनों एवं बंधुओं के साथ उनके पीछे-पीछे चली गईं। जाती हुई माता विलाप करती थीं ‘हे पुत्र! तू तो मुक्ति से प्रेम लगा कर तपस्या करने चला, पर मुझे तेरे बिना वैâसे चैन मिलेगा‘ किस तरह जीवन व्यतीत करूँगी‘ इस छोटी-सी अवस्था में तू तपस्या के महान उपसर्गों को किस प्रकार सहन करेगा‘ हे पुत्र! शीत-काल की वँâपवँâपाती पवन में जब तू दिगम्बर भेष में वन में विचरेगा, तब वैâसे उस शीत को सहन करेगा‘ ग्रीष्म-काल की ज्वालाओं से समस्त वन जल जाता है, उस ज्वाला को वैâसे सहेगा‘ श्रावण-भादों की काली घटाओं को देखकर अच्छे-अच्छे साहसियों के भी छक्के छूट जाते हैं ‘हे बेटा! इन सब कष्टों को क्या तू सहन कर सकेगा? बस, ज्यों-ज्यों मेरा हृदय इन सब बातों को विचारता है, त्यों-त्यों मुझे अत्यधिक कष्ट होता है। हे पुत्र! अति दुर्निवार इन्द्रिय-समूहों को, त्रैलोक्य-विजयी कामदेव को एवं कषायरूपी महा शत्रुओं को धैर्यपूर्वक तू अपने वश में वैâसे कर सकेगा? हे बेटा! तू बालक है तथा अकेला है; फिर इस भयंकर वन की गुफाओं में किस प्रकार रह सकेगा‘ क्योंकि उन गुफाओं में नाना प्रकार के हिंसक जंगली जीव रहा करते हैं।’
इस तरह जिन-माता अत्यन्त करूण स्वर में विलाप करती हुई मार्ग में अति कष्ट से पैरों को बढ़ाती हुई चली जा रही थीं कि इतने में उनके पास प्रमुख-प्रमुख देव आये। उन्होंने सान्त्वना देते हुए कहा-‘हे महादेवी! क्या आप इन्हें नहीं पहिचानतीं ? ये आपके पुत्र संसार के स्वामी एवं अनुपम शक्तिशाली जगद्गुरू हैं। आत्मवेशी संसाररूपी समुद्र में अपने-आपको विलीन कर लेने के पहिले ही ये अपना उद्धार तो कर ही लेंगे, साथ ही अन्य कितने ही भव्य जीवों का भी उद्धार कर देंगे यह ध्रुव सत्य है। जिस तरह कि भयानक सिंह भी मजबूत रस्सी से जकड़े जाने पर सहज ही में वशवर्ती हो जाता है, उसी तरह आपके ये महान पुत्र भी मोहादि पराक्रमी शत्रुओं को तपरूपी रस्सियों से बांधकर उन्हें अपने वश में कर लेंगे। जिनके लिए संसाररूपी समुद्र का दूसरा किनारा पा लेना कतई दुर्लभ नहीं है, ऐसे सामर्थ्यशाली आपके ये पुत्र भला दीनतापूर्वक कल्याणहीन घर में वैâसे रह सकेंगे‘ इनके ज्ञानरूपी तीन नेत्र हैं। संसार को इन्होंने सम्यक्रूपेण जान लिया है। फिर भला, वैराग्य उत्पन्न हो जाने पर कोई अन्धकूप में क्यों गिरेगा‘ इसलिये हे महादेवी! आप इस पापरूपी शोक को त्याग दो। त्रैलोक्य को अनित्य समझकर अपने घर जाओ एवं वहीं पर धर्म-साधना में अपने मन को लगाओ। अपनी प्रिय एवं इच्छित वस्तु के वियोग-काल में ज्ञानहीन पुरूष ही शोक किया करते हैं। जो ज्ञानी एवं बुद्धिमान होते हैं, वे सदैव संसार से डरा करते हैं एवं कल्याणकारी धर्म की ही उपासना किया करते हैं।’ महत्तर देव की इन बातों को सुनकर जिन-माता कुछ शान्त हो गयीं। उनके हृदय में विवेकरूपी प्रकाशमयी किरणों का प्रादुर्भाव हुआ एवं हृदय का शोकान्धकार दूर हो गया। वे अपने विशाल हृदय में पवित्र धर्म को धारण कर अपने कुटुम्बियों एवं भृत्यजनों को साथ लेकर राजमहल को वापस लौट गयीं।
इसके बाद जिनेन्द्र महावीर प्रभु पार्श्ववर्ती देवों के साथ मानव समाज का मंगल-गान आरम्भ करने के पूर्व ज्ञातृषंडवन नाम के विशाल वन में संयम धारण करने के लिए जा पहुँचे। वह वन अत्यन्त रमणीक था। वहाँ फल-पुष्पों से युक्त शीतल छायावाले सुन्दर-सुन्दर वृक्ष थे, जो अध्ययन एवं ध्यान के लिए नितान्त उपयुक्त थे। महावीर स्वामी अपनी पालकी से उतर कर ‘चन्द्रकान्तमयी’ एक स्वच्छ शिला पर बैठ गये। उस सुन्दर शिला की शोभा विचित्र थी। महावीर स्वामी के आने के पहिले ही देवों ने आकर उस शिला को सुरम्य बना दिया था। वह शिला गोलाकार थी। उस शिला पर विशाल वृक्षों की शीतल एवं घनी छाया पड़ रही थी। चन्द्रकिरणों से भीगी सुरभित जल की बूदें उस शिला पर छिड़की हुई थीं। बहुमूल्य रत्नों के चूर्ण द्वारा स्वयं इन्द्राणी के हाथ से उस शिला पर साथिये बनाये हुए थे। ऊपर वस्त्र का मण्डप बना हुआ था। उसमें ध्वजा एवं रंग-बिरंगी सुन्दर मालाएँ टँगी हुई थीं। चारों ओर धूप का सुगन्धित धुँआ पैâल रहा था एवं पास में अनेक मंगल द्रव्य सजाये हुए थे।
महावीर स्वामी उस सुन्दर स्वच्छ शिला पर उत्तराभिमुख होकर बैठ गये एवं मनुष्यों का कोलाहल शांत हो जाने पर देह इत्यादि की इच्छा से विरक्त एवं मुक्ति-साधन में तत्पर हो कर शत्रु-मित्रादि के प्रति उत्तम समान भाव का चिंतवन करने लगे। सर्वप्रथम उन्होंने पल्यंकासन लगा कर मोह-बन्धन में पँâसानेवाले केशों का लोंच किया (केश उखाड़ डाले)। उन्होंने क्षेत्र इत्यादि चेतन एवं अचेतन रूप बाह्य दस परिग्रहों का, मिथ्यात्व इत्यादि चौदह अन्तरंग परिग्रहों का तथा वस्त्र, अलंकार एवं माला इत्यादि वस्तुओं का परित्याग कर दिया तथा मनसा-वाचा-कर्मणा पवित्र होकर शरीरादि में निस्पृहतापूर्वक आत्म-सुख की प्राप्ति में लग गये। बाद में जिनेश्वर महावीर स्वामी सम्पूर्ण पाप-क्रियाओं से निर्मुक्त होकर अट्ठाईस मूल-गुणों के पालन करने में तत्पर हो गये। आतापनादि योग से उत्पन्न उत्तर गुणों को एवं महाव्रत, समिति तथा गुप्ति आदि को उन्होंने धारण किया। वे सबके प्रति समता भाव को धारण करने लगे तथा सम्पूर्ण दोषों से हीन एवं सर्वश्रेष्ठ सामायिक संयम को उन्होंने स्वीकार किया। इस प्रकार उन्होंने मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी तिथि के सायंकाल, हस्त-उत्तरा नक्षत्र के मध्यवाले शुभ समय में दुष्प्राप्य जिन-दीक्षा को ग्रहण किया। यह जिन-दीक्षा मुक्तिरूपी कामिनी की सहचरी (सखी) के समान थी।
महावीर स्वामी के मस्तक में चिरकाल रहने के कारण परम पवित्र उनके केशों को स्वयं इन्द्र ने रत्न-जड़ित मंजूषा (पिटारी) में अपने हाथों से संवार कर रक्खा। फिर इन्द्र ने केशों की पूजा की, उन्हें उत्तम बहुमूल्य वस्त्रों से ढांका एवं समारोहपूर्वक क्षीर-सागर के नैसर्गिक शुद्ध जल में डाल दिया। जब केश जैसी हीन वस्तु का भी, जिनेश्वर के संसर्ग में रहने के कारण, इतना अधिक सम्मान किया जा सकता है; तब जो पुरूष साक्षात् जिनेश्वर भगवान की निरन्तर सेवा-पूजा में लगे रहते हैं, उन्हें संसार में कौन-सी ऐसी अलभ्य वस्तु है, जो नहीं मिल सकती‘ उनकी सेवा से सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। इस संसार में जिन भगवान के चरण कमलोेंं के आश्रय में आ जाने से जिस प्रकार यक्षों को सम्मान प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार अरहन्त प्रभु का जो लोग सहारा लेते हैं, वे चाहे नीच पुरूष ही क्यों न हों, उनकी पूजा होती है एवं उन्हें अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखा जाता है। इस प्रकार महावीर स्वामी ने दिगम्बर रूप को धारण किया। जब वे दिगम्बर हो गये, तब उनका शरीर तपाये हुए स्वर्ण जैसा प्रकाशमान एवं तेजस्वी दीखने लगा मानो वह कान्ति एवं दीप्ति का स्वाभाविक तेजोमय समूह ही हो। इसके बाद परम आल्हादित इन्द्र स्वयं परमेष्ठी प्रभु (महावीर) का गुण-गौरव-गान (स्तुति) करने लगे
हे देव! इस संसार में सर्वश्रेष्ठ परमात्मा आप हो। इस चराचर जगत् के स्वामी आप हो। आप जगद्गुरू हो, गुण-सागर हो, शत्रु-विजेता हो एवं अत्यन्त निर्मल स्वयं हो। हे प्रभो! जब आपके असंख्य एवं अनन्त गुणों का वर्णन स्वयं गणधरादि देव नहीं कर सकते, तब म् िमन्दमति कहाँ तक आपके महान गुण एवं ऐश्वर्यों का वर्णन कर सकूँगा‘ ऐसा सोच कर यद्यपि मेरी बुद्धि जड़ हो जाती है तथापि आपके प्रति हमारी अचल भक्ति ही आपकी स्तुति करने के लिए मुझे निरन्तर प्रोत्साहित कर रही है। हे योगीन्द्र! जिस प्रकार कि मेघ का आवरण हट जाने पर सूर्य-किरणों की स्वाभाविक छटा बिखर पड़ती है, उसी तरह आज आपके बाह्य एवं आभ्यन्तर मलों के एकदम नष्ट हो जाने के कारण, आपके निर्मल गुण समूह प्रकाशमान हो रहे हैं।ं हे स्वामिन्! यद्यपि आपने इन्द्रिय-विषयजन्य चंचल सुखों को क्षणस्थायी जान कर त्याग दिया है तथापि आपकी इच्छा अत्यन्त उत्कृष्ट आत्म-सुख की प्राप्ति के लिए लालायित है। अत: आपको ‘निस्पृह’ (इच्छाहीन) वैâसे कहा जा सकता है‘ यद्यपि आपने स्त्री के शरीर को नितान्त हेय, घृणित एवं अस्पृश्य समझकर उस पर से अपना अनुराग (प्रेम) हटा लिया है तथापि मुक्ति-रूपी स्त्री में तो आपका अनन्य अनुराग बना हुआ है फिर आपको हम ‘वीतराग’ (प्रीति-रहित) भी वैâसे कह सकते हैं‘ जिन्हें लोग ‘रत्न’ कहा करते हैं, यद्यपि उन पत्थरों को आपने त्याग दिया है तथापि सम्यक्दर्शन आदि रत्नत्रय को आपने धारण कर लिया है। फिर आपको त्यागी भी वैâसे कहा जाये‘ यद्यपि आपने क्षणभंगुर राज्य-सत्ता को पाप का आश्रय जान कर छोड़ दिया है तथापि नित्य, अविनाशी एवं अनुपमेय त्रैलोक्य के विशाल साम्राज्य पर एकाधिपत्य तो आप ही स्थापित करने जा रहे हैं। फिर भला आप निस्पृह वैâसे रहे? (यह निन्दा-स्तुति है।) हे जगत् के स्वामी! आपने इस संसार की चंचला लक्ष्मी का परित्याग करके लोकोत्तर सम्पत्ति (मोक्ष-लक्ष्मी) को प्राप्त करने की इच्छा की है, फिर आपको इच्छा-रहित वैâसे समझा जाय‘ हे देव! यद्यपि आपने अपने ब्रह्मचर्यरूपी तीक्ष्ण बाण से अपने शत्रु कामदेव को परास्त कर दिया है तथापि कामदेव की स्त्री रति को आपने विधवा भी बना दिया है। फिर आप कृपालु कहाँ रहे‘ हे नाथ! आपने अपने ध्यान-रूपी अस्त्र से मोह-नृपति के साथ-ही-साथ अन्य सब कर्म-रूपी शत्रुओं का नाश कर डाला है। फिर आपके हृदय में दयालुता कहाँ रही‘ हे प्रभो! यद्यपि आपने अपने गिने-गिनाये अल्पसंख्यक बन्धुओं का परित्याग कर दिया है तथापि अब तो स्वयं अपने गुणों के प्रभाव से सम्पूर्ण जगत् को ही अपना बन्धु बनाने जा रहे हैं, फिर आपको वैâसे कोई बान्धवहीन कह सकता है‘ हे चतुर शिरोमणि! आपने सांसारिक भोगों को सर्प की काँचुली के समान त्याग कर शुक्लध्यानरूपी अमृत को पी लिया है फिर आपका ‘प्रोषधव्रत’ वैâसे पूर्ण होगा।
हे स्वामिन्! आपकी इस दीक्षा को बुद्धिमानों ने आदर की दृष्टि से देखा है एवं इसने संसार के दाह को एकदम शान्त कर दिया है। आप की यह परम पवित्र महादीक्षा पुण्य-धारा के समान सदैव हम भव्य-जीवों की रक्षा करे। हे देव! मन-वचन-काय की विशुद्धतापूर्वक सम्पूर्ण जगत को पवित्र कर देने वाली दीक्षा को आपने ग्रहण किया है। इसी महादीक्षा के ब्ाल पर मोक्ष चाहने वाले आपको प्रणाम है। आप शरीर आदि के सुख से मुख मोड़ चुके हैं, मोक्ष-मार्ग में निरन्तर अग्रसर हो रहे हैं, तप-रूपी लक्ष्मी से प्रीति करनेवाले हैं, अन्तरंग-बहिरंग परिग्रहों को त्यागनेवाले हैं। आपको प्रणाम है।
हे ईश! सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन बहुमूल्य आभूषणों से अलंकृत, किन्तु अन्य पार्थिव आभूषणों से हीन आपको प्रणाम है। आपने सम्पूर्ण वस्त्रों का परित्याग कर दिशा-रूपी शून्य वस्त्रों को धारण किया है, ईश्वरत्व प्राप्ति की साधना में सोत्साह प्रवृत्त हैं, अत: आपको प्रणाम है। हे जिनेश्वर! आप सकल परिग्रहों से हीन एवं गुणरूपी सम्पत्तियों से युक्त हैं, आपको मुक्ति अत्यन्त प्यारी है, इसलिये आपको प्रणाम है। हे नाथ! आप इन्द्रियातीत अक्षय सुख में चित्त को लगानेवाले विरक्त पुरूष हैं, उपवास करके शुक्लध्यानरूपी अमृत के भोक्ता हैं, आपको प्रणाम है। हे देव! आप दीक्षित होकर ज्ञान-रूपी चार नेत्रों के धारक हैं बाल- ब्रह्मचारी हैं, तीर्थेश हैं एवं स्वयंबुद्ध हैं, आपको प्रणाम है। आप कर्मरूपी शत्रुओं की सन्तति के नाशकर्त्ता हैं, गुणसागर हैं एवं उत्तम क्षमा इत्यादि शुभ-लक्षणों से युक्त हैं, आपको प्रणाम है। हे देव! आप इस संसार की सम्पूर्ण आशाओं को पूर्ण करनेवाले हैं, परन्तु हम जो आपकी स्तुति कर रहे हैं, वह संसार की उत्तम सम्पदाओं को पाने के लिए नहीं है, किन्तु जिस शक्ति के प्रभाव से बाल्यावस्था में ही आपने तप-दीक्षा ग्रहण की है, वही अतुलनीय शक्ति हमें भी प्राप्त हो। इस तरह देवों के इन्द्र ने भगवान महावीर की पूजा-स्तुति की एवं फिर करबद्ध प्रणाम करके अपार पुण्य का उपार्जन किया।
इसके बाद महावीर स्वामी ने निश्चेष्ट होकर अपने सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों का अवरोध किया एवं कर्म-रूपी शत्रुओं की नाशक योग-क्रिया का अवलम्बन लिया। उस समय वे चेष्टाशून्य, सुन्दर पत्थर की मूर्ति के समान जान पड़ते थे। उस परमोत्तम ध्यान के प्रभाव से उन्हें चतुर्थ मन:पर्यय ज्ञान प्रादुर्भूत हुआ, जो कि महावीर प्रभु के लिए केवलज्ञान प्राप्त होने का निर्देशन था। उन अनुपमेय महान गुणशाली वीरनाथ की म् िस्तुति करता हूँ एवं उन्हें करबद्ध प्रणाम करता हूँ।
भगवान का प्रथम आहार-इसके बाद महावीर स्वामी यद्यपि छ: मास पर्यंत अनशन तप करने में पूर्ण योग्य थे तथापि अन्य मुनीश्वरों को चर्या-मार्ग की प्रवृत्ति दिखलाने की इच्छा से उन्होंने ‘पारणा’ कर लेने का निश्चय किया। यह पारणा (उपवास के बाद का आहार) शरीर की स्थिति को शक्ति प्रदान करती है। महावीर प्रभु ईर्यापथ की शुद्धि को ध्यान में रखकर विचरने लगे ‘आहार-दान देने वाला निर्धन है या धनवान? इत्यादि विकल्प न करके वे अपने चित्त में तीन प्रकार के वैराग्य का चिन्तवन करते हुए अनेक दानियों को अपनी चर्या से सन्तुष्ट करते हुए स्वयं विशुद्ध आहार की खोज में घूमने लगे। वे न तो मन्दगति से चलते थे एवं न एकदम तीव्रगति से ही। साधारण-सी चाल से पैरों को बढ़ाते हुए उन्होंने ‘कूल’ नाम के एक सुन्दर नगर में प्रवेश किया। उस नगर का राजा ‘कूल१’ अत्यन्त परिश्रम के बाद प्राप्त हुए प्रिय धन-कोष (खजाना) की तरह अनायास ही आये हुए जिनदेव जैसे उत्तम पात्र को देखकर परम प्रसन्न हुआ। राजा ‘कूल’ ने महावीर स्वामी की तीन प्रदक्षिणा दी एवं भूमि पर पाँचों अंगों को पैâला कर प्रणाम किया। बाद में आनन्दोल्लास के कारण ‘तिष्ठ-तिष्ठ’ (ठहरिये-ठहरिये) ऐसा कहा। धर्म-बुद्धि राजा ने प्रभु को एक पवित्र एवं ऊँचे स्थान पर बैठाया एवं उनके कमल जैसे सुन्दर एवं कोमल चरणों को पवित्र जल से धोया। उन प्रभु के पाद-प्रक्षालित जल को राजा ने अपने सम्पूर्ण अंगों में लगाया। इसके बाद राजा ने जलादि आठ प्रकार के प्रासुक द्रव्यों से प्रभु की भक्तिपूर्वक पूजा की। राजा ने अपने मन में विचारा कि आज घर में सुपात्र उत्तम अतिथि के आ जाने से मेरा गार्हस्थ्य-जीवन सफल हुआ। म् िपुण्यकर्मा हूँ। इस पवित्र विवेक से राजा का मन विशेष रूप से पवित्र हो गया। ‘हे देव! हे प्रभो! आज आपके आगमन से म् िधन्य हो गया, आपने मेरे घर को परम पवित्र बना दिया’ ऐसा कहने से राजा का वचन पवित्र हो गया। ‘पात्रदान करने से मेरा हाथ एवं शरीर पवित्र हो गया’ ऐसा सोचने से राजा की काय-शुद्धि हो गयी। उसने कृत आदि दोषों से हीन प्रासुक अन्न से होनेवाले विमल आहार-दान से ‘एषणा’ को शुद्ध किया। इस प्रकार उस राजा ‘कूल’ ने नवधा-भक्तिपूर्वक महान पुण्य का उपार्जन किया।
‘यह परम दुर्लभ उत्तम पात्र मेरे भाग्य से प्राप्त हुआ है; इसलिये मेरा यह आहार-दान सविधि एवं पूर्णरूपेण सम्पूर्ण है’ ऐसा श्रेष्ठ विचार करके वह राजा अत्यन्त श्रद्धावान बन कर अपनी शक्ति के अनुसार पात्र-दान के महान उद्योग में लग गया। उस महादान के प्रभाव से उत्पन्न अजस्त्र रत्नवृष्टि एवं कीर्ति की अभिलाषा उस राजा ने नहीं की थी। वह सेवा-पूजा इत्यादि के द्वारा प्रभु की भक्ति में लग गया एवं धर्म-सिद्धि के निमित्त वह जो अन्य कर्मों को किया करता था, उन सबको तिलांजलि दे दी। उस राजा ने सोचा कि यह प्रासुक आहार है एवं दान देने का यही श्रेष्ठ समय है। यह संयमशील पुरूष उपवासों के उन असह्य क्लेशों को धैर्यपूर्वक सहन कर लेते हैं, इसलिये इन्हें उत्तम विधि से आहार देना ही चाहिये। इस प्रकार राजा ने महान फल को देनेवाले श्रेष्ठ-दाता के उत्तम गुणों को अपने में ग्रहण किया। इसके बाद राजा ने हितकारक उत्तम पात्र को मनसा-वाच्ाा-कर्मणा से पवित्र होकर श्रद्धा-भक्ति के साथ विधिपूर्वक खीर का आहार-दान दिया। वह विशुद्ध आहार प्रासुक एवं स्वादिष्ट था, निर्मल तप को बढ़ानेवाला था एवं क्षुधा-पिपासा को शांत करनेवाला था।
उस राजा के दान से देवता लोग बहुत प्रसन्न हुए एवं पुण्योदय के कारण राज-प्रासाद के आँगन में रत्नों की अविरल वर्षा हुई। उस रत्न-वर्षा के साथ-ही-साथ पुष्प-वृष्टि एवं जल-वृष्टि भी हुई। उसी समय आकाश-मंडल में ‘दुन्दुभि’ इत्यादि वाद्यों की गम्भीर तुमुल ध्वनि हुई। उन वाद्यों के मधुर स्वरों को सुनने से ऐसा जान पड़ता था, मानो वे राजा के पुण्य एवं उत्तम यश का गम्भीर स्वर में गान कर रहे हों। उसी समय देव भी ‘जय-जय’ इत्यादि शुभ शब्दों का उच्चारण करते हुए कहने लगे ‘हे प्राणियों! यह परमोत्तम पात्र (महावीर प्रभु) दाता को इस संसार-रूपी महासमुद्र से अनायास ही पार उतार देनेवाले हैं। वह दाता निश्चय ही अत्यन्त भाग्यशाली एवं धन्य है, जिसके यहाँ जिनराज स्वयं पहुँच जायें। ऐसे उत्तम दान के प्रभाव से दाता को स्वर्ग एवं मोक्ष दोनों ही कालक्रम से प्राप्त होते हैं। इहलोक में तो आपने देखा कि उत्तम पात्र को दान देने से बहुमूल्य अपार रत्न-राशि की प्राप्ति होती है एवं विमल यश का विस्तार होता है; वैसे ही परलोक में भी स्वर्ग-सम्पदायें एवं भोग-विभूतियाँ प्राप्त होती हैं, जिनके द्वारा चिरकाल तक आनन्दोपभोग किया जाता है।’
रत्न-वृष्टि के कारण राज-महल का आँगन भर गया। आँगन में पड़े हुए उन रत्नों के ढेर को देखकर बहुत-से लोग परस्पर कहने लगे कि देखो, दान का फल वैâसा उत्तम होता है‘ नेत्रों से देखते-ही-देखते यह राज-प्रासाद बहुमूल्य रत्नों की वर्षा से भर गया। दूसरे ने कहा यहाँ क्या देखते हो‘ इस अत्यन्त सामान्य फल को ही तुम अपने नेत्रों से देख रहे हो। उत्तम पात्र-दान से तो स्वर्ग एवं मोक्ष के अक्षय सुख भी अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। इन लोगों के कथोपकथन को सुनकर एवं अपने नेत्रों से प्रत्यक्ष पात्र-दान की महिमा को देखकर बहुत-से जीव स्वर्ग एवं मोक्ष की कल्पना करने लगे एवं पात्र-दान की महत्ता में विश्वास रखने लगे।
आहार-दान के समय वीतरागी तीर्थंकर महावीर ने अपने शरीर की स्थिति के विचार से अंजलिरूपी पात्र के द्वारा खीर का आहार ग्रहण किया तथा इस आहार-ग्रहण के उत्तम फल से राजा को अनुगृहीत कर एवं उसके घर को पवित्र कर पुन: वन को चले गये। राजा ने भी अपने जन्म, घर एवं धन को अप्रत्याशित पुण्योदय से प्राप्त हुआ समझा एवं इसे वे अपना अहोभाग्य समझने लगे। इस श्रेष्ठ दान का मन-वचन-काय द्वारा अनुमोदन करने के कारण अर्थात् दाता एवं पात्र की प्रशंसा करके बहुत से लोगों ने दाता के समान ही उत्तम पुण्य का उपार्जन कर लिया।
भगवान पर उपसर्ग-अतुलनीय पराक्रमी महावीर प्रभु ने सम्पूर्ण कठिन परिषहों को तथा वन के अति उग्र उपद्रवों को अपनी विलक्षण शक्ति के प्रभाव से जीत लिया तथा उत्तम ज्ञान-प्राप्ति के लिए अतिचार-रहित तथा भावना-सहित पंच महाव्रतों का पालन किया। पाँच समिति एवं तीन गुप्ति इन आठ का वे नित्यश: पालन करते हुये इनके द्वारा कर्म-धूलि को नष्ट करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। वे महावीर प्रभु सर्वश्रेष्ठ थे, इसलिये निरालस होकर सम्पूर्ण अन्यान्य गुणों के साथ ही सारे मूलगुणों की पालना में सचेष्ट होकर किसी भी दोष को स्वप्न में भी अपने पास नहीं फटकने देते थे।
इस प्रकार के परमोज्वल चारित्रयुक्त महावीर प्रभु सम्पूर्ण पृथ्वी पर विहार करते हुए उज्जयिनी नाम की एक महानगरी के ‘अतिमुक्तक’ नामक श्मशान में जा पहुँचे। उस महाभयानक श्मशान में पहुँचकर महावीर प्रभु ने मोक्ष प्राप्ति के लिए शरीर का ममत्व त्याग कर ‘प्रतिमायोग’ धारण कर लिया तथा पर्वत के समान अचल भाव से अवस्थित हो गये। सुमेरू पर्वत के उन्नत श्रृङ्ग के समान एवं परमात्मा के ध्यान में लीन श्रीजिनेन्द्र महावीर प्रभु को देखकर उनके धैर्य की परीक्षा करने के लिए वहाँ के स्थाणु नामक अन्तिम रूद्र को उपसर्ग करने की इच्छा हुई। इसी समय पूर्वकृत कुछ कर्म का असाता उदय जिनेन्द्र के होनेवाला था। वह स्थाणु रूद्र अनेक भयंकर स्थूलकाय पिशाचों को अपने संग लेकर महावीर स्वामी के ध्यान को भंग करने के लिये प्रस्तुत हुआ। रात्रि के समय में वह अपने बड़े-बड़े रक्तवर्ण नेत्रों को फाड़-फाड़ कर देखते हुए जिनेन्द्र प्रभु के सन्मुख आया। उस समय वह किलकारियाँ भर रहा था, नुकीले भयानक दाँतों को दिखला-दिखला कर अट्टहास कर रहा था, भगवान का ध्यान भंग करने के लिए प्रचण्ड ताल, स्वर एवं लय में गान-वाद्य कर नाच रहा था, साथ ही विशाल मुख-विवर को फाड़े हुए तथा हाथों में तीक्ष्ण आयुधों को धारण किये हुए था। इस प्रकार के महाभयोत्पादक स्वरूप को लेकर वह महावीर स्वामी के सन्मुख आया तथा उनके ध्यान को भंग करने के लिये उन पर बड़ा भारी उपसर्ग किया। परन्तु इन उपद्रवों का महावीर प्रभु पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ा तथा उनका ध्यान यथापूर्व अचल एवं अटूट बना रहा।
जब इतना करने पर भी जिनेन्द्र के ध्यान को वह भंग नहीं कर सका, तब उसने दूसरे उपायों का अवलम्बन लिया। स्थाणुरूद्र ने सर्प, सिंह, गजराज, प्रबल वायु तथा अग्नि इत्यादि के रूप में आकर तथा उत्पीड़क वचनों के द्वारा उग्र उपसर्गों को आरम्भ किया। इन उपसर्गों से निर्बल हृदयों में तो भय का संचार हो सकता था, किन्तु भगवान महावीर के हृदय में डर कहाँ‘ वे तो लगातार अचल ही बने रहे। उनका ध्यान भंग होना तो दूर रहा, उत्तरोत्तर ध्यान की गम्भीरता बढ़ती ही गयी। जब स्थाणुरूद्र को इतने पर भी सफलता नहीं मिली, तब वह अन्य प्रकार के घोर उपसर्गों को करने लगा। भीलों का रूप धारण कर भयानक शस्त्रास्त्रों को दिखला कर प्रभु के हृदय में उसने भय उत्पन्न करना चाहा, परन्तु इन अनेक उग्र उपद्रवों के होते रहने पर भी जगत् स्वामी जिनेन्द्र (महावीर प्रभु) रंचमात्र भी चलायमान नहीं हुए एवं पर्वत के समान एकदम अचल बने रहे, किंचित्मात्र भी खिन्नता का आभास उनकी मुखाकृति से नहीं मिला। आचार्य देव ने कहा है कि सम्भव है कि अचल पर्वत भी चलायमान हो जाय, परन्तु श्रेष्ठ योगियों का चित्त हजारों उग्र उपद्रव के द्वारा भी कदापि चलायमान नहीं हो सकता। इस संसार में वे ही लोग धन्य हैं, जो कि ध्यानमग्न हो जाने पर अनेक उग्र उपद्रवों के होते रहने पर भी विकारयुक्त होकर ध्यान भंग कदापि नहीं होने देते।
इसके बाद जब जिनेन्द्र (महावीर प्रभु) के ध्यान को भंग करने में स्थाणुरूद्र को कुछ भी सफलता प्राप्त करने की आशा नहीं रही, तब हताश एवं लज्जित हो कर वह वहीं उनकी स्तुति करने लगादृ ‘हे देव! इस संसार में आप ही बली हो, आप ही जगद्गुरू हो एवं वीर-शिरोमणि हो, इसलिये आपका नाम ‘महावीर’ है। आप महा ध्यानी हो, सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हो, सकल परीषहों के विजेता हो, वायु के समान नि:संग वीर हो एवं कुलाचल की तरह अचल हो। आप क्षमा में पृथ्वी के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान एवं प्रसन्नचित्त होने के कारण निर्मल जल के समान हो। कर्मरूपी जंगल को नष्ट करने के लिए आप अग्नि-अंगार के समान हो। हे प्रभो! आप त्रिलोक में वर्द्धिष्णु हो एवं श्रेष्ठ बुद्धिशाली होने के कारण ‘सन्मति’ हो। आप ही महाबली तथा परमात्मा हो। हे नाथ! आप निश्चलरूप के धारण करनेवाले हैं एवं प्रतिमा-योग के धारण करनेवाले हैं। आप परमात्मा-स्वरूप हैं, आपको सदैव नमस्कार है।’ इस प्रकार स्थाणुरूद्र ने महावीर प्रभु की स्तुति करके प्रणाम किया तथा भगवान के प्रति ईर्ष्या त्याग कर अपनी प्रिय पत्नी के साथ आनन्दित होकर अपने स्थान को चला गया। जब महापुरूषों के योगजन्य साहस तथा शक्ति को देखकर दुर्जन भी परम आनन्दित हो जाते हैं, तब सत्पुरूषों का तो कहना ही क्या‘ सज्जनों का तो दूसरों के गुणों पर मुग्ध हो जाने का स्वभाव ही होता है।
भगवान महावीर के पाँच नाम-उत्तरपुराण ग्रन्थ के आधार से भगवान महावीर के पांचों नामों का वर्णन यहां बताया जा रहा है-
विदेहदेश के कुण्डपुर-कुंडलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला ने आषाढ़ शुक्ला षष्ठी तिथि को गर्भ में तीर्थंकर शिशु को धारण किया पुन: नवमाह बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को तीर्थंकर पुत्र को जन्म दिया। त्रिशला माता का दूसरा नाम प्रियकारिणी था। रानी प्रियकारिणी ने उन जिनबालक को जन्म देकर मनुष्यों, तिर्यंचों और देवों पर बहुत भारी प्रेम उत्पन्न किया था इसीलिए उनका ‘प्रियकारिणी” यह नाम सार्थक हुआ था।
वीर और वर्धमान नाम-तभी सौधर्मेन्द्र ने जिनबालक को सुमेरूपर्वत पर ले जाकर प्रभु का १००८ कलशों से जन्माभिषेक महोत्सव किया पुन: वस्त्राभरणों से अलंकृत कर ‘वीर” और ‘वर्धमान” ऐसे दो नाम रखे थे। कहा भी है-
अलं तदिति तं भक्त्या, विभूष्योद्घविभूषणै:।
वीर: श्रीवर्धमानश्चेत्यस्याख्याद्वितयं व्यधात्।। २७६।।
सन्मति नाम-किसी समय ‘संजय” और ‘विजय” नाम के दो चारणऋद्धिधारी मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न हुआ तभी वे जन्म के बाद जिनबालक के समीप आए और उनके दर्शनमात्र से उनका संदेह दूर हो गया तभी उन्होंने बड़ी भक्ति से जिनशिशु का ‘सन्मति” यह नामकरण करके अतीव प्रसन्नता व्यक्त की थी। कहा भी है-
संजयस्यार्थसंदेहे संजाते विजयस्य च।
जन्मानन्तरमेवैन-मभ्येत्यालोकमात्रत:।।२८२।।
तत्संदेहे गते ताभ्यां चारणाभ्यां स्वभक्तित:।
अस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाह्रत: ।। २८३।।
महावीर नाम-जिनबालक देव बालकों के साथ क्रीड़ा किया करते थे। एक समय की घटना है कि स्वर्ग में सुधर्मा सभा में प्रभु के गुणों की चर्चा हो रही थी साथ ही उनकी शूरवीरता की भी प्रशंसा हो रही थी तभी संगम नाम के एक देव ने उनकी परीक्षा करनी चाही। एक समय बालक वर्धमान अनेक राजकुमारों के साथ बगीचे में वृक्ष पर चढ़े हुए क्रीड़ा में तत्पर थे। यह देख संगमदेव ने उन्हें भयभीत करने की इच्छा से बहुत बड़े सांप का रूप धारणकर उस वृक्ष की जड़ से लेकर स्कंध तक लिपट गया। सब बालक उस सांप को देखकर भय से कांप उठे और शीघ्र ही डालियों से कूद – कूदकर इधर – उधर भाग गए। इस महाभय के उपस्थित होने पर भी तीर्थंकर के अवतार ‘वीर” ‘वर्धमान” किंचित् भी भयभीत नहीं हुए प्रत्युत् लहलहाती हुई सौ जिह्वाओं से अत्यन्त भयंकर ऐसे सर्प के फणा पर पैर रखकर खड़े हो गए और उसके साथ क्रीड़ा करते हुए नीचे उतर आए। वर्धमान कुमार की इस क्रीड़ा से प्रसन्न हो संगमदेव ने अपनी विक्रिया समेटकर भगवान की स्तुति की और प्रभु का ‘महावीर” यह नाम घोषित कर दिया।इस सन्दर्भ में उत्तरपुराण की पंक्ति देखिए-
ललज्जिह्वाशतात्युग्रमारूह्य तमहिं विभी:।
कुमार: क्रीडयामास मातृपर्यंकवत्तदा।।२९४।।
विजृंभमाणहर्षाम्भोनिधि: संगम्ाकोऽरम:।
स्तुत्वा भवान्महावीर इति नाम चकार स:।।२९५।।
महतिमहावीर नाम-भगवान महावीर जब तीस वर्ष की अवस्था में थे तब एक समय उन्हें पूर्वभव का ‘जातिस्मरण” हो गया। तत्क्षण ही उन्हें वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने षण्डवन या ज्ञातृवन में ‘सालवृक्ष” के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
उज्जयिन्यामथान्येद्युस्तं श्मशानेऽतिमुक्तके।
वर्धमानं महासत्त्वं प्रतिमायोग-धारिणम्।।३३१।।
निरीक्ष्य स्थाणुरेतस्य दौष्ट्याद्धैर्यं परीक्षितुम्।
उत्कृत्य कृत्तिकास्तीक्ष्णा: प्रविष्टजठराण्यलम्।।३३२।।
व्यात्ताननाभिभीष्माणि नृत्यन्ति विविधैर्लयै:।
तर्जयन्ति स्फुरद्ध्वानै: साट्टहासैर्दुरीक्षणै:।।३३३।।
स्थूलवेतालरूपाणि निशि कृत्वा समन्तत:।
पराण्यपि फणीन्द्रेभसिंहवन्ह्यानिलै: समम्।। ३३४।।
किरातसैन्यरूपाणि पापैकार्जनपंडित:।
विद्याप्रभावसंभावितोपसर्गैर्भयावहै:।।३३५।।
स्वयं स्खलयितुं चेत: समाधेरसमर्थक:।
समहतिमहावीराख्यां कृत्वा विविधा: स्तुती:।। ३३६।।
उमया सममाख्याय नर्तित्वागादमत्सर:।
पापिनोऽपि प्रतुष्यन्ति प्रस्पष्टं दृष्टसाहसा:।।३३७।।
कई वर्षों तक तपश्चरण करते हुए एक बार प्रभु उज्जयिनी नगरी के अतिमुक्तक नाम के श्मशान में प्रतिमायोग से विराजमान थे। उन्हें देखकर रूद्र ने उनके धैर्य की परीक्षा के लिए रात्रि में बड़े – बड़े वेतालों का रूप लेकर उपसर्ग करना शुरू कर दिया। ये वेताल भयंकर शब्दों को करते हुए अट्टहास और विकराल दृष्टि से डरा रहे थे। इनके सिवाय उसने सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु के साथ भीलों की सेना बनाकर उपसर्ग किया। उस रूद्र द्वारा विद्या के बल से नाना प्रकार के भयंकर उपसर्गों से भी भगवान महावीर ध्यान से चलायमान नहीं हुए। तब उसने अपनी विद्या समेटकर भगवान की खूब स्तुति करते हुए उनका ‘महतिमहावीर” नाम रखा पुन: अपनी पत्नी के साथ-साथ प्रसन्नतापूर्वक नृत्य करते हुए प्रभु की भक्ति करके अपने स्थान पर चला गया।
कहीं-कहीं यह पांचवां नाम ‘अतिवीर” नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है।इस प्रकार भगवान महावीर के ‘वीर” और ‘वर्धमान” ये दो नाम इन्द्र द्वारा रखे गए हैं। ‘सन्मति” नाम ‘संजय-विजय” नाम के चारणऋद्धिधारी मुनियों द्वारा रखा गया है। ‘संगमदेव” ने ‘महावीर” नाम रखा है एवं ‘रूद्र” ने ‘महतिमहावीर” नाम रखा है।प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की तीर्थंकर परम्परा में पांच नामों से विभूषित अंतिम एवं चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हम और आप सबका कल्याण करें।चन्दना के बन्धन टूट गये-एक बार महामुनि भगवान महावीर कौशाम्बी में आहार के लिए आये। वहां के सेठ वृषभदत्त की पत्नी-भद्रा, सेठ के प्रति संदिग्ध दृष्टि होने से चन्दना को खाने के लिए मिट्टी के सकोरे में कांजी से मिश्रित कोदों का भात दिया करती थी और क्रोधवश उसे सांकल से बांधे रखती थी। किसी दिन उस कौशाम्बी नगरी में आहार के लिए भगवान् महावीर स्वामी आ गये। उन्हें देखकर चन्दना उनके सामने जाने लगी। उसी समय उसके सांकल के सब बन्धन टूट गये, उसके शिर पर केश आ गये, वस्त्र-आभूषण सुन्दर हो गये। शील के माहात्म्य से मिट्टी का सकोरा स्वर्ण पात्र और कोदों का भात चावल की खीर बन गया। उस चन्दना ने भगवान को पड़गाह कर नवधा भक्ति से आहारदान दिया। उसके वहाँ पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई अनंतर अपने बंधुओं के साथ उसका समागम हो गया।
महासती चंदना का संक्षिप्त परिचय-सिन्धु नामक देश की वैशाली नगरी में चेटक नामका अतिशय प्रसिद्ध, विनीत और जिनेन्द्र देव का अतिशय भक्त राजा था। उसकी रानी का नाम सुभद्रा था। उनके दश पुत्र हुए जो कि धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, शिवदत्त, हरिदत्त, कम्बोज, कम्पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास नाम से प्रसिद्ध थे तथा उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के समान जान पड़ते थे। इन पुत्रों के सिवाए सात ऋद्धियों के समान सात पुत्रियां भी थीं। जिनमें सबसे बड़ी प्रियकारिणी थी, उससे छोटी मृगावती, उससे छोटी सुप्रभा, उससे छोटी प्रभावती, उससे छोटी चेलिनी, उससे छोटी ज्येष्ठा और सबसे छोटी चन्दना थी।विदेह देश के कुण्डपुर नगर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी उन्हीं की रानी हुई थीं। वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में चन्द्रवंशी राजा शतानीक रहते थे। मृगावती नाम की दूसरी पुत्री उनकी स्त्री हुई थी। दशार्ण देश के हेमकच्छ नामक नगर के स्वामी राजा दशरथ थे जो कि सूर्यवंशरूपी आकाश के चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे। सूर्य की निर्मलप्रभा के समान सुप्रभा नाम की तीसरी पुत्री उनकी रानी हुई थी, कच्छ देश की रोरूका नामक नगरी में उदयन नाम का एक बड़ा राजा था। प्रभावती नामकी चौथी पुत्री उसी की हृदयवल्लभा हुई थी। अच्छी तरह शीलव्रत धारण करने से इसका दूसरा नाम शीलवती भी प्रसिद्ध हो गया था। पांचवी पुत्री चेलना राजगृही के राजा श्रेणिक की पट्टरानी हुई थीं तथा ज्येष्ठा और चंदना बालब्रह्मचारिणी थीं।
किसी एक समय वह चन्दना अपने परिवार के लोगों के साथ अशोक नामक वन में क्रीड़ा कर रही थी। उसी समय दैवयोग से विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के सुवर्णाभ नगर का राजा मनोवेग विद्याधर अपनी मनोवेगा रानी के साथ स्वच्छन्द क्रीड़ा करता हुआ वहाँ से निकला और क्रीड़ा करती हुई चन्दना को देखकर काम के द्वारा छोड़े हुए बाणों से जर्जर शरीर हो गया। वह शीघ्र ही अपनी स्त्री को घर भेजकर रूपिणी विद्या से अपना दूसरा रूप बनाकर उसे सिंहासन पर बैठा आया और अशोक वन में आकर तथा चन्दना को लेकर शीघ्र ही वापिस चला गया। उधर मनोवेगा उसकी माया को जान गई जिससे क्रोध के कारण उसके नेत्र लाल होकर भयंकर दिखने लगे। उसने उस विद्या देवता को बाएं पैर की ठोकर देकर मार दिया जिससे वह अट्टहास करती हुई सिंहासन से उसी समय चली गई। तदनन्तर वह मनोवेगा रानी आलोकिनी नाम की विद्या से अपने पति की सब चेष्टा जानकर उसके पीछे दौड़ी और आधे मार्ग में चन्दना सहित लौटते हुए पति को देखकर बोली कि यदि आप अपना जीवन चाहते हो तो इसे छोड़ दो। इस प्रकार क्रोध से उसने उसे बहुत ही डाँटा। मनोवेग अपनी रानी से बहुत ही डर गया। इसलिए उसने हृदय में बहुत ही शोककर सिद्ध की हुई पर्णलघ्वी नामकी विद्या से उस चन्दना को भूतरमण नामक वन में ऐरावती नदी के दाहिने किनारे पर छोड़ दिया।
प०चनमस्कार मंत्र का जप करने में तत्पर रहने वाली चन्दना ने वह रात्रि बड़े कष्ट से बिताई। प्रात:काल जब सूर्य का उदय हुआ तब भाग्यवश एक कालक नामका भील वहां स्वयं आ पहुँचा। चन्दना ने उसे अपने बहुमूल्य देदीप्यमान आभूषण दिये और धर्म का उपदेश भी दिया जिससे वह भील बहुत ही संतुष्ट हुआ। वहीं कहीं भीमकूट नामक पर्वत के पास रहने वाला एक सिंह नाम का भीलों का राजा था, जो कि भयंकर नामक पल्ली का स्वामी था। उस कालक नामक भील ने वह चन्दना उसी सिंह राजा को सपि दी। सिंह पापी था अत: चन्दना को देखकर उसका हृदय काम से मोहित हो गया। वह क्रूर ग्रह के समान निग्रह कर उसे अपने आधीन करने के लिए उद्यत हुआ। यह देख उसकी माता ने उसे समझाया कि हे पुत्र! तू ऐसा मत कर, यह प्रत्यच्छ देवता है, यदि कुपित हो गई तो कितने ही संताप, शाप और दु:ख देने वाली होगी। इस प्रकार माता के कहने से डरकर उसने स्वयं दुष्ट होने पर भी वह चन्दना छोड़ दी। तदनन्तर चन्दना ने उस भील की माता के साथ निश्चिन्त होकर कुछ काल वहीं पर व्यतीत किया।अथानन्तर-वत्स देश के कौशाम्बी नामक श्रेष्ठ नगर में एक वृषभसेन नाम का सेठ रहता था। उसका मित्रवीर नामका एक कर्मचारी था जो कि उस भीलराज का मित्र था। भीलों के राजा ने वह चन्दना उस मित्रवीर को दे दी और मित्रवीर ने भी बहुत भारी धन के साथ भक्तिपूर्वक वह चन्दना अपने सेठ के लिए सपि दी। किसी एक दिन वह चन्दना उस सेठ को जल पिला रही थी उस समय उसके केशों का कलाप छूट गया था और जल से भीगा हुआ पृथिवी पर लटक रहा था। उसे वह बड़े यत्न से एक हाथ से संभाल रही थी। सेठ की स्त्री भद्रा नामक सेठानी ने जब चन्दना का रूप देखा तो वह शंका से भर गई। उसने मन में समझा कि हमारे पति का इसके साथ संपर्क है। ऐसा विचार कर वह बहुत ही कुपित हुई। क्रोध के कारण उसके ओंठ काँपने लगे। उस दुष्टा ने चन्दना को साँकल से बाँध दिया तथा खराब भोजन और ताड़न-मारण आदि के द्वारा वह उसे निरन्तर कष्ट पहुंचाने लगी परन्तु चन्दना यही विचार करती थी कि यह सब मेरे द्वारा किए हुए अशुभ-कर्म का फल है। यह बेचारी सेठानी क्या कर सकती है‘ ऐसा विचारकर वह निरन्तर आत्मनिन्दा करती रहती थी। उसने यह सब समाचार अपनी बड़ी बहिन मृगावती के लिए भी कहलाकर नहीं भेजे थे।
तदनन्तर किसी दूसरे दिन भगवान् महावीर स्वामी ने आहार के लिए उसी नगरी में प्रवेश किया। उन्हें देख चन्दना बड़ी भक्ति से आगे बढ़ी। आगे बढ़ते ही उसकी साँकल टूट गयी और आभरणों से उसका सब शरीर सुन्दर दिखने लगा। उन्हीं के भार से मानो उसने झुककर शिर से पृथिवी तल का स्पर्श किया, उन्हें नमस्कार किया और विधिपूर्वक पड़गाहन कर उन्हें आहार दिया। इस आहार दान के प्रभाव से वह मानिनी बहुत ही संतुष्ट हुई, देवों ने उसका सम्मान किया, रत्नधारा की वृष्टि की, सुगन्धित फूल बरसाए, देव-दुन्दुभियों का शब्द हुआ और दान की महिमा की घोषणा होने लगी सो ठीक ही है क्योंकि उत्कृष्ट पुण्य अपने बड़े भारी फल के साथ तत्काल ही फलते हैं।
तदनन्तर चन्दना की बड़ी बहिन मृगावती यह समाचार जानकर उसी समय अपने पुत्र उदयन के साथ उसके समीप आई और स्नेह से उसका आलिंगन कर पिछला समाचार पूछने लगी। तब वह पिछला समाचार सुनकर बहुत ही व्याकुल हुई। तदनन्तर रानी मृगावती उसे अपने घर ले जाकर सुखी हुई। यह देख भद्रा सेठानी और वृषभसेन सेठ दोनों ही भय से घबड़ाये और मृगावती के चरणों की शरण में आये। दयालु रानी ने उन दोनों से चन्दना के चरण-कमलों में प्रणाम कराया। चन्दना के क्षमा कर देने पर वे दोनों बहुत ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि यह मानो मूर्तिमती क्षमा ही है। इस समाचार के सुनने से उत्पन्न हुए स्नेह के कारण वैशाली से चंदना के भाई- बंधु भी उसके पास आ गये।कालांतर में चंदना ने भगवान महावीर के समवसरण में आर्यिका दीक्षा लेकर सभी आर्यिकाओं में गणिनीपद को प्राप्त किया है।
जगद्बंधु वर्द्धमान भगवान ने निर्ग्रंथ मुद्रा में नगर, वन आदि में विहार करते हुये छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष व्यतीत कर दिये। श्री पूज्यपाद स्वामी कहते हैं-
ग्रामपुरखेटकर्वट-मटम्बघोषाकरान् प्रविजहार।
उग्रैस्तपोविधानैर्द्वादशवर्षाण्यमरपूज्य: ।।
देवों द्वारा पूज्य भगवान महावीर ने उग्र-उग्र तपश्चरण करते हुये ग्राम, पुर, खेट कर्वट, मटम्ब, पत्तन, घोष, आकर आदि स्थलों में विहार करते हुये दीक्षित जीवन में बारह वर्ष व्यतीत कर दिये।
किसी एक दिन वे भगवान जृंभिक ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नाम के वन के मध्य सालवृक्ष के नीचे रत्नमयी एक बड़ी शिला पर दो दिन के उपवास का नियम लेकर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। शुक्लध्यान में आरूढ़ भगवान वैशाख शुक्ला दशमी के दिन अपराण्ह काल में हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के बीच में चन्द्रमा के रहते हुये परिणामों की विशुद्धि को बढ़ाते हुये क्षपकश्रेणी में स्थित हो गये।उसी समय द्वितीय शुक्लध्यान के द्वारा घातिया कर्मों को नष्ट कर भगवान ने दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। उसी समय भगवान के जन्म समय के समान ही चारों प्रकार के देवों के यहां बिना बजाये बाजे बजने लगे। सौधर्मेंद्र ने भगवान के केवलज्ञान की प्रगटता को जानकर तत्क्षण ही कुबेर को समवसरण रचना बनाने की आज्ञा दी एवं स्वयं चारों निकाय के देवों के साथ अर्धनिमिष मात्र में वहाँ आ गया।भगवान महावीर का समवसरण-केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही तीर्थंकर का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष१ (२०००० हाथ प्रमाण) ऊपर चला जाता है। उस समय तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्म आदि इन्द्रों के आसन कंपायमान हो जाते हैं। भवनवासी देवों के यहाँ अपने आप शंख का नाद होने लगता है। व्यंतर देवों के यहाँ भेरी बजने लगती है, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगता है और कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टा बजने लगता है। इंद्रों के मुकुट के अग्रभाग स्वयमेव झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पों की वर्षा होने लगती है। इन सभी कारणों से इन्द्र और देवगण तीर्थंकर के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर भक्तियुक्त होते हुये सात पैर आगे बढ़कर भगवान् को प्रणाम करते हैं। जो अहमिन्द्रदेव हैं, वे भी आसनों के कंपित होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर सात पैर आगे बढ़कर वहीं से परोक्ष में जिनेंद्रदेव की वंदना कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं। सोलह स्वर्ग तक के देव-देवियाँ तो भगवान् की वंदना के लिये चले आते हैं।
उसी क्षण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा तीर्थंकर के समवसरण (धर्मसभा) को विचित्र रूप से रचता है। उस समवसरण के अनुपम संपूर्ण स्वरूप का वर्णन करने के लिये साक्षात् सरस्वती भी समर्थ नहीं हंै। यहाँ पर लेशमात्र वर्णन किया जाता है२। इस समवसरण के वर्णन में यहाँ ३१ विषय बताये जा रहे हैं-
सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, चैत्यप्रासाद भूमि, नृत्यशाला, मानस्तम्भ, वेदी, खातिका, वेदी, लताभूमि, साल, उपवनभूमि, नृत्यशाला, वेदी, ध्वजाभूमि, साल, कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल, श्रीमण्डप, ऋषि आदि गणों का विन्यास, वेदी, प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ और गंधकुटी।
१. सामान्य भूमि-समवसरण की संपूर्ण सामान्य भूमि सूर्यमण्डल के सदृश गोल, इन्द्रनीलमणिमयी होती है। यह सामान्यतया बारह योजन प्रमाण होती है। विदेह क्षेत्र के संपूर्ण तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का यही प्रमाण है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का उत्कृष्ट प्रमाण यही है, जघन्य प्रमाण एक योजन मात्र है, मध्यम के अनेक भेद हैं। जैसे कि भगवान ऋषभदेव का समवसरण बारह योजन का था शेष तीर्थंकरों का घटते-घटते अंतिम भगवान महावीर का एक योजन मात्र था।
२. सोपान-समवसरण में चढ़ने के लिए भूमि से १ हाथ ऊपर से आकाश में चारों ही दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर-ऊपर २०,००० सीढ़ियाँ होती हैं। ये सीढ़ियाँ १ हाथ ऊँची और इतनी ही विस्तार वाली रहती हैंं ये सब स्वर्ण से निर्मित होती हैं। देव-मनुष्य और तिर्यंच गण अंतर्मुहूर्त मात्र में ही इन सभी सीढ़ियों को पार कर समवसरण में पहुँच जाते हैं।
३. विन्यास-समवसरण में चार कोट, पाँच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं। इस क्रम से समवसरण में सारी रचनायें रहती हैं। इन सबका वर्णन क्रम से आ जावेगा।
४. वीथी-प्रत्येक समवसरण में प्रारम्भ से लेकर प्रथम पीठ (कटनी) पर्यंत, सीढ़ियों की लम्बाई के बराबर विस्तार वाली चार वीथियाँ होती हैंं। यहाँ ‘वीथी’ से जाने का मार्ग (सड़क) समझना चाहिये। इन वीथियों के पार्श्व भाग में स्फटिकपाषाण से बनी हुई वेदियाँ होती हैं। ये बाउंड्रीवाल के समान हैं। जो आठ भूमियाँ कही जायेंगी उन आठों भूमियों के मूल में वङ्कामय कपाटों से सुशोभित बहुत से तोरणद्वार होते हैं। जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यंचों का संचार बना रहता है।
५. धूलिसाल-सबके बाहर विशाल एवं समान गोल, मानुषोत्तर पर्वत के आकार वाला धूलिसाल नाम का कोट होता है यह पंचवर्णी रत्नों से निर्मित होता है, इसलिये इसका धूलिसाल नाम सार्थक है। इस कोट में मार्ग, अट्टालिकायें और पताकायें रहती हंै। चार गोपुर द्वार (मुख्य फाटक) होते हैंं यह तीनों लोकों को विस्मित करने वाला बहुत ही सुन्दर दिखता है। इस कोट के चारों गोपुर द्वारों में से पूर्वद्वार का नाम ‘विजय’ है, दक्ष्िाणद्वार का ‘वैजयंत’ है, पश्चिमद्वार को ‘जयंत’ और उत्तरद्वार को ‘अपराजित’ कहते हैं। ये चारों द्वार सुवर्ण से बने रहते हैं, तीन भूमियों (खनों) से सहित, देव और मनुष्य के जोड़ों से संयुक्त और तोरणों पर लटकती हुई मणिमालाओं से शोभायमान होते हैं। प्रत्येक द्वार के बाहर और मध्य भाग में, द्वार के पार्श्व भागों में मंगलद्रव्य, निधि और धूपघट से युक्त विस्तीर्ण पुतलियाँ होती हैं। झारी, कलश, दर्पण, चामर, ध्वजा, पंखा, छत्र और सुप्रतिष्ठ (ठोना) ये ८ मंगलद्रव्य हैं। ये प्रत्येक १०८-१०८ होते हैं। काल, महाकाल, पाण्डु, माणवक, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न, ये नव निधियाँ प्रत्येक १०८ होती हैं। ये निधियाँ क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य-माला आदि, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, महल, आभरण और सम्पूर्ण रत्नों को देती हैं। वहाँ एक-एक पुतली के ऊपर गोशीर्ष, मलयचन्दन और कालागरू आदि धूपों के गंध से व्याप्त एक-एक धूप घट होते हैं।
इन विजय आदि द्वार के प्रत्येक बाह्य भाग में सैकड़ों मकरतोरण और अभ्यंतर भाग में सैकड़ों रत्नमय तोरण होते हैं। इन द्वारों के बीच दोनों पार्श्व भागों में एक-एक नाट्यशाला होती है जिसमें देवांगनायें नृत्य करती रहती हैं। इस धूलिसाल के चारों गोपुर द्वारों पर ज्योतिष्कदेव द्वार रक्षक होते हैं जो कि हाथ में रत्नदण्ड को लिये रहते हैं। इन चारों दरवाजों के बाहर और अन्दर भाग में सीढ़ियाँ बनी रहती हैं जिनसे सुखपूर्वक संचार किया जाता है। प्रत्येक समवसरण के धूलिसाल कोट की ऊँचाई अपने तीर्थंकर के शरीर से चौगुनी होती है। इस कोट की ऊँचाई से तोरणों की ऊँचाई अधिक रहती है और इससे भी अधिक विजय आदि द्वारों की ऊँचाई रहती है।
६. चैत्यप्रासाद भूमि-धूलिसाल के अभ्यंतर भाग में ‘चैत्यप्रासाद’ नामक भूमि सकलक्षेत्र को घेरे हुये बनी रहती है। इसमें एक-एक जिन भवन के अन्तराल से ५-५ प्रासाद बने रहते हैं जो विविध प्रकार के वनखण्ड और बावड़ी आदि से रमणीय होते हैं। इन जिन भवन और प्रासादों की ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी रहती है।७. नृत्यशाला-प्रथम पृथ्वी में पृथक्-पृथक् वीथियों के दोनों पार्श्व भागों में उत्तम सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित दो-दो नाट्यशालायें होती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में ३२ रंगभूमियाँ और प्रत्येक रंगभूमि में ३२ भवनवासी देवियाँ नृत्य करती हुई नाना अर्थ से युक्त दिव्य गीतों द्वारा तीर्थंकरों के विजय के गीत गाती हैं और पुष्पा०जलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधित धूप से दिग्मंडल को सुवासित करने वाले दो-दो धूपघट रहते हैं।
८. मानस्तम्भ-प्रथम पृथ्वी के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के बीचों-बीच समान गोल मानस्तम्भ भूमियाँ होती हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुर द्वारों से सुन्दर, कोट होते हैं। इनके भी मध्य भाग में विविध प्रकार के दिव्य वृक्षों से युक्त वनखण्ड होते हैं। इनके मध्य में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सोम, यम, वरूण और कुबेर इन लोकपालों के रमणीय क्रीड़ानगर होते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुरद्वार से युक्त कोट और इसके आगे वनवापिकायें होती हैं जिनमें नीलकमल खिले रहते हैं। उनके बीच में लोकपालों के अपनी-अपनी दिशा तथा चार विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़ानगर होते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में उत्तम विशाल द्वारों से युक्त कोट होते हैं और फिर इनके बीच में पीठ होते हैं। इनमें से पहला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके ऊपर दूसरा पीठ सुवर्णमय और उसके ऊपर तीसरा पीठ बहुत वर्ण के रत्नों से निर्मित होता है। ये तीन पीठ तीन कटनी रूप होते हैं। इन पीठों के ऊपर मानस्तम्भ होते हैं। इन मानस्तम्भों की ऊँचाई अपने-अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणी होती है। प्रत्येक मानस्तम्भ का मूलभाग वङ्का से युक्त और मध्यम भाग स्फटिकमणि से निर्मित होता है। इन मानस्तम्भों के उपरिमभाग वैडूर्यमणिमय रहते हैं। ये मानस्तम्भ गोलाकार होते हैं। इनमें चमर, घंटा, किंकणी, रत्नहार और ध्वजायें सुशोभित रहती हैं। इनके शिखर पर प्रत्येक दिशा में आठ प्रातिहार्यों से युक्त रमणीय एक-एक जिनेन्द्र प्रतिमायें होती हैं। दूर से ही मानस्तम्भों के देखने से मान से युक्त मिथ्यादृष्टि लोग अभिमान से रहित हो जाते हैं, इसीलिये इनका ‘मानस्तम्भ’ यह नाम सार्थक है।
सभी समवसरण में तीनों कोटों के बाहर चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में क्रम से पूर्वादि वीथी (गली) के आश्रित वापिकायें होती हैं। पूर्व दिशा के मानस्तम्भ के पूर्वादि भागों में क्रम से नंदोत्तरा, नंदा, नंदवती और नंदिघोषा नामक चार वापिकायें होती हैं। दक्षिण मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादि भागों में विजया, वैजयंता, जयन्ता और अपराजिता नामक चार वापिकायें होती हैं। पश्चिम मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादि भागों में क्रम से अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीका ये चार वापिकायें होती हैं। उत्तर मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादि भागों में क्रम से हृदयानन्दा, महानन्दा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा ये चार वापिकायें होती हैं। ये वापिकायें समचतुष्कोण, कमलादि से संयुक्त, टंकोत्कीर्ण, वेदिका, चार तोरण एवं रत्नमालाओं से रमणीय होती हैं। सब वापिकाओं के चारों तटों में से प्रत्येक तट पर जलक्रीड़ा के योग्य दिव्य द्रव्यों से परिपूर्ण मणिमयी सीढ़ियाँ होती हैं। इन वापिकाओं में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और व्ाâल्पवासी देव तथा मनुष्य क्रीड़ा किया करते हैं। प्रत्येक वापिकाओं के आश्रित, निर्मल जल से परिपूर्ण दो-दो कुण्ड होते हैं, जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यंच अपने पैरों की धूलि धोया करते हैं।
९. प्रथम वेदी-इस समवसरण में उत्तम रत्नमय ध्वजा, तोरण और घंटाओं से युक्त प्रथम वेदिका होती है। इसमें गोपुर द्वार, पुत्तलिका, १०८ मंगलद्रव्य एवं नव निधियाँ पूर्व के समान ही होती हैं। इन वेदियों के मूल और उपरिम भाग का विस्तार धूलिशाल कोट के मूलविस्तार के समान होता है।
१०. खातिका-इसके आगे स्वच्छ जल से परिपूर्ण और अपने जिनेन्द्रदेव की ऊँचाई के चतुर्थभाग प्रमाण खातिका (खाई) होती है। इस खातिका में खिले हुये कुमुद, कुवलय और कमल अपनी सुगन्धि पैâलाते रहते हैं, इनमें मणिमय सीढ़ियाँ बनी रहती हैं एवं हंस, सारस आदि पक्षी सदा क्रीड़ा किया करते हैं।
११. द्वितीय वेदी-यह वेदिका भी अपनी पूर्व वेदी के सदृश है। इसका विस्तार प्रथम वेदिका से दूना माना गया है।
१२. लताभूमि-इसके आगे पुन्नाग, नाग, कुब्जक, शतपत्र और अतिमुक्त आदि से संयुक्त, क्रीड़ा पर्वतों से सुशोभित, फूले हुये कमलों से सहित जल भरी बावड़ियों से मनोहर ऐसी लताभूमि शोभायमान होती है।
१३. साल-इसके आगे दूसरा कोट है इसे ही साल कहते हैं। इसका सारा वर्णन धूलिसाल कोट के समान है। अन्तर इतना ही है कि यह विस्तार में उससे दूना रहता है, रजतमयी है एवं यक्ष जाति के देव इसके चारों द्वारों पर खड़े रहते हैं।
१४. उपवन भूमि-द्वितीय कोट के आगे चौथी उपवन भूमि होती है। इसमें पूर्वादि दिशाओं के क्रम से अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन, ये चार वन शोभायमान होते हैं। यह भूमि विविध प्रकार के वन समूहों से मण्डित, विविध नदियों के पुलिन और क्रीड़ा पर्वतों से तथा अनेक प्रकार की उत्तम वापिकाओं से रमणीय होती है। इस भूमि में अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र ये चार सुन्दर वृक्ष होते हैं इन्हें चैत्यवृक्ष कहते हैं। इनकी ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणी रहती है। एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित आठ प्रातिहार्यों से संयुक्त चार-चार मणिमय जिनप्रतिमायें होती हैं। इस उपवन भूमि की बावड़ियों के जल में निरीक्षण करने पर प्रत्येक जन अपने अतीत-अनागत सात भवों को देख लेते हैं।
एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित तीन कोटों से वेष्टित व तीन कटनियों के ऊपर चार-चार मानस्तम्भ होते हैं। इन मानस्तम्भों के चारों तरफ भी कमल आदि फूलों से युक्त स्वच्छ जल से भरित वापियाँ होती हैं। वहाँ कहीं पर रमणीय भवन, कहीं क्रीड़नशाला और कहीं नृत्य करती हुई देवांगनाओं से युक्त नाट्यशालायें होती हैं। ये रमणीय भवन पंक्तिक्रम से इस भूमि में शोभायमान होते हैं। ये भवन भी कई खनों से निर्मित अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणे ऊँचे होते हैं। अपनी प्रथम भूमि की अपेक्षा इस उपवन भूमि का विस्तार दूना होता है।
१५. नृत्यशाला-सब वनों के आश्रित सब वीथियों (गलियों) के दोनों पार्श्व भागों में दो-दो नाट्यशालायें होती हैं। इनमें से आदि की आठ नाट्यशालाओं में भवनवासिनी देवांगनायें और इससे आगे की आठ नाट्यशालाओं में कल्पवासिनी देवांगनायें नृत्य किया करती हैं। इन नाट्यशालाओं का सुन्दर वर्णन पूर्व के समान है।
१६. तृतीय वेदी-यह तीसरी वेदिका अपनी दूसरी वेदिका के समान है, अन्तर इतना ही है कि यहाँ के चारों द्वारों के रक्षक यक्षेन्द्र रहते हैं।
१७. ध्वजाभूमि-वेदिका के आगे इस पंचम ध्वजाभूमि में दिव्य ध्वजायें होती हैं। जिनमें सिंह, गज, वृषभ, गरूड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र ये दश प्रकार के चिन्ह बने रहते हैं। चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में इन दश प्रकार की ध्वजाओं में से प्रत्येक १०८ रहती हैं और इनमें से भी प्रत्येक ध्वजा अपनी १०८ क्षुद्रध्वजाओं से संयुक्त रहती हैं। इस प्रकार इस ध्वजाभूमि में महाध्वजा १०²१०८²४·४३२० व क्षुद्रध्वजायें १०²१०८²१०८²४·४६६५६० समस्त ध्वजायें ४३२०±४६६५६०·४७०८८० होती हैं। ये समस्त ध्वजायें रत्नों से खचित सुवर्णमय स्तम्भों में लगी रहती हैं। इन ध्वजस्तम्भों की ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणी रहती है।
१८. साल-इस ध्वजभूमि के आगे चाँदी के समान वर्णवाला तीसरा कोट अपने धूलिसाल कोट के ही सदृश है। इस कोट का विस्तार द्वितीय कोट की अपेक्षा दूना है और इसके द्वार रक्षक भवनवासी देव रहते हैं।
१९. कल्पभूमि-इस छठी भूमि का नाम कल्पभूमि है, यह दश प्रकार के कल्पवृक्षों से परिपूर्ण है। पानांग, तुर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग, ये दशप्रकार के कल्पवृक्ष हैं। इस भूमि में कहीं पर कमल, उत्पल से सुगंधित बावड़ियाँ हैं, कहीं पर रमणीय प्रासाद, कहीं पर क्रीड़नशालायें और कहीं पर जिनेन्द्रदेव के विजयचरित्र के गीतों से युक्त प्रेक्षणशालायें होती हैं। ये सब भवन बहुत भूमियों (खनों) से सुशोभित, रत्नों से निर्मित पंक्तिक्रम से शोभायमान होते हैं। इस कल्पभूमि के भीतर पूर्वादि दिशाओं में नमेरू, मंदार, संतानक और पारिजात ये चार-चार महान् सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं। ये वृक्ष तीन कोटों से युक्त और तीन मेखलाओं के ऊपर स्थित होते हैं। इनमें से प्रत्येक वृक्ष के मूलभाग में विचित्र पीठों से युक्त, रत्नमय चार-चार सिद्धों की प्रतिमायें होती हैं। ये वंदना करने मात्र से तुरंत संसार के भय को नष्ट कर देती हैं। एक-एक सिद्धार्थ वृक्ष के आश्रित, तीन कोटों से वेष्टित, पीठत्रय के ऊपर चार-चार मानस्तम्भ होते हैं। कल्पभूमि में स्थित सिद्धार्थ वृक्ष, क्रीड़नशालायें और प्रासाद जिनेन्द्र की ऊँचाई से बारहगुणे ऊँचे होते हैं।
२०. नाट्यशाला-इस कल्पभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी (गली) के आश्रित, दिव्य रत्नों से निर्मित और अपने चैत्यवृक्षों के सदृश ऊँचाई वाली चार-चार नाट्यशालायें होती हैं। सब नाट्यशालायें पांच भूमियों (खनों) से विभूषित, बत्तीस रंगभूमियों से सहित और नृत्य करती हुई ज्योतिषी देवांगनाओं से रमणीय होती हैं।
२१. वेदी-इस नाट्यशाला के आगे प्रथम वेदी के सदृश ही चौथी वेदी होती है। यहाँ भवनवासी देव द्वारों की रक्षा करते हैं।
२२. भवनभूमि-इस वेदी के आगे भवनभूमि नाम से सातवीं भूमि होती है। इसमें रत्नों से खचित, फहराती हुई ध्वजा-पताकाओं से सहित और उत्तम तोरण युक्त उन्नत द्वारों वाले भवन होते हैं। वे एक-एक भवन सुरयुगलों के गीत, नृत्य एवं बाजे के शब्दों से तथा जिनाभिषेकों से शोभायमान होते हैं। यहाँ पर भी उपवन, वापिका आदि की सुन्दर शोभा पूर्व के समान रहती है।
२३. स्तूप-इस भवनभूमि के पार्श्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य जिन और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से व्याप्त नौ-नौ स्तूप होते हैं। इन स्तूपों की छतों पर छत्र फिरते रहते हैं, ध्वजायें फहराती रहती हैं, ये दिव्यरत्नों से निर्मित रहते हैं और आठ मंगल द्रव्यों से सहित होते हैं। एक-एक स्तूप के बीच में मकर के आकार के सौ तोरण होते हैं। इन स्तूपों की ऊँचाई अपने चैत्यवृक्षों की ऊँचाई के समान होती है। भव्यजीव इन स्तूपों का अभिषेक, पूजन और प्रदक्षिणा किया करते हैं।
२४. साल-स्तूपों के आगे आकाश स्फटिक के सदृश और मरकत मणिमय चार गोपुर द्वारों से रमणीय चौथा कोट होता है। यहाँ के द्वारों पर कल्पवासी देव उत्तम रत्नमय दण्डों को हाथ में लेकर खड़े रहते हैं। ये जिनेन्द्र भगवान् के चरणों की परम भक्ति से द्वारपाल का कार्य करते हैं।
२५. श्रीमण्डप भूमि-इस आठवीं भूमि का नाम ‘श्रीमण्डप’ है। यह अनुपम उत्तमरत्नों के खम्भों पर स्थित और मुक्ताजालादि से शोभायमान रहती है। इसमें निर्मल स्फटिकमणि से निर्मित सोलह दीवालों के बीच में बारह कोठे होते हैं। इन कोठों की ऊँचाई अपने जिनेन्द्र की ऊँचाई से बारहगुणी होती है।
२६. गणविन्यास-इन बारह कोठों के भीतर पूर्वादि प्रदक्षिणा क्रम से पृथक्-पृथक् ऋषि आदि बारहगण बैठते हैं। उनका क्रम यह है – प्रथम कोठे में संपूर्ण ऋद्धियों के धारक गणधरदेव और सर्वदिगंबर मुनिगण बैठते हैं। स्फटिकमणि की दीवाल से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे कोठे में अतिशय नम्र आर्यिकायें तथा श्राविकायें बैठती हैं। चतुर्थ कोठे में ज्योतिर्वासी देवियाँ, पांचवें में व्यंतर देवियाँ, छठे में भवनवासी देवियाँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतरदेव, नौवें में सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषीदेव, दशवें में कल्पवासीदेवी, ग्यारहवें में चक्रवर्ती, मण्डलीक राजा एवं अन्य मनुष्य तथा बारहवें में परस्पर वैरभाव को छोड़कर सिंह, व्याघ्र, नकुल, हरिण आदि तिर्यंचगण बैठते हैं।
२७. वेदी-इसके अनंतर निर्मल स्फटिक पाषाण से बनी हुई पाँचवीं वेदिका होती है। जिसका सर्व वर्णन प्रथम वेदी के सदृश ही है।
२८. प्रथम पीठ-इस पाँचवी वेदी के आगे वैडूर्यमणि से निर्मित प्रथम पीठ होती है। इन पीठों की ऊँचाई भी अपने मानस्तम्भ की पीठ के सदृश है। इस प्रथमपीठ के ऊपर बारह कोठों में से प्रत्येक कोठे के प्रवेश द्वारों में और समस्त (चार) वीथियों के सन्मुख सोलह-सोलह सीढ़ियाँ होती हैंं। चूड़ी के सदृश गोल नाना प्रकार के पूजा द्रव्य और मंगल द्रव्यों से सहित इस पीठ पर चारों दिशाओं में अपने शिर पर धर्मचक्र को रखे हुये यक्षेंद्र स्थित रहते हैं। वे गणधर देव आदि बारहगण इस पीठ (कटनी) पर चढ़कर और प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्रदेव के सम्मुख हुये यथा योग्य वंदना, पूजा, भक्ति आदि करते हैं। सैकड़ों स्तुतियों द्वारा गुणकीर्तन करके असंख्यात गुणश्रेणीरूप से अपने कर्मों की निर्जरा करते हुये प्रसन्नचित्त होकर अपने-अपने कोठों में प्रवेश करते हैं।
२९. द्वितीय पीठ-प्रथम पीठ (कटनी) के ऊपर दूसरा पीठ होता है। यह पीठ भी नाना रत्नों से खचित भूमि युक्त होता है। इस सुवर्णमय पीठ पर चढ़ने के लिये चारों दिशाओं में पांच वर्ण के रत्नों से निर्मित सीढ़ियाँ होती हैं। इस पीठ के ऊपर मणिमय स्तम्भों पर लटकती हुई ध्वजायें होती हैं, जिनमें सिंह, बैल, कमल, चक्र, माला, गरूड़, वस्त्र और हाथी ऐसे आठ प्रकार के चिन्ह बने रहते हैं। इसी पीठ पर धूपघट, मंगलद्रव्य, पूजनद्रव्य और नवनिधियाँ रहती हैं जिनका वर्णन करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है।
३०. तृतीय पीठ-द्वितीय पीठ के ऊपर विविध प्रकार के रत्नों से खचित तीसरा पीठ (कटनी) होता है। सूर्यमण्डल के समान गोल इस पीठ के चारों ओर रत्नमय और सुखकर स्पर्शवाली आठ-आठ सीढ़ियाँ होती हैं।
३१. गंधकुटी-इस तृतीय पीठ के ऊपर एक गंधकुटी होती है। यह चामर, किंकणी, वन्दनमाला और हार आदि से रमणीय, गोशीर, मलय, चंदन, कालागरू आदि धूपों के गंध से व्याप्त, प्रज्वलित रत्नों के दीपकों से सहित तथा फहराती हुई विचित्र ध्वज पंक्तियों से संयुक्त होती है। ऋषभदेव के समय गंधकुटी की ऊँचाई ९०० धनुष थी। आगे घटते-घटते वीरनाथ के समय ७५ धनुष प्रमाण रह गई थी। गंधकुटी के मध्य में पादपीठ सहित, उत्तम स्फटिक मणि से निर्मित, घंटाओं के समूहादि से रमणीय सिंहासन होता है। रत्नों से खचित उस सिंहासन की ऊँचाई तीर्थंकर की ऊँचाई के ही योग्य हुआ करती है।
इस प्रकार यहाँ ३१ अधिकारों द्वारा समवसरण का वर्णन किया गया है। लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिये सूर्य के समान भगवान् अर्हंतदेव उस सिंहासन के ऊपर आकाश मार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं।
अतिसंक्षेप में पुन: इस समवसरण को बताते हैं-
समवसरण में आठ भूमि और तीन कटनी-
१. पहली- ‘चैत्यप्रासाद भूमि’ है, इसमें एक-एक जिन मंदिर के अंतराल में पाँच-पाँच प्रासाद हैं।
२. दूसरी-खातिका भूमि है, इसके स्वच्छ जल में हंस आदि कलरव कर रहे हैं और कमल आदि पुष्प खिले हुये हैं।
३. तीसरी-लताभूमि है, इसमें छहों ऋतुओं के पुष्प खिले हुये हैं।
४. चौथी-उपवनभूमि है, इसमें पूर्व आदि दिशा में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र के वन हैं। प्रत्येक वन में एक-एक चैत्यवृक्ष हैं जिनमें ४-४ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं।
५. पाँचवी-ध्वजाभूमि है, इसमें सिंह, गज, वृषभ, गरूड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र इन दशचिन्हों से सहित महाध्वजायें और उनके आश्रित लघु ध्वजायें सब मिलाकर ४,७०,८८० हैंं।
६. छठी-कल्पभूमि है, इसमें भूषणांग आदि दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। चारों दिशा में क्रम से नमेरू, मंदार, संतानक और पारिजात ऐसे एक-एक सिद्धार्थवृक्ष हैं। इनमें चार-चार सिद्धप्रतिमायें विराजमान हैं।
७. सातवीं-भवनभूमि में भवन बने हुये हैं। इस भूमि के पार्श्व भागों में अर्हंत और सिद्ध प्रतिमाओं से सहित नौ-नौ स्तूप हैं।
८. आठवीं-श्रीमण्डपभूमि है, इसमें १६ दीवालों के बीच में १२ कोठे हैं जिनमें १- गणधरादि मुनि २-कल्पवासिनी देवी ३-आर्यिका और श्राविका ४-ज्योतिषी देवी ५-व्यंतर देवी ६-भवनवासिनी देवी ७-भवनवासी देव ८-व्यंतर देव ९-ज्योतिष देव १०-कल्पवासी देव ११-चक्रवर्ती आदि मनुष्य और १२-सिंहादि तिर्यंच, ऐसे बारह गण के असंख्यातों भव्यजीव बैठकर धर्मोपदेश सुनते हैं। वहां पर रोग, शोक, जन्म, मरण, उपद्रव आदि बाधायें नहीं हैं।
पुन: प्रथम कटनी पर आठ महाध्वजायें, आठ मंगलद्रव्य आदि हैं। तृतीय कटनी पर गंधकुटी में सिंहासन पर लाल कमल की कर्णिका पर भगवान महावीर चार अंगुल अधर विराजमान हैं। इनका मुख एक तरफ होते हुये भी चारों तरफ दिखने से ये चतुर्मुख ब्रह्मा कहलाते हैंं। भगवान के पास अशोक वृक्ष, तीन छत्र, सिंहासन, भामंडल, चसिठ चंवर, सुरपुष्पवृष्टि, दुंदभि बाजे और हाथ जोड़े सभासद ये आठ महाप्रातिहार्य होते हैं। वहीं पर भगवान महावीर के जिनशासन देव मातंगयक्ष और शासनदेवी सिद्धायिनी यक्षी विद्यमान हैं।
चौंतीस अतिशय-तीर्थंकर के जन्म से लेकर अन्त तक ३४ अतिशय होते हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार है-
जन्म के १० अतिशय, घातिकर्म क्षय से ११ अतिशय और देवों के द्वारा किये गये १३ अतिशय, ऐसे कुल मिलाकर ३४ अतिशय१ होते हैं।
पसीना का न होना, शरीर में मल-मूत्र का न होना, दूध के समान सफेद रूधिर का होना, वङ्कावृषभनाराचसंहनन, समचतुरस्रसंस्थान, अत्यन्त सुन्दर शरीर, नवचंपक की उत्तम गंध के समान सुगन्धित शरीर, १००८ उत्तम लक्षणों का होना, अनंत बल-वीर्य, हित-मित एवं मधुर भाषण, प्रत्येक तीर्थंकर के जन्मकाल से ही ये स्वाभाविक दश अतिशय होते हैं।
अपने पास से चारों दिशाओं में १०० योजन तक सुभिक्षता, आकाश में गमन, हिंसा का अभाव, भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव, सबकी ओर मुख करके स्थित होना, छाया का न होना, पलकों का न झपकना, सर्व विद्याओं की ईश्वरता, नख और केशों का न बढ़ना, अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्र भाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर-अनक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक साथ भव्यजनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान जिनेन्द्रदेव की स्वभावत: अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यंत जाती है। इससे अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती मुख्यश्रोता के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुये ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकर को केवलज्ञान के होने पर प्रगट होते हैं।
तीर्थंकर के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्ते, फूल और फलों की समृद्धि से युक्त हो जाता है। कंटक और रेती को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है। जीव पूर्व वर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते हैं। उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है। सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करता है। देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि खेत को रचते हैं। सब जीवों को नित्य आनंद उत्पन्न होता है। वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है। वँâुये और तालाब आदि निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं। आकाश धुआँ और उल्कापात आदि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। संपूर्ण जीवों को रोगादि की बाधायें नहीं होती हैं। यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है। तीर्थंकर की (विदिशाओं सहित) चारों दिशाओं में छप्पन सुवर्ण कमल, एक पाद पीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजनद्रव्य होते हैं। इस प्रकार ये चतिीस अतिशय कहे गये हैं।
आठ महाप्रातिहार्य-ऋषभ आदि तीर्थंकरों को जिन वृक्षों के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है वे ही अशोक वृक्ष कहलाते हैं। ये जिनेन्द्रदेव के शरीर की ऊँचाई से बारह गुणे अधिक ऊँचे होते हैं। ये इतने सुन्दर होते हैं कि इनको देखकर इन्द्र का चित्त भी अपने नन्दन वनों में नहीं रमता है। तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर बिना स्पर्श किये ही चंद्रमण्डल के सदृश, मुक्ता के समूह से युक्त तीन छत्र शोभित होते हैं। निर्मल स्फटिक पाषाण से निर्मित और उत्कृष्ट रत्नों से खचित सिंहासन होता है। गाढ़ भक्ति में आसक्त, हाथों को जोड़े हुये, विकसित मुख कमल से संयुक्त, बारह गण के मुनिगण आदि भव्य जीव भगवान को घेरकर स्थित रहते हैं। मोह से रहित होकर जिनप्रभु के शरण में आवो, आवो, ऐसा कहते हुये ही मानों देवों का दुंदुभी बाजा बजता रहता है। भगवान् के चरणों के मूल में देवों के द्वारा की गई पुष्पवृष्टि होती रहती है। करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभामण्डल अपने दर्शनमात्र से ही सम्पूर्ण लोगों को सात भवों को दिखला देता है। कुंदपुष्प के समान श्वेत चसिठ चंवर देवों के द्वारा ढुराये जाते हैं। ये आठ महाप्रातिहार्य कहलाते हैं।
इन चतिीस अतिशय और आठ महाप्रातिहार्य से संयुक्त मोक्षमार्ग के नेता और तीनों लोकों के स्वामी ऐसे अर्हंतदेव की म् िवंदना करता हूँ।
समवसरण में कितने जीव रहते हैं ?-प्रत्येक समवसरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् असंख्यात जीव जिनेन्द्रदेव की वंदना में प्रवृत्त हुये स्थित रहते हैं। कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यात गुणा है, फिर भी वे सब भव्यजीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। वहाँ पर बालक से लेकर वृद्ध तक सभी लोग प्रवेश करने में अथवा निकलने में अंतर्मुहूर्त काल (४८ मिनट) के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते, तथा अनध्यवसाय, संदेह और विपरीतता से युक्त जीव भी नहीं होते हैं। इससे अतिरिक्त वहाँ पर जिन भगवान् के माहात्म्य से आतंक, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, काम बाधा तथा भूख और प्यास की बाधायें भी नहीं होती हैं।
यक्ष-यक्षिणी-गोवदन, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुम्बुरू, कुसुम वरनन्दि, विजय, अजित, ब्रह्म, ब्रह्मेश्वर, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, किंपुरूष, गरूड़, गंधर्व, महेन्द्र, कुबेर, वरूण, विद्युत्प्रभ, सर्वाण्ह, धरणेन्द्र और मातंग चौबीस तीर्थंकरों के ये चौबीस यक्ष हैं। अपने-अपने तीर्थंकर के ये यक्ष अपने-अपने जिनेंद्रदेव के पास में स्थित रहते हैं। इन्हें जिनशासन देव कहते हैं।
चक्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वङ्काशृंखला, पुरूषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, मानवी, गौरी, गांधारी, वैरोटी, अनन्तमती, मानसी, महामानसी, जया, विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, चामुण्डी, कूष्माण्डी, पद्मावती और सिद्धायिनी चौबीस तीर्थंकरों के क्रम से ये चौबीस यक्षिणी हैं। अपने-अपने तीर्थंकर के समीप में एक-एक यक्षिणी रहा करती हैं। इन्हें जिनशासनदेवी कहते हैं।
दिव्यध्वनि का माहात्म्य-जैसे चन्द्रमा से अमृत झरता है उसी प्रकार खिरती हुई जिन भगवान् की वाणी को अपने कर्त्तव्य के बारे में सुनकर वे बारह गणों के भिन्न-भिन्न जीव नित्य ही अनन्तगुणश्रेणीरूप से विशुद्ध परिणामों को धारण करते हुये अपने असंख्यात-गुणश्रेणीरूप कर्मों को नष्ट कर देते हैं। वहाँ पर रहते हुये वे भव्य जीव जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों में परम आस्थावान होते हुये परम भक्ति में आसक्त होकर अतीत, वर्तमान और भावीकाल को भी नहीं जानते हैं अर्थात् बहुत सा काल व्यतीत कर देते हैं। इस प्रकार से तीर्थंकर को जब आर्हंत्य पद नामक परमस्थान प्राप्त होता है तब समवसरण की विभूति आदि महा अतिशय प्रगट होते हंै।
आर्हंत्य परमस्थान में यह समवसरण आदि विभूति तो बहिरंग वैभव है। इसके साथ चार घातिया कर्मों के नाश होने से चार अनंत गुण प्रगट हो जाते हैं। ज्ञानावरण कर्म के अभाव से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण के नाश से अनन्तदर्शन, मोहनीय के नाश से अनन्तसुख और अन्तराय के क्षय से अनन्तवीर्य प्रगट हो जाते हैं। ये चार गुण ही अनन्तचतुष्टय कहे जाते हैं।
भगवान् की सभा में द्वादशांग श्रुत के ज्ञाता, मन:पर्ययज्ञान पर्यंत चार ज्ञान के धारी और चसिठ ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव रहते हैं जो भगवान् की दिव्यध्वनि को श्रवण कर जन-जन में उसका विस्तार करते हैं। गणधर के अभाव में तीर्थंकर की दिव्यदेशना नहीं होती है ऐसा नियम है। भगवान की बारह सभा में मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, यह चतुर्विध संघ रहता है। असंख्यातों देव-देवियाँ रहते हैं और संख्यातों तिर्यंच रहते हैं। ये सभी भगवान् के दिव्य उपदेश को सुनकर सम्यक्त्व को और अपने योग्य व्रतों को ग्रहण कर अपनी आत्मा को मोक्षमार्गी बना लेते हैं।
विपुलाचल पर्वत पर प्रथम दिव्यध्वनि खिरी-भगवान महावीर का समवसरण बन गया था किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी। जब प्रभु का श्रीविहार होता था तब समवसरण विघटित हो जाता था एवं प्रभु का श्रीविहार आकाश में अधर होता था। देवगण भगवान के श्रीचरण कमलों के नीचे-नीचे स्वर्णमयी सुगंधित दिव्य कमलों की रचना करते रहते थे पुनः जहाँ भगवान रुकते, अर्धनिमिष मात्र में कुबेर आकाश में अधर ही समवसरण बना देता था।
हरिवंश पुराण में आया है कि छ्यासठ दिन तक मौन से विहार करते हुये प्रभु राजगृह में पहुँचे-
षट्षष्टिदिवसान् भूयो मौनेन विहरन् विभुः।
आजगाम जगत्ख्यातं जिनो राजगृहं पुरम्।।६१।।
आरूरोह गिरिं तत्र विपुलं विपुलश्रियं।
प्रबोधार्थं स लोकानां भानुमानुदयं यथा।।६२।।
इन्द्राग्निवायुभूताख्याः कौडिन्याख्याश्च पण्डिताः।
इन्द्रनोदनयाऽऽयाताः समवस्थानमर्हतः।।६८।।
प्रत्येकं सहिताः सर्वे शिष्याणां पंचभिः शतैः।
त्यक्ताम्बरादिसंबंधाः संयमं प्रतिपेदिरे।।६९।।
सुता चेटकराजस्य कुमारी चंदना तदा।
धौतैकाम्बरसंवीता जातार्याणा पुरःसरी।।७०।।
श्रेणिकोऽपि च संप्राप्तः सेनया चतुरंगया।
सिंहासनोपविष्टं तं प्रणनाम जिनेश्वरम्।।७१।।
प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थं कृतदोषत्रयक्षयम्।
जिनेंद्रं गौतमोऽपृच्छत् तीर्थार्थं पापनाशनम्।।८९।।
स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः।
दुन्दुभिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना।।९०।।
श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः।
प्रतिपद्यन्हि पूर्वाण्हे शासनार्थमुदाहरत्।।९१।।१
तदनन्तर छ्यासठ दिन तक मौन से विहार करते हुय श्रीवर्धमान जिनेन्द्र जगत्प्रसिद्ध राजगृह नगर आये। वहाँ जिस प्रकार सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होता है उसी प्रकार वे लोगों को प्रतिबद्ध करने के लिये विपुल लक्ष्मी के धारक विपुलाचल पर्वत पर आरूढ़ हुये।।६१-६२।।
इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति तथा कौण्डिन्य आदि पण्डित इन्द्र की प्रेरणा से श्रीअर्हंत देव के समवसरण में आये। वे सभी पंडित अपने पाँच-पाँच सौ शिष्यों से सहित थे, इन सभी ने वस्त्रादि का त्याग कर संयम धारण कर लिया। उसी समय राजा चेटक की पुत्री कुमारी ‘चन्दना’ एक स्वच्छ वस्त्र धारण कर आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी हो गयीं। राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ समवसरण में पहुँचे और वहाँ पर सिंहासन पर विराजमान श्रीवर्द्धमान भगवान को नमस्कार किया।।६८-७१।।
तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले एवं राग-द्वेष और मोह को क्षय करने वाले, पापनाशक श्री जिनेन्द्रदेव से श्री गौतम गणधर ने तीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिये प्रश्न किया।
अनंतर श्रीमहावीर स्वामी ने श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के प्रातःकाल के समय अभिजित् नक्षत्र में समस्त संशयों को छेदने वाले, दुन्दुभि के शब्द के समान गंभीर तथा एक योजन तक फैलने वाली दिव्यध्वनि के द्वारा शासन की परंपरा चलाने के लिये उपदेश दिया।।८०-८१।।
अन्यत्र ग्रन्थों में आया है कि-
जब इंद्रराज ने देखाभिगवान को केवलज्ञान होकर ६५ दिन व्यतीत हो गये, फिर भी प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खिर रही है क्या कारण है‘ चिंतन कर यह पाया कि गणधर का अभाव होने से ही दिव्यध्वनि नहीं खिरी है। तब सौधर्मेंद्र ने इन्द्रभूति ब्राह्मण को इस योग्य जानकर उस अभिमानी को लेने के लिये युक्ति से वृद्ध का रूप बनाया और वहाँ ‘गौतमशाला’ में पहुँचे। वहाँ के प्रमुख गुरु ‘इंद्रभूति’ से बोले
ि‘मेरे गुरु इस समय ध्यान में लीन होने से मौन हैं अतः मैं आपके पास इस श्लोक का अर्थ समझने आया हूँ।’
गौतम गौत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण ने विद्या से गर्विष्ठ होकर पूछा-
‘यदि मैं इसका अर्थ बता दूंगा तो तुम क्या दोगे?’
तब वृद्ध ने कहा‘ियदि आप इसका अर्थ कर देंगे, तो मैं सब लोगों के सामने आपका शिष्य हो जाऊँगा और यदि आप अर्थ न बता सके तो इन सब विद्याथिर्यों और अपने दोनों भाइयों के साथ आप मेरे गुरु के शिष्य बन जाना।’
महाअभिमानी इंद्रभूति ने यह शर्त मंजूर कर ली, क्योंकि वह यह समझता था कि मेरे से अधिक विद्वान् इस भूतल पर कोई है ही नहीं। तब वृद्ध ने वह काव्य पढ़ा-
धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै-रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायम्।।
तब गौतम गोत्र से ‘गौतम’ नाम से प्रसिद्ध इन्द्रभूति ने कुछ देर सोचकर कहा‘िअरे ब्राह्मण! तू अपने गुरु के पास ही चल। वहीं मैं इसका अर्थ बताकर तेरे गुरु के साथ वाद-विवाद करूँगा।’
सौधर्मेंद्र तो यही चाहते थे। तब वेषधारी इंद्रराज गौतम को लेकर भगवान के समवसरण की ओर चल पड़े।
वहाँ मानस्तम्भ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उन्हें सम्यक्त्व प्रगट हो गया। समवसरण के सारे वैभव को देखते हुए महान् आश्चर्य को प्राप्त उन्होंने भगवान महावीर स्वामी का दर्शन किया और भक्ति में गद्गद् होकर स्तुति करने लगे-
जयति भगवान् हेमाम्भोज-प्रचार-विजृंभिता-वमर मुकुटच्छायोद्गीर्ण-प्रभापरिचुम्बितौ।।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ताः परस्परवैरिणो। विगतकलुषाः पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसुः२।।१।।
स्तुति करके विरक्त मना होकर उन इंद्रभूति ने प्रभु के चरण सानिध्य में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तत्क्षण ही उन्हें मति-श्रुत ज्ञान के साथ ही अवधिज्ञान और मनःपयर्य ज्ञान प्रगट हो गया। वे गणधर पद को प्राप्त हो गये तभी भगवान की दिव्यध्वनि खिरी थी।
‘कषाय्ापाहुड़’ ग्रन्थ में प्रथम दिव्यध्वनि के बारे में प्रश्नोत्तर रूप में बहुत ही सुंदर वर्णन किया है-
जिन्होंने धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करके समस्त प्राणियों को संशयरहित किया है, जो वीर हैंििजन्होंने विशेषरूप से समस्त पदार्थ समूह को प्रत्यक्ष कर लिया है, जो जिनों में श्रेष्ठ हैं तथा राग, द्वेष और भय से रहित हैं ऐसे भगवान महावीर धर्मतीर्थ के कर्ता हैं।
प्रश्न-भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का उपदेश कहाँ पर दिया‘
उत्तर-‘सेणियराए सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडलं भुंजति मगहामंडल-तिलओवम..‘ रायगिहणयर – णेरयि -दिसमहिट्ठिय – विउलगिरिपव्वए सिद्धचारणसेविए बारहगण-परिवेड्ढिएण कहियं।
जब महामण्डलीक श्रेणिक राजा अपनी चेलना रानी के साथ सकल पृथिवी मंडल का उपभोग करता था तब मगधदेश के तिलक के समान राजगृह नगर को नैऋत्य दिशा में स्थित तथा सिद्ध और चारणों द्वारा सेवित विपुलाचल पर्वत के ऊपर बारह गणों िसभाओं से परिवेष्टित भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया।
राजगृह नगर के पास स्थित पंचशैलपुर हैििजसे पंचपहाड़ी कहते हैं। पूर्व दिशा में चैकोर आकार वाला ऋषिगिरि नाम का पर्वत है। दक्षिण दिशा में वैभार पर्वत, नैऋत्य दिशा में विपुलाचल नाम का पर्वत है, ये दोनों त्रिकोण आकार वाले हैं। पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुष के आकार वाला ‘छिन्न’ नाम का पर्वत है। ऐशान दिशा में गोलाकार पांडु नाम का पर्वत है। ये सब पर्वत कुश के अग्रभागों से ढके हुये हैं।
प्रश्न-किस काल में धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है‘
उत्तर-भरतक्षेत्र संबंधी अवसर्पिणी काल के दुःषमसुषमा नामक चैथे काल में नौ दिन, छह महिना अधिक तेतीस वर्ष अवशिष्ट होने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है। कहा भी है
िइम्मिस्सेवसप्पिणीए चउत्थकालस्स पच्छिमे भाए।
चोत्तीसवासावसेसे किंचि विसेसूणकालम्मि१।।
इस अवसर्पिणी काल के दुःषमसुषमा नामक चैथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चैंतीस वर्ष बाकी रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई है।
आगे इसी को स्पष्ट करते हैं िचैथे काल में पंद्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तर वर्ष बाकी रहने पर आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन बहत्तर वर्ष की आयु लेकर मति-श्रुत- अवधि ज्ञान के धारक भगवान महावीर पुष्पोत्तर विमान से च्युत होकर गर्भ में अवतीर्ण हुये। उन बहत्तर वर्षों में तीस वर्ष कुमार काल है, बारह वर्ष, छद्मस्थ काल है तथा तीस वर्ष केवलीकाल है। इन तीनों कालों का जोड़ बहत्तर वर्ष होता है। इस ७२ वर्ष प्रमाण काल को पंद्रह दिन और आठ महीना अधिक ७५ वर्ष में घटा देने पर वर्द्धमान जिनेंद्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थ काल शेष रहता है उसका प्रमाण होता है।
इस काल में छ्यासठ दिन कम केवलिकाल अर्थात् २९ वर्ष, नौ महीना और चैबीस दिन के मिला देने पर चतुर्थकाल में नौ दिन और छह महीना अधिक तैतीस वर्ष बाकी रहते हैं।
शंका-केवलिकाल में से छ्यासठ दिन किसलिये कम किये हैं‘
समाधान-भगवान महावीर को केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी छ्यासठ दिन तक धर्मतीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिये केवलिकाल में से छ्यासठ दिन कम किये गये हैं।
जयधवला में कहा है-
‘‘दिव्वज्झुणीए किमट्ठं तत्थापउत्ती?
गणिंदाभावादो।
सोहम्मिंदेण तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो?
ण, काललद्धीए विणा असहेज्जस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो।’’
शंका-केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनंतर छ्यासठ दिन तक दिव्य-ध्वनि की प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ?
समाधान-गणधर न होने से उतने दिन तक दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति नहीं हुई।
शंका-सौधर्मेन्द्र ने केवलज्ञान प्राप्त होते ही गणधर देव को क्यों नहीं उपस्थित किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि काललब्धि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को उपस्थित करने में असमर्थ था, उसमें उसी समय गणधर को उपस्थित करने की शक्ति नहीं थी।
शंका-जिसने अपने तीर्थंकर पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती है ?
समाधान-ऐसा ही स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता है, क्योंकि यदि स्वभाव में ही प्रश्न होने लगे तो कोई व्यवस्था ही न बन सकेगी।
अतएव कुछ कम चैतीस वर्ष प्रमाण चैथे काल के रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई यह सिद्ध हुआ।
कोई अन्य आचार्य ‘‘भगवान वर्द्धमान की आयु ७१ वर्ष, ३ माह २५ दिन प्रमाण है’’ ऐसा कहते हैं।
आषाढ़ शुक्ला षष्ठी से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी तक ९ माह ८ दिन हुये। चैत्र शुक्ला चतुर्दशी से अट्ठाईस वर्ष व्यतीत कर पुनः मगसिर कृष्णा दशमी तक लेने से अट्ठाईस वर्ष सात माह बारह दिन (२८ वर्ष ७ माह १२ दिन) होते हैं। मगसिर कृ.११ से आगे बारह वर्ष के बाद वैशाख शुक्ला दशमी को केवलज्ञान हुआ अतः १२ वर्ष, ५ माह १५ दिन बाद केवली हुये हैं। वैशाख शुक्ला ११ से आगे वैशाख शुक्ला १० तक उनतीस वर्ष पुनः वैशाख शुक्ला ११ से कार्तिक कृष्णा अमावस्या तक पाँच माह बीस दिन ऐसे २९ वर्ष, ५ माह, २० दिन का केवली काल है। इस प्रकार वर्द्धमान जिनेन्द्र की आयु ७१ वर्ष, ३ माह, २५ दिन प्रमाण मानी गयी है।
भगवान महावीर की आयु बहत्तर वर्ष की थी। दूसरे मत से इकहत्तर वर्ष, तीन माह, पच्चीस दिन की थी। ये दोनों मत जयधवला ग्रंथ में आये हैं।
श्रावणवृâष्णा एकम के दिन भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी थी जब इंद्रभूति ब्राह्मण ने वर्द्धमान भगवान से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की थी। उत्तर पुराण में कहा है-
‘श्रीवर्द्धमानमानम्य संयमं प्रतिपन्नवान्।’
श्रीवर्द्धमान स्वामी को नमस्कार करके सकलसंयम ग्रहण कर लिया था।
दिव्यध्वनि का वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में आया है।
जोयणपमाणसंट्ठिद – तिरियामरमणुव णिवहपडिबोधो।
मिदमधुरगभीतरा – विसदविसयसयल भासाहिं।
अट्ठरसमहाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा।
अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ।।
एदासिं भासाणं तालुवंदतोट्ठकंठवावारं।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजणाणंदकर-भासो।।
एक योजन प्रमाण तक स्थित तिर्यंच देव और मनुष्यों के समूह को बोध प्रदान करने वाली भगवान की दिव्यध्वनि होती है। यह दिव्यध्वनि मृदु-मधुर, अतिगंभीर और विशद-स्पष्ट विषयों को कहने वाली संपूर्ण भाषामय होती है। यह संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षररूप अठारह भाषा और सात सौ लघु भाषाओं में परिणत होती हुई, तालु-ओंठ-दाँत तथा कंठ के हलन-चलन रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजीवों को आनंदित करने वाली होती हैं ऐसी दिव्यध्वनि के स्वामी तीर्थंकर भगवान होते हैं।
षट्खंडागम ग्रन्थ में श्रीवीरसेनस्वामी कहते हैं-
‘‘तेण महावीरेण केवलणाणिणा कहिदत्थो तम्हि चेव काले तत्थेव खेत्ते खयोवसम -जणिदचउ- रमलबुद्धिसंपण्णेण बह्मणेण गोदमगोत्तेण सयलदुस्सुदि-पारएण जीवाजीवविसयसंदेह -विणासणट्ठ -मुवगयवड्ढमाणपादमूलेण इंदिभूदिणावहारिदो।’’
इस प्रकार केवलज्ञानी भगवान महावीर के द्वारा कहे गये पदार्थ को उसी काल में और उसी क्षेत्र में क्षयोपशम विशेष से उत्पन्न चार प्रकार के -मति, श्रुत, अवधि, मनःपयर्यरूप निर्मल ज्ञान से युक्त संपूर्ण दुःश्रुति – अन्यमतावलंबी वेद-वेदांग में पारंगत, गौतमगोत्रीय ऐसे इन्द्रभूति ब्राह्मण ने जीव-अजीव विषयक संदेह को दूर करने के लिये श्रीवर्द्धमान भगवान के चरणकमल का आश्रय लेकर ग्रहण किया अर्थात् प्रभु की दिव्य ध्वनि को सुना।इसीलिये भगवान महावीर ‘अर्थकर्ता’ कहलाये हैं।‘पुणो तेणिदंभूदिणा भावसुदपज्जय-परिणदेण बारहंगाणं चोद्दसपुव्वाणं च गंथणमेक्केण चेवमुहूत्तेण रयणा कदा।’’पुनः उन इन्द्रभूति गौतमस्वामी ने भावश्रुत पर्याय से परिणत होकर बारह अंग और चैदह पूर्वरूप ग्रन्थों की रचना एक ही मुहूर्त में कर दी।
सारांश यह है कि आज से पच्चीस सौ अट्ठावन वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी थी यही प्रथम देशना दिवस- ‘वीरशासन जयंती’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसी दिन श्री गौतमस्वामी ने गणधर पद प्राप्त करके द्वादशांगरूप श्रुत की रचना की थी जोकि मौखिक मानी गई उसे लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता है। इन द्वादशांग श्रुत में क्या विषय है उसका नाममात्र वर्णन आगे किया जा रहा है।
पुरूरवा भील-इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर ‘पुष्कलावती’ नाम का देश है। उसकी ‘पुण्डरीकिणी’ नगरी में एक ‘मधु’ नाम का वन है। उसमें ‘पुरूरवा’ नाम का एक भीलों का राजा अपनी ‘कालिका’ नाम की स्त्री के साथ रहता था३। किसी दिन दिग्भ्रम के कारण ‘श्री सागरसेन’ नामक मुनिराज को इधर-उधर भ्रमण करते हुये देखकर यह भील उन्हें मारने को उद्यत हुआ उसकी स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं इन्हें मत मारो।’ वह पुरूरवा उसी समय मुनि को नमस्कार कर तथा उनके वचन सुनकर शांत हो गया। मुनिराज ने उससे मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोें का त्याग करा दिया। मांसाहारी भील भी इन तीनों के त्यागरूप व्रत को जीवन पर्यन्त पालन कर आयु के अंत में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु को धारण करने वाला देव हो गया। कहाँ तो वह हिंसक क्रूर भील पाप करके नरक चला जाता और कहाँ उसे गुरू का समागम मिला कि जिनसे हिंसा का त्याग करके स्वर्ग चला गया!
मरीचि कुमार-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी आर्यखंड के मध्य भाग में कौशल नाम का देश है। इस देश के मध्य भाग में अयोध्या नगरी है। वहां ऋषभदेव भगवान के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती की अनंतमती रानी से ‘यह पुरूरवा भील का जीव देव’ मरीचि कुमार नाम का पुत्र हुआ। अपने बाबा भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरू भक्ति से प्रेरित होकर मरीचि ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। भगवानृ तो छह महीने का उपवास लेकर ध्यान में लीन हो गये। मरीचि आदि चार हजार राजा स्वयं ही फल, आवरण आदि को ग्रहण करने लगे तब वनदेवता ने प्रगट होकर कहा- ‘निर्ग्रंथ दिंगबर-जिनमुद्रा को धारण करने वालों का यह क्रम नहीं है अर्थात् यह अर्हंतमुद्रा तीनों लोकों में पूज्य है इसको धारण कर यह स्वच्छंद प्रवृत्ति करना कथमपि उचित नहीं है अत: तुम लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार अन्य वेष ग्रहण कर लो।”
ऐसा सुनकर प्रबल मिथ्यात्व से प्रेरित हुये मरीचि ने भी सबसे पहले परिव्राजक की दीक्षा धारण कर ली। वास्तव में जिनका संसार दीर्घ होता है उनके लिये यह मिथ्यात्व कर्म मिथ्यामार्ग ही दिखलाता है। उस समय उसे उन सब विषयों का ज्ञान भी स्वयं ही प्रगट हो गया सो ठीक ही है वäयोंकि सज्जनों के समान दुर्जनों को भी अपने विषय का ज्ञान स्वयं ही हो जाता है। उसने तीर्थंकर भगवान के वचन सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था। वह मरीचि साधु सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने अपने आप समस्त परिग्रहों कर त्याग कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य प्राप्त की है उसी प्रकार म् िभी संसार में अपने द्वारा चलाये हुये दूसरे मत की व्यवस्था करूंगा और उसके मिमित्त से होने वाले बड़े भारी प्रभाव के कारण इन्द्र की प्रतीक्षा को प्राप्त करूंगा-इन्द्र द्वारा की हुई पूजा को प्राप्त करूंगा। म् िसमझता हूं कि मेरे यह सब अवश्य होगा। इस प्रकार मान कर्म के उदय से वह पापबुद्धि सहित हुआ खोटे मत से विरक्त नहीं हुआ और अनेक दोषों से दूषित वही वेष धारण कर रहने लगा।तभी कच्छ आदि चार हजार राजा जो दीक्षित हुये उन सभी मुनिवेषधारियों ने भी अनेक वेष बना लिये।
मरीचि का भवभ्रमण-मरीचिकुमार आयु के अंत में मरकर ब्रह्मस्वर्ग में दस सागर आयु वाला देव हो गया। वहाँ से आकर जटिल ब्राह्मण हुआ, पुन: पारिव्राजक बना पुन: मरकर सौधर्म स्वर्ग मेंं देव हुआ पुन: वहां से आकर अग्निसह ब्राह्मण होकर पारिव्राजक दीक्षा ले ली पुन: मरकर देव हुआ, वहां से च्युत होकर अग्निमित्र ब्राह्मण होकर पारिव्राजक तापसी हुआ पुुनरपि माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर भारद्वाज ब्राह्मण होकर त्रिदण्डी साधु बन गया और पुनरपि स्वर्ग में गया, वहां से च्युत होकर मिथ्यात्व के निमित्त से यह मरीचि कुमार त्रस-स्थावार योनियों में असंख्यात वर्ष तक परिभ्रमण करता रहा।
वह मरीचि कुमार का जीव इस तरह असंख्यात वर्षों तक इन कुयोनियों में भ्रमण करते हुये श्रांत हो गया। कुछ पुण्य से राजगृह नगर के शांडिल्य ब्राह्मण की पारशरी पत्नी से ‘स्थावर’ नाम का पुत्र हुआ। वहां भी सम्यग्दर्शन से शून्य पारिव्राजक की दीक्षा लेकर अंत में मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हो गया।
विश्वनंदी-इसी मगधदेश के राजगृह नगर में ‘विश्वभूति’ राजा की ‘जैनी’ नामकी रानी से यह मरीचि कुमार का जीव स्वर्ग में आकर ‘विश्वनंदी’ नाम का राजपुत्र हो गया। विश्वभूति राजा का एक विशाखभूति नाम का छोटा भाई था, उसकी लक्ष्मणापत्नी से ‘विशाखनन्दि’ नाम का मूर्ख पुत्र हो गया। किसी दिन विश्वभूति राजा ने विरक्त होकर छोटे भाई विशाखभूति को राज्य देकर अपने पुत्र ‘विश्वनन्दि’ को युवराज बना दिया और स्वयं तीन सौ राजाओं के साथ श्रीधर मुनि के पास दीक्षित हो गये।
किसी दिन विश्वनंदी युवराज अपने ‘मनोहर’ नामक उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उसे देख, चाचा के पुत्र विशाखनंदी ने अपने पिता के पास जाकर उस उद्यान की याचना की। विशाखभूति ने भी युवराज विश्वनंदी को ‘विरूद्ध राजाओं को जीतने के बहाने’ बाहर भेजकर पुत्र को बगीचा दे दिया। विश्वनंदी को इस घटना का तत्काल पता लग जाने से वह क्रुद्ध होकर वापस विशाखनंदी को मारने को उद्यत हुआ। तब विशाखनंदी वैâथे के वृक्ष पर चढ़ गया, इसने वैâथे के वृक्ष को उखाड़ दिया। तब वह भागा और पत्थर के खम्भे के पीछे हो गया, यह विश्वनंदी पत्थर के खंभे को उखाड़कर उससे उसे मारने को दौड़ा। विशाखनंदी वहां से डर कर भागा तब युवराज के हृदय में सौहार्द और करूणा जाग्रत हो गयी। उसने उसी समय उसे अभयदान देकर बगीचा भी दे दिया और स्वयं ‘संभूत’ नामक मुनि के पास दीक्षा धारण कर ली, तब विशाखभूति ने भी पापों का पश्चाताप कर दीक्षा ले ली।किसी दिन मुनि विश्वनंदी अत्यन्त कृश शरीरी मथुरा में आहार के लिए आये, उस समय यह विशाखनंदि वेश्या के महल की छत से मुनि को देख रहा था। मुनि को गाय ने धक्के से गिरा दिया यह देख विशाखनंदि बोला ‘तुम्हारा पत्थर का खम्भा तोड़ने वाला पराक्रम कहाँ गया’‘ मुनि ने यह दुर्वचन सुने उन्हें क्रोध आ गया अन्त में निदान सहित संन्यास से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये, वहीं पर चाचा विशाखभूति भी देव हो गये। दोनों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी।
अर्धचक्री त्रिपृष्ठकुमार-सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से ‘विशाखभूति का जीव’ विजय नाम का पुत्र हुआ और महाराज की दूसरी रानी मृगावती से ‘विश्वनंदी का जीव’ त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। विजय बलभद्रपद के धारक हुये और ये त्रिपृष्ठ अर्धचक्री पद के धारक हुये। उधर विशाखनंदि का जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता हुआ कुछ पुण्य से विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलांजना रानी से ‘अश्वग्रीव’ पुत्र हुआ। यह प्रतिनारायण हुआ था। कालांतर में युद्ध में अश्वग्रीव के चक्ररत्न से ही अश्वग्रीव को मारकर त्रिखण्डाधिपति राजा त्रिपृष्ठ ने अपने भाई विजय के साथ बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया, अन्त में भोगलिप्सा में मरकर सप्तम नरक में चला गया क्योंकि सम्यग्दर्शन और पांच अणुव्रतों से रहित राज्य वैभव नरक का ही कारण है।
नरक में इस मरीचि कुमार के जीव ने क्या-क्या कष्ट सहे हैं उनको असंख्य जिह्वाओं से भी नहीं कहा जा सकता‘ करोंत से चीरना, कुंभी-पाक में पकाना, अग्नि में जलाना, तिल-तिल खंड करना आदि के अनेकों दुख भोगे फिर भी आयु पूर्ण हुये बिना मर नहीं सका। वहाँ पर तेंतीस सागरों की आयु भोगकर सिंह हुआ और गर्मी-सर्दी, भूख, प्यास आदि बाधाओं से दु:खी हुआ, वहाँ पर प्राणी हिंसा से मांसाहार करते हुये पुन: मरकर पहले नरक चला गया। वहाँ के दु:खों को भोगकर वहाँ से निकल कर पुनरपि इसी जम्बूद्वीप में सिंधुकूट की पूर्व दिशा में हिमवान् पर्वत के शिखर पर सुन्दर बालों से युक्त सिंह हुआ।पुण्यशाली मृगेन्द्र-वह सिंह किसी समय एक हिरण को पकड़कर खा रहा था। उसी समय अतिशय दयालु ‘अजितञ्जय’ और ‘अमितगुण’ नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनि आकाशमार्ग से उतरकर उस सिंह के पास पहुंचे और शिलातल पर बैठकर जोर-जोर से उपदेश देने लगे। उन्होंने कहा कि ‘हे भव्य मृगराज! तू अर्धचक्री त्रिपृष्ठ के भव में पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन कर तृप्त नहीं हुआ तथा सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण तू नरक में चला गया, वहां अत्यन्त प्रचंड और लोहे के घनों की चोट से तेरा चूर्ण किया जाता था, इत्यादि दु:खों को भोगकर तू वहां से निकलकर सिंह हुआ पुन: हिंसा के पाप से मरकर नरक गया, वहां से निकलकर पुन: सिंह होकर हिंसा से रत है। तू ऋषभदेव के समय मरीचि के भव में तीर्थंकर वृषभदेव के वचनों का अनादर कर त्रसस्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक भ्रमण करता रहा। अब इस भव से दसवें भव में तू अन्तिम तीर्थंकर होगा। यह सब म्निे श्रीधर तीर्थंकर से सुना है। इन सब बातों को सुनते ही सिंह को जातिस्मरण हो गया। संसार के भयंकर दु:खों की स्मृति से उसका शरीर कांपने लगा तथा आंखोें से अश्रु गिरने लगे। बहुत देर तक अश्रु गिरते रहने से ऐसा मालूम होता था कि मानों हृदय में सम्यक्त्व को स्थान देने की इच्छा से मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है।
उसकी शांत भावना को देखकर मुनि ने उसे सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण कराये। सिंह ने मुनिराज की भक्ति से बार-बार प्रदक्षिणाएं दीं, बार-बार प्रणाम किया और तत्काल ही काललब्धि के आ जाने से तत्त्वश्रद्धानपूर्वक श्रावक के व्रत ग्रहण किये। सिंह का मांसाहार के सिवाय और कोई आहार नहीं, अत: मांस का त्याग करने से उसने ‘निराहार व्रत” ग्रहण किया था।
सम्यग्दर्शन-सच्चे देव, शास्त्र, गुरू और तत्वों का श्रद्धान करना।
अहिंसाणुव्रत-मनवचनकाय से किसी भी जीव को नहीं मारना।
सत्याणुव्रत-स्थूल झूठ नहीं बोलना।
अचौर्याणुव्रत-बिना दी हुई पर की वस्तु नहीं लेना।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी स्त्री के सिवाय सबको माता, बहन समझना।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत-धन-धान्य आदि परिग्रह का जीवन भर के लिए प्रमाण कर लेना।
तिर्यंचों के संयमासंयम के आगे व्रत नहीं हो सकते इसलिए वह देशव्रती कहलाया। वह सिंह सब कुछ त्याग कर शिलातल पर बेैठकर चित्रलिखित (पत्थर की मूर्ति) के समान हो गया था। चारण मुनि उसे शिक्षा देकर बार-बार उसका स्पर्श करते हुये चले गये।
महावीर चरित में लिखा है कि-
‘यह मरा हुआ है ऐसा समझ मदोन्मत्त हाथियों ने उसकी जटाओं को नष्ट कर दिया, डांस, मक्खी और मच्छरों ने मर्म स्थानों को काट डाला, लोमड़ी और श्रृगाल मृतक समझकर उस सिंह को तीक्ष्ण नखों के द्वारा नोंच-नोंच कर खाने लगे तो भी उस सिंह ने अपनी परम समाधि नहीं छोड़ी, क्षमा भाव से सब सहन करता रहा। पूर्वोक्त प्रकार से एक महीने तक निश्चल रहकर अनशन धारण कर पाप रहित हुआ प्राणों से शरीर को छोड़ा।’ इस प्रकार सन्यास विधि से मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हो गया वहां दो सागर तक उत्तम सुख भोगे।
पुन: मरीचि कुमार के जीव की जैनेश्वरी दीक्षा-स्वर्ग से आकर, धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरू सम्बंधी पूर्व विदेह के मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकप्रभ नगर के राजा कनकपुंख विद्याधर और कनकमाला रानी के ‘कनकोज्जवल’ नाम का पुत्र हुआ। किसी दिन प्रियमित्र नाम के अवधिज्ञानी मुनि से दयामय जैनधर्म का उपदेश सुनकर दीक्षा ले ली। बहुत काल तक तपश्चरण करते हुये ‘कनकोज्जवल’ मुनिराज सन्यास विधि से मरकर सातवें स्वर्ग में देव हो गये। वहां के भोगों को भोगकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़े और इसी अयोध्या के राजा वङ्कासेन की रानी शीलवती ‘हरिषेण’ पुत्र हो गया। राज्य वैभव का अनुभव करके हरिषेण ने श्रुतसागर मुनि से दीक्षा ले ली। तपश्चरण के प्रभाव से महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये। वहां से चयकर धातकी खंड की पुंडरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी मनोरमा से ‘प्रियमित्र’ नाम का पुत्र हो गया। यह प्रियमित्र चक्रवर्तीपद को प्राप्त हुआ, चक्ररत्न से छहखंड को जीतकर बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं से सेवित अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, छ्यानवे हजार रानियों के वैभव का अनुभव करते हुये क्षेमंकर जिनेन्द्र धर्मोपदेश सुनकर दीक्षित हो गया। यह प्रियमित्र मुनि आयु के अंत में समाधिकपूव्रक मरण करके सहस्रार स्वर्ग में ‘सूर्यप्रभ’ नाम के देव हुये। वहां पर अठारह सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर जम्बूद्वीप के छत्रपुर नगर के राजा नंदिवर्धन की वीरवती रानी से ‘नंंद’ नाम का एक सज्जन पुत्र हुआ। यहां भी अभिलषित राज्य का उपभोग कर ‘प्रोष्ठिल’ नाम के श्रेष्ठ गुरू के पास दीक्षा ले ली और ग्यारह अंगोेंं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।
सिंहकेतु देव-वह सिंह सल्लेखना विधि से मरवâर सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हो गया। वहां उसकी आयु दो सागर प्रमाण थी। स्वर्ग में देव उपपादशय्या से सोलह वर्ष के नवयुवक के समान शरीर से परिपूर्ण होकर उठकर बैठ जाते हैं। तभी वहां वाद्यों की ध्वनि आदि से अन्य परिवार देवगण-देवांगना आदि आकर जय-जयकार करते हुये नव आगत देव का स्वागत करते हैं।
वहां देव जन्म लेकर तत्क्षण सोचते हैं कि म् ियहाँ कौन हूँ‘ कहाँ से आया हूँ ‘ इत्यादि सोचते ही उन्हें भवप्रत्यय नाम के अवधिज्ञान से सभी जानकारी मिल जाती है। इन सिंहकेतु देव ने भी जान लिया कि म् िसिंह की पर्याय में दिगंबर महामुनि के संबोद्दन से सम्यक्त्व और अणुव्रतों को प्राप्त कर समाधिपूर्वक मरण करके यहां प्रथम स्वर्ग में देवपद को प्राप्त हुआ हूँ। अनंतर अपने परिवार देवों का अवलोकन करके वस्त्राभरणों से अलंकृत हो अपने जिनमंदिर में गया, विधिवत् अभिषेक पूजन किया। कभी-कभी देव-देवांगनाओं के साथ सभा में नानाप्रकार की चर्चा किया करता था।
कभी-कभी वह देव अपने देव परिवार एवं देवांगनाओं के साथ मध्यलोक में आकर अनेक तीर्थों की वंदना किया करता था। कभी वह सिंहकेतु देव पंचमेरूओं की वंदना करके नंदीश्वर द्वीप में पहुंचकर बावन जिनमंदिरों की वंदना करने पहुंच जाता था।नंदीश्वर द्वीप-मध्यलोक में सर्वप्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है एवं आठवें द्वीप का नाम नंदीश्वर द्वीप है। वहां चारों दिशाओं में एक-एक अंजनगिरि पर्वत हैं। इस अंजनगिरि के चारों तरफ एक-एक विशाल बावड़ियां हैं ये बावड़ियां चौकोन हैं। इन प्रत्येक बावड़ियों के मध्य एक-एक ‘दधिमुख’ पर्वत हैं। इस प्रकार चार अंजनगिरि संबंद्दी चार-चार दधिमुख पर्वत होने से सोलह दधिमुख माने हैं।इन बावड़ियों के बाहिरी कोनों पर दो-दो रतिकर पर्वत हैं ऐसे ये रतिकर बत्तीस हो गये हैं।
इस प्रकार चार अंजनगिरि, सोलह दधिमुख एवं बत्तीस रतिकर ऐसे ४±१६±३२५ि२ बावन पर्वतों पर एक-एक जिनमंदिर बने हुये हैं। ये अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।वह सिंहकेतु देव इन मंदिरों की वंदना किया करता था। इस प्रकार दो सागर की आयु पूर्ण कर वह देव वहां से च्युत होकर मध्यलोक में आ गया।विद्याधर राजा कनकोज्ज्वल-तदनंतर वहां से च्युत होकर धातकीखंड द्वीप के पूर्वमेरू से पूर्व की ओर जो विदेहक्षेत्र है उसके मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में अत्यंत श्रेष्ठ ‘कनकप्रभ’ नगर है। वहां के राजा कनकपुंख विद्याधर और उनकी महारानी कनकमाला के कनकोज्ज्वल नाम का पुत्र हुआ। कालांतर में राजा कनकपुंख ने पुत्र को राज्यभार सपि दिया। एक दिन राजा कनकोज्ज्वल अपनी रानी कनकवती के साथ वंदना करने के लिये मंदरगिरि-सुमेरू पर्वत पर पहुंच गये। वहां भगवंतों की प्रतिमाओं के दर्शन करके महामुनि ‘श्रीप्रियमित्र’ गुरू के दर्शन किये वे मुनिराज अवधिज्ञानी थे। उन विद्याधर राजा कनकोज्ज्वल ने भक्तिपूर्वक महामुनि की तीन प्रदक्षिणा देकर उन्हें नमस्कार किया और प्रश्न किया-
हे भगवन्! धर्म का स्वरूप कहिए।
महामुनि ने कहा-
धर्मो दयामयो धर्मं, श्रय धर्मेण नीयसे।
मुक्तिं धर्मेण कर्माणि, छिंधि धर्माय सन्मतिम्।।
देहि नापेहि धर्मात्त्वं, याहि धर्मस्य भृत्यताम्।
धर्मे तिष्ठ चिरं धर्मं, पाहि मामिति चिंतय।।
हे वत्स! धर्म दयामय है, तुम धर्म का आश्रय करो, धर्म के द्वारा ही तुम मोक्ष के निकट पहुंच सकते हो, धर्म के द्वारा तुम कर्मबंधन का छेदन करो, धर्म के लिये सद्बुद्धि दो-लगावो, धर्म से पीछे मत हटो, धर्म की दासता स्वीकार करो, धर्म में स्थिर रहो और हे धर्म! तुम मेरी रक्षा करो। इस प्रकार धर्म का निश्चय करके सातों विभक्तियों के द्वारा धर्म का चिंतन करते रहो। ऐसा करने से तुम कुछ ही समय में-भवों में मोक्ष को प्राप्त कर लोगे।राजा कनकोज्ज्वल मुनिराज से धर्मरूपी रसायन का पान कर ऐसे संतुष्ट हुये जैसे कि प्यासा मनुष्य जल पाकर संतुष्ट होता है। राजा ने उसी क्षण भोगों से विरक्त हो वैराग्य भावना का चिंतन किया और समस्त परिग्रह का त्यागकर गुरूदेव से दीक्षा ग्रहण कर ली।बहुत दिनों तक अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हुये विहार किया। कभी वे वनों में आत्मा का ध्यान करते थे, कभी आतापन योग से स्थित हो संसार, शरीर और भोगों की असारता का चिंतन करते हुये चिच्चैतन्य स्वरूप आत्मा का चिंतन करते थे, कभी जिनमंदिरों में जाकर भगवंतों की वंदना करके नाना प्रकार की स्तुति करते हुये महान पुण्य का संचय किया करते थे।इस प्रकार संयम की साधना करते हुये आयु के अंत में संन्यास विधि से मरण करके संयम के प्रभाव से सातवें स्वर्ग में देव हो गये।सातवें स्वर्ग में देव-वहां देव उपपादशय्या से उठकर अवधिज्ञान को प्राप्त करके चिंतन करने लगे-म्निे जैनेश्वरी दीक्षा लेकर जो संयम धारण किया था उसी के फलस्वरूप यह देवों का वैभव प्राप्त किया है अत: धर्म के फल का चिंतन करते हुये सर्वप्रथम भगवान के मंदिर में जाकर भक्तिपूर्वक भगवान की पूजा की। अनंतर अपने देवपरिवार के बीच में बैठकर सभासदों में चर्चा करते थे। कभी-कभी अप्सराओं के नृत्य को देखते हुये देवों के सुखों का अनुभव करते थे।कभी-कभी मध्यलोक में आकर भगवान के समवसरण में पहुंचकर भगवान की स्तुति-वंदना करके कल्प्ावासी देवों की सभा में बैठ गये। भगवान की दिव्यध्वनि सुनकर संतुष्ट हुये पुन: अपने पूर्वभवों को तथा अग्रिम भवों को पूछने लगे। भगवान की दिव्यध्वनि से अपने आगे के भवों को सुनकर अतीव प्रसन्न हुए कि म् िअब सातभवों के बाद नियम से संसार के दु:खों से छुटकारा प्राप्त कर लूंगा।कभी-कभी ये देव समवसरण के वैभव को देखकर चिंतन किया करते थे कि सचमुच में एक दिन भरतक्षेत्र के अंतिम तीर्थंकर के रूप में मेरा भी समवसरण देवों द्वारा बनाया जावेगा यह सब पुण्य की ही महिमा है।
कभी-कभी ये देव स्वर्ग में ही अपने नंदनवन में देव-देवांगनाओं के साथ जलक्रीड़ा, गीत, संगीत, नृत्य आदि करते हुये आमोद-प्रमोद में समययापन करते थे।
कभी तत्त्वचर्चा में निमग्न होते थे तो कभी अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करते हुये महान पुण्य का संचय करते थे।
पुन: पुन: मध्यलोक में आकर भगवान के समवसरण में नाना प्रकार के प्रश्नों से बारहगणों के भव्यों को भी संतुष्ट कर रहे थे। प्रश्नों के उत्तर में श्रीगणधर देव कहते थे-
भव्यात्माओं! सुनो, यह अहिंसा प्रधान धर्म चार प्रकार का है। जीवदया, रत्नत्रय, वस्तुस्वभाव और दशलक्षणस्वरूप। प्राणीमात्र के प्रति करूणा भावना, संकल्पीहिंसा का त्याग या पूर्णरूपेण त्रस, स्थावरस्वरूप षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना ‘अहिंसा धर्म जीवदया धर्म है।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रस्वरूप रत्नत्रय को स्वीकारना रत्नत्रय धर्म है।
जीवका स्वरूप ज्ञानदर्शनमय है, पुद्गल का स्वभाव अचेतन-जड़ है। इत्यादि प्रकार से द्रव्यों के स्वरूप का चिंतन करना। अनेकांत स्वरूप वस्तु का चिंतन करना वस्तु स्वभाव धर्म है।
उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दशधर्म ही सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं। श्रावक इन धर्मों का एकदेश पालन करते हैं और साधुगण इन्हें पूर्णरूप से पालन करते हुये उसी भव से या दो चार भवों से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
इस प्रकार वहां सातवें-लांतव नामक स्वर्ग में तेरह सागर की आयु प्रमाण सुखों का अनुभव कर अंत में समाधिपूर्वक प्राणों को छोड़कर इस मध्यलोक में अवतीर्ण हो गये।
राजा हरिषेण-इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशल देश है। उसकी राजधानी साकेतपुरी-अयोध्या में राजा वङ्कासेन की रानी शीलवती थीं। सातवें स्वर्ग से च्युत होकर उस देव का जीव रानी शीलवती के गर्भ में आ गया। रानी ने उत्तम-उत्तम दोहले प्राप्त किये। नव माह के बाद पुत्र का जन्म होते ही राजा ने पूरे शहर में उत्सव मनाया। पुत्र का नाम ‘हरिषेण’ रखा। बाल्यक्रीड़ाओं के द्वारा माता-पिता आदि परिवार के जनों को हर्षित करते हुये जहां राजमहल में आनंद की वृद्धि कर रहे थे वहीं पूरी अयोध्या के नागरिकों के आनंद समुद्र को बढ़ा रहे थे। युवावस्था में राजा वङ्कासेन ने अपने पुत्र को राज्य सपि दिया।कभी-कभी ये राजा हरिषेण अपनी राज्यसभा में नर्तकियों का नृत्य आदि देखते हुये आनंद विभोर हो जाते थे। कभी-कभी धर्मानुष्ठानों से प्रजा को धर्म में लगाकर आनंद का अनुभव करते थे। एक बार विरक्त होकर सारहीन माला के समान समस्त राज्यलक्ष्मी का त्याग कर दिया तथा उत्तम व्रत और शास्त्रज्ञान से सुशोभित श्री श्रुतसागर महामुनि के पास जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा के समय उनके गुरू ने ‘शिष्य हरिषेण’ के मस्तक पर विधिवत् मंत्रों से अट्ठाईस मूलगुणों के संस्कार किये थे। दीक्षा के अनंतर कुछ समय गुरू के निकट रहकर पश्चात् गुरू की आज्ञा से जिनकल्पी एकलविहारी महामुनि बन गये।तब ये हरिषेण मुनिराज पर्वतों की चोटी पर बैठकर ध्यान करते थे। गर्मी के दिनों में पर्वत की चोटी पर ध्यान करना आतापन योग है। वर्षाऋतु में वृक्षों के नीचे ध्यान लगाकर बैठ जाना एवं शीतऋतु में खुले मैदान में ध्यान करना यह त्रिकाल योग कहलाता है। कहा भी है-
गिम्हे गिरिसिहरत्था वरिसायाले रूक्खमूलरयणीसु।
सिसिरे बाहिरसयणा ते साहू वंदिमो णिच्चं।।
ग्रीष्मकाल में पर्वत के शिखर पर स्थित होकर, वर्षाकाल में रात्रि में वृक्षों के नीचे बैठकर एवं शीतकाल में खुले मैदान में स्थित होकर जो तपस्या करते हैं ऐसे साधुओं की हम नित्य ही वंदना करते हैं।
कभी-कभी ये महामुनि उद्यान में आये हुये शिष्यसमूह के लिये धर्म का उपदेश दिया करते थे। यह धर्मामृत की वर्षा सच्चे साधु ही कर सकते हैं। आज कल इस पंचमकाल में यहां इस भरतक्षेत्र में ऐसे सत्यधर्म के उपदेशक मुनि बहुत ही दुर्लभ हैं। कहा भी है-
कलिप्रावृड् मिथ्यादिङ्मेघच्छन्नासु दिक्ष्विह।
खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित-क्वचित।।
इस कलिकालरूपी वर्षाकाल में चारों तरफ से मिथ्यात्व के बादल छाये हुये हैं। ऐसे समय में सच्चे धर्म के उपदेष्टा जुगुनू के समान कहीं-कहीं ही चमकते हैं। यह बड़े खेद की बात है।
किंतु महामुनि हरिषेण तो चतुर्थकाल में एक महान साधु हुये हैं। इन्होंने व्रतों की विशुद्धि को बढ़ाते हुये अंत में समाधिपूर्वक शरीर को छोड़ा और महाशुक्र नाम के दसवें स्वर्ग में देवपद को प्राप्त हो गये।
दसवें स्वर्ग में देव-वहां पर महाशुक्र स्वर्ग में हरिषेणचर देव अपनी देवांगनाओं और देवपरिवार के साथ अनेक दिव्यसुखों का अनुभव करते रहते थे। कभी-कभी वे मध्यलोक में संयम की मूर्ति महामुनियों के दर्शनार्थ आ जाते थे, यहां आकर मुनियों की वंदना, भव्िाäत करके उनके प्रवचन सुनते थे अनेक प्रकार के प्रश्नों से जिनधर्म का विशेष ज्ञान प्राप्त करते थे। कभी-कभी वे मध्यलोक के ४५८ जिनमंदिरों की वंदना करते थे। कभी-कभी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के हिमवान पर्वत पर आकर पद्मसरोवर आदि के कमलों की सुंदरता देखते हुये ‘श्रीदेवी’ के महल में मंदिर का भी दर्शन करते थे। हिमवान पर्वत के ग्यारह कूटों में जो पूर्व दिशा का सिद्धकूट है वहां जाकर अकृत्रिम जिनमंदिर के जिन प्रतिमाओं की वंदना करते पुन: विजयार्ध पर्वत के नव कूटों में से जो पूर्व दिशा का एक सिद्धकूट है उसके जिनमंदिर की वंदना करके गंगा-सिंधु नदियों की रमणीयता देखते थे। जो भरतक्षेत्र की रचना है उसका अवलोकन करते हुये छह खण्डों का विभाजन एवं आर्यखंड में अयोध्या, सम्मेदशिखर जैसे शाश्वत तीर्थों की वंदना करके विजयार्ध के विद्याधरों की श्रेणियों में भी जो कृत्रिम जिनमंदिर हैं तथा वहां जो केवली, श्रुतकेवली, महामुनि आदि तत्काल में विद्यमान थे उनके दर्शन करके प्रसन्न होते थे।देवों में सम्यग्दृष्टि देवों का तो यह स्वभाव ही मानना चाहिये कि मध्यलोक में आकर धर्मायतनों के दर्शन करना, तीर्थंकरों के समवसरण में जाना,अकृत्रिम-कृत्रिम जैन मंदिर और जिनप्र्रतिमाओं के दर्शन करना।
जंबूद्वीप, धातकीखंड, पुष्करार्धद्वीप ऐसे ढ़ाई द्वीप के तथा नंदीश्वर द्वीप, कुंडलवर द्वीप और रूचकवर द्वीप के अकृत्रिम जिन मंदिरों की वंदना करना, सर्वत्र विक्रिया के बल से विचरण करते हुये भरतक्षेत्र आदि की सुंदरता को देखना इत्यादि आनंद के लिये ही नहीं प्रत्युत् महान सातिशय पुण्यबंध के लिये भी कारण माने गये हैं।वर्तमान में यह जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप की सुंदर भव्य आकर्षक रचना हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर बनी हुई है। इसे देखकर आप सभी भव्यात्मा जंबूद्वीप की, भरतक्षेत्र की एवं विदेहक्षेत्र आदि की सुंदरता का अनुमान लगा सकते हैं। आज जो महानुभाव हस्तिनापुर पहुँचकर जम्बूद्वीप का दर्शन करते हैं उनके मुख से एकबार सहसा यह वाक्य निकलता है कि -‘अहो! हम तो स्वर्ग में आ गये! इससे अच्छा स्वर्ग भला और क्या होगा ‘
जब कृत्रिम रचना को देखकर इतना आनंद होता है तब भला जो अकृत्रिम रचनाओं का साक्षात्कार करते होंगे उन्हें कितना आनंद प्राप्त होता होगा‘ वास्तव में देवगण ऐसे आनंद का अनुभव करते रहते हैं।इस प्रकार यह हरिषेणचर देव वहां दसवें स्वर्ग में सोलह सागर की आयुपर्यंत दिव्यसुखों का अनुभव करके अंत में वहां की आयुपूर्ण कर वहां से च्युत होकर मध्यलोक में आ गया।
प्रियमित्र चक्रवर्ती-धातकी खंड द्वीप की पूर्वदिशा संबंधी विदेहक्षेत्र के पूर्वभाग में स्थित पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र थे उनकी रानी का नाम मनोरमा था। इनके एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ उसका नाम ‘प्रियमित्र’ रखा गया। यह बालक धीरे-धीरे वृद्धि को प्राप्त हुआ पुन: चक्रवर्ती पद को प्राप्त कर समस्त भोगों का उपभोग किया।
चक्रवर्ती का वैभव-ऐरावत हाथी के समान चौरासी लाख हाथी, वायु के समान वेगशाली रत्नों से निर्मित चौरासी लाख रथ, पृथ्वी की तरह आकाश में भी गमन करने वाले अठारह करोड़ उत्तम घोड़े एवं योद्धाओं का मर्दन करने वाले ऐसे चौरासी करोड़ पदाति-पियादे थे।स्वयं चक्रवर्ती का शरीर वङ्कामय-वङ्कावृषभनाराचसंहनन, समचतुरस्रसंस्थान का था। छहखंड के सभी राजाओं में जितना कुछ बल होता है उन सबसे अधिक बल उनके एक शरीर में था। उनके चक्ररत्न के प्रभाव से छह खंड के सभी राजा उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करते थे। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों में नत थे।
चक्रवर्ती के छियानवे हजार रानियां थीं, जिनमें से बत्तीस हजार रानियां आर्यखंड की, बत्तीस हजार रानियां विद्याधरों की कन्यायें एवं बत्तीस हजार रानियां म्लेच्छ खंड में जन्में राजाओं की थीं। ये सब अप्सराओं के समान सुंदर थीं।बत्तीस हजार नाट्यशालायें थीं जिनमें हमेशा गीत, नृत्य, वाद्य आदि चलते रहते थे। स्वर्गपुरी के समान बहत्तर हजार नगर, नंदनवन जैसे बगीचों से शोभायमान छियानवें करोड़ गांव थे, निन्यानवें हजार द्रोणमुख थे जो कि समुद्र के समीपवर्ती थे एवं धन द्दान्य से अतिशय समृद्ध थे, अड़तालीस हजार पत्तन जोकि रत्नों की खान होने से रत्नाकर के समान थे, सोलह हजार ‘खेट’ जोकि कोट, अटारी, खाई और परकोटों से शोभायमान थे, समुद्र के बीच में होने वाले और कुभोगभूमिज मनुष्यों से भरे छप्पन अंतर्द्वीप थे जिनके चारों ओर खाई थी ऐसे चौदह हजार संवाह अर्थात् पर्वतों पर बसने वाले शहर थे।
भोजनशाला में चावल पकाने के लिये एक करोड़ बड़े-बड़े हंडे थे जिनमें बीज बोने की नली लगी हुई है ऐसे एक करोड़ हल थे, सात सौ कुक्षिवास थे, अठारह हजार आर्यखंड के म्लेच्छ राजा थे।
नवनिधियां-काल, महाकाल, नैसर्प, पांडुक, पद्म, माणव, पिंगल, शंख और सर्वरत्न ये नवनिधियों के नाम हैं।
काल निधि-से काव्य, कोष, अलंकार, व्याकरण आदि शास्त्र और वीणा, बांसुरी, नगाड़े आदि मिलते रहते हैं।
महाकाल निधि से-असि, मषि, कृषि आदि छह कर्मों के साधन ऐसे समस्त पदार्थ और संपदायें निरंतर उत्पन्न होती रहती हैं।
नैसर्प निधि-शय्या, आसन, मकान आदि देती है।
पांडुक निधि-समस्त धान्य और छहों रसों को उत्पन्न करत्ाी है।
पद्मनिधि-रेशमी, सूती आदि वस्त्र प्रदान करती थी।
शंखनिधि-सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत करने वाले सुवर्ण को देती है।
सर्वरत्ननिधि-इन्द्रनील, पद्मराग, वैडूर्य, स्फटिक आदि अनेक प्रकार के रत्नों को एवं नाना प्रकार की मणियों को देती है।
इन नवनिधियों के साथ चक्रवर्तियों के चौदह रत्न होते हैं। जिनमें सात सजीव होते हैं और सात निर्जीव माने हैं। ये सब रत्न पृथ्वी की रक्षा, विशाल ऐश्वर्य और उपयोग के साधन हैं। चक्र, छत्र, दण्ड, खड्ग, मणि, चर्म और कांकिणी ये सात निर्जीव रत्न हैं। सेनापति, गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, तक्ष-सिलावट और पुरोहित ये सात सजीव रत्न हैं।
प्रियमित्र चक्रवर्ती ने सुदर्शन नामक चक्ररत्न से छहों खंडों को जीत लिया था। उनका ‘सूर्यप्रभ’ नाम का छत्र राजसभा में जगमग ज्योति पैâलाता हुआ सूर्य की प्रभा को भी लज्जित करता रहता था। दण्डरत्न से विजयार्ध पर्वत की गुफा का द्वार खोला गया था। सौजन्दक तलवार को देखकर वैरी राजा कंपित होकर चक्रवर्ती की शरण में आ जाते थे। मणि-चूड़ामणि रत्न अंधकार को दूर कर देता था। चर्मरत्न से मेघकृत जल के उपद्रव से सेना की रक्षा होती थी। कांकिणीरत्न से गुफा में सूर्यचंद्र के आकार बनाकर प्रकाश पैâलाया जाता था। सेनापति रत्न दिग्विजय में सभी योद्धाओं से अजेय रहता था। कामवृष्टि नामक गृहपति रत्न घर के सारे काम काज संभालता था। विजयगिरि नाम का उत्तम हाथी रत्न चक्रवर्ती का वाहन था। पवनंजय नाम का अश्वरत्न (घोड़ा) स्थल के समान समुद्र में भी दौड़ लगाता था। युवति नाम की स्त्रीरत्न चक्रवर्ती के भोगसुख का साधन थी जोकि अपने हाथ की शक्ति से वङ्का को भी चूर कर सकती थी। भद्रमुख नाम का तक्षरत्न दिग्विजय के समय स्थान-स्थान पर सुंदर महलों का निर्माण करता था और पुरोहित रत्न सभी निमित्तज्ञान आदि में प्रवीण हुआ संपूर्ण द्दार्मिक कार्यों को संपन्न कराता था।
दशांग भोग-चक्रवर्ती के रत्नों के साथ ही दशांग भोग माने गये हैं-
१. नवनिधियाँ २. पट्टरानियाँ ३. नगर ४. शय्या ५. आसन ६. सेना ७. नाट्यशालायें ८.भाजन ९.भोजन और १०. वाहन ये दश प्रकार के भोगोपभोग के साधन रहते हैं।
सोलह हजार गणबद्ध जाति के व्यंतर देव हाथ में तलवार लेकर निधिरत्न और चक्रवर्ती की रक्षा करने में तत्पर रहते थे। प्रियमित्र चक्रवर्ती ने पूर्वपुण्य के प्रभाव से ऐसे चक्रवर्ती के वैभव को प्राप्त किया।
उन्होंने चक्ररत्न के प्राप्त होने पर दिग्विजय के लिये प्रस्थान करके छहखंड पृथ्वी को जीत लिया पुन: न्यायनीतिपूर्वक एकछत्र शासन करते हुये प्रजा को पुत्र के समान सुख प्रदान किया।
एक दिन ‘क्षेमंकर’ भगवान के समवसरण में पहुंचकर भगवान के दर्शन किये। मनुष्यों के कोठे में बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि से तत्वों का उपदेश सुना पुन: संसार के समस्त भोगों को क्षणभंगुर मानकर विरक्त हो गये। वापस आकर ‘सर्वमित्र’ नाम के अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य देकर एक हजार राजाओं के साथ प्रभु के श्रीचरणों में दीक्षित हो गये। उस समय पांच समितियों और तीन गुप्तियोंरूप आठ प्रवचनमातृकाओं के साथ-साथ अहिंसा महाव्रत आदि पांच महाव्रत उन मुनिराज में पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त हुये थे। बहुत काल तक पृथ्वी तल पर विहरण करते हुये निर्जनवनों में ध्यान करते थे। कभी-कभी शरीर को रत्नत्रय का साधन मानकर श्रावक के घर में छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय टालकर करपात्र में शुद्ध प्रासुक आहार ग्रहण करते थे पुन: वन में जाकर आत्मसिद्धि हेतु योगसाधना में लीन हो जाते थे। इस प्रकार मुनिचर्या का पालन करते हुये अन्त में समाधिपूर्वक शरीर को छोड़कर महान त्याग के प्रभाव से बारहवें स्वर्ग में देव हो गये।
बारहवें स्वर्ग के देव-प्रियमित्र चक्रवर्ती महामुनि ने सहस्रार स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया, सूर्यप्रभ इनका नाम था। वहां उनकी आयु अठारह सागर प्रमाण थी। अणिमा, महिमा आदि अनेक ऋद्धियों से सहित थे। सबसे पहले ये देव जिनमंदिरों में पहुंचते हैं। जिनमंदिर में प्रतिमाओं की वंदना स्तुति करके पूजा की। इन जिनमंदिरों में एक सौ आठ जिनप्रतिमायें विराजमान रहती हैं। प्रत्येक मंदिर में झारी, कलश, दर्पण, चंवर, बीजना, सिंहासन, छत्र और ठो ये आठ मंगल द्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठ रहते हैं। इन मंदिरों में दुंदुभि, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, भेरी, झांझ, वीणा और बांसुरी आदि वाद्यों के उत्तम-उत्तम शब्द सदैव होते रहते हैं।
प्रत्येक जिनप्रतिमायें आठ प्रातिहार्यों से सहित हैं। अशोकवृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चामर, सिंहासन, छत्रत्रय, भामंडल और देव-दुंदुभि ये आठ प्रातिहार्य माने हैं।
सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षय के निमित्त गाढ़ भक्ति से सहित होकर विविध अष्ट द्रव्यों से जिनेंद्र प्रतिमाओं की पूजा करते हैं।
तीनों लोकों में अकृत्रिम जिनमंदिरों की संख्या का प्रमाण बताया है। अधोलोक में नरकधरा के ऊपर भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनमंदिर हैं। मध्यलोक में जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप से लेकर रूचकवर’ नाम के तेरहवें द्वीप तक चार सौ अट्ठावन मंदिर हैं । इनमें से जंबूद्वीप में सुमेरूपर्वत के १६, गजदंत के ४, जंबूवृक्ष शाल्मलिवृक्ष के २, सोलह वक्षारों के १६, चांैतीस विजयार्ध पर्वतों के ३४ एवं षट् कुलाचलों के ६ ये १६±४±२±१६±३४±६७ि८ हुये। ऐसे पूर्वधातकी खंड के ७८, पश्चिम धातकाr खंड के ७८, पूर्व पुष्करार्धद्वीप के ७८, पश्चिम पुष्करार्ध द्वीप के ७८, इष्वाकार के ४, मानुषोत्तर पर्वत के ४, नंदीश्वर द्वीप के ५२, कुंडलवर द्वीप के ४ और रूचकवर द्वीप के ४ ऐसे ७८±७८±७८±७८±७८± ४±४± ५२±४±४४ि५८ हो गये।
ऊर्ध्वलोक के चौरासी लाख, सत्तानवे हजार तेईस हैं। स्वर्गों के एवं नवग्रैवेयक आदि के जितने विमान हैं उतने ही जिनमंदिर हैं। सौधर्मस्वर्ग में ३२ लाख, ईशान में २८ लाख, सानत्कुमार में १२ लाख, माहेन्द्र में ८ लाख, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर युगल में ४ लाख, लांतव-कापिष्ठ में ५० हजार, शुक्र-महाशुक्र में ४० हजार, शतार सहस्रार में ६ हजार, आनत-प्राणत, आरण और अच्युत ऐसे चार कल्पों में सात सौ तीन अधोग्रैवेयक १११, तीन मध्यग्रैवेयक में १०७, तीन ऊर्ध्वग्रैवेयक में ९१, नव अनुदिश में ९ और पांच अनुत्तर में ५ ऐसे सब मिलाकर ३२०००००±२८०००००±१२०००००±८०००००±४०००००±५००००± ४००००±६०००± ७००±१११±१०७±९१±९±५८ि४९७०२३ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। कुल मिलाकर ७७२०००००±४५८±८४९७०२३·८५६९७४८१ अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
इसके आगे व्यंतर देवों के यहां और ज्योतिषी देवों के यहां असंख्यातों जिनमंदिर माने गये हैं। इन प्रत्येक जिनमंदिरों में १०८-१०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं अत: उपयुकर््त जिनमंदिरों के जिन प्रतिमाओं की संख्या नव सौ पचीस करोड़+ त्रेपन लाख, सत्ताइस हजार, नव सौ अड़तालीस हैैंै।
नव सौ पचीस कोटी त्रेपन, लाख सताइस सहस प्रमाण।
नव सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, शिवसुख हेतू करूँ प्रणाम।।
सम्यग्दृष्टि देव इन मंदिरों में से मध्यलोक के अकृत्रिम जिन मंदिरों की तो अतीव भक्ति से पूजा करते ही हैं जहां जहां संभव है वहां-वहां जाकर वे सूर्यप्रभ देव जिनप्रतिमाओं की वंदना किया करते हैं शेष जिनमंदिरों की परोक्ष से ही वंदना का पुण्य संचय किया करते थे।
कभी-कभी ये देव अपने देव परिवार के साथ मध्यलोक में आकर महामुनियों की वंदना करके उनके श्रीमुख से धर्मोपदेश सुन कर प्रसन्न होते हैं। इस प्रकार धर्माराधना में समय व्यतीत किया करते हैं।
आयु के अंत में स्वर्ग में ही सुंदर उद्यान में कल्पवृक्ष के नीचे महामंत्र का स्मरण करते हुये ध्यान में लीन हो गये। देव शरीर से प्राण निकल गये और वैक्रियिक शरीर तत्क्षण ही कपूर जैसा विलीयमान हो गया। वे मध्यलोक में इसी भरत क्षेत्र के छत्रपुर नगर में रानी के पुत्र हो गये।
नंदनमहाराज-जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में एक छत्रपुर नाम का नगर था। वहां के राजा नंदिवर्धन की रानी वीरवती के गर्भ में उपर्युक्त सूर्यप्रभ देव का जीव आ गया। नव माह के बाद रानी ने पुत्र को जन्म दिया। पूरे राज्य में आनंद मंगल होने से राजा ने पुत्र का नाम ‘नंद’ रखा इसे नंदन भी कहते थे। नंदन बालक माता की अंगुली पकड़कर खेलते हुये महाराजा नंदिवर्धन का मनोरंजन किया करता था।
पुत्र के यौवनावस्था को प्राप्त होने पर राजा ने अपना राज्यभार पुत्र को सपि दिया, क्योंकि यही सनातन परंपरा है। राजा नंद ने भी चिरकाल तक राज्य संचालन करते हुये प्रजा को खूब संतुष्ट किया। इष्ट-अभिलषित राज्य का उपभोग कर राजा नंद ने ‘प्रोष्ठिल’ नाम के गुरू के पास जैनेश्वरी दीक्षाग्रहण कर ली। मुनियों के संघ में धर्मोपदेश देकर सच्चे मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन कराते रहते थे।
इन्होंने ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष से गुरू के सान्निध्य में ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। अंग और पूर्वरूप श्रुत का ज्ञान गुरू के मुख से ही प्राप्त होता है कभी किसी को बिना गुरू के नहीं होता है।
तीर्थंकर प्रकृति का बंध-
अच्युतेन्द्र-नंद महामुनि समाधिमरण के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग में पुष्पोत्तर विमान में ‘इन्द्र’ हो गये। इस सोलहवें स्वर्ग का नाम अच्युत है अत: ये इन्द्र अच्युतेन्द्र कहलाते थे।
देवों की उत्पत्ति के बारे में मूलाचार में कहा है-
देहस्स य णिव्वत्ती भिण्णमुहुत्तेण होइ देवाणं।
सव्वंगभूसणगुणं जोव्वणमवि होदि देहम्मि।।
टीका में-जोव्वणं- यौवनं प्रथमवय: परमरमणीयावस्था सर्वालंकारसमन्विता अतिशयमतिशोभनं सर्वजननयनाल्हादनपरं, होदि- भवति, देहम्मि-देहे शरीरे। देवानां यौवनमपि शोभनं सर्वांगभूषणयुतं तेनैव भिन्नमुहूर्तेन भवतीति।
भवनवासी आदि चारों प्रकार के देवों के कुछ कम दो घड़ी के काल से-कुछ काम अंतर्मुहूर्त के काल से छहों पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं। सर्वकार्य करने में समर्थ शरीर भी पूर्ण बन जाता है। हाथ-पैर, मस्तक, कंठ आदि को विभूषित करने वाले वस्त्र आभूषण और नाना गुण भी पूर्ण हो जाते हैं। वह देव शरीर नव यौवन से संपन्न, परमरमणीय, सर्वालंकार से समन्वित, अतिशय सुंदर और सर्वजनों को आल्हादित करने वाला हो जाता है।इन अच्युतेन्द्र की आयु बाईस सागर प्रमाण थी, तीन हाथ ऊंचा शरीर था, द्रव्य से- शरीर वर्ण से और भाव से दोनों ही शुक्ल लेश्यायें थीं, बाईस पक्ष में एक बार श्वास लेते थे। बाईस हजार वर्ष में एक बार मानसिक अमृत का आहार था, सदा मानसिक प्रवीचार-कामसेवन था अर्थात् मन में ही देवांगनाओं का स्मरण करने से कामभोग की तृप्ति हो जाती थी। अणिमा, महिमा आदि दिव्य ऋद्धियों से नाना प्रकार के सुखों का अनुभव करते थे। उनका अवधिज्ञान छठी पृथ्वी तक की बातों को जान लेता था, उनके विक्रिया की सीमा थी अर्थात् उनके अवधिज्ञान क्षेत्र के बराबर थी। अपने सामानिक आदि देवों और देवांगनाओं से घिरे हुये वे इंद्रराज अपने पुण्य कर्म के ाfवशेष उदय से सुखरूपी सागर में सदा निमग्न रहते थे।
कभी वे अपनी इन्द्रसभा में देव अप्सराओं का नृत्य देखते थे। कभी देव-देवियों के साथ मध्यलोक में जाकर द्वीप-समुद्रों की शोभा देखकर आनंद का अनुभव किया करते थे।
मध्यलोक में अकृत्रिम जिनमंदिर तेरह द्वीपों तक ही हैं अत: कभी-कभी ये इन्द्रराज रूचकवर द्वीप आदि में पहुंचकर १००८ दिव्य क्षीर सागर के जल से भरे कलशों से जिनप्रतिमाओं का महाभिषेक करके उत्सव मनाते थे, अष्टद्रव्य से पूजा करते थे और महान पुण्य का संचय कर लिया करते थे।
इस प्रकार ये अच्युतेन्द्र बाइस सागर पत दिव्य सुखों का अनुभव करके जब मनुष्य लोक में आने वाले थे, आयु में छह माह शेष रह गये तक सौधर्मेन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी कि इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखंड में कुंडलपुर नगर में अंतिम तीर्थंकर का जन्म होने वाला है अत: तुम जाकर जन्म से पंद्रह महिने पूर्व से ही रत्नों की वर्षा करना प्रारंभ कर दो। अच्युतेन्द्र सुरराज अपने पुष्पोत्तर विमान में ही थे और यहां कुंडलपुर का माहात्म्य बढ़ने लगा था।पंचकल्याणक वैभव-जब अच्युतेन्द्र की आयु छह मास बाकी रह गई तब इस भरत क्षेत्र के विदेह नामक देश में कुंडलपुर१ नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के आँगन में प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ प्रमाण रत्नों की धारा बरसने लगी। आषाढ़ शुक्ल षष्ठी के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी प्रियकारिणी ने सोलह स्वप्न देखे और पुष्पोत्तर विमान से अच्युतेन्द्र का जीव च्युत होकर रानी के गर्भ में आ गया। प्रात:काल राजा के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर रानी अत्यन्त संतुष्ट हुई। तदनंतर देवों ने आकर गर्भ कल्याणक उत्सव मनाकर माता-पिता का अभिषेक करके उत्सव मनाया।नव मास पूर्ण होने के बाद चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन रानी त्रिशला ने पुत्र को जन्म दिया। भगवान महावीर का जन्म तेरस की रात्रि में हुआ है ऐसा जयधवला में वर्णित है-
‘आषाढजोण्हपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव-णाहवंस-सिद्धत्थणरिंदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्ख-तेरसीए रत्तीए उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाणजिणिंदो२।।”
आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कुंडलपुर नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की रानी त्रिशला देवी के गर्भ में आकर और वहां नव मास आठ दिन रहकर चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुये वर्द्धमान जिनेन्द्र ने जन्म लिया। उस समय देवों के स्थानों में अपने आप वाद्य बजने लगे, तीनों लोकों में सर्वत्र एक हर्ष की लहर दौड़ गई। सौधर्म इन्द्र ने बड़े वैभव के साथ सुमेरूपर्वत की पांडुकशिला पर क्षीरसागर के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। इन्द्र ने उस समय उनके ‘वीर” और ‘वर्धमान” ऐसे दो नाम रखे।
श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ पच्चास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे। उनकी आयु भी इसी में शामिल है। कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु थी, सात हाथ ऊँचे, स्वर्ण वर्ण के थे। एक बार संजय और विजय नाम के चारणऋद्धिधारी मुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न होने से भगवान के जन्म के बाद ही वे उनके समीप आकर उनके दर्शन मात्र से ही संदेह से रहित हो गये तब उन मुनि ने उन बालक का ‘सन्मति” नाम रखा। किसी समय संगम नामक देव ने सर्प बनकर परीक्षा ली और भगवान को सफल देखकर उनका ‘महावीर” यह नाम रखा।
तीस वर्ष के बाद भगवान को पूर्वभव का स्मरण होने से वैराग्य हो गया तब लौकान्तिक देवों द्वारा स्तुति को प्राप्त भगवान ने ज्ञातृवन में सालवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और तत्काल मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त कर लिया। पारणा के दिन कूलग्राम की नगरी के कूल नामक राजा के यहाँ खीर का आहार ग्रहण किया। किसी समय उज्जयिनी के अतिमुक्तक वन में ध्यानारूढ़ भगवान पर महादेव नामक रूद्र ने भयंकर उपसर्ग करके विजयी भगवान का ‘महतिमहावीर” नाम रखकर स्तुति की। किसी दिन कौशाम्बी नगरी में सांकलों में बंधी चंदनबाला ने भगवान को पड़गाहन किया तब उसकी बेड़ी आदि टूट गई। मिट्टी का सकोरा स्वर्णपात्र बन गया एवं कोदों का भात शालीचावल की खीर बन गया तभी सती चंदना ने नवधाभक्ति पूर्वक महामुनि महावीर को आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया।
छद्मस्थ अवस्था के बारह वर्ष बाद जृंभिक ग्राम की ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में सालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला दशमी के दिन भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हो गया। उस समय इन्द्र ने केवलज्ञान की पूजा की। भगवान की दिव्यध्वनि के न खिरने पर इन्द्र गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण को युक्ति से लाये तब उनका मान गलित होते ही वे भगवान से दीक्षित होकर मन:पर्यय ज्ञान और सप्तऋद्धि से विभूषित होकर प्रथम गणधर हो गये तब भगवान की दिव्यध्वनि खिरी। श्रावण कृष्ण एकम के दिन दिव्यध्वनि को सुनकर गौतम गणधर ने सायंकाल में द्वादशांग श्रुत की रचना की। इसके बाद वायुभूति आदि ग्यारह गणधर हुए हैं। भगवान के समवसरण में मुनीश्वरों की संख्या चौदह हजार थी, चंदना आदि छत्तीस हजार आर्यिकाएं थीं, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। बारह गणों से वेष्टित भगवान ने विपुलाचल पर्वत पर और अन्यत्र भी आर्य खंड में बिहार कर सप्ततत्व आदि का उपदेश दिया।
अंत में पावापुर नगर के मनोहर नामक वन में अनेक सरोवरों के बीच शिलापट्ट पर विराजमान होकर कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि को अंतिम प्रहर में स्वाति नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष पद को प्राप्त कर लिया। तब देवों ने मोक्ष कल्याणक की पूजा कर दीप मालिका जलायी थी। तब से लेकर आज तक कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जाता है।
भगवान के जीवन वृत्त से हमें यह समझना है कि मिथ्यात्व के फलस्वरूप जीव त्रस स्थावर योनियों में परिभ्रमण करता है। सम्यक्त्व और व्रतों के प्रसाद से चतुर्गति के दुखों से छूटकर शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है अत: मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यग्दृष्टि बन करके व्रतों से अपनी आत्मा को निर्मल बनाना चाहिए।
भगवान महावीर निर्वाणभूमि पावापुरी जल मंदिर
पावापुरी में सरोवर के मध्य स्थित जल मंदिर ही भगवान महावीर की निर्वाणभूमि है।
श्री पूज्यपाद आचार्य ने निर्वाणभक्ति में कहा है-
पद्मवनदीर्घिकाकुल-विविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्ये।
पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थित: स मुनि:।।१६।।
कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरज:।
अवशेषं संप्राप्द्-व्यजराममरमक्षयं सौख्यम् ।।१७।।
परिनिर्वृतं जिनेन्द्रं, ज्ञात्वा विबुधा ह्यथाशु चागम्य।
देवतरूरक्तचंदन – कालागुरूसुरभिगोशीर्षै:।।१८।।
अग्नीन्द्राज्जिनदेहं मुकुटानलसुरभिधूपवरमाल्यै:।
अभ्यर्च्य गणधरानपि, गता दिवं खं च वनभवने।।१९।।
पुनश्च-
पावापुरस्य बहिरून्नतभूमिदेशे, पद्मोत्पलाकुलवतां सरसां हि मध्ये।
श्री वर्द्धमानजिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान् प्रविधूतपाप्मा।।२४।।
श्रीगुणभद्र आचार्य ने उत्तरपुराण में कहा है-
क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनान्तरे।
बहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले।।५०९।।
स्थित्वा दिनद्वयं वीतविहारो वृद्धनिर्जर:।
कृष्णकार्तिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये।।५१०।।
स्वातियोगो तृतीयेद्ध: शुक्लध्यानपरायण:।
कृतत्रियोगसंरोध: समुच्छिन्नक्रियं श्रित:।।५११।।
हताघातिचतुष्क: सन्नशरीरो गुणात्मक:।
गन्ता मुनिसहस्रेण निर्वाणं सर्ववा०िछतम्।।५१२।।
तदेव पुरूषार्थस्य पर्यन्तोऽनन्तसौख्यकृत्।
अथ सर्वेऽपि देवेन्द्रा यह्नन्द्रमुकुटस्फुरत्।।५१३।।
हुताशनशिखान्यस्त-तद्देहा मोहविद्विषम्।
अभ्यर्च्य गन्धमाल्यादि-द्रव्यैर्दिव्यैर्यथाविधि।।५१४।।
वन्दिष्यन्ते भवातीतमर्थ्यैर्वन्दारव: स्तवै:।
वीरनिर्वृतिसम्प्राप्तदिन एवास्तघातिक:।।५१५।।
भविष्याम्यहमप्युद्यत्केवलज्ञानलोचन:।
भव्यानां धर्मदेशेनविहृत्य विषयांस्तत:१।।५१६।।
यहाँ अभिप्राय यह है कि पावापुरी के मनोहर नाम के उद्यान में कमलों से व्याप्त सरोवर के मध्य महामणिमयी शिला पर भगवान विराजमान हुए उस समय समवसरण विघटित हो चुका था। श्रीविहार बंद कर दो दिन तक ध्यान में लीन हुए महावीर स्वामी ने कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के अंत में अघातिया कर्मों को नष्ट कर निर्वाणपद प्राप्त कर लिया। तभी सौधर्मेन्द्र आदि इन्द्रों ने अग्निकुमार इन्द्र के मुकुट के अग्रभाग से निर्गत अग्नि पर प्रभु का शरीर स्थापित कर दिव्य चन्दन आदि के द्वारा पूजा करके संस्कार कर दिया। उसी दिन गौतमस्वामी को वहीं पर केवलज्ञान प्रगट हुआ है।
हरिवंशपुराण में भी यही लिखा है एवं दीपावली पर्व तभी प्रारंभ हुआ, ऐसा कहा है-
जिनेंद्रवीरोऽपि विबोध्य संततं, समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम्।
प्रपद्य पावानगरीं गरीयसीं, मनोहरोद्यानवने तदीयके।।१५।।
चतुर्थकालेऽर्धचतुर्थमासवैâ-र्विहीनताविश्चतुरब्दशेषके।
स कार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसु-प्रभातसन्ध्यासमये स्वभावत:।।१६।।
अघातिकर्माणि निरूद्धयोगको, विधूय घातीन्धनवद् विबंधन:।
विबन्धनस्थानमवाप शंकरो, निरन्तरायोरूसुखानुबन्धनम् ।।१७।।
स प०चकल्याणमहामहेश्वर:, प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुर्विधै:।
शरीरपूजाविधिना विधानत:, सुरै: समभ्यर्च्यत सिद्धशासन:।।१८।।
ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया, सुरासुरैर्दीपितया प्रदीप्तया।
तदा स्म पावानगरी समन्तत:, प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते।।१९।।
तौिव च श्रेणिकपूर्वभूभुज:, प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्रजा:।
प्रजग्मुरिन्द्राश्च सुरैर्यथायथं, प्रभुचमाना जिनबोधिमर्थिन:।।२०।।
ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात्, प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते।
समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वरं, जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक्१।।२१।।
सार यही है कि भगवान महावीर पावापुरी के मनोहर उद्यान में विराजमान हुए। जब चतुर्थकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रहे तब स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमावस्या के दिन प्रात:-उषाकाल के समय स्वभाव से योग निरोधकर शुक्लध्यान के द्वारा सर्वकर्म नष्ट कर निर्वाण को प्राप्त हो गये। उस समय चार निकाय के देवों ने विधिपूर्वक भगवान के शरीर की पूजा की। अनन्तर सुर-असुरों द्वारा जलाई हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावानगरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। श्रेणिक आदि राजाओं ने भी प्रजा के साथ मिलकर भगवान के निर्वाणकल्याणक की पूजा की पुन: रत्नत्रय की याचना करते हुए सभी इन्द्र, मनुष्य आदि अपने-अपने स्थान चले गये।
उस समय से लेकर भगवान के निर्वाण कल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् भगवान् के निर्वाणकल्याणक की स्मृति में दीपावली पर्व मनाने लगे।
इन्द्र ने प्रभु के चरण उत्कीर्ण किए-
एक प्रकरण हरिवंशपुराण में आया है कि-
जब भगवान नेमिनाथ गिरनार पर्वत से निर्वाण प्राप्त कर चुके तब इन्द्रों ने भगवान की निर्वाणकल्याणक पूजा के बाद गिरनार पर्वत पर वङ्का से चरण उत्कीर्ण कर इस लोक में पवित्र सिद्धशिला का निर्माण किया तथा उसे जिनेन्द्र भगवान के लक्षणों के समूह से युक्त किया। यथा-
ऊर्जयन्तगिरौ वङ्काी वङ्कोणालिख्य पावनीम्।
लोके सिद्धशिलां चक्रे जिनलक्षण पंक्तिभि:१।।१४।।
श्री समन्तभद्रस्वामी ने भी स्वयंभूस्तोत्र में लिखा है-
ककुदं भुव: खचरयोषिदुषितशिखरैरलंकृत:।
मेघपटलपरिवीत तटस्वतव लक्षणानि लिखिताने वङ्किाणा।।१२७।।
वहतीति तीर्थमृषिभिश्च, सततमभिगम्यतेऽद्य च।
प्रीतिविततहृदयै: परितो, भूसमूर्जयन्त विश्रुतोऽचल:।।१२८।।
बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहते थे कि-इसी प्रकार से पावापुरी सरोवर के मध्य मणिमयी शिला से भगवान के मोक्ष जाने के बाद इन्द्रों ने वङ्का से यहाँ पर भी चरणचिन्ह उत्कीर्ण करके इस शिला को सिद्धशिला के समान पूज्य पवित्र बनाया था।
एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि भगवान केवलज्ञान होने के बाद पाँच हजार धनुष-बीस हजार हाथ प्रमाण ऊपर आकाश में अधर पहुँच जाते हैं। अधर मेंं ही कुबेर द्वारा समवसरण की रचना की जाती है। जब भगवान श्रीविहार करते हैं तब समवसरण विघटित हो जाता है और भगवान आकाश में अधर चलते हैं तब देवगण प्रभु के चरणों के नीचे स्वर्णमयी दिव्य कमलों की रचना करते रहते हैं। निर्वाणभक्ति के पूर्व भी जब भगवान योग निरोध करते हैं तब वे आकाश में अधर ही रहते हैं। फिर भी उनके ठीक नीचे की भूमि भगवान की निर्वाणभूमि मानी जाती है चूँकि सिद्ध भगवान सिद्धशिला पर भी ठीक उसी भूमि के ऊपर विराजमान हैं।इससे यह स्पष्ट है कि भगवान महावीर स्वामी जहाँ से मोक्ष गये हैं ठीक वहीं पर उनके शरीर का संस्कार किया गया है और वहीं पर सरोवर के मध्य मणिमयी शिला पर इन्द्रोेंं ने चरण उत्कीर्ण किए थे। ऐसे ही सम्मेदशिखर पर्वत के सभी टोंकोें पर इन्द्रों द्वारा चरण उत्कीर्ण किए गये हैं ऐसा मानना चाहिए।
ऐसी सिद्धभूमि पावापुरी को मेरा अनन्त-अनन्त बार नमस्कार होवे।
श्रुतज्ञान के भेद-श्रुतज्ञानके अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य से दो भेद भी माने हैं। जिसमें अंग प्रविष्ट के द्वादशांग रूप बारह भेद और अंग बाह्य के अनेकों भेद होते हैं। द्वादशांग में प्रत्येक के दो पदों का प्रमाण बतलाया गया है जो कि श्रुतस्कंध यंत्र में स्पष्ट है और जिन अक्षरों के पद न बन सकें वे ही अंग बाह्य कहलाते हैं। उनके सामायिक, स्तव, वंदना आदि भेद वर्णित हैं।
गणधर२ देव के शिष्य प्रशिष्यों द्वारा अल्पायु बुद्धि वाले प्राणियों के अनुग्रह के लिए अंगों के आधार से रचे गये संक्षिप्त ग्रंथ अंग बाह्य हैं। इसमें कालिक उत्कालिक आदि अनेकों भेद हंै। स्वाध्याय काल में जिनके पठन-पाठन का नियम है उन्हें कालिक एवं जिनके पठन-पाठन का नियत समय न हो उन्हें उत्कालिक कहते हैं।
भगवान की वाणी के चार अनुयोगरूप से भी विभाजित किया गया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग।
प्रथमानुयोग-चार पुरूषार्थों का आख्यान जिसमें है ऐसे ग्रन्थ-चरित ग्रन्थ, पुराण ग्रन्थ, पुण्योत्पादक शास्त्र, बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि के लिए खानस्वरूप शास्त्र प्रथमानुयोग कहलाते हैं। इस अनुयोग में मुख्य रूप से त्रेसठ शलाका पुरूषों के चरित का वर्णन किया जाता है।
करणानुयोग-जो शास्त्र लोकालोक के विभाग को, युग के परिवर्तन और चतुर्गतियों को दिखलाने के लिए दर्पण के समान है वह करणानुयोग है।
चरणानुयोग-श्रावक और मुनियों के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा का जिसमें वर्णन है वह चरणानुयोग है।
द्रव्यानुयोग-जिसमें जीव-अजीव, पुण्य-पाप और बंध मोक्ष का विस्तृत वर्णन है वे द्रव्यानुयोग शास्त्र हैं।१
वर्तमान काल के-
त्रेसठ शलाका पुरूषों के नाम-इस चतुर्थ काल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण ऐसे त्रेसठ महापुरूष होते हैं। इनमें से भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर और महाराज भरत प्रथम चक्रवर्ती हुुए हैं।
२४ तीर्थंकर-ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चंदप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अरनाथ, मल्लि, मुुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, और वर्धमान।
१२ चक्रवर्ती-भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुन्थु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त।
९ बलभद-विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ सुदर्शन, नंदी, नंदिमित्र, रामचन्द्र और पद्म।
९ नारायण-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरूषोत्तम, पुरूषसिंह, पुण्डरीक, दत्त, लक्ष्मण, और श्रीकृष्ण।
९ प्रतिनारायण-अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुंभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासन्ध।
ये शलाका पुरूष चतुर्थकाल में ही होते हैं। ऐसे ही ये महापुरूष पूर्वकाल में भी अनंतों हो चुके हैं और भविष्य में भी होते ही रहेंगे।
धर्म तीर्थ व्युच्छित्ति-पुष्पदंत से लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थों में जिनधर्म की व्युच्छित्ति हुई है, शेष सोलह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परंपरा निरंतर रही है, अर्थात् पुष्पदंत भगवान के तीर्थ में पावपल्य, शीतलनाथ के तीर्थ में अर्द्धपल्य, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, वासुपूज्य के तीर्थ में एक पल्य, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, अनंतनाथ के तीर्थ में अर्द्धपल्य और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य प्रमाण धर्मतीर्थ का उच्छेद रहा है। उस समय दीक्षा लेने वालों का अभाव होने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, हुंडावसर्पिणी के दोष से ये सात व्युच्छेद होते हैं।
कुदान की प्रथा-श्री शीतलनाथ के तीर्थ के अंतिम भाग में कालदोष से वक्ता, श्रोता और आचरण करने वालों का अभाव हो जाने से समीचीन धर्म का नाश हो गया। मदिल देश में मलय देश का राजा मेघरथ कुछ दान देना चाहता था उसने कुमार्गगामी परंपरा से आगत आहार, औषध, अभय और शास्त्र दान को छोड़कर मुंहशालायन ब्राह्मण के द्वारा कहे हुए कन्यादान, हस्तिदान, सुवर्णदान, अश्वदान, गोदान, दासीदान, तिलदान, रथदान, भूमिदान और गृहदान यह दश प्रकार का दान स्वेच्छा से चलाया।
हिंसा यज्ञ की उत्पत्ति-मुनिसुव्रतनाथ के मोक्ष जाने के बाद एक समय ‘क्षीरकदंब’ उपाध्याय के पास राजपुत्र वसु, गुरूपुत्र पर्वत और धर्मनिष्ठ श्रावक नारद इन तीनों ने विद्याध्ययन किया था। गुरू के दीक्षित होने के बाद किसी समय पर्वत ने सभा में कहा कि ‘अजैर्यष्टव्यं’ बकरों से होम करना चाहिए ऐसा अर्थ है तब नारद ने कहा ‘अज’ का अर्थ न उगने योग्य पुराने धान्य हैं उनसे यज्ञ करना चाहिए ऐसा गुरूदेव ने अर्थ किया था किंतु पर्वत ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। अंत में राजा वसु के राजदरबार में निर्णय गया। वसु ने यथार्थ जानते हुये भी गुरूपत्नी पर्वत की माता से वचनबद्ध होने से पर्वत के हिंसामय वचनों को सत्य कह दिया, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी में सिंहासन के धँसने से मरकर नरक गया। इधर पर्वत ने महाकाल नामक असुर की सहायता से यज्ञ में खूब हिंसा करायी और उसके फल से ये सब दुर्गति के पात्र हो गये किंतु नारद हिंसा का निषेध करने से स्वर्ग गया।
भगवान मुनिसुव्रत के तीर्थ में ही मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्र हुए हैं। नेमिनाथ भगवान के समय उनके चचेरे बंधु श्रीकृष्ण नारायण हुए हैं।
तीर्थंकरों का अंतराल-भगवान ऋषभदेव के मोक्ष चले जाने के बाद पचास लाख करोड़ सागर बीत जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था। इनकी आयु भी इसी अंतराल में शामिल थी।
आगे सर्वत्र अंतराल की संख्या में उन-उन तीर्थंकरों की आयु को सम्मिलित ही समझना।
श्री अजितनाथ तीर्थंकर के मोक्ष जाने के बाद तीस लाख करोड़ सागर बीत जाने पर संभवनाथ उत्पन्न हुए थे।
श्री संभवनाथ के बाद दश लाख करोड़ वर्ष का अंतराल बीत जाने पर अभिनंदननाथ अवतीर्ण हुए थे।
इनके बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जाने पर सुमतिनाथ उत्पन्न हुए थे।
इनके बाद नब्बे हजार करोड़ सागर बीत जाने पर पद्मप्रभ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे।
इनके अनंतर नौ हजार करोड़ सागर बीत जाने पर सुपार्श्वनाथ उत्पन्न हुए थे।
अनंतर नौ सौ करोड़ सागर का अंतर बीत जाने पर चंद्रप्रभ जिनेन्द्र ने जन्म लिया था।
इसके पश्चात नब्बे करोड़ सागर का अंतर निकल जाने पर पुष्पदंत तीर्थंकर हुए हैं।
इनके बाद नौ करोड़ सागर का अंतर बीत जाने पर शीतलनाथ ने जन्म लिया है।
इन शीतलनाथ के अनंतर जब सौ सागर तथा छ्यासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण अंतराल निकल गया तब श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ है।
श्रेयांसनाथ के बाद जब चौवन सागर प्रमाण अंतर बीत चुका था और अंतिम पल्य के तृतीय भाग में जब धर्म की संतति का व्युच्छेद हो गया था तब वासुपूज्य का जन्म हुआ था।
इनके बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गये और पल्य के अंतिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया था तब विमलनाथ का जन्म हुआ था।
विमलनाथ के मोक्ष चले जाने के बाद नौ सागर और पौन पल्य बीत जाने पर तथा अंतिम समय में धर्म का विच्छेद हो जाने पर श्री अनंतनाथ का जन्म हुआ था।
इनके बाद चार सागर प्रमाण काल बीत चुका और अंतिम पल्य का आधा भाग जब धर्म रहित हो गया तब धर्मनाथ का जन्म हुआ था।
धर्मनाथ के बाद पौन पल्य कम तीन सागर के बीत जाने पर तथा पाव पल्य तक धर्म का विच्छेद हो लेने पर श्री शांतिनाथ भगवान उत्पन्न हुए थे।
इनके बाद अर्धपल्य बीत जाने पर श्री कुंथुनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके अनंतर एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्य का चतुर्थ भाग बीत जाने पर श्री अरनाथ उत्पन्न हुए है।
इनके बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर मल्लिनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके बाद चौवन लाख वर्ष बीत जाने पर मुनिसुव्रतनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके बाद साठ लाख वर्ष बीत जाने पर नमिनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके बाद पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमिजिनेन्द्र उत्पन्न हुए हैं।
श्री नेमिनाथ भगवान के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर पार्श्वनाथ जिनेन्द्र का जन्म हुआ है।
श्री पार्श्वनाथ के बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे। इनकी आयु भी इसी में शामिल१ थी२।
तीर्थंकर के वर्ण-पद्मप्रभ, वासुपूज्य का रक्तवर्ण, चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत का श्वेतवर्ण, सुपार्श्व और पार्श्व का हरितवर्ण, नेमिनाथ और मुनिसुव्रत का नीलवर्ण एवं शेष सोलह तीर्थंकर का स्वर्ण वर्ण है।
बालयति-वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान ये पाँच तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी रहे हैं। शेष उन्नीस तीर्थंकर विवाहित होकर राज्य करके दीक्षित हुए हैं।
वंश-वीर प्रभु नाथवंशी, पार्श्वजिन उग्रवंशी, मुनिसुव्रत और नेमिनाथ हरिवंशी, धर्मनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ कुरूवंशी और शेष सत्तरह तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंश में हुए हैं।
रत्नवृष्टि-समस्त तीर्थंकरों की आदि पारणाओं और वर्धमान स्वामी की सभी पारणाओं मेंं नियम से रत्नवृष्टि हुआ करती थी। वह रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और जघन्य रूप से साढ़े बारह लाख होती थी। इनमें से कितने ही दाता तो तपश्चरण कर उसी जन्म से मोक्ष चले गये और कितने ही जिनेन्द्र भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीसरे भव में मोक्ष गये हैं।३
केवलज्ञान उत्पत्ति के समय उपवास-ऋषभदेव, मल्लिनाथ, और पार्श्वनाथ को तेला के बाद, वासुपूज्य को एक उपवास के बाद और शेष तीर्थंकरों को बेला के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है।४
केवलज्ञान उत्पत्ति के स्थान-ऋषभनाथ को पूर्वताल नगर के शकटमुख वन में, नेमिनाथ को गिरनार पर्वत पर, पार्श्वनाथ को आश्रम के समीप, भगवान महावीर को ऋजुकूला नदी के तट पर और शेष तीर्थंकरों को अपने-अपने नगर के उद्यानों में ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है।५
प्रत्येक तीर्थंकरों ने जिस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली है उसी वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान हुआ है ऐसा उल्लेख है।
मुक्ति प्राप्ति के आसन-ऋषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ पर्यंक आसन से तथा शेष तीर्थंकर कायोत्सर्ग आसन से स्थित हो मोक्ष गए हैं।६
योग निरोध काल-ऋषभदेव ने मुक्ति के पूर्व चौदह दिन तक योग निरोध किया। महावीर स्वामी ने दो दिन और शेष तीर्थंकरों ने एक-एक मास तक योग निरोध किया है।१
वीर भगवान के निर्वाण होने के पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष काल के व्यतीत होने पर ‘दुषमा’ नामक पंचम काल प्रवेश करता है।
अनुबद्ध केवली-जिस दिन महावीर भगवान सिद्ध हुए उसी दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। गौतम स्वामी के मुक्ति जाने के दिन श्री सुधर्म स्वामी केवली हुए और इनके मोक्ष जाने के दिन जंबूस्वामी केवली हुए। जंबूस्वामी के सिद्ध होने पर फिर कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुए। गौतम स्वामी से लेकर जंबूस्वामी तक काल ६२ वर्ष प्रमाण है।
श्रुतकेवली-नंदी, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँच द्वादशांग ज्ञान के धारी श्रुतकेवली हुए हैं। इनका काल १०० वर्ष प्रमाण है। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु से दीक्षित, मुकुटधरोें में अंतिम चन्द्रगुप्त सम्राट ने जिन दीक्षा ली थी, इसके बाद मुकुटबद्ध राजा मुनि नहीं हुए।
दशपूर्वी-विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारी ‘दशपूर्वी’ कहलाये। इनका काल १८३ वर्ष है।
ग्यारह अंगधारी-नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडु, धु्रवसेन और कंसार्य ये पाँच मुनि ग्यारह अंगधारी हुए हैं। इनका काल २२० वर्ष है।
आचारांग धारी-सुभद्राचार्य , यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य एक आचारांग मात्र के धारी हुए हैं। इनका काल ११८ वर्ष है। गौतम स्वामी से लेकर लोहाचार्य तक ६३±१००±१८३±२२०± ११८·६८३ वर्ष में अंगधारी हुए हैं। इनके बाद इस भरत क्षेत्र में भी आचार्य अंग पूर्व के धारक नहीं हुए हैं। उनके अंशों के जानने वाले अवश्य हुए हैं।
जो श्रुततीर्थ, धर्म की प्रवृत्ति में कारण है वह श्रुतपरंपरा बीस हजार तीन सौ सत्तरह (२०३१७) वर्षों तक यहाँ चलती रहेगी। अनंतर पंचम काल के अंत मेंं व्युच्छेद को प्राप्त हो जावेगी। इतने मात्र समय में प्राय: चातुर्वर्ण्य संघ जन्मे लेता रहेगा।२ अर्थात् उपर्युक्त ६८३±२०३१७२ि१००० वर्ष तक धर्मतीर्थ परंपरा अव्युच्छिन्न रहेगी। तात्पर्य यह हुआ कि पंचम काल के अंत तक धर्म व चतुर्विध संघ विद्यमान रहेगा।
राज्य परंपरा-वीर प्रभु के निर्वाण के बाद ‘पालक’ नामक अवन्ति सुत का राज्याभिषेक हुआ। पालक का ६० वर्ष , विजय वंशियों का १५५ वर्ष, मुरूंडवंशियों का ४०, पुण्यमित्र का ३०, वसुमित्र-अग्निमित्र का ६०, गंधर्व का १००, नरवाहन का ४०, भृत्य-आंध्रों का २४२, गुप्तवंशियों का २३१ वर्ष प्रमाण राज्य काल रहा है पश्चात् इंद्र का सुत कल्की उत्पन्न हुआ, इसका नाम चतुर्मुख, आयु ७० वर्ष और राज्यकाल ४२ वर्ष रहा। श्री वीरप्रभु के सिद्ध होने के बाद छह सौ पाँच वर्ष और पाँच माह व्यतीत होने पर ‘विक्रम’ नामक शक राजा हुए हैं। उनके बाद तीन सौ चौरानवे वर्ष, सात माह व्यतीत होने पर प्रथम कल्की हुआ है३।”
आचारांगधरों के २७५ वर्ष पश्चात् कल्की राजा को प ट्ट बांधा गया। ६८३±२७५±४२१ि००० वर्ष। उस कल्की ने श्रमण साधु से प्रथम ग्रास को शुल्क रूप में माँगा तब मुनि ‘यह अंतरायों का काल है” ऐसा समझकर निराहार चले गये, उस समय उनमें से किसी एक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया, तब कोई असुरदेव ने अवधिज्ञान से मुनिगणों के उपसर्ग को जानकर, उसे धर्म द्रोही मानकर उस कल्की को मार डाला पुन: अजितंजय नाम के उसके पुत्र ने ‘मेरी रक्षा करो’ ऐसा कहकर उस देव के चरणों में नमस्कार किया और उस देव ने ‘धर्म पूर्वक राज्य करो’ ऐसा कहकर उसकी रक्षा की और वह जैन धर्मी बन गया।
ऐसा हजार-हजार वर्ष में एक-एक कल्की और पाँच सौ, पाँच सौ वर्षों के पश्चात् उनके बीच-बीच में एक-एक उप्ाकल्की होते हैं। प्रत्येक कल्की के समय पंचम कालवर्ती एक-एक साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उस समय चातुर्वर्ण्य संघ अल्प हो जाते हैं।
पंचम काल के अंत समय जलमंथन नामा अंतिम कल्की होगा, उस समय ‘वीरांगज’ नाम के मुनि, ‘सर्वश्री आर्यिका, अग्निल श्रावक और पंगुश्री श्राविका होंगी। अंतिम कल्की मुनिराज के आहार का प्रथम ग्रास शुल्क रूप में माँगेगा तब मुनि उसे देकर अंतराय करके वापस जाकर अवधिज्ञान को प्राप्त करके आर्यिका, श्रावक और श्राविका को बुलाकर कहेंगे कि अब पंचम काल का अंत आ चुका है, हमारी और तुम्हारी तीन दिन की आयु शेष है। चारों सल्लेखना से मरण करके सौधर्म स्वर्ग जायेंगे और कुमार देव द्वारा मार दिये जाने पर वह कल्की नरक जायेगा। प्रात:काल धर्म का नाश, मध्या में राजा का नाश और सूर्यास्त समय अग्नि का अभाव हो जावेगा।
छठा काल-पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम दुषमा-दुषमा नाम का छठा काल प्रविष्ट होगा। उस समय मनुष्यों की ऊँचाई तीन हाथ से एक हाथ तक, आयु बीस से सोलह वर्ष तक होगी। वे कंदमूल, फल, मत्स्य माँसादि खायेंगे, नंगे वनों में विचरेंगे। अंधे, गूंगे, बधिर, कुरूप आदि होंगे। नरक और तिर्यञ््चगति से आयेंगे और इन्हीं दो गतियों में जायेंगे।
उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्ष के बीतने पर संवर्तक नामक वायु से महा प्रलय होगा। उस समय बहत्तर युगल और भी संख्यात जीवों को देव विद्याधर दया से विजयार्ध की गुफा आदि में सुरक्षित रखेंगे। यहाँ ४९ दिन तक बर्फ, क्षार, विष, अग्नि आदि की वर्षा से सब पर्वत आदि समाप्त होकर एक योजन तक पृथ्वी जल जावेगी।
अनंतर उत्सर्पिणी काल प्रवेश करेगा। तब जल, दूध, घृत और अमृत की वर्षा होकर पृथ्वी अच्छी हो जावेगी। ये युगल जीव गुफाओं से निकलेंगे। धीरे-धीरे आयु, ऊँचाई, बल आदि बढ़ते-बढ़ते इक्कीस हजार वर्ष समाप्त होकर द्वितीय काल प्रवेश करेगा। इसके हजार वर्ष शेष रहने पर अर्थात् बीस हजार वर्ष बीत जाने पर कुलकरों की उत्पत्ति होगी पुन: अंतिम कुलकर से श्रेणिक का जीव ‘महापद्म’ नाम का तीर्थंकर होगा तब से पुन: धर्म की परंपरा चलेगी।
इस प्रकार भरत क्षेत्र में यह काल परिवर्तन चलता रहता है।
भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त क्रम से ये बारह चक्रवर्ती सब तीर्थंकरों की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष वन्दना में आसक्त और अत्यन्त गाढ़ भक्ति से परिपूर्ण थे। भरत चक्रवर्ती ऋषभेश्वर के समक्ष, सगरचक्री अजितेश्वर के समक्ष तथा मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्री धर्मनाथ और शान्तिनाथ के अन्तराल में हुए हैं। शान्तिनाथ, कुंथुनाथ और अरनाथ ये तीन चक्री होते हुए तीर्थंकर भी थे। सुभौम चक्री अरनाथ और मल्लिनाथ भगवान के अन्तराल में, पद्मचक्री मल्लि और मुनिसुव्रत के अन्तराल में, हरिषेण चक्री मुनिसुव्रत और नमिनाथ के अन्तराल में, जयसेन चक्री नमि और नेमिनाथ के अन्तराल में तथा ब्रह्मदत चक्री नेमि और पार्श्वनाथ के अन्तराल में हुए हैं।
पूर्व जन्म में किये गये तप के बल से भरत आदि की आयुधशालाओं में भुवन को विस्मित करने वाला ‘चक्ररत्न’ उत्पन्न होता है, तब अतिशय हर्ष को प्राप्त चक्रवर्ती जिनेन्द्र भगवान की पूजा करके विजय के निमित्त पूर्व दिशा में प्रयाण करते हैं। क्रम से दक्षिण भरत क्षेत्र के दो खण्डों को सिद्ध करके पुन: उत्तर भरत क्षेत्र में सम्पूर्ण भूमिगोचरी और विद्याधरों को वश में कर लेते हैं।
ये चक्रवर्ती वृषभगिरि पर्वत पर अपना नाम लिखने के लिए विजय प्रशस्तियों से सर्वत्र व्याप्त उस वृषभाचल को देखकर और अपने नाम को लिखने के लिए तिलमात्र भी स्थान न पाकर विजय के अभिमान से रहित होकर चिन्तायुक्त खड़े रह जाते हैं। तब मंत्रियों और देवों के अनुरोध से एक स्थान के किसी चक्रवर्ती का नाम अपने दण्डरत्न से नष्ट करके अपना नाम अंकित करते हैं। इस प्रकार ये सभी चक्रवर्ती सम्पूर्ण षट्खण्ड को जीतकर अपने नगर में प्रवेश करते हैं।
चक्रवर्तियों का वैभव-प्रत्येक चक्री उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान से युक्त सुवर्ण वर्ण वाले होते हैं। उनके छ्यानवे हजार रानियाँ होती हैं-इनमें ३२००० आर्यखण्ड की कन्याएँ, ३२००० विद्याधर कन्याएं और ३२००० म्लेच्छ खण्ड की कन्याएँ होती हैं। प्रत्येक चक्रियों के संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ, ३२००० गणबद्ध राजा, ३६० अंगरक्षक, ३६० रसोइये, ३५०००००० (साढ़े तीन करोड़) बंधुवर्ग, ३००००००० गायें, १००००००० थालियाँ, ८४००००० भद्र हाथी, ८४००००० रथ, १८००००००० घोड़े, ८४००००००० उत्तर वीर, ८८००० म्लेच्छ राजा, अनेकों करोड़ विद्याधर, ३२००० मुकुटबद्ध राजा, ३२००० नाट्यशालाएँ, ३२००० संगीतशालाएँ और ४८००००००० पदातिगण होते हैं।
सभी चक्रवर्तियों में से प्रत्येक ९६००००००० ग्राम, ७५००० नगर, १६००० खेट, २४००० कर्वट, ४००० मटंब, ४८००० पत्तन, ९९००० द्रोणमुख, १४००० संवाहन, ५६ अन्तर्द्वीप, ७०० कुक्षि निवास, २८००० दुर्गादि होते हैं एवं चौदह रत्न, नवनिधि और दशांग भोग होते हैं।
चौदह रत्न-गज, अश्व, गृहपति, स्थपति, सेनापति, पट्टरानी और पुरोहित ये सात जीवरत्न हैं। छत्र, असि, दण्ड, चक्र, कांकिणी, चिन्तामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं। चक्रवर्तियों के चामरों को बत्तीस यक्ष ढोरते हैं।नवनिधि-काल, महाकाल, पांडु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिङ्गल और नाना रत्न ये न्ावनिधियाँ श्रीपुर में उत्पन्न हुआ करती हैं। इन नव निधियों में से प्रत्येक क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हर्म्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं।
चक्रवर्तियों के २४ दक्षिण मुखावर्त धवल व उत्तम शंख, एक कोड़ाकोड़ी १०००००००००००००० हल होते हैं। रमणीय भेरी और पट बारह-बारह होते हैं, जिनका शब्द बारह योजन प्रमाण देश में सुना जाता है।
दशांग भोग-दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये उन चक्रवर्तियों के दशांग भोग कहे जाते हैं।
इन चक्रवर्तियों की अवगाहना, आयु, राज्यकाल आदि का वर्णन चार्ट में देखिए।भरत चक्रवर्ती प्रथम चक्रवर्ती थे और भगवान ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे, उन्हीं के नाम से यह भरतभूमि ‘भारत’ कहलाती है। इन्होंने दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त मात्रकाल में केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया था। इनका जीवनवृत्त महापुराण और भरतेशवैभव में देखिए। इनके भाई कामदेव पदधारक बाहुबली से इनका मानभंग, विजयभंग हुआ है, इसे हुण्डावसर्पिणी काल का दोष बताया है।
भगवान ऋषभदेव की यशस्वती रानी से भरत महाराज का जन्म हुआ था। भगवान ने दीक्षा के लिए जाते समय भरत को साम्राज्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। एक समय राज्यलक्ष्मी से युक्त राजर्षि भरत को एक ही साथ नीचे लिखे हुए तीन समाचार मालूम हुए थे। पूज्य पिता को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अन्त:पुर में पुत्र का जन्म हुआ है और आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है। क्षणभर में भरत ने मन में सोचा कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्म का फल है, चक्र का प्रकट होना अर्थ का फल है और पुत्र का उत्पन्न होना काम का फल है अत: भरत महाराज ने सबसे पहले समवसरण में जाकर भगवान की पूजा की, उपदेश सुना, तदनन्तर चक्ररत्न की पूजा करके पुत्र का जन्मोत्सव मनाया।अनन्तर भरत महाराज ने दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया। चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चलता था। सम्पूर्ण षट्खण्ड पृथ्वी को जीत लेने के बाद वापस आते समय वैâलाश पर्वत को समीप देखकर सेना को वहाँ ठहराकर स्वयं समवसरण में जाकर राजा भरत ने विधिवत् भगवान की पूजा की और वहाँ से आकर सेना सहित अयोध्या के समीप आ गये।उस समय भरत महाराज का चक्ररत्न नगर के गोपुर द्वार को उल्लंघन कर आगे नहीं जा सका, तब चक्ररत्न की रक्षा करने वाले कितने ही देवगण चक्र को एक स्थान पर खड़ा हुआ देखकर आश्चर्य को प्राप्त हुए। भरत महाराज भी सोचने लगे कि समस्त दिशाओं को विजय करने में जो चक्र कहीं नहीं रुका, आज मेरे घर के आँगन में क्यों रुक रहा है?इस प्रकार से बुद्धिमान भरत ने पुरोहित से प्रश्न किया। उसके उत्तर में पुरोहित ने निवेदन किया कि हे देव! आपने यद्यपि बाहर के लोगों को जीत लिया है तथापि आपके घर के लोग आज भी आपके अनुकूल नहीं हैं, वे आपको नमस्कार न करके आपके विरुद्ध खड़े हुए हैं। इस बात को सुनकर भरत ने हृदय में बहुत कुछ विचार किया। अनन्तर मंत्रियों से सलाह करके कुशल दूत को सबसे पहले अपने निन्यानवे भाइयों के पास भेज दिया।
वे भाई दूत से सब समाचार विदित करके विरक्तमना भगवान ऋषभदेव के समवसरण में जाकर दीक्षित हो गये। अनन्तर भरत ने मन में दुःख का अनुभव करते हुए चक्र के अभ्यन्तर प्रवेश न करने से विचार-विमर्शपूर्वक एक दूत को युवा बाहुबली भाई के पास भेजा। दूत के समाचार से बाहुबली ने कहा कि ‘‘मैं भरत को भाई के नाते नमस्कार कर सकता हूँ किन्तु राजाधिराज कहकर उन्हें नमस्कार नहीं कर सकता, पूज्य पिता की दी हुई पृथ्वी का मैं पालन कर रहा हूँ, इसमें उनसे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है’’, इत्यादि समाचारों से बाहुबली ने यह बात स्पष्ट कर दी कि यदि वे मुझसे जबरदस्ती नमस्कार कराना चाहते हैं तो युद्ध भूमि में ही अपनी-अपनी शक्ति का परिचय दे देना चाहिए। इस वातावरण से महाराज भरत सोचने लगे, अहो! जिन्हें हमने बालकपन से ही स्वतंत्रतापूर्वक खिला-पिलाकर बड़ा किया है, ऐसे अन्य कुमार यदि मेरे विरुद्ध आचरण करने वाले हों तो खुशी से हों परन्तु बाहुबली तरुण, बुद्धिमान, परिपाटी को जानने वाला, विनयी, चतुर और सज्जन होकर भी मेरे विषय में विकार को वैâसे प्राप्त हो गया? इस प्रकार छह प्रकार की सेना सामग्री से सम्पन्न हुए महाराज भरतेश्वर ने अपने छोटे भाई को जीतने की इच्छा से अनेक राजाओं के साथ प्रस्थान किया।
दोनों तरफ की सेना के प्रवाह को देखकर दोनों ओर के मुख्य-मुख्य मंत्री विचार कर इस प्रकार कहने लगे कि क्रूर ग्रहों के समान इन दोनों का युद्ध शान्ति के लिए नहीं है क्योंकि ये दोनों ही चरमशरीरी हैं, इनकी कुछ भी क्षति नहीं होगी, केवल इनके युद्ध के बहाने से दोनों ही पक्ष के लोगों का क्षय होगा, इस प्रकार निश्चय कर तथा भारी मनुष्यों के संहार से डरकर मंत्रियों ने दोनों की आज्ञा लेकर धर्म युद्ध करने की घोषणा कर दी अर्थात् इन दोनों के बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध में जो विजय प्राप्त करेगा, वही विजय लक्ष्मी का स्वयं स्वीकार किया हुआ पति होगा।
मनुष्यों से एवं असंख्य देवों से भूमण्डल और आकाशमण्डल के व्याप्त हो जाने पर इन दोनों का दृष्टियुद्ध प्रारंभ हुआ किन्तु बाहुबली ने टिमकार रहित दृष्टि से भरत को जीत लिया, जलयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत के मुँह पर अत्यधिक जल डालकर आकुल करके जीत लिया क्योंकि भरत की ऊँचाई पाँच सौ धनुष और बाहुबली की पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। मल्लयुद्ध में भी बाहुबली ने भरत को जीतकर उठाकर अपने कंधे पर बिठा लिया। दोनों पक्ष के राजाओं के बीच ऐसा अपमान देख भरत ने क्रोध से अपने चक्ररत्न का स्मरण किया और उसे बाहुबली पर चला दिया परन्तु उनके अवध्य होने से वह चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर तेजरहित हो उन्हीं के पास ठहर गया। उस समय बड़े-बड़े राजाओं ने चक्रवर्ती को धिक्कार दिया और दुःख के साथ कहा कि ‘बस-बस’ यह साहस रहने दो, बंद करो, यह सुनकर चक्रवर्ती और भी अधिक संताप को प्राप्त हुए। आपने खूब पराक्रम दिखाया, ऐसा कहकर बाहुबली ने भरत को उच्चासन पर बैठाया।
इस घटना से बाहुबली उसी समय विरक्त हो गये और संसार, शरीर, वैभव आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए बड़े भाई भरत से अपने अपराध की क्षमा कराकर तपोवन को जाने लगे, तब भरत भी अत्यधिक दुःखी होकर बाहुबली को समझाने और रोकने लगे। बाहुबली अपने वैराग्य को अचल करके तपोवन को चले गये और दीक्षा लेकर एक वर्ष का योग धारण कर लिया। एक वर्ष की ध्यानावस्था में सर्पों ने चरणों के आश्रय वामीरन्ध्र बना लिये, पक्षियों ने घोंसले बना लिये और लताएँ ऊपर तक चढ़कर बाहुबली के शरीर को ढँकने लगीं किन्तु योग चक्रवर्ती बाहुबली भगवान योग में लीन थे।
इधर भरत महाराज का चक्रवर्ती पट्ट पर महासाम्राज्य अभिषेक हुआ। दीक्षा लेते समय बाहुबली ने एक वर्ष का उपवास किया था, जिस दिन उनका वह उपवास पूर्ण हुआ, उसी दिन भरत ने आकर उनकी पूजा की और पूजा करते ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। ‘‘वह१ भरतेश्वर मुझे से संक्लेश को प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्त से उसे दु:ख पहुँचा है, यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए भरत के पूजा करते ही बाहुबली का हृदय विकल्प रहित हो गया और उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया। भरतेश्वर ने बहुत ही विशेषता से बाहुबली की पूजा की। केवलज्ञान प्रकट होने के पहले जो भरत ने पूजा की थी, वह अपना अपराध नष्ट करने के लिए ही थी और अनन्तर की पूजा केवलज्ञान के महोत्सव की थी। उस समय देव कारीगरों ने बाहुबली भगवान की गंधकुटी बनाई थी। समस्त पदार्थों को जानने वाले बाहुबली अपने वचन रूपी अमृत के द्वारा समस्त संसार को संतुष्ट करते हुए पूज्य पिता भगवान ऋषभदेव के सामीप्य से पवित्र हुए वैâलाशपर्वत पर जा पहुँचे।
ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति-किसी समय भरत सोचते हैं कि मैं जिनेन्द्र देव का महामह यज्ञ कर धन वितरण करता हुआ समस्त संसार को संतुष्ट करूँ, सदा निःस्पृह रहने वाले मुनि तो हमसे धन लेते नहीं परन्तु ऐसा गृहस्थ भी कौन है जो धन-धान्य आदि सम्पत्ति के द्वारा पूजा करने योग्य है? जो अणुव्रतों में मुख्य है, श्रावकों में श्रेष्ठ है उसे दान देना उचित है। ऐसा सोचकर भरत ने योग्य व्यक्तियों की परीक्षा करने की इच्छा से समस्त राजाओं को बुलाया और घर के आँगन में हरे-भरे अंकुर, पुष्प और फल खूब डलवा दिये। उन लोगों में जो अव्रती थे वे बिना कुछ सोच विचार के राजमंदिर में चले आये। राजा भरत ने उन्हें एक ओर हटाकर बाकी बचे हुए लोगों को बुलाया। पाप से डरने वाले कितने लोग तो वापस चले गये और कितने लोग वापस लौटने लगे, परन्तु चक्रवर्ती के विशेष आग्रह से जब कुछ लोग दूसरे प्रासुक मार्ग से ले जाये गये तब प्रश्न करने पर उन्होंने कहा-महाराज! आज पर्व के दिन कोंपल, हरे पत्ते तथा पुष्प आदि का विघात नहीं किया जाता, हे देव! हरे अंकुर आदि में अनन्त निगोदिया जीव रहते हैं ऐसे सर्वज्ञ देव के वचन हैं। इस उत्तर से भरत महाराज बहुत प्रभावित हुए और व्रतों में दृढ़ रहने वाले उन सबकी प्रशंसा कर उन्हें दान, मान आदि से सम्मानित कर पद्म नामक निधि से प्राप्त हुए एक से लेकर ग्यारह तक की संख्या वाले ब्रह्मसूत्र नाम के व्रतसूत्र से उन सबके चिन्ह किये। भरत ने इन्हें उपासकाध्ययनांग से इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप का उपदेश दिया। त्रेपन गर्भान्वय क्रियाएँ, अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाएं और सात कर्त्रन्वय क्रियाएं भी बतलाईं। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमाने से वैश्य और नीच वृत्ति का आश्रय लेने से शूद्र कहलाते हैं।
भरत के सोलह स्वप्न-कुछ काल बीत जाने के बाद एक दिन चक्रवर्ती भरत ने अद्भुत फल दिखाने वाले कुछ स्वप्न देखे। उनके देखने से खेद खिन्न हो भरत ने यह समझ लिया कि इनका फल कटु है और ये पंचम काल में फल देने वाले होंगे। इस प्रकार विचार कर भरत ने भगवान के समवसरण में जाकर पूजा-भक्ति आदि करके भगवान से प्रार्थना की-हे भगवन्! मैंने सिंह, सिंह के बालक आदि सोलह स्वप्न देखे हैं, उनका फल क्या है? और मैंने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, वह योग्य है या अयोग्य? कृपया हमारे संशय को दूर कीजिए। यद्यपि अवधिज्ञान से भरत ने इन स्वप्नों का फल जान लिया था, फिर भी सभी को विशेष जानकारी होने के लिए भगवान से सुनना चाहते थे। भरत का प्रश्न समाप्त होने पर जगद्गुरु भगवान अपनी दिव्यध्वनि से सभा को संतुष्ट करने लगे। हे भरतराज! सुनो! (१) तुमने जो ‘पृथ्वी पर अकेले विहार कर पर्वत की चोटी पर चढ़ते हुई तेईस सिंह देखे हैं’ उसका फल यह है कि महावीर स्वामी को छोड़कर शेष तीर्थंकरों के समय दुष्ट नयों की उत्पत्ति नहीं होगी। (२) ‘अकेले सिंह के पीछे हिरणों के बच्चे’ देखने से महावीर के तीर्थ में परिग्रही कुलिंगी बहुत हो जावेंगे। (३) ‘बड़े हाथी के बोझ को घोड़े पर लदा’ देखने से पंचम काल के साधु तपश्चरण के समस्त गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं होगे। (४) ‘सूखे पत्ते खाने वाले बकरों को देखने’ से आगामी काल में मनुष्य दुराचारी हो जावेंगे। (५) ‘गजेन्द्र के कंधे पर चढ़े हुए वानरों’ को देखने से आगे चलकर क्षत्रियवंश नष्ट हो जावेंगे, नीच कुल वाले पृथ्वी का पालन करेंगे। (६) ‘कौवों के द्वारा उलूक को त्रास दिया जाना’ देखने से मनुष्य धर्म की इच्छा से जैन मुनियों को छोड़कर अन्य साधुओं के पास जावेंगे। (७) ‘नाचते हुए बहुत से भूतों के देखने से’ लोग व्यंतरों को देव समझकर उनकी उपासना करने लगेंगे। (८) ‘मध्य भाग में शुष्क और चारों तरफ से पानी से भरे हुए तालाब’ के देखने से धर्म मध्य भागों से हटकर यत्र-तत्र रह जावेगा। (९) ‘धूल से मलिन हुए रत्नों की राशि के देखने से’ पंचमकाल में ऋद्धिधारी उत्तम मुनि नहीं होंगे। (१०) ‘कुत्ते को नैवेद्य खाते हुए’ देखने से व्रत रहित ब्राह्मण गुणी पात्रों के समान आदर पावेंगे। (११) ‘ऊँचे स्वर से शब्द करते हुए तरुण बैल का विहार’ देखने से पंचमकाल में अधिकतर लोग तरुण अवस्था में मुनिपद को धारण करेंगे। (१२) ‘परिमण्डल से घिर हुए चन्द्रमा’ के देखने से पंचमकाल के मुनियों में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान नहीं होगा। (१३) ‘परस्पर मिलकर जाते हुए दो बैलों के’ देखने से पंचमकाल में मुनिजन साथ-साथ रहेंगे, अकेले विहार करने वाले नहीं होगे। (१४) ‘मेघों के आवरण में रुके हुए सूर्य’ के देखने से प्राय: पंचमकाल में केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होता है। (१५) ‘सूखे वृक्ष के देखने से’ स्त्री-पुरुषों का चारित्र भ्रष्ट हो जायेगा। (१६) ‘जीर्ण पत्तों के देखने से’ महा औषधियों का रस नष्ट हो जावेगा।
हे भरत! इन स्वप्नों को तुम बहुत समय बाद का फल देने वाला समझो तथा जो तुमने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की है, सो आज तो ठीक है किन्तु ये भी पंचमकाल में जाति के मद से युक्त होकर प्राय: धर्मद्रोही हो जावेंगे, फिर भी अब जिनकी सृष्टि की है, उन्हें नष्ट करना ठीक नहीं है।
भगवान के उपर्युक्त वचन को सुनकर भरत महाराज अपना संशय दूर करके ऋषभदेव को बार-बार प्रणाम करके वहाँ से लौटे। खोटे स्वप्नों से होने वाले अनिष्ट की शांति के लिए जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक और उत्तम पात्र को दान देना आदि पुण्य कार्य किये।
बहुत काल तक साम्राज्य सुख का अनुभव करते हुए महाराज भरत ने किसी समय दर्पण में मुख देखते हुए एक श्वेत केश देखा और तत्क्षण भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र अर्ककीर्ति को राज्यपद देकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, उन्हें उसी समय मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो गया और उसके बाद ही केवलज्ञान प्रकट हो गया। ये भरतकेवली अब देवाधिदेव भगवान हो गये और इन्द्रों द्वारा वन्दनीय गंधकुटी में विराजमान हो गये। बहुत काल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए अन्त में शेष कर्मों का नाश करके मुक्तिधाम को प्राप्त हो गये।
द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में सगर चक्रवर्ती हुए हैं। इनके पूर्वभवों को सुनाते हैं-जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर वत्सकावती देश है-विदेह क्षेत्र है। वहाँ के राजा जयसेन की जयसेना रानी के रतिषेण और धृतिषेण दो पुत्र थे। किसी समय रतिषेण पुत्र की मृत्यु से राजा जयसेन बहुत ही दु:खी हुए। अनंतर अनेक उपायों से संबोधन को प्राप्त कर धृतिषेण पुत्र को राज्य देकर अपने साले महारूत के साथ तथा और भी अनेक राजाओं के साथ यशोधर महामुनि के समीप जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे।
जयसेन मुनि आयु के अंत में संन्यास से मरण कर अच्युत स्वर्ग में ‘महाबल’ नाम के देव हो गये। महारूतमुनि भी उसी स्वर्ग में ‘मणिकेतु’ नाम के देव हो गए। दोनों ने परस्पर में प्रीति से प्रतिज्ञा की कि-‘‘हम दोनों में से जो पहले पृथ्वी पर अवतीर्ण होगा, तो दूसरा देव उसे संबोधन देकर दीक्षा ग्रहण करा देगा।’’
कालांतर में बाईस सागर की आयु पूर्ण कर ‘महाबल देव’ वहाँ से च्युत होकर अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशी राजा समुद्रविजय की रानी सुबाला के ‘सगर’ नाम के पुत्र हुए। इनकी आयु सत्तर लाख पूर्व की थी, शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था और स्वर्णिम कांति थी। इनके अठारह लाख पूर्व कुमारकाल में तथा इतने ही वर्ष महामण्डलेश्वर के पद में रहे हैं। पुन: इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया जिससे इन्होंने भरत चक्रवर्ती के समान छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर पुन: अयोध्या जाकर एकछत्र शासन किया है। इनके साठ हजार पुत्र थे अर्थात् चक्रवर्ती के ९६ हजार रानियाँ होती हैं अत: इन रानियों से ६० हजार पुत्र थे।
किसी समय सिद्धिवन में श्री चतुर्मुख महामुनि को केवलज्ञान प्रगट हो गया। उनके केवलज्ञान कल्याणोत्सव में मणिकेतु देव आया था। उसने अपने अवधिज्ञान से सगरचक्रवर्ती अपने मित्र को जानकर देवपद में की गई प्रतिज्ञा को स्मरण कर राजाधिराज चक्रवर्ती को अनेक प्रकार से वैराग्य के लिए समझाने लगा किन्तु चक्रवर्ती ने सब कुछ सुनते हुए समझकर भी हंसकर टाल दिया। तब देव वापस अपने स्वर्ग चला गया पुन: उसने किसी समय चारणऋद्धिधारी मुनि का रूप बनाकर चक्रवर्ती के चैत्यालय में पहुँचकर चक्रवर्ती को नाना प्रकार के प्रश्नोत्तरों से समझाने का प्रयास किया, यद्यपि चक्रवर्ती भयभीत हुआ किन्तु दीक्षा लेने के भाव उनके नहीं हुए चूँकि वह पुत्रों के मोह में बहुत ही फंसा हुआ था। शास्त्रों में तो पुत्रों को सांकल की उपमा दी है। यथा-
इत्युक्त: संसृतेर्भूपो, वेपमानोऽपि नापतत्।
पंथानं निर्वृतेर्बद्ध:, पुत्रशृंखलया दृढ़म्१।।९४।।
मणिकेतु देव वापस अपने स्थान चला गया।
किसी समय चक्रवर्ती के पुत्र राज्यसभा में आकर निवेदन करते हैं कि हमें कोई कार्य सौंपिए। राजा ने कहा कि सभी कार्य परिपूर्ण हो चुके हैं आदि। पुन: किसी दिन पुत्रों ने आकर कहा-
हे पूज्य पिता! यदि आप मुझे कोई कार्य नहीं बताएँगे, तो हम भोजन नहीं करेंगे। तब राजा चिंता में पड़ गए पुन: कुछ सोचकर बोले-हे पुत्रों! सुनो, भरतचक्रवर्ती ने वैâलाशपर्वत पर तीर्थंकर भगवन्तों के महारत्नों के मंदिर बनवाए हैं२। तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को पहुँचाकर पर्वत की परिखा बना दो। इस आज्ञा को शिरोधार्य कर पुत्रों ने दण्डरत्न लेकर वैसा ही करना प्रारंभ कर दिया। जैसा कि कहा है-
राज्ञाप्यज्ञापिता यूयं, वैâलाशे भरतेशिना।
गृहा: कृता महारत्नै-श्चतुर्विंशतिरर्हताम्।।१०७।।
तेषां गंगां प्रकुर्वीध्वं, परिखां परितो गिरिम्।
इति तेऽपि तथा कुर्वन्, दण्डरत्नेन सत्त्वरम्।।१०८।।
उस समय मणिकेतु देव अच्छा अवसर समझकर पुन: उपाय सोचने लगा और वहाँ स्वर्ग से आकर उसने उन पुत्रों को सब तरफ से भयंकर नाग का रूप धरकर मूर्च्छित कर दिया वे सभी प्राय: मृतक के समान ही हो गए। सभी मंत्रियों ने देखा कि सभी पुत्र तो मर गए हैं। राजा को यह समाचार वैâसे सुनाया जावे, चूँकि चक्रवर्ती तो पुत्रों के मोह में बंधे हुए हैं, वे इस समाचार से कदाचित् मृत्यु को न प्राप्त हो जाए, इस भय से उन्होंने राजा को कोई समाचार नहीं पहुुँचाया।
तदनंतर मणिकेतु देव एक ब्राह्मण का रूप रखकर चक्रवर्ती के पास पहुँचकर अपने पुत्र के वियोग में रोते हुए बोला-हे भूमंडल के नाथ! चक्रवर्तिन्! मेरे पुत्र को यमराज से वापस दिला दो………। आदि कहने लगा। तब चक्री ने कहा-
हे द्विजराज! क्या आप नहीं जानते कि सिद्ध भगवान के सिवाय संसार में कोई भी यमराज को जीत नहीं सकता है। इत्यादि रूप से चक्रवर्ती उस ब्राह्मण को समझाते हुए बोले-हे बुद्धिमन्! तुम यमराज को जीतने के लिए दीक्षा ग्रहण करो। तब मणिकेतु देव ने ब्राह्मण वेष में कहा-
हे देव! यदि यही सच है तो मैं भी जो कहूँगा, सो आप भयभीत मत होइए। आपके सभी पुत्र, जो वैâलाशपर्वत के चारों ओर खाई खोद रहे थे, उन्हें यमराज ने उठा लिया है, इसलिए अब आप भी यमराज को जीतने के लिए दीक्षा स्वीकार कीजिए।इतना सुनते ही चक्रवर्ती सगर मूर्च्छित हो गए। अनेक उपचारों से सचेत हुए, तब वैराग्य भावना का चिंतवन करते हुए उन्होंने अपने पौत्र ‘भगीरथ’ का राज्याभिषेक करके ‘दृढ़धर्मा भगवान केवली’ के पादमूल में पहुँचकर दीक्षा धारण कर ली। उसी क्षण मणिकेतुदेव उन साठ हजार पुत्रों के पास पहुँचकर उन्हें सचेत करके उनको पिता के शोक व दीक्षा का समाचार सुना दिया। देव के वचन सुनकर राजपुत्रों ने भी विरक्तमना होकर जिनेन्द्र भगवान के चरण सान्निध्य में दीक्षा धारण कर ली। अनंतर मणिकेतु देव चक्रवर्ती व सभी पुत्रों के पास, जोकि महामुनि के रूप में विराजमान थे, उन्हें नमस्कार करके अपने सारे मायामयी उपायों को बताकर क्षमायाचना करने लगा। तब इन मुनियों ने कहा-कि आपने तो हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है, आप हमारे सच्चे मित्र है।
इन सभी मुनियों ने अनेक वर्षों तक घोरातिघोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त किया है पुन: सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया है। अपने पितामह-चक्रवर्ती और सभी उनके पुत्रों को तथा अपने पिता को निर्वाण प्राप्त सुनकर राजा भगीरथ भी परम वैराग्य को प्राप्त हुए। तब उन्होंने अपने पुत्र वरदत्त को राज्यभार सौंपकर वैâलाशपर्वत पर जाकर शिवगुप्त महामुनि से जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और नानाविध तपश्चरण करते हुए गंगा नदी के तट पर प्रतिमायोग धारणकर ध्यान में स्थित हो गए। उनके तपश्चरण व विशेष ध्यान के प्रभाव से इन्द्र ने आकर क्षीरसागर के जल से भगीरथ महामुनि के चरणों का अभिषेक किया। उस अभिषेक के जल का प्रवाह गंगा नदी में जाकर मिल गया, तभी से गंगा नदी भी तीर्थपने को प्राप्त हो गई१ और उसका ‘भागीरथी’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया है।
वहीं पर इन भागीरथ महामुनि ने केवलज्ञान प्राप्त किया है पुन: वहीं से गंगा नदी के तट से निर्वाण को प्राप्त किया है।
ऐसे सगरचर्क्री सिद्ध भगवान, उनके साठ हजार पुत्र एवं भगीरथ पोते सिद्धालय में विराजमान हैं, वे सदा जयवंत होवें, उन सबको हमारा कोटि-कोटि नमस्कार है।
यहाँ श्री गौतम स्वामी कहते हैं-हे श्रेणिक! संसार में इसलोक तथा परलोक में मित्र के समान हित करने वाला दूसरा कोई नहीं है। न मित्र से बढ़कर कोई भाई है। जो बात गुरु अथवा माता-पिता से भी नहीं कही जाती, ऐसी गुप्त से गुप्त बात मित्र से कही जाती है, मित्र अपने प्राणों की परवाह न करके कठिन से कठिन कार्य सिद्ध कर देता है। मणिकेत्ाु देव ही इसके विषय में एक स्पष्ट उदाहरण हैं इसलिए आप सभी को भी ऐसे ही मित्र बनाना चाहिए।
यद्यपि मणिकेतु देव ने मायाचारी से ऐसा अप्रिय कार्य करके सगर चक्रवर्ती को विरक्त करने का उपाय किया था तथापि आचार्यश्री गुणभद्रदेव इसे अच्छा ही कह रहे हैं।
वचन चार प्रकार के होते हैं-(१) कुछ वचन तो हित और प्रिय दोनों होते हैं। (२) कुछ हित और अप्रिय होते हैं। (३) कुछ प्रिय होकर भी अहितकर होते हैं। (४) और कुछ अहित और अप्रिय होते हैं। इन चार प्रकार के वचनों में से अंत के तीसरे व चौथे प्रकार के वचनों को छोड़कर शेष-प्रथम और द्वितीय इन दो प्रकार के वचनों से हित का उपदेश दिया जा सकता है। यहाँ मणिकेतु देव के वचन अथवा उपाय हितकर थे और अप्रिय थे, अर्थात् अप्रिय होकर भी उनका उपाय हितकारी था अत: उन्हें मायाचारी का दोष नहीं लगा था।
पद्मपुराण में लिखा है कि भगवान अजितनाथ के पिता ‘जितशत्रु’ महाराजा थे, उनके छोटे भाई विजयसागर की रानी सुमंगला से सगरचक्रवर्ती जन्मे हैं१ पुन: इन्हीं चक्रवर्ती सगर ने भगवान अजितनाथ के समवसरण में दीक्षा ली है और केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्ष प्राप्त किया है२।
पद्मपुराण में इन साठ हजार चक्रवर्ती के पुत्रों का पूर्वभव पढ़ने योग्य है। यथा-भगवान अजितनाथ ने दिव्यध्वनि से कहा-
एक बार चतुर्विध संघ सम्मेदशिखर की वंदना के लिए जा रहा था, सो मार्ग में वह अन्तिक नामक ग्राम में पहुँचा। संघ में दिगम्बर मुनियों को देखकर उस ग्राम के सब लोग कुवचन कहते हुए संघ की हंसी करने लगे परन्तु उस ग्राम में एक कुंभकार था, उसने गाँव के सब लोगों को मना कर संघ की स्तुति की। किसी समय उस ग्राम में रहने वाले एक मनुष्य ने चोरी की थी, सो अविवेकी राजा ने सोचा कि यह गाँव ही बहुत अपराध करता है, इसलिए घेरा डालकर सारा का सारा गाँव जला दिया। जिस दिन वह गाँव जलाया गया था, उस दिन मध्यस्थ परिणामों का धारक वह कुंभकर निमंत्रित होकर कहीं बाहर गया था अत: वही एक बच गया था। कालांतर में जब कुंभकार मरा तो वह भारी धनपति वैश्य हो गया और गाँव के सब लोग मरकर कौड़ी हुए थे, तो उस वैश्य ने उन कौड़ियों को खरीद दिया। तदनंतर कुंभकार का जीव मरकर राजा हुआ और गाँव के-कौड़ी के जीव मरकर गिजाई हुए, सो राजा के हाथी के पैर के नीचे मरकर वे सब गिजाइयों के जीव संसार में भ्रमण करते रहे। कुंभकार के जीव राजा ने मुनि होकर मरणकर देवपद प्राप्त किया और वहाँ से च्युत होकर सगरचक्रवर्ती के पुत्र जन्हु का पुत्र भगीरथ हुआ था तथा गाँव के जो सभी लोग एक साथ मरे थे, वे क्रम से कौड़ी, गिजाई आदि पर्यायों में भ्रमण कर कुछ पुण्ययोग से सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र हुए हैं।
मुनिनिंदा के पाप से गाँव के सभी लोग एक साथ मरकर नाना दु:खों को प्राप्त करते रहे थे पुन: पुण्ययोग से चक्रवर्ती के पुत्र हुए और कुंभकार ने मुनि की स्तुति के प्रभाव से वैश्य, राजा तथा देव होकर अंत में मोक्ष को प्राप्त किया है अत: मुनियों की निंदा का त्याग कर उनकी स्तुति करके अपने जीवन को सुखी व परलोक को सुखी बनाते हुए परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
श्री धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में मघवा चक्रवर्ती हुए हैं। ये तृतीय चक्रवर्ती थे। इनके पूर्व भव का वर्णन इस प्रकार है-
श्री वासुपूज्य भगवान के तीर्थकाल में ‘नरपति’ नाम के राजा ने राज्य, भोगों से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। घोरातिघोर तप करके मध्यम ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गए। वहाँ की सत्ताईस सागर की आयु में दिव्य सुखों का अनुभव कर अंत में वहाँ से च्युत होकर अयोध्यापुरी के इक्ष्वाकुवंश महाराजा सुमित्र की भद्रारानी से ‘मघवा’ नाम के पुत्र हुए। इनकी पाँच लाख वर्ष की आयु थी, साढ़े चालीस धनुष ऊँचा शरीर था। इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हो गया, तब इन्होंने दिग्विजय करके छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर सार्वभौम एकछत्र शासन किया। एक समय मनोहर उद्यान में ‘‘श्री अभयघोष’’ केवली का आगमन हुआ। उनकी गंधकुटी में पहुँचकर भक्तिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दना, स्तुति, भक्ति, पूजा करके चक्रवर्ती ने केवली भगवान का दिव्य उपदेश सुना, पुन: विरक्तमना होकर अपने पुत्र प्रियमित्र को राज्य देकर स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा ले ली।
निर्दोष संयम का पालन करते हुए अंत में शुक्लध्यान से घातिया कर्मों का नाशकर दिव्य केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। गंधकुटी की रचना देवों के द्वारा की गई। बहुत काल तक श्रीविहार कर चक्रवर्ती केवली भगवान ने असंख्य भव्यों को धर्मामृत पान से तृप्त किया। अनंतर चतुर्थ शुक्लध्यान से सम्पूर्ण अघातिया कर्मों का नाशकर निर्वाणधाम को प्राप्त किया है। ऐसे ये मघवा चक्रवर्ती अनंत-अनंतकाल तक सिद्धशिला के ऊपर विराजमान रहेंगे। इनके श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि वंदन है।
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर१ में कुरुवंश की परम्परा में चतुर्थ चक्रवर्ती सनत्कुमार हुए जो रूपपाश से खिंचकर आये हुए देवों द्वारा संबोधित हो दीक्षित हो गये थे। आराधना कथाकोश में इनका जीवनवृत्त इस प्रकार है-
ये सनत्कुमार चक्रवर्ती सम्यग्दृष्टियों में प्रधान थे। उन्होंने छह खण्ड पृथ्वी अपने वश में कर ली थी। नवनिधि, चौदह रत्न, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी करोड़ शूरवीर, छ्यानवे करोड़ ग्राम, छ्यानवे हजार रानियाँ इत्यादि विशाल वैभव था। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा चक्रवर्ती की आज्ञा शिरसा धारण करते थे। ये चक्रवर्ती कामदेव पद के धारक भी थे।
एक दिन सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने अपनी सभा में मनुष्यों के रूप की प्रशंसा करते हुए सनत्कुमार के रूप को सबसे उत्कृष्ट कहा। उस समय कौतुकवश परीक्षा करने के लिए मणिचूल और रत्नचूल नाम के दो देव यहाँ भूमण्डल पर आये। गुप्तवेष से स्नानागार में राजा के रूप को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए। अनन्तर द्वारपाल से कहा कि चक्रवर्ती को कहो कि स्वर्ग से दो देव आपके रूप को देखने के लिए आये हैं। चक्रवर्ती ने स्नान करके वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो सिंहासन पर आरूढ़ होकर उन देवों को आने को कहा। उस समय वे देव सभा में आकर बोले-महाराज! स्नान के समय जो आपका रूप था, वह अब नहीं रहा। ऐसा सुनकर सभी सभासदों को बहुत ही आश्चर्य हुआ।
देवों ने एक घड़े में जल भर दिया और एक बिन्दु जल निकाल दिया फिर सभा से पूछा, कि क्या जल कम हो गया है? उत्तर में सबने कहा-जल ज्यों की त्यों भरा है। बस! देवों ने कहा-ऐसे ही राजा के रूप में जो अन्तर हुआ है वह तुम्हें पता नहीं चल रहा है। इस घटना से चक्रवर्ती संसार के विषय भोगों से विरक्त हो गये। अपने पुत्र सुकुमार को राज्य देकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और घोराघोर तपश्चरण करने लगे। पराधीन प्रकृति, विरुद्ध आहार आदि के निमित्त से और असाता कर्म के तीव्रोदय से मुनिराज सनत्कुमार के शरीर में भयंकर रोग उत्पन्न हो गये किन्तु वे मुनि शरीर से निर्मम होने से उसकी उपेक्षा करके अपनी आवश्यक क्रियाओं में सावधान थे और कठिन से कठिन तप कर रहे थे।पुन: किसी समय सौधर्म स्वर्ग की इन्द्रसभा में मुनियों के चारित्र की प्रशंसा करते हुए इन्द्र ने सनत्कुमार मुनि की प्रशंसा की। उस समय मदनकेतु नाम का देव उनकी परीक्षा के लिए यहाँ आया। वैद्य का वेष बनाकर वन में साधु के पास गया। मुनिराज ने कहा-भाई! मुझे सबसे ब़ड़ा रोग है यदि तुम उसकी दवाई कर सको तो ठीक है। वैद्य ने पूछा-वह क्या है? मुनिराज ने कहा-वह रोग है ‘जन्म लेना’ यदि इस रोग की दवाई तुम्हारे पास है तो दे दो। वैद्य वेषधारी देव ने कहा-इस रोग को तो मैं कुछ नहीं समझता हूँ। उस समय मुनिराज ने अपनी तप शक्ति से उत्पन्न हुई ऋद्धियों के बल से क्षणमात्र में अपने एक हाथ का कुष्ठ रोग नष्ट करके उस वैद्य को बता दिया और कहा कि जब शरीर मेरा नहीं है तब मैं इसकी चिंता क्यों करूँ इसलिए मैं निस्पृह हूँ। यह चमत्कार देखकर वैद्य ने अपने रूप को प्रगट कर मुनि की अनेक स्तुतियों से स्तुति करते हुए पूजा की और कहा-हे नाथ! जन्म-मरण को दूर करने वाली औषधि तो आपके पास ही है और आप स्वयं इसका सेवन कर भी रहे हैं तथा हम जैसे संसारी दीन प्राणी भी आप जैसे महापुरुषों की शरण में आकर इस रोग का नाश कर सकते हैं।
इस प्रकार मुनि का माहात्म्य प्रगट कर वह देव स्वर्ग चला गया।
इधर मुनिराज सनत्कुमार उपसर्ग एवं परीषहों को सहन करने में समर्थ अपने चारित्र को वृद्धिंगत करते हुए घातिया कर्मों का नाशकर केवली हो गये और बहुत काल तक पृथ्वी पर विहार कर अघातिया कर्मों का भी नाशकर शाश्वत सुखमय सिद्धपद को प्राप्त हो गये।
इन चक्रवर्ती की कुल आयु तीन लाख वर्ष की थी। उसमें पचास हजार वर्ष कुमार काल में, पचास हजार वर्ष मांडलिक अवस्था में, दस हजार वर्ष दिग्विजय में, नब्बे हजार वर्ष चक्रवर्ती होकर राज्य के उपभोग में और एक लाख वर्ष संयमी मुनि अवस्था में व्यतीत हुए हैं।
ये चक्रवर्ती पन्द्रहवें धर्मनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हुए हैं। आज लोक के अग्रभाग में विराजमान सिद्ध परमात्मा हैं उन्हें मेरा बारम्बार नमस्कार होवे।
कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर राजधानी में कुरुवंशी राजा विश्वसेन राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम ऐरावती था। भगवान शांतिनाथ के गर्भ में आने के छह महीने पहले से ही इन्द्र की आज्ञा से हस्तिनापुर नगर में माता के आंगन में रत्नों की वर्षा होने लगी और श्री, ह्री, धृति आदि देवियाँ माता की सेवा में तत्पर हो गईं। भादों वदी सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में रानी ने गर्भ धारण किया। उस समय स्वर्ग से देवों ने आकर तीर्थंकर महापुरुष का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा की।
नव मास व्यतीत होने के बाद रानी ऐरादेवी ने ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन प्रात:काल के समय तीन लोक के नाथ ऐसे पुत्ररत्न को जन्म दिया। उसी समय चार प्रकार के देवों के यहाँ स्वयं ही बिना बजाये शंखनाद, भेरीनाद, सिंहनाद और घण्टानाद होने लगे। सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर इन्द्राणी और असंख्य देवगणों सहित नगर में आया तथा भगवान को सुमेरुपर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव मनाया। अभिषेक के अनन्तर भगवान को अनेकों वस्त्रालंकारों से विभूषित करके उनका ‘‘शांतिनाथ’’ यह नाम रखा। इस प्रकार भगवान को हस्तिनापुर वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर पुनरपि यहाँ जन्मकल्याणक महोत्सव मनाकर आनंद नामक नाटक करके अपने-अपने स्थान पर चले गये।
भगवान की आयु एक लाख वर्ष की थी, शरीर चालीस धनुष ऊँचा था, सुवर्ण के समान वâांति थी, ध्वजा, तोरण, शंख, चक्र आदि एक हजार आठ शुभ चिन्ह उनके शरीर में थे। उन्हीं विश्वसेन की यशस्वती रानी के चक्रायुध नाम का एक पुत्र हुआ। देवकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए भगवान शांतिनाथ अपने छोटे भाई चक्रायुध के साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। भगवान की यौवन अवस्था आने पर उनके पिता ने कुल, रूप, अवस्था, शील, कांति आदि से विभूषित अनेक कन्याओं के साथ उनका विवाह कर दिया।
इस तरह भगवान के जब कुमारकाल के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गये, तब महाराज विश्वसेन ने उन्हें अपना राज्य समर्पण कर दिया। क्रम से उत्तमोत्तम भोगों का अनुभव करते हुए जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष और व्यतीत हो गये, तब उनकी आयुधशाला में चक्रवर्ती के वैभव को प्रगट करने वाला चक्ररत्न उत्पन्न हो गया। इस प्रकार चक्र को आदि लेकर चौदह रत्न और नवनिधियाँ प्रगट हो गईं। इन चौदह रत्नों में चक्र, छत्र, तलवार और दण्ड ये आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे, काकिणी, चर्म और चूड़ामणि श्रीगृह में प्रकट हुए थे, पुरोहित, सेनापति, स्थपति और गृहपति हस्तिनापुर में मिले थे और स्त्री, गज तथा अश्व विजयार्ध पर्वत पर प्राप्त हुए थे। नौ निधियाँ भी पुण्य से प्रेरित हुए इन्द्रों के द्वारा नदी और सागर के समागम पर लाकर दी गई थीं।
चक्ररत्न के प्रकट होने के बाद भगवान ने विधिवत् दिग्विजय करके छह खण्ड को जीतकर इस भरतक्षेत्र में एकछत्र शासन किया था। जहाँ पर स्वयं भगवान शांतिनाथ इस पृथ्वी पर प्रजा का पालन करने वाले थे, वहाँ के सुख और सौभाग्य का क्या वर्णन किया जा सकता है? इस प्रकार चक्रवर्ती के साम्राज्य में भगवान की छ्यानवे हजार रानियाँ थीं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनकी सेवा करते थे और बत्तीस यक्ष हमेशा चामरों को ढुराया करते थे। चक्रवर्तियों के साढ़े तीन करोड़ बंधुकुल होता है। अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, तीन करोड़ उत्तम वीर, अनेकों करोड़ विद्याधर और अठासी हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। छ्यानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौबीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब और अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं इत्यादि अनेकों वैभव होते हैं।
चौदह रत्नों के नाम-स्त्री, पुरोहित, सेनापति, स्थपति, गृहपति, गज और अश्व ये सात जीवित रत्न हैं एवं छत्र, असि, दण्ड, चक्र, काकिणी, चिंतामणि और चर्म ये सात रत्न निर्जीव होते हैं।
नवनिधियों के नाम-काल, महाकाल, पाण्डु, मानव, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न ये नौ निधियाँ हैं। ये क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्यों, भाजन, धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र, हर्म्य, आभरण और रत्नसमूहों को दिया करती हैं।
दशांग भोग-दिव्यपुर, रत्न, निधि, सैन्य, भोजन, भाजन, शय्या, आसन, वाहन और नाट्य ये चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं।
इस प्रकार संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियों से वेष्टित भगवान शांतिनाथ चक्रवर्ती के साम्राज्य को प्राप्त कर दश प्रकार के भोगों का उपभोग करते हुए सुख से काल व्यतीत कर रहे थे। भगवान सोलहवें तीर्थंकर और पाँचवें चक्रवर्ती होने के साथ-साथ बारहवें कामदेव पद के धारक भी थे।
भगवान का वैराग्य-जब भगवान के पच्चीस हजार वर्ष साम्राज्यपद में व्यतीत हो गये, तब एक समय अलंकारगृह के भीतर अलंकार धारण करते हुए उन्हें दर्पण में अपने दो प्रतिबिम्ब दिखाई दिये। उसी समय उन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और पूर्व जन्म का स्मरण भी हो गया। तब भगवान संसार, शरीर और भोगों के स्वरूप का विचार करते हुए विरक्त हो गये। उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर अनेकों स्तुतियों से स्तुति पूजा की, अनन्तर सौधर्म आदि इन्द्र सभी देवगणों के साथ उपस्थित हो गये। भगवान ने नारायण नाम के पुत्र का राज्याभिषेक करके सभी कुटुम्बियों को यथायोग्य उपदेश दिया।
भगवान का दीक्षा ग्रहण-अनन्तर इन्द्र ने भगवान का दीक्षाभिषेक करके ‘‘सर्वार्थसिद्धि’’ नाम की पालकी में विराजमान करके हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्र वन में प्रवेश किया। उसी समय ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में बेला का नियम लेकर भगवान ने पंचमुष्टि लोंच करके ‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’ कहते हुए नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके ध्यान में स्थिर होते ही मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर लिया।
भगवान का आहार-मंदिरपुर के राजा सुमित्र ने भगवान शांतिनाथ को खीर का आहार देकर पंचाश्चर्य वैभव को प्राप्त किया। इस प्रकार अनुक्रम से तपश्चरण करते हुए भगवान के सोलह वर्ष व्यतीत हो गये।
भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-भगवान शांतिनाथ सहस्राम्रवन में नंद्यावर्त वृक्ष के नीचे पर्यंकासन से स्थित हो गये और पौष शुक्ल दशमी के दिन अन्तर्मुहूर्त में दशवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म का नाशकर बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का सर्वथा अभाव करके तेरहवें गुणस्थान में पहुँचकर केवलज्ञान से विभूषित हो गये और उन्हें एक समय में ही सम्पूर्ण लोकालोक स्पष्ट दिखने लगा। पहले भगवान ने चक्ररत्न से छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर साम्राज्यपद प्राप्त किया था, अब भगवान ने ध्यानचक्र से विश्व में एकछत्र राज्य करने वाले मोहराज को जीतकर केवलज्ञानरूपी साम्राज्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लिया। उसी समय इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने दिव्य समवसरण की रचना कर दी।
समवसरण का संक्षिप्त वर्णन-यह समवसरण पृथ्वीतल से पाँच हजार धनुष ऊँचा था, इस पृथ्वीतल से एक हाथ ऊँचाई से ही इसकी सीढ़ियाँ प्रारंभ हो गई थीं। ये सीढ़ियाँ एक-एक हाथ की थीं और बीस हजार प्रमाण थीं। यह समवसरण गोलाकार रहता है। इसमें सबसे पहले धूलिसाल के बाद चारों दिशाओं में चार मानस्तंभ हैं, मानस्तंभों के चारों ओर सरोवर हैं, पुन: प्रथमभूमि-चैत्यप्रासादभूमि है। इसके बाद निर्मल जल से भरी परिखा है, फिर पुष्पवाटिका (लतावन) हैं, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर से दो-दो नाट्यशालाएँ हैं, उसके आगे दूसरा अशोक, आम्र, चंपक और सप्तपर्ण का वन है, जिसका नाम उपवनभूमि है। उसके आगे वेदिका है, तदनन्तर ध्वजाओं की पंक्तियाँ हैं, फिर दूसरा कोट है, उसके आगे वेदिका सहित कल्पवृक्षों का वन है, उसके बाद स्तूप, स्तूपों के बाद मकानों की पंक्तियाँ हैं, फिर स्फटिक मणिमय तीसरा कोट है उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियों की बारह सभाएँ हैं। इस प्रकार इस समवसरण में आठ भूमियाँ हैं, चार परकोटे हैं और पाँच वेदियाँ हैं। तदनन्तर पीठिका है। इस पीठिका में तीन कटनी हैं उन पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ हैं। प्रथम कटनी पर धर्मचक्र है, द्वितीय कटनी पर आठ महाध्वजाएँ एवं तीसरी कटनी पर गंधकुटी है। इसके अग्रभाग पर कमलासन पर चार अंगुल अधर ही अर्हन्त देव विराजमान रहते हैं। भगवान पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर स्थित रहते हैं फिर भी अतिशय विशेष से चारों दिशाओं में ही भगवान का मुँह दिखता रहता है। समवसरण में चारों ओर प्रदक्षिणा के क्रम से पहले कोठे में गणधर और मुनिगण, दूसरे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे में आर्यिकाएँ और श्राविकाएँ, चौथे में ज्योतिषी देवांगनाएँ, पाँचवें में व्यन्तर देवांगनाएँ, छठे में भवनवासी देवांगनाएँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दसवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती आदि मनुष्य और बारहवें में पशु बैठते हैं।
समवसरण में भव्य जीवों का प्रमाण-भगवान के समवसरण में चक्रायुध को आदि लेकर छत्तीस गणधर थे। बासठ हजार मुनिगण, साठ हजार तीन सौ आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और चार लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। इस प्रकार बारह गणों के साथ-साथ भगवान ने बहुत काल तक धर्म का उपदेश दिया।
भगवान को मोक्षगमन-जब भगवान की आयु एक माह शेष रह गई, तब वे सम्मेदशिखर पर आये और विहार बंद कर अचल योग में विराजमान हो गये। ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी के दिन भगवान चतुर्थ शुक्लध्यान के द्वारा चारों अघातिया कर्मों का नाशकर एक समय में लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो गये। वे नित्य, निरंजन, कृतकृत्य सिद्ध हो गये। उसी समय इन्द्रादि चार प्रकार के देवों ने आकर निर्वाणकल्याणक की पूजा की और अंतिम संस्कार करके भस्म से अपने ललाट आदि उत्तमांगों को पवित्र कर स्व-स्व स्थान को चले गये।
ये शांतिनाथ भगवान तीर्थंकर होने से बारहवें भव पूर्व राजा श्रीषेण थे और मुनि को आहारदान देने के प्रभाव से भोगभूमि में गये थे, फिर देव हुए, फिर विद्याधर हुए, फिर देव हुए, फिर बलभद्र हुए, फिर देव हुए, फिर वङ्काायुध चक्रवर्ती हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा ली थी और एक वर्ष का योग धारण कर खड़े हो गये थे, तब इनके शरीर पर लताएँ चढ़ गई थीं, सर्पों ने वामी बना ली थी, पक्षियों ने घोंसले बना लिये थे और ये वङ्काायुध मुनिराज ध्यान में लीन रहे थे, अनन्तर अहमिन्द्र हुए, फिर मेघरथ राजा हुए, उस भव में इन्होंने दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करते हुए सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था और उसके प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था, फिर वहाँ से सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, फिर वहाँ से आकर जगत को शांति प्रदान करने वाले सोलहवें तीर्थंकर, बारहवें कामदेव और पंचम चक्रवर्ती ऐसे शांतिनाथ भगवान हुए।
उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि इस संसार में अन्य लोगों की बात जाने दीजिए, श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र को छोड़कर भगवान तीर्थंकरों में ऐसा कौन है जिसने पूर्व के बारह भवों में से प्रत्येक भव में बहुत भारी वृद्धि प्राप्त की हो? इसलिए हे विद्वान् लोगों! यदि तुम शांति चाहते हो तो सबसे उत्तम और सबका भला करने वाले श्री शांतिनाथ जिनेन्द्र का निरन्तर ध्यान करते रहो। यही कारण है कि आज भी भव्यजीव शांति की प्राप्ति के लिए श्री शांतिनाथ भगवान की आराधना करते हैं।
पुष्पदंत तीर्थंकर से लेकर सात तीर्थंकरों तक उनके तीर्थकाल में धर्म की व्युच्छित्ति हुई अत: धर्मनाथ तीर्थंकर के बाद पौन पल्य कम तीन सागर तक धर्म की परम्परा अव्युच्छिन्नरूप से चलती रही। अनन्तर पाव पल्यकाल तक इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में धर्म का विच्छेद हो गया अर्थात् हुण्डावसर्पिणी के दोष से उस पाव पल्य प्रमाणकाल तक दीक्षा लेने वालों का अभाव हो जाने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, उस समय शांतिनाथ ने जन्म लिया था। तब से आज तक धर्म परम्परा अविच्छिन्नरूप से चली आ रही है। इसलिए उत्तरपुराण में श्री गुणभद्र स्वामी कहते हैं कि-
‘‘भोगभूमि आदि कारणों से नष्ट हुआ मोक्षमार्ग यद्यपि ऋषभनाथ आदि तीर्थंकरों के द्वारा पुन: पुन: दिखलाया गया था तो भी उसे प्रसिद्ध अवधि के अन्त तक ले जाने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका, तदनन्तर जो शांतिनाथ भगवान ने मोक्षमार्ग प्रगट किया, वही आज तक अखण्डरूप से बाधा रहित चला आ रहा है इसलिए इस युग के आद्य गुरु श्री शांतिनाथ भगवान ही हैं क्योंकि उनके पहले जो पन्द्रह तीर्थंकरों ने मोक्षमार्ग चलाया था, वह बीच-बीच में विनष्ट होता जाता था।’’
इस प्रकार से इस हस्तिनापुर नगरी में भगवान शांतिनाथ के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ऐसे चार कल्याणक हुए हैं, यह बात स्पष्ट है तथा शांतिनाथ ने आम्रवन में दीक्षा ली एवं आम्रवन में ही उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसा कथन तिलोयपण्णत्ति एवं उत्तरपुराण दोनों ही गं्रथों में स्पष्ट है इसलिए यह हस्तिनापुर नगरी भगवान शांतिनाथ के चार कल्याणकों से पवित्र हो चुकी है।
जिनके शरीर की ऊँचाई एक सौ साठ हाथ थी, जो पंचम चक्रवर्ती थे और बारहवें कामदेव पद के धारी थे, जिनके हिरण का चिन्ह था, जो भादों वदी सप्तमी को माता के गर्भ में आये, ज्येष्ठ वदी चौदस को जन्म लिया और ज्येष्ठ वदी चौदस को ही दीक्षा ग्रहण किया, पौष शुक्ला दशमी के दिन केवलज्ञानी हुए पुन: ज्येष्ठ वदी चौदस को मुक्ति धाम को प्राप्त हुए, ऐसे शांतिनाथ भगवान सदैव हम सबको शांति प्रदान करें।
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में कुरुवंशी महाराज सूरसेन राज्य करते थे, उनकी पट्टरानी का नाम श्रीकांता था। उस पतिव्रता देवी ने देवों के द्वारा की हुई रत्नवृष्टि आदि पूजा प्राप्त की थी। श्रावण कृष्ण दशमी के दिन रानी ने सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र को गर्भ में धारण किया, उस समय इन्द्रों ने आकर भगवान का गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया और माता-पिता की पूजा करके स्वस्थान को चले गये। क्रम से नवमास व्यतीत हो जाने पर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन पुत्ररत्न का जन्म हुआ, उसी समय इन्द्रादि सभी देवगण आये और बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर महामहिम जन्माभिषेक महोत्सव करके अलंकारों से अलंकृत किया एवं बालक का नाम ‘‘कुंथुनाथ’’ रखा। वापस लाकर माता-पिता को सौंपकर देवगण स्वस्थान को चले गये। पंचानवे हजार वर्ष की इनकी आयु थी, पैंतीस धनुष ऊँचा शरीर था और तपाये हुए स्वर्ण के समान शरीर की कांति थी। ये तेरहवें कामदेव एवं छठे चक्रवर्ती पद के धारक थे।
तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमार काल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ और इतना ही काल बीत जाने पर उन्हें वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्मी मिली। इस प्रकार वे बाधा रहित, निरन्तर दश प्रकार के भोगों का उपभोग करते थे, सारा वैभव शांतिनाथ भगवान के समान ही था। चक्रवर्ती पद के साम्राज्य का उपभोग करते हुए भगवान के तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष व्यतीत हो गये।
किसी समय भगवान को पूर्वभव का स्मरण हो जाने से आत्मज्ञान उत्पन्न हो गया और वे भोगों से विरक्त हो गये, उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु का स्तवन- पूजन किया। उन्होंने अपने पुत्र को राज्यभार देकर इन्द्रों द्वारा किया हुआ दीक्षाकल्याणक उत्सव प्राप्त किया। देवों द्वारा लाई गई ‘विजया’ नाम की पालकी पर सवार होकर भगवान सहेतुक वन में पहुँचे, वहाँ तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन कृत्तिका नक्षत्र में तिलक वृक्ष के नीचे सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। उसी समय प्रभु को मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। दूसरे दिन हस्तिनापुर के धर्ममित्र राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य को प्राप्त किया। इस प्रकार घोर तपश्चरण करते हुए प्रभु के सोलह वर्ष बीत गये।
किसी दिन भगवान तेला का नियम लेकर तप करने के लिए वन में तिलक वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। वहाँ चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना की और केवलज्ञान कल्याणक की पूजा की। भगवान के समवसरण में स्वयंभू को आदि लेकर पैंतीस गणधर, साठ हजार मुनिराज, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। भगवान दिव्यध्वनि के द्वारा चिरकाल तक धर्मोपदेश देते हुए विहार करते रहे। भगवान का केवलीकाल तेईस हजार सात सौ चौंतीस वर्ष का था।
जब भगवान की आयु एक मास की शेष रह गई, तब वे सम्मेदशिखर पर पहुँचे और प्रतिमायोग धारण कर लिया, वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन रात्रि के पूर्व भाग में समस्त कर्मों से रहित, नित्य, निरंजन, सिद्धपद को प्राप्त हो गये। ये कुंथुनाथ भगवान तीर्थंकर होने के तीसरे भव पहले सिंहरथ राजा थे, मुनि अवस्था में सोलहकारण भावनाओं के प्रभाव से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया, पुन: सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर कुंथुनाथ नाम के सत्रहवें तीर्थंकर, छठे चक्रवर्ती और तेरहवें कामदेव पद के धारक हुए हैं।
तिलोयपण्णत्ति और उत्तरपुराण के अनुसार इन भगवान के भी गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान ये चारों कल्याणक हस्तिनापुर में ही हुए हैं। भगवान का गर्भकल्याणक श्रावण कृष्णा दशमी को हुआ, दीक्षाकल्याणक चैत्र शुक्ला तृतीया को हुआ तथा जन्म, केवलज्ञान और मोक्षकल्याणक वैशाख शुक्ला प्रतिपदा को हुआ है। भगवान के शरीर की ऊँचाई १४० हाथ प्रमाण थी, बकरे का चिन्ह था, ऐसे सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथ भगवान हम और आपको शाश्वत सुख प्रदान करें।
इसी हस्तिन्ाापुर नगरी में सोमवंश में उत्पन्न हुए राजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी मित्रसेना नाम की रानी थी। रानी ने फाल्गुन कृष्णा तृतीया के दिन गर्भ में अहमिन्द्र के जीव को धारण किया, उसी समय देवों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। रात्री मित्रसेना ने नवमास के बाद मगसिर शुक्ल चतुर्दशी के दिन पुष्य नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। देवों ने बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव करके भगवान का अरनाथ नाम रखा। भगवान की आयु चौरासी हजार वर्ष की थी, १२० हाथ ऊँचा शरीर था, सुवर्ण के समान शरीर की कांति थी।
भगवान के कुमार अवस्था के इक्कीस हजार वर्ष बीत जाने पर उन्हें मण्डलेश्वर के योग्य राज्य पद प्राप्त हुआ, इसके बाद इतना ही काल बीत जाने पर चक्रवर्ती पद प्राप्त हुआ। इस तरह भोग भोगते हुए जब आयु का तीसरा भाग बाकी रह गया, तब शरद ऋतु के मेघों का अकस्मात् विलय होना देखकर भगवान को वैराग्य हो गया। लौकांतिक देवों द्वारा स्तुत्य भगवान अपने अरविंद कुमार को राज्य देकर देवों द्वारा उठाई हुई वैजयंती नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में पहुँचे। तेला का नियम कर मगसिर शुक्ला दशमी के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान ने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर के अपराजित राजा ने भगवान को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किया था।
जब भगवान के छद्मस्थ अवस्था के सोलह वर्ष बीत गये, तब वे कार्तिक शुक्ला दशमी के दिन आम्रवन के नीचे तेला का नियम लेकर विराजमान हुए और घातिया कर्मों का नाशकर केवली बन गये। देवों ने आकर समवसरण की रचना करके केवलज्ञान की पूजा की। भगवान के समवसरण में तीस गणधर, पचास हजार मुनिराज, साठ हजार आर्यिकाएँ, एक लाख साठ हजार श्रावक, तीन लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच थे। इस तरह बारह सभाओं से घिरे हुए भगवान अरनाथ ने बीस हजार नौ सौ चौरासी वर्ष केवली अवस्था में व्यतीत किए।
जब एक माह की आयु शेष रही, तब भगवान सम्मेदशिखर पर जाकर प्रतिमायोग से स्थित हो गये। चैत्र कृष्ण अमावस्या के दिन रेवती नक्षत्र में रात्रि के पूर्वभाग में सम्पूर्ण कर्मों से रहित अशरीरी होकर सिद्ध पद को प्राप्त हो गये। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ सातवें चक्रवर्ती और चौदहवें कामदेवपद के भी धारक थे। तीर्थंकर होने से पूर्व तीसरे भव में ये भगवान धनपति नाम के राजा थे, दीक्षा लेकर सोलहकारण भावनाओं के बल से तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया था, पुन: जयंत विमान में अहमिन्द्र हुए, वहाँ से आकर अरनाथ तीर्थंकर हुए हैं। इनका मत्स्य का चिन्ह था।
इन अरनाथ ने भी गर्भ, जन्म, तप और केवलज्ञान इन चारों कल्याणकोें को हस्तिनापुर नगर में ही प्राप्त किया है। इनको मुक्त हुए लगभग सौ अरब, पैंसठ लाख, छ्यासी हजार पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ये अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ भगवान सदा हम सब की रक्षा करें।
हस्तिनापुर नगर१ में कौरव वंशी कार्तवीर्य नाम का राजा था, उसने कामधेनु के लोभ में जमदग्नि नामक तपस्वी को मार डाला। जमदग्नि का लड़का परशुराम था। यह भी बड़ा बलवान था अत: उसने क्रुद्ध होकर पिता को मारने वाले कार्तवीर्य को मार डाला तथा अनेकों क्षत्रियों को भी मार डाला। उस समय कार्तवीर्य राजा की तारा नाम की रानी गर्भवती थी, वह गुप्तरूप से कौशिक ऋषि के आश्रम में जा पहुँची, वहाँ उसने क्षत्रियों के त्रास को नष्ट करने वाले आठवें चक्रवर्ती को जन्म दिया। चूँकि वह पुत्र भूमिगृह-तलघर में उत्पन्न हुआ था इसलिए ‘सुभौम’ इस नाम से पुकारा जाने लगा। इधर वह बालक गुप्तरूप से ऋषि के आश्रम में बढ़ रहा था, उधर परशुराम के यहाँ अशुभ सूचक उत्पात होने से निमित्तज्ञानियों ने बतलाया कि तुम्हारा शत्रु उत्पन्न हो गया है। उसके जानने का उपाय यह है, ‘‘तुम्हारे द्वारा मारे गये क्षत्रियों की दाढ़ें जिसके भोजन करते समय खीररूप में परिणत हो जायें, वही तुम्हारा शत्रु है।’’
यह सुनकर परशुराम ने शीघ्र ही एक दानशाला खुलवाई और वहीं मध्य में क्षत्रियों की दाढ़ों से भरा हुआ पात्र रखकर वहाँ विद्वान आदमी नियुक्त कर दिया। जब सुभौम को इस बात का पता लगा तब वह शीघ्र ही वहाँ पहुँचकर भोजनशाला में खाने के लिए बैठ गया। ब्राह्मण के अग्रासन पर बैठे हुए कुमार सुभौम के आगे दाढ़ों का पात्र रखा गया और उसके प्रभाव से समस्त दाढ़ें खीररूप परिणत हो गईं। यह सूचना शीघ्र ही परशुराम को दी गई और वह अपना फरसा लेकर शीघ्र उसे मारने आ गया। उस समय सुभौम के पुण्य से वह थाली चक्ररत्न बन गई। उसने उसी चक्र से शीघ्र ही परशुराम को मार गिराया। वह सुभौम चक्रवर्ती अष्टम चक्री के रूप में प्रगट हो गया। चौदह रत्न, नव निधियाँ और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसकी सेवा करने लगे। शठ के प्रति शठता दिखाने वाले उस चक्रवर्ती ने क्रोधयुक्त हो चक्ररत्न से इक्कीस बार पृथ्वी को ब्राह्मण रहित कर दिया। चक्रवर्ती सुभौम साठ हजार वर्ष तक जीवित रहा परन्तु तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ इसलिए आयु के अन्त में मरकर नरक गया।
उत्तरपुराण में सुभौम चक्रवर्ती का कथानक कुछ विशेष है यथा-राजा सहस्रबाहु की रानी चित्रमती थी। वह चित्रमती कन्याकुब्ज देश के राजा ‘पारत’ की पुत्री थी। इनके कृतवीर (कार्तवीर्य) नाम का प्ाुत्र हुआ। इसी से संबंधित एक कथा और है-
राजा सहस्रबाहु के काका शतबिन्दु से उनकी श्रीमती स्त्री के जमदग्नि नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। यह श्रीमती (जमदग्नि की माँ) चित्रमती के पिता राजा पारत की बहन थी। कुमारावस्था में माँ के मर जाने से जमदग्नि तापस हो गया और पंचाग्नि तप तपने लगा।
किसी समय एक सौधर्म स्वर्ग का देव और एक ज्योतिषी देव दोनों मिले, आपस में सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की चर्चा करने लगे। स्वर्ग के देव ने कहा कि मिथ्यात्व के कारण जीव अनंत संसार में परिभ्रमण करता है। दोनों ही चर्चा के अनन्तर एक-दूसरे के धर्म की परीक्षा के लिए वहाँ आये और जहाँ यह जमदग्नि तप कर रहा था, वहाँ चिड़ा-चिड़ी का रूप बनाकर उस साधु की दाड़ी में रहने लगे। एक दिन चिड़ा किसी चिड़ी के विवाह में जाने लगा तब चिड़ी ने कहा कि वापस आने के लिए कुछ शपथ करके जाओ। उत्तर में चिड़ा बोला कि इस तापस की जो गति होगी उसको छोड़कर तू चाहे जो शपथ करवा ले। बस, यह सुनते ही जमदग्नि एकदम क्रोधित हो इनको मारने लगा, तब वे दोनों उड़कर सामने के पेड़ पर जा बैठे। तब उसने इन्हें कुछ विशेष समझकर पूछा कि ‘मेरे कठिन तप से होने वाली भावी गति को तुमने क्यों नहीं पसंद किया?’’ उत्तर में चिड़ा ने कहा-अरे! ‘अपुत्रस्य कुतो गति:’ पुत्र रहित मनुष्य की कोई गति नहीं होती, ऐसा वेदवाक्य है फिर आप बालब्रह्मचारी रहकर क्यों तप कर रहे हो? ऐसे वचन सुनकर वह अज्ञानी तापसी विषयासक्त हो गया। आचार्य कहते हैं कि जब अनादिकाल से मनुष्य की विषयों में होने वाली बुद्धि बड़ी मुश्किल से गुरु के उपदेश से हटाई जाती है तब यदि गुरु उपदेश ही विषयों का पोषक मिल जाये, फिर क्या पूछना?
वह तापस सीधे अपने मामा राजा पारत के पास आया और कन्या की याचना करने लगा। राजा बहुत ही दुखी हुए फिर भी साधु के शाप दे देने के डर से उन्होंने कहा-मेरी सौ पुत्रियों में तुम्हें जो चाहे, उसे ले जाओ। उस तापस के अधजले मुरदे जैसे विरूप को देखकर सब कन्याएँ भाग गईं। तब उस तापस ने धूलि में खेलती हुई एक कन्या को केला दिखाकर कहा-क्या तू मुझे चाहेगी? उस बालिका ने ‘हाँ’ कहकर केला ले लिया। बस तापस उसे गोद में लेकर गया और उसे बड़ी कर उससे विवाह कर लिया।
उस समय लोग उसकी अज्ञानता को धिक्कारते थे। तभी से ऋषि आश्रम में पत्नी सहित रहने की कुप्रथा चल पड़ी। उन जमदग्नि और रेणुका से इन्द्र (परशुराम) और श्वेतराम ऐसे दो पुत्र उत्पन्न हुए।
कुछ दिन बाद अिंरजय नाम के एक साधु रेणुका के जो बड़े भाई थे, वे वहाँ आये। रेणुका ने उनकी बड़ी भक्ति की। भाई! ‘आपने हमें विवाह में कुछ नहीं दिया, अब कुछ दीजिए’ ऐसी याचना करने में मुनि ने ‘कामधेनु’ नाम की विद्या और मंत्र सहित फरसा ये दो चीजें दे दीं।
किसी दिन उस वन में सहस्रबाहु राजा कृतवीर के साथ आये। उनका सत्कार करके रेणुका ने ‘कामधेनु’ से उत्पन्न हुई खीर का भोजन कराया। कृतवीर ने अपनी माँ की छोटी बहन रेणुका से पूछा-ऐसा भोजन राजाओं के यहाँ दुर्लभ है सो यहाँ वन में तुम्हारे यहाँ वैâसे आया? उत्तर में रेणुका ने मुनि द्वारा प्रसाद में प्राप्त कामधेनु विद्या बता दी। कृतघ्नी कृतवीर ने उसे मांगा। जमदग्नि के नहीं देने पर उसने उस साधु को मारकर वह कामधेनु ले ली और अपने नगर आ गये।
वन से कुश लेकर आकर दोनों ऋषियों ने जब माता का रूदन और पिता का निधन देखा तब वे कुपित हो मंत्रित फरसा लेकर गये और राजा सहस्रबाहु तथा कृतवीर को मार दिया। रानी चित्रमती गर्भवती थी। उसके भाई शांडिल्य नामक तापस ने इस घटना को देख बहन को अज्ञातरूप से ले जाकर किन्हीं मुनि के समीप उसे बिठा दिया। उसके पुत्ररत्न का जन्म हुआ, तब वनदेवता ने भावी चक्रवर्ती जानकर उसके पुण्य से उस बालक की रक्षा की। रानी के प्रश्न करने पर मुनि ने कहा-हे अम्ब! यह बालक सोलहवें वर्ष में चक्रवर्ती होगा, तू भय मत कर।
तापस शांडिल्य, चित्रमती को पुत्र सहित अपने स्थान पर ले गया और सुभौम नाम रखा। इधर परशुराम, श्वेतराम दोनों ऋषिपुत्र इक्कीस बार क्षत्रियों का वंश निर्मूल करके सुख से राज्य कर रहे थे। निमित्तज्ञानी द्वारा बताने पर शत्रु का निर्णय करने के लिए दानशाला में मरे हुए क्षत्रियों के दांत (दाढ़ें) पात्र में रखा दीं। ये सुभौम वहाँ दानशाला में पहुँचे। वे दांत शालि चावल बन गये। तब परशुराम आया। उसी समय सुभौम के पुण्य से चक्ररत्न प्रगट हो गया। कुमार ने उससे ब्राह्मण को मार डाला। इस आठवें चक्रवर्ती की हजार वर्ष की आयु थी। अट्ठाईस धनुष (११२ हाथ) ऊँचा शरीर था। यह छह खण्ड का अधिपति हो गया।
किसी दिन रसोईये ने सुभौम को रसायना नाम की ‘कढ़ी’ परौसी, सुभौम राजा ने उसके नाम से चिढ़कर उसे दण्डित किया, जिससे वह मरकर ज्योतिष्क देव हो गया। कुअवधि से यहाँ आकर व्यापारी के वेष में राजा को अच्छे-अच्छे फल देने लगा। रसना इन्द्रिय लंपट राजा भी उसमें आसक्त हो गया, तब एक दिन यह कपट से राजा को समुद्र के मध्य में ले गया और वेष प्रगट कर बदला चुकाने के लिए मारने को उद्यत हुआ। आराधना कथाकोश में बताया है कि जब तक सुभौम वहाँ ‘णमोकार’ मंत्र जपता रहा, तब तक देव उसे मार नहीं सका। तब उसने कपट से कहा-राजन्! यदि आप अपने मंत्र को लिखकर मिटा देंगे (छोड़ देंगे) तब मैं आपको जीवित छोड़ दूँगा अन्यथा मार दूँगा। प्राणों के लोभ से राजा ने मंत्र की अवहेलना कर दी। बस, देव ने उसे मार दिया। वह मिथ्यात्व से मरकर नरक चला गया। देखो! जो मंत्र रक्षक था, राजा ने उसे ही जब छोड़ दिया, तब उसकी रक्षा वैâसे होती? इसलिए बुद्धिमानों को संकट में धर्म की ही शरण लेना चाहिए, धर्म को छोड़ना नहीं चाहिए।
अरनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ करोड़ वर्षों के बीत जाने पर उन्हीं के तीर्थ में ये सुभौम चक्रवर्ती हुए हैं।
उज्जयिनी नगरी में श्रीधर्मा नाम के प्रसिद्ध राजा थे, उनकी श्रीमती नाम की रानी थी। राजा के बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रह्लाद ऐसे चार मंत्री थे। किसी समय सात सौ मुनियों सहित महामुनि अकंपनाचार्य उज्जयिनी के बाहर उपवन में विराजमान हुए। महामुनि की वंदना के लिए नगर के लोग उमड़ पड़े। महल पर खड़े हुए राजा ने मंत्रियों से पूछा कि ये लोग असमय में कहाँ जा रहे हैं? उत्तर में मंत्रियों ने कहा कि राजन्! ये लोग अज्ञानी दिगम्बरों की वंदना के लिए जा रहे हैं।
श्रीधर्मा ने भी जाने की इच्छा प्रकट की, मंत्रियों के द्वारा बहुत रोकने पर भी राजा चल पड़ा, तब मंत्री भी उसके साथ हो लिए। वहाँ मुनियों की वंदना कर कुछ विवाद करने लगे। उस समय गुरु आज्ञा से सब मुनि मौन लेकर बैठे थे इसीलिए ये चारों मंत्री विवश होकर लौट आये। लौटते समय उन्होंने एक मुनि को सामने आते हुए देखकर उन्हें राजा के समक्ष छेड़ा। सब मंत्री मिथ्या मार्ग से मोहित तो थे ही अत: श्रुतसागर नामक उक्त मुनिराज ने उन्हें वाद-विवाद में जीत लिया। उस दिन रात्रि के समय उक्त मुनिराज प्रतिमायोग से उसी वाद की जगह विराजमान थे। ये सब मंत्री संघ को मारने के लिए जाते हुए मार्ग में उन मुनि को मारने के लिए उद्यत हुए परन्तु वनदेव ने उन्हें कीलित कर दिया। यह देख राजा ने उन्हें अपने देश से निकाल दिया।
उस समय हस्तिनापुर१ में महापद्म नामक चक्रवर्ती रहते थे। किसी समय चरमशरीरी महापद्म चक्रवर्ती किसी निमित्त से विरक्त हो गये, इनके दो पुत्र थे। राजा ने बड़े पुत्र ‘पद्म’ को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के साथ दीक्षा धारण कर ली। तपश्चरण करते हुए मुनि विष्णुकुमार अनेक ऋद्धियों के भण्डार हो गये। इधर उज्जयिनी से निकाले गये बलि आदि चारों मंत्री राजा पद्म को प्रसन्न कर उसके मंत्री हो गये। उस समय राजा पद्म बलि मंत्री की सहायता से किले में स्थित सिंहबल राजा को पकड़ने में सफल हो गये इसलिए उन्होंने बलि से कहा कि ‘वर’ मांग कर इष्ट वस्तु को ग्रहण करो। बलि ने प्रणाम कर कहा कि ‘अभी आवश्यकता नहीं है, जब आवश्यकता होगी तब माँग लूँगा’ यह कहकर अपना वर धरोहर रूप में रख दिया। अनन्तर ये मंत्री सुखपूर्वक रहने लगे।
किसी समय धीरे-धीरे विहार करते हुए अकंपनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ हस्तिनापुर आये और चार माह के लिए वर्षायोग धारण कर नगर के बाहर विराजमान हो गये। उस समय शंका को प्राप्त हुए ये बलि आदि भयभीत हो गये और अहंकार के साथ उन्हें हटाने का उपाय सोचने लगे। बलि ने राजा पद्म के पास आकर कहा कि राजन्! आपने जो वर दिया था उसके फलस्वरूप सात दिन का राज्य मुझे दिया जाये। ‘संभाल, तेरे लिए सात दिन का राज्य दिया’ यह कहकर राजा पद्म अपने अन्त:पुर में रहने लगे। बलि ने राज्य सिंहासन पर आरूढ़ होकर उन अकंपनाचार्य आदि मुनियों पर उपद्रव करवाया। उसने चारों तरफ से मुनियों को घेरकर उनके समीप पत्तों का धुँआ कराया तथा जूठन व कुल्हड़ आदि फिंकवाये। अकंपनाचार्य सहित सब मुनि आदि ‘उपसर्ग दूर हुआ तो आहार, विहार करेंगे, अन्यथा नहीं’ इस प्रकार सावधिक संन्यास धारण कर उपसर्ग सहित हुए कायोत्सर्ग से खड़े हो गये।
उस समय विष्णुकुमार मुनि के अवधिज्ञानी गुरु मिथिलानगरी में थे। वे अवधिज्ञान से विचारकर तथा दया से युक्त हो कहने लगे कि हा! आज अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर अभूतपूर्व दारुण उपसर्ग हो रहा है। उस समय उनके पास बैठे हुए क्षुल्लक ने पूछा-हे नाथ! कहाँ हो रहा है? गुरु ने कहा-हस्तिनापुर में। क्षुल्लक ने कहा-हे नाथ! यह उपसर्ग किसके द्वारा दूर हो सकता है? गुरु ने कहा-जिन्हें विक्रियाऋद्धि प्राप्त हुई है ऐसे विष्णुकुमार मुनि से यह उपसर्ग दूर हो सकता है। क्षुल्लक पुष्पदंत ने उसी समय जाकर मुनि विष्णुकुमार से सब समाचार कहा। तब मुझे विक्रिया ऋद्धि है या नहीं? इसकी परीक्षा के लिए मुनि ने अपनी भुजा पैâलाई सो वह भुजा बिना रुकावट के आगे बढ़ती ही चली गई। जिससे उन्हें ऋद्धि प्राप्ति का निश्चय हो गया। ऐसे जिनशासन के स्नेही वे विष्णुकुमार मुनि राजा पद्म के पास जाकर बोले- हे पद्मराज! राज्य पाते ही तुमने यह क्या कर रखा है ऐसा कार्य कुरुवंशियों में तो कभी नहीं हुआ है।
राजा पद्म ने नम्रीभूत होकर कहा-हे नाथ! मैंने बलि के लिए सात दिन का राज्य दे रखा है इसलिए इस विषय में मेरा अधिकार नहीं है। हे भगवन्! आप ही इस उपसर्ग को दूर करने में समर्थ हैं। विष्णुकुमार ने वहाँ जाकर मुनियों के उपसर्ग को दूर करने के लिए बलि को समझाया। उसने कहा कि यदि ये सब मुनि मेरे राज्य से चले जाते हैं तो उपसर्ग दूर हो सकता है। अन्यथा ज्यों का त्यों बना रहेगा। उत्तर में मुनि विष्णुकुमार ने कहा ाfक ये आत्मध्यान में लीन हैं। इस उपसर्ग में एक कदम भी नहीं जा सकते हैं। उस समय मुनियों के ठहरने के लिए तीन डग भूमि बलि से मांगी, तब बलि ने स्वीकार कर लिया।
इस प्रकरण में उत्तरपुराण में ऐसा लिखा है कि महामुनि विष्णुकुमार वामन (ब्राह्मण) का रूप लेकर बलि के पास आशीर्वाद देते हुए पहुँचे और बोले- महाभाग! तू दातारों में श्रेष्ठ है इसलिए आज मुझे भी कुछ दे। उत्तर में बलि ने इच्छित वस्तु मांगने को कहा, तब ब्राह्मण वेषधारी विष्णुकुमार मुनि ने कहा कि हे राजन्! मैं अपने पैर से तीन डग धरती चाहता हूँ तू यही मुझे दे दे। तब बलि ने कहा ‘यह तो बहुत थोड़ा क्षेत्र है इतना ही क्यों मांगा? ले लो’ इतना कहकर उसने ब्राह्मण के हाथ में जलधार छोड़कर तीन पैर धरती दे दी।’’१
अनन्तर वामन मुनि विष्णुकुमार ने विक्रिया ऋद्धि से अपने शरीर को इतना बड़ा बना लिया कि वह ज्योतिष्पटल को छूने लगा। उन्होंने एक पैर मेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा और तीसरे डग के लिए अवकाश न मिलने से वह डग आकाश में घूमता रहा। उस समय विष्णु मुनि के प्रभाव से तीनों लोकों में क्षोभ मच गया। किम्पुरुष आदिदेव ‘क्या है’? यह शब्द करने लगे। वीणा बांसुरी बजाने वाले गन्धर्व देव अपनी-अपनी देवियों के साथ उन मुनिराज के समीप मधुर गीत गाने लगे। लाल-लाल तलुवे से सहित एवं आकाश में स्वच्छन्दता से घूमता हुआ उनका पैर अत्यधिक सुशोभित हो रहा था। ‘हे विष्णो! हे प्रभो! मन के क्षोभ को दूर करो, दूर करो, आप के तप के प्रभाव से आज तीनों लोक चल-विचल हो उठे हैं।’ इस प्रकार मधुर गीतों के साथ वीणा बजाने वाले देवों, धीर-वीर विद्याधरों तथा सिद्धान्त की गाथाओं को गाने वाले एवं बहुत ऊँचे आकाश में विचरण करने वाले चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने जब उन्हें शांत किया तब वे धीरे-धीरे अपनी विक्रिया को संकोचकर स्वभावस्थ हो गये। उस समय देवों ने शीघ्र ही मुनियों का उपसर्ग दूर कर दुष्ट बलि को बांध लिया और उसे दण्डित कर देश से निकाल दिया। उस समय किन्नर देव तीन वीणाएँ लाये थे। उसमें घोषा नाम की वीणा तो उत्तर श्रेणी में रहने वाले विद्याधरों को दी, महाघोषा वीणा सिद्धकूटवासियों को और सुघोषा नाम की वीणा दक्षिण तटवासी विद्याधरों को दी। इस प्रकार उपसर्ग दूर करने से जिनशासन के प्रति वत्सलता प्रगट करते हुए विष्णुकुमार मुनि ने सीधे गुरु के पास जाकर प्रायश्चित्त द्वारा विक्रिया की शल्य छोड़ी। स्वामी विष्णुकुमार घोर तपश्चरण कर घातिया कर्मों का क्षयकर केवली हुए और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए।
यह कथा हरिवंशपुराण के आधार पर है। अन्यत्र बतलाया है कि उस समय उपसर्ग से पीड़ित मुनियों के गले धुएँ और अग्नि की भयंकर लपटों से पीड़ित हैं ऐसा समझकर श्रावकों ने विवेकगुणों से उन मुनियों को खीर का आहार दिया था। उसी स्मृति में रक्षाबंधन पर्व के दिन आज भी सर्वत्र घर-घर में लोग खीर बनाते हैं और पात्र की प्रतीक्षा करते हैं। मुनियों के अभाव में श्रावक आदि पात्रों को भोजन कराकर भोजन करते हैं। धर्म तथा धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य करने वाले मुनि श्री विष्णुकुमार की तथा उपसर्ग विजेता अकंपनाचार्य आदि मुनियों की कथा सुनते हैं और उनकी पूजा करते हैं। धर्म की रक्षा करने के लिए आपस में रक्षासूत्र बांधते हैं। वह दिन श्रावण शुक्ला पूर्णिमा का था अत: आज तक उस दिन की स्मृति में ‘रक्षाबंधन’ पर्व मनाते हैं।
श्री विष्णुकुमार मुनि के पिता ‘महापद्म’ चक्रवर्ती श्री मल्लिनाथ भगवान के तीर्थ में हुए हैं। इनको इस पृथ्वी पर हुए आज लगभग पैंसठ लाख छियासी हजार पाँच सौ वर्ष हो गये किन्तु आज भी यह हस्तिनापुर क्षेत्र उन मुनियों की स्मृति को जीवन्त कर रहा है और भव्यजीवों को उपसर्ग सहन करने का तथा विष्णुकुमार मुनि सदृश धर्मात्माओं के प्रति वात्सल्य भाव रखने का उपदेश दे रहा है।
कांपिल्यनगर के राजा सिंहध्वज की पट्टरानी वप्रादेवी थीं। उनके हरिषेण नाम का पुत्र था। उन राजा की दूसरी रानी महालक्ष्मी थी, यह अत्यंत गर्विष्ठ थी। किसी समय आष्टान्हिक पर्व में महामहोत्सव करके महारानी वप्रा ने जिनेन्द्र भगवान का रथोत्सव कराने का निश्चय किया। तभी रानी महालक्ष्मी ने जैनरथ के विरुद्ध होकर उसे रोक दिया और ब्रह्मरथ निकलाना चाहा। तब वप्रा महारानी ने शोक से संतप्त हो अन्न-जल का त्याग कर दिया और दु:ख से व्याकुल हो रोने लगी। पुत्र हरिषेण ने माता के दु:ख को देखकर स्थिति जानकर चिंतन किया-
मैं पिता के विरोध में भी नहीं बोल सकता हूँ और न माता का दु:ख देख सकता हूँ। वह उद्विग्नमना घर से निकलकर वन में पहुँचा। वहाँ भटकते हुए अंगिरस ऋषि के शिष्य शतमन्यु के आश्रय में पहुँचा।
इसी के पूर्व की एक घटना थी-
चंपानगरी के राजा जनमेजय को एक कालकल्प राजा ने बहुत बड़ी सेना लेकर घेर लिया। जब तक राजा में युद्ध हो, बीच में ही माता नागवती अपनी पुत्री को लेकर लंबी सुरंग के मार्ग से निकलकर वन में शतमन्यु के आश्रम में पहुँच गई थी। वहाँ आश्रम में उस पुत्री ने हरिषेण को देखा तो वह उसके प्रति आसक्त हो गई। माता नागवती ने कहा-पुत्रि! एक महामुनि ने कहा था कि तू चक्रवर्ती की स्त्रीरत्न होगी। तपस्वियों ने भी जब कन्य्ाा का हरिषेण के प्रति अनुराग जाना, उसी समय अपकीर्ति के डर से हरिषेण को आश्रम से निकाल दिया, वह शोकाकुल हुआ। इधर माता के दु:ख से तो व्याकुल था ही, कन्यारत्न के लिए और भी चिंतित हो गया।
इधर भटकते हुए हरिषेण सिंधुनद नगर में पहुँचता है। वहाँ नगर की स्त्रियाँ उसके रूप को एकटक देख रही थीं। तभी एक अंजनगिरि नाम का हाथी वहाँ उन्मत्त हो उधर आ गया। महावत जोर-जोर से चिल्ला रहा था-भागो! भागो! उस समय बहुत ही स्त्रियाँ व बालक हरिषेण के निकट आ गये और कहने लगे-बचाओ! बचाओ!
हरिषेण कुछ ही क्षणों में उस हाथी को वश में करके उस पर चढ़ गया। महल की छत से यह सब देखकर राजा सिंधु ने हरिषेण को बुलाकर सम्मानित करके अपनी सौ पुत्रियों के साथ उसका विवाह कर दिया।
इधर दूसरी एक घटना होती है कि एक विद्याधर की कन्या वेगवती रात्रि में सोते हुए हरिषेण को उठाकर ले गई अर्थात् हरिषेण का अपहरण कर लिया और पुन: उसने बताया कि-
हे भद्र! मैं सूर्योदय के राजा शक्रधनु की पुत्री जयचन्द्रा की सखी हूँ। वह कन्या आपके चित्रपट को देखकर आपमें आसक्त है, अत: मैंने आपका अपहरण किया है। वहाँ सूर्योदय नगर में पहॅुँचकर हरिषेण ने देखा कि राजा शक्रधनु सामने आते हैं। परस्पर में कुशलक्षेम, वार्ता के अनंतर अपनी कन्या का विवाह करने की तैयारी करते हैं। इधर विद्याधर गंगाधर और महीधर कुपित होकर युद्ध के लिए सामने आ गए। इसलिए कि हम विद्याधरों को छोड़कर इस कन्या का विवाह एक भूमिगोचरी के साथ वैâसे संभव है ?
उसी क्षण हरिषेण श्वसुर शक्रधनु राजा से रथ आदि लेकर युद्धक्षेत्र में आ गए और अपनी कुशलता से विद्याधरों को पराजित कर दिया।
उसी समय उस हरिषेण के पुण्योदय से चक्ररत्न प्रगट हो गया और ये दशवें चक्रवर्ती के रूप में प्रसिद्ध हो गए। इनके और भी रत्न प्रगट हो गए थे। निर्विघ्न विवाह सम्पन्न होने के बाद चक्रवर्ती हरिषेण विशाल लंबी-चौड़ी सेना-बारह योजन तक पैâली हुई सेना को लेकर शत्रुओं को वश में करते हुए तापसी के आश्रम में पहुँचे। उन तापसियों ने हरिषेण को चक्रवर्ती देखकर सामने पहुँच फल आदि अर्घ्य से सम्मानित किया। तभी शतमन्यु के पुत्र जनमेजय और माता नागवती ने अपनी कन्या मदनावती का हरिषेण के साथ विवाह सम्पन्न कर दिया।
अनंतर चक्रवर्ती हरिषेण बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के साथ अपने कांपिल्यनगर में आए, माता वप्रादेवी के चरणों में नमस्कार किया पुन: माता का आशीर्वाद प्राप्तकर सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे बड़े-बड़े रथों में भगवन्तों की प्रतिमा विराजमान करके कांपिल्यनगर में ‘रथोत्सव कराकर अतिशायी धर्म की प्रभावना करके माता के मनोरथों को सफल किया।
पृथ्वी, पर्वत, नदियों के समागम स्थान, नगर तथा गाँव-गाँव में चक्रवर्ती हरिषेण ने नाना रंग के ऊँचे-ऊँचे जिनमंदिर बनवाए थे। बहुत काल तक चक्रवर्ती ने छहखण्ड का शासन करके अंत में राज्यभार छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर तपश्चरण करके तीन लोक का शिखर प्राप्त कर लिया है-सभी कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया है। ऐसे हरिषेण चक्रवर्ती सिद्धालय में अनंतानंत काल तक रहेंगे, उन्हें मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे।
किसी समय राजा दशानन-रावण अपने दादा सुमाली के साथ विमान में बैठकर आकाशमार्ग से जा रहा था। अकस्मात् नीचे देखकर सुमाली से पूछता है-
हे पूज्य! इधर इस पर्वत के शिखर पर सरोवर तो नहीं हैं, पर कमलों का समूह लहलहा रहा है, सो इस महा आश्चर्य को आप देखें।
हे स्वामिन्! यहाँ पृथ्वीतल पर पड़े ये रंगबिरंगे बड़े-बड़े मेघ निश्चल होकर वैâसे खड़े हैं ?
तब सुमाली ने ‘नम: सिद्धेभ्य:’ उच्चारण करके कहा-
हे वत्स! न तो ये कमल हैं और न ये मेघ ही हैं, किन्तु सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं, ऐसे-ऐसे ये जिनमंदिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं। ये सब मंदिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाए हुए हैं।
हे वत्स! तुम इन्हें नमस्कार करो और क्षणभर में अपने मन को पवित्र करो।
ऐसा सुंदर कथन पद्मपुराण में आया हुआ है। उसी गं्रथ से यह हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय लिखा गया है। ये हरिषेण चक्रवर्ती श्री मुनिसुव्रत भगवान के तीर्थकाल में हुए हैं।
भगवान नमिनाथ के तीर्थ में जयसेन नाम के ग्यारहवें चक्रवर्ती हुए हैं। इसी जम्बूद्वीप के उत्तर में ऐरावत क्षेत्र में श्रीपुर नगर के राजा ‘वसुंधर’ राज्य संचालन कर रहे थे। किसी समय रानी पद्मावती के मरण से दु:खी हुए मनोहर नाम के वन में वरचर्य (वरधर्म) नाम के केवली भगवान की गंधकुटी में पहुँचे। धर्मोपदेश सुनकर विरक्तमना हुए अपने पुत्र विनयंधर को राज्यभार सौंपकर अनेक राजाओं के साथ दीक्षाग्रहण कर ली। अंत में समाधिपूर्वक मरण करके महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गए। वहाँ पर सोलह सागर की आयु को व्यतीत कर वहाँ से च्युत होकर कौशाम्बी नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा विजय की महारानी प्रभाकरी के पुत्र हुए।
इनका नाम ‘जयसेन’ रखा, इनकी आयु तीन हजार वर्ष की थी, साठ हाथ की शरीर की ऊँचाई थी, स्वर्णिम शरीर की कांति थी। ये चौदह रत्न और नवनिधियों के स्वामी ग्यारहवें चक्रवर्ती हुए हैं।
किसी समय राजमहल की छत पर अपनी रानियों के साथ बैठे थे। उसी सम्ाय आकाश से गिरते हुए ‘उल्का’ को देखा। तत्क्षण ही वैराग्य भावना का चिंतवन करके अपने बड़े पुत्र को राज्य देना चाहा, किन्तु उसके मना करने पर छोटे पुत्र को राज्य देकर ‘वरदत्त’ नाम के केवली भगवान के पादमूल में अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया। तपस्या के प्रभाव से श्रुत, बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि और चारणऋद्धि से विभूषित हो गए। अंत में सम्मेदशिखर के चरण नामक ऊँचे शिखर पर प्रायोपगमन सन्यास धारण कर आत्मा की आराधना करते हुए शरीर छोड़कर ‘जयंत’ नाम के अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हो गये१। आगे ये नियम से मोक्ष प्राप्त करेंगे।
भगवान नेमिनाथ तीर्थंकर और पार्श्वनाथ तीर्थंकर के अंतराल में ये बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुए हैं। ये ब्रह्मराजा की महारानी चूड़ादेवी के पुत्र थे। इनके शरीर की ऊँचाई ७ धनुष एवं सात सौ वर्ष की आयु थी। इसमें इनका कुमारकाल २८ वर्ष, महामण्डलेश्वर काल ५६ वर्ष, दिग्विजयकाल १६ वर्ष, चक्रवर्ती राज्यकाल ६०० वर्ष रहा है। ये चक्रवर्तियों में अंतिम चक्रवर्ती हुए हैं। इन्होंने भी चक्ररत्न प्राप्तकर १४ रत्न एवं नवनिधियों के स्वामी होकर छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर एकछत्र शासन किया है।
पुन: राज्य में ही दुर्ध्यान से मरकर सातवें नरक गए हैं। जैनशासन में यह नियम है कि जो राज्य वैभव को भोगते हुए दुर्ध्यान-आर्त अथवा रौद्रध्यान से मरते हैं, वे नरक चले जाते हैं और जो राज्य त्यागकर दीक्षा लेकर संयम धारण कर लेते हैं, वे ही स्वर्ग अथवा मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रत्येक चतुर्थकाल में १२ चक्रवर्ती होते हैं। इनमें से वर्तमान के चतुर्थकाल में प्रथम चक्रवर्ती भरत, द्वितीय सगर, तृतीय मघवा, चतुर्थ सनत्कुमार, पंचम शांतिनाथ, छठे कुंथुनाथ, सातवें अरनाथ, नवमें महापद्म, दशवें हरिषेण ये मोक्ष गए हैं। आठवें सुभौम एवं बारहवें ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नरक गए हैं तथा ग्यारहवें चक्रवर्ती जयसेन जयंत नाम के तृतीय अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र हुए हैं।
बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण
विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नन्दी, नन्दिमित्र, राम और पद्म ये नौ बलभद्र हुए हैं।
त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, पुरुषदत्त, नारायण और कृष्ण ये नौ नारायण हुए हैं।
अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुम्भ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ये नौ प्रतिनारायण हुए हैं।
त्रिपृष्ठ आदि पाँच नारायणों में से प्रत्येक क्रम से श्रेयांसनाथ आदिक पाँच तीर्थंकरों की वंदना करते थे। अर और मल्लिनाथ तीर्थंकर के अन्तराल में दत्तनामक नारायण हुए हैं। सुव्रत और नमि स्वामी के मध्य में लक्ष्मण और भगवान नेमिनाथ के समय में कृष्ण नारायण हुए हैं। नारायण के बड़े भाई ही बलदेव और नारायण के प्रतिशत्रु ही प्रतिनारायण होते हैंं।
नारायण के सात महारत्न-शक्ति, धनुष, गदा, चक्र, कृपाण, शंख और दण्ड ये सात महारत्न अर्द्धचक्रियों के पास शोभायमान रहते हैं।
बलभद्र के चार रत्न-मूसल, हल, रथ और रत्नावली ये चार रत्न प्रत्येक बलदेव के पास शोभित रहते हैं।
नौ प्रतिनारायण युद्ध में नव नारायण के हाथों से उन्हीं के चक्रों से मृत्यु को प्राप्त होकर नरक भूमि में जाते हैं। सब नारायण पूर्व भव में तपश्चरण करके निदान से सहित होकर मरकर देव होते हैं तथा वहाँ से आकर नारायण होकर भोगों की आसक्ति में ही मरकर अर्थात् राज्य में ही मरकर नरक जाते हैं। आठ बलदेव मोक्ष और अंतिम बलदेव ब्रह्म स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं। यह अंतिम बलदेव स्वर्ग से च्युत होकर कृष्ण के तीर्थ में सिद्ध पद को प्राप्त होंगे।
विजय बलभद्र-त्रिपृष्ठ नारायण
जैन शासन में नव बलभद्र, नव नारायण एवं नव प्रतिनारायण होते हैं। भगवान श्रेयांसनाथ के तीर्थकाल में प्रथम बलभद्र, नारायण एवं प्रतिनारायण हुए हैं।
पुरुरवा भील-इस जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पर ‘पुष्कलावती’ नाम का देश है। उसकी ‘पुण्डरीकिणी’ नगरी में एक ‘मधु’ नाम का वन है। उसमें ‘पुरुरवा’ नाम का एक भीलों का राजा अपनी ‘कालिका’ नाम की स्त्री के साथ रहता था१। किसी दिन दिग्भ्रम के कारण ‘श्री सागरसेन’ नामक मुनिराज को इधर-उधर भ्रमण करते हुये देखकर यह भील उन्हें मारने को उद्यत हुआ, उसकी स्त्री ने यह कहकर मना कर दिया कि ‘ये वन के देवता घूम रहे हैं, इन्हें मत मारो।’ वह पुरुरवा उसी समय मुनि को नमस्कार कर तथा उनके वचन सुनकर शांत हो गया। मुनिराज ने उसे मद्य, मांस और मधु इन तीन मकारोें का त्याग करा दिया। मांसाहारी भील भी इन तीनों के त्यागरूप व्रत को जीवनपर्यन्त पालन कर आयु के अंत में मरकर सौधर्म स्वर्ग में एक सागर की आयु को धारण करने वाला देव हो गया। कहाँ तो वह हिंसक क्रूर भील पाप करके नरक चला जाता और कहाँ उसे गुरू का समागम मिला कि जिनसे हिंसा का त्याग करके स्वर्ग चला गया!
मरीचि कुमार-जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र सम्बन्धी आर्यखंड के मध्य भाग में कौशल नाम का देश है। इस देश के मध्य भाग में अयोध्या नगरी है। वहाँ ऋषभदेव भगवान के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती की अनंतमती रानी से ‘यह पुरूरवा भील का जीव देव’ मरीचि कुमार नाम का पुत्र हुआ। अपने बाबा भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के समय स्वयं ही गुरू भक्ति से प्रेरित होकर मरीचि ने कच्छ आदि चार हजार राजाओं के साथ दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। भगवान तो छह महीने का उपवास लेकर ध्यान में लीन हो गये। मरीचि आदि चार हजार राजा स्वयं ही फल, आवरण आदि को ग्रहण करने लगे, तब वनदेवता ने प्रगट होकर कहा-‘‘निर्ग्रंथ दिगम्बर-जिनमुद्रा को धारण करने वालों का यह क्रम नहीं है अर्थात् यह अर्हंतमुद्रा तीनों लोकों में पूज्य है इसको धारण कर यह स्वच्छंद प्रवृत्ति करना कथमपि उचित नहीं है अत: तुम लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार अन्य वेष ग्रहण कर लो।”
ऐसा सुनकर प्रबल मिथ्यात्व से प्रेरित हुए मरीचि ने सबसे पहले परिव्राजक की दीक्षा धारण कर ली। वास्तव में जिनका संसार दीर्घ होता है उनके लिए यह मिथ्यात्व कर्म मिथ्यामार्ग ही दिखलाता है। उस समय उसे उन सब विषयों का ज्ञान भी स्वयं ही प्रगट हो गया सो ठीक ही है क्योंकि सज्जनों के समान दुर्जनों को भी अपने विषय का ज्ञान स्वयं ही हो जाता है। उसने तीर्थंकर भगवान के वचन सुनकर भी समीचीन धर्म ग्रहण नहीं किया था। वह मरीचि साधु सोचता रहता था कि जिस प्रकार भगवान ऋषभदेव ने अपने आप समस्त परिग्रहों कर त्याग कर तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य प्राप्त की है उसी प्रकार मैं भी संसार में अपने द्वारा चलाए हुए दूसरे मत की व्यवस्था करूँगा और उसके मिमित्त से होने वाले बड़े भारी प्रभाव के कारण इन्द्र की प्रतीक्षा को प्राप्त करूँगा-इन्द्र द्वारा की हुई पूजा को प्राप्त करूँगा। मैं समझता हूँ कि मेरे यह सब अवश्य होगा। इस प्रकार मान कर्म के उदय से वह पापबुद्धि सहित हुआ खोटे मत से विरक्त नहीं हुआ और अनेक दोषों से दूषित वही वेष धारण कर रहने लगा।
तभी कच्छ आदि चार हजार राजा जो दीक्षित हुए उन सभी मुनिवेषधारियों ने भी अनेक वेष बना लिए।
मरीचि का भवभ्रमण-मरीचिकुमार आयु के अंत में मरकर ब्रह्मस्वर्ग में दस सागर आयु वाला देव हो गया। वहाँ से आकर जटिल ब्राह्मण हुआ, पुन: पारिव्राजक बना पुन: मरकर सौधर्म स्वर्ग मेंं देव हुआ पुन: वहाँ से आकर अग्निसह ब्राह्मण होकर पारिव्राजक दीक्षा ले ली पुन: मरकर देव हुआ, वहाँ से च्युत होकर अग्निमित्र ब्राह्मण होकर पारिव्राजक तापसी हुआ पुुनरपि माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से आकर भारद्वाज ब्राह्मण होकर त्रिदण्डी साधु बन गया और पुनरपि स्वर्ग में गया, वहाँ से च्युत होकर मिथ्यात्व के निमित्त से यह मरीचि कुमार त्रस-स्थावार योनियों में असंख्यात वर्ष तक परिभ्रमण करता रहा।वह मरीचि कुमार का जीव इस तरह असंख्यात वर्षों तक इन कुयोनियों में भ्रमण करते हुये श्रांत हो गया। कुछ पुण्य से राजगृह नगर के शांडिल्य ब्राह्मण की पारशरी पत्नी से ‘स्थावर’ नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी सम्यग्दर्शन से शून्य पारिव्राजक की दीक्षा लेकर अंत में मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु वाला देव हो गया।
विश्वनंदी-इसी मगधदेश के राजगृह नगर में ‘विश्वभूति’ राजा की ‘जैनी’ नाम की रानी से यह मरीचि कुमार का जीव स्वर्ग से आकर ‘विश्वनंदी’ नाम का राजपुत्र हो गया। विश्वभूति राजा का एक विशाखभूति नाम का छोटा भाई था, उसकी लक्ष्मणापत्नी से ‘विशाखनन्दि’ नाम का मूर्ख पुत्र हो गया। किसी दिन विश्वभूति राजा ने विरक्त होकर छोटे भाई विशाखभूति को राज्य देकर अपने पुत्र ‘विश्वनन्दि’ को युवराज बना दिया और स्वयं तीन सौ राजाओं के साथ श्रीधर मुनि के पास दीक्षित हो गये।
किसी दिन विश्वनंदी युवराज अपने ‘मनोहर’ नामक उद्यान में अपनी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। उसे देख, चाचा के पुत्र विशाखनंदी ने अपने पिता के पास जाकर उस उद्यान की याचना की। विशाखभूति ने भी युवराज विश्वनंदी को ‘विरुद्ध राजाओं को जीतने के बहाने’ बाहर भेजकर पुत्र को बगीचा दे दिया। विश्वनंदी को इस घटना का तत्काल पता लग जाने से वह क्रुद्ध होकर वापस विशाखनंदी को मारने को उद्यत हुआ। तब विशाखनंदी वैâथे के वृक्ष पर चढ़ गया, विश्वनंदी ने वैâथे के वृक्ष को उखाड़ दिया। तब वह भागा और पत्थर के खम्भे के पीछे हो गया, यह विश्वनंदी पत्थर के खंभे को उखाड़कर उससे उसे मारने को दौड़ा। विशाखनंदी वहाँ से डर कर भागा, तब युवराज के हृदय में सौहार्द और करुणा जाग्रत हो गई। उसने उसी समय उसे अभयदान देकर बगीचा भी दे दिया और स्वयं ‘संभूत’ नामक मुनि के पास दीक्षा धारण कर ली, तब विशाखभूति ने भी पापों का पश्चाताप कर दीक्षा ले ली।
किसी दिन मुनि विश्वनंदी अत्यन्त कृश शरीरी मथुरा में आहार के लिए आए, उस समय यह विशाखनंदी वेश्या के महल की छत से मुनि को देख रहा था। मुनि को गाय ने धक्के से गिरा दिया, यह देख विशाखनंदि बोला ‘तुम्हारा पत्थर का खम्भा तोड़ने वाला पराक्रम कहाँ गया’? मुनि ने यह दुर्वचन सुने उन्हें क्रोध आ गया, अन्त में निदान सहित संन्यास से मरकर महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये, वहीं पर चाचा विशाखभूति भी देव हो गये। दोनों की आयु सोलह सागर प्रमाण थी।
अर्धचक्री त्रिपृष्ठकुमार-सुरम्य देश के पोदनपुर नगर में प्रजापति महाराज की जयावती रानी से ‘विशाखभूति का जीव’ विजय नाम का पुत्र हुआ और महाराज की दूसरी रानी मृगावती से ‘विश्वनंदी का जीव’ त्रिपृष्ठ नाम का पुत्र हुआ। विजय बलभद्रपद के धारक हुए और ये त्रिपृष्ठ अर्धचक्री पद के धारक हुए। उधर विशाखनंदि का जीव चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता हुआ कुछ पुण्य से विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव विद्याधर की नीलांजना रानी से ‘अश्वग्रीव’ पुत्र हुआ। यह प्रतिनारायण हुआ था। कालांतर में युद्ध में अश्वग्रीव के चक्ररत्न से ही अश्वग्रीव को मारकर त्रिखण्डाधिपति राजा त्रिपृष्ठ ने अपने भाई विजय के साथ बहुत काल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग किया।
ये बलभद्र और नारायण दोनों ही सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, विद्याधरों एवं व्यंतरदेवों के अधिपति होते हैं। नारायण के धनुष, शंख, चक्र, दण्ड, असि, शक्ति और गदा ये सात रत्न होते हैं। ये देवोें से सुरक्षित रहते हैं। बलभद्र के भी गदा, रत्नमाला, मुसल और हल ये चार रत्न होते हैं। ये नारायण तीन खण्ड के स्वामी अर्धचक्री कहलाते हैं।
नारायण के सोलह हजार रानियाँ होती हैं और बलभद्र के आठ हजार रानियाँ होती हैं तथा प्रतिनारायण के अठारह हजार रानियाँ होती हैं।
ये विजय बलभद्र दीक्षा लेकर तपश्चरण करके मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। त्रिपृष्ठ नारायण कई भवों के बाद अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर हुए हैं। प्रतिनारायण भी आगे भवों में नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं, ऐसा नियम है।
श्री वासुपूज्य भगवान के तीर्थ में द्विपृष्ठ नारायण, अचल बलभद्र एवं तारक नाम के प्रतिनारायण हुए हैं। नारायण का प्रतिनारायण प्रतिद्वन्दी-शत्रु होता है। ये नारायण आदि अर्द्धचक्री कहलाते हैं क्योंकि ये तीन खण्ड-एक आर्यखण्ड और दो म्लेच्छ खण्ड पर विजय प्राप्त करने वाले होते हैं। प्रतिनारायण की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होता है। शत्रुता के निमित्त से प्रतिनारायण नारायण पर चक्र चला देते हैं, वही चक्र नारायण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके पास स्थित हो जाता है, तभी नारायण प्रतिनारायण को उसी चक्ररत्न से मार देते हैं, ऐसा कुछ प्राकृतिक नियम ही है।
यहाँ अब इनके पूर्वभवों को कहते हैं-
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कनकपुर नगर के राजा सुषेण थे। इनके यहाँ एक गुणमंजरी नृत्यकारिणी थी, जो कि रूप, गुण और कला में अनूठी थी।
इसी भरतक्षेत्र में मलयदेश के विंध्यपुर में विंध्यशक्ति नाम का राजा रहता है। इस राजा ने गुणमंजरी नर्तकी को प्राप्त करने के लिए राजा सुषेण के पास रत्न आदि उपहार देकर एक दूत भेजा और उसने आकर राजा का यथायोग्य सम्मान करके नर्तकी के लिए याचना की और कहा-
राजन्! आप नर्तकी को एक बार भेज दीजिए, राजा देखना चाहते हैं पुन: मैं उसे वापस लाकर आपको सौंप दूँगा। दूत के समाचार को सुनकर राजा सुषेण ने उसे तर्जित कर वापस कर दिया। फलस्वरूप विंध्य शक्ति राजा ने युद्ध शुरू कर दिया तथा युद्ध में सुषेण को पराजित कर नृत्यकारिणी प्राप्त कर ली। इस अपमान से सुषेण ने बहुत ही दु:खी हो विरक्त होकर सुव्रत जिनेन्द्र से धर्मोपदेश सुनकर निर्मलचित्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अनंतर शत्रु के प्रति विद्वेष भावना से उसके मारने का निदान करके अंत में संन्यास विधि से मरण कर प्राणत स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ इसकी आयु बीस सागर की थी।
भगवान विमलनाथ के तीर्थ में सुधर्म बलभद्र एवं स्वयंभू नारायण हुए हैं। उन्हीं का संक्षिप्त चरित कहा जा रहा है-जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में मित्रनंदी राजा धर्मन्यायपूर्वक प्रजा का पालन कर रहे थे। किसी समय सुव्रतजिनेन्द्र के पादमूल में धर्मोपदेश सुनकर भोगों से विरक्त हुए जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और आयु के अंत में श्रेष्ठ समाधि से मरण करके अनुत्तर विमान में तेंतीस सागर की आयु वाले अहमिन्द्र हो गए।
वहाँ से चयकर द्वारावती के राजा भद्र की रानी सुभद्रा से जन्में। इनका नाम ‘सुधर्म’ रखा गया।
इसी भरतक्षेत्र के कुणाल देश की श्रावस्ती के राजा सुकेतु थे। वे जुआ आदि सातों व्यसनों में लगे हुए थे। किसी समय राजा जुआ में सब कुछ हार कर व्याकुल हुआ। सुदर्शनाचार्य गुरु की शरण में पहुँचा, धर्मोपदेश सुनकर संसार से विरक्त होकर दीक्षा ले ली और तपश्चरण करते हुए चातुर्य, बल आदि का निदान कर लिया। अंत में समाधि से मरणकर लांतव स्वर्ग में देव हो गया। वहाँ की चौदह सागर की आयु पूर्णकर वहाँ से चयकर द्वारावती के राजा भद्र की दूसरी पृथिवीमती रानी से पुत्र हो गया, उसका नाम ‘स्वयंभू’ रखा गया। यह पुत्र राजा को अत्यधिक प्रिय था। ये दोनों भाई सुधर्म और स्वयंभू बलभद्र और नारायण के अवतार थे।
पूर्वभव में राजा सुकेतु के जुआ में हार जाने पर एक राजा ने उसका राज्य छीन लिया था। वह राजा धर्म आचरण करके मरकर रत्नपुर नगर में राजा मधु हो गया। यह चक्ररत्न का स्वामी प्रतिनारायण था। पूर्व जन्म के बैर के संस्कार से राजा स्वयंभू मधु का नाम सुनते ही कुपित हो जाता था।
किसी समय किसी राजा ने मधु के लिए बहुत कुछ भेंट भेजी। राजा स्वयंभू ने दूत को मारकर वह भेंट स्वयं छीन ली। जब मधु ने नारद के द्वारा यह समाचार ज्ञात किया, तब वह अपनी सेना के साथ नारायण से युद्ध करने चल पड़ा। दोनों राजाओं में घमासान युद्ध हुआ। अंत में मधु राजा ने अपना चक्र स्वयंभू राजा के ऊपर चला दिया। वह उनकी प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास ठहर गया, उसी समय ये ‘स्वयंभू’ नारायण प्रसिद्ध हो गये और उसी चक्र से प्रतिनारायण को मार दिया। ये बलभद्र और नारायण बहुत काल तक तीन खण्ड का राज्य करते रहे हैं। कालांतर में सुधर्म बलभद्र ने श्री विमलनाथ भगवान के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर घोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त किया है और अंत्ा में मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। इन्हें शतश: नमस्कार होवे।
भगवान अनंतनाथ के समय में सुप्रभ बलभद्र और पुरुषोत्तम नारायण हुए हैं। इनका संक्षिप्त विवरण सुनाया जा रहा है-
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के पोदनपुर में राजा वसुषेण राज्य करते थे, उनकी पाँच सौ रानियों में नंदा महारानी राजा को अतीव प्रिय थीं। मलयदेश के राजा चण्डशासन राजा वसुषेण के मित्र थे। किसी समय राजा चण्डशासन अपने मित्र से मिलने के लिए पोदनपुर आये। पापकर्म से प्रेरित हो, इसने अपने मित्र की रानी नंदा को देखकर उस पर आसक्त हो किसी भी उपाय से उसका हरण करके अपने देश ले गया। राजा वसुषेण असमर्थ होते हुए इस घटना से बहुत ही दु:खी हुए।
कालांतर में श्रीश्रेयगणधर के धर्मोपदेश से संसार से विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। ये मुनि वसुषेण सिंह-निष्क्रीडित आदि अनेक व्रतों के अनुष्ठान से महातपस्वी बन गये, पुन: किसी समय निदान कर लिया ‘‘मेरी तपस्या का फल मुझे यह प्राप्त हो कि मैं ऐसा राजा होऊँ, जिसकी आज्ञा का कोई उलंघन न कर सके। अनंतर संन्यास मरण कर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में देव हो गये। इनकी आयु अठारह सागर की थी।
इसी मध्य जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में नंदन नगर के महाबल राजा ने बहुत काल तक सुखपूर्वक राज्य संचालन करके किसी समय विरक्तमना हो अपने पुत्र के लिए राज्य सौंपकर श्री प्रजापाल अर्हंत भगवान के समीप दीक्षा लेकर सिंह-निष्क्रीडित व्रत करके तपश्चरण के प्रभाव से एवं संन्यास विधि से मरणकर इसी सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागर की आयु वाले देव हो गये। इन दोनों देवों का आपस में बहुत ही प्रेमभाव था।
इसी भरतक्षेत्र की द्वारावती नगरी के राजा सोमप्रभ की जयवंती रानी थी। यह महाबल राजा के देव का जीव वहाँ से च्युत होकर रानी जयवंती के गर्भ में आ गया और नवमाह बाद पुत्र हुआ, इसका नाम ‘सुप्रभ’ रखा गया। इन्हीं राजा की दूसरी रानी सीता से वसुषेण के देव का जीव पुरुषोत्तम नाम का पुत्र हुआ है। ये दोनों पुत्र बड़े होकर बलभद्र और नारायण हुए हैं। बलभद्र का वर्ण श्वेत था और नारायण का वर्ण कृष्ण था। इन दोनों का शरीर पचास धनुष ऊँचा था (५०²४·२०० हाथ) । तीस लाख वर्ष की आयु थी। दोनों ही एक साथ समान सुख का अनुभव करते थे।
पहले जिस चण्डशासन राजा ने वसुषेण की नंदारानी का हरण किया था, वह अनेक भवों में भ्रमण कर वाराणसी नगरी का स्वामी मधुसूदन हुआ था। उसने पूर्वभव में तपस्या करके निदान करके अर्धचक्री का वैभव प्राप्त किया था। इसकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था, जिसके प्रभाव से इसने दिग्विजय कर तीन खण्ड को जीत लिया था। नारद के मुख से किसी समय इसने सुप्रभ व पुरुषोत्तम के वैभव को सुना, तब उसने एक दूत को भेजकर इन दोनों से हाथी, रत्न आदि ‘कर’ के रूप में मांगे।
यह सुनकर सुप्रभ व पुरुषोत्तम ने दूत की तर्जना करके उसे भगा दिया। तभी मधुसूदन ने सेना लेकर आकर द्वारावती नगरी को घेर लिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अनंतर मधुसूदन ने अपना चक्र चला दिया। वह चक्र राजा पुरुषोत्तम की प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास स्थित हो गया। अंत में पुरुषोत्तम ने उसी के चक्र से उसे मार डाला।
उसी क्षण ये दोनों भाई बलभद्र व नारायण के रूप में तीन खण्ड के स्वामी हो गये। बहुत काल तक इन दोनों ने न्यायपूर्वक प्रजा का पालन किया है। अंत में सुप्रभ बलभद्र ने श्रीसोमप्रभ जिनेन्द्र के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर घोर तप करके क्षपक श्रेणी में आरोहण कर केवलज्ञान को प्राप्त किया है। अनंतर केवली काल में विहार करके अगणित जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अंत में निर्वाण धाम को प्राप्त कर लिया है। ये ‘सुप्रभ’ सिद्ध परमात्मा हम सभी को सिद्धि प्रदान करें, उनके श्रीचरणों में हम यही प्रार्थना करते हुए सभी सिद्ध भगवन्तों को कोटि-कोटि नमन करते हैं।
भगवान धर्मनाथ के तीर्थ में सुदर्शन बलभद्र एवं पुरुषसिंह नारायण हुए हैं। उनका संक्षिप्त इतिहास कहा जाता है-
इसी भरतक्षेत्र के राजगृह नगर में सुमित्रनामक राजा थे, वे बहुत ही अभिमानी थे। किसी समय मल्लयुद्ध में कुशल एक राजसिंह नाम के राजा उस सुमित्र राजा के गर्व को नष्ट करने के लिए राजगृह नगर में आये और उन्होंने युद्धभूमि में राजा सुमित्र को पराजित कर दिया।
मानभंग से वे सुमित्र महाराजा बहुत ही दु:ख हुए कालांतर में श्रीकृष्णाचार्य मुनि के वचनों से शांत होकर उन्होंने दैगंबरी दीक्षा ले ली। यद्यपि इन मुनिराज ने सिंहनिष्क्रीडित आदि अनेक प्रकार के तपश्चरणों के अनुष्ठान किए थे, फिर भी मन में पराजय का संक्लेश बना रहता था अत: उन्होंने निदान कर लिया कि-
‘मुझे इन तपश्चरणों का फल ऐसा मिले कि मैं बड़े से बड़े शत्रुओं को पराजित करने में बलवान हो जाऊँ।’
अंत में संन्यास विधि से मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में सात सागर की आयु प्राप्त कर देव हो गये। इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वीतशोकापुरी के राजा नरवृषभ सुखपूर्वक राज्य सुखों का अनुभव कर रहे थे। ये राजा किसी समय विरक्तमना होकर ‘दमवर’ महामुनि के समीप दीक्षा लेकर कठोर तप के प्रभाव से अंत में मरण कर सहस्रार नाम के बारहवें स्वर्ग में देव हो गये, वहाँ इनकी आयु अठारह सागर की थी। आयु के अंत में वहाँ से चयकर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में खड्गपुर नगर के इक्ष्वाकुवंशीय राजा सिंहसेन की विजयारानी से ‘सुदर्शन’ नाम के पुत्र हुए हैं।
इन्हीं राजा सिंहसेन की दूसरी अंबिका रानी से राजा सुमित्र के जीव देवपर्याय से च्युुत होकर ‘पुरुषसिंह’ नाम के नारायण हुए हैं। ये दोनों भाई पैंतालीस धनुष (४५²४·१८०) एक सौ अस्सी हाथ के शरीर के धारक थे। इनकी आयु दश लाख वर्ष की थी। ये दोनों परस्पर में अतिशय प्रेम से राज्य सुखों का अनुभव कर रहे थे।
इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में राजा मधुक्रीड़ राज्य करते थे। जो सुमित्र राजा को मल्लयुद्ध में जीतने वाले ‘राजसिंह’ राजा थे, वे ही क्रम से ये ‘मधुक्रीड़’ नाम से प्रतिनारायण अर्धचक्री राजा हुए हैं। ये मधुक्रीड़-राजा सुदर्शन व पुरुषसिंह के पराक्रम को नहीं सहन कर पाते थे इसीलिए इन्होंने एक दिन अपने दण्डगर्भ नाम के प्रधानमंत्री को इन दोनोें के पास खड्गपुर नगर में कर-टैक्स लेने के लिए भेज दिया।
महाराजा सुदर्शन व पुरुसिंह आये हुए प्रधानमंत्री के शब्दों से क्षुभित और कुपित होकर कठोर शब्द कहने लगे। प्रधानमंत्री ने जाकर मधुक्रीड़ राजा को सूचना दी। इतना सुनते ही क्रुद्ध हुए प्रतिनारायण मधुक्रीड़ ने शीघ्र ही विशाल सेना लेकर युद्ध के लिए प्रस्थान कर दिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में मधुक्रीड़ ने अपना चक्र पुरुषसिंह के ऊपर चला दिया। नियोग के अनुसार पुरुषसिंह के पुण्य के प्रभाव से वह चक्र उनकी प्रदक्षिणा देकर उन्हीं के पास स्थित हो गया। तभी पुरुषसिंह ने उसी के चक्ररत्न से उसी का वध कर दिया और तत्क्षण ही ये दोनों इस भूतल पर पाँचवें बलभद्र व नारायण प्रसिद्ध हो गये।
वास्तव में ऐसे ‘वैर के निदान को धिक्कार हो’ कि जिससे अपने ही चक्ररत्न से अपना घात हो जाता है।
इधर दोनों भाई तीन खण्ड के स्वामी बनकर बहुत काल तक राज्य लक्ष्मी का उपभोग करते रहे हैं। अंत में नारायण के वियोग से दु:खी हो बलभद्र सुदर्शन ने ‘भगवान धर्मनाथ तीर्थंकर’ के चरण सान्निध्य में पहुँचकर मोह और शोक को छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। घोरातिघोर तपश्चरण करके अपने घातिया कर्मों का नाशकर केवली हुए हैं पुन: सभी कर्मों से रहित निर्वाण धाम को प्राप्त किया है, ऐसे वे सिद्धालय में विराजमान ‘सुदर्शनबलभद्र’ सिद्ध भगवान हम सबको भी शाश्वत धाम को प्राप्त करावें, यही उनके चरणों में विनम्र प्रार्थना है।
भगवान अरनाथ एवं मल्लिनाथ के अन्तराल में नंदिषेण बलभद्र एवं पुण्डरीक नारायण हुए हैं।
तीसरे भव पूर्व ये राजपुत्र थे। एक राजपुत्र ने शल्य सहित तपश्चरण करके आयु के अंत में संन्यास विधि से मरण करके प्रथम स्वर्ग में देवपद पाया, वहाँ से चयकर सुभौम चक्रवर्ती के बाद छह सौ करोड़ वर्ष बीत जाने पर इसी भरतक्षेत्र में चक्रपुर नगर के राजा वरसेन की लक्ष्मीरानी से पुण्डरीक नाम का पुत्र हुआ। इन्हीं वरसेन राजा की दूसरी वैजयंती रानी से नंदिषेण नाम का बलभद्र उत्पन्न हुआ। इन दोनों की आयु छप्पन हजार वर्ष की थी, शरीर की ऊँचाई छब्बीस धनुष (२६²४·१०४ हाथ) की थी। किसी एक दिन इन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन ने अपनी पद्मावती नाम की पुत्री ‘पुण्डरीक’ नारायण के लिए प्रदान की।
पहले भव में एक सुकेतु नाम का राजा था, जो कि अत्यंत अहंकारी, दुराचारी तथा पुण्डरीक का शत्रु था। क्रम से कुछ पुण्य के संचय से ‘निशुंभ’ नाम का राजा हुआ, उसने चक्ररत्न के द्वारा तीन खण्डों पर विजय प्राप्त कर अर्धचक्री पद प्राप्त कर लिया। जब उसने पुण्डरीक राजा के साथ पद्मावती के विवाह का समाचार सुना तो बहुत ही कुपित हुआ।
उस निशुंभ प्रतिनारायण ने बहुत बड़ी सेना साथ लेकर पुण्डरीक के साथ युद्ध प्रारंभ कर दिया। भयंकर युद्ध में उसने अपना चक्ररत्न पुण्डरीक राजा पर चला दिया। उस चक्ररत्न ने भी पुण्डरीक को अपना स्वामी बना लिया तभी पुण्डरीक ने निशुंभ अर्धचक्री का वध कर दिया और उसी क्षण ये देवों द्वारा भी मान्य नारायण एवं बलभद्र प्रसिद्ध हो गए।
किसी समय भाई पुण्डरीक की मृत्यु से विरक्तमना हुआ, शिवघोष मुनि के चरण सान्निध्य में दीक्षा लेकर शुद्ध परिणामों से घातिया कर्मों का नाश कर केवली हो गए। अनेक भव्यों को धर्मामृत का पान कराकर पुन: अघातिया कर्मों का भी नाश कर सिद्ध परमात्मा हो गए। ऐसे नंदिषेण बलभद्र सिद्ध भगवान हम सभी के मोक्षमार्ग को प्रशस्त करें, यही भावना है।
भगवान मल्लिनाथ के तीर्थ में नंदिमित्र नाम के सातवें बलभद्र एवं श्रीदत्त नाम के सातवें नारायण हुए। इनके तीसरे भव पूर्व का चरित्र लिखा जाता है-
अयोध्या के राजा के दो पुत्र थे। ये दोनों पिता को प्रिय नहीं थे अत: राजा ने इन दोनों को छोड़कर अपने छोटे भाई को युवराज पद दे दिया। तब इन दोनों भाइयों ने यह समझा कि यह सब मंत्री ने कराया है अत: मंत्री के प्रति वैर भाव धारण कर ये दो राजकुमार महामुनि शिवगुप्त से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे पुन: अंत में समाधिपूर्वक मरण कर सौधर्म स्वर्ग में सुविशाल विमान में देव हो गए।
वहाँ से च्युत होकर एक देव वाराणसी के इक्ष्वाकुवंशीय राजा अग्निशिख की अपराजिता रानी ने नंदिमित्र नाम के बलभद्र हुए हैं एवं इन्हीं राजा की दूसरी केशवती रानी से दूसरे देव ने जन्म लेकर श्रीदत्त नाम प्राप्त किया है। बत्तीस हजार वर्ष की इनकी आयु थी। बाईस धनुष (२२²४·८८ हाथ) ऊँचा शरीर था, क्रम से बलभद्र के शरीर का वर्ण शुक्ल व नारायण के शरीर का वर्ण इन्द्रनील मणि के समान था।
इधर मंत्री का जीव क्रम से कुछ पुण्य संचित करके विजयार्ध पर्वत पर मन्दरपुर नगर का स्वामी बलीन्द्र विद्याधर हुआ। किसी एक दिन इस बलीन्द्र ने दोनों राजा-नंदिमित्र व श्रीदत्त के पास दूत भेजा और कहलाया कि आपके पास भद्रक्षीर नाम का एक गंधहस्ती है, उसे हमारे यहाँ भेज दीजिए। इन दोनों ने दूत से कहा कि वे बलीन्द्र विद्याधर राजा अपनी पुत्रियों का हमारे साथ विवाह कर दें, तब यह गंधहाथी दिया भी जा सकता है।
यह सब सुनकर विद्याधर बलीन्द्र अपना चक्ररत्न आगे कर युद्ध के लिए चल पड़े।
इधर दक्षिणश्रेणी के सुरकांतार नगर के स्वामी केसरी विक्रम जो कि ‘केशवती’ के भ्राता थे, उन्होंने सम्मेदशिखर पर विधिपूर्वक सिद्ध की गई सिंहवाहिनी और गरुड़वाहिनी ऐसी दो विद्याएँ ‘श्रीदत्तनारायण’ को दे दीं। इस प्रकार इन दोनों ही बलवान राजाओं की सेना में भयंकर युद्ध होता रहा। बलीन्द्र विद्याधर के पुत्र शतबली में और बलभद्र नंदिमित्र में आपस में बहुत ही युद्ध हुआ। उसमें बलभद्र ने शतबली को यमराज के मुख में पहुँचा दिया। पुत्र की मृत्यु देख ‘बलीन्द्र’ राजा ने अत्यंत कुपित हो श्रीदत्त पर अपना चक्र चला दिया परन्तु वह चक्र श्रीदत्त की तीन प्रदक्षिणा देकर इनकी दाहिनी भुजा पर आ गया। श्रीदत्त ने उसी चक्र से उस बलीन्द्र विद्याधर का वध कर दिया।
युद्ध समाप्त होते ही दोनों भाइयों ने ‘अभयघोषणा’ की और चक्ररत्न को प्राप्त कर तीनों खण्डों को अपने आधीन कर लिया। दोनों भाइयों ने बलभद्र व नारायण पद को प्राप्त कर चिरकाल तक राज्य सुखों का अनुभव किया है। अंत में बलभद्र नंदिमित्र ने संभूत जिनेन्द्र के पास अनेक राजाओं के साथ दीक्षा लेकर केवलज्ञान प्राप्त कर पृथिवी पर श्रीविहार करके धर्मोपदेश दिया है अनंतर सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया है। ये नंदिमित्र सिद्ध परमात्मा हम सभी की आत्मा को परमात्मा बनाने के लिए सद्बुद्धि प्रदान करें, यही प्रार्थना है।
भगवान नमिनाथ के बाद शौरीपुर के राजा अंधकवृष्टि की सुभद्रा महारानी के दश पुत्र हुए, जिनके नाम-(१) समुद्रविजय (२) अक्षोभ्य (३) स्तिमितसागर (४) हिमवान (५) विजय (६) अचल (७) धारण (८) पूरण (९) अभिचन्द्र और १०. वसुदेव तथा सुभद्रा महारानी के दो पुत्रियाँ थीं, जिनके कुंती और माद्री नाम थे।
राजा अंधकवृष्टि ने समुद्रविजय को राज्य प्रदान कर सुप्रतिष्ठ केवली के पादमूल में दीक्षा ले ली। राजा समुद्रविजय की महारानी शिवादेवी थीं। वसुदेव कंस आदि को धनुर्विद्या की शिक्षा दे रहे थे।
राजगृही के राजा जरासंध बहुत ही प्रतापी थे। इनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ था, जिससे ये तीन खण्ड को जीतकर शासन कर रहे थे।
किसी समय जरासंध राजा ने घोषणा की कि-‘जो सिंहपुर के राजा सिंहस्थ को जीवित पकड़ कर मेरे आधीन करेगा, मैं उसे मैं अपनी पुत्री जीवद्यशा को और इच्छित देश के राज्य को देऊँगा।’ वसुदेव ने जीवित सिंहरथ राजा को पकड़ लिया एवं कंस से उसे बंधवा दिया और कंस ने यह कार्य किया है ऐसा घोषित कर दिया। राजा जरासंध ने कंस का कुलगोत्र जानना चाहा, तब कौशाम्बी की मंजोदरी माता को बुलाया गया, उसने एक मंजूषा लाकर दे दी और कहा-राजन्! मैंने यमुना के प्रवाह में बहती हुई इस मंजूषा में इसे पाया है। तब उस मंजूषा में एक मुद्रिका मिली, उसमें लिखा था-
‘यह राजा उग्रसेन की रानी पद्मावती का पुत्र है, यह गर्भ में ही उग्र था अत: इसे छोड़ा गया है।’
तब जरासंघ अर्धचक्री ने अपनी पुत्री उसे ब्याह दी और बहुत सी संपदा से सहित कर दिया तथा कंस की इच्छा के अनुसार उसे मथुरा का राज्य दे दिया। कंस मथुरा पहुँचकर तथा ‘‘पिता ने मुझे मंजूषा में रखकर नदी में छोड़ा है’’, ऐसा वैर बांधकर मथुरा के उग्रसेन राजा से युद्ध कर उन्हें बंदी बनाकर मथुरा नगर के मुख्यद्वार के ऊपर उन्हें वैâद कर दिया।
पुन: वसुदेव के उपकार का आभार होने से उन्हें आग्रह से मथुरा बुलाकर अपनी बहन देवकी का उनके साथ विवाह कर दिया। इससे पूर्व वसुदेव की रोहिणी रानी से बलभद्र हुए थे।
एक दिन कंस के बड़े भाई अतिमुक्तक मुनिराज राजमहल में आहार के लिए आये, तब जीवद्यशा ने नमस्कार करके देवकी के विषय में कुछ शब्द कहे। तभी मुनिराज ने मौन छोड़कर व भोजन का अंतराय मानकर बोले-
अरे मूढ़! इस देवकी के गर्भ से जो पुत्र होगा, वह तेरे पति और पिता दोनों को मारने वाला होगा। इतना सुनते ही घबराई हुई जीवद्यशा पति के पास गई व सारे समाचार सुना दिए तभी कंस ने कुछ विचार कर वसुदेव के पास जाकर निवेदन किया-
हे देव! आपने जो मुझे वर दिया था, वह धरोहर में है मैं आज उसे माँगने आया हूँ। वसुदेव की स्वीकृति पाकर वह बोला-‘प्रसूति के समय देवकी का निवास मेरे महल में ही हो, भाई के घर में बहन को भला क्या कष्ट होगा? ऐसा सोचकर सरल बुद्धि से वसुदेव ने वर दे दिया। पुन: जब वसुदेव के मुिनराज के वचनों का पता चला तो, वे बहुत ही दु:खी हुए और आम्रवन में विराजमान चारणऋद्धिधारी श्री अतिमुक्तक मुनि के समीप पहुँचे, साथ में देवकी रानी भी थीं। दोनों ने गुरु को नमस्कार विâया, मुनि ने आशीर्वाद दिया।
तब वसुदेव ने प्रश्न किया-भगवन्! मेरे पुत्र द्वारा कंस का घात होगा आदि, सो मैं आपके श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ। तब मुनिराज ने अवधिज्ञान से जानकर कहना प्रारंभ किया। जिसका संक्षेप सार यह है कि-तुम्हारे छह युगलिया पुत्र चरमशरीरी होंगे। भगवान ने नेमिनाथ के समवसरण में दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करेंगे तथा सातवाँ पुत्र नारायण का अवतार होगा। उसी के द्वारा कंस का एवं जरासंघ प्रतिनारायण का वध होगा। उसी के द्वारा कंस का एवं जरासंघ प्रतिनारायण का वध होगा। सुनकर शंका रहित होकर वसुदेव अपने स्थान पर आ गये।
पुन: राजा कंस के आग्रह से वसुदेव अपनी रानी देवकी के साथ मथुरा आकर कंस के महल में रहने लगे। क्रम से देवकी गर्भवती हुई, नवमाह के बाद देवकी के युगल पुत्र उत्पन्न हुए, उसी क्षण उन पुत्रों के पुण्य से इंद्र की आज्ञा से सुनैगम नाम के देव ने दोनों पुत्रों को उठाकर सुभद्रिलनगर के सेठ सुदृष्टि की अलका सेठानी के पास पहुँचा दिया। उसी क्षण अलका सेठानी के भी युगलिया पुत्र हुए थे परन्तु भाग्यवश वे उत्पन्न होते ही मर गये थे। नैगम देव ने उन मृतक पुत्रों को लाकर देवकी के प्रसूतिगृह में रख आया और अपने स्थान स्वर्ग लोक को चला गया।
कंस को जब पता चला कि देवकी को पुत्र हुए हैं, वह बहन के प्रसूतिगृह में प्रवेश कर दोनों मृतक पुत्रों को देखता है और क्रूर परिणामी होकर उनके पैर पकड़कर शिलातल पर पछाड़ देता है। इसी तरह समय-समय पर देवकी के दो बार और दो-दो युगलिया पुत्र हुए हैं। उन्हें भी सुनैगमदेव ने अलका सेठानी के पास पहुँचाया है और उनके मृतक युगलिया पुत्रों को लाकर प्रसूतिगृह में रखा है तथा क्रूर कंस ने उन मृतक युगलों को शिलातल पर पछाड़-पछाड़ कर मारता गया है।
इन देवकी के पुत्रों के पुण्य के प्रभाव से ही उनकी देव द्वारा रक्षा की गई है अत: ये तीनों युगलिया-छहों भाई अलका सेठानी के पास सुखपूर्वक पाले जा रहे थे, उनके नाम-(१) नृपदत्त (२) देवपाल (३) अनीकदत्त (४) अनीकपाल (५) शत्रुध्न और (६) जितशत्रु थे।
अनंतर एक दिन श्वेत भवन में शयन करती हुई देवकी ने पिछली रात्रि में अभ्युदय को सूचित करने वाले ऐसे सात स्वप्न देखे-(१) उगता हुआ सूर्य (२) पूर्ण चन्द्रमा (३) आकाश से उतरता हुआ विमान (४) बड़ी-बड़ी ज्वालाओं से युक्त अग्नि (५) हाथियों द्वारा अभिषेक को प्राप्त हो रही लक्ष्मी और (६) ऊँचे आकाश में रत्नों से युक्त देवों काी ध्वजा और (७) मुख में प्रवेश करता हुआ सिंह। इन स्वप्नों को देखकर जागकर विस्मय को प्राप्त हुई देवकी ने प्रात:कालीन स्नान आदि से निवृत्त होकर मंगलीक वस्त्र अलंकर धारण पति के निकट पहुँचकर अपने स्वप्न निवेदित कर उनका फल पूछने लगी।
वसुदेव ने कहा-हे प्रिये! तुम्हारे एक ऐसा पुत्र होगा, जो समस्त पृथ्वी का स्वामी होगा। महाप्रतापी और निर्भय होगा। अनंतर वह गर्भवती हुई ऐसी देवकी के गर्भ के वृद्धि के साथ-साथ पृथिवी पर समस्त मनुष्यों का सौमनस्य बढ़ता जाता था किन्तु कंस का क्षोभ निरंतर बढ़ता जा रहा था।
वह अलक्ष्यरूप से गर्भ के महीनों को गिनता रहता था तथा बहन के प्रसव की प्रतीक्षा करता हुआ उस पर पूर्ण देख-रेख रखता था। सभी बालक नवमाह में उत्पन्न होते हैं परन्तु ये कृष्ण भाद्रमास में सातवें मास में ही उत्पन्न हो गये। उस समय बालक के पुण्यप्रभाव से स्नेही बंधुओं के यहाँ अच्छे-अच्छे निमित्त प्रगट हुए एवं शत्रुओं के घरों में भय उत्पादक निमित्त प्रकट हुए। उन दिनों सात दिनों से लगातार घनघोर वर्षा हो रही थी, फिर भी उसकी रक्षा के लिए बलदेव ने बालक कृष्ण को उठा लिया और वसुदेव ने उन पर छत्ता तान दिया एवं रात्रि के समय ही दोनों शीघ्र ही घर से बाहर निकल पड़े। उस समय नगरवासी सो रहे थे, कृष्ण के सुभट भी गहरी निद्रा में निमग्न थे। गोपुरद्वार पर आये तो किवाड़ बंद थे परन्तु बालक के चरणस्पर्श करते ही उनमें निकलने योग्य संधि हो गई, जिससे वे बाहर निकल गये।
उस समय पुत्र के पुण्य से नगरदेवता विक्रिया से एक बैल का रूप बनाकर उनके आगे हो गया, उस बैल के दोनों सींगों पर देदीप्यमान मणियों के दीपक रखे हुए थे, जिसने रात्रि का घोर अंधकार दूर होता जा रहा था। जैसे ही यह मुख्य गोपुर द्वार से बाहर निकले पानी की एक बूंद बालक की नाक में चली जाने से जोर से उसे छींक आ गई। तभी ऊपर से उग्रसेन ने कहा-अरे! कौन है ? तभी बलभद्र ने कहा-आप इस रहस्य की रक्षा करें, यह बालक ही आगे आपको बंधन से मुक्त करेगा। तब उग्रसेन ने खूब आशीर्वाद दिया-‘तू चिरंजीवी हो।’ यह हमारी भाई की पुत्री का पुत्र शत्रु से अज्ञात रहकर वृद्धि को प्राप्त हो।
ये पिता-पुत्र बालक को लेकर आगे बढ़ते जा रहे थे, यमुना के किनारे पहुँचे कि कृष्ण के पुण्य से यमुना नदी के महाप्रभाव दो भाग में हो गये, बीच में मार्ग बन गया। वे नदी को पार कर वृंदावन की ओर गये, वहाँ गाँव के बाहर सिरका में अपनी यशोदा पत्नी के साथ सुनंद गोप रहता था, वह वंश परम्परा से चला आया, इनका अति विश्वास पात्र था।
बलदेव और वसुदेव ने रात्रि में उसे देखकर पुत्र को सौंपकर कहा, देखो भाई! यह पुत्र महान् पुण्यशाली है, इसे अपना पुत्र समझकर बढ़ाओ और यह रहस्य किसी को भी ज्ञात न हो। अनंतर उसी समय जन्मी यशोदा की पुत्री को लेकर ये दोनों शीघ्र ही वापस आकर देवकी रानी के पात्र पुत्री को रखकर गुप्तरूप से अपने स्थान पर चले गये।
प्रात: बहन की प्रसूति का समाचार पाकर निर्दयी कंस प्रसूतिगृह में घुसकर कन्या को देखकर कुछ शांत हुआ किन्तु सोचने लगा, क्या पता इसका पति मुझे मारने वाला हो, इस शंका से आकुल हो उसने उस कन्या की नाक मसल दी। पुन: उसने समझ लिया कि अब इसके संतान नहीं होगी, अत: कुछ शांतचित्त हो रहने लगा।
उधर बालक का जात संस्कार का उसका नाम कृष्ण रखा गया। वह बालक ब्रजवासियों के तथा माता-पिता यशोदा व नंदगोप के अभूतपूर्व आनंद को बढ़ज्ञता हुआ वृद्धि को प्राप्त हो रहा था।
अनंतर किसी एक दिन कंस के हितैषी वरुण नाम के निमित्तज्ञानी ने कहा कि राजन्! यहाँ कहीं या वन में आपका शत्रु बढ़ रहा है उसकी खोज करना चाहिए। तब कंस ने तीन दिन का उपवास किया, उस समय पूर्व भव में इसके साधु समय के प्रभाव से जो विद्यादेवियाँ आई थीं और इसने कहा था ‘अभी आवश्यकता नहीं है समय पर आपको याद करूँगा, तब सहायता करना’ ऐसी वे देवियाँ आकर पूछने लगीं।
कहिए! राजन्! क्या कार्य है ?
उसने कहा मेरा शत्रु कहीं बढ़ रहा है तो तुम सभी उसे मार डालो। तब उन देवियों में से कोई देवी पूतना बनकर विष भरे स्तनपान कराने लगी, कोई भयंकर पक्षी बनकर चोंच मारने लगी किन्तु बालक के पुण्य से वे सभी निष्फल रहीं। वह बालक अद्भुत-अपूर्व शक्ति का धारक सभी मायामयी प्रकोपों को क्षणभर में दूर भगा देता था।
एक समय बलदेव माता देवकी को लेकर बालक के पास आये। माता ने यशोदा को सराहते हुए बालक पर हाथ फेरा कि उसके स्तन से दूध झरने लगा, यह गोप्य किसी को मालूम न हो, अत: बलदेव ने दूध के घड़ों से माता को नहला दिया पुन: बालक को लाड़-प्यार का अनेक आशीर्वाद देकर माता वापस आ गईं।
यह बालक बढ़ते हुए किशोरावस्था में आ गया था और अपनी अद्भुत सुंदरता से सभी के हर्ष व प्रेम को वृद्धिंगत करता रहता था। किसी समय एक देवी ने भयंकर वर्षा से कृष्ण को मारना चाहा और सारे गोकुल व गायों को संकट में डाल दिया तभी श्री कृष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से गोवर्द्धन पर्वत को बहुत ऊँचा उठाकर उसके नीचे सबकी रक्षा की।
इधर इन लोकोत्तर क्रिया कलापों से बलदेव वहाँ आ-आकर श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण विद्या व कलाओं में निष्णात कर रहे थे। ये कृष्ण नील वर्ण के थे, पीत वस्त्र पहनते थे माथे पर मयूर पंख की कलगी लगाये रहते थे। वे गोप बालकों के साथ तथा गोप बालिकाओं के साथ भी क्रीड़ा करते रहते थे। फिर भी वे सदा निर्विकार ही रहते थे जैसे अंगूठी में जड़ा हुआ श्रेष्ठ मणि स्त्री के हाथ की अंगुली का स्पर्श करता हुआ भी निर्विकार रहता है, उसी प्रकार वे रासलीला के समय गोप बालिकाओं को नचाते हुए भी निर्विकार रहते थे१।
किसी समय मथुरा में जैन मंदिर के समीप पूर्व दिशा के दिक्पाल के मंदिर में श्रीकृष्ण के पुण्य के प्रभाव से नागशय्या, धनुष व शंय ये तीन रत्न उत्पन्न हुए। देवता उनकी रक्षा करते थे२। कंस ने उन्हें देखकर डरते हुए वरूण नाम के ज्योतिषी से पूछा कि-
इनका फल क्या है ? ‘ज्योतिषी ने कहा राजन्! जो विधिवत् इन तीनों रत्नों को सिद्ध करेगा, वही चक्ररत्न से सुरक्षित राज्य करेगा। कंस ने प्रयत्न किया किन्तु असफल रहा। तब उसने नगर में घोषणा करा दी कि-‘जो बलवान नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शंख बजायेगा और दूसरे हाथ से धनुष को अनायास ही चढ़ा देगा, उसे राजा अपनी पुत्री प्रदान करेगा।’
घोषणा सुनकर अनेक लोगों के साथ कृष्ण वहाँ आये और सहज में नागशय्या पर चढ़कर शंख फूंककर धनुष को चढ़ा दिया और बलदेव आदि की प्रेरणा से शीघ्र ही ‘वङ्का’ वापस चले गये। कंस को निर्णय नहीं हो सका कि किसने यह कार्य किया है। कंस ने अनेक उपायों से अपने उस शत्रु को खोजने का प्रयास किया किन्तु सफल नहीं हो सका, तब उसने नंदगोप को सूचना भेजो कि-तुम सभी लोग मथुरा में आवो, मल्लयुद्ध में भाग लेवो।
इस भयंकर मल्लयुद्ध में बलदेव के संकेतानुसार श्री कृष्ण ने बहुत देर तक मल्लयुद्ध में कौशल दिखाते हुए पहले तो ‘चाणूर’ नाम के मल्ल को मार गिराया। पुन: कंस के कुपित होकर रंगभूमि में प्रवेश करने पर श्री कृष्ण ने उसके पैर पकड़ पक्षी की तरह उसे आकाश में घुमाया और पुन: जमीन पर पटककर यमराज के पास भेज दिया। उसी समय आकाश से फूल बरसने लगे, देवों ने नगाड़े बजाये तभी वसुदेव की सेना में क्षोभ होने लगा। वीर शिरोमणि बलदेव ने विजयी श्रीकृष्ण को आगे कर विरुद्ध राजाओं पर आक्रमण कर दिया और सभी को पराजित कर दिया।
पुन: उग्रसेन राजा को बंधन से मुक्त कर नंदगोप आदि को सम्मानित किया। उस समय सभी नगरवासी व देशवासी यह जान गये कि ये श्री वसुदेव के पुत्र हैं कंस के भय से वङ्का में नंदगोप के यहाँ बढ़ रहे थे।
इधर श्री कृष्ण बलदेव के साथ अपने पिता वसुदेव व माता देवकी से मिले नमस्कार कर उन्हें संतुष्ट किया। उसी समय श्री समुद्रविजय आदि भी श्री वसुदेव की प्रेरणा से वहाँ आये हुए थे। सभी परिवार से मिलकर प्रसन्न हुए। पुन: मथुरा को राज्यभार श्री उग्रसेन राजा को सौंपकर अपने कुंटुम्बीजनों के साथ शौरीपुर चले गये।
भगवान नेमिनाथ-शौरीपुर में महाराजा समुद्र विजय राज्य संचालन कर रहे थे। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने शौरीपुर में महाराजा समुद्र विजय के महल में महारानी शिवादेवी के आंगन में तीर्थंकर के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से रत्नों की वर्षा करना प्रारंभ कर दिया वह रत्नवृष्टि दिन में तीन बार साढ़े तीन करोड़ प्रमाण थी। दिक्कुमारी देवियाँ माता शिवादेवी की सेवा कर रही थी।
माता ने एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में सोलह स्वप्न देखे, प्रात: पतिदेव के मुख से उनका फल सुनकर प्रसन्न हुई कि आपके गर्भ में तीर्थंकर बालक आ गया है। इन्द्रों ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया व माता-पिता की पूजा-भक्ति आदि करके अपने-अपने स्थान चले गये यह तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी प्रसिद्ध हुई है।
तदनंतर माता शिवादेवी ने श्रावण१ शुक्ला षष्ठी को जिनबालक को जन्म दिया। इन्द्रों के आसन कंपते ही असंख्य देव परिवार के साथ इन्द्र ने आकर शची द्वारा प्रसूतिगृह से बालक को प्राप्त कर सुमेरुपर्वत पर ले जाकर प्रभु तीर्थंकर बालक का जन्माभिषेक महोत्सव सम्पन्न कर शौरीपुर आकर माता-पिता को तीर्थंकर बालक को सौंप दिया पुन: शौरीपुर में भी सुमेरुपर्वत के सदृश जन्माभिषेक महोत्सव करके दिखाया। बालक का नाम इन्द्र ‘नेमिनाथ’ रखा२। क्रमश: तीर्थंकर बालक अपनी बालक्रीड़ा से वृद्धिंगत हो रहे थे। हरिवंशपुराण में भगवान के जन्माभिषेक का बहुत ही विस्तार से वर्णन है।
द्वारावती रचना-किसी समय राजगृह का स्वामी जरासंघ इन हरिवंशी राजाओं को नष्ट करने के उत्सुक थे। चूँकि उनकी पुत्री जीवद्यशा ने अपने पहित कंस के मरने के समाचार सुनाये थे, तभी से वे कुपित थे ही पुन: अनेक कारणों से कुपित हुए जरासंघ ने विशाल सेना लेकर शौरीपुर की ओर प्रस्थान किया।
उस समय वसुदेव, बलदेव आदि ने मिलकर मंत्रणा की कि यद्यपि तीर्थंकर नेमिनाथ व जरासंघ प्रतिनारायण को मारने वाले श्रीकृष्ण नारायण हैं फिर भी अभी कुछ समय की प्रतीक्षा करना है। अत: ये यदुकुल अर्थात् हरिवंशी राजागण मथुरा व शौरीपुर छोड़कर अपरिमित धन व अठारह करोड़ यादवों को-हरिवंशी राजा, महाराजाओं को साथ लेकर उत्तम तिथि आदि उत्तम मुहूर्त में शौरीपुर से बाहर निकले और धीरे-धीरे पड़ावों से विंध्याचल के निकट पहुँचे। मार्ग में पीछे-पीछे जरासंघ का रहा है सुनकर ये लोग युद्ध की प्रतीक्षा करने लगे। इधर समय और भाग्य के नियोग से अर्ध भरत क्षेत्र में निवास कर नेवाली देवियों ने अपनी विक्रिया से बहुत सी चिताएं रच दीं उन्हें अग्नि के ज्वालाओं से व्याप्त कर दिया। तब जरासंघ का मार्ग रुक गया, उसने एक वृद्धा से पूछा-यह किसका विशाल कटक जल रहा है, उस वृद्ध ने कहा-हे राजन्! राजगृह के प्रतापी राजा जरासंघ हरिवंशी, कुरुवंशी आदि राजाओं के पीछे लगा हुआ है, ऐसा जानकर ये हरिवंशी आदि राजागण मंत्रिणों के साथ इस अग्नि में प्रविष्ट हो गये हैं, इत्यादि।
जरासंध ने ऐसा सुनकर व इन हरिवंशी राजाओं का नाश मानकर वापस चला गया।
इधर ये समुद्र विजय, वसुदेव आदि राजागण पश्चिम समुद्र के तट पर पहुँच गये और समुद्र के किनारे जाकर समुद्र की शोभा देखने लगे। तब श्रीकृष्ण ने बलदेव के साथ पंचपरमेष्ठियों की भक्ति, स्तुति करके तीन उपवास के साथ आसन पर स्थित थे।
उसी समय श्री कृष्ण के पुण्य व श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की सातिशय भक्ति से कुबेर ने वहाँ शीघ्र ही द्वारिकापुरी नाम से समुद्र के मध्य में सुंदर नगरी की रचना कर दी। ये बारह योजन लंबी, नव योजन चौड़ी, परकोटे से युक्त व समुद्र की परिखा से घिरी हुई थी। इसमें अठारह खंडों से युक्त नारायण का महल था। स्वर्ण व रत्नों के महलों से शोभायमान ये नगरी स्वर्गपुरी के समान दिख रही थी। तभी कुबेर ने श्री कृष्ण के लिए मुकुट, हार कौस्तुम मणि, दो पीत वस्त्र, नाना आभूषण, गदा, शक्ति, नंदक नाम का खड्ग, शार्ङ्ग धनुष, दो तरकश, वङ्कामय बाण, दिव्यरथ, चंवर, छत्र आदि प्रदान किये तथा बलदेव के लिए दो नील वस्त्र, माला, मुकुट, गदा, हल, मुसल, धनुष बाणों से युक्त तरकश, दिव्यरथ छत्र आदि दिये एवं भगवान नेमिनाथ के लिए उनके योग्य वस्त्र, अलंकर आदि सामग्री प्रदान कर इन सभी इस द्वारिका नगरी के प्रवेश के लिए प्रार्थना की और स्वयं अपने स्थान चला गया। तब सभी राजाओं ने मिलकर तीर्थंकर नेमिनाथ, बलदेव व श्री कृष्ण के साथ बहुत ही वैभव से उस नगरी में प्रवेश किया। ये सब यथास्थान रह कर सुखपूर्वक वहाँ निवास कर रहे थे। कुबेर की आज्ञा से यक्ष देवों ने वहाँ साढ़े तीन दिन तक अटूट धन, धान्यादि की वर्षा की थी।
इस शौरीपुरी नगरी में कुबेर ने सर्वप्रथम एक हजार शिखरों से सुशोभित देदीप्यमान बहुत बड़ा एक जिन मंदिर बनाया था१।
महासंग्राम-किसी समय राजगृही के राजा जरासंघ पुन: किसी कारण से कुपित हो युद्ध के लिए प्रस्थान कर देते हैं। कौरव आदि राजागण उनके साथ हो जाते हैं और पाण्डव आदि राजागण श्रीकृष्ण के साथ हो जाते हैं। कुरु क्षेत्र में महासंग्राम शुरू हो जाता है। लाखों-लाखों लोग मारे जाते हैं।
उत्तर पुराण में कहा है कि-‘मनुष्यों का जो आगम में अकाल मरण बतलाया गया है, उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई थी, तो उसी युद्ध में हुई थी२।
अंत में क्रोध से भरे अर्धचक्री जरासंध ने अपना चक्ररत्न श्री कृष्ण के ऊपर चला दिया, वह भी श्रीकृष्ण की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी दाहिनी भुजा पर ठहर गया। तभी से श्रीकृष्ण ने जरासंघ का शिर छेद डाला। उसी समय आकाश से पुष्प बरसने लगे और देवों द्वारा वाद्य बजाये जाने लगे।
उस समय श्री कृष्ण नवमें नारायण तीनखण्ड के स्वामी प्रसिद्ध हो गये और बलदेव नवमें बलभद्र हो गये। हजारों राजाओं विद्याधरों से सेवित पुन: ये सभी द्वारावती में रहते हुए तीन खण्डों की प्रजा पर एक छत्र सार्वभौम शासन करने लगे।
श्री कृष्ण की आयु एक हजार वर्ष की थी, दश धनुष (१०²४·४० हाथ) ऊँचा शरीर था, नील वर्ण था। चक्ररत्न, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दण्ड और नंदक नाम का खड्ग ये सात रत्न थे। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ८ पट्टरानियाँ व सोलह हजार रानियाँ थीं। बलदेव के रत्नमाला, गदा, हल, मूसल ये चार महारत्न थे एवं आठ हजार रानियाँ थीं। दो भाई परस्पर अखंड प्रेम धारण कर समस्त वसुधा पर शासन कर रहे थे।
भगवान नेमिनाथ-किसी समय भगवान नेमिनाथ विवाह हेतु करोड़ों हरिवंशियों के साथ जूनागढ़ पहुँचे थे। वहाँ पशुओं के बंधन को देखकर विरक्त हुए और लौकांतिक देवोें द्वारा स्तुत्य दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। प्रभु ने गिरनार के सहस्राम्रवन में श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन बांस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली थी। इन्हें वहीं आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया है।
भगवान के समवसरण में समय-समय पर श्रीकृष्ण, बलदेव आदि जा-जाकर प्रभु के धर्मोपदेश को श्रावण करते रहते थे। किसी समय समवसरण में भगवान को नमस्कार कर हाथ जोड़कर प्रश्न किया, भगवन्! आज मेरे महल में दो मुनियों का युगल तीन बार और और फिर-फिर से उन्होंने तीन बार आहार लिया, प्रभो! जब मुनियों की आहार बेला एक है, एक बार ही वे भोजन लेते हैं, तो तीन बार वैâसे आये ? अथवा वे तीन मुनियों का युगल हो अत्यंत रूप की सदृशता से मुझे भ्रम हो रहा हो। प्रभो! आश्चर्य इस बात का है कि उन सभी में मेरा पुत्रों के समान स्नेह उमड़ रहा था।
देवकी रानी के इस प्रश्न के बाद प्रभु की दिव्यध्वनि खिरी और गणधरदेव श्रीवरदत्त ने कहा-
महारानी! वे छहों ही मुनि तुम्हारे ही पुत्र हैं। श्री कृष्ण के पहले तीन बार युगलिया पुत्र जन्मे थे, कंस के भयसे देव ने इन्हें भद्रिलपुूर के सुदृष्टि सेठ की सेठानी अलका यहाँ पहुँचाया था। वे छहों ही भाई मेरे समवसरण में दीक्षित होकर मुनि हुए हैं। वे इसी जन्म से मोक्ष को प्राप्त करेंगे। यही कारण है कि तुम्हारा उनमें पुत्रत्व प्रेम उमड़ रहा था। अनंतर देवकी रानी ने वहीं समवसरण में विराजमान उन पुत्ररूप मुनियों को नमस्कार किया तथा श्री कृष्ण आदि ने भी उन्हें नमस्कार कर उनकी स्तुति की।
भगवान के समवसरण में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न आदि ने व अनेक रानियों ने व अनेक राजा, महाराजाओं ने दीक्षा ली है। भगवान नेमिनाथ के गर्भ व जन्मकल्याणक शौरीपुर में हुए हैं तथा दीक्षा, केवलज्ञान व मोक्ष ये तीन कल्याणक गिरनार में हुए हैं।
श्री बलभद्र-बलदेव भी आगे तपश्चरण करके महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए हैं। ये भी आगे भविष्य में तीर्थंकर होंगे१ तथा श्री कृष्ण भी आगे इसी भरत क्षेत्र में सोलहवें तीर्थंकर श्री निर्मलनाथ नाम के होवेंगे।२ इन भावी तीर्थंकरों को भी मेरा नमस्कार होवे।
अयोध्या के राजा दशरथ के चार रानियाँ थीं, उनके नाम थे-अपराजिता, सुमित्रा, केकयी और सुप्रभा। अपराजिता (कौशल्या) ने पद्म (रामचन्द्र) नाम के पुत्र को जन्म दिया। सुमित्रा से लक्ष्मण, केकयी से भरत और सुप्रभा से शत्रुघ्न ऐसे दशरथ के चार पुत्र हुए। राजा दशरथ ने इन चारों को विद्याध्ययन आदि में योग्य कुशल कर दिया।
लंका नगरी-किसी समय अजितनाथ के समवसरण में राक्षसों के इन्द्र भीम और सुभीम ने प्रसन्न होकर पूर्व जन्म के स्नेहवश विद्याधर मेघवाहन को कहा कि हे वत्स! इस लवण समुद्र में अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं। उन द्वीपों में से एक ‘राक्षस द्वीप’ है, जो सात सौ योजन लम्बा तथा इतना ही चौड़ा है। इसके मध्य में नौ योजन ऊँचा, पचास योजन चौड़ा, ‘त्रिकूटाचल’ नाम का पर्वत है। उस पर्वत के नीचे तीस योजन विस्तार वाली लंका नगरी है। हे विद्याधर! तुम अपने बंधुवर्ग के साथ उस नगरी में जावो और सुख से रहो। ऐसा कहकर भीम इन्द्र ने उसे एक देवाधिष्ठित हार भी दिया था। इन्हीं की परम्परा में राजा रत्नश्रवा की रानी केकसी से दैदीप्यमान प्रतापी पुत्र ने जन्म लिया। बहुत पहले राजा मेघवाहन को राक्षसों के इन्द्र भीम ने जो हार दिया था, हजार नागकुमार जिसकी रक्षा करते थे, जिसकी किरणें सब ओर पैâल रही थीं और राक्षसों के भय से इतने दिनों तक जिसे किसी ने नहीं पहना था, उस बालक ने उसे मुट्ठी से खींच लिया। माता ने बड़े प्रेम से बालक को वह हार पहना दिया, तब उसके असली मुख के सिवाय उस हार में नौ मुख और दीखने लगे, जिससे सबने बालक का नाम ‘दशानन’ रख दिया। उसके बाद रानी ने भानुकर्ण, चन्द्रनखा और विभीषण को जन्म दिया था। राक्षसों द्वारा दी गई लंका नगरी में रहने से ये लोग राक्षस वंशी कहलाते थे।सीता का विवाह-मिथिला नगरी के राजा जनक की रानी विदेहा की सुपुत्री सीता थी। किसी समय राजा जनक ने पुत्री के ब्याह के लिए स्वयंवर मंडप बनवाया और यह घोषणा कर दी कि जो वङ्काावर्त धनुष को चढ़ायेगा, वही सीता का पाfत होगा। श्री रामचन्द्र ने उस वङ्काावर्त धनुष को चढ़ाया और लक्ष्मण ने समुद्रावर्त धनुष को चढ़ाया। रामचन्द्र के गले में सीता ने वर-माला डाली एवं चन्द्रवर्धन विद्याधर ने अपनी अठारह कन्याओं की शादी लक्ष्मण से कर दी। उस समय भरत को विरक्त देख केकयी की प्रेरणा से पुन: स्वयंवर विधि से राजा कनक ने अपनी लोकसुन्दरी का ब्याह भरत के साथ कर दिया।
रामचन्द्र का वनवास-किसी समय राजा दशरथ वैराग्य को प्राप्त हो गये और रामचन्द्र को राज्यभार देकर दीक्षा लेने का निश्चय किया। उसी समय भरत भी विरक्तचित्त होकर दीक्षा के लिए उद्यत होने लगे। इसी बीच भरत की माता केकयी घबराकर तथा मन में कुछ सोचकर पति के पास पहुँची और समयोचित वार्तालाप के अनन्तर उसने पूर्व में ब्याह के समय सारथी का कुशल कार्य करने के उपलक्ष्य में राजा द्वारा प्रदत्त ‘वर’ जो कि अभी तक धरोहर रूप में था, उसे माँगा और पति की आज्ञा के अनुसार उसने कहा कि ‘मेरे पुत्र के लिए राज्य प्रदान कीजिए’। यह वर देकर राजा दशरथ ने रामचन्द्र को बुलाकर रामचन्द्र से शोकपूर्ण शब्दों में यह सब हाल कह दिया। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र पिता को अनेक प्रकार से समझाकर शोकमुक्त करके भ्राता लक्ष्मण और सती सीता के साथ वन में चले गये और दशरथ ने भी मुनि दीक्षा ले ली। उस समय भरत ने बड़ी जबरदस्ती से राज्यभार संभाला।रावण की मृत्यु-वनवास के प्रवास में किसी समय धोखे से रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। तब हनुमान और सुग्रीव आदि विद्याधरों की सहायता से रामचन्द्र ने रावण से युद्ध प्रारंभ किया। रावण प्रतिनारायण था। उसके चक्ररत्न से ही लक्ष्मण के द्वारा उसकी युद्धभूमि में मृत्यु हो गई और लक्ष्मण उसी चक्ररत्न से ‘नारायण’ पदधारी हो गये।सीता का निष्कासन-बलभद्र पदधारी रामचन्द्र और लक्ष्मण नारायण बहुत काल तक अयोध्या में सुखपूर्वक राज्य करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे कि एक समय अकारण ही सीता के अपवाद की चर्चा रामचन्द्र तक आई और राम ने उस निर्दोष गर्भवती सीता को धोखे से वन में भेज दिया। जब वन में विह्वलचित्त सीता विलाप कर रही थी, तब पुंडरीकपुर का स्वामी राजा वङ्काजंघ वहाँ हाथी पकड़ने के लिए सेना सहित आया था। वह बड़े ही धर्मप्रेम से सीता को अपने साथ ले गया। वहीं सीता को युगल पुत्र उत्पन्न हुए जिनका अनंगलवण और मदनांकुश नाम रखा। बाल लीला से माता को प्रसन्न करते हुए ये बालक किशोर अवस्था को प्राप्त हुए। उनके पुण्य से प्रेरित ‘सिद्धार्थ’ नामक क्षुल्लक उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। वे क्षुल्लक जी प्रतिदिन तीनों संध्याओं में मेरुपर्वत के चैत्यालयों की वंदना करके क्षणभर में वापस आ जाते थे। थोड़े ही समय में क्षुल्लक जी ने उस बालकों को सम्पूर्ण शस्त्र और शास्त्र विद्याएँ ग्रहण करा दीं।
रामचन्द्र का पुत्रों के साथ युद्ध-किसी समय घूमते-घूमते नारद क्षुल्लक वेष में वहाँ आ गये और नमस्कार करते हुए दोनों कुमारों को आशीर्वाद दिया कि ‘राजा रामचन्द्र और लक्ष्मण जैसी विभूति शीघ्र ही आप दोनों को प्राप्त हो’। इसके उत्तर में उन्होंने कहा-हे भगवन्! वे राम-लक्ष्मण कौन हैं? नारद ने सीता के वन में छोड़ने तक का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। तब इन बालकों ने पूछा-यहाँ से अयोध्या कितनी दूर है? नारद ने कहा-साठ योजन दूर है। दोनों कुमार अयोध्या पर चढ़ाई करने के लिए उद्यत हो गये। माता ने बहुत कुछ समझाया कि हे पुत्रों! तुम विनय से जाकर पिता और चाचा को नमस्कार करो, यही न्यायसंगत है किन्तु वे बोले कि ‘‘इस समय वे रामचन्द्र हमारे शत्रु के स्थान को प्राप्त हैं।’’ इत्यादि कहकर वे जैसे-तैसे माता की आज्ञा लेकर और सिद्ध भगवान को नमस्कार कर युद्ध करने के लिए चल पड़े। वहाँ संग्राम भूमि में महा भयंकर युद्ध होने लगा।
अनन्तर कोपवश लक्ष्मण ने चक्ररत्न का स्मरण करके मदनांकुश को मारने के लिए चला दिया किन्तु वह चक्ररत्न वापस लक्ष्मण के पास आ गया। इसी बीच में सिद्धार्थ क्षुल्लक ने रामचन्द्र और लक्ष्मण को सच्ची घटना सुना दी। तब उन लोगों ने शस्त्र डाल दिये और पिछले शोक एवं वर्तमान के हर्ष से विह्वल हो पुत्रों से मिले। पुत्रों ने भी विनय से सिर झुकाकर पिता को नमस्कार किया।
सीता की अग्नि परीक्षा-अनंतर रामचन्द्र की आज्ञा से भामंडल, विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि बड़े-बड़े राजा पुंडरीकपुर से सीता को ले आये। सभा में रामचन्द्र की मुखाकृति को देख सीता किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी वहाँ खड़ी रहीं। तब राम ने कहा कि सीते! सामने क्यों खड़ी है? दूर हट, मैं तुझे देखने के लिए समर्थ नहीं हूँ। तब सीता ने कहा कि ‘‘आपके समान दूसरा कोई निष्ठुर नहीं है, दोहला के बहाने मुझ गर्भिणी को, वन में भेजना क्या उचित था? यदि मेरे प्रति आपको थोड़ी भी कृपा होती तो आर्यिकाओं की वसति में मुझे छोड़ देते। अस्तु! हे देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों और जो भी आज्ञा दें मैं पालने को तैयार हूँ। तब राम ने सोचकर अग्नि परीक्षा का निर्णय दिया। तब सीता ने हर्षयुक्त हो ‘एवमस्तु’ ऐसा कहकर स्वीकार किया। उस समय हनुमान, नारद आदि घबरा गये।
महाविकराल अग्निकुंड धधकने लगा। सीता पंचपरमेष्ठी की स्तुति-पूजा करके मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर को नमस्कार करके बोलीं ‘मैंने स्वप्न में भी राम के सिवा किसी अन्य मनुष्य को मन, वचन, काय से चाहा हो तो हे अग्नि देवते! तू मुझे भस्मसात् कर दे अन्यथा नहीं जलावे’ इतना कहकर वह सीता उस अग्निकुण्ड में कूद पड़ी। उसी समय उसके शील के प्रभाव से वह अग्नि शीतल जल हो गयी और कल-कल ध्वनि करती हुई बावड़ी लहराने लगी। वह जल बाहर चारों तरफ पैâल गया और लोक समुदाय घबराने लगा किन्तु वह जल रामचन्द्र के चरण स्पर्श करके सौम्य दशा को प्राप्त हो गया, तब लोग सुखी हुए। वापी के मध्य कमलासन पर सीता विराजमान थीं, आकाश से देव पुष्पवृष्टि कर रहे थे। देवदुंदुभि बाजे बज रहे थे। लवण और अंकुश आजू-बाजू खड़े थे।
ऐसी सीता को देखकर रामचन्द्र उसके पास गये और बोले-हे देवि! प्रसन्न होवो और मेरे अपराध क्षमा करो। इत्यादि वचनों को सुनकर सीता ने कहा-हे राजन्! मैं किसी पर कुपित नहीं हूँ आप विवाद को छोड़ो। इसमें आपका या अन्य किसी का दोष नहीं है, मेरे पूर्वकृत पाप कर्मों का ही यह विपाक था। अब मैं स्त्री पर्याय को प्राप्त न करूँ, ऐसा कार्य करना चाहती हूँ, ऐसा कहते हुए सीता ने निःस्पृह को अपने केश उखाड़कर राम को दे दिये। यह देख रामचंद्र मूर्च्छित हो गये। इधर जब तक चन्दन आदि द्वारा राम को सचेत किया गया, तब तक सीता पृथ्वीमती आर्यिका से दीक्षित हो गई। जब रामचन्द्र सचेत हुए, तब सीता को न देखकर शोक और क्रोध में बहुत ही दु:खी हुए और सीता को वापस लाने के लिए देवों से व्याप्त उद्यान में पहुँचे। वहाँ मुनियों में श्रेष्ठ सर्वभूषण केवली को देखा और शांत होकर अंजलि जोड़कर नमस्कार करके मनुष्यों के कोठे में बैठ गये। वहीं पर आर्यिकाओं के कोठे में वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्यिका सीता बैठी थीं। केवली भगवान का विशेष उपदेश सुनकर राम ने संतोष प्राप्त किया।
रामचन्द्र की दीक्षा और निर्वाणगमन-अनन्तर अनंगलवण के पुत्र अनन्तलवण को राज्य देकर रामचन्द्र ने आकाशगामी सुव्रत मुनि के समीप निर्ग्रन्थ दीक्षाधारण कर ली। उस समय शत्रुघ्न, विभीषण, सुग्रीव आदि कुछ अधिक सोलह हजार राजा साधु हुए और सत्ताईस हजार प्रमुख-प्रमुख स्त्रियाँ श्रीमती नामक साध्वी के पास आर्यिका हुईं। रामचन्द्र उत्तम चर्या से युक्त गुरु की आज्ञा लेकर एकाकी विहार करने लगे।पाँच दिन का उपवास कर धीर वीर योगी रामचन्द्र पारणा के लिए नन्दस्थली नगरी में आये। उनकी दीप्ति और सुन्दरता को देखकर नगर में बड़ा भारी कोलाहल हो गया। पड़गाहन के समय हे स्वामिन्! यहाँ आइये! यहाँ ठहरिये! इत्यादि अनेकों शब्दों से आकाश व्याप्त हो गया, हाथियों ने भी खम्भे तोड़ डाले, घोड़े हिनहिनाने लगे और बंधन तोड़ डाले, उनके रक्षक दौड़ पड़े। प्रतिनन्दी ने भी क्षुभित हो वीरों को आज्ञा दी कि जाओ! इन मुनिराज को मेरे पास ले आओ। इस प्रकार भटों के कहने से महामुनि रामचन्द्र अन्तराय जानकर वापस चले गये, तब वहाँ और अधिक क्षोभ मच गया।अनन्तर रामचन्द्र ने पाँच दिन का दूसरा उपवास ग्रहण कर यह प्रतिज्ञा ले ली कि मुझे वन में आहार मिलेगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं। कारणवश गये हुए इन्हीं राजा प्रतिनन्दी ने रानी सहित वन में रामचन्द्र को आहारदान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। रामचन्द्र को अक्षीणमहानस ऋद्धि थी अत: उस बर्तन का अन्न उस दिन अक्षीण हो गया। घोराघोर तपश्चरण करते हुए रामचन्द्र को माघ शुक्ल द्वादशी के दिन केवलज्ञान प्रगट हो गया। तब देवों ने आकर गंधकुटी की रचना की। रामचन्द्र की आयु सत्तर हजार वर्ष की और शरीर की ऊँचाई सोलह धनुष प्रमाण थी। ये रामचन्द्र सर्वकर्म रहित होकर तुंगी से मुक्ति को प्राप्त हुए हैंं। आज भी राम, लक्ष्मण और सीता का आदर्शजीवन सर्वत्र गाया जाता है।इस प्रथमानुयोग में ‘सृष्टि का क्रम’ बताकर भगवान ऋषभदेव का जीवनवृत्त कहा गया है पुन: कुछ प्रधान शलाका पुरुषों का इतिहास बताया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को आदिपुराण, उत्तरपुराण, हरिवंश पुराण आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए।