रचयित्री-गणिनी ज्ञानमती
—चौबोल छंद—
जय जय वृषभ अजित संभव जिन, अभिनंदन आनंद भरो।
जय जय सुमतिनाथ पद्मप्रभ, श्रीसुपार्श्व भव पाश हरो।।
जय जय चंद्रप्रभ चंद्रानन, पुष्पदंत शीतल श्रेयांस।
जय जय वासुपूज्य विमलप्रभु, जय अनंत जय धर्म जिहाज।।१।।
जय जय शांतिनाथ शांतिप्रद, कुंथु अरहजिन मल्लिजिनेश।
जय जय मुनिसुव्रत व्रतदाता, नमि नेमिश्वर पार्श्व महेश।।
जय जय वीरनाथ परमेश्वर, जय भुवनेश्वर दया करो।
जय जय परमानंद परमपद, देकर मुझको तृप्त करो।।२।।
जय जय वृषभसेन आदिक सब, चौदह सौ उनसठ गणनाथ।
जय जय पूर्वधरादि मुनिगण, सात संघ जग में विख्यात।।
छत्तिस हजार नव सौ चालिस, कहे पूर्वधर मुनि पुंगव।
बीस लाख औ पाँच सौ पचपन, शिक्षक मुनि हैं विगत विभव।।३।।
एक लाख औ सहस सत्ताइस, छह सौ अवधीज्ञानी हैं।
एक लाख औ सहस पचासी, आठ सौ केवलज्ञानी हैं।।
विक्रिय ऋद्धिधारक मुनि दो लाख पचीस सहस नवशत।
विपुलमती मुनि एक लाख औ, चौवन सहस सु नव सौ पाँच।।४।।
वादकुशल मुनि एक लाख औ, सोलह सहस तीन सौ जान।
चौबिस तीर्थंकर के ये सब, सात संघ के मुनी महान्।।
सब मुनि लक्ष अठाइस जानो, सहस सु अड़तालीस प्रमाण।
लाख पचास औ हजार छप्पन, द्विशत पचास आर्यिका मान।।५।।
श्रावक अड़तालिस लक्षावधि, कही श्राविका छ्यानवे लाख।
असंख्यात सुरअसुरेन्द्रादि, नर तिर्यंच कहे संख्यात।।
द्वादशगण से वेष्टित जिनवर, त्रिभुवनपति से वंदित हैं।
समवसरण के अतुलित वैभव, प्रातिहार्य से मंडित हैं।।६।।
अंत: वैभव अनंत दर्शन, ज्ञानवीर्य सुख चार महान्।
छ्यालिस गुणयुत दोष अठारह, रहित जिनेश्वर गुण की खान।।
जय जय मुक्तिरमा परमेश्वर, जय जग शंकर विष्णु जिनेश।
जय जय शिवसुखकर्ता ब्रह्मा, जय जग तारक जिष्णु महेश।।७।।
—दोहा—
तीर्थंकर गणधर गुरू, सर्व साधु जग वंद्य।
नमत ‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो, मिले सौख्य अभिनंद्य।।८।।